SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधना के दो तट : उत्सर्ग और अपवाद -साध्वी पीयूषप्रभा जीवन का परम ध्येय है मोक्ष की उपलब्धि और उसका मार्ग है राग-द्वेष से निवृत्ति अर्थात् समत्व भाव में अवस्थिति । बाह्य आचार के नियमोपनियम साधना पथ को गतिशील बनाने में प्रेरक तत्व का काम करते हैं किन्तु वे मुख्य नहीं हैं। मुख्य हैं आत्मशुद्धि, समाधि और समता । साधक के मन में उद्विग्नता और वियोग की स्थितियां पैदा न हो, इस बात को केन्द्र में रखते हुए द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार साधना के रूप अतीत में बदलते रहे हैं, वर्तमान में बदल रहे हैं और भविष्य में बदलते रहेंगे। भगवान् पार्श्व और भगवान् महावीर का चातुर्याम और पंच शिक्षात्मक धर्म-भेद और सचेलक और अचेलक के रूप में लिंग-भेद इस तथ्य के पुष्ट प्रमाण हैं । यद्यपि दोनों महापुरुषों द्वारा प्रवर्तित साधना मार्ग का लक्ष्य एक था बंधनमुक्ति। इसी परिप्रेक्ष्य में मूल सूत्रों के बारे में कुछ विचारणा आवश्यक प्रतीत होती है। जैन तीर्थंकर केवल अर्थ का उपदेश करते हैं । गणधर उसे सूत्र रूप में ग्रथित करते हैं, उन्हें शब्द देते हैं अर्थात् मूलभूत अर्थ है न कि शब्द। अरहा अत्थं भासति तमेव सुत्तीकरेंति गणधारी। अत्थेण विणा सुत्तं अणिरिसयं केरिसं होंति ?' वैदिकों में शब्द मूल है, उसके बाद अर्थ की मीमांसा होती है किन्तु जैनों में शब्द बाद में जाता है, मूलभूत है अर्थ । अतः सूत्रगत शब्दों से अधिक महत्त्व उनके अर्थों का है। यही कारण है कि आचार्य शब्द से आगे तात्पर्यार्थ की ओर बढ़े। इस दिशा में वे कितने समर्थ हुए, यह अलग प्रश्न है किन्तु उन्हें तात्पर्यार्थ की ओर जाने की छूट थी, यह बात अति महत्त्वपूर्ण है। अगर सूत्र के मूल शब्दों में ही आचार के समस्त विधि-निषेधों का कथन हो जाता तो फिर व्याख्या की आवश्यकता नहीं रहती। अतः द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार कारकताओं को इस प्रश्न पर विचार करना पड़ा। सूत्र में अनेक अर्थों की सूचना रहती है। आचार्य उन विविध अर्थों का निर्देश व्याख्या में कर देते हैं तभी आचार का औचित्य सिद्ध हो सकता है। इसी संदर्भ में कहा गया है तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002 067 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524611
Book TitleTulsi Prajna 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy