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________________ "चतुर्विंशतिजिनस्तुति" का प्रणयन किया। शोभनमुनि ने इसमें यमकमय स्तुति परम्परा को आगे बढ़ाया। इस कृति पर 8 टीकाकृतियों की रचना हुई। कवि धनपाल ने भी इस पर टीका की है। याकोबी ने जर्मन में तथा प्रो. कपाड़िया ने गुजराती और अंग्रेजी में इस स्तोत्र का अनुवाद किया। एकाधिक भाषा में अनुवाद तथा टीकाएं इसकी लोकप्रियता के प्रमाण हैं। शिवनाग(ग्यारहवीं शती)33 – शिवनाग ने "पार्श्वनाथमहास्तव", "धरणेन्द्रोरगस्तव" या"मन्त्रस्तव"का प्रणयन कर जैनस्तोत्र संस्कृत परम्परा के विकास में अपना अवदान दिया है। कुमुदचन्द्र ( 11वीं शती)-स्तोत्र साहित्य में प्रसिद्ध कल्याणमन्दिर स्तोत्र की रचना कुमुदचन्द्र ने की। श्वेताम्बर परम्परा में इसके रचयिता सिद्धसेन दिवाकर स्वीकार किये गये हैं। किंतु कुछ सैद्धांतिक वर्णनों के कारण इसे श्वेताम्बर स्तोत्र नहीं कहा जा सकता। प्रबंधकोषकार ने सिद्धसेन का अपरनाम कमदचंद्र लिखा है। इसमें 44 पद्य हैं तथा भगवान पार्श्वनाथ की स्तुति की गई है। इसमें आराध्य की उदारता तथा स्तोत्र की विनयशीलता का वर्णन अत्यंत सुन्दरता से किया है। शैली समास रहित और प्रसाद गुण मण्डित है। भक्तामर स्तोत्र की तरह परवर्तीकाल में यह स्तोत्र भी अत्यंत लोकप्रिय रहा। फलतः इसकी पादपूर्ति में अनेक स्तोत्र रचे गये, जिनमें भावप्रभसूरिकृत जैनधर्मवर-स्तोत्र, अज्ञातकर्तृक पार्श्वनाथ स्तोत्र, वीर स्तुति विजयानन्दसूरिश्वर-स्तवन आदि प्रमुख हैं। वादिराजसूरि ( 11वीं शताब्दी)- वादिराजसूरि ने ज्ञानलोचन स्तोत्र और एकीभाव स्तोत्र की रचना की है जो कि अपने पार्श्वनाथचरित महाकाव्य के कारण संस्कृत जगत् में प्रसिद्ध है। वादिराज दिगम्बर सम्प्रदाय के महान् तार्किक थे। यही कारण है कि उक्त स्तोत्र में भी उनकी तर्क- शक्ति ने विराम नहीं लिया। अन्य देव श्रृंगार सहित होते हैं तथा वनिता गदादि चिह्नों से जाने जाते हैं। विनयहंसगणि ( ग्यारहवीं शती)-विनयहंसगणि ने 'जिनस्तोत्र कोश' की रचना की जो कि अपनी सरल-मधुर शैली के कारण अपना अलग ही स्थान रखती है। भूपालकवि- भूपालकवि के द्वारा प्रतिपादित कृति 'जिनचतुर्विंशतिका' है जो कि एक प्रसिद्ध स्तोत्र है। भट्टारक सकलकीर्ति - 'परमात्मराज स्तोत्र' ---- यह एक लघुस्तोत्र है, जिसमें 16 पद्य हैं । स्तोत्र सुन्दर एवं भावपूर्ण हैं । इसकी एक प्रति जयपुर के दि. जैन मन्दिर पाटोदी के शास्त्र भंडार में संग्रहीत है । (संवत् 1443 को जन्म एवं 1499 में मृत्यु) सकलकीर्ति रास' में विस्तृत जीवन गाथा है। 'संस्कृत प्राचीन स्तवन' सन्दोह में अनिर्दिष्ट लेखक नामवाले ऋषभस्तवन, अजितस्तवन, सम्भवस्तवन, अभिनन्दनस्तवन, साधारण-जिनस्तवन, श्रीविंशति-जिनस्तवन, सप्तति-जिनस्तवन, त्रिकाल-जिनस्तवन, शाश्वताशाश्वत जिनस्तवन, शत्रुजयस्तवन, गिरिनारस्तवन, अष्टापदस्तवन आदिशताधिक स्तोत्रमुद्रित हैं । इसी प्रकार जैन स्तोत्र समुच्चय और जैन स्तोत्र सन्दोह में भी अनेक स्तोत्र संगृहीत हैं। 20वीं शताब्दी में भागेन्दु कृत 'महावीराष्टक एवं मंगलाष्टक' आदि स्तोत्र उल्लेखनीय हैं। 80 तुलसी प्रज्ञा अंक 116 117 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524611
Book TitleTulsi Prajna 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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