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यहां 'अग्निशिखा के तेज' मूर्त पदार्थ है, उसके धर्म का धर्म प्रज्ञा, यशादि अमूर्त पदार्थों पर आरोपण हुआ है। अग्निशिखा कालुष्यरहित है तथा कलुष्य को जला डालने की शक्ति से परिपूर्ण है। यहां यशादि की पवित्रता, निष्कलुषता आदि अभिव्यंजित है। भाव पदार्थ पर मूर्तत्वारोप विषयक एक उत्कृष्ट उदाहरण द्रष्टव्य है -
दिसोदिसंऽणंतजिणेण ताइणा महव्वता खेमपदा पवेदिता।
महागुरु निस्सयरा उदीरिता तमं व तेऊ तिदिसं पगासगा। अर्थात् सभी दिशाओं में जीवों के त्राता, रागद्वेषविजेता, अनन्त ज्ञानादि से सम्पन्न जिनेन्द्र भगवान् जीवों के लिए क्षेम (रक्षण) स्थान तथा कर्मबन्धन को दूर करने में समर्थ महाव्रतों का निरूपण किया है। जिस प्रकार तेज तीनों दिशाओं में अंधकार को नष्ट करके प्रकाश कर देता है, उसी प्रकार महाव्रत रूप तेज भी अन्धकार रूप कर्म समूह को नष्ट कर तीनों लोकों को प्रकाशमय बना देता है - ज्ञानवान् बना देता है। यहां पर तेज (अग्नि या सूर्य) मूर्त पदार्थ है, उसके धर्म का आरोप अमूर्त महाव्रतों पर किया गया है।
विसुज्झती जंसि मलं पुरेकडं समीरियं रुप्पमलं व जोतिणा।
अर्थात् सर्वासक्ति विमुक्त एवं धैर्यवान् भिक्षु के पूर्वकृत कर्ममल उसी प्रकार अलग हो जाते हैं, जैसे अग्नि के द्वारा चांदी का मैल अलग हो जाता है । यहां पर तापादि भाव पदार्थों पर अग्नि तथा मुनि पर चांदी एवं कर्ममलों पर चांदी के मैल का आरोप किया गया है। भाव पदार्थ— तप एवं कर्मादि पर मूर्तत्व तथा मुनि पर चांदी-का अन्य के धर्म का अन्य पर आरोप विषयक दृष्टान्त रमणीय है।
तिर्यंच् (सर्प) के धर्म का मनुष्य पर आरोप विषयक उदाहरण अधोविन्यस्त हैभुजंगमे जुण्णतयं जहा चए विमुच्चती से दुसहेज्ज माहणे।”
___अर्थात् सर्प अपनी जीर्ण त्वचा (केंचुली) को त्यागकर उससे मुक्त हो जाता है, उसी प्रकार संयमी मुनि कर्मबन्धनों का परित्याग कर मुक्त हो जाता है। सर्प के धर्म का मुनि पर तथा केंचुली के धर्म का बन्धनों (कामादि) पर आरोप किया गया है। सर्प केंचुली का परित्याग कर पुन: उसी को ग्रहण नहीं करता, उसी प्रकार मुनि कामादि का परित्याग कर पुनः उसी का सेवन नहीं करता, वह मुक्त हो जाता है।
संसार की भयंकरता का उद्घाटन उस पर महासमुद्र के धर्म का आरोप कर किया गया है - महा समुदं व भुयाहिं दुत्तरं।
__ अर्थात् जैसे अपार सलिल-प्रवाह वाले समुद्र को भुजाओं से पार करना दुस्तर है, उसी प्रकार इस संसार रूप महासमुद्र को पार पाना दुर्लभ है। जीव पर अजीवत्व का आरोप विषयक दृष्टान्त दर्शनीय है -
देवपरिसं च मणुयपरिसं च आलेक्खचित्तभूतमिव ठवेति।" अर्थात् जब महावीर ने पंचामुष्टिक लोच कर पूर्ण सामयिक चारित्र अंगीकार किया तो देवों और मनुष्यों दोनों की सभाएं चित्रलिखित सी हो गयी।
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__ तुलसी प्रज्ञा अंक 116-117
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