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हरिभद्र और अभयदेव के शिष्य मलधारि हेमचन्द्र की टीकायें हैं। अनुयोग द्वार का मुख्य विषय चौदह अनुयोगद्वार हैं। प्रश्नोत्तर की शैली में इसमें प्रमाण, पल्योपम, सागरोपम, संख्यात, असंख्यात और अनन्त के प्रकार तथा निक्षेप, अनुगम और नय का प्ररूपण है।
अनुयोगद्वार सूत्र में नय सम्बन्धी विशद विवेचन है। अनुयोगद्वार सूत्र में ही प्रथम बार सातों नयों की पृथक्-पृथक् स्पष्ट परिभाषाएँ मिलती हैं।
वस्तुत: अनुयोगद्वार आवश्यक-सूत्र के सामायिक नामक प्रथम अध्ययन की टीका है। वहां यह कहा गया है कि सामायिक में उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय नामक.अनुयोगद्वार हैं। इनमें भी विशेषकर चार निक्षेपों पर बल दिया गया है। द्रव्य और भाव को क्रमश: बाह्यपक्ष और आन्तरिक पक्ष बतलाया गया है।
___अनुयोगद्वार में नय की चर्चा नय प्रमाण के रूप में हुई है। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार यहां प्रमाण का प्रयोग व्यापक अर्थ में हुआ है। इससे प्रतीत होता है कि आर्यरक्षित के काल में नय को प्रमाण का अंश मानने का सिद्धान्त स्थापित ही नहीं हुआ था, क्योंकि उत्तरवर्ती जैन दार्शनिकों ने नय को प्रमाण नहीं माना बल्कि उसको अंश स्वीकार किया है। वे मानते हैं कि प्रमाण का विषय है – अनन्तधर्मात्मक अखण्ड वस्तु और नय का विषय है उसका एक धर्म। एक दृष्टि से नय न प्रमाण है और न अप्रमाण है किन्तु प्रमाणांश है।"
नय प्रमाण को प्रस्थक, वसति तथा प्रदेश ----- इन तीन दृष्टान्तों से समझाया गया है।"
आगम परम्परा में अभी तक जो ज्ञात हो पाया है उसके अनुसार सात नयों की परिभाषा पहली बार अनुयोगद्वार में ही देखने को मिली । उसका विवरण निम्न प्रकार से है - 1. नैगम नय-जो अनेक मानों (प्रकारों) से वस्तु के स्वरूप को जानता है,
अनेक भावों से वस्तु का निर्माण करता है, वह नैगम नय है। 2. संग्रह नय- सम्यक् प्रकार से गृहीत एक जाति को प्राप्त अर्थ जिसका विषय
है, वह संग्रह नय का वचन है।" 3. व्यवहार नय-व्यवहार नय सर्वद्रव्यों के विपय में विनिश्चय (विशेष भेद
रूप में निश्चय) करने के निमित्त प्रवृत्त होता है। ऋजुसूत्र नय-ऋजुसूत्रानयविधि-प्रत्युत्पन्नग्राही (वर्तमान पर्याय को ग्रहण
करने वाली) जानना चाहिए। 5. शब्द नय-शब्द नय (ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा सूक्ष्मतर विषय वाला होने से)
पदार्थ को विशेषतर मानता है।" 6. समभिरूढ़ नय- समभिरूढ़ नय वस्तु का अन्यत्र संक्रमण अवस्तु
(अवास्तविक) मानता है।' 7. एवंभूत नय --- एवंभूत नय व्यञ्जन (शब्द), अर्थ एवं तदुभय को विशेष रूप
से स्थापित करता है। इस प्रकार अनुयोगद्वार में अपेक्षाकृत अधिक व्यवस्थित रूप से कुछ विकसित रूप
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तुलसी प्रज्ञा अंक 116-117
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