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________________ है । वह किसी ईश्वरीय सत्ता द्वारा कृत नहीं है। लोक की स्वीकृति प्रायः सभी दर्शनों ने की है। जगत् या सृष्टि को सब मानते हैं किंतु अजगत या असृष्टि को कोई दार्शनिक स्वीकार नहीं करता। यह भगवान् महावीर की मौलिक देन है। इससे पक्ष और प्रतिपक्ष तथा विरोधी युगल का सिद्धांत फलित हुआ है। इसकी व्याख्या का सिद्धान्त है - अनेकान्तवाद । जगत् विरोधी युगलात्मक है । अनेकान्त या सापेक्षवाद के बिना उसकी व्याख्या नहीं की जा सकती।' जगत् का मूल कारण सृष्टि के मूल के अन्वेषण की शोध चिरकाल से चली आ रही है। वेद, उपनिषद् के ऋषि और यूनान के दार्शनिक भी इस खोज में संलग्न रहे हैं और उन्होंने नाना प्रकार के मत प्रतिपादित किए हैं। वेदों में जगत् के मूल कारण की खोज ऋग्वेद का दीर्घतमा ऋषि जगत् के मूल कारण का अन्वेषण करता है । उसकी प्रारम्भिक अवस्था मात्र प्रश्नायित दृष्टि से युक्त है ।" प्रश्न का समाधान उसे उपलब्ध नहीं होता है तो वह कहता है - मैं तो नहीं जानता।” फिर भी वह अपनी अन्वेषण की वृत्ति का त्याग नहीं करता है और अन्त में कह देता है कि " एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति" । सत् तो एक ही है किन्तु प्रबुद्धजन उसका वर्णन अनेक प्रकार से करते हैं। पण्डित दलसुख मालवणिया ने दीर्घतमा के इस विचार की तुलना अनेकान्त से करते हुए कहा है कि " दीर्घतमा के इस उद्गार में ही मनुष्य-स्वभाव की उस विशेषता का हमें स्पष्ट दर्शन होता है, जिसे हम समन्वयशीलता कहते हैं । इसी समन्वयशीलता का शास्त्रीय रूप जैनदर्शन- सम्मत स्याद्वाद या अनेकान्तवाद है। 19 इसी प्रकार नासदीय सूक्त का ऋषि भी जगत् के उपादान कारण को खोज रहा है। ऋषि कह रहा है, और उस समय न असत् था, न सत् 120 वह सत्-असत् दोनों का ही निषेध करता है किंतु प्रतीत होता है कि वह परम तत्त्व को अभिव्यक्त करने में शब्द- - शक्ति को असमर्थ पाता है । सत्य के अनेकान्तात्मक स्वरूप को शब्द एक साथ प्रकट नहीं कर सकता है तब ऋषि निषेध की भाषा बोलता है। महावीर इस तथ्य को विधेयात्मक भाषा में प्रस्तुत कर सत्-असत् दोनों की ही आपेक्षिक सत्ता स्वीकार करते हैं । भगवान् महावीर के दर्शन के अनुसार अस्तित्त्व सप्रतिपक्ष होता है। केवल सत् अथवा केवल असत् नाम की कोई वस्तु ही नहीं है । वस्तु का स्वरूप सदसदात्मक है । स्थानांग के वर्णन से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है । 22 उपनिषद् में विश्वकारणता विश्व के कारण की जिज्ञासा में से अनेक विरोधी मतवाद उत्पन्न हुए, जिनका निर्देश उपनिषदों में हुआ है। विश्व का मूल कारण क्या है ? वह सत् है या असत् ? सत् है तो पुरुष है या पुरुषेतर - जल, वायु, अग्नि, आकाश आदि में से कोई एक ? इन प्रश्नों का उत्तर तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only 5 www.jainelibrary.org
SR No.524611
Book TitleTulsi Prajna 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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