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________________ अर्थात् माली की भाँति उद्यान में केवल पुष्पों को ही चुनना चाहिए और मूल का उच्छेद नहीं करना चाहिए और अंगार धरने वाला नहीं बनना चाहिए। अंगार धरने से तात्पर्य दूसरों के अहित से ले सकते हैं। अतः दूसरों का अहित न करने जैसे सामाजिक सद्गुण के विकास की अपेक्षा यहाँ की गयी है। 1 ऋषिवर पाराशर के अनुसार हमें वैयक्तिक एवं सामाजिक सद्गुणों के प्रति सदैव जागरूक रहना चाहिए। कभी-कभी जाने-अनजाने अनैतिक कार्य भी व्यक्ति से हो जाते हैं । जहाँ पुण्य कार्य की संभावना है, वहाँ कभी- कभी पाप कार्य भी हो जाते हैं । प्रायः लोग पुण्य कार्य का तो प्रदर्शन करते हैं और पाप कृत्य को छिपाते हैं। महर्षि पाराशर के अनुसार यह नैतिक धर्म नहीं है। नैतिक धर्म तो यह है कृत्वा पापं न गूहेत गुह्यमानं विवर्द्धते । स्वल्पं वा प्रभूतं वा धर्मविद्धयो निवेदयेत् ॥ अर्थात् पाप करके कभी छिपाना नहीं चाहिए। ऐसा करने से छिपाया पाप बढ़ जाता है । पाप थोड़ा हो या अधिक, बिना किसी भय के धर्म के ज्ञाता को निवेदन कर देना चाहिए। वैसे किसी भी प्रकार के पाप कृत्य की यहाँ मनाही है किन्तु यदि मानवीय कमजोरी के कारण कोई पाप हो भी जाता है तो उसे प्रकट करने पर यहाँ जोर दिया गया है। ऐसा करने से भविष्य में पाप कार्य की संभावना भी नहीं रह जाती और उसका निदान भी मिल जाता है। इस प्रकार संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि महर्षि पाराशर ने वैदिक धर्म के अनुरूप ही वर्ण व्यवस्था के अनुसार कर्त्तव्यनिष्ठा को ही परम शुभ माना है । इनके अनुरूप कार्य करने वाला ही अच्छा और प्रतिकूल कार्य करने वाला बुरा है। मनुष्य को अपने-अपने वर्ण के अनुरूप कार्य करने की यहाँ स्वतन्त्रता है। चूँकि व्यक्ति के कार्यों से समाज प्रभावित होता है, अत: यह अपेक्षा की गयी है कि व्यक्ति अपने वैयक्तिक सद्गुणों के विकास के साथ-साथ सामाजिक सद्गुणों पर भी ध्यान रखें, क्योंकि व्यक्ति और समाज का आपस में अनिवार्य सम्बन्ध है। इसीलिए यहाँ दान की महिमा का भी संगान हुआ है । यहाँ यह भी अपेक्षा की गयी है कि हर कर्म का आधार स्वहित और परहित दोनों होना चाहिए। अपने प्रति आसक्ति और दूसरों के प्रति अनासक्ति जहाँ व्यक्ति को समाज से अलग करती है वहीं अपने प्रति अनासक्ति व्यक्ति को समाज से जोड़ती है। कोई समाज निरपेक्ष व्यक्ति समाज का भला कैसे कर सकता है ? अतः आज के परिप्रेक्ष्य में यह आवश्यक है कि सभी अपने पद और प्रतिष्ठा के अनुरूप अपने कार्य अपनी सम्पूर्ण निष्ठा के साथ करें। यदि ऐसा होता है तो समाज में चारों ओर शांति और प्रसन्नता का वातावरण बनेगा और समाज का, राष्ट्र का बहुमुखी विकास होगा। तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only 59 www.jainelibrary.org
SR No.524611
Book TitleTulsi Prajna 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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