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________________ है और अविरति का भागी नहीं होता है। जैसा कि स्पष्ट किया जा चुका है कि उत्सर्ग और अपवाद ---दोनों का लक्ष्य एक है । उत्सर्ग चरित्र-शुद्धि के लिए प्रमुख नियमों का विधान है तो अपवाद चरित्र-शुद्धि के लिए बाधक नियमों का विधान है। यथापरिस्थिति विधिनिषेध हो जाता है और निषेध विधि । निशीथ भाष्यकार इस सम्बन्ध में बड़ी महत्त्वपूर्ण बात लिखते हैं उस्सग्गेण णिसिद्धाणि, जाणि दव्वाणि संथरे मुणिनो। कारणजाए जाते सव्वाणि वि ताणि कप्पंति॥' समर्थ साधक के लिए उत्सर्ग स्थिति में जिन द्रव्यों का निषेध किया गया है, असमर्थ साधक के लिए अपवाद की परिस्थिति में विशेष कारण से वह वस्तु ग्राह्य भी हो जाती है। निशीथ चूर्णि में आचार्य जिनदास इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए लिखते हैं," "जो उत्सर्ग में प्रतिसिद्ध हैं वे सबके सब कारण उत्पन्न होने पर कल्पनीय ग्राह्य हो जाते हैं। ऐसा करने में किसी प्रकार का भी दोष नहीं है। (जाणि उस्सग्गो पडिसिज्झति, उप्पण्णे करणे सव्वाणि वि ताणि कप्पंति)" आचार्य उमास्वाति लिखते हैं, । “भोजन, शय्या, वस्त्र, पात्र तथा औषध आदि कोई भी वस्तु शुद्धकल्प्य-ग्राह्य होने पर भी अकल्प्य-अशुद्ध हो जाती है और अकल्प्य होने पर भी कल्प्य हो जाती है।" देश, काल, क्षेत्र, पुरुष, अवस्था, उपघात और शुद्ध भावों की समीक्षा के द्वारा ही वस्तु कल्प्य ग्राह्य होती है। कोई भी वस्तु सर्वथा एकांत रूप से कल्प्य नहीं होती है। आयुर्वेद में भी जो वस्तु रोग की एक अवस्था में अपथ्य मानी गई है, दूसरी अवस्था में वही वस्तु पथ्य कही गई है। चरक संहिता में कहा गया है उत्पद्यते हि सावस्था देशकालायमान् प्रति। यस्यामकार्य कार्यं स्यात् कर्म कार्यं तु वर्जयेत्॥ देश, काल और रोग के कारण ऐसी अवस्था उत्पन्न होती है जब अकार्य कार्य बन जाता है और कार्य अकार्य बन जाने से त्याज्य हो जाता है। जैसे बलवान ज्वर के रोगी को लंघन स्वास्थ्यप्रद है किन्तु क्षीण धातु रोगी को वही लंघन घातक है । इसी तरह किसी देश में ज्वर के रोगी को दही खिलाना पथ्य समझा जाता है परन्तु वहीं दही दूसरे देश में ज्वर के रोगी के लिए अपथ्य है। भाष्यकार शंकर ने भी उत्सर्ग और अपवाद मार्ग की चर्चा की है। उनके अनुसार धर्म और अधर्म के विज्ञान का हेतु शास्त्र है। यह धर्म है, यह अधर्म है, इसके विज्ञान में शास्त्र ही कारण है, क्योंकि धर्म और अधर्म अतीन्द्रिय है और उनका देश, काल और निमित्त अनियत है। जिस देश, काल और निमित्त में जिस धर्म का अनुष्ठान होता है वही धर्म अन्य देश, काल और निमित्त में अधर्म हो जाता है। न हिंस्यात् सर्व भूतानि - किसी भी जीव की हिंसा मत 70 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 116-117 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524611
Book TitleTulsi Prajna 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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