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विवचन किया ह - 1. प्राणायाम, 2. प्रत्याहार, 3. ध्यान, 4. धारणा, 5. तर्क, 6. समाधि । महर्षि पतञ्जलि' ने इसमें यम, नियम और आसन नामक तत्त्वों को जोड़ा तथा तर्क को हटाकर योग को अष्टांग बना दिया।
जैन साधना पद्धति के सूत्र आगमों में भी मिलते हैं जहाँ शुद्ध सात्विक जीवन का आधार त्रिरत्न को माना गया है। जैन दर्शन का भव्य प्रासाद सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन एवं सम्यक् चारित्र, इन्हीं तीन आधारों पर अवस्थित है। फिर तप को चारित्र के एक अतिरिक्त अंग के रूप में सम्मिलित कर इसे चतुष्पाद बना दिया गया। जैन साधना वीतरागता को प्रमुखता देती है। अतः वह सांसारिक आकर्षण को कषाय का स्वरूप मानते हुये साधक को इनसे बचाने की सलाह देती थी । यह व्यवहार और निश्चय के रूप में तो द्विविध है ही परन्तु श्रमण धर्म एवं श्रावक धर्म के रूप में भी द्विविध है। जिसे सर्वविरति और देशविरति के रूप में व्याख्यायित किया गया है। आचार्य महाप्रज्ञ के शब्दों में 'साधना का क्रम प्राप्त मार्ग यह है कि हम पहले असत् प्रवृत्ति से हटकर सत् प्रवृत्ति की भूमिका में आयें और फिर निवृत्ति की भूमिका को प्राप्त करें। "
तप साधना के विकास क्रम में जैन, बौद्ध और शैव दर्शन छट्ठी-सातवीं शताब्दी के मध्य योग के समीप आये । बौद्धों में वज्रयान शाखा तंत्र-मंत्र साधना द्वारा लोक-परलोक विजय की कामना करने लगी तो शैवों में पातञ्जल योग का सहारा लेकर हठयोग की प्रवृत्ति बनी। सिद्ध और नाथों की परम्परा के समकाल में ही जैन आचार्यों ने जैन योग की दृष्टि से विचार करना प्रारम्भ किया। तप के अन्तर्गत पंच महाव्रत, द्वादशव्रत और अनुप्रेक्षा को ध्यान में रखते हुए जैन साहित्य में यौगिक क्रियाओं का साहित्यिक और प्रात्यक्षिक अनुप्रयोग होने लगे ।
जैनयोग की परम्परा को व्यवस्थित रूप आचार्य हरिभद्र ने दिया । उन्होंने योगबिन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय आदि यौगिक ग्रंथों की रचना कर योग को एक नया रूप दिया । पतञ्जलि के अष्टांगों की भाँति आठ दृष्टियों की चर्चा की है तथा मोक्षप्राप्ति के साधन के रूप में धर्म व्यापार को मानकर अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षय योग नामक पाँच भेद किये। आचार्य देवनंदि पूज्यपाद ने इष्टोपदेश, समाधितंत्र, आचार्य हेमचंद्र ने योगशास्त्र, शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव, श्री नागसेनमुनि ने तत्त्वानुशासन, यशोविजय ने अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद्, मंगलविजय ने योगप्रदीप, अमितगति ने योगसारप्राभृत, सोमदेवसूरि ने योगमार्ग, आचार्य भास्करनंदि ने ध्यानस्तव तथा योगीन्दुदेव ने परमात्मप्रकाशयोगसार की रचना कर जैन योग की परम्परा को समृद्ध किया ।
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तेरापंथ के नवम आचार्य आचार्य श्री तुलसी का महत्त्व सर्वातिशायी है। वे तत्त्ववेत्तामनीषी, चिन्तक, साधक, शिक्षाशास्त्री, धर्माचार्य, बहुभाषाविज्ञ, समाजसुधारक, आशुकवि, प्रकाण्डपण्डित और दार्शनिक थे। इन्होंने जैनसिद्धान्तदीपिका, भिक्षुन्यायकर्णिका, पंचसूत्रम्, शिक्षा षण्णवति तथा कर्त्तव्य षट्त्रिशिंका का प्रणयन किया। योग एवं मन को अनुशासित करने के लिए
तुलसी प्रज्ञा अंक 116-117
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