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________________ उपनिषदों के ऋषियों ने अपनी-अपनी प्रतिभा शक्ति के अनुरूप दिया है। उपनिषद् साहित्य ने विश्व कारणता के सम्बन्ध में नाना मतवादों की सृष्टि खड़ी कर दी है। तैत्तिरीय-उपनिषद् के अनुसार केवल वही तत्त्व इस वस्तु जगत् का चरम सत्य है, जिससे समस्त वस्तुओं की उत्पत्ति हुई है, जो समस्त वस्तुओं की सत्ता का आधार है और जिसमें अनन्त समस्त वस्तुओं का लय होता है । तैत्तिरीय उपनिषद् में ही सृष्टि से सम्बंधित अन्य मतों का उल्लेख हुआ है। ऋषि कहता है - पहले असत् था, उससे सत् उत्पन्न हुआ है। बृहदारण्यक एवं छान्दोग्य उपनिषद् में भी असत् से सत् की उत्पत्ति का सिद्धान्त प्रतिपादित है। उपनिषद् अनेक ऋषियों के विचारों का संग्रह है, वहां एक ही उपनिषद् में सृष्टि से सम्बंधित परस्पर विरोधी विचार उपलब्ध हैं। छान्दोग्य में जहां एक ऋषि असत् से सत् की उत्पत्ति का सिद्धान्त मान्य करता है वहीं दूसरा उसका निराकरण कर सत् से सृष्टि के निर्माण के सिद्धान्त को स्वीकार करता है।" बृहदारण्यक का ही दूसरा ऋषि जल को जगत् का मूल स्रोत मानता है। प्रवाहण जैवलि ने आकाश को मूल तत्त्व बतलाया है। प्रवाहण जैवलि से पूछा गया कि पदार्थों की चरम गति क्या है ? उन्होंने उत्तर की भाषा में कहा-आकाश । उनके अनुसार समस्त पदार्थों का उद्भव आकाश से ही होता है और अन्त में आकाश में ही उनका विलय हो जाता है।" सृष्टि सम्बंधित उपनिषद् के विचारों को संक्षेप में हम चार भागों में विभक्त कर सकते हैं - 1. असत् जगत् का मूल तत्त्व है। 2. सत् जगत् का मूल तत्त्व है। 3. अचेतन जगत् का मूल तत्त्व है। 4. आत्माब्रह्म जगत् का मूल तत्त्व है। युनानी दार्शनिकों का मन्तव्य ग्रीक दार्शनिक थेलिज जल को जगत् का मूल कारण मानता है। उसके अनुसार सृष्टि के प्रारम्भ में केवल जल का ही अस्तित्व था। - एनेक्जीमेण्डर के अनुसार असीम (Boundless something) नामक पदार्थ विश्व का मूल तत्त्व थ। जो पूरे आकाश में व्याप्त था। एनेक्जीमेंडर ने इस तत्त्व को God नाम से अभिहित किया है। यद्यपि यह स्पष्ट है कि एनेक्जीमेंडर का God भौतिक पदार्थ ही है। एनेक्जीमेनस के अनुसार सम्पूर्ण वस्तुओं का आदि और अन्त वायु है। पाइथागोरस के अनुसार जो कुछ अस्तित्व है वह संख्यात्मक रूप में रहता है। इन्होंने संख्या को मूल माना है । हेराक्लाइट्स अग्नि को विश्व का मूल तत्त्व मानता है ।34 6 - तुलसी प्रज्ञा अंक 116-117 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524611
Book TitleTulsi Prajna 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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