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परवर्ती अनेक आचार्यों ने अनेकान्तिक दृष्टि के प्रभाव के परिणामस्वरूप उदारता का परिचय अवश्य दिया है, फिर भी उनकी सृजनधर्मिता उस स्तर की नहीं हैं जिस स्तर की हरिभद्र की है। उनकी कृतियों में दो चार गाथाओं या श्लोकों में उदारता के चाहे संकेत मिल जाएं, किंतु ऐसे कितने हैं जिन्होंने समन्वयात्मक और उदारदृष्टि के आधार पर षड्दर्शनसमुच्चय, शास्त्रवार्तासमुच्चय और योगदृष्टिसमुच्चय जैसे महान् कृतियों का प्रणयन किया हो।
दर्शन संग्राहक ग्रंथों की परम्परा में आचार्य हरिभद्र एक ऐसे महान् दार्शनिक व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने पूर्ण निष्पक्षता एवं उदारतापूर्वक बिना किसी खण्डन-मण्डन के निरपेक्ष भाव से दार्शनिक सिद्धान्तों का प्रस्तुतीकरण किया। जैनेतर दार्शनिक ग्रंथ आचार्य शंकर विरचित 'सर्वसिद्धांतसंग्रह' को लें अथवा माध्वाचार्य कृत 'सर्वदर्शन संग्रह' को, साथ ही जैन परम्परा के राजशेखरकृत (वि.सं. 1405) षड्दर्शनसमुच्चय, आचार्य मेरुतुंगकृत षड्दर्शननिर्णय, जिनदत्तसूरि के 'विवेक-विलास', अज्ञातकर्तृक 'सर्वसिद्धांत प्रवेशक' आदि सभी पश्चात्वर्ती आचार्यों की कृतियों को लें, उन सभी में दर्शन के क्षेत्र में आचार्य हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय जैसी उदारता, निरपेक्षभाव एवं समन्वयवादी दृष्टिकोण का पूर्णतः अभाव परिलक्षित होता है अपने परवर्ती ग्रंथों में वे अन्य परम्पराओं और उनके प्रवर्त्तकों के प्रति अत्यन्त सम्मान सूचक भाषा का प्रयोग करते हैं तथा उनके प्रति बहुमान सूचित करते हैं। अपने ग्रंथ ‘शास्त्रवार्तासमुच्चय' के प्रारम्भ में ही ग्रंथ-रचना का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं. यं श्रुत्वा सर्वशास्त्रेषु प्रायस्तत्त्वविनिश्रव्यः । जायते द्वेषशमनः स्वर्गसिद्धिसुखावहः ॥
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अर्थात् इसका अध्ययन करने से अन्य दर्शनों के प्रति द्वेष-बुद्धि समाप्त होकर तत्त्व का बोध हो जाता है। इस ग्रंथ में वे कपिल को दिव्य पुरुष एवं महामुनि के रूप में सूचित करते हैंकपिलो दिव्यो हि स महामुनिः (शास्त्रवार्तासमुच्चय, 237 )
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इसी प्रकार वे बुद्ध को भी अर्हत्, महामुनि, सुवैद्य आदि विशेषणों से अभिहित करते हैंयतो बुद्धो महामुनिः सुवैद्यवत् (शास्त्रवार्तासमुच्चय, 465-66 )
यहाँ हम देखते हैं कि जहाँ एक ओर अन्य दार्शनिक अपने विरोधी दार्शनिकों का खुलकर परिहास करते हैं, यथा - न्यायदर्शन के प्रणेता महर्षि गौतम को गाय का बछड़ा या बैल और महर्षि कणाद को उल्लू कहते हैं, वहीं दूसरी ओर हरिभद्र अपने विरोधियों के लिए महामुनि और अर्हत् जैसे सम्मानसूचक विशेषणों का प्रयोग करते हैं । इस प्रकार आचार्य हरिभद्र ने अन्य परम्पराओं के प्रति जिस शिष्टता और आदरभाव का परिचय दिया है, वह हमें जैन और जैनेतर किसी भी परम्परा के अन्य ग्रंथों में उपलब्ध नहीं होता।
आचार्य हरिभद्रसूरि ने ईश्वरवाद की अवधारणा में कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्यों को देखने का प्रयास किया है। उन्होंने ईश्वर कर्तृत्ववाद की अवधारणा को अपने ढंग से स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। वे कहते हैं कि जो व्यक्ति आध्यात्मिक निर्मलता के फलस्वरूप अपने विकास की उच्चतम भूमिका को प्राप्त हुआ हो वह असाधारण आत्मा है और वही ईश्वर या सिद्ध पुरुष है । उस आदर्श स्वरूप को प्राप्त करने के कारण कर्त्ता तथा भक्ति का विषय होने से वह उपास्य
तुलसी प्रज्ञा अप्रैल - सितम्बर, 2002
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