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खण्ड हैं। प्रथम खण्ड - जीवस्थान। द्वितीय खण्ड - खुद्दाबन्ध, तृतीय खण्ड - बन्धस्वामित्वविचय, चतुर्थ खण्ड- वेदनाखण्ड, पंचम खण्ड-वर्गणा खण्ड और छठवां खण्ड- महाबन्ध । इसमें चतुर्थ खण्ड-वेदना खण्ड तथा पंचम-वर्गणा खण्ड में नैगमादि नयों का उल्लेख है। विभिन्न विषयों के प्रतिपादन में इनका सहारा लिया गया है । वेदनाखण्ड में वेदना निक्षेप अनुयोगद्वार के अन्तर्गत 'वेदना' शब्द के अनेक अर्थ निर्दिष्ट किये गये हैं। उनमें कहां, कौन-सा अर्थ ग्राह्य है, यह नय भेदों के माध्यम से ही समझाया जा सकता है। इसीलिए वेदना खण्ड में वेदना-नय --विभाषणा नाम का द्वितीय अधिकार ही बना दिया।
पखंडागम ग्रन्थ में भी नय की परिभाषा सम्बन्धी कोई सूत्र देखने में नहीं आया। भगवती
द्वादशांगी के पांचवें अंग का नाम है - 'विआहपण्णत्ती' जो भगवती सूत्र के नाम से प्रसिद्ध है। इस आगम में अनेकांत तथा नय का विवेचन किया गया है । यद्यपि यहां सात नयों का उल्लेख नहीं है और न ही नय सम्बन्धी कोई परिभाषा कही गयी है, तथापि नय सिद्धान्त के मूल को यहां खोजा जा सकता है।
नयों का प्रयोग देखें तो मुख्य रूप से द्रव्यार्थिक नय एवं पर्यायार्थिक नय तथा निश्चयनय एवं व्यवहार नय की चर्चा यहां पर आयी है। भगवती में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-इन चार दृष्टियों का समावेश दो नयों में या दो दृष्टियों में किया गया है। वे दो नय हैं -- द्रव्यार्थिक और भावार्थिक या (पर्यायार्थिक)।" द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दोनों का भगवती में क्या अभिप्राय है? यह बात भगवती के वर्णन से स्पष्ट हो जाती है। भगवती के अनुसार अव्युच्छित्तिनय की अपेक्षा नैरयिक जीव शाश्वत हैं और व्युच्छित्ति नय की अपेक्षा नैरयिक जीव अशाश्वत ।
___ इससे यह स्पष्ट तो हो ही जाता है कि वस्तु की नित्यता का प्रतिपादन द्रव्यदृष्टि से होता है और अनित्यता का प्रतिपादन पर्यायदृष्टि से अर्थात् द्रव्य नित्य है और पर्याय अनित्य । इसी से यह भी फलित हो जाता है कि द्रव्यार्थिक दृष्टि अभेदगामी है और पर्यायार्थिक दृष्टि भेदगामी, क्योंकि नित्य में अभेद होता है और अनित्य में भेद।
भगवती में व्यावहारिक और नैश्चयिक नयों के माध्यम से भी वस्तु स्वरूप को समझाने का प्रयास किया गया है। यहां फाणित प्रवाही (गीला) गुड़ को दो नयों में समझाया गया है। व्यावहारिक नय की अपेक्षा से तो वह मधुर कहा जाता है पर नैश्चयिक नय से वह पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस और आठ स्पर्शों से युक्त है।'
इससे यह स्पष्ट होता है कि व्यावहारिक दृष्टि बाह्य गुण (सामान्य गुण) को तथा नैश्चयिक दृष्टि आन्तरिक गुणों को ग्रहण करती है। आचार्य कुन्दकुन्द ने व्यवहार-निश्चयनय का अध्यात्म तथा तत्त्वज्ञान के अनेक विषयों में प्रयोग किया है। अनुयोगद्वार सूत्र
अनुयोगद्वार सूत्र आर्यरक्षित द्वारा रचित माना जाता है। विषय और भाषा की दृष्टि से यह सूत्र काफी अर्वाचीन मालूम होता है। इस ग्रन्थ पर जिनदासगणि महत्तर की चूर्णि तथा तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002 -
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