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________________ महर्षि पाराशर का नैतिक दर्शन - डॉ. आनन्दप्रकाश त्रिपाठी 'रत्नेश' I दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण अंग है - नैतिक दर्शन । नैतिक दर्शन के अभाव में किसी भी दर्शन को पूर्णता नहीं मिल सकती। चूँकि व्यक्तित्व विकास के तीन आयाम हैं --- आध्यात्मिकता, नैतिकता और बौद्धिकता। ये तीनों आयाम क्रमशः तत्त्वमीमांसा, नीतिमीमांसा एवं ज्ञानमीमांसा को पुष्ट करते हैं । इनमें जीवन के अत्यधिक सन्निकट होने के कारण नीतिमीमांसा का अत्यधिक महत्त्व है 1 नैतिकता की दृष्टि से व्यक्ति के जीवन में अनेक प्रश्न उठते रहते हैं, जैसे1. कौन व्यक्ति अच्छा है और कौन बुरा ? 2. शुभ - अशुभ और उचित - अनुचित क्या है ? 3. मनुष्य को कर्म करने की स्वतन्त्रता है या नहीं ? 4. मनुष्य के कर्त्तव्य क्या हैं और उनके निर्धारण के आधार क्या हैं ? 5. व्यक्ति, समाज में क्या सम्बन्ध है ? 6. कर्म का आधार स्वहित है या परहित ? . 7. परम साध्य या परम शुभ क्या है ? व्यक्ति के जीवन से जुड़े इन सारे प्रश्नों का अध्ययन जिस शास्त्र के अन्तर्गत होता है उसे ही नीति-शास्त्र या नैतिक-दर्शन कहते हैं। इस तरह यह कहा जा सकता है कि नैतिक दर्शन व्यवहार की अच्छाई या बुराई का विज्ञान है । नैतिक दर्शन आदत या चरित्र का शास्त्र है । नैतिक दर्शन को अंग्रेजी में 'मॉरेल फिलासफी' भी कहते हैं। मॉरेल शब्द लैटिन शब्द मोर्स से बना है। मोर्स का अर्थ रीति-रिवाज या अभ्यास है । इस प्रकार शाब्दिक अर्थों में नीतिशास्त्र (नैतिक दर्शन) रीति-रिवाज अथवा अभ्यास का शास्त्र हुआ जो आदत और चरित्र से सम्बंधित है। मेकेन्जी के अनुसार नैतिकता का अर्थ चरित्र निर्माण से है ।' तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only 55 www.jainelibrary.org
SR No.524611
Book TitleTulsi Prajna 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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