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________________ अर्द्धमागधी आगमों में उपचार वक्रता -डॉ. हरिशंकर पाण्डेय उपचारवक्रता-धर्म का विपर्यय उपचारवक्रता है। साहित्य में अन्य के धर्म का अन्य पर आरोप मूलक प्रयोग से चमत्काराधान होता है। अन्य के धर्म का अन्य पर आरोप ही उपचारवक्रता है। मानव के साथ मानवेतर धर्म का प्रयोग, मानवेतर के साथ मानव के धर्म का प्रयोग, जड़ पर चेतन या चेतन पर जड़ पदार्थ के धर्म का आरोप, मूर्त पर अमूर्त, अमूर्त पर मूर्त, धर्म पर धर्मी का, धर्मी पर धर्म का आरोप आदि उपचारवक्रता के अंतर्गत आते हैं। भिन्न पदार्थों में अभेदारोप उपचार वक्रता है। आचार्य कुन्तक ने लिखा है यत्र दूरांतरेऽन्यस्मात्सामान्यमुपचर्यते। लेशेनापि भवत् कांच्चिद्वक्तुमुद्रिक्तवृत्तिताम्॥ यन्मूला सरसोल्लेखा रूपकादिरलंकृतिः। उपचारप्रधानासौ वक्रता काचिदुच्यते॥ आगमों में आचारांग सबसे प्राचीन एवं महत्त्वपूर्ण है। इसमें आत्मा का विस्तार से प्रतिपादन किया गया है । मोक्ष विद्या अथवा आत्म-विद्या के प्रतिपादन में कवि ने यत्र-तत्र अन्यथासिद्ध प्रयोगमूलक उपचारवक्रता का उपयोग किया है पुरिसा। अत्तानमेव अभिणिगिज्झ, एवं दुक्खा पमोक्खसि। अर्थात् पुरुष। आत्मा का ही निग्रह कर। इस प्रकार तू दुःख से मुक्त हो जायेगा। आत्मा का निग्रह कर', 'दुःख से मुक्त हो जाएगा' निग्रह मूर्त्तत्व का धर्म है, आत्मा-अमूर्त पदार्थ पर आरोप किया गया है । आत्मा अथवा चित्त भाव पदार्थ का निग्रहण - मूर्तत्व का आरोप है। यहां चित्त परिष्कार अभिव्यंजित है। जो सुख और दु:ख रूप अनुकूल-प्रतिकूल संवेदनाओं से मुक्त होगा, उसे ही दु:ख-मुक्ति सहज हो सकती है। मुक्त होना भी मूर्त का धर्म है, दुःख-अमूर्त पदार्थ पर आरोप किया गया है।' तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002 - 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524611
Book TitleTulsi Prajna 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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