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________________ नय ही सर्वोपरि सिद्ध हो रहा है। तथ्य का स्रोत आचार्य महाप्रज्ञ' का निम्नलिखित वक्तव्य हैं जो विचारणीय है 'अनेकान्त का स्वरूप है नयवाद या दृष्टिवाद । मध्य युग में तर्कप्रधान आचार्यों ने अनेकान्त का प्रमाण के साथ संबंध स्थापित किया है, वह मौलिक नहीं है । अनेकान्तवाद के अनुसार प्रमाण औपचारिक है, वास्तविक है नय । ' आगम युग - कषायपाहुड, षट्खंडागम, भगवती, अनुयोगद्वार तथा आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रंथों को हम आगम युग का मान रहे हैं। आगम युग में नय का उद्भव हो रहा था । अनुयोगद्वार तथा आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रंथों में नयों का जिस प्रकार प्रयोग दिखता है उससे प्रतीत होता है कि नयों की अवधारणा स्पष्ट रूप से सामने आ चुकी थी । कषायपाहुड़ -- - आचार्य गुणधर द्वारा शौरसेनी प्राकृत भाषा में रचित 'कषायपाहुडसुत्त' नामक जैन कर्म-सिद्धान्त विषयक परम्परा का एक प्राचीनतम आगम ग्रन्थ है, जो कि विक्रम पूर्व की प्रथम शती का ग्रन्थ माना जाता है। 'कषायपाहुडसुत्त' में मुख्यतः कषायों की चर्चा है। जहां तक नयों का संबंध है, राग-द्वेष की चर्चा के प्रसंग में नयों का प्रयोग किया गया है। मूल 'कसायपाहुडसुत्त' की गाथा में नय शब्द का प्रयोग हुआ है। प्रथम पेज्जदोसविहत्ती अधिकार में ही प्रश्न उठाया गया है कि किस-किस कषाय में किस-किस नय की अपेक्षा प्रेय या द्वेष का व्यवहार होता है ? अथवा कौन नय किस द्रव्य में द्वेष को प्राप्त होता है और कौन नय किस द्रव्य में प्रिय के समान आचरण करता है ? यहां इस सूत्र का यह अभिप्राय है कि प्रेय और द्वेष किसे कहते हैं ? उनका कषायों से क्या सम्बन्ध है? वे प्रेय (राग) और द्वेष किस-किस नय के विषय होते हैं ? और यह रागद्वेष से भरा हुआ जीव किस द्रव्य को द्वेषकर या अपना अहितकारी समझकर उनमें द्वेष का व्यवहार करता है और किस द्रव्य को प्रियकर या हितकारी समझकर उसमें राग करता है ? इस प्रकार के प्रश्नों को गुणधराचार्य ने उठा तो दिया किन्तु स्वयं उत्तर स्वरूप कोई सूत्र नहीं कहा फिर भी गुणधराचार्य के अभिप्राय को समझकर यतिवृषभाचार्य ने 'कसायपाहुडचूर्णि' की रचना की जिसमें नैगमादि नयों की अच्छी चर्चा भी है तथा इनके माध्यम से गुणधराचार्य के मूल वक्तव्य को स्पष्ट करके नये आयाम प्रस्तुत किये हैं। वे कहते हैं कि इस गाथा के पूर्वार्ध की विभाषा - विशेष व्याख्या करनी चाहिए। चूर्णिकार ने अन्य व्याख्यायें तो प्रस्तुत की ही किन्तु हमारा ध्यान उनके एक विशेष कथन की तरफ गया जिसमें उन्होंने रहस्य खोला कि ग्रन्थ का जो नाम 'कसायपाहुड़' है वह भी नय निष्पन्न है। 42 यहां एक बात और ध्यान देने योग्य है कि पूरे ग्रन्थ को नयों में ही व्याख्यायित करने के बाद भी यहां कोई नय की परिभाषा सम्बन्धी गाथा या सूत्र देखने में नहीं आया । षट्खंडागम 'षट्खंडागम' के रचयिता धरसेनाचार्य के शिष्य पुष्पदन्त व भूतबली हैं। इसके छह तुलसी प्रज्ञा अंक 116 117 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524611
Book TitleTulsi Prajna 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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