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________________ करो - यह उत्सर्ग है और 'अग्निसोमीयं पशुमलभेत्' अग्नि और सोम के लिए पशु के वध को - यह अपवाद है । उत्सर्ग और अपवाद का विषय व्यवस्थित है । इसीलिए वैदिक कर्म विशुद्ध है, क्योंकि शिष्ट उनका अनुष्ठान करते हैं और निंदा के योग्य नहीं है । निष्कर्षत: सामान्य विधि उत्सर्ग है और विशेष विधि अपवाद है किन्तु दोनों ही विधि एक ही प्रयोजन से सिद्ध करती है, इसलिए अपवाद विधि उत्सर्ग विधि से बलवान नहीं हो सकती। दोनों मिलकर ही मूल ध्येय को सिद्ध करते हैं । यदि कोई विधि अहिंसा के लिए है तो उसका निषेध भी अहिंसा के लिए ही है। सापेक्ष दृष्टि से व्याख्या करने पर यद्यपि निषेधक स्थान पर विधि और विधि के स्थान पर निषेध प्राप्त होते हैं पर वैसी ही स्थिति में वे विधिनिषेध सम्मत होते हैं जहां तक साधक की साधना में बाधा उपस्थित न हो। संक्षेपतः उत्सर्ग और अपवाद – दोनों मार्ग हैं साधना पथ पर बढ़ने के । दोनों का लक्ष्य है जीवन की शुद्धि, पवित्रता, संयम की रक्षा, ज्ञानादि गुणों का संपोषण । एक राजमार्ग की तरह सीधा है तो दूसरा थोड़ा घुमावदार । राजमार्ग पर विशेष प्रतिरोध उत्पन्न होने की स्थिति में साधक पगडंडी को स्वीकार करता है किन्तु तब तक ही, जब तक प्रतिरोध बना रहे । प्रतिरोध समाप्ति के बाद वह पुनः राजमार्ग पर लौट आया है। निशीथ चूर्णि में उत्सर्ग के लिए प्रतिषेध शब्द है और अपवाद के लिए अनुज्ञा शब्द है । 'उस्सग्गो पडिसेहो अवतावो अण्णा' साधु के लिए जो अकरणीय कार्य कहे गये हैं वे सारे प्रतिषेध के अन्तर्गत आते हैं और परिस्थिति विशेष में उन्हीं निषिद्ध कार्यों को करने की अनुज्ञा दी जाती है। वे निषिद्ध कार्य भी विधि बन जाते हैं। प्रवचनसार" में बताया है – सर्वथोत्सर्गापवादमैत्र्य सौस्थित्यमाचरणस्य विधेयम्उत्सर्ग और अपवाद, इन दोनों में परस्पर मैत्री होने से मुनि आचार में अच्छी तरह से स्थिरता आ सकती है। निशीथ भाष्यकार लिखते हैं - शास्त्र में न सर्वथा अनुज्ञा है और न सर्वथा निषेध है, अतः साधक को लाभार्थी वणिक की भांति आय-व्यय का हिसाब कर किसी कार्य में प्रवृत्त होना चाहिए । भाष्य एवं चूर्णि साहित्य में अपवाद सेवन के कारणों का उल्लेख मिलता है | 5 असिवे ओमोदरिए रायदुट्टे भये गेलण्णे । अद्धाण रोधए वा कप्पिया तीसु वी जतणा ॥ महामारी, दुर्भिक्ष, प्रशासकीय प्रतिकूलता, सामाजिक अपराध, चोरी, डकैती, लूटपाट आदि का भय, बीमारी, छोटे-छोटे राज्यों का आपसी तनाव, विग्रह इत्यादि से साधक के लिए अपवाद सेवन अनुज्ञात है। कारण समाप्त होने पर जैसा कि ऊपर निर्दिष्ट किया जा चुका है कि साधक को अपवाद मार्ग से पुनः उत्सर्ग मार्ग में आ जाना चाहिए, यही विवेकपूर्ण आचरण है। तुलसी प्रज्ञा अप्रैल - सितम्बर, 2002 - Jain Education International For Private & Personal Use Only 71 www.jainelibrary.org
SR No.524611
Book TitleTulsi Prajna 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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