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________________ अक्षयसागर - भाव पर मूर्त्तत्वारोप हुआ है। इन्द्र के समान तेजस्वी हैं – मनुष्य पर देवत्वारोप - अन्य के धर्म का अन्य पर आरोप विषयक उत्कृष्ट उदाहरण है। सुदंसणस्से जसो गिरिस्स पवुच्चती महतो पव्वतस्स। एतोवमे समणे नायपुत्ते जाती-जसो-दंसण-णाणसीले॥ अर्थात् सुदर्शन पर्वत महान् यश वाला है। ज्ञातपुत्र महावीर की उपमा इससे दी जाती है। जैसे सुदर्शन पर्वत अपने गुणों के कारण सभी पर्वतों में श्रेष्ठ है, वैसे ही भगवान् भी जाति, यश, दर्शन, ज्ञान और शील में सर्वश्रेष्ठ हैं । पर्वत के धर्म का मनुष्य पर आरोप किया गया है। 'महावीरत्थुइ' में अनेक श्रेष्ठ उपमाओं के द्वारा महावीर की महनीयता का उद्घाटन किया गया है। उपचारवक्रता या उपमानवक्रता की दृष्टि से यह अध्ययन स्वतंत्र रूप से विवेचनीय है। उत्तराध्ययन का ऋषि उपचारवक्रता या धर्म विपर्यय या विचलन की कला में प्रवीण है। प्रथम अध्ययन विनय श्रुत में कणकुण्डगं चइत्ताणं, जहासुणी, हयंभई, स पुज्जसत्थे आदि उपचारवक्रता के उदाहरण हैं, क्योंकि प्रथम तीन में सुअर, कुत्तीआ, भद्राश्व आदि पशु के धर्म का मनुष्य पर आरोप किया गया है, 'पुज्जसत्थे' में गुण के आधार पर गुणी का अभिधान रूपक के माध्यम से किया गया है। हरिकेशबल अध्ययन में अन्य के धर्म (क्षेत्र और बीज के धर्म का) अन्य पर आरोप का एक उत्कृष्ट उदाहरण द्रष्टव्य है - थलेसु बीयाइ ववन्ति कासगा तहेव निन्नेसु य आससाए।० एतोवमे समणे नायपुत्ते जाती-जसो-दंसण-णाणसीले॥ । अर्थात् सुदर्शन पर्वत महान् यश वाला है। ज्ञातपुत्र महावीर की उपमा इससे दी जाती है। जैसे सुदर्शन पर्वत अपने गुणों के कारण सभी पर्वतों में श्रेष्ठ है, वैसे ही भगवान् भी जाति, यश, दर्शन, ज्ञान और शील में सर्वश्रेष्ठ हैं । पर्वत के धर्म का मनुष्य पर आरोप किया गया है। 'महावीरत्थुइ' में अनेक श्रेष्ठ उपमाओं के द्वारा महावीर की महनीयता का उद्घाटन किया गया है। उपचारवक्रता या उपमानवक्रता की दृष्टि से यह अध्ययन स्वतंत्र रूप से विवेचनीय है। उत्तराध्ययन का ऋषि उपचारवक्रता या धर्म विपर्यय या विचलन की कला में प्रवीण है। प्रथम अध्ययन विनयश्रुत में कणकुण्डगं चइत्ताणं, जहासुणी, हयंभई, स पुज्जसत्थे आदि उपचार वक्रता के उदाहरण हैं, क्योंकि प्रथम तीन में सुअर, कुत्तीया, भद्राश्व आदि पशु के धर्म का मनुष्य पर आरोप किया गया है, 'पुजसत्थे' में गुण के आधार पर गुणी का अभिधान रूपक के माध्यम से किया गया है । हरिकेशबल अध्ययन में अन्य के धर्म (क्षेत्र और बीज के धर्म का) अन्य पर आरोप का एक उत्कृष्ट उदाहरण द्रष्टव्य है- . थलेस बीयाइ ववन्ति कासगा तहेव निन्नेसु य आससाए।1 एयाए सद्धाए दलाह मझं आराहए पुण्णमिणं खु खेत्तं ॥ यहां पर सुक्षेत्र एवं बीज के धर्म का आरोप मुनि और दान में किया गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में प्राप्त उपचारवक्रता को अध्ययन की सुविधा के लिए निम्न रूप में विन्यस्त कर सकते हैं - तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002 0 - 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524611
Book TitleTulsi Prajna 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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