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________________ -काष्ठ मूर्त पदार्थ है, कर्मशरीर – भावपदार्थ पर आरोपित है। मोणं समाया धुणे कम्मसरीरगं ।" अर्थात् मुनि ज्ञान को प्राप्त कर कर्म शरीर को प्रकम्पित करे । ‘धुणे कम्मसरीरगं' अर्थात् कर्मशरीर को प्रकंपित करे। प्रकंपित करना मूर्त्त का धर्म है। कर्मशरीर-अमूर्त पदार्थ पर आरोपित है। सव्वे सराणियति । तक्का तत्थ ण विज्जइ । मई तत्थ ण गाहिया ।" अर्थात् सभी स्वर लौट जाते हैं, तर्क वहां नहीं जाते, मति उसे ग्रहण नहीं कर सकती। यहां स्वरों का लौटना, तर्क का जाना, मति द्वारा ग्रहण किया जाना - लौटना, जाना और ग्रहण करना मूर्त्त के धर्म हैं, चमत्कारोत्पादन के लिए अमूर्त पर आरोपित है । आत्मा शब्द, तर्क और मति के द्वारा अग्राह्य है - यह अभिव्यंजित है । वह इन्द्रियातीत है । तम्हा संगं ति पासह " अर्थात् इसलिए तुम आसक्ति को देखो । यहां पर 'संग' शब्द आसक्ति का वाचक है। आसक्ति का अर्थ राग होता है, जो भाव पदार्थ है। संग भाव पदार्थ है और 'पासह' मूर्त का धर्म है। देखने की क्रिया नेत्रेन्द्रिय का विषय है, जो मूर्त होती है। लेकिन 'संग' रूप भाव पदार्थ पर आरोपित है। यहां सम्यक् विवेक, चिंतन आदि क्रियाएं अभिव्यंजित हैं । उपधानश्रुत में दो स्थलों पर उपमान प्रयोग में उपचार वक्रता का उत्कृष्ट निदर्शन मिलता है। एक स्थल पर नाग (हाथी) तथा दूसरे स्थल पर शूर (योद्धा) के धर्म का अन्यभगवान् महावीर पर आरोपित किया है । अन्य के धर्म का अन्य पर आरोप विषयक यह उपचारवक्रता का उदाहरण चमत्कार कारक है । पर्वत के धर्म का मुनि पर आरोप विषय उपचारवक्रता का उदाहरण आचारचूला में उपलब्ध है ' तितिक्खणाणी अट्ठचेतसा गिरिव्व वातेण ण संपवेवए" अर्थात् आक्रोश युक्त शब्दों एवं शीतोष्णादि स्पर्शों का भिक्षु प्रशान्तचित्त होकर सहन करे । जिस प्रकार वायु के प्रबल वेग से भी पर्वत कम्पायमान नहीं होता, उसी प्रकार संयमशील मुनि भी परिषहों से विचलित नहीं होता । प्रस्तुत संदर्भ में पर्वत - प्राकृतिक जगत् (निर्जीव पदार्थ) के धर्म का मुनि अर्थात् मनुष्य पर तथा वायु के धर्म का परिषहों पर आरोप किया गया है । पर्वत की स्थिरता, अचंचलता और धैर्यता यहां अभिव्यंजित है। प्रकृति के धर्म का मानव पर आरोप विषयक दृष्टान्त उत्कृष्ट है। भाव पदार्थ प्रज्ञा, यशादि पर मूर्त्तत्वारोप विषयक उदाहरण द्रष्टव्य है समाहियस्सऽग्गिसिहा व तेयसा तवो य पण्णा य जसो य वढती । 14 अर्थात् समाहितमुनि के तप, प्रज्ञा और यश अग्निशिखा के तेज की भांति बढ़ते हैं । तुलसी प्रज्ञा अप्रैल -- सितम्बर, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only 25 www.jainelibrary.org
SR No.524611
Book TitleTulsi Prajna 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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