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________________ सुत्तस्स मग्गेण चरेज भिक्खू। सुत्तस्स अत्थो जह आणवे- भिक्षु सूत्रोक्त मार्ग पर चले। सूत्र का अर्थ --- जैसे अनुमति दे, भिक्षु वैसा ही आचरण करे। चूर्णिकार (अगस्त्य चूर्णि) ने इसका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा – सूयणामेत्तेण सव्वं ण बुज्झति विकीरति ---- सुतस्स अत्थो जह आणवेति --- "तस्स सुत्तासय मासकप्पादि सउस्सग्गापवाया गुरुहिं निरुविजंति अत्थो जह आणेवति जघा सो करणीयं-मग्गं निरुवेति अर्थात् गुरु उत्सर्ग (सामान्य विधि) अपवाद ( विशेष निधि) से जो मार्गदर्शन दे, उसी के आधार पर चल''। जिस प्रकार एक ही मिट्टी के पिंड में से कुंभकार अनेक प्रकार की आकृति वाले बर्तनों की सृष्टि करता है, उसी प्रकार आचार्य भी एक सूत्र शब्द में से नाना अर्थों की उत्प्रेक्षा करता है। जिस प्रकार गृह में जब तक अंधकार है तब तक वहां स्थित अनेक पदार्थ दृष्टिगोचर नहीं होते हैं उसी प्रकार उत्प्रेक्षा के अभाव में शब्द के अनेकानेक विशिष्ट अर्थ अप्रकाशित ही रह जाते हैं। __अर्थ की सार्थकता इसी में है कि उत्सर्ग-अपवाद आदि अनेकांत-दृष्टि से सूत्र के आशय को समझा जाये। यह सूत्र के मार्ग का आलोक है । इसे जानकर ही साधक सूत्रोक्त मार्ग पर चल सकता है। यह एक निश्चित सच्चाई है कि चाहे लौकिक क्षेत्र हो या आध्यात्मिक, कोई भी नियम सार्वभौम नहीं होता। उसमें अपवाद और छूटें होती ही हैं। कानून व्यवस्था भी कहती है - Where there is rule. there is exception. जहां नियम होता है, वहां अपवाद होता ही है। कानून की प्रत्येक धारा के Explanation (स्पष्टीकरण) में Proviso (अपेक्षा) रहती है। इसी प्रकार अध्यात्म शास्त्र में भी विभिन्न अपवाद होते हैं और प्रत्येक नियम की सापेक्ष व्याख्या होती है। उपर्युक्त विचारणा के फलस्वरूप ही आचार्यों ने यह निश्चय किया कि कौन से सूत्र उत्सर्ग सूत्र हैं, कौन से अपवाद सूत्र और कौन से तदुभय । तदुभय सूत्र के चार प्रकार हैं --- 1. उत्सर्गापवादिक 2. अपवादौत्सर्गिक 3. उत्सर्गोत्सर्गिक 4. अपवादापवादिक साधना की सरिता उत्सर्ग और अपवाद – इन दो तटों के मध्य प्रवहमान रहती है। सरिता के प्रवाह की निरन्तरता के लिए दोनों तटों का स्वीकार आवश्यक है। यथोचित विधि और निषेध का पालन करने पर साधक अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। सामान्य उत्सर्ग और अपवाद - ये दोनों शास्त्रों के एक ही अर्थ को लेकर प्रयुक्त होते हैं। जैसे ऊँच-नीच आदि का व्यवहार सापेक्ष होने से एक ही अर्थ का साधक है वैसे ही सामान्य और अपवाद परस्पर सापेक्ष होने से एक ही प्रयोजन को सिद्ध करते हैं। जैसे सामान्य विधि संयम की रक्षा 68 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 116-117 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524611
Book TitleTulsi Prajna 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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