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में नयों का प्ररूपण है। किन्तु कठिनाई यह है कि अनुयोगद्वार के प्रारम्भिक सूत्रों में जिस प्रकार से नयों का प्रयोग है और ग्रन्थ के उत्तरार्द्ध में गाथा रूप से नयों की परिभाषायें जिस प्रकार से दिखती हैं वे एक लेखक की प्रतीत नहीं हो रही हैं । कुछ पाठान्तर भेद से ये ही गाथायें ज्यों की त्यों विशेषावश्यक भाष्य में भी उपलब्ध हैं । 25 यह भी संभव है कि ये गाथायें प्रक्षिप्त हों। जो भी हो, यह तो स्पष्ट हो गया है कि अनुयोगद्वार सूत्र से नय का विकास प्रारम्भ हो चुका था।
आचार्य कुन्दकुन्द के परमागम (विक्रम की प्रथम शती)
आचार्य कुन्दकुन्द जैन धर्म के महान् आचार्य थे। समयसार, नियमसार, प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय तथा पाहुडों जैसे महान् आध्यात्मिक तथा दार्शनिक आगमों का प्रणयन करके जैनदर्शन को एक नयी दिशा प्रदान की । यद्यपि आचार्य कुन्दकुन्द ने नैगमादि सात नयों का विशेष उल्लेख नहीं किया तथापि निश्चय नय, व्यवहार नय – इन दो आध्यात्मिक नयों को लेकर उनके द्वारा की गयी विवेचना अद्वितीय है। 'कसायपाहुड' तथा 'षट्खण्डागम' में ओघ और निर्देश नयों के प्रयोग मिलते हैं ।" ये नय कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा प्रयुक्त व्यवहार नय और निश्चय नय के तुल्य हैं। आचार्य कुन्दकुन्द से पूर्व भगवती सूत्र में निश्चय नय और व्यवहार नय के उल्लेख मिलते हैं । 7
इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द ने नयों के माध्यम से आध्यात्मिक यात्रा का शुभारम्भ किया । निष्कर्षत: हम यह कह सकते हैं कि आगम युग नय के उद्भव का युग था जो कालान्तर में दर्शन युग में अपने विकसित स्वरूप को लिये हुए हमारे सामने है। दर्शन युग में भीनय के विकास की अपनी अलग परम्परा है। 'नय' न्यायशास्त्र को जैनदर्शन की मौलिक देन होने के कारण अभी इस विषय पर और अधिक अनुसंधान अपेक्षित है।
सन्दर्भ सूची
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तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002
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