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पदार्थों के धर्म का मुनिद्वय पर आरोप किया गया है। इस वक्रता से मुनिद्वय को शारीरिक दीप्ति के साथ आत्मिक सौन्दर्य भी द्योतीत हो रहा है।
इस प्रकार उत्तराध्ययन एवं अन्य आगम ग्रंथों में ऐसे अनेक स्थल हैं, जहां पर उपचारवक्रता का उत्कृष्ट निदर्शन मिलता है । इस पर स्वतंत्र शोध-प्रबन्ध की आवश्यकता है।
सन्दर्भ :
1. वक्रोक्ति जीवितम् 2.13-14 2. आचारांगसूत्र 1.3.3.64 3. तत्रैव 1.3.3.66 4. संस्कृत धातुकोष, पृ. 58 5. आचारांग 1.3.3.67 6. तत्रैव 1.3.4.71 7. वही, 1.3.4.78 8. वहीं, 1.3.4.83 9. वही, 1.4.3.33 10. वही, 1.5.3.59 11. वही, 1.5.6.123-125 12. वही, 1.6.5.108 13. आचारचूला 16.795 14. तत्रैव 16.797 15. वहीं, 16.798 16. वही, 16.800 17. वही, 16.801 18. वही, 16.802 19. वही, 15.766 20. वही, 15.762
21. वही, 15.754 22. वही, 15.738 23. सूत्रकृतांग 1.2.31-32 24. तत्रैव 1.1.3.4 25. वही, 1.2.1.6 26. वही, 1.2.10 27. वही, 1.2.2.11 28. वही, 1.6.3 29. वही, 1.6.8 30. वही, 1.6.14 31. उत्तराध्ययनसूत्र 12.12 32. तत्रैव 1.1 33. वही. 1.5 34. वही, 1.6 35. वही, 1.15 36. वही, 37. वही, 22.7 38. वही, 22.10 39. वही, 22.6 40. वही, 23.18
रीडर, प्राकृत एवं जैन आगम विभाग जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) लाडनूँ -341 306 (राजस्थान)
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तुलसी प्रज्ञा अंक 116-117
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