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________________ एक दिन दो स्वर्गवासी देवों ने बलदेव और वासुदेव के प्रेम की परीक्षा के लिए लक्ष्मण को विश्वास दिलाया कि राम का देहान्त हो गया। इससे शोकाकुल होकर लक्ष्मण मर गये और अन्त में नरक सिधारे । लक्ष्मण की अन्त्येष्टि के पश्चात् राम ने जैनधर्म में दीक्षा ले ली और साधना करके मोक्ष को प्राप्त किया। गुणभद्र की परम्परा के अनुसार रामकथा का रूप निम्न लिखित है। वाराणसी के राजा दशरथ की सुबाला नामक रानी के राम, कैकयी से लक्ष्मण और बाद में साकेतपुरी में किसी अन्य रानी से भरत और शत्रुध्न नामक पुत्र उत्पन्न हुए। गुणभद्र के अनुसार सीता रावण की रानी मंदोदरी की पुत्री थी। सीता को अमंगलकारिणी समझकर उन्होंने उसे एक मंजूषा में डलवा कर मारीच द्वारा मिथिला देश में गड़वा दिया। हल की नोक में उलझी वह मंजूषा राजा जनक के पास ले जाई गई। जनक ने उसमें एक कन्या को देखा और उसका नाम सीता रखकर पुत्री की तरह पालन-पोषण किया। चिरकाल के पश्चात् राजा जनक ने अपने यज्ञ की रक्षा के लिये राम और लक्ष्मण को बुलाया। यज्ञ समाप्ति पर राम और सीता का विवाह हुआ। राम-लक्ष्मण दोनों दशरथ की आज्ञा से वाराणसी में रहने लगे। कैकयी के हठ करने पर राम को वनवास लेने आदि का इस परम्परा में कोई निर्देश नहीं। पंचवटी, दण्डक वन, जटायु, शूर्पणखाँ, खरदूषण आदि के प्रसंगों का भी अभाव है। राजा जनक ने रावण को अपने यज्ञ में निमंत्रित किया था। इस पराभव से जल कर और नारद के मुख से सीता के सौन्दर्य की प्रशंसा सुनकर रावण ने स्वर्णमृग का रूप धारण किये हुए मारीच द्वारा सीता का अपहरण कर लिया। सीताहरण के समय राम और सीता वाराणसी के निकट चित्रकूट वाटिका में विहार कर रहे थे। गुणभद्र की कथा में हनुमान ने राम की सहायता की। लंका में जाकर सीता को सांत्वना दी। लंका दहन के प्रसंग का निर्देश नहीं किया गया। युद्ध में लक्ष्मण ने रावण का सिर काटा। राम और लक्ष्मण दोनों अयोध्या लौटे। राम की आठ हजार और लक्ष्मण की सौलह हजार रानियों का उल्लेख किया गया है। लोकापवाद के कारण सीता-निर्वासन की इसमें चर्चा नहीं। लक्ष्मण एक असाध्य रोग से मरकर रावण वध के कारण नरक को गये। इससे विक्षुब्ध होकर राम ने लक्ष्मण के पुत्र पृथ्वी सुन्दर को राज्य पद पर और सीता के पुत्र अजितंजय को युवराज पद पर अभिषिक्त करके स्वयं जैनधर्म में दीक्षा ले ली और अन्त में अच्युत स्वर्ग प्राप्त किया। जैन राम कथा में कई असंभव घटनाओं को संभव रूप में व्याख्या करने का प्रयत्न किया गया है। इसमें वानर और राक्षस दोनों विद्याधर वंश की भिन्न-भिन्न शाखा मानी गई हैं। जैनियों के अनुसार विद्याधर मनुष्य ही माने गये हैं। उन्हें कामरूपत्व, आकाशगामिनी आदि अनेक विद्यायें सिद्ध थीं, अतएव उनका नाम विद्याधर पड़ा। वानरवंशी विद्याधरों की ध्वजाओं, महलों और छतों के शिखर पर वानरों के चिह्न हआ करते थे, अतएव उन्हें वानर कहा जाता था। "जैन सिद्धान्त भास्कर" जैन साहित्य और इतिहास में भी यही बात उल्लिखित है। 38 - ] तुलसी प्रज्ञा अंक 116-117 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524611
Book TitleTulsi Prajna 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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