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________________ जैन आग़मों में विश्व जैन आगम साहित्य में भी विश्व के कारण की जिज्ञासा परलक्षित है। यह लोक (विश्व) क्या है ? उत्तर दिया गया जीव और अजीव 35 आगम प्रवक्ता के अनुसार असत् विश्व का कारण नहीं हो सकता। सत् ही विश्व का कारण है किंतु वह सत् एकात्मक नहीं है, द्विरूप है । चेतन और अचेतन स्वरूप है। जैन दर्शन सृष्टि के सम्बन्ध में द्वैतवादी है। चेतन और अचेतन की स्वतंत्र सत्ता है। ये एक-दूसरे से पैदा नहीं होते हैं। इन दो तत्त्वों का ही विस्तार करके लोक को पंचास्तिकायमय माना गया है" अथवा षड्द्रव्यात्मक भी कहा गया है। 7 वस्तुतः ये पांच अस्तिकाय या छह द्रव्य जीव और अजीव के ही विस्तार हैं। सृष्टि के सम्बन्ध में जैन दर्शन को द्वितत्त्ववादी अथवा बहुतत्त्ववादी कहा जा सकता है। जैन दर्शन में सृष्टि के पौर्वापर्य के सम्बन्ध में प्रश्न उपस्थित किये गये हैं । भगवान् महावीर उनमें परस्पर आनुपूर्वी बतलाकर इनमें पूर्व-पश्चात् क्रम का निषेध करते हैं |38 भगवान् महावीर के अनुसार सृष्टि चक्र पौर्वापर्य मुक्त अर्थात् अनादिकाल से चल रहा है। विश्व की व्यवस्था स्वयं उसी में समाविष्ट नियमों के द्वारा होती है। ये नियम जीव और अजीव के विविध जातीय संयोग से स्वतः निष्पन्न हैं। इसमें ईश्वर कर्तृत्व का अस्वीकार स्वतः स्फुट है। लोक का आकार जैन दर्शन के अनुसार लोक (विश्व) का आकार भी स्थायी एवं अनादि है। रोह के लोकान्त - अलोकान्त, लोकान्त- अवकाशान्तर आदि से सम्बन्धित पौर्वापर्य की जिज्ञासा के संदर्भ में प्रस्तुत भगवान महावीर के उत्तर से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है । जैन दर्शन में लोक- अलोक का आकार भगवती सूत्र में द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक एवं भावलोक – इन चार प्रकार के लोक का कथन है ।" लोक के आकार का सम्बन्ध क्षेत्रलोक से है। अलोक के संस्थान को रेखांकित करते हुए कहा गया है कि अलोक पोले गोल के समान है 12 वह लोक के चारों ओर व्याप्त है। लोक उसमें समाया हुआ है। उपमा की भाषा में लोक को आगासथिग्गलआकाशरूपी वस्त्र की एक कारी या थिगली कहा जा सकता है। अलोक की सीमा से सटा हुआ सातवां अवकाशान्तर है। उसके ऊपर सातवां तनुवात, फिर क्रमशः सातवां घनवात, सातवां घनोदधि और सातवीं पृथ्वी है। अवकाशान्तर, तनुवात, घनवात, घनोदधि और पृथ्वीये सभी सात-सात हैं आचार्य महाप्रज्ञ ने इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा की है। अवकाशान्तर - आकाश लोक और अलोक दोनों में विद्यमान है। लोक में सात अवकाशान्तर माने गए हैं। भगवती में आकाश के स्थान पर ' अवकाशान्तर' शब्द का प्रयोग मिलता है As तत्त्वार्थसूत्र में अवकाशान्तर के स्थान पर आकाश शब्द का प्रयोग मिलता है ।" तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only 7 www.jainelibrary.org
SR No.524611
Book TitleTulsi Prajna 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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