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अन्य दार्शनिक परम्पराओं के ग्रंथों का निष्पक्ष अध्ययन करके उन पर व्याख्या और टीका का प्रणयन करना। उदार और समन्वयवादी दृष्टि रखते हुए पौराणिक अंधविश्वासों का निर्भीक रूप से खण्डन करना। दर्शन और धर्म के क्षेत्र में आस्था या श्रद्धा की अपेक्षा तर्क एवं युक्ति पर अधिक बल, किन्तु शर्त यह कि तर्क और युक्ति का प्रयोग अपने मत की पुष्टि के लिए नहीं, अपितु सत्य की खोज के लिए हो। धर्म साधना को कर्मकाण्ड के स्थान पर चरित्र की निर्मलता के साथ जोड़ने का प्रयत्न । मुक्ति के सम्बंध में एक उदार और व्यापक दृष्टिकोण ।
उपास्य के नाम-भेद को गौण मानकर उसके गुणों पर बल।
दार्शनिक और धार्मिक परम्पराओं का अध्ययन मुख्यतः दो दृष्टियों से किया जाता है-एक तो उन परम्पराओं की आलोचना करने की दृष्टि से और दूसरा उनका यथार्थ के रूप में परिचय पाने और उनमें निहित सत्य को समझने की दृष्टि से । आलोचना एवं समीक्षा की दृष्टि से लिखे गये ग्रंथों में भी आलोचना के शिष्ट और अशिष्ट ऐसे दो रूप मिलते हैं।
यद्यपि हरिभद्र ने भी अपनी कुछ कृतियों में अन्य दर्शनों एवं धर्मों की समीक्षा की है। अपने ग्रंथ धूर्ताख्यान में वे धर्म और दर्शन के क्षेत्र में पनप रहे अंधविश्वासों का सचोट खण्डन भी करते हैं, फिर भी इतना निश्चित है कि वे न तो अपने विरोधी विचारों को भ्रान्त रूप में प्रस्तुत करते हैं और न उनके सम्बंध में अशिष्ट भाषा का प्रयोग ही करते हैं। यह उनकी दार्शनिक समन्वयात्मक दृष्टि का परिचायक है। वैचारिक समन्वयशीलता और धार्मिक उदारता की जिस ऊँचाई का स्पर्श हरिभद्र ने अपनी कृतियों में किया है वैसा उनके पूर्ववर्ती जैन एवं जैनेतर दार्शनिकों में हमें परिलक्षित नहीं होता । यद्यपि हरिभद्र के परवर्ती जैन दार्शनिकों में हेमचन्द्र, यशोविजय, आनन्दघन आदि अन्य धर्मों और दर्शनों के प्रति समभाव और उदारता का परिचय देते हैं, किंतु उनकी यह उदारता उन पर हरिभद्र के प्रभाव को ही सूचित करती है। "लोकतत्त्वनिर्णय" नामक ग्रंथ में आचार्य हरिभद्र कहते हैं
पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु। युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥38॥
आचार्य हेमचंद्र पर उक्त श्लोक का स्पष्टतः प्रभाव दृष्टिगोचर होता है, जहाँ वे ब्रह्मा, विष्णु, महेश अथवा जिन (तीर्थङ्कर) को नमस्कार करते हुए कहते हैं -
भव-बीजांकुरजनना, रागाद्याक्षयमुपागता यस्य। ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै॥
- महादेव-स्तोत्र, 44 वस्तुतः 2500 वर्ष के सुदीर्घ जैन इतिहास में ऐसा कोई भी समन्वयवादी उदारचेता व्यक्तित्व नहीं है, जिसे हरिभद्र के समतुल्य कहा जा सके। यद्यपि हरिभद्र के पूर्ववर्ती और
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तुलसी प्रज्ञा अंक 116-117
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