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________________ संस्कृत का स्तोत्र साहित्य बड़ा ही विशाल, सरस और हृदयस्पर्शी है। प्रमुख जैन संस्कृत स्तोत्रकार निम्न हैं -- ___ 1. स्वयंभूस्तोत्र-जैन संस्कृत स्तोत्रकारों में आचार्य समन्तभद्र अग्रण्य है। स्वयंभू स्तोत्र तार्किक शैली में लिखा गया एक दार्शनिक स्तोत्र है। इसमें चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति की गयी है। कवित्व शक्ति स्वाभाविक है। स्तोत्र का पहला शब्द स्वयम्भू होने से इसका नाम स्वयम्भूस्तोत्र पड़ा है। कुल 143 पद्य हैं । इस स्तोत्र में भक्तिरस में गम्भीर अनुभूति का तारल्य विद्यमान है। इसलिए इसे सरस्वती की स्वच्छन्द विहारभूमि कहा जा सकता है। प्रस्तुत स्तोत्र के संस्कृत टीकाकार प्रभाचन्द्र ने इसे "निश्शेषजिनोक्त धर्म" कहा है। स्तोत्रशैली में कवि ने प्रबंध पद्धति के बीजों को निहित कर इतिवृत्त सम्बंधी अनेक तथ्यों को प्रस्तुत किया है। ऋषभदेव को प्रजापति के रूप में असि, मषि, कृषि, सेवा, शिल्प और वाणिज्य का उपदेष्टा कहा है । वंशस्थ, उपेन्द्रवज्रा, इन्द्रवज्रा, वसन्ततिलका, उपजाति आदि 13 प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया है। भक्तिभावना, रागात्मक वृत्तियों का उदात्तीकरण, जीवन के अनुरंजनकारी चित्रण एवं ललितपदावली के मनोरम विन्यास के साथ दार्शनिक तत्त्वों का विवेचन प्रशंसनीय है। दार्शनिक तथ्यों की अभिव्यंजना मधुर-कोमल भावनाओं के वातावरण में की गयी है। काव्य के मधुमय वातावरण में दार्शनिक-गूढ मान्यताओं का समवाय द्रष्टव्य है। 2. युक्त्यनुशासन-समन्तभद्रकृत इस स्तोत्र काव्य में वीर के सर्वोदय तीर्थ की महत्ता प्रतिपादित करने के लिए उनकी स्तुति गयी है। युक्तिपूर्वक महावीर के शासन का मंडन और वीरविरुद्ध मतों का खण्डन किया गया है। अर्थगौरव की दृष्टि से यह काव्य उत्तम कोटि का है। गागर में सागर भर देने वाली कहावत इस पर चरितार्थ होती है। सम्पूर्ण जिनशासन को 64 पद्यों में ही समाविष्ट कर दिया है। प्रतिपादन शैली तर्कपूर्ण है । एक सामान्य तथ्य को अनेक युक्तियों के साथ वैदर्भी शैली में अंकित करने में निपुण है। 3. स्तुतिविद्या (जिनशतकालंकार)-समन्तभद्र द्वारा रचित इस स्तोत्र काव्य की शतक काव्यों में भी इसकी गणना की गयी है। 100 पद्यों में किसी एक विषय से सम्बद्ध रचना लिखना प्राचीन काल में गौरव की बात मानी जाती थी। चित्रकाव्य और बन्धरचना का अपूर्व कौशल समाहित है। इस जिनशतकालंकार में चौबीस तीर्थंकरों की चित्रबन्धों में स्तुति की गयी है। कलापक्ष और भावपक्ष दोनों नैतिक एवं धार्मिक उपदेश के उपस्कारक बनकर आये हैं। प्रस्तुत स्तोत्र में मुरजबन्ध, अर्धभ्रम, चक्रबन्ध, गतप्रत्यागतार्ह, अनुलोम-प्रतिलोमक्रम और सर्वतोभद्र चित्रों का व्यवहार उपलब्ध है। एकाक्षर पद्यों की सुन्दरता कला की दृष्टि से प्रशंसनीय है। इसमें 116 पद्य हैं। 4. आप्तमीमांसा ( देवागमस्तोत्र)-समन्तभद्र की महनीय कृति है। स्तोत्र के रूप में तर्क और आगम परम्परा की कसौटी पर आप्त-सर्वज्ञ देव की मीमांसा की गई है। समन्तभद्र अंधश्रद्धालु नहीं है, वे श्रद्धा को तर्क की कसौटी पर कसकर युक्तिआगम द्वारा आप्त की तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524611
Book TitleTulsi Prajna 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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