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________________ "चतुर्णामपि वर्णानामाचारो धर्मपालकः। आचारभ्रष्ट देहानां भवेद्धर्मः पराङ्मुखः॥ षट् कर्माभिरतो नित्यं देवतातिथिपूजकः । हुतशेषन्तु भुंजानो ब्राह्मणो नावसीदति॥ संध्यास्नान जपो होम स्वाध्यायो देवतार्चनम्। वैश्वदेवातिथेयञ्च षट्कर्माणि दिने-दिने॥12 अर्थात् ब्राह्मण के संध्या स्नान, जप, वेदों का स्वाध्याय, देवताओं की पूजा, वैश्वदेव और अतिथि सत्कार – ये छ: कर्म प्रतिदिन के होते हैं। क्षत्रिय कर्त्तव्य के संदर्भ में कहा गया है - क्षत्रियो हि प्रजा रक्षन् शस्त्रपाणि प्रचण्डवत्। विजित्य परसैन्यानि क्षिति धर्मेण पालयेत्॥ अर्थात् क्षत्रिय को प्रजा की रक्षा करते हुए प्रचण्ड की भाँति हाथ में शस्त्र रखकर दूसरे की सेना को जीतकर पृथ्वी का नीतिपूर्वक पालन करना चाहिए। वैश्य और शूद्र के कर्त्तव्य लोहकर्म तथा रत्नं गवाच्च प्रतिपालनम्। वाणिज्यं कृषिकर्माणि वैश्यवृत्तिसदाहृता। शूद्राणां द्विजशुश्रूषा परोधर्मः प्रकीर्तितः । अन्यथा कुरुते किंचित्तद् भवेत्तस्य निष्फलम्॥4 अर्थात् लोहा तथा रत्नों का कर्म, गौओं का पालन, वाणिज्य और खेती का काम ये ही वैश्यों के कर्तव्य हैं तथा द्विजों की सेवा शूद्रों का परम कर्त्तव्य है और यदि इसके अतिरिक्त वह कोई कार्य करता है तो वे सभी निष्फल होते हैं। ऋषि पाराशर ने जहाँ सभी वर्गों के कार्य वैदिक परम्परा के अनुसार निर्धारित किये हैं वहीं सभी वर्गों के अकरणीय कर्म का भी उल्लेख किया है जो किसी भी स्थिति में नहीं करने चाहिए, यथा "अविक्रेयं मद्यमांसमभक्ष्यस्य च भक्षणम्। अगम्यागमनञ्चैव शूद्रोऽपि नरकं व्रजेत्॥" यदि कोई मद्य-मांस का व्यापार करता है, अभक्ष्य का भक्षण करता है तथा न जाने योग्य स्थान पर गमन करता है तो वह चाहे शूद्र ही क्यों न हो, वह नरकगामी ही होता है तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002 - 57 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524611
Book TitleTulsi Prajna 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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