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जैन दर्शन में 'नय सिद्धान्त का उद्भव
-डॉ. अनेकान्त कुमार जैन
जैन दर्शन में नय सिद्धान्त का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। वस्तु के बहुआयामी स्वरूप को समझने के लिए 'नय' जैनों की एक मौलिक खोज है। 'नय' सिद्धान्त के चिन्तन के उद्भव एवं विकास की एक सुदीर्घ परम्परा है।
दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों ही मतों के ग्रन्थों में नय विषयक पर्याप्त चिन्तन मिलता है। दोनों ही परम्पराओं में इस विषय पर कोई विशेष मतभेद भी नहीं है। 'नय' जैनदर्शन के द्वारा भारतीय दर्शन को दी गयी मौलिक देन इसलिये है, क्योंकि यह अवधारणा किसी अन्य भारतीय दर्शन में प्राप्त नहीं होती। आचार्य महाप्रज्ञ का मत है कि 'जैन परम्परा में नयों की चर्चा प्राचीन है जबकि प्रमाण की चर्चा अपेक्षाकृत अर्वाचीन है।"
__ यदि हम नयों के उद्भव की खोज करना चाहें तो हमें दो परम्परायें मिलती हैं जो कि कालक्रम की दृष्टि से लगभग समकालिक हैं ---
1. नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र एवं शब्दनय के इन पांच भेदों की चर्चा, जो कसाय पाहुड चूर्णि नामक ग्रन्थ में उपलब्ध है।
2. द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नामक नय के दो भेदों की चर्चा, जिसका उल्लेख भगवती सूत्र में है, जहां पर्यायार्थिक नय को भावार्थिक नय कहा गया है।'
। यद्यपि ये दोनों परम्परायें आपाततः परस्पर असम्बद्ध प्रतीत होती हैं तथापि जैसा कि दिगम्बर' तथा श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं के परवर्ती जैनाचार्यों ने स्पष्ट किया है कि प्रथम परम्परा मान्य पांच नयों का समावेश द्वितीय परम्परा मान्य दो नयों में हो जाता है। उल्लेखनीय है कि जैनदर्शन के इतिहास में ये दोनों ही परम्परायें कषायपाहुड़, षट्खण्डागम, अनुयोगद्वार और तत्त्वार्थसूत्र जैसी प्रामाणिक कृतियों में साथ-साथ पल्लवित पुष्पित होती रहीं।
प्रमाण की अपेक्षा ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से हमें नय पहले प्राप्त होता है। नय एवं प्रमाण के सन्दर्भ में हमें एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य प्राप्त हुआ है जिससे
तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002
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