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________________ जाती है। उत्तराध्ययन में ऐसे अनेक स्थल हैं, जहां पर अचेतन पदार्थ के धर्म का चेतन पर आरोप किया गया है। 2.1 कठोर संस्पर्श, छेदन-भेदन आदि से निर्जीव पदार्थ अविचल एवं स्थिर होता है, क्योंकि वह अचेतन होता है, इसलिए उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। सजीव पदार्थ में विचलन होना स्वाभाविक है, लेकन यदि सजीव प्राणी भी स्थिर रहे तो उसकी धैर्यता, कष्ट सहिष्णुता एवं गंभीरता का अभिव्यंजन होता है । ऋषि कहते हैं - इह खलु बावीसं परीसहा समणेण भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया परिव्वयन्तो पुट्ठो नो विहन्नेजा। 2.2 'पंकभूया उ इथिओ' अर्थात् ब्रह्मचारी के लिए स्त्रियां दलदल के समान हैं। यहां पर दलदल-अचेतन के धर्म का स्त्री-चेतन पर आरोप किया गया है। जैसे दलदल में फंसा जीव अपने मार्ग से गिर जाता है, लक्ष्य तक नहीं जाता तथा वहीं विषण्ण होकर घोर मृत्यु को प्राप्त होता है, उसी प्रकार स्त्री में फंसा ब्रह्मचारी कभी त्राण नहीं पा सकता है। बारबार विषण्ण होता हुआ मृत्यु को प्राप्त होता है । इस तथ्य की अभिव्यंजना के लिए इस धर्मविपर्यय मूलक पंकभूया उ इथिओ' वाक्य का प्रयोग किया गया है। 2.3 'विजुसोयामणिप्पभा'37 वह राजवरकन्या राजीमती बिजली जैसी प्रभा वाली थी। यहां राजीमती के सौन्दर्यातिशयत्व को प्रतिपादित करने के लिए विद्युत्सौदामिनी को उपमान बनाया गया है। वह रूपवती थी, उसकी शारीरिक कांति अद्भुत थी. इस तथ्य की अभिव्यंजना के लिए प्रस्तुत विचलनमूलक वाक्य का प्रयोग किया गया है। 2.4 सिरे चूड़ामणी जहा38 – अर्थात् हाथी पर आरूढ़ अरिष्टनेमि सिर पर चूड़ामणि की भांति सुशोभित हुआ। यहां पर चूड़ामणि-अचेतन के धर्म का अरिष्टनेमि-चेतन पर आरोप किया गया है। इस धर्म-विपर्यय मूलक प्रयोग का आधार है - अरिष्टनेमि की श्रेष्ठता एवं शोभाचारूता का समुद्घाटन। 3. अन्य के धर्म पर अन्य का आरोप- इस संवर्ग में चेतन के धर्म का चेतन पर, पशु के धर्म का मनुष्य पर आरोप आदि से सम्बद्ध उपचारवक्रता को दर्शाया गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में अनेक स्थलों पर ऐसे उदाहरण मिलते हैं। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं। 3.1 झसोयरो – अर्थात् अरिष्टनेमि झषोदर-मछली के समान उदर वाला था। इसमें मछली के धर्म को अरिष्टनेमि-मनुष्य पर आरोपित किया गया है। यहां पर विशेषणवक्रता का भी सुन्दर उदाहरण उपस्थित है। 3.2 केसीकुमार समणे गोयमे य महायसे। उभओ निसण्णा सोहन्ति चंदसूरसमप्पभा॥० अर्थात् महान् यशस्वी कुमार श्रमण केशी और महान् यशस्वी गौतम बैठे हुए थे। वे दोनों चन्द्रमा और सूर्य की तरह सुशोभित हो रहे थे। यहां पर चन्द्रमा और सूर्य दो आकाशीय तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002 - - 31 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524611
Book TitleTulsi Prajna 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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