________________
किसी कथानक या उपाख्यान के आधार पर ही हुआ है तथापि ऐसे भी अनेक काव्य हैं जिनमें कवि ने अपने आश्रयदाता की विजय और वीरता का वर्णन किया है। जैनों ने संस्कृत में इन कथानकों या उपाख्यानों के अतिरिक्त अनेक ऐसे भी काव्य लिखे जिनमें किसी तीर्थंकर या जैनों के महापुरुष का जीवन चरित्र अंकित किया गया है। हेमचन्द्र का कुमारपाल चरित, वाग्भट का नेमिनिर्वाण, माणिक्य सूरि का यशोधर - चरित्र आदि इसके उदाहरण हैं। जैनों ने तीर्थंकरों और महापुरुषों के वर्णन के अतिरिक्त जैन धर्म के उपदेश की दृष्टि से भी सिद्धर्षि रचित उपमिति भवप्रपंच कथा, वीरनन्दीकृत चन्द्रप्रभ चरितम् आदि कुछ ग्रंथ लिखे । अपभ्रंश में संस्कृत - प्राकृत की परम्परा बनी रह सकी ।
I
पूर्व भारत में सिद्धों की रचनायें सहजयान के प्रचार अथवा अपने मत का प्रतिपादन करने के लिए लिखी गई। जैनियों के भी अधिकांश ग्रंथ किसी तीर्थंकर या जैन महापुरुष का चरित वर्णन करने, किसी व्रत का माहात्म्य बतलाने या अपने मत का प्रतिपादन करने की दृष्टि से लिखे गये । किन्तु ऐसा होते हुए भी जैन कवि धर्मान्ध या कट्टर साम्प्रदायिक न थे। इनमें सामाजिक सहिष्णुता और उदार भावना दृष्टिगत होती है। इनकी सदा यह अभिलाषा रही कि नैतिक और सदाचार संबंधी जैन धर्म के उपदेश अधिक से अधिक जन-साधारण तक पहुँचे । हिन्दुओं के शास्त्रों और पुराणों का अध्ययन उन्होंने किया हुआ था, इसका निर्देश इनकी रचनाओं में ही मिलता है।
सभी देशों और सभी युगों में काव्य के प्रधान विषय मानव और प्रकृति ही रहे हैं । इनके अतिरिक्त मानव से ऊपर और प्रकृति को वश में करने वाले देवी - देवता भी अनेक काव्यों के विषय हुआ करते थे। अधिकांश संस्कृत काव्यों में किसी महापुरुष के महान् और वीर कार्यों का चित्रण भी दृष्टिगोचर होता है । वाल्मीकिकृत रामायण का विषय महापुरुष रामचन्द्र ही है । इस प्रकार प्राचीनकाल में किसी महापुरुष का महान् और वीर कार्य ही काव्य का विषय होता था । कालान्तर में कोई देवी-देवता या तज्जन्य मानव भी काव्य का विषय होने लगा । कालिदास के कुमार संभव में भगवान् शंकर और पार्वती की अवतारणा है। भारवि के किरातार्जुनीयम् में भगवान् शंकर और देवसंभव अर्जुन का वर्णन है । कालान्तर में जब साहित्य को राजाश्रय प्राप्त हुआ तब उच्चकोटि के कवियों ने महान् और यशस्वी राजाओं को भी काव्य का विषय बना दिया। काव्य का नायक धीरोदात्त क्षत्रिय होने लग गया। अनेक काव्य इसके प्रमाण हैं । इन काव्यों में प्रकृति भी स्वतंत्र रूप से या गौण रूप से वर्णन का विषय रही है। प्रकृति का वर्णन महाकाव्य का एक अंग बन गया। महाकाव्यों में वन, नदी, पर्वत, संध्या, सूर्योदय, चन्द्रोदय आदि के वर्णन आवश्यक हो गये। इन विषयों के अतिरिक्त प्रेम भी कवियों का वर्ण्य विषय रहा। महाकाव्यों में यह तत्त्व इतना अधिक स्पष्ट नहीं दिखाई देता जितना कि नाटकों में। स्वप्नवासवदत्ता, विक्रमोर्वंशीय, शाकुन्तलम्, मालती माघव, 'रत्नावली' आदि नाटकों में इसी प्रेम तत्त्व की प्रधानता है। महाकाव्यों के अतिरिक्त अनेक इस प्रकार के मुक्तक काव्य भी लिखे गये जिनमें, नीति, वैराग्य या श्रृंगारादि का वर्णन है । इस प्रकार संस्कृत और प्राकृत के काव्यों का मुख्य विषय- महापुरुष वर्णन, देवी-देवता वर्णन, प्रकृति वर्णन और प्रेम ही रहा । गौण रूप से नीति, वैराग्य, श्रृंगारादि का भी वर्णन तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002
35
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org