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________________ हरिभद्रसूरि (आठवीं शती)- हरिभद्रसूरि ने एक लघु परन्तु महनीय कृति "संसारदावानल स्तुति" की 'भाषासमक' पद्धति में रचना की।" अभिनवपद्धति में स्तोत्र रचना की दृष्टि से हरिभद्रसूरि का योगदान उल्लेखनीय है। बप्पभट्टि-इनका समय 743-838 बताया जाता है। इन्होंने सरस्वती स्तोत्र, वीरस्तव, शांतिस्तोत्र और चतुर्विंशति जिनस्तुति की रचना की है। सरस्वती स्तोत्र में 13 पद्य और वीरस्तव में 11 पद्य है। चतुर्विंशतिका में 96 पद्य हैं और यमकालंकार में स्तोत्र का गुम्फन किया है। दो चरणों की तुल्य आवृत्ति वाले यमक का व्यवहार यहां सर्वप्रथम हुआ है। पांचालदेश में डुम्बतिथि ग्राम में बप्प नाम का क्षत्रिय रहता था, उसकी पत्नी का नाम भट्टि था। माता-पिता के संयुक्त नाम के आधार पर इनका नाम बप्पभट्टि रखा गया। वि.सं. 807 में मोढरक में सिद्धसेनाचार्य के पास दीक्षा धारण की थी। गुरु ने इनका नाम भद्रकीर्ति रखा परन्तु प्रसिद्धि बप्पट्टि के नाम से ही हुई। जैन संस्कृत स्तोत्र परम्परा को विकसित करने में बप्पभट्टि की भूमिका प्रेरणादायक रही है। धनजंय ( आठवीं शती)-महाकवि धनंजय ने 'विपापहार' नामक स्तोत्र की रचना की है। इस स्तोत्र में 40 इन्द्रवज्रा पद्य हैं, अंतिम पद्य का छन्द पुष्पिताग्रा है और उसमें कर्ता ने अपना नाम सूचित किया है। कहा जाता है कि इस स्तोत्र के प्रभाव से सर्प विष दूर हो जाता है। तीर्थंकर ऋषभ की स्तुति की गई है । भाषा शैली सरल, सरस, प्रभावशाली तथा वैदर्भी मंडित है। विद्यानन्द (783-841 ई.) नवम शती - आचार्य विद्यानन्द ने "श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र'' का प्रणयन किया। इसमें 30 पद्य हैं । दार्शनिक स्तोत्र होते हुए भी काव्य तत्त्वों की प्रधानता विद्यमान है। कवि ने आराध्य की प्रशंसा में रूपकालंकार की सफल योजना की है। कवि ने भक्ति-निष्ठा के साथ दार्शनिकों द्वारा अभिमत आप्त का निरसन किया है। प्रवाहपूर्ण भाषा एवं शैली की उदात्तता आचार्य विद्यानन्द की महत्त्वपूर्ण विशेषता है। स्रग्धरा, शिखरिणी, शार्दूलविक्रीड़ित और मन्दाक्रान्ता छन्दों का उपयोग किया गया है। जिनसेनद्वितीय ( नवम शताब्दी )30 - जिनसेन द्वितीय द्वारा जिनसहस्रनाम स्तोत्र विरचित है । इस स्तोत्र के प्रारम्भ में 34 श्रोकों में नाना विशेषणों द्वारा तीर्थंकर का स्तवन किया गया है। तत्पश्चात् दश शतकों में सब मिलाकर जिनेन्द्र ने 1008 नाम गिनाये हैं। इन नामों में ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र, बुद्ध, बृहस्पति आदि नाम भी आये हैं । सुदीर्घस्तोत्रकार के रूप में जिनसेन द्वितीय अविस्मरणीय आचार्य है। नंदिषेण ( नौवीं शती)-नंदिषेण द्वारा अर्जित शांति स्तव (प्राकृत) रचित रचना है। जम्बूमुनि/जम्बूसुरि (948 ई.) --- जम्बूमुनि ने 'जिनशतक' नामक स्तोत्र की रचना की। प्रस्तुत कृति में स्रग्धरा छन्द का प्रयोग तथा शब्दालंकारों का सुन्दर समावेश किया है। शोभनमुनि- ग्यारहवीं शताब्दी में धनपाल कवि के अनुजबन्धु शोभनमुनि ने तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002 - - 79 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524611
Book TitleTulsi Prajna 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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