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________________ भगवान् महावीर ने देखा पदार्थ नित्य भी है और अनित्य भी है। द्रव्य या अस्तित्व की दृष्टि से वे नित्य हैं और भाव या अवस्थान्तर की दृष्टि से वे अनित्य हैं । इस नित्यवादी दर्शन के आधार पर उन्होंने धर्म का प्रवर्तन किया। धर्म को नहीं देखने वाला उसका प्रवर्तन नहीं कर सकता। तात्पर्य की भाषा में कहा जा सकता है कि बुद्धि द्वारा धर्म का प्रवर्तन नहीं हो सकता। वह प्रज्ञा द्वारा ही होता है। प्रज्ञा वस्तु-तत्त्व का साक्षात् करने वाली चेतना की अवस्था है।' ज्ञानी मनुष्य सत्य के प्रति समर्पित होता है। वह ऐसा कोई वचन नहीं बोलता जिससे सत्य की प्रतिमा खण्डित हो। सत्य हैं द्रव्य एवं पर्याय और उनकी यथार्थ अवस्था को जानना आवश्यक है। वस्तु के विषय में अनाग्रह के दृष्टिकोण का विकास ही अनेकान्त व्यवस्था का मूल आधार है। अपने ही पक्ष को सत्य मानने से और दूसरे की दृष्टि का तिरस्कार करने से विसंवादों की समाप्ति संभव नहीं है। सूत्रकृतांग में लिखा है - सयं सयं पसंसंता, गरहंता परं वयं। जे उ तत्थ विउस्संति, संसारं ते विउस्सिया॥ अर्थात् अपने-अपने मत की प्रशंसा और दूसरे मतों की निन्दा करते हुए जो गर्व से उछलते हैं वे संसार (जन्म-मरण की परम्परा) को बढ़ाते हैं। (इस गाथा के पाद-टिप्पण में आशय को स्पष्ट करते हुए आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने लिखा है - अपने सिद्धान्त की प्रशंसा और दूसरे के सिद्धान्त की गर्दा करना वर्तमान की मनोवृत्ति ही नहीं है, वह पुरानी मनोवृत्ति है। यही सत्य है, दूसरा सत्य नहीं है, इस आग्रह ने संघर्ष को जन्म दिया है । इदमेवैकं सत्यं मम सत्यं' इस आग्रह से जो असत्य जन्मता है, उससे बचने के लिए अनेकान्त को समझना आवश्यक है। अनेकान्त दृष्टि वाला दूसरे सिद्धान्त के विरोध में या प्रतिपक्ष में खड़ा नहीं होता, किंतु सत्य को सापेक्ष दृष्टि से स्वीकार करता है। नियतिवादी नियति के सिद्धान्त को ही परम सत्य मानकर दूसरे सिद्धान्तों का खण्डन करते थे। तब भगवान् महावीर ने कहा- नियतिवाद ही तत्त्व है, इस प्रकार का गर्व दु:ख के पार पहुंचाने वाला नहीं, दुःख के जाल में फंसाने वाला है। प्रस्तुत श्लोक को अनेकान्तदृष्टि की पृष्ठभूमि के रूप में देखा जा सकता है। सूत्रकृताङ्ग मूलतः आचार शास्त्र है। आचार की पृष्ठभूमि को समझाने के लिए दूसरे दार्शनिकों की दृष्टियों का निरूपण किया गया है। नवदीक्षित श्रमणों की दृष्टि परिमार्जित करने के लिए 180 क्रियावादी दर्शनों, 84 अक्रियावादी दर्शनों, 67 अज्ञानवादी दर्शनों और 32 विनयवादी दर्शनों की व्यूह रचना कर स्वसमय की स्थापना की गयी। मौलिक विषय आचार का प्रतिपादन ही है। श्रमण के आचार में सम्यक् भाषा के प्रयोग का वर्णन करते हुए सूत्रकृतांग में लिखा है - संकेज याऽसंकितभाव भिक्खू विभज्जवायं च वियागरेजा। भासादुगं धम्मसमुट्टितेहिं वियागरेज्जा समयाऽऽसुपण्णे॥ भिक्षु किसी पदार्थ के प्रति अशंकित हो, फिर भी सत्य के प्रति विनम्र होकर प्रतिपादन करे। प्रतिपादन में विभज्यवाद (भजनीयवाद या स्याद्वाद) का प्रयोग करे। आशुप्रज्ञ तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524611
Book TitleTulsi Prajna 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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