SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यहां चित्र (आलेख्य) निर्जीव पदार्थ है। उसके धर्म का देवादि की सभा पर आरोप है। निश्चेष्टता अभिव्यंजित है। अन्य वनखंड, पद्मसरादि के धर्म का आकाश पर आरोप रोचक बना है। जब महावीर अभिनिष्क्रमण कर रहे थे, आकाश देवों से भर गया --- वणसंडं व कुसुमयं पउमसरो वा जहा सरयकाले। सोभति कुसुमभरेण इय गगणतलं सुरगणेहिं ।। अर्थात् देवों के आगमन से आकाशमण्डल वैसा ही सुशोभित हो रहा था, जैसे खिले हुए पुष्पों से वनखण्ड (उद्यान) या शरत्काल में कमलों के समूह से पद्य सरोवर सुशोभित होता है। यहां पर पुष्प एवं कमल के धर्म का देवों पर तथा वनखण्ड तथा सरोवर के धर्म का आकाश पर आरोप किया गया है। सौन्दर्यातिशयता एवं माधुर्यातिशयता अभिव्यंजित है। प्रकृति के धर्म का मानव पर आरोप विषयक उदाहरण उदाहर्तव्य है मल्लेणं कप्परुक्खमिव समालंकेति1 अर्थात् विभिन्न प्रकार की पुष्पमालाओं से महावीर को कल्पवृक्ष की तरह सुसज्जित किया गया। कल्पवृक्षत्व का महावीर पर आरोप हुआ है। भगवान् के जन्मकाल में अनेक रत्नों की वर्षा होती है --- गंधवासं च चुण्णवासं च पुष्फवासं च हिरण्णवासं च रयणवासं च वासिंसु। अर्थात् महावीर के जन्मकाल में देवों ने अमृत, सुगंधित पदार्थ, सुवासित चूर्ण (पावडर), पुष्प, चांदी और सोने की वृष्टि की। वर्षा हमेशा पानी की ही होती है, यहां रत्नादि स्थूल पदार्थों की हो रही है। उपचारता का उत्कृष्ट निदर्शन, जहां पर प्रसन्नता, रमणीयता आदि का अभिव्यंजन हो रहा है। सूत्रकृतांगसूत्र में उपचारवक्ता के अनेक उदाहरण मिलते हैं। प्रथम अध्ययन के द्वितीय उद्देशक में म्लेच्छ, मूढ, अंध आदि के धर्म का मिथ्यादृष्टि मुनियों पर आरोप किया गया है। एक स्थल पर छिद्रयुक्त नौका एवं जन्मान्ध के धर्म का आरोप क्रमश: मिथ्या-दर्शन एवं मिथ्या-दृष्टि श्रमण पर किया गया है। छिद्रयुक्त नौका मूर्त पदार्थ है, उसके धर्म का आरोप दर्शन - अमूर्त पदार्थ पर किया है। वहीं पर वर्तमान इन्द्रियसुखोपभोगों में आसक्त श्रमण की उपमा वैशालिक मत्स्य से दी गई है ___ एवं तु समणा एगे वट्टमाणसुहेसिणो। मच्छा वेसालिआ चेव घातमेसंतमणंतसो॥ अर्थात् वर्तमान सुख के अभिलाषी कई श्रमण वैशालिक मत्स्य के समान अनन्त बार विनाश को प्राप्त होते हैं। यहां वैशालिक मत्स्य के धर्म का आरोप मुनि पर किया गया है। सुखासक्त मत्स्य मृत्यु को प्राप्त होता है, उसी प्रकार सुखभोगी श्रमण की दशा होती है। तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002 0 - 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524611
Book TitleTulsi Prajna 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy