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________________ जीव और अजीव का विस्तार ही पंचास्तिकाय, षड्द्रव्य अथवा नव तत्त्व है। स्थानांग में जीव और अजीव को लोक कहा है। भगवती में पंचास्तिकाय को लोक कहा गया है। आगम में षड्द्रव्यों का उल्लेख तो है' किन्तु उन्हें 'लोक' संज्ञा से अभिहित नहीं किया गया है। इससे फलित होता है कि लोक को 'षड्द्रव्यात्मक मानने की अवधारणा उत्तरकालीन है। भगवान् महावीर के अनुसार जीव अजीव का प्रतिपक्षी है और अजीव जीव का प्रतिपक्षी । एक के बिना दूसरे के अस्तित्त्व को सिद्ध नहीं किया जा सकता। जीव और अजीव की स्वतंत्र सत्ता है । जीव अजीव से उत्पन्न नहीं होता है और न ही अजीव जीव से उत्पन्न होता है। ये दोनों शाश्वत तत्त्व हैं। इनमें पौर्वापर्य नहीं है । पौर्वापर्य की अवधारणा अनगार रोह के लोक- अलोक, जीव-अजीव आदि के परस्पर पौर्वापर्य सम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर में भगवान् उनके पौर्वापर्य का निषेध करते हैं। ° रोह के प्रश्न और महावीर के उत्तर के अध्ययन से जीव - अजीव, लोक- अलोक आदि के अनादित्व का सिद्धांत फलित होता है। सृष्टि रचना : अद्वैतवाद एवं द्वैतवाद - जीव- अजीव के पौर्वापर्य का अभाव सृष्टि रचना के संदर्भ में एक नयी अवधारणा प्रस्तुत करता है। सृष्टि रचना के संदर्भ में दर्शन धाराओं को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है – अद्वैतवादी और द्वैतवादी । अद्वैतवादी दार्शनिक चेतन का और अचेतन का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार जीव और अजीव में से किसी एक तत्त्व का वास्तविक अस्तित्व है।" अद्वैतवाद की मुख्य दो शाखाएं हैं - 1. जड़ाद्वैतवाद, 2. चैतन्याद्वैतवाद । जड़ाद्वैतवाद और चैतन्याद्वैतवाद - ये दोनों कारणानुरूप कार्योत्पत्ति के सिद्धांत को स्वीकार नहीं करती हैं। जड़ाद्वैत के अनुसार पंचभूतों के सम्मिश्रण से ही चैतन्य उत्पन्न हो जाता है चैतन्य की स्वतंत्र सत्ता नहीं है। चैतन्याद्वैत के अनुसार यह सम्पूर्ण जगत ब्रह्म / चेतना का विस्तार मात्र है। चेतन भिन्न जड़ का कोई अस्तित्व नहीं है । द्वैतवादी दर्शन जड़ और चैतन्य दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व मानते हैं । इनके अनुसार चैतन्या चैतन्य से जड़ उत्पन्न नहीं होता । कारण के अनुरूप ही कार्य का प्रादुर्भाव होता है । जैन दृष्टि के अनुसार विश्व एक शिल्पगृह है। उसकी व्यवस्था स्वयं उसी में समाविष्ट नियमों द्वारा होती है। ये नियम जीव और अजीव के विविध जातीय संयोग से स्वतः निष्पन्न है 12 जैनदर्शन में लोक एवं अलोक इन दो शब्दों का प्रयोग हुआ है। जैन अवधारणा के अनुसार अलोक का अर्थ है केवल आकाश और लोक का अर्थ है चेतन और अचेतन तत्त्व से संयुक्त आकाश ।" जैन दर्शन के अनुसार लोक और अलोक का विभाग नैसर्गिक है, अनादिकालीन तुलसी प्रज्ञा अंक 116-117 4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524611
Book TitleTulsi Prajna 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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