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परम्परा का विकास सर्वप्रथम जैन दार्शनिकों ने किया है। ऐसा लगता है कि हरिभद्र ने समालोच्य प्रत्येक दर्शन का ईमानदारी पूर्वक गम्भीर अध्ययन किया था, क्योंकि इसके बिना वे न उन दर्शनों में निहित सत्यों को समझा सकते थे, न उनकी स्वस्थ समीक्षा ही कर सकते थे
और न उनका जैन मन्तव्यों के साथ समन्वय कर सकते थे। हरिभद्र अन्य दर्शनों के अध्ययन तक ही सीमित नहीं रहे, अपितु उन्होंने उनके कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रंथों पर तटस्थ भाव से टीकाएं
भी लिखीं। दिडनाग के 'न्यायप्रवेश' पर उनकी टीका महत्त्वपूर्ण मानी जाती है । पतञ्जलि के 'योगसूत्र' का उनका अध्ययन गंभीर प्रतीत होता है, जिसके आधार पर नवीन दृष्टिकोण से उन्होंने योगदृष्टिसमुच्चय, योगबिन्दु, योगविंशिका आदि ग्रंथों की रचना की थी। इस तरह आचार्य हरिभद्र जैन-जैनेतर परम्पराओं के गंभीर अध्येता एवं व्याख्याकार भी हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि उदारचेता, समन्वयशील और सत्यान्वेषी आचार्यों में हरिभद्र के समतुल्य किसी अन्य आचार्य को खोज पाना कठिन है। अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण भारतीय दार्शनिकों के इतिहास में वे अद्वितीय व अनुपम हैं।
संदर्भ 1. ततश्चेश्वर कर्तृत्त्ववादोऽयं युज्यते परम्। . सम्यान्यायाविरोधेन यथाऽऽहुः शुद्धबुद्धतः ॥
ईश्वरः परमात्मैव तदुक्तव्रतसेवनात्। यतो मुक्तिस्ततस्तस्याः कर्ता स्याद्गुणभावतः ।। तदनासेवनादेव यत्संसारोऽपि तत्त्वतः ।
तेने तस्यापि कर्तृत्वं कल्प्यानं न दुष्यति ॥ शास्त्रवार्तासमुच्चय, 203-205 2. परमैश्वर्ययुक्तत्वान्मतः आत्मैव चेश्वरः।
स च कर्तेति निर्दोषः कर्तृवादो व्यवस्थितः ॥ वही 207 3. प्रकृतिं चापि सन्न्यायात्कर्मप्रकृतिमेव हि ॥
एवं प्रकृतिवादोऽपि विज्ञेयः सत्य एव हि।
कपिलोक्तत्वतश्चैव दिव्यो हि स महामुनिः ॥ वही 236, 237 4. (क) वही, 21
(ख) योगदृष्टिसमुच्चय, 87-88 5. योगदृष्टिसमुच्चय, 86-101 6. वही, 107-109 7. वही, 138 8. वही, 130 9. योगशतकम् ----- गाथा 89. की स्वोपज्ञ टीकान्तर्गत
प्राकृत एवं जैनागम विभाग जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) लाडनूं-341 306 (राजस्थान)
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तुलसी प्रज्ञा अंक 116-117
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