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सच्चस्स आणाए उवट्ठिए से मेहावी मारं तरति
अर्थात् जो सत्य की आज्ञा में उपस्थित है, वह मेधावी मृत्यु को तर जाता है। यहां 'मारं तरति' उपचार वक्रता का सुन्दर प्रयोग है । 'तरति' क्रिया 'तृ प्लवन संतरणयो" धातु का वर्तमानकालिक रूप है। 'तरति प्लवति संतरति वा' अर्थात् तैर जाना, पार कर जाना। यह क्रिया मूर्त पदार्थ – सागर, नदी, झरना, तालाब आदि का धर्म है। सागर को तर गया, नदी के तीर गया, मुहाने को पार कर गया। यहां पर 'मार' मृत्यु का वाचक जो भाव अथवा अमूर्त पदार्थ है। यहां मृत्यु पर सागरत्व या तरण क्रिया- - भाव पर मूर्त्तत्व का आरोप अभिव्यक्ति सामर्थ्य से संबलित है ।
सहिए धम्ममादाय सेयं समणुपस्सति । अर्थात् सहिष्णुसाधक धर्म को ग्रहण कर श्रेय का साक्षात्कार कर लेता है ।
यहां पर धर्म और श्रेय दोनों भाव पदार्थ या अमूर्त द्रव्य हैं, 'आदाय ( ग्रहण करना) ' और अणुपस्सति (देखना) इन्द्रिय के धर्म हैं, मूर्त के धर्म हैं । मूर्त पदार्थ को ही ग्रहण किया जा सकता है एवं देखा जा सकता है, यहां पर धर्म और श्रेय में मूर्त्तत्वारोप हुआ है। यहां आत्मा के द्वारा स्वीकृति एवं साक्षात्कार अभिव्यंजित है न कि इन्द्रिय साक्षात्कार ।
सेवंता कोहं च माणं च मायं च लोभं च' अर्थात् साधक क्रोध, मान, माया और लोभ का वमन करने वाला होता है।
'वमन करना' मूर्त का धर्म है। मूर्त वस्तुओं का ही वमन संभव है। क्रोधादि अमूर्त हैं, भाव पदार्थ हैं, इन पर मूर्त्तत्व का आरोप हुआ । वमन क्षय का, पूर्ण समापन का अभिव्यंजक है । इसी तरह का उदाहरण आगे है.
वंता लोगस्स संजोगं जंति वीरा महाजाणं ।' अर्थात् लोक के संयोग का वमन करने वाला वीर साधक महायान ( महापथ) पर जाते हैं। 'लोगस्स संजोगं' भाव पदार्थ है, उसका वमन - भाव पदार्थ पर मूर्त्तत्वारोप हुआ है ।
जे कोहदंसी से माणदंसी, जे माणदंसी से मायदंसी । अर्थात् जो क्रोधदर्शी है वह मानदर्शी है, जो मानदर्शी है वह मायादर्शी है, जो मायादर्शी है वह लोभदर्शी है ।
यहां दर्शी – 'देखना ' मूर्त पदार्थ का धर्म है। मूर्त पदार्थ को ही देखा जा सकता है। क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेय, द्वेषादि भाव पदार्थ हैं, इन पर मूर्त्तत्वारोप हुआ है।
जहा जुण्णाई कट्ठाई हव्ववाहो पमत्थति एवं अत्तसमाहिए अणिहे ।' अर्थात् अनि जीर्ण-काष्ठ को शीघ्र जला देती है। वैसे ही समाहित आत्मा तथा कषायों से अप्रताड़ित पुरुष कर्मशरीर को जला देता है, समाप्त कर देता है। यहां पर अग्नि के धर्म का समाहितात्मा पर आरोप हुआ है।
अनि जीर्ण-काष्ठ को जलाकर भस्म कर देती है, तब जीर्ण काष्ठ कभी अस्तित्व में नहीं आता । उसी प्रकार समाहितात्मा पुरुष द्वारा प्रमथित- - जलाया गया कर्मशरीर पुनः अस्तित्व में नहीं है - यह तथ्य अभिव्यंजित है ।
तुलसी प्रज्ञा अंक 116-117
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