Book Title: Jaypayad Nimmittashastra
Author(s): Jinvijay
Publisher: Prakrit Bharti Academy
Catalog link: https://jainqq.org/explore/003385/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थमाला [ ग्रन्थांक 43] पूर्वाचार्यविरचित घ्रश्रव्याकरणाख्य जयपायड निमित्तशास्त्र (प्रथमावृत्ति-संस्कृतव्याख्योपेत मूल प्राकृत ग्रन्थ) SRI DALCHAND JI SINGHI 13 LEVNMMUNNNN श्री डालचन्द जी सिंधी aey प्रधान सम्पादक आचार्य जिनविजयपनि प्राकृत भारती अकादमी,जयपुर श्रीमती अंगूरी सिंधी Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थमाला [ ग्रन्थांक 43] संस्थापक श्रीमद् बहादुर सिंहजी सिंघी संरक्षक श्री राजेन्द्र सिंह सिंघी तथा श्री नरेन्द्र सिंह सिंघी पूर्वाचार्यविरचित प्रश्नव्याकरणाख्य जयपायड निमित्तशास्त्र (प्रथमावृत्ति - संस्कृतव्याख्योपेत मूल प्राकृत ग्रन्थ) नव-संस्करण प्राकृत भारती पुष्प 267 प्रधान सम्पादक तथा संचालक आचार्य जिनविजयमुनि [ पुनर्प्रकाशन ] प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर श्रीमती अंगूरी सिंघी Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकः देवेन्द्रराज मेहता संस्थापक एवं मुख्य संरक्षक, प्राकृत भारती अकादमी १३-ए, मेन मालवीय नगर, जयपुर-302017 दूरभाष : 0141-2524827 श्रीमती अंगूरी सिंघी 18, कापसहेड़ा एस्टेट, नई दिल्ली - 110037 प्रथम नव-संस्करण 2009 मूल्य : 200 रुपये US $ 12.00 © प्रकाशकाधीन ISBN NO. 978-81-89698-72-0 लेजर टाइप सेटिंग सागर सेठी, प्राकृत भारती अकादमी मुद्रकः राज प्रिन्टर्स, जयपुर फोन नं. 0141-2621774, मो. नं. 09982066620 सिंघी जैन ग्रन्थमाला/आचार्य जिन विजयमुनि/2009 This book is printed on Eco-friendly paper. Jain Education Intemational Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थमाला नव- संस्करण बाबू नरेन्द्र सिंह सिंघी को समर्पित Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय जैन धर्म में साहित्य सर्जन व संरक्षण की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है और इसमें श्रमण वर्ग व श्रावक वर्ग दोनों का सम्मिलित और समर्पित योगदान रहा है। यही कारण है कि जैनों के पास हस्तलिखित ग्रन्थों का विशाल भण्डार उपलब्ध है। उदाहरण स्वरूप जिनभद्रसूरि का नाम लिया जा सकता है जिन्होंने अनेक ज्ञानभण्डार स्थापित करने के पश्चात् जैसलमेर का प्रसिद्ध ज्ञानभण्डार स्थापित किया-जिसमें अनेक जैनेतर ग्रन्थों की प्राचीनतम ताडपत्रीय पाण्डुलिपियाँ भी संरक्षित हैं। प्राच्य विद्या के मूर्धन्य मनीषी मुनिश्री जिनविजयजी ने इस प्राचीन धरोहर में से श्रेष्ठ ग्रन्थ रत्नों को आधुनिक शास्त्रीय पद्धति से संशोधित संपादित कर प्रकाशित करने की योजना पिछली सदी के तीसरे दशक में बनाई थी। इस योजना को कलकत्ता जैन समाज के प्रसिद्ध व प्रतिष्ठित मुखिया बाबू बहादुर सिंहजी सिंघी का उदार सहयोग प्राप्त हुआ। इसी कार्य को सुचारु रूप से संपन्न करने हेतु उन्होंने अपने पिता श्री डालचंदजी सिंघी की स्मृति में उनके गोत्र-नाम से 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला' की स्थापना करवाई । कालान्तर में यह योजना श्री क. मा. मुंशी द्वारा स्थापित भारतीय विद्या भवन के अन्तर्गत आ गई। १९४४ में श्री बहादुर सिंहजी सिंघी के देहावसान से योजना के कार्य-कलापों में तनिक ठहराव आया किन्तु उनके योग्य सुपुत्रों ने, अपने पिताश्री की भावनाओं का आदर करते हुए, समुचित सहयोग में बाधा नहीं आने दी। यह कार्य मुनिश्री जिनविजयजी के जीवन काल तक निरन्तर चलता रहा। समर्पित व्यक्तियों के चले जाने के बाद ऐसी योजनाओं का भी अन्त हो जाता है। मुनिजी व मुंशीजी के चले जाने के बाद इस महत्त्वपूर्ण योजना पर भी विराम लग गया। किन्तु तब तक साठ से अधिक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रकाशन हो चुका था और यह ग्रंथमाला जैन विद्या के क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर चुकी थी। गत ३०-४० वर्षों में शोधार्थी विद्वद् वर्ग को इस ग्रन्थमाला के ग्रन्थों का अभाव रह-रह कर खटकता रहा है? सभी ग्रन्थ अप्राप्य हो गए हैं और अनेक ग्रन्थ तो सुव्यवस्थित पुस्तकालयों में भी उपलब्ध नहीं होते। इस कमी को देखते हुए प्राकृत भारती अकादमी ने इस ग्रन्थमाला के पुन: प्रकाशन की योजना बनाई । यह कार्य कष्ट साध्य होने के साथ-साथ प्रचुर आर्थिक संसाधनों पर निर्भर करने वाला था अत: योजना के क्रियान्वन में विलम्ब होता रहा। तभी संयोगवश इस योजना के संबंध में सिंघी परिवार के ही श्री रंजन सिंघी (सुपुत्र बाबू नरेन्द्र सिंह सिंघी, सुपौत्र बाबू बहादुरसिंहजी सिंघी) से चर्चा हुई। उन्होंने इस पुनर्प्रकाशन योजना की सराहना की और सहर्ष संपूर्ण आर्थिक भार वहन करने की Jain Education Intemational Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वीकृति प्रदान की। हम आदरणीय रंजन सिंघी व समस्त सिंघी परिवार के इस साहित्य एवं संस्कृति प्रेम की सराहना करते हैं और इस अनुकरणीय सहयोग हेतु आभार प्रकट करते हैं। पुनर्प्रकाशन की इस शृङ्खला की प्रथम मणि के रूप में "कथाकोष प्रकरण" का प्रकाशन हुआ और उसे विद्वद्जनों ने सराहा। दूसरी मणि के रूप में पूर्वाचार्य विरचित 'जयपायड निमित्त शास्त्र' अपरनाम प्रश्न व्याकरण प्रस्तुत है। ६८० वर्ष पूर्व लिखित यह पुस्तक निमित्तशास्त्र के अन्तर्गत प्रश्न विद्या विषय पर है। प्राचीन मनीषियों ने अज्ञात तत्त्वों और भावों को जानने हेतु, एवं कई प्रकार की गूढ़ विद्याओं का ज्ञान प्राप्त करने के लिए, विभिन्न आयामों के चिन्तन व प्रयोग किए थे। यह ज्ञान वे गूढ़ प्रणाली में निबद्ध करते थे। प्रस्तुत ग्रन्थ ऐसे ही किसी अज्ञात तत्त्व को समझने समझाने का एक प्रयास है। आशा है सुधी पाठक, विशेषकर शोधकर्ता, इसे उपयोगी पाएंगे। प्रकाशन से जुड़े सभी महानुभावों का हार्दिक धन्यवाद । देवेन्द्रराज मेहता संस्थापक एवं मुख्य संरक्षक प्राकृत भारती अकादमी जयपुर Jain Education Intemational Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिं घी जैन ग्रन्थ मा ला संस्थापक ख. श्रीमद् बहादुर सिंहजी सिंघी संरक्षक श्री राजेन्द्र सिंह सिंघी तथा श्री नरेन्द्र सिंह सिंघी प्रधान सम्पादक तथा संचालक आचार्य जिन विजय मुनि SRI DALCHAND JI SINGH TITTARA a श्री डालचन्द जी सिंघी पूर्वाचार्य विरचित प्रश्नव्याकरणाख्य जयपायड निमित्तशास्त्र ( संस्कृतव्याख्योपेत मूल प्राकृत ग्रन्थ ) संपादनकर्ता आचार्य जि न वि जय मुनि [अधिष्ठाता-सिंधी जैन शास्त्र शिक्षापीठ] *************[ प्रकाशनकर्ता ] *****...... सिंघी जैन शास्त्र शिक्षा पीठ भारतीय विद्या भवन, बम्बई.७ *-*-*-*-* वि.सं. २०१५] Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थ मा ला ***********************[ gruim 83 ]**************** पूर्वाचार्यविरचित प्रश्नव्याकरणाख्य जयपायड निमित्तशास्त्र (प्रथमावृत्ति - संस्कृतव्याख्योपेत मूल प्राकृत ग्रन्थ ) SRI DALCHAND JI SINGHI DOUUUU00000UUC Juara wwwww श्री डालचन्द जी सिंघी SINGHI JAIN SERIES *********************[ NUMBER 43 ]*************** JAYAPAYADA NIMITTASASTRA (A WORK OF THE SCIENCE OF PROGNOSTICS MAKING PROPHESIES ON THE BASIS OF THE LETTERS OF SPEECH) (6) -- Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलकत्ता निवासी साधुचरित-श्रेष्ठिवर्य श्रीमद् डालचन्दजी सिंघी पुण्यस्मृतिनिमित्त प्रतिष्ठापित एवं प्रकाशित सिंघी जैन ग्रन्थ मा ला जैन आगमिक, दार्शनिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक, वैज्ञानिक, कथात्मक-इत्यादि विविधविषयगुम्फित प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, प्राचीनगूर्जर,-राजस्थानी आदि नानाभाषानिबद्ध सार्वजनीन पुरातन वाड्याय तथा नूतन संशोधनात्मक साहित्य प्रकाशिनी सर्वश्रेष्ठ जैन ग्रन्थावलि] प्रतिष्ठाता श्रीमद्-डालचन्दजी-सिंघीसत्पुत्र स्व. दानशील-साहित्यरसिक-संस्कृतिप्रिय श्रीमद् बहादुर सिंहजी सिंघी SNI BAHADUR SINGHJI SINGH प्टर RE XX Deी बहादुर सिंकफी मिंधीdadil प्रधान सम्पादक तथा संचालक आचार्य जिन विजय मुनि अधिष्ठाता, सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ ___ ऑनररी डायरेक्टर राजस्थान ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, जोधपुर (राजस्थान) निवृत्त ऑनररि डायरेक्टर भारतीय विद्या भवन, बम्बई मॉनररी मेंबर जर्मन ओरिएण्टल सोसाईटी, जर्मनी, भाण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना (दक्षिण); गुजरात साहित्यसभा, अहमदाबाद (गुजरात); विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध प्रतिष्ठान, होसियारपुर (पञ्जाब) . संरक्षक प्रकाशनकर्ता श्री राजेन्द्र सिंह सिंघी तथा श्री नरेन्द्र सिंह सिंघी अधिष्ठाता, सिंघी जैन शास्त्र शिक्षा पीठ भारतीय विद्याभवन, बम्बई प्रकाशक - जयन्तकृष्ण ह. दवे, ऑनररी डायरेक्टर, भारतीय विद्या भवन, चौपाटी रोड, बम्बई, नं. ७ मुद्रक-लक्ष्मीबाई नारायण चौधरी, निर्णयसागर प्रेस, २६-२८ कोलभाट स्ट्रीट, बम्बई, नं. २ (7) Jain Education Intemational Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वाचार्य विरचित प्रश्नव्याकरणाख्य जयपायड निमित्तशास्त्र (प्रथमावृत्ति - संस्कृतव्याख्योपेत मूल प्राकृत ग्रन्थ ) ස जेसलमेरुदुर्गस्थ - प्राचीन जैनग्रन्थभाण्डागारोपलब्ध ताडपत्रीयपुस्तकानुसार संपादनकर्ता आचार्य, जिन विजय मुनि अधिष्ठाता, सिंघी जैनशास्त्र शिक्षापीठ ऑनररी मेंबर - जर्मन ओरिएण्टल सोसाईटी, जर्मनी, भाण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट पूना, (दक्षिण); गुजरात साहित्यसभा, अहमदाबाद (गुजरात); विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध प्रतिष्ठान, होसियारपुर (पाव) ऑनररी डायरेक्टर राजस्थान ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, जोधपुर ( राजस्थान ) निवृत्त ऑनररि डायरेक्टर- भारतीय विद्याभवन, बम्बई ग्रन्थांक ४३ ] विक्रमाब्द २०१४ ] ... भारतीय विद्या siya y fam बंबई प्रकाशनकर्ता अधिष्ठाता, सिंघी जैन शास्त्र शिक्षा पीठ भारतीय विद्या भवन, बम्बई प्रथमावृत्ति ५०० प्रति [ ख्रिस्ताब्द १९५८ भवन सर्वाधिकार सुरक्षित (8) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SINGHI JAIN SERIES Works in the Series already out. अद्यावधि मुद्रितग्रन्थनामावलि ? १ मेहतुकाचार्यरचित प्रबन्धचिन्तामणि ।१९ भर्तृहरिकृत शतकत्रयादि सुभाषितसंग्रह. ____ मूल संस्कृत ग्रन्थ. २० शान्याचार्यकृत न्यायावतारवार्तिक-वृत्ति, २ पुरातनप्रबन्धसंग्रह बहुविध ऐतियतथ्यपरिपूर्ण २१ कवि धाहिलरचित पउमसिरीचरिउ. (अप०) अनेक निबन्ध संचय. २२ महेश्वरसूरिकृत नाणपंचमीकहा. (प्रा.) ३ राजशेखरसूरिरचित प्रबन्धकोश. २३ श्रीभद्रबाहुआचार्यकृत भद्रबाहुसंहिता. ४ जिनप्रभसूरिकृत विविधतीर्थकल्प. २४ जिनेश्वरसूरिकृत कथाकोषप्रकरण. (प्रा.) ५ मेघविजयोपाध्यायकृत देवानन्दमहाकाव्य. २५ उदयप्रभसूरिकृत धर्माभ्युदयमहाकाव्य. ६ यशोविजयोपाध्यायकृत जैनतर्कभाषा. २६ जयसिंहसूरिकृत धर्मोपदेशमाला. (प्रा.) ७ हेमचन्द्राचार्यकृत प्रमाणमीमांसा. २७ कोऊहलविरचित लीलावई कहा. (प्रा.) ८ भट्टाकलङ्कदेवकृत अकलङ्कअन्यत्रयी. २८ जिनदत्ताख्यानद्वय. (प्रा.) ९ प्रबन्धचिन्तामणि-हिन्दी भाषांतर, २९ स्वयंभूविरचित पउमचरिउ. भाग १ (अप०) १० प्रभाचन्द्रसूरिरचित प्रभावकचरित. ११ सिद्धिचन्द्रोपाध्यायरचित भानुचन्द्रगणिचरित. ३१ सिद्धिचन्द्रकृत काव्यप्रकाशखण्डन. १२ यशोदिजयोपाध्यायविरचित ज्ञानबिन्दुप्रकरण. ३२ दामोदरपण्डित कृत उक्तिव्यक्तिप्रकरण. १३ हरिषेणाचार्यकृत बृहत्कथाकोश. ३३ भिन्न भिन्न विद्वत्कृत कुमारपालचरित्रसंग्रह. १४ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह, प्रथम भाग.. . ३६ जिनपालोपाध्यायरचित खरतरगच्छ बृहद्गुर्वावलि. १५ हरिभद्रसूरिविरचित धूर्ताख्यान. (प्राकृत) ३५ उक्ष्योतनसूरिकृत कुवलयमाला कहा. (प्रा.) १६ दुर्गदेवकृत रिष्टसमुच्चय. (प्राकृत) ...३६ गुणपालमुनिरचित जंबुचरियं. (प्रा.) १७ मेघविजयोपाध्यायकृत दिग्विजयमहाकाव्य. ३७ पूर्वाचार्यविरचित जयपायढ-निमित्तशास्त्र.(प्रा.) १८ कवि अब्दुल रहमानकृत सन्देशरासक. (अपभ्रंश)] ३८ भोजनृपतिरचित शृङ्गारमअरी.(संस्कृत कथा) Shri Bahadur Singh Singhi Memoirs Dr. G. H. Bühler's Life of Hemachandrächārya. Translated from German by Dr. Manilal Patel, Ph. D. १ स्व. बाबू श्रीबहादुरसिंहजी सिंघी स्मृतिग्रन्थ [भारतीयविद्या भाग ३] सन १९४५. 2 Late Babu Shri Bahadur Singhji Singhi Memorial volume. BHARATIYA VIDYA Volume V1A. D. 1945. 3 Literary Circle of Mahāmātya Vastupāla and its Contribution to Sanskrit Literature. By Dr. Bhogilal J. Sandesara, M. A., Ph. D. (S.J.S.33) 4-5 Studies in Indian Literary History. Two Volumes. By Prof. P. K. Gode, M. A. (S.J. S. No. 37-38.) Works in the Press. संप्रति मुद्यमाणग्रन्थनामावलि १ विविधगच्छीयपहावलिसंग्रह. | ९ गुणप्रभाचार्यकृत विनयसूत्र. (बौद्धशास्त्र) २ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह, भाग २. १० धनसारगणीकृत-भर्तृहरशतकत्रयटीका. ३ विज्ञप्तिसंग्रह विज्ञप्ति महालेख - विज्ञप्ति त्रिवेणी | रामचन्द्रकविरचित-मल्लिकामकरन्दादिनाटकसंग्रह. आदि अनेक विज्ञप्तिलेख समुच्चय. १२ तरुणप्राभाचार्यकृत षडावश्यकबालावबोधवृत्ति. कीर्तिकौमुदी आदि वस्तुपालप्रशस्तिसंग्रह. ५ गुणचन्द्रविरचित मंत्रीकर्मचन्द्रवंशप्रबन्ध. १३ प्रद्युम्नसूरिकृत मूलशुद्धिप्रकरण-सटीक ६ नयचन्द्रविरचित हम्मीरमहाकाव्य, १४ हेमचन्द्राचार्यकृत छन्दोऽनुशासन ७ महेन्द्रसूरिकृत नर्मदासुन्दरीकथा.(प्रा.) १५ स्वयंभुकविरचित पउमचरिउ. भा० ३ ८ कौटिन्यकृत अर्थशास्त्र - सटीक. (कतिपयअंश) | १६ ठकुर फेरूरचित ग्रन्थावलि (प्रा.) Jain Education Intemational Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational सिंघी जैन ग्रन्थ माला] [जयपायड निमित्तशास्त्र पक्षावनामासवेकायाकरकमलकांतर लोलायोहिरासङिनमत सिआशषऽदितघयावानियतार्थ मामायापलियमकिरणराव मासिरसागचाभरसावणाम्यतिकि मालामवकालवयचाबहामायाचतिक घायराडायोड्डानिमित्रसासस्थान। शभिश्चादवतानमछारकनंद्यविगतदर्थ मियधीशणमिएसयलतिद्धयणमन्वयघडा विलियमसमुद्यातासिहश्वासामुसकमविता (10) गिनाम्यरूपाचावयपाकप) सायनयतत्यानक यतश्य सकालाधासाकाशावादीनीयागिहामानव शतकावारूपामाधावानावधमनवद्याध यद्यतिइत्यस्यताबाशयकर्मविदाराहीमाती बाधायच्वायनपतसिहावलपवासाररूपानं घयवसावालामचन्मयकाललामणिलाक्राय जेसलमेर में प्राप्त प्रतिके आद्य पत्र Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational सिंघी जैन ग्रन्थ माला] [जयपायड निमित्तशास्त्र ashreeवादिसरावादांकापमान यसनयादातरामयबहादसामयासा PN दिसण्यासडिताचुतकायमाथि वियतनहायातादातिसाहाण निवरकसमकामासाहायला आधिपहासामहिकावणायनtame सर्यावसामतिमा लागातारासीजावा. क्रवकसण्यासाधनकायवाचविसाधावताच माससमयमामसौदसागासदासयुकितिया दशियामरसंगपलरियासासाकवि PARAN सासमामा यमुक्य यवह नाबानतदाता (नाबादधापरायमा मामामामायणमादी HaMEMकादयामामाहिानयद सस्पदिसम्यवापानिपEE जेसलमेर में प्राप्त ताडपत्रीय प्रतिके अन्तिम पत्र Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किञ्चित् प्रास्ताविक प्रस्तुत जयपायड नामक निमित्त शास्त्रकी ताडपत्रपर लिखी हुई प्राचीन प्रति हमको जेसलमेरके एक ज्ञान भण्डारमें प्राप्त हुई थी। इससे पूर्व, हमारे दृष्टिगोचर यह ग्रन्थ नहीं हुआ था, इसलिये हमने इसकी प्रतिलिपि करवा ली, और फिर इसका विषयावलोकन करनेसे हमें यह एक महत्त्वकी रचना ज्ञात हुई, अतः इसको इस सिंघी जन ग्रन्थ माला द्वारा प्रकाशित करनेका हमने संकल्प किया। जेसलमेर में प्राप्त यह ताडपत्रीय पुस्तिका, जैसा कि इसके अन्तमें लिखा हुआ है-विक्रम संवत् १३३६ में लिखी गई थी अर्थात् आजसे कोई ६८० वर्ष पूर्वकी लिखी हुई है। इस पुस्तिकाके कुल मिलाकर २२७ ताडपत्र हैं। अक्षर सुवाच्य हैं। पर कहीं कहीं स्याही घिस जानेसे अक्षर अदृश्यसे हो गये हैं। लिपिकर्ता विषय और भाषासे अनभिज्ञ होनेके कारण प्रतिका पाठ बहुत ही अशुद्ध और भ्रष्टखरूपवाला लिखा गया है। ग्रन्थको प्रेसमें छपनेके लिये देना निश्चित हुआ तब इसका कोई दूसरा प्रत्यन्तर कहीं से मिल सके तो पाठसंशोधनमें विशेष सहायक हो सके इस विचारसे, पूना, पाटण, अहमदाबाद, बडोदा आदिके प्रसिद्ध जैन भण्डारों में इसकी खोज की गई, पर उसमें सफलता नहीं मिली। पीछेसे भावनगरके भण्डारमें एक कागज पर लिखी प्रति प्राप्त हुई, पर, वह जेसलमेरवाली प्रतिसे भी अधिक भ्रष्ट पाठवाली निकली; अतः संशोधनमें उसका कोई खास उपयोग नहीं हुआ। तब हमने केवल उक्त भ्रष्ट पाठवाली प्रतिके उपरसे ही यथामति पाठ संशोधन आदि करके प्रस्तुत आवृत्तिको, इस खरूप में प्रकट कर देनेका प्रयत्न किया है। ग्रन्थके अवलोकन मात्रसे ही विशेषज्ञ विद्वानको ज्ञात हो जायगा कि इसका पाठसंशोधन करनेमें हमको कितना श्रम उठाना पड़ा है। पुस्तिकाकी प्रायः प्रत्येक पंक्ति भ्रष्ट पाठवाली प्रतीत हो रही है। न मालूम मूलप्रति लेखककी अज्ञानताके कारण ऐसा पाठभ्रष्ट हुआ है अथवा किसी भ्रमवश ऐसा अशुद्ध पाठ लिखा गया है । ग्रन्थगत विषय बहुत ही गोपनीय माना जाता रहा है। कोई विरल ही व्यक्ति इसका अध्ययन-मनन कर सके-ऐसी रहस्यमयी भावना, इस विषयका ज्ञान प्राप्त करनेके विषयमें प्राचीन कालसे चली आ रही है; अतः इसकी दुर्लभता और अप्रसिद्धि खाभाविक है। ग्रन्थका विषय निमित्तशास्त्रान्तर्गत प्रश्नविद्या विषयक है। अतः इस रचनाका अन्य नाम प्रश्नव्याकरण ऐसा दिया गया है । प्रश्नचूडामणी, प्रश्नप्रकाश आदि नामके इस विषयके कई प्राचीन ग्रन्थोंका उल्लेख अन्यान्य ग्रन्थोंमें मिलते हैं । इसी आवृत्तिके अन्तमें ज्ञानदीपक नामक एक संक्षिप्त चूडामणिसार शास्त्र भी मुद्रित किया गया है जो इसी विषयकी एक संक्षिप्त रचना है। यह रचना भी हमें जेसलमेरके एक भण्डारमें फुटकल पन्नोमें मिली है। जेसलमेर, जो पुस्तिका प्राप्त हुई उसकी पट्टिकापर 'जयपाहुड' ऐसा नाम लिखा हुआ था इसलिये हमने प्रन्थके मुद्रणमें मुख्य शिरोलेख इसी नामसे अंकित कर दिया; पर पीछेसे ऊहापोह करने पर 'जयपाहुड' नहीं परंतु 'जयपायर्ड' ऐसा नाम समुचित मालूम दिया। अतः हमने मुखपृष्ठ पर इसी नामका उपयोग करना उचित समझा है। मूल ग्रन्थकी तीसरी गाथामें इसी शब्दका प्रयोग किया गया है (12) Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपायड-किञ्चित् प्रास्ताविक हमारे पूर्वज मनीषियोंने अज्ञात तत्त्वों और भावोंको जाननेके लिये एवं कई प्रकारकी गूढ विद्याओंका ज्ञान प्राप्त करनेके लिये, नाना प्रकारके चिन्तन, मनन और निदिध्यासन किये हैं। इनके फलस्वरूप जो ज्ञातव्य उन्हें प्राप्त हुए उनको वे संक्षेपमें एवं सूत्ररूपमें प्रथित करके ग्रन्थ या प्रकरणके रूपमें निबद्ध करते रहै जिससे भावी सन्ततिको उसका ज्ञान प्राप्त होता रहै । प्रस्तुत ग्रन्थ एक ऐसे ही अज्ञात तत्त्व और भावोंका ज्ञान प्राप्त करने-करानेका विशेष रहस्यमय शास्त्र है। यह शास्त्र जिस मनीषी या विद्वान्को अच्छी तरह अवगत हो, वह इसके आधारसे, किसी भी प्रश्नकर्ताके लाभ-अलाभ, शुभ-अशुभ, सुख-दुःख एवं जीवन-मरण आदि की बातोंके विषयमें बहुत निश्चित और तथ्यपूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सकता है और प्रश्नकर्ता को बता सकता है। प्राचीन ब्राझी लिपि, जो हमारी भारतीय लिपियोंकी माता या मूल प्रकृति मानी जाती है, उसकी वर्णमाला या अक्षरमातृकामें मुख्य रूपसे ४५ अक्षर हैं । इनमें अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः ये १२ खर हैं; और क ख ग घ ङ - क वर्ग च छ ज झ न-च वर्ग ट ट ड ढ ण -ट वर्ग त थ द ध न-त वर्ग प फ ब भ म-प वर्ग य र ल व -य वर्ग श स प ह - श वर्ग इस प्रकार ७ वर्गोमें विभक्त ३३ व्यंजन हैं। १२ खरोंका १ वर्ग है, जिसकी संज्ञा 'अ' है। बाकीके ३३ व्यंजनोंकी 'क. च. ट. त. प. य. श.' इस प्रकार क्रमशः ७ संज्ञाएं हैं। इस प्रकार संपूर्ण वर्णमाला ८ वॉमें विभक्त की गई है । प्रस्तु शास्त्रमें इन वर्गगत अक्षरोंके अनेक प्रकारके मेद - उपभेद बताये गये हैं। ये अक्षर अनेकानेक गुण और धोंके वाचक और सूचक हैं। प्रत्येक अक्षर विशिष्ट प्रकारके खभाव और खरूप का सूचक है और फिर वह जब किसी दूसरे अक्षरके संयोगमें आता है तब, वह उस संयोगके कारण और भी अनेक प्रकारका स्वभाव और खरूप बतलानेवाला बन जाता है । अक्षरोंके स्वभाव और खरूपका निदर्शन करानेके लिये अभिधूमित, आलिंगित, दग्ध आदि संज्ञाएं बताई गई हैं। इन अक्षरोंमें कुछ अक्षर जीवसंज्ञक हैं, कुछ धातुसंज्ञक हैं और कुछ मूलसंज्ञक हैं। इस प्रकार कई तरहसे अक्षरोंके खभाव, गुण और धोका प्रतिपादन इस शास्त्रमें किया गया है। यह एक बहुत विलक्षण और अद्भुत रहस्यमय शास्त्र है इसमें कोई शंका नहीं है। प्राचीन जैन ग्रन्थोंमें इस रहस्यमय अतिशयात्मक शास्त्रीय विषयका उल्लेख बहुत जगह मिलता है। इससे ज्ञात होता है कि प्राचीन कालके जैन आचार्य इस विषयका बहुत ही विशिष्ट ज्ञान रखते थे। इस विषयका निरूपण करनेवाले छोटे-मोटे अनेक ग्रन्थ एवं प्रकरण जैनाचार्यों द्वारा बनाए गये प्रतीत होते हैं जो प्रायः अब विलुप्त-से हो रहे है। (13) Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाड-किश्चित् प्रास्ताविक इस विषयके ज्ञाताओं और शास्त्रकारोंका अभिमत है कि जिन अज्ञात और गूढ तत्त्वोंका परिज्ञान, सर्वज्ञ केवलज्ञानी अपने आध्यात्मिक अन्तरज्ञान द्वारा अनुभूत कर सकता है वैसा ही परिज्ञान, इस शास्त्रका विशिष्ट ज्ञाता, इस शास्त्र द्वारा अनुभूत कर सकता है और इस लिये इस विषयके शास्त्रको मणि, 'केवली चूडामणि,' 'केवली परिज्ञान' आदि नामोंसे भी व्यवहृत किया गया है। इस विषय पर प्रकाश डालनेवाली बहुत कुछ साहित्यिक सामग्री हमारे पास संग्रहीत हो गई है; पर उसका विस्तृत रूपसे आलेखन करनेका यथेष्ट अवकाश हमें प्राप्त नहीं हो रहा है। अतः अभी तो हमने इस ग्रन्थको, इस प्रकार, केवल मूल रूपमें ही प्रकट कर देनेका यन किया है, जिससे इस विषयके जिज्ञासुओंको इस शास्त्रका कुछ आभास प्राप्त हो सके। ___ इसकी पुनरावृत्ति, विशिष्ट रूपसे करनेका हमारा मनोरथ है; जिसके साथ इस प्रकारकी कुछ अन्य रचनाएँ भी संकलित की जायेंगी और इस विषय पर प्रकाश डालनेवाली अनेक तथ्यपूर्ण बातें भी आलेखित की जायेगी। विजयादशमी, संवत् २०१४ (२१, अक्टूबर, १९५८) बनेकान्तविहार, अहमदाबाद -मुनि जिन विजय (14) Jain Education Intemational Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपायड. निमित्तशास्त्रगत विषयानुक्रम क्रम. क्रम. पृ. १-७ ८ विषय. १ सामासिक शिक्षाप्रकरण २ संकट - विकट प्रकरण ३ उत्तराधर प्रकरण ४ अभिघात प्रकरण ५ जीवसमास प्रकरण ६ मनुष्य प्रकरण ७ पक्षि प्रकरण ८ चतुष्पद प्रकरण ९ जीवचिन्ता १० धातुप्रकृति ११ धातुयोनि १२ मूलभेद १३ मूलयोनि १४ मुष्टिविभाग प्रकरण १५ वर्ण-रस-गंध- स्पर्श प्रकरण ३१-३३ ८-१२ १२-१६ १६-१८ १८-२० २०-२१ २१-२२ IN विषय. २२ वर्गगंडिका २३ नक्षत्रगंडिका २४ व्यंजन विभाग २५ स्ववर्गसंयोगकरण २६ परवर्गसंयोगकरण २७ सिंहावलोकितकरण २८ चतुर्भेद गजविलुलित गुणाकार प्रकरण ३० उत्तराधरविभाग प्रकरण स्वर्ग प्रकरण २९ २२ २२-२५ ३१ ३२ व्यंजन- स्वर प्रकरण २५-२७ २७-२९ २९ ३३ स्वभावप्रकृति ३०-३१ १६ द्विपदादि द्रव्य दिक् प्रकरण ३३-३४ ३४ उत्तराधरसंपत्करण ३५ वर्गाक्षरसंयोगोत्पादन ३६ सर्वतोभद्र ३४-३८ ३७ संकट-विकट प्रकरण ३८-३९ ३८ अंग संबंधी अस्त्र विभाग प्रकरण ८२-८४ ८४ ३९ स्वरक्षेत्र भवन ३९-४४ ४० तिथिनक्षत्रकांड ४१ ४२ १७ नष्टिकाचक्र १८ चिन्ताभेद प्रकरण १९ लेखगंडिकाधिकार संख्याप्रमाण २० काल प्रकरण २१ लाभगंडिका प्रकरण bi ४४-४६ ४६-५० (15) पृ. ५०-५१ ५१-५२ ५२-५७ ५७-५८ ५८ ५८-५९ ५९-६३ ६३-६५ ६५ ६५-६७ ६७-६८ ६८-६९ ६९-७३ ७४-८० ८०-८१ ८१-८२ ८४-८५ ८५-८६ व्याधि- मृत्युविषयक प्रश्न ज्ञानदीपक चूडामणिसारशास्त्र ८७-९६ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरणाख्यं जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । ॥ औं नमः सर्वज्ञाय ॥ करकमलकलितमौक्तिकफलमिव कालत्रयस्य विज्ञानम् । यो वेत्ति लीलयैव हि, तं सर्वज्ञं जिनं नमत ॥१॥ अन्थकृत्(ता?) प्रश्नाख्यस्य जयपाहुडस्य निमित्तशास्त्रस्यारम्भे अशेषदुरितप्रक्षयार्थ चाभिप्रेतार्थप्रसिद्ध्यर्थमिष्टदेवतानमस्कार(रः)कर्त्तव्यः । तदर्थमाह - . सिद्धमरूयमणिदियमक्कि(क)यमणवन(ज)मच्चुयं वीरं । णमिऊण सयलतिहुयणमत्थयचूडामणी(णिं) सिरसा ॥१॥ वीरं शिरसा प्रणम्येति । किंविशिष्टमन्तमुच्यते-सिद्धं । तत्र शुभाशुभकर्मविमुक्तः ॥ [प०१, पा० २] सिद्धः । नास्य रूपं विद्यत इत्यरूपः । रूपं सु(शु)छ-कृष्णाद्यात्मकम् । श्रोत्रादीनीन्द्रियाणि शब्दाद्यर्थविषये न प्रवर्त्तत(न्ते) इत्यनीन्द्रियम्। न कृ(क्रि)यत इत्यकृतकः, द्रव्यरूपेण नित्यत्वात् । नावद्यमनवद्यः। अवयं पापम् , अपापं अगझे इत्यर्थः । न स्वभावात् प्रच्यवति इत्युच्य(त्यच्यु)तः । अशेषकर्मविदारणाद् वीरः । वीरो देवताविशेषः । तं शिरसा प्रणम्येति सम्बन्धोऽयम् । अथवा यं न(?) एव सिद्धः अत एवासावरूपी अनिन्द्रिय अकृतक अनवद्य ।। अच्युतः वीरः इति बभूय(व) स एव सकलत(त्रि)भुवनमस्तकचूडामणि[:] लोकाग्रे [प० २, पा. १] निवासित्वात् । अतस्तं देवताविशेष महावीराख्यं सि(शि)रसा प्रणम्य प्रश्नव्याकरणं शास्त्रं व्याख्यामीति वाक्यशेषाल्लभ्यमिति । आरादुपकारित्वात् ॥ १॥ सुयदेवयं पणमिमो, जस्स पसाएण गहियव(ध)रियस्स । सुत्तस्स अत्थपरिमियसपा(मा?)दरो तीरए काउं ॥ २ ॥ श्रुतं साम(शास्त्र) ज्ञानमित्यनर्थान्तरम् । तदेतत् श्रुतं देवता श्रुतदेवता। तां श्रुतदेवतां प्रणता(मा)मि । यस्याः प्रसादेन । प्रसाद इत्यनुग्रहोऽभिमुखपरितोष इत्युच्यते । गृहीतस्य ()तस्य च तस्य सूत्रस्यार्थः । सूत्रार्थः प्राप्त्यादरः शक्यते कर्तुमिति ॥ २॥ मइमाहाप० २, पा० २]प्पुप्पायं, भुवणभंतरपवंत(वत्त)वावारं । अइसयपुण्णं णाणं, पण्हं जयपायडं वोच्छं ॥ ३ ॥ मति(तिः) बुद्धि(द्धिः) प्रज्ञेति पर्यायाः । बुद्धिप्रभावोत्पत्तिभूतमित्यर्थः। कस्तस्या बुद्धे (ढेः) प्रभावः । नष्ट-मुष्टिचिन्ता-लाभालाभ-सुख-दुःख-जीवित-मरणाभिव्यञ्जकत्वम् । किश्च भुवनाभ्यन्तरप्रवृत्तव्यापारम् । व्यापारस्तद्गतपदार्थोपलम्भनम् । अतिस(श)यपूर्ण ज्ञानम् । यदन्यसा(शा) (17) Jain Education Intemational Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ & 10 15 28 28 20 जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [ गाथा ३-९] खानुपलब्धं सोऽतिस (श) यः । अतिर्य ( शय) ज्ञानं निमित्तशास्त्रात्यु (दु) पलभ्यत इत्यतिस (श) यः । अतीतानाग[त] वर्त्तमान निमित्ताद्यनेकप्रकारं नष्ट-मुष्टिचिन्ता विकल्पाद्य तिस (श) यपूर्ण प्रश्नज्ञानं जग[१० ३,पा० १ ]त्प्रकटने हेतुभूतं जगत्प्रकटनं व्याख्यामीति ॥ ३ ॥ २ अकचटतपयश पुबे, वग्गे लक्खेज्ज पण्हमादीए । उत्तरधरा य तेसिं, जाणे वग्गक्खरसराणं ॥ ४ ॥ इह शास्त्रे द्विधा वर्गक्रमः उक्त (क्तः) । अष्टवर्गी क्रम (मः) पञ्चवर्गी क्रमश्चेति । कृतं एतत् । तथा शास्त्रे व्यवहारदर्शनात् । तत्राय मत्राष्टवर्गक्रमः - 'अ क च ट त प य श' इत्येते ऽष्टौ प्रथमा वर्णा वर्गाणां सूचका इति । प्रस्ना (ना) यामादौ प्रस्ना (अ) मातृकायां वा मात्रिके त्यनेकार्थोपसङ्ग्रहत्वात् । वर्गाणां अक्षराणां स्वराणां च उत्तरत्वमधरत्वं च वक्ष्यमाणं अवगच्छ ॥ 11 जेत्तियमित्ते सको, [५०३, पा० २] घेत्तुं पण्हक्खरे परमुहाओ । . ते सधे ठावेउं, तेसिं पढमक्खरपाहुदिं ॥ ५ ॥ 1 यावन्मात्रान् प्रश्नाक्षरान् परमुखानु (द) प्रहीतुं शक्तः नैमित्तिकः । ते सर्वे स्थापयितव्याः प्रथमाक्षरात् प्रभृति तेषामक्षराणाम् ॥ ५ ॥ Jain Education Intemational संजुत्तमसंत्तं, अणभिहयं अभिहयं च जाणित्ता । आलिंगियाभिधूमिय, दडाणि य लक्खए तेसिं ॥ ६ ॥ तेषां वाक्याक्षराणां पूर्वस्थापितानां संयुक्तमसंयुक्तं इति । तत्र संयोगोऽनेकधाऽभिधास्यति । स्वकाय स्ववर्ग- परवर्ग इति । स्वभावस्थो वर्णोऽसंयुक्तः । तथाभिघातो वक्ष्यमाणकस्ट (खि) - विधः [०४, पा० १] | आलिङ्गित अभिधूमित दग्धलक्षणः । अनभिहतः अभिघातः (त ) रहित(च) ति ॥ ६ ॥ मोत्तो (तुं) पढमालावं, णेमित्ती अप्पणो य पडिपन्हं । सेसेसु जीवमादीपरिचित्तं वागरे मइमं ॥ ७ ॥ पृच्छुकस्य सम्भाषणादिकं प्रथमालापं मुक्त्वा प्रस्त्र ( अ ) शास्त्रवित् प्रतिप्रस्सा (श्रा) यात्मीयां (यं) च मुक्त्वा अन्यस्मात् प्रस्नं (अं) गृहीत्वा बाल-मूर्ख - स्त्रीणां प्रथमवाक्यमेव प्रगृह्य जीव-मूल[] राणा (णां त्रयाणां येऽधिकसंख्यास्तै जी (र्जी) वधातुमूलयोनि निर्देश्यम् ॥ ७ ॥ पढमो य सत्तमसरो, क च ट त प य शा य पढमओ वग्गो । बिदि अट्ठमसरसहिया, ख छ ठ था १० ४, पा० २ ]फर षा वितीओ य ॥८॥ पंच-वर्गक्रम इदानीं कथ्यते - अकारः प्रथमः स्वरः । एकारः सप्तमः स्वरः । ' क च ट त प यश' सहितौ प्रथमो वर्गः । आकारो द्वितीयः स्वरः । एकारोऽष्टमः स्वरः । 'ख छ ठ थ फर ष समेतौ द्वितीयो वर्गः ॥ ८ ॥ तइओ णवमेण समं, गजड द ब ल सां य तइयओ वग्गो । चउदसमसरेण समं, घ झ ढध भव हा य चउत्थो उ ॥ ९ ॥ (18) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ad [गाथा १०-१४] प्रश्रव्याकरणाख्य इकारस्मृतीयः । उ(ओ)कार(रो) नवमः । 'गज ड द ब ल स' सहितौ तृतीयो वर्गः। ईकारश्चतुर्थः । औकार(रो) दशमः । 'घ झ ढ ध भ व हा(ह)' समेतौ चतुर्थो वर्गः ॥९॥ अणुणासिया य [प०५, पा० १] पंच वि, पंचम-छठ्ठा सरा य बोधवा । . दो चरिमसरा य तहा, पण्हक्खरमूलवत्थुस्स ॥ १०॥ अषण न माः' पश्च अनुनासिकाः । 'उ ऊ पञ्चमषष्ठौ । 'अं अः द्वौ चरिमस(स्वोरौ । भवतः । एते पंच वर्गाः प्रश्नाक्षरमूलवस्तुनि ॥ १० ॥ वर्गरचना समाता ॥ इदानीं जीव-धातु-मूलाक्षराणां विभागोपदर्शनार्थमाह - आइल्ला तिण्णि सरा, सत्तम णवमो य बारसे जीवं । पंचम-छट्ठ-सरस्स[य], धाउं सेसेसु तिसि(सु) मूलं ॥ ११॥ आधाः खरात्रय 'अ आ इ' । सप्तम 'ए'कारः। नवम 'ओ'कारः। 'अ' द्वादशमः। एते षट् ॥ खराःजीवखराः वि[प०५, पा० २झेयाः। 'उकारा: पंचमः। 'ऊ'कारः षष्ठः।' एकादशमः। त्रय एते धातुस्वराः। चतुर्थ 'ई'कारः। दशम औ'कारः। 'ऐ'कारोऽष्टमः । एते त्रयोमूलस्वराः॥११॥ क चट चउक्के जीयं, अट्ठम-पढमंतिमे यकारे य । तप[य?] चउक्के धाउं, व से य मूलं तु सेसेसु ॥ १२ ॥ क ख ग घ च छ ज झ ट ठ ड ढ' इत्येते पूर्वनिर्दिष्टा[:] प्रथमवर्गस्य । अष्टमः स(श)का- [५०६, पा० १]रः, अस्यान्तो हकारः, यकारश्च । जीवाक्षरा एते। 'त थ द ध, पफबभ' इत्येतेऽष्टौ । वकारः सकारश्चेत्येते धात्वक्षराः। न ण न मा[३] तथा रकारः, लकारः, षकारश्च इत्येते मूलाक्षरा(राः) ॥ १२ ॥ जीवाद्यक्षराणामुपसंग्रहार्थ खराणां गाथामाहजीवक्खरेक्कवीसा, तेरह धाउक्खरा मुणेयवा।। एयारस मूलगया, पणयाला होति सबे वि ॥ १३ ॥ [प०६, पा० २] पूर्वनिर्दिष्टाः स्वराः षट् 'अ आ इ ए उ , क ख ग घ च छ ज झ ट ठ ड ढ, यश हा' एते जीवाक्षरा एकविंशतिः२१ । पूर्वोक्ता धातुखरास्त्रयः 'उ ऊ अं' दश चान्ये 'त थ द ध प फ बभ वसा एते धात्वक्षरास्त्रयोदश१३। ई ऐ औ, बण न मा; रल षा' एते मूलाक्षरा: एकादश ११। जीव-धातु-मूलसमेताः पंचचत्वारिंस(श)दक्षराणि भवन्ति ॥ १३ ॥ [प०७,पा० १] . पढमस(स्स)रसंजुत्ता, सबे लहुअक्खरा य अणभिहया । इच्छंति जीवचिंता मि(मोत्तासु विवजिया जाव ॥ १४ ॥ उत्सर्गसिद्धानां जीवाद्यक्षराणामपवादः । अकारः प्रथमस्वरः येषामक्षराणामन्तर्भूतः, ते जीवाक्षराः प्रथमखरसंयुक्ताः । अथवा अकारेण युक्ताः क च ट य श गज डा' एत्ये(त)ऽष्टौ लध्वक्षरा: अनभिहता मात्रारहिपि०७,पा० २]ताश्च जीवचिन्तां कथयन्ति । अनुक्ता अपि धातू-. (19) Jain Education Intemational Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा १५-१८] (ख)मूलचिन्ताभ्यां गाथायामिन्तभूतास्ते चेत्युच्यन्ते । तदप व स' इत्येते पंच धात्वक्षराः अन. भिहताः लघवो मात्रारहिताश्च जीवधातुचिन्तां कथयन्ति । लकार एक एव मूलाक्षरो लघुः । अनभिहतो मात्राविवर्जितः स स्वजीवमूलचिन्तां कथयति ॥ १४ ॥ मत्तासु जो विअप्पो, जो वि य आलिंगिओ वि अभिघाओ। तं सचं वण्णेहं, जहक्कम आणुपुबीए ॥ १५ ॥ मात्रासु यो विकल्प इति वक्ष्यमाणोपन्यासार्थगाथा । विकल्पग्रहणेन मात्राभेद उच्यते। स ए[वं] तिर्यग्मात्रा अधोमात्रा इति । [५० ८, पा० १ ]आलिंगिताभू(भि)धूमितदग्धलक्षणोपघाता[त्] (त्रि)धा । तदेतत् सप्रपंचं यथाक्रममानुपूर्व्या कथयिष्यामः ॥ १५ ॥ पढमो तइओ य सरो, सत्तम णवमो य तिरियमायाओ । मूलसर उद्द(ड)मत्ता, पंचम-छट्ठा अहोमत्ता ॥ १६ ॥ अकारः प्रथमः स्वरः, इकारः तृतीयखरः, एकारः सप्तमस्वरः, ओकारो नवमस्वर:-एते चत्वारः स्वरास्तिर्यग्मात्राः । एतेषु मूलयोनौ लब्धायां तिर्यग्लतायां वल्यां(हयां) शाखायां वा संघन्धि मुष्टिगृहीतं किमपि कथयन्ति । नष्टप्रश्रेऽप्यन्तरीक्षतिर्यग्भागस्थित द्रव्यमेत एव स्वराः कथयन्ति । ईकारश्वतुर्थः, ऐकारोऽष्टमः, औकारो दशमः । [प०८, पा० २] एते त्रयः स्वरा ऊर्द्ध॥ मात्राः। मूलयोनौ लब्धायां वृक्षस्योर्द्धभागसंबन्धि किमपि मुष्टिगृहीतं कथयन्ति । नष्टप्रश्ने ऊर्द्धभागस्थितद्रव्यमेते त्रयः स्वराः कथयन्ति । पंचमः उकारः, षष्ठः औकारः, एतौ द्वौ स्वरौ अधोमात्रौ मूलयोनौ लब्धायां वृक्षस्याधोभागसंबन्धि किमपि मुष्टिप्र()हीत(तं) कथयत(तः) । नष्टप्रश्भेऽप्यधोभागव्यवस्थित्रा(त)मेतावेव स्वरौ कथयतः ॥ १६ ॥ [१० ९, पा० १] जीवाईसट्टाणं, णियमा द[रि]संति उट्ठ(ड)मत्ताओ। व(वि)वरीय अहोमत्ता, णायवा जीव-धाऊणं ॥ १७ ॥ ऊर्द्धमात्रा यि(येऽ)भिहतात्रयस्रयः स्वराः। ते जीवाक्षराणां पंचदशानामुपरिगता जीवमूलसंस्थानं दर्शयन्ति। काष्ठं मूलमुच्यते । तस्मिन्नुत्कीर्णप्राणिगणस्यान्यतमजीवमूलसंस्थानमुच्यते इति । अधोमात्रो(नौ) द्वौ स्वरावुक्तो(क्तौ) तौ यदा जीवाक्षरसंयुक्तौ दृश्य(इये)ते तदा जीवधा तुं दशेयतः । [प०९,पा० २] को जीवधातुरित्यत्रोच्यते-सुवर्णरूप्यतांबा(ताम्रा)ऽरकांस(स्य)पाषा8 णादिष्वेवंविधेषु धातुषु(पू)त्कीर्णो जीवाकृतिसंस्थानः सकलपाणिगणो जीवधातुरित्युच्यते ॥१७॥ मूलक्खरा उ सबे, धाउं दंसंति जे अहोमत्ता । दंसंति तिरियमत्ता, परपक्खगया उभयपक्खं ॥ १८ ॥ मूलाक्षराः 'ङबण न म र ल षा' श्चाष्टावेते उक्ता व(अ)धोमात्रा(त्राः) स्वरद्वयसमेता यदा दृश्यन्ते तदा धातुद्रव्यं दर्शयन्ति । तिर्यग्मात्राभि[५० १०, पा० १]हताश्चत्वारो जीवस्वराः, ते * मूलाक्षराणामुपरिगता जीवमूलं दर्शयन्ति । जीवमूलस्य आकारः। पूक्तिमेव । धात्वक्षराणा मुपरिगताश्चैते यदा जीवस्वराश्चत्वारो दृश्यन्ते तदा जीवधातुं दर्शयन्ति । जीवधातुसंस्थानं - चोक्तमेव ॥ १८॥ (20) Jain Education Intemational Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा १९-२० ] serertai सविसग्ग-बिंदुसहिया, जीवाइ णिदि [हि ] संति सट्ठाणं । अहम लक्खणं पुण, सबेसि सकायगुरुयाणं ॥ १९ ॥ सविसर्ग-बिन्दुसहिता [:] - विसर्गो द्वादस : (शः) स्वर:, बिन्दुरेकादसः (शः) । [ १०१०, पा०२] ear at जीवाक्षरसहितौ जीवयोनिं कुरुतः । यदा च द्वावेतौ खरौ मूलाक्षरसहितौ दृश्येते तदा मूलयोनिं कुर (रु)तः । धात्वक्षरसहितौ धातुयोनिं कुर (रु) तः । अधोमात्रलक्षणग्रहणेन पंच भण्यन्ते । तद्यथा - स्वकायगुरु [:], स्ववर्गसंयोगः, परवर्गसंयोगः, अर्द्धाक्रान्तं, त्र्यक्षरसंयोचेति । तत्र तावत् स्वकाय गुरोर्लक्षणमुच्यते द्वौ ककारौ संयुक्तौ द्वौ गकारौ द्वौ डकारौ, एवं सर्ववर्गेषु व्याख्या | स्वकायगुरवो जीवयोनौ लब्धायां प्रष्टुः स्वकायचिन्तां कथयन्ति । धातुयोनौ लब्धायां [१० ११, पा० १] आत्मार्थे धातुचिन्तां कथयन्ति । मूलयोनौ लब्धायां आत्मार्थे मूलचिन्तां कथयन्ति । स्ववर्गसंयोगस्य लक्षणमुच्यते - खकारस्योपरिगतः ककारः, घकार- 10 स्योपरिगतो गकारः, एवं वर्गे द्वौ द्वौ स्ववर्गसंयोगौ भवतः । जीवयोनौ लब्धायां प्रभुः स्वबन्धुचिन्तां कथयति (न्ति ) । एतौ धातुयोनौ लब्धायां स्वबन्धुकृते धातुचिन्तां कथयन्ति । मूलयोनौ लब्धायां स्वबन्धुकृते मूलचिन्तां कथयन्ति । परवर्गसंयोगस्य लक्षणमुच्यते - गकारस्य उपरिगतः चकार (रः), गकारस्य उपरिगतो जकारः, पकारस्योपरिगतो (तः ) सकारः; इत्येव - मादयोऽन्येऽपि परवर्गसंयोगा जीवयोनौ लब्धायां [ ५०११, पा० २] प्रष्टुः पर [प]क्षचिन्तां दर्श- " यति (न्ति) | धातुयोनौ लब्धायां परपक्षकृते धातुचिन्तां कथयन्ति । अर्द्धक्रान्तस्य लक्षणमुच्यते - उपरिर्यद्बोधा(उपयधोऽ)क्षराणां तुल्यसंख्यया सो अर्द्धक्रान्तमित्युच्यते । निदर्शनं यथा - 'क्व-बप्र' इत्येवमादयः । चिन्तायां जीवयोनौ लब्धे स्त्री-पुरुषचिन्तां दर्शयन्ति । [ १० १२, पा० १] धातुयोनौ लब्धे स्त्रीसंबन्धेन धातुद्रव्यं लभ्यत इत्यादेश्यम् । मूलयोनौ लब्धे स्त्रीसंबन्धेन मूलद्रव्यं लभ्यत इत्यादेश्यम् । त्र्यक्षरसंयोगस्य लक्षणमुच्यते- त्रिभिस्त्रिभिरक्षरैर्योगः सख्यक्षरयोगः । यथा - 10 ‘स्रि-त्क्रि-वि-स्थि-वर्य-प्य(?)' एवमादयोऽन्येऽपि जीवयोनौ लब्धायां पृष्ठ (प्रष्टुः) [प० १२, पा० २ ] अपत्यचिन्त्यां कथयति(न्ति) । मूलयोनौ लब्धायां अपत्यार्थे मूलचिन्तां कथयन्ति । धातुयोनौ लब्धायां अपत्यार्थे धातुचिन्तां कथयति (न्ति ) ॥ १९ ॥ 1 Jain Education Intemational अभिहयगुरुअक्खरया, रेफ यकार उ ज ( ऊ ? ) कारसंजुत्ता । स य अहोमत्ता, णायवा अप्पहाणा य ॥ २० ॥ 1 'रेफ व (य?) कार उकार ऊकार' एतेषा[ ५० १३, पा० १] मन्यतमेनाधोगतेन जीवधातुमूलाक्षराणां अन्यतनो (मोक्षरः संयुक्तमु (क्त उच्यते । तैरेवाधोगतैः अभिहत उच्यते । तैरेवाधोगतैरप्रधानमुच्यते । जीवयोनौ लब्धायां यस्य कस्यचिदक्षरस्य तले यदा रेफो हस्य (श्य) ते, तदा प्रष्टा यस्यार्थे पृच्छति तस्याधः का [ १० १३, पा० २ ] स (श) स्त्रप्रहार आदेश्यः । जीवयोनौ लब्धायां यस्य 'कस्यचिद् अक्षरस्य तले यदा यकारो दृस्य (श्य ) ते, तदा प्रष्टा यस्यार्थे पृच्छति तस्य स्त्रीनिमित्तं ॥ बन्धनमादेश्यम् । जीवयोनौ लब्धायां कस्यचिदक्षरस्य तले उकारो दृस्य (श्य) ते, तदा प्रष्टा यस्यार्थे पृच्छति तस्य मूलमादेश्यम् । जीवयोनौ लब्धायां यस्य कस्यचिद् अक्षरस्य तले ऊकारो दृस्य (श्य) ते तदा प्रष्टा यस्य कृते पृच्छति तस्य [ १० १४, पा० १] दीर्घकालं बन्धनमादेश्यम् । एते चार्था यद्यपि गाथायां नोक्तास्तथाप्येते दृ ( द्रष्टव्याः ॥ २० ॥ (21) 25 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा २१-२५] जाणे सवग्गगरू(गुरु)ए, जोणी जा जस्स अप्पणातणिय । परवग्गक्खरठाए, जो उवरि तस्स सा जोणी ॥ २१ ॥ जानीहि स्ववर्गाक्षरेणाक्षरो गुरुय(य)त्र यथा-'क्ख ग्घ' आभ्यां जीवो वक्तव्यः । 'त्त त्थ' आभ्यां धातुव(ब)क्तव्यः । 'हनन्ल ना(?) एवमादिभिर्मूलम् । परवर्गेणापि योऽक्षरो । गुरुर्य उपरिस्थितस्ताप० १४, पा० २]स्य सा योनिः। निदर्शनं-'ग्व ड्घ श्व(?)' इत्येवमादयो यथासंख्येन जीवधातुमूलानि ॥ २१ ॥ आइल्ला चत्तारि वि, जीवा पयडी हवंति ठाणाई। पंचमछट्ठा धाओ, मूलपयडी य दो चरिमा ॥ २२ ॥ आद्या जीवस्वराः] चत्वारः । 'अइ एउ'कारो वर्णागत एवानो(तो) न गृहीतः । एते "जीवाक्षराणामुपरिगता नि(नि:)[प० १५, पा० १]संस(श)यं जीवमेव दर्शयन्ति । एता(ते) एव जीवस्वराः जीवप्रकृत्या धात्वक्षराणामुपरिगता जीवधातुं कुर्वन्ति । मूलाक्षराणामुपरिगता जीवमुलं दर्शयन्ति । जीवमूल-जीवधात्वोर्लक्षणं प्रागुक्तमिति । पंचम उकार(र.), षष्ठ ऊकारः, एतौ द्वौ धातुस्वरौ धात्वक्षराणामधोगतो धातुमेव दर्शयतः। (प०१५, पा० २] 'अंधातुस्वरश्चरिमः केवलो धातुमेव कथयति । 'अ' चरिमो जीवस्वरः केवलो जीवमेव कथयति । पूर्वोक्तानां ॥ जीव(वा)क्षराणामुपरिगतो चरिमसंज्ञानुस्वारो जीवमेव कथयति । तत्रस्थस्तदात्मको भवति। धात्वक्षराणामुपरिगतोऽनुस्वारो धातुमेव कथयति । मूलाक्षरोपरिगतोऽनुस्वारो मूलं दर्शयति । 'अ' चरिमसंज्ञो विसर्ग[B] जीवाक्षराणामन्यतमस्याग्रस्थित(तो)जीवमुपदर्शयति । धात्वक्षराग्रतो धातुं दर्शयति । मूलाक्षराणामन्यतमस्याग्रतो व्यवस्थितो विसर्गः मूल]मेव दर्शयति । चरिमसंज्ञत्वं त(त्रि)ध्वपि सह प० १६, पा० १]सं(शं) भवतीति । सामान्ययोनि(निः) समाप्ता ॥ २२ ॥ सी(शि)क्षाक्षरविभागार्थ प्रयोजनत्वाच्च तदुपन्यासःउर-कंठ-जीहमूला तालबा तह य उद्धतालवा । दंता उट्ठा अणुणासिया य सुच्चखा(मुक्ख)रा चेव ॥ २३ ॥ नव स्थानानि वर्णानां तथोत्पत्तेः । उरः (उरस्याः), कण्ठ्याः, जिह्वामूलीयाः, तालव्याः, अर्द्धतालव्याः, दन्याः, औष्ट्याः, अनुनासिकाः, मूर्धन्याश्चेति नवस्थानान्यक्षराणीति गाथार्थः ॥ २३ ॥ सविसग्गो य अकारो, उकारो (?उरो) हकारो य जो हवइ हस्सो। हस्सस(स्स)रा य कंठा, जीहामूला क ख ग घा य॥ २४ ॥ सर्व(वि)सर्गः, अकारः, हकारश्व, द्वावेतौ उ(र)स्या ज्ञातव्यो। हस्वस्वराः [प० १६, पा० २] अइए उ चत्वारोऽप्येते कण्ठ्याः । 'क ख ग घ' इत्येते चत्वार(रो) जिह्वामूलीयाः ॥ २४ ॥ सत्तट्ठआ(मा)ण पढमा, तालबा च छ ज झा य चत्तारि । ट ठ ड ढ बीओ य सरो, हवंति खलु मुद्धतालचा ॥ २५ ॥ प्रथमवर्गस्य सप्तमो यकार(रः), यद्वा सप्तमवर्गस्य प्रथमो यकारः, अष्टमवर्गस्य प्रथमः (22) Jain Education Intemational Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा २६-२७] प्रश्नव्याकरणाख्यं स (श) कारः । ' च छ ज झ' इत्येते चत्वारस्तालव्याः । ' ट ठ ड ढ' इत्येते [१० १७, पा० १] चत्वारः, द्वितीयस्वर आकारः, पञ्च एते मूर्द्ध तालव्याः || २५ ॥ त थ द ध सा पु ( प ) ण दंता, प फ ब भ धातुस्सरा वकारोडा (ट्ठा) । arrafरमाणुणासी, मुण्णा सेसया सधे ॥ २६ ॥ 'त थ द ध सा' इत्येते पश्च दन्त्या [:] । 'पफबभ' इत्येते चत्वार (रः), धातुखरौ च द्वौ पञ्चमषष्ठौ उ ऊ, 'व' कारश्च सप्तैते औष्ठ्याः । वर्गचरिमग्रहणेन पञ्चमानुनासिका 'ङन नमः' गृह्यन्ते । [ ५० १७, पा० २ ] अथवा वर्गग्रहणेनानुनासिकाः, स्वराणां च मध्ये चरिमों नुनासि[को] बिन्दुः, 'अं' इत्येते च पडनुनासिकाः । शेषा:- स्वराः के ते ? 'ई ऐ औ' त्रयः । शेषास्त्र (चा) क्षराः 'रलषा' इत्येते त्रयः । एकत्र षड् मूर्द्धन्याः । सि (शिक्षाप्रकरणं समाप्तम् ॥ २६ ॥ अत्रावसरप्राप्ता अक्षरलब्धि:, [तां] नामप्रकरणेऽभिधास्यति । इह ति (तु) प्राप्तिमात्रमुच्यते । तदर्थं गाप० १८, पा० १] थामाह ठाणं ठाणं एक्केकयं तु आलिंगिधा (या) इ हायंति । उरसादी ठाणाणं, तालवे उवरिमो ठाइ ॥ २७ ॥ स्थानं स्थानमेकैकमालिंगिताभिधूमितदग्धास्त्यजन्ति । उरस्था निहतास्तालव्ये [न] इत्येवं 18 क्रम अभिहत इति । अभिहतग्रहणेनालिंगिताभिधूमितदग्धा उच्यन्ते । उत्तरस्यो (उरस्यो) ऽन• भिहतो असंयुक्त उरस्य एव लभते [प० १८, पा० २] अक्षरम् । उरस्य आलिंगितकण्ठस्थानं लभते । उरसोऽभिधूमितो जिह्वामूलीयं लभते । उरस्यो दग्धस्तालव्यं लभते । कण्ठ्योऽनभिहतासंयुक्तः कण्ठ्यं एव लभते । कण्ठ्य आलिंग्य (गि) तो जिह्वामूलीयं लभते । कण्ठ्योऽभिधूमितस्तालव्यं लभते । कण्ठ्यो दग्धो मूर्द्धतालव्यं लभते । जिह्वामूलीयोऽनभिहतासंयुक्तो जिह्वामूलीयं लभते । स 20 एवालिंगितस्तालव्यं [१० १९, पा० १] लभते । स एवाभिधूमित ऊर्द्धतालव्यं लभते । स एवा (ब?) - दग्धो दन्त्यं लभते । तालव्यो अनभिहतासंयुक्तस्तालव्यं लभते । स एव दुग्धो दन्त्यं लभते । तालव्यो (व्य) आलिंगितः ऊर्द्ध तालव्यं लभते । स एवाभिधूमितो दन्त्यं लभते । स एव दन्धो (ग्ध) उ (औष्ठ्यं लभते । मूर्द्धतालव्योऽनभिहतासंयुक्तः स्वस्थानं लभते । स एवालिंगितो दन्त्यं लभते । स एवाभि [ धूमि]त उ ( औष्ठ्यं लभते । स एवा (व ? ) दग्धो अनुनासिकं लभते । 25 दन्त्यो अनभिहतासंयुक्त ( क्तः ) स्वस्थानं लभते । स एवालिं[ १०१९, ०२ ]गित औष्ठ्यं लभते । स एवाभिधूमितो अनुनासिकं लभते । स एव दग्धो मूर्द्धन्यं लभते । औष्ठ्यो अ (S) नभि हतासंयुक्तः स्वस्थानं लभते । स एवालिंगितोऽनुनासिकं लभते । औष्ठ्योऽभिधूमितो मूर्द्धन्यं लभते । दुग्ध उरस्यं लभते । अनुनासिको अनभिहतासंयुक्तः स्वस्थानं लभते । आलिंगितो मूर्द्धन्यं लभते । [ १०२०, प० १] अभिधूमित उरस्यं लभते । दग्धः कण्ठ्यं लभते । मूर्द्धन्यो अनभिहतासंयुक्तः स्वस्थानं लभते । आलिंगित उरस्यं लभते । अभिधूमितः कण्ठ्यं लभते । स एव दग्धो जिह्वामूलीयं लभते ॥ २७ ॥ ॥ एवं स (सा)माप्ति (सि) कं शिक्षाप्रकरणं समाप्तम् ॥ (23) 20 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा २८-३१] पढमो तइओ य सरो, सत्तम णवमो य संकडा हस्सा । वियडा अंतरदी[प० २०, पा० २ हा वि चउत्थो पंचमो चेव ॥२८॥ अकार-इकार-एकार-ओकारः, चत्वारोऽमी संकटसंज्ञाश्च ह्रस्वाश्च । प्रभाक्षराणां मध्ये यदा संकटखरबाहुल्यं भवति तदा प्रष्टा यस्यार्थे मोक्षं पृच्छति आत्मनो(नः) परस्य वा बद्धस्य तदा • मोक्षोन] भव[सी] त्यादेस्य (श्यम् ।) नष्टमपि न लभते । दुर्गभङ्गादिकं न प्राप्नोतीत्यादेस्य (श्यम्)। एतद् व्यतिरिक्तमन्यद् यदा[प० २१, पा०१] पृच्छति तदे(दै)षां संकटसंज्ञानां स्वराणां बाहुल्ये सर्वमेव लभ्यत इत्यादेश्यम् । विकटा अन्तरदीर्घाः । के इत्यत्रोच्यते - द्वितीय आकारः, चतुर्थ ईकारः, पंचम उकारः, त्रयो विकटसंज्ञा अन्तरदीर्घाश्च । प्रभाक्षराणां मध्ये यदा विकटसंज्ञानां स्वराणां बाहुल्यं भवति तदा प्रष्टा यस्य कस्यचित् परस्यात्मनो वा बद्धस्य मोक्षं [प० २१, पा० २] पृच्छति ॥ तदा मोक्षो भवतीत्यादेश्यम् । नष्टमपि लभते। दुर्गादिभंगश्च सिध्यति, इत्यादेश्यम् । एतद् व्यतिरिक्तं यदन्यनु(तु) लाभादिकं पृच्छति तन्न भवतीत्यादेश्यम् ॥ २८ ॥ संकडा(ड)विअडा सेसा, सहा[व]दीहा य तिण्णि णि[य] मेणं । छट्ठमा य वेण्णि विसमस्सरो चेय णायबो ॥ २९ ॥ संकट-विकटाः शेषाः स्वभावदीर्घाश्च । षष्ठ ऊकारः, ऐकारोऽष्टमः, औकारो दशमः, " इत्येते त्रयः । शेषग्रहणाद् बिन्दु-विसर्जनीयौ । प्रश्नाक्षराणां मध्ये संकट-विकटसंज्ञानां बाहुल्यं भवति तदा प्रष्टा यदात्मनो यदि वा परस्यार्थे बद्धस्य मोक्षं [प० २२, पा.१] पृच्छति तदा भेदेन मुच्यत इति वक्तव्यम् । नष्टमपि. किंचिद्रव्यं भेदेनैव लभ्यते । दुर्गभंगोऽपि भेदेनैव भवतीत्यादेश्यम् । यदन्यदेतद् व्यतिरिक्तं शुभमशुभं वा पृच्छति तन्मध्यमं भवतीत्यादेश्यम् ।। २९ ।। पढमा(म त)इया य वियडा, बीय चउत्था य संकडा वग्गा । सेसा क(सं)कड-वियडी(डा), अड ई दंडस्स भेदतियं ॥ ३० ॥ प्रथमाः - 'क च ट त प य सा(शा), [तृतीयाः] गज ड द ब ल सा' एतौ विकटसंज्ञौ । प्रागवत् फलम् । द्वितीय(या:)- 'ख छ ठ थ फरषाः'; चतुर्थः )-'घ झ ढंध भ व हा' एते संकटसंज्ञाः । पूर्ववत् फलम् । शेषग्रहणात् ] 'बण न मा' एते उभयस्वभावाः। दण्डं विप्रनष्टं द्रव्यमुच्यते ॥ ३०॥ [५० २२, पा०२] ॥ एवं संकट-विकटप्रकरणं समाप्तम् ॥ वग्गे गणणादेसे, स(द)वेसु य उत्तराहरो होइ। वग्ग(ग्गु)त्तरा य नियमा, अच त य वग्गंत(ग्गुत्त)रा चउरो ॥ ३१ ॥ उत्तराधरं चतुर्विधं - वर्गोत्तरं गणनोत्तरं आदेशोत्तरं द्रव्योत्तरं चेति । अस्य च संबन्धः आह-२२२२'वेवेक उत्तर अहरा य तेसिं जाणे वग्गक्खरसराणं' । तदर्थं प्राग वर्गोत्तरमुच्यते-[प० २३, पा० १] 'अच त य एते चत्वारः वर्गाः। उत्तरा प्रधाना इत्यर्थः। ततश्चापे(न्ये) 'कट पश' संज्ञाश्चत्वारः अधरा अप्रधानाश्चेति ॥ ३१ ॥ (24) Jain Education Intemational Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा ३२-३६] प्रश्रव्याकरणाख्यं एतदेवाह - सेसा हवंति अहरा, वग्गा चत्तारि क ट प सा जाण । एक्ककंमि चउक्के, पुणो वि इणमो कमो णेओ ॥ ३२॥ अष्टवर्गक्रम एव, चत्वारो वर्गा अधराः। के ते? 'क ट प सा(शा)' शेषग्रहणाद् भण्यते ॥ ३२॥ गाथापश्चार्द्धस्यान्य[५० २३, पा० २ ]गाथया विभापा क्रियते - एककंनि(मि) चउक्के, पुणो पि(वि) इणमो कमो उ विण्णेओ। दो उत्तरा उ तेसिं, दो चिअ अहराधरा विदिए ॥ ३३ ॥ निरूपितं उत्तरचतुष्कं अधरचतुष्कं चेति । तत्र चतुष्कद्वये भूय[:] प्रधानाप्रधानदर्शनार्थ क्रमोऽयं विज्ञातव्यः । उत्तरचतुष्के द्वौ यथा-अच वर्गों प्रागुत्पन्नत्वाद् । द्वौ च इति । द्वितीयचतुष्कमाह । तत्रान्त्यौ द्वौ वर्गों 'पश' अधराधराविति मन्तव्यौ । अथवा द्वितीयवर्गों द्वौ द्वा[व]धराविति । द्वौ अधरौ 'कट' संज्ञौ। द्वौ अधराधरौ ‘प स (श)' संज्ञौ। एवं वा नेयम् ॥३३॥ अनु(मु)मेवार्थं विशेषयन्नाह - दो चेव उ [प० २४,पा० १]त्तरोत्तर, तेसिं दो उत्तराधर(रा) पढमे । अधरुत्तरा य दोणि य दोण्णि य अहराहरा विदिए ॥ ३४॥ तत्र उत्तरचतुष्के पूर्वोत्पन्नत्वात् प्रधानत्वाच्च 'अच' एतौ उत्तरोत्तरौ । आभ्यामनन्तरपछि[तत्वात् 'त य एतौ उत्तराधरौ एव प्रथमचतुष्के । द्वितीये तु 'कट' इत्येतौ अधरोत्तरौ। अधरचतुष्कत्वादधरौ प्रागुत्पन्नत्वादुत्तरौ। द्वौ अधराधरौ । 'पस[श]' संज्ञौ अधरचतुष्क(त्वा)दधरौ। 'कट' वर्गयोः पश्चादुत्पन्नत्वाद् अधराधराविति । एवं अष्टवर्गक्रमेण वर्गोत्तरमुक्तम् ।। ३४ ॥ पंचवर्गीयेत्(यमेतत् ?-)। पढम-तइया उ वग्गा, पण्हस्स य उत्तरक्खरा होति । बितिय-चउत्था अहरा, अहराहर हो प० २४, पा० २ति अणुणासी ॥३५॥ प्रथमवर्ग[:] - ‘क च ट त प य स (श)' इति । तृतीयो- 'गज ड द ब ल स । एतौ वर्गों उत्तरोत्तरी, उत्तरावित्यर्थः । द्वितीय[:]- 'ख छ ठ थ फर ष'; चतुर्थः- 'घझ ढ धभवह'; इत्येतौ वर्गौ अधरसंझौ । कमण न म' इत्येषो(ष) वर्गः अधराधरसंज्ञः । एवं वर्गोत्तरम् ॥३५॥ साम्प्रतं गणनोत्तरम् , तदर्थं [गाथा] गणणाए छा [प० २५, पा० १] इल्ला, सरुत्तरा छस्सराधरा इयरे । विसमा वि उत्तरा वंजणेसु अहरा समा भणिया ॥ ३६ ॥ गणना-अनुक्रमो भण्यते । तत्र खराणामाद्याः षड् उत्तराः, पूर्वोत्पन्नत्वात् । 'अ आ इ ई उ पश्चादुत्पन्नत्वाद् अधरा 'ए ऐ ओ औ अंअ'यद्वाऽन्यथा गणनोत्तर(र)स्वराणाम् 'अ इ उ ए 3. ओ अं' द्वयोर्द्वयोः प्रागुत्प[प० २५, पा० २]न्नत्वादेते उत्तराः । पश्चादुत्पन्नत्वाद् 'आई ऊऐ औ अः' इत्येते अधराः । यत इदमाह - "विसमा वि उत्तरा बंजणेस अहरा समा भणिया ।" नि. शा.२ (25) Jain Education Intemational Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम्। [गाथा ३७-४१] इहापि गणनमेवाङ्गीकृत्योक्तम् । विषमा[:] - प्रथम-तृतीय-पंचम-वर्गीया वर्णाः । द्वितीयचतुर्थाः समा इति । विषमवर्गीया उत्तराः, समवर्गीया अधरा इति । एवं गणनोत्तरम् ॥३६॥ हस्सा अयारसहिया, सरुत्तरादेसओऽधरा इयरे।। क च ट त प य सा गुगओ य अकारो उत्तरो पढमो ॥ ३७॥ आदेशोत्तरमेतत् - हवाः स्वरा अकारसहिता इति । 'अकार इकार उकार एकार ओकार अं'इत्येते उत्तरत्वेना प० २६,पा० १]दिष्टाः । एतेषां पद्यपि मध्ये उकारो अप्रधानो दाहात्मकः, तथाप्युत्तर एव द्रष्टव्यः। उकारो यद्ययुत्तरं दहति स उत्तर एव । यद्यधरं दहति स अधरो दग्धः उत्तरो भवति। शेषाः षड् अधराः पूर्वोक्ता अपि भेदोत्तरेण पुनरादिष्टाः।आई ऊ ऐ औ अः, अक च ट त प य शेष्वन्तर्भूतोऽप्यकार उत्तर(रो) द्रष्टव्यः पृथगादौ ।। ३७ ॥ कग च ज ट ड त द प ब य ल, अट्ठमवग्गरस पढम तइओ य । एते [य] उत्तरा वजणेसु सेसा अ(s)धरादेसे ॥ ३८ ॥ 'कगच जट ड तदप ब य ल श सा' एते प्रथम-तृतीयवर्गाक्षराः। प्रथमवर्गस्याष्टमःस(श)कारः। तस्मात् तृतीयः [प० २६, पा० २] 'स'कारः। एते सर्व उत्तरत्वेनादिष्टाः शेषा अधरा इति। 'ख घ छ झ ठ ढ थ ध फभ र वष हा' इत्येते द्वितीय-चतुर्थवर्गाक्षराः अधरा आदिष्टाः ॥ ३८ ॥ उत्तरसरसंजुत्ता, वग्गे लहु अक्खर(रु)त्तरादेसे । अहरसरेसु य अहरा, हवंति ये उत्तरा लहुया ॥ ३९॥ संयोग प्रति उत्तरस्वरसंयुक्ता[:] । के ते उत्तरस्वराः ? उच्यन्ते-'अ इ उ ए ओ अं' [प० २७, पा० १] एते । प्रथम-तृतीय-वर्गप्रतिबद्धा ये अक्षरास्ते लघवः । के ते? उच्यन्ते-क ग च ज ट ड त द पब य ल श सा' इत्येते । अनन्तरेता उत्तरस(ख)रसंयुक्ता उत्तरा एवादिस्य20 (श्य)न्ते । एत एव ‘क ग च ज ट ड त द प ष ब य ल श सा' उत्तराधरस्वरैः 'आई ऊ ऐ औ अः' इत्येते(तैः) संयुक्ता अधरा इत्यादिस्य (श्य)न्ते । एवमादेशोत्तरम् ॥ ३९ ॥ दवेसु जे पहा[प० २७, पा० २ ]णा, पुवप(धुप्प)न्ना य उत्तरा सब्जे । अधरा य अप्पहाणा, पशुप(पच्छुप्प)ण्णा य जे दवा ॥ ४० ॥ द्रव्याक्षरेषु ये प्रधानतमाः पूर्वोत्पलाश प्रथम-तृतीयवर्गाक्षरास्ते उत्तराः प्रधाना ज्ञातव्याः। । अधराश्च पश्चादुत्पन्नाः । के ते ? द्वितीय-चतुर्थवर्गाक्षराः । अप्रधाना ज्ञातव्या अधराश्रेति ॥४॥ णा(णे)मित्तिएण जे [५० २८, पा० १] वा, उत्तरबुद्धीए अत्तणो गहिया । ते तस्स उत्तराणि उ, सेसा अहरीकया अहरा ॥ ४१॥ चत्वारो ये विकल्पा उत्तराधरप्रकरणे उक्तास्तास्तिरस्कृत्य, वा क(का)दाचित्कं विधानमुररीकृत्य विकल्पान्तरस्य चोपदर्शनार्थ आहितसंस्कारस्य निमित्तज्ञानवतो द्रागिति बुद्ध्युत्पादः। उत्तरेषु 30 अधरबुप० २८, पा० २]द्धिः, अधरेषु उत्तरबुद्धिर्वा यत्रोत्पन्ना फलतोऽपि ताहगा(गे)वामौ । यथाब्राह्मणकुलनिवासतुल्यो गोत्रवयोगुणादिपूर्वोत्तरसमाश्रितेषु तद्वद् विश्वासबुद्धिवदिति ॥४१॥ ॥ एवं चतुर्विधम(मु)त्तराधरं समाप्तम् ।। (26) Jain Education Intemational Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा ४२-४५] प्रश्नव्याकरणाख्यं 'अहवा इमं अट्ठविहं उत्तराधरं होइ' सूत्रवचक(न)मेतत् । अथवाऽष्टप्रकारमेतदुत्तराधर भवतीति वचनस्यार्थः। अक्खरसरसंजोए, बलाबलविसेसओ अणति(हि)घाए । तत्तो य उत्तरोत्तर, अहराअ(5)हर अट्ठमं जाणे ॥ ४२ ॥ साम्प्रतं गाथार्थमु(र्थ उ)च्यते-स्वरोत्तरं प्रथम, अक्षरोत्तरं द्वितीय, संयोगोत्तरं, बलाब- 5 लोत्तरं, विभागोत्तरं, अनभिप० २९,पा. १हतोत्तरं, [उत्तरं,] उत्तरोत्तरं चेति । एवमधरमपि अष्टप्रकारमेव सप्रतिपक्षत्वाद् वस्तुम(न:)स्वराधरं, अक्षराधरं, संयोगाधरं; [बलाबलाधर, विभागाधरं] अनभिहताधरं, अधरं, अधराधरं चेति ॥ ४२ ॥ हस्सस(स्स)रुत्तरं अक्खरुत्तरं उत्तराख(रक्ख)रा सबे । हस्सस(स्स)रसंजुत्ता, संजोएणुत्तरा लहुया ॥ ४३ ॥ अत्र स्वरोत्तरमुच्यते गाथाया अवयवेनाद्येन । ह्रस्वस्वरोत्तरम् । के ह्रस्वाः स्वराः ? 'अ इए ओ' इत्येते चत्वारः । अक्खरुत्तरं उत्तरक्खरा सवे । क्वे (के) च ते ? प्रथम-तृतीयवर्गीया गृह्यन्ते । साम्प्रतं संयोगोत्तरमुच्यते-हस्वस्वरसंयुक्ता ला(ल)घवो वर्णाः 'कग च जट डत दपब य ल श सा' इत्येते । यथा-[प० २९, पा० २] 'क कि के को, ग गिगे गो, च चिचे चो, ज जिजे जो' इत्यादि संयोगोत्तरम् ॥ ४३ ।। इदानी विभागोत्तरं क्रममुलक्योच्यते, संयोगस्य प्रक्रान्तत्वात् - गरुयक्खरा य सबे, उत्तरसरसंजुआ विभाएणं । सो ठवइ उत्तरो खलु, होति अ से तिणि या(आ)देसा ॥ ४४ ॥ गुर्वा(क्षरा उत्ता द्वितीय-चतुर्थवर्गीयाः । से उतरवरसंयुताः । यथा- 'ख खि खे खो घधि घे घो। इत्यादिविभागेनोत्तराः । विभागो वदनं अंस(श) इत्यनान्तरम् । यावता 20 हखस्वरसंयोगः । एतावता अंसे(शे)नोत्तरत्वं भजन्तो मुख्यतयाधरा एव । तस्मात् स्वर आदेशत्रयविभाप० ३०, पा० १गेन भवति । लघुस्वराः, हस्वाः, उत्तराश्चेति । शेषा दु(दीर्घाः, गुरु(र)वः, अधराश्चेति । एवं विभागोत्तरम् ॥ ४४ ॥ जो उत्तरेण अहरो, अभिहणंतो ठ(य) उत्तरो होइ । अहरेण उत्तरो वा, बलाबलं उत्तरं एयं ॥ ४५ ॥ य उत्तरेणाधरः अभिहतः। उत्तरस्याबलीयस्त्वात् । तद्यथा- 'खक' अत्र खकारः आलिंगिता, कखा(का)रस्यालिंगितत्वात् । एका संख्या हसति । हसी(सितैकसंख्या(ख्य)श्च, खका(रः) कै(क)कारो भवति । प्रतिपन्नश्चोत्तरमावं खकारो(रः,) अबलत्वात् । [त]था अधरेणाभिहन्यमान उत्तरोत्तरो भवति । यथा- 'ग घ' । अत्र घकारोऽभिधूमिकः । गकारस्य संख्या पि०३०,पा०२ यमपनयन्ति(ति) । तु(त्रि)संख्यत्वादि] गकारस्य । हसिते च संख्याद्वये • अबलत्वात् । गकारः ककारत्वमापन्न इति । एवमन्यत्रापि बलाबलिनोत्तरं परमम् ॥४५॥ (27) Jain Education Intemational Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ [S जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । प्रथमस्वरसंयुक्ताः । कः प्रथमस्वरः ? अकारः । तेन अकारेण संयुक्ताः । के ते ? · लध्वक्षराः अनभिहता भण्यन्ते । 'कग च ज ट ड त द प ब य ल श सा' इत्येते अनभिहता (a ) संज्ञाः । शेषवर्गास्त्वभिहतसंज्ञा इति प्रतिपक्षत्वाल (ल) भ्यन्ते । एतदनभिहतोत्तरं उत्त[१०३१, पा० १]रेण चरिमेण बिन्दुना युक्तोऽक्षर उत्तरत्वं ब्रजति । अधरेण विसर्जनीयेन युक्तोऽक्षरः अधरत्वं व्रजतीत्यर्थः । एवं षष्ठो भेदस्ततोऽयम् । उत्तरा उक्ताः । उत्तरोत्तराचोक्ताः । उत्तरप्रतिपक्षेणाधरा [अ] युक्ताः । उत्तरोत्तरप्रतिपक्षेणाधराधराः प्रोक्ताः । इत्येवं अष्टप्रकारमुत्त1 राधरव्याख्यानम् ॥ ४६ ॥ } 30 साम्प्रतमनभिघातोत्तरमुच्यते पढमस (रस)रसंजुत्ता, अणभिहया जे तु ते अणभिहया । उत्तरमधरं वेंति य, संजोएणेव दो चरिमा ॥ ४६ ॥ ह्रस्वस्वरो ह्रस्वासरं (?) बलाबलं सर्वतो विलोक्य चिन्ता नष्ट-मुष्टि- जीव- धातु-मूलयोनिं वा विलोक्य बलाधिक्येनाक्षरे (राणामादिशेन्मतिमान् ॥ ४७ ॥ जीवं जाणसु दोसुत्तरेसु [१० ३१, पा० २] अहरेसु दोसु भण धाओ ( उं) । अहरुत्तरेसु मूलं, उत्तरमधरे तहा धाउं ॥ ४८ ॥ जीवं जानीहि । प्रश्नाक्षराणामादौ पतिते उत्तराक्षरद्वये जीवं, प्रश्नाक्षराणां आदौ पतिते अधराक्षरद्वये धातुं, प्रश्नाक्षराणां आदौ पतिते अधरे द्वितीये चोत्तरेऽनन्तरं पतिते मूलमवगच्छ । [१०३२,पा० १] प्रभाक्षराणा [मा]दौ यदा उत्तरो दृश्यते ततोऽनन्तरं श्रा (चा) धरः । 20 तदाऽपि धातुमेवागच्छ ॥ ४८ ॥ ॥ इत्येवं उत्तराधरं प्रकरणं समाप्तम् ॥ [ गाथा ४६-५० एवं सरुत्तरादिसु, बलाबलं सबओ पलोएउं । चिन्तादीए भावे, जीवाइ व (वि ? ) णिद्दि से मइमं ॥ ४७ ॥ दुविहो खलु अभिघाओ, सहगओ चेव अक्खरा (२) गओ य । सदगओ तिविगप्पो, मंदो मज्झो य तिम्रो य ॥ ४९ ॥ द्विविधोऽभिघातः शब्दगतोऽक्षरगतश्च । तत्र श[ १०३२, पा० २ ]ब्दगतो अनक्षरात्मको 28 Sनेकप्रकारः पटह- सं (शं) ख-भेरी-कुड्य पतन-मुद्गर- जालाभिघातादिलक्षणः । स ट ( त्रि) विकल्पः (स्व)ल्पवे मध्यमो महाचेते (हांश्चेति ) । क्रमसः (शः) आलिंगिताभिधूमितदग्धलक्षणः । अक्ष[र] गतमभिघातमुपरिष्टाद् वक्ष्यति ॥ ४९ ॥ reat पुण दुविहो, होइ पसत्थो य अप्पसत्थो य । [r] पत्थ मंदादी, कुबइ आलिंगियादीणि ॥ ५० ॥ स शब्दो द्विविधः - प्रशस्ता (स्तो ) प्रशस्तश्च । वीणा - वेणु - सं ( शं) ख - भेरी- पटहादिगतः प्रशस्तः । कुड्यपत[न]-भाण्डादिभङ्ग-रासभाविशब्दश्वाप्रशस्तः । यः शब्दोऽल्प आलिङ्गितः प्रश (28) Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ५१-५३ ] प्रभव्याकरणाख्यं १३ स्तो वाऽप्रशस्तो वेति । मध्यमो यः शब्दो [१०३३, पा० १]ऽभिधू मितसंज्ञः प्रशस्तः, अप्रशस्तो वा । एवं प्रशस्तः, अप्रशस्तो वा यः शब्दस्तीत्रः स दुग्धसंज्ञः । प्रशस्तो यः शब्दोऽल्पः सोऽल्पफलं ददाति, स्थिरं च करोति । प्रशस्तो यः शब्दो मध्यमः स मध्यमफलं ददाति, मध्यमं स्थैर्य करोति । प्रशस्तो यः शब्दस्तीत्रः स महत् फलं करोति, स्थैर्यं च तस्याल्पकालमिति । अप्रशस्तः यः शब्दोऽल्पः सोऽल्पमान्द्यं करोति, स्थैर्यं च तस्य मान्द्यं करोति । अप्रशस्तो यः शब्दो मध्यमः s स मध्यममान्धं करोति, मध्यमं च स्थैर्यं मान्यस्य करोति । अप्रशस्तो यः शब्दः तीव्रः स महामान्धं करोति, अवस्थानं च त[प०३३, पा० २] स्य सान्द्यस्याल्पकालमित्येतदपि शुभाशुभमल्पमध्यम-महत्त्वेन द्र[ष्ट]व्यम् । एवं शब्दाभिघातः ॥ ५० ॥ अक्षराभिघातार्थः - बि-उत्थ-पंचमाणं, वग्गाणं अक्खरा अभिहणंति । एक्कुत्तरिया य सरा, अणभिहया सेसया वग्गा ॥ ५१ ॥ द्वितीय- चतुर्थ- पचमवर्णैः प्रथम-तृतीयौ वर्गावभिहन्ये १०३४, पा० १] ते । एकान्तरितास्व (च) स्वरा[:] के भण्यन्ते ? इत्यत्रोच्यते - यद्यप्येकान्तरिता बहवः, तथापि 'आ ई ऊ ' कारच एते त्रय एकान्तरिता[:] प्रथम - तृतीय वर्गा[व] भिन्नन्ति । प्रथम - तृतीय वर्गा ह्रस्वस्वराश्च चत्वार एते परस्परं नाभिन्नन्ति ॥ ५१ ॥ अभिया अनि (याभि) हया वा, पिल्लिज्जंता उ आभिघा[ १०३४, ०२]तीहि । आलिंगियाभिधूमितदढं ( ) व लहंति ते नामं ॥ ५२ ॥ 20 अनभिहता वर्गा उक्ता अभिहताच एते अनभिहता वा के ते प्रश्नाक्षरा [] ? तेषां प्रश्नाक्षराणां स्थापितानां किमपि घातोऽस्ति नास्ति च इति चिन्त्यम् । यदा प्रभाक्षराणां परस्पराभिघात उच्यते तदा प्रिथमाक्षरद्वितीयाक्षर स्त्रि (स्तु) तीयाक्षरमभिहन्ति । तृतीयाक्षरं चतुर्थाक्षरं अभिहन्ति । एवं चतुर्थाक्षरं पञ्चमाक्षरं पञ्चमं षष्ठः, षष्ठं सप्तमः, सप्तमो (?) ऽभिहन्त्यभिघाते सति । यो यस्यानन्तरं स तमिति । अभिघातस्यालिङ्गिताभि [ धूमि] तदग्धलक्षणमुपरि[ १० ३५, पा० १]ष्टाद् विस्तरेण व्याख्यास्यति । यदा प्रभाक्षराः सर्वे परस्परमभिहताः, तदा अप्रधाना निफ (फ) लाख (च) भवन्तीति ॥ ५२ ॥ प्राकू तावत् स्वराभिघाता उच्यन्ते अणवि (भि)ह [य] अभिहया वा अंतरदीहस ( स्स) रेहि संजुत्ता । अभिधूम (मि) यंति लहुया, दहंति गरुया वि ते चेव ॥ ५३ ॥ अनभिहता अभिहता वा ये प्रभाक्षराः । अथवा प्रथम- तृतीयौ वर्गावनभिहतसंज्ञौ । शेषास्त्वभिहतसंज्ञाः । एते अन्तर दीर्घा (र्घ) स्वरयुक्ताः । के ते अन्तरदीर्घ स्वराः ? आकारः, ईकारः, ऊकारश्चेति एते त्रयः । एतैरन्तरदीर्घस्वरैः संयुक्ता अभिधूम्यन्ते [१० ३५, पा० २] अग्रतो नाम (न) न्तरमवस्थितैः । के ते लघ्वक्षराः ? 'कग च ज ट ड तदपबयलश सा' इत्येते चतुर्दश । आकारेण ईकारेण ऊकारेण च संयुक्ता अग्रतो वाऽनन्तरमवस्थितैर्दह्यन्ते गुर्वा (र्व)++ एतद्विदण्डान्तर्गतः पाठो भ्रष्टप्रायो दृश्यते । (29) 10 15 25 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुउनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा ५४-५७ क्षराः । के ते गुर्वा(व)क्षरा:? 'ख छ ठ थ फरषा' इत्येते सप्त । आकारेण ईकारेण ऊकारेण च [५० ३ ६, पा० १] संयुक्ता अग्रतो वाऽनन्तरमवस्थितैर्दह्यते(न्ते) परेण । गुर्वा (4)क्ष)राः के ते ? 'घ झ ढधभव हा' इत्येते सप्त ।। ५३ ॥ आलिंगियन्ति हस्सस(स्स)रा हु दीहस्सरा रि(इ)ह दहति । पण्हक्खरा उ सबे, संजुत्ता आणुपुबीए ॥ ५४॥ ... आलिंग्यन्ते हस्वस्वराः। के ते ह्रस्वखराः 'अ इ उ ए' ते चत्वारः । के ते आलिजयते (न्ते) 'ख छ ठ थ[प० ३६, पा० २] फर षाः, घ झ ढ ध भ व हा' श्रेयेते द्वितीय-चतुर्थवर्गाक्षराः सप्त । 'घ झ ड(ढ)ध भ व हा'श्चतुर्थवर्गाक्षरा दह्यन्ते चतुर्भिः स्वरैः । के ते चत्वारः 'ओ औ अं अः' । एवं संयुक्ताः आनुपूर्व्या आलिङ्गयन्ते, अभिधूम्यन्ते, दह्यन्ते च ॥५४॥ अमुमेवार्थं गाथान्तरेण प्रतिपादयन्नाह - अंतरदीहा अभिधूमियंति आलिंग(गि)यंति जे हस्सा। टिट्ट(दिड्ड)दो चरिमसरा, अ(सहावदीहाणुणासीया ॥ ५५ ॥ अन्तरदीय(C) उक्ता 'आ ई 'ऊ' एतेऽभिधूमितसंज्ञा[:] । ह्रस्वा उक्ता 'अइए उ' एते आलिङ्गितसंज्ञाः । [ऐ औ] द्वौ स्वरौ चरिमसंज्ञौ वा अ(आ)मेयौ तौ दहतः । [प०३७, पा. १] 15 स्वभावदीर्घाः 'ऊ ऐ औ' अनुनासिका 'उन्म ण न माः' इत्येते ॥ ५५ ॥ स्वरास्तृ(स्त्रि)धा निरूप्यान्यगाथा(थ)या फलमुच्यते - आलिंगिया य आलिंगियंति अभिधूमिया य धूमेति । दट्ठा(ड्डा) य दहंति सरा, तेसिं जुत्तं च वरिष(म)च ॥ ५६ ॥ आलिंगितसंज्ञाः, के ते 'अ इ ए ओ' एतैश्चतुर्भिः स्वरैः ये आलिंग्यन्ते । द्वितीय-चतुर्थ" ब[ग]क्षराः उक्ता एव । अभिधूमितसंज्ञानय 'आई ऊ' एतैरभिधूम्यन्ते । प्रथम-तृतीयवर्गाक्षरास्तेऽप्युक्ताः । एवं दग्धसंज्ञा 'उ ऊ अंअ' एते प्रथम-तृतीयवर्गा दहन्ति । एतदप्युक्तम् । 'ओ औ अं अः एते चत्वारस्तैः स्वरैः संयुक्तस्वरा[प०३७, पा०२] प्रथम-तृतीय-चतुर्थवगोक्षरा दहन्ति । इत्येतदुक्तमपि पुनरुक्तम् । 'ऐ औ' एतौ द्वौ स्वरौ प्रथम-तृतीय-पश्चमवर्गा दहन्ति । इत्येतदप्युक्तम् । एतैर्दहनात्मकैयः संयुक्तोऽक्षरस्तं दहन्ति पूर्वाक्षरं वानन्तरमिति संयोगभावे सति ॥५६॥ एवं स्वरामिघात उक्तः । इदानी वर्गाभिघात:बीओ य पढम-तइयं, पढम-तइया य जायदो(जे य दु?) चउत्थं । आलिंगियंति वग्गं, चउत्थ पुण पंचमं वग्गं ॥ ५७ ॥ [५० ३८, पा० १] द्वितीयो वर्गः प्रथमवर्ग तृतीयं चालिङ्गयति । तथा प्रथमवर्गस्तृतीयवर्गश्च द्वितीयवर्गमालिङ्गयतः(ति)। तथा प्रथमवर्गस्तृतीयवर्गश्चतुर्थवर्गमालिङ्गयति । तदुक्तम् - प्रथम-तृतीयौ दोविय • द्वितीयद्वयचतुर्थ [इति । चतुर्थवर्गः पश्चममालिङ्गयति । अत्र प्रथमवर्गः पृथिव्यात्मकः । द्वितीयो वाहा(य्वात्मकः । तृतीय उदकात्मकः । चतुर्थ आकासा(शा)त्मकः । पञ्चमः अग्यात्मकः । इत्येवं पञ्चमहा[प० ३८, पा० २ ]भूतात्मकं जगदिति] ॥ ५७ ॥ . (30) Jain Education Intemational Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा ५८-६३] प्रभव्याकरणाख्यं अभिधूमेइ चउत्थो, आइमवग्गे उ तिण्णि नियमेणं । पंचम-चउत्थवग्गे, दोणि य अभिधूमये बितिओ ॥ ५८ ॥ अभिधूमयति चतुर्थो वर्गः प्रथमवर्ग(ग) तृ(द्वि)तीयवर्ग तृयतीवर्ग च । द्वितीयवर्गश्चतुर्थवर्ग पश्चमवर्गश्चे (गं चे)ति ॥ ५८ ॥ आइल्ला चत्तारि वि, डझंति पंचमेण वग्गेण । पंचमओ पुण डज्झइ, पढम-तइज्जेसु दोसुं पि.॥ ५९ ॥ प्रथम-द्वितीय-तृतीय]-चतुर्थवर्गा दह्यन्ते पञ्चमवर्गेण अन्यात्मकत्वात् । पश्चमवर्गस्तु दह्यते विनास्य(श्य)ते प्रथम-तृतीयौ(यैः) पृथिव्यो(व्यु)दकात्मकैः ।। ५९॥ जे जे समाभिलावा, अण्णोप० ३९, पा० १]ण्णं ते उ णं अभिहणंवे(त)ति। जह क ग च ज मादीया, दो दो लहुआ सुआ अण्णा ॥६० ॥ " - जे जे(ये ये) समानसी(शी)ला लघवश्च मायेते(?) लघवः अन्योन्याना(ना)भिन्नन्ति । के ते समानसी (शी)लाः, ते उच्यन्ते-'क ग च ज ट ड त द प ब य ल स (श) सा' इत्येते । प्रथमवर्गतृ(स्तृ)तीयवर्गश्च लघुसंज्ञौ । अनयोरासनौ(नौ) द्वितीय-चतुर्थवर्गों गुरुसंज्ञौ भवतः । परस्पराभिघातको चेति ॥ ६०॥ अभिहणमाणे दिट्ठो(हे?), जोणीसंठाणवण्णमाईणि । अभिहणमाणस्स ऊ (?) भवे, ण जो उ अभिहण्णए तस्स ॥ ६१॥ अभिहन्यमाने दृष्टे । कोऽभिहण्यन्ते(न्यते) । दो(यो)भि[प० ३९, पा० २]हन्तीत्युक्तमपि पुनरुच्यते-पूर्व (वीपूर्वाक्षरोऽग्रिमेणात्क(क्ष)रेण यादृशेन यादृश इति । पूर्वोक्तं योऽभिहन्ति तस्याभियंतु(हन्तुः) योनि-स्थान-वर्णप्रमाणादीनि वक्तव्यानीति । कस्मात्कारणादित्युच्यते-येन सर्वोऽभिहन्ति बलीयानीति (बलवान् इति?) ॥ ६१ ॥ परवग्गेण उ बग्गो, जो जेण अभिहण्णए उ तो तस्स । अभिघ(घा)यं जाणेज्जा, राजादिसंथ(घ)वणा(ण्णा)णं ॥ ६२॥ परवर्गेण वर्गो यो येनाभिहन्यत इति । परवर्गस्य इत्यक्षरस्य संज्ञा । एतत्तु प्र(पृथक(क)व सा(शा)त् । पराक्षरेण(?) योक्षरोऽभिहन्यन्ते(ते) तस्याभिहन्याप० ४०, पा० १]मानस्य पराजओ(यो) वक्तव्यः। अभिहर्नु(न्तुर्जयो वक्तव्यः । एवं ब्राह्मणादिवर्णानां राजन्यस्य वा युद्धे 25 विवादे वा जय(यः)पराजयो वाच्य इति । आलिङ्ग(ङ्गि)ते भागहानिः । अभिधूमित-अभिधाते द्वे हानिः क्षयो वा । दग्धे निशे(श्शे)षतअक्षयो मृत्यु ।। ६२ ॥ आलिंगियंमि जीवं, मूलं अभिधूमियंमि पण्हंमि । दट्ठ(ड)मि भणसु धाउं, एत्तो उद्धं जहा वोच्छं॥६३॥ प्रशस्ताप्रशस्ताश्च ये शब्दा[:] पटहकुड्यपतनादिगतास्ते पूर्वोक्ता [५० ४०, पा० २]आलिंगि-. ताभिधूमितदग्धलक्षणाः । तत्रालिङ्गिते शब्दे [जीव आवेश्यः । अभिधूमिते शब्दे मूलमादेश्यम् । दग्धे शब्दे धातुरादेस्यः(श्यः) । तस्मात् पूर्वे(अर्द्ध) 'यथेति वक्ष्यमाणकं प्रश्नम् ॥६॥ (31) Jain Education Intemational Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा ६४-६८ आलिंगियंमि कलहो, मंदं अभिधूमियंमि पण्हंमि । दडंमि भणसु मरणं, एत्तो उद्धं जहा वोच्छं ॥ ६४ ॥ अस्मिन(न)पि प्रशस्ताप्रशस्तशब्दत एवानक्षररूपो ध्वनिरधिकृत्या(त्यो)पदिष्टम् ॥ ६४ ॥ ॥अभिघातप्रकरणं समाप्तम् ॥ वग्गाणं जइ पढमा, णिरंतरं वा तिहि पण्हमाइए । तो मुण्णं जाणेजा, [ण]वि किंचि वि चिंतियं तथे(त्थ) ॥६५॥ वर्गाणां यदि [प०४१, पा० १] प्रथमा इति प्रथमग्रहणेन स्त(स्व)राणां प्रथमः अकारः, 'क' वर्गस्य च प्रथमः ककारः, 'च' वर्गस्य च प्रथमच(श्च)कारः । एते त्रयो यदा निरन्तरं प्रभादौ दृश्यन्ते तदा सू(२)न्य जानीयात् । न किश्चिदपि चिन्तितं तत्रेति । तथा मण्डुकिकायाम्॥६५।। अभिहयबिंदुविसग्गे, चिंता मुट्ठी य सुन्निया होइ । वग्गेकबहुलवण्णो, तत्थ ण कजं मुणेयवा(ब) ॥ ६६ ॥ अ(य)त्र प्रभाक्षरा आरम्भादेव बिन्दुविसर्गाद्यभिहताः। तत्र चिन्तायां मुष्टौ च (शू)न्यम्। तथा एकवर्गीया नैरंतर्येण बहवो वर्णास्तत्रापि न कार्य सू(शू)न्यमित्यर्थः ॥ ६६ ॥ मीसेसु [५० ४१, पा. २] अस्थि चिंता, आधाराधेयमिस्सयति]दुविहा । धम्माधम्मागासा आहारा तिण्णि विन्नेया ॥६७ ॥ प्रभाक्षराणां मध्ये 'अ क चा' यदाऽन्यवर्गे[ण] सहिता हस्य(श्यन्ते तदाऽस्ति चिन्ता। सा च द्विविधा आधारविषया, आधेयविषया वा । उभय[५० ४२, पा० १]विषयाऽपि संभवा तृ(त्रि)विधा भवतीति । आधारा[अक्षराणि, आधि(धे)या मात्रा। अक्षर-मात्राभेदेन द्विविधा चिन्ता धातुयोनौ लब्धायाम् । धातुस्त(स्त्रि)विधो धाम्यः, अधाम्या, आकाशमिति-एवं केचिद् व्याख्यानयन्ति । तदेतदुपरिगाथया स[५० ४२, पा० २]ह विरुध्यते । तस्मादन्यथा व्याख्यायते-आधारस्तृ(स्त्रि)विधः-धर्माधर्माकाशास्त्रयो [5] मूर्ताः। तत्र धर्माधर्मी लोकध्यापिनौ । आकाशस्तु लोकालोकव्यापी । तत्र गतिलक्षणो धर्मास्तिकायो गतिमतां जीवानां पुंग(पुद्र)लानां च गत्युपमहे वर्तते । स्थितिलक्षणाः(णः) अधर्मास्तिकायः स्थितिमतां स्थितिहेतुः। अवमा(गा)हलक्षणमाकाशं, अव गाहिनामवगा[ह] हेतुरिति । ऐते त्रयोऽपि अमूर्ती जीव-मूल-धातूनां आधारं, आधेया जीवधातुमूला ॥ इति [प०४३,पा.१] ॥ ६७ ॥ एतंत(तद्) एवाह जीवं धाउं मूलं, आधेयं तत्थ पढमओ जीवो । न(अ)इदीसइ सो दुविहो, जीवावयवो य जीवो वा ॥ ६८ ॥ जीव[:], प्रथम[:], धातुपदार्थो द्वितीय[:], मूलपदार्थस्तृतीयः । एवं तु(त्रि)भिः " पदार्थेव्याया)तं जगदिति । त्रिविधैव योनिर्भवति । तत्र तावत् प्रथमो जीवपदार्थः । स च द्विविधो रष्टम्यो जीवो [जीवावयवति ॥ ६८॥ (32) Jain Education Intemational Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाया ६९-७५] प्रमध्याकरणाख्यं जीवे दिटे जीवं, जीवावयवं च तत्थ नायचं । पुणरवि उत्तरसहिए, पण्हे जीवं हवे नियमा ॥ १९॥ जीवाक्षरेष्वनमिहतेषु [प०४३, पा० २] जीव इत्यादेश्यम् । तेष्वेवाभिहतेषु जीवावयवो वक्तव्यः । पुनरप्युत्तरस्वरैरक्षरैर्वा बहुले प्रश्ने जीवेनैव तिसंस(निस्संश)यं भवितव्यम् ॥ ६९ ॥ अहरसहिए उ फ्यो(ण्हे), जीवं वावयवं नु(? तु) मुणिज्जासु । जीवे लडमि पुणो, दुवय-अपदाहि(इ)पभेदा [य] ॥ ७० ॥ अधराहुतो (अधरसहिते? ) प्रश्ने जीवावयव(व) जानीहि । जीवयोनौ लब्धायां द्विपदचतुष्पदापदपादसंकुला भेदा वक्ष्यमाणाश्चिन्त्याः ॥ ७० ॥ लोमाणि तया रुहिरं, मेदो मंस-ट्ठि-मज्ज-सुक्काइ । जीवावयवा [यपदे, जीवा सिद्धा असिद्धा य ॥ ७१॥ रोमाणि त्वग् रुधिरं मांसं भेदोऽस्थि[प०४४, पा० १]मजाशुक्राम्य(ण्य)ष्टावेति जीवावयवाः । जीयाः सिद्धा असिद्धाश्च द्विविधा भण्यन्ते ॥ ७१॥ सिद्धा एगवियप्पा, [अ]सिद्ध संसारिणो चउवियप्पा । दुपया चउप्पयावि य, अपया पयसंकुला चेव ॥७२॥ तत्र सिद्धा एकभेदाः संसारविनिर्मुक्ताः । असिद्धाः संसारिणः । ते चतु......[विकल्पाः]।।। चतुरो भेदाना(ना)ह-देवगतिः, मनुष्यगतिः, तिर्यग्गतिः, नारकगतिश्चेति । द्विपद-चतुष्पदअपदाः[पद]संकुलाश्चेत्यमरचक्कमेभेधा (श्चेत्यपरचतुर्भेदाः) ॥ ७२ ।। दुपया माणुस्स(स)देवा, पक्खी तह नारया मुणेयवा । मणुया हु चउवियप्पा, णायचा पण्हइत्तेहि ॥ ७३ ॥ द्विपदा मानुष(षाः) देवाः [५० ४४, पा० २] पक्षिणो नारकाश्चेति वक्तव्याः। मनुजाश्चतु- 20 भैदाः॥७३॥ तेषामन्यगाथया चतुरो भेदा[न् ] वक्ष्यतिपढमो ह बंभणाणं, बीओ वग्गो य हवइ वेसाणं । तइओ [य] खत्तियाणं, सेसा दो होति मुद्दाणं ॥ ७४ ॥ प्रथमो वर्गः 'कच ट त प य सा (शा)' इति ब्रामणाः(नां) शेया:(यः) । द्वितीयो वर्ग: 25 'ख छ ठ थ फरषा' इति भवति वेस्या (वैश्या)नाम् । तृतीयवर्गा(र्गः) 'गज ड द ब ल सा' क्षत्रियाणाम् । चतुर्थो वर्गः 'घझ ढध भवहा' [प०४५, पा० १] शूद्राणाम् । बण न मा' पञ्चमो वर्ग[:] शं(सं)करजातीनाम् ॥ ७४ ॥ दुविहा एते णेया, इत्थी पुरिसा पुणो वि ते विव(तिवि)हा । बाला तरुणा थेरा, उत्तम-मज्झा-धमा-तिविहा ॥ ५ ॥ नि. .. (33) Jain Education Intemational Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा ७६-७९] ये एते चतुर्विधा ब्राह्मणादय उक्ताः, तेष्वेव पूर्वोक्तवर्गेषु प्रथमो वर्गस्तृतीयवर्गा(ग)श्च पुमान् ज्ञेयः। द्वितीय-चतुर्थवर्गों स्त्रीसंज्ञौ । पञ्चमो वर्गो नपुंसकसंज्ञः। तत्र पुमांस्तृ(स्त्रि)विधो बाल-तरुण-स्थविर इति । योषि[प० ४५, पा०२दपि त्रिविधा बाला तरुणी स्थविरा चेति । नपुंसकमिति(मपि) त्रिविधमेव बालं तरुणं स्थविरं चेति । स्त्री-पुं-नपुंसकान्येतानि प्रत्येकं त्रिविधान्युत्तममध्यमाधमत्वेन द्रष्टव्यानि । विवेकमेषां वक्ष(क्ष्य)माणलक्षणगाथया दर्शयिष्यति ॥ ७५ ॥ तह चेय कम्मब्भा(भू)मा, अकम्मभूमा य अंतरदी(दी)वा । एदे कमेण सन्चे, सणामणिदे(द)सउ(ओ) जाण ॥ ७६ ॥ तथा चैक(वं) कर्मभूमयः । देवाः प्रथमवर्गाक्षराः, अन्तरदीर्घस्वरैर्युक्ताः। कर्मभूमयो मनुष्या भवन्ति । अन्तरदीर्घखराश्च 'आ ई ऊ'। [प० ४६, पा० १] एतेऽवय[वा] उक्ता अपि स्फुटाः पुनरु ताः । तृतीयवर्गाक्षराः अन्तरदीर्घस्वरैर्युक्ता अकर्मभूमयो भवन्ति देवाः । एषां कर्मभूमिजानां " अकर्मभूमिजानां योनि[:] स्वभाव[:] चेष्टा च वर्णाकृतिःप्रमाणमिति वक्तव्यानि । अन्तरदी(द्वी)पानां षट्पंचास(श)तां एकोरूकादीनां प्रपञ्चो नेषधां(ऽनेकधा?) । तेषां च स्वनामनिर्देशा[त् ]परिज्ञानं कर्तव्या(व्य)मिति ॥ ७६॥ ॥ जीवसमा[स]प्रकरणं समासम् ॥ धातुस्सरा सहस्सा, कगादिवग्गाणुरासिया दुपए । बीओ दसमो य सरो, चउप्पए खाइवग्गो य ॥ ७७ ॥ प्रश्ने प्रथम-प०४६, पा० २]तृतीय-पंचमवर्गाक्षराणिध(राधि)के प्रथम-तृतीय-पञ्चमवर्गाणामेवाक्षरा एकस्मिन् उकारेण धातुस्वरेण ह्रखेन युक्तो(क्ताः) तेषामेवान्यतमस्याग्रतो वाऽनन्तरमवस्थितेन द्विपदजीवचिन्ता विज्ञेया । प्रश्ने द्वितीयवर्गाक्षरबहुले द्वितीय आकारो दशम औकारो(र)स्तयोरन्यतरेण द्वितीयवर्गाक्षरेषु युक्तेषु द्वाभ्यां वा चतुष्पदचिन्ता विज्ञातव्या ॥७७॥ अपयाणं घझ ढा खलु, पयाकुलयाण(प्लाणं च) ध भ व हा चउरो। चउरट्ठमबारसभा, [प० ४७, पा० १] सरा य दोण्हंमि सामण्णा ॥ ७८ ॥ घ झ ढ बहुले प्रश्ने ईकारे ऐकारे अकारेण च सविसर्गेण एभिस्तृ(स्त्रि)भिः स्खरैर्युक्तेषु । एषां चान्यतमाक्षरस्यानन्तराप्रकान्तस्वराणामन्यतमोऽप्रतोऽनन्तरमवस्थिते अपदा ज्ञेयाः । धभव हाश्चत्वारः, एतैरेव स्वरैनिभिर्युक्ताः पूर्वोक्ता(क्त)न्यायेन पादसंकुलाः प्राणिनो ज्ञेया ॥ इति ।। ७८ ॥ जइ पढम-तइय-पञ्चम-वग्गे पण्हक्खराइ दीसंति । तो दुपय-जीवचिंता, चउप्पयाणं पि [बि]चउत्थे ॥ ७९ ॥ अन्या प० ४७, पा० २] [द]पि परिपाट्या उक्तमपि किश्चिद्विशेषमधिकृत्योच्यते-प्रथमवर्गस्य तृतीयवर्गस्य पश्चमवर्गस्य च सम्बन्धिनो यदा प्रभाक्षरा बाहुल्येन दृश्यन्ते तदा द्विपदजीव" चिन्ता ज्ञातव्या। द्विचतुर्थवर्गाक्षराणां बाहुल्ये चतुष्पदा शेया[:] ॥ ७९ ॥ (34) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा ८०-८५] प्रश्नव्याकरणाख्यं . भवणवइ-वाणवंतर-जोइस-वेमाणिया तहा देवा । तेसि दस अट्ठ पंच य, व(बा)रस णव पंच य वियप्पा ॥ ८॥ दश प्रकारा भवनवासिनः, तद्यथा - असुर-नाग-विद्युत्-सुवर्णा-ऽग्नि-बात-स्तनितो-दधिहीप-विकमाराः । अष्ट प्रकारा व्यन्तराः-किंनर-किंपुरुष-[प०४८, पा.१]महोरगा(ग)-गान्धर्वयक्ष-राक्षस-भूत-पिशाचाः । पञ्च भेदा ज्योतिष्काः -सूर्य-चन्द्रमसो-ग्रह-नक्षत्र-प्रकीर्णतारकाश्च ।। वैमानिका अनेकप्रकारा:-सौधर्मेशान-सनत्कुमार-माहेन्द्र-ब्रह्मलोक-लान्तक-महाशुक्र-सहस्रारआणत-प्राणत-आरण-अच्युताद्या द्वादशकल्पोपपन्नकाः । अपरे नवनवेयका:-अधोमध्यमोपरिविभागस्थाः। तथाऽनुत्तरविमानवासिनः पश्चप्रकारा:-विजय-वैजयन्त-जयन्ता-पराजिताः सर्वार्थसिद्धसंज्ञाः । एते स्वभावनिर्देशतो विज्ञातव्याः॥८॥ सिद्धाण आदिवग्गो, देवाणं होति तिण्णि वग्गाओ(उ)। दो चेव मानुषा(णुसा)णं, [प० ४८, पा० २] सेसा तिरियास(ण) वग्गा हु॥८॥ लोकाग्रे व्यवस्थिताः सिद्धा अशेषविमुक्ताश्च अकारबहुले प्रश्ने। [क च ट बहुले प्रश्ने ?] वैमानिका देवा ज्ञेयाः । तप बहुले प्रश्ने मनुष्या ज्ञातव्याः । य श बहुले प्रश्ने उत्कृष्टाति(स्ति)र्यम्गतयो ज्ञेयाः ॥ ८१ ॥ दुपयक्खरेसु दिढे, सबे दुपयक्खरा मणुस्साणं । जे पुण चउप्पयाणं, ते नियमा होति देवाणं ॥ ८२ ॥ द्विपदाक्षराः । के ते? प्रथम-तृतीय-पञ्चमवर्गाक्षराः । एतबहुले प्रश्ने मनुष्या द्रष्टव्याः । अकर्मभूमिकान्तरद्वीपकाश्च । चतुर्थप० ४९, पा० १]वत्ता(र्गी ?)याश्चातुष्पदाक्षराः, ते(तैः १) उत्तरस्वरयुक्तैर्भवनपतिव्यन्तरा ज्ञेया इति ॥ ८२.॥ अपदाणं जो गमओ, सो चेव य होंति नारयाणं पि । बहुपायाणं तइओ, सर(सा)वयवो होइ पक्खीणं ॥ ८३ ॥ अपदाक्षरा घ झ ढ पूर्वोक्ताः। द्विपद-योनौ लब्धायां ध न व हा नामत्यवसोय(?)त्वाभिव्यञ्जको भवति । तदा पक्षमे(क्षिणो?) सत्त्वा भवन्ति ।। ८३ ॥ मणुअक्खरेसु मणुआ, इत्थीए सेसएसु नायबा । हस्स[स्स]रा य णिडा, सेसा लालुक्खा सरा सबे ॥ ८४॥ मनुष्याक्षराः प्रागुक्ताः । विशेषोप[प०४९, पा० २]दर्शनार्थ पुनरुपन्यासः। प्रश्ने मनुजाक्षरबहुले मनुजा ज्ञेयाः । के ते मनुजाक्षराः ?। प्रथम-तृतीयवर्गप्रतिबद्धाः । द्वितीयवर्गाक्षर- , बहुले प्रश्ने स्त्री ज्ञातव्या । इस्खखराः, के ते ? अ इ उ ए एते पञ्च(?)निग्धाः । एतबहुले प्रश्ने पुरुषा [आ]देश्याः । शेषाः दीर्घाः सप्त स्वराः । एतद्बहुले प्रश्ने स्त्रिया(यो) वक्तव्याः ॥ ८४ ॥ खख्घ(घ ?) मादिणो य वग्गा, पंच य अणुणासिया भवे लुक्खा। . णिद्धा कगादिवग्गा, तत्थ य कजं तु सयणगया(? यं)॥ ८५ ॥ (35) Jain Education Intemational Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा ८६-९०] द्वितीय-चतुर्थ-पञ्चम-वर्गा एते त्रयो I रुक्खा(रूक्षाः) । प्रथम-तृतीयवर्गौ[स्निग्धौ] । स्निग्धवर्गाक्षरबहुले प्रश्ने स्व-जनसम्बन्धे कृते कार्य द्रष्टव्यम् । रूक्षाक्षरबहुले प्रश्ने पर-जनसंबन्धे कृतं कार्यं द्रष्टव्यम् ॥ ८५ ॥ एतदेवाह - परजणकयं [५० ५०, पा० १] च कजं, मुणेह सवं लुक्खएसं(क्खरेसु) पि(?) । मिस्से पमयासहियं, कजं तह [पुत्तभंडकयं ॥ ८६ ॥ रूक्षाक्षरबहुले प्रश्ने पर-जनकृतं कार्यम् । स्निग्धरूक्षाक्षरबहु[ले] प्रश्ने प्रमदासंयोगार्थे भार्यापुत्रकार्य च ज्ञातव्यम् ।। ८६ ॥ . पढमक्खरेसु बाला, मझेसु य जोवणंमि वस॒ता । अतिगएसु अ थेरा, जीवा पण्हेसु णायवा ॥ ८७ ॥ ० प्रथमवर्गाक्षरबहुले प्रश्ने बाला[:], पुमा(मान) स्त्री नपुंसकं च भवति । तृतीयवर्गाक्षरे ध्वधिकृतेषु दृष्टेषु एतान्येव स्त्री-पुं-नपुंसकानि सयौवनान्यादेस्या(श्या)नि । पञ्चमवर्गाक्षरा(रे)ध्वधिकृतेषु दृष्टेषु ब(कृ)द्धानि द्रष्टव्यानि । द्वितीय-चतुर्थवर्गाक्षराधिके दृष्टे एतान्येव मध्यमवयान्यादेश्यानि ।। ८७ ॥ सामा कण्हस्सामा, गोरी णीला य रत्तसामाचेव('मा य?) । एवं पंच [प० ५०, पा०२] वि वग्गा, कमसो पण्हंमि य विभत्ता ॥ ८८ ॥ प्रथमवर्गः स्या(श्या)मः । द्वितीयो वर्गः कृष्णश्यामः । तृतीयो वर्गो गौरः । चतुर्थी वर्ग(गो) नीलः । पञ्चमो रक्तश्यामः । एवं पञ्चाप्येते वर्गाः क्रमस(शः) प्रविभक्ताः । एतेषां मध्ये येषां [वर्णानां ] बाहुल्यं भवति तैः वर्णः(ण)निर्देश्य(शः) कार्यः ।। ८८ ॥ जारिसय(य) परपक्खं, संजुत्ता तारिसा तहिं सामा । हीणा समाऽहिया वा, सेसा परपक्खसंजुत्ता ॥ ८९ ॥ यादृशः परपक्षः। कोऽसौ परपक्ष ? इत्यभिहन्ता भण्य[ते] । तस्याभिहन्तुः यादृशा रूकस्या(क्षश्या)माद[५० ५१, पा० १]यो वर्णा येऽभिहता[:] तादृश्या(शा)स्ते ज्ञेयाः । हीना(नाः) समा [अ]धिक्य(का) वा ते वर्णास्तृ(त्रि)विधाः । तत्र हीना आलिङ्गिताः, समा अभिधूमिताः, अधिका दग्धाः । परपक्षग्रहणेन च पूर्वाभिहता आलिंगिता [अ]भिधूमिता दग्धाः ॥ ८९ ॥ ॥ मनुष्यप्रकरणं समपञ्चं समाप्तम् ॥ पक्खी दिढे सत्तमसरे य वग्गे य पढमए जलया। दसमसरे य कवग्गे, थलया पखी(क्खी) हु णायबा ॥ ९ ॥ सप्तमखरः एकारः । प्रथमवर्गो अकार(र.), तस्यामधि(स्याधिक्ये ?)के प्रश्ने जीवयोनौ प्राप्रध(लब्धे) जल[५० ५१,पा० २ ]जः पक्षी ज्ञेयः । दशमस्वर औकारः कवर्गप्रहणेन ककारः " केवल उच्यते । औकारे ककारस्योपरिगतो-ऽप्रतोवाऽनन्तरमवस्थिते जीवयोनौ लब्धायां थलजाः पक्षिणो ज्ञेयाः ॥ ९॥ (36) Jain Education Intemational Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा ९१-५५] प्रश्नव्याकरणाख्यं नवमसरे वगंमि, तइऍ पक्खिणो तहा जलया । थलया बारस अट्ठम, सरे चउत्थे टवग्गंमि ॥ ९१ ॥ नवमस्वर उ(ओ)कारस्तृतीयवर्गचकारस्योपरिगतोऽग्रतो वाऽनन्तरमवस्थिते जल जाः पक्षिणो ज्ञेयाः। द्वादशमस्वरः अकारः सविसर्गः, अष्टमस्वरः ऐकारश्चतुर्थवर्गः टकारः। टकारेण च स्थलजाः पक्षिणो ज्ञेयाः पूर्वोक्तन्यायेनेति ॥ ९१ ॥ अणुणा(प० ५२, पा० २ ]सिएसु पंचसु, तीसु य धाउस्सरेसु णायवा । पक्खीओ कुकिआ खलु, वायसगिद्धा य चडया य ॥ ९२ ॥ ङ अ ण न म बहुले प्रश्ने एपामन्यतमे धातुस्वरास्त्रयोऽन्यतमयुक्ते जीवयोनौ लब्धे पक्षिणो ग(हि)ता[:] भा(चा?)सादयश्चटका गृध्रा वायसाश्च ज्ञेयाः। धातुस्वराः के? उ ऊ अं इत्येते त्रयः॥९२॥ ॥ सप्रपञ्चं पक्षिप्रकरणं समाप्तम् ॥ सं(सिं)गी कचाइवग्गे, गजा[इ]वग्गे चउप्पया ख(खु)रिणो । दुस्स[र]सरा हु सबे, सिंगीखुरीण तु सामण्णा ॥ ९३ ॥ ककारस्य चकारस्योपरिमतो(गते)न चतुर्णा हस्वस्वराणामन्यतमेन तयोरेव ककार-चकारयोरपतोवाऽवस्थितेन, ना [५० ५३, पा० १] नरा[:] शृंगिणश्चतुष्पदा ज्ञेयाः । के ते इस्वस्वराः ? अ इ उ ए । अधरस्वरेण ऐकारेण औकारेण च युक्तस्य ककारस्य च व(च!)कारस्य वा तवो(तो) । ऽर्वाक् स्थितयोः एकारौकारयो आरण्याः शृंगिणो ज्ञेयाः । गकारस्य जकारस्योपरिगतो हस्वस्वराणामन्यतमेग(न) तयोरेव गकार-जकारयोरस(ग्र)तो वाऽवस्थिते खुरिणच(श्चतुष्पदा ज्ञेयाः। गकारे जकारे वा अधरस्वरसंयुक्ते खुरिणश्चतुष्पदा ज्ञेयाः । गाथयाऽनुक्तमप्येत[] व्याख्यातम् ॥९३॥ बितिउ(ओ) दसमो य सरो, खछादिवगंमि चेव दंतीओ। अणुणासिएसु पंचसु, णहिणो धातुस्सरेसुं च ॥ ९४ ॥ द्वितीय [प० ५३, पा० २] आकारः, ऊ(औ)कारो दशमः, खकार-ठ(छ)कारस्योपरि गतस्तयोरेव ख-छयोरप्रतो वा व्यवस्थिते आकारे औकारे वा दन्तिनो ज्ञेयाः । बण न मे सु(५) पश्वसु धातुस्वरयुक्तेषु ङ अ ण न मा नां वाऽग्रतोऽनन्तरमवस्थितेषु नखिन्नो(नो) शेयाः । धातुखराः उ ऊ अं॥ ९४ ।। घझ ढे सु होइ दाढी, दंती तह वस(ध न) व हे सु णायवा। चउरठ्ठमबारसमस(स्स)रो य दोण्हं पि सामन्ना ॥ ९५ ॥ घ झ ढा नामुपरिगते इ(ई)कारे [प०५४, पा० १] ण(ऐ)कारे सविसर्गे च(अ)कारे घ झ ढा ना मप्रस्थितेषु वा ईकारादिषु दंडि(ष्ट्रि)णः सूकरादयो द्रष्टव्याः । ध न व हा नामुपरिगते (तै)स्तैरेव समि(म)स्वरैरप्रतो वा व्यवस्थितैर्दन्तिनो द्रष्टव्याः। के त्रयः स्वराःईऐ अः॥ ९५ ॥ (37) Jain Education Intemational Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 २२ 20 गोर्विकारः क्षीरदध्यादिकः जीवावयव एव गाथया अनुक्तोऽपि द्रष्टव्यः । [ १०५४, पा० २] शृंगिषु सिद्धेषु अराक्षराभिव्यञ्जको न (त) द्विकारो ज्ञेयः । चतुष्पदयोनौ लब्धे यदोपरिमात्राबाहुल्यं 'दृश्यते तदा शृंगिणो ज्ञेयाः । तस्मिन्नेव चतुष्पदयोनौ लब्धे यदा अधोमात्राबाहुल्यं दृश्यते तदा खुरिणो ज्ञेयाः । तस्मिन्नेव चतुष्पदयोनौ लब्धे उकारबाहुल्यं खुरिणो ज्ञेयाः । ऊ. ( औ? ) काराकारयोस्तुल्ययोउ (रु) परिगतस्य साअ (सर्प ? ) योनि: । ऊ ( औ) कार (स्यो ) परिस्थितस्य नखिन्नो (नो) ज्ञेया: । [ प०५५, पा० १] तत्रोत्तरेणाधरेण दृष्टेनोत्तमं नखिनं खुरिणं वा लक्षयेत् । अधरेणावसं(धमं ? ) नखिनं खुरिणं वा लक्षये[त् ] ॥ ९६ ॥ ॥ चतुष्पदप्रकरणं समाप्तम् ॥ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । दिट्ठे चउप्पयंमि य, पण्हे जय दीसए उवरि मत्ता । तो सिंगिणो ह भणिया, खुरिणो अह मत्तया होंति ॥ ९६ ॥ [ गाथा ९६ - १००] सिंगिससा (मा ?) किण्हादी, हत्ति (दन्ति) समा राइला ( नायरा ?) मुणेयवा । सेसा तिणि वि वग्गा, वण्णतरियाण सप्पाणं ॥ ९७ ॥ येषु शृंगिणोऽभिहतास्तेष्वेव कृष्णपौरा द्रष्टव्याः । उत्तरखरैर्नागराः, अधरखरैरारण्याः । येषु दन्तिनोऽभिहतास्तेष्वेव णियष्ट (?) द्रष्टव्याः । शेषा तोवकारेणा (?) [प० ५५, पा० २ ] यषि (अव ? )शिष्टानां भवानां बाहुल्ये वर्णान्तरिको (काः) चित्रकादयः सर्पा द्रष्टव्याः ।......... लब्धायां अपदेषु च लब्धेषु, एवंविशिष्टो वाच्य इति ॥ ९७ ॥ ॥ जीवचिन्ता समाप्ता ॥ अध तत्थ धाउचिंता, सा दुविहा होइ आणुपुबीए । धम्मा [S]धम्मा [य] तहा, धम्म (म्मा) लोहं अलोहं च ॥ ९८ ॥ धातुचिन्ता द्विविधा भवत्यानुपूर्व्या धाम्या [ अधाम्या ] च । तत्र धाम्या लोहलक्षणा, अधाम्या मुक्ताप्रवालादिलक्षणा ॥ ९८ ॥ कंचणरययं तंमं, तउ सीसं आर कंस लोहं च । लोहं अट्ठवियप्पं, प्प (प )धाण तह अप ( प ) हाणं च ॥ ९९ ॥ काननं, रजतानां (रजतं ), [ ५०५६, पा० १] तानं, त्रपु, सीसकं=बंगं, आरं = बृ (ब्र)क्ष 24 रीरिका वृत्तं लोहं वा, कंसं कृष्ण लोहानि (हमि ) त्यष्टभेदम् । उत्तरा[क्षर ] बहुले प्रश्ने लोहमुत्तमं सुवर्णादि ज्ञेयम् । अह (घ) राक्षरबहुले प्रश्ने लोहमधमं त्रपु - सीसक- कृष्णलोहादि ॥ ९९ ॥ इट्टा य मट्टिया सकरा य धम्मा इमे य लोहा य । रयणाय पत्थरा पुढवि मट्टिया चेव णो धम्मा ॥ १०० ॥ (38) Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा १०१ - १०५] प्रभव्याकरणाख्यं २३ इष्टका स्थूरकर्परा, [ मृत्तिका ], स (शर्कराश्व धाम्याः । त्रीण्येतान्यपि । लोहामि (नि) । रत्नाति (नि) पाषाणा [:], पृथीवि (वी), मृत्तिका चाधाम्या धातवश्चत्वारः ॥ १०० ॥ रयणा य इदंनीला, मरगय तह वेरुलीयजाजी (ती) या । अयकंत- सूरकंता, [१०५६, पा० २] चंदकंता य नायवा ॥ १०१ ॥ इन्द्रनील-महानील-मरक्त-वैडूर्याः, अयस्कन्ताः, सूर्यकान्ताः, चन्द्रकान्ता च (च) रन-: विशेषा ज्ञेयाः ॥ १०१ ॥ मोतिय-पवालमाई, भवंति एवंविहा [हा] अन्ने | ते स्सा (सा)रा णिस्सार (रा), य होंति पुण संखमादीया ॥ १०२ ॥ मौक्तिक-प्रवालाः । एवंविधा[ : ] तथाऽन्ये सङ्ग्रादर्तियो ( पि शंखादयो) विमलकारादय[:] ते सारा असार (रा)श्व । तत्रोत्तराक्षरबहुले प्रभे धातुयोनौ लब्धे ससारा मुक्ता-प्रवालादयो ।" ज्ञेयाः । अधराक्षरबहुले प्रश्ने निःसारा विमल-संख (शङ्ख) - मु (शु) क्ति-कपर्दकप्रभृतयः ॥ १०२ ॥ सीय - दहाय [स] मुदा (द्दा), नदी तडागा [ १०५७, पा० १] तहेव पम्मध (स्व) णा । एक्केकं तं दुविहं, थिरं चलं चेय नायवं ॥ १०३ ॥ सीतजला (? शीतह्रदा) नि समुद्रा नदी तटाकानि प्रश्र (स्र) वणमेकैकम् । तेषां द्विविधं - स्थिरं चलं चेति । तत्र स्थिरमवद्दमशोश (पं) चोत्तराक्षरैः द्रष्टव्यम् । यद्वा वहति शुष्यति च तचल- 15 मधराक्षरैर्द्रष्टव्यम् । नामाक्षरलावे (पे ) न वस्तु - विचार - स्थानं सन्निघेसा ( वेशा ) दि ज्ञेयम् ॥ १०३ ॥ उगारा तह मोमुणा ( मुम्मुरा) य अण्णा य एवमाईया | उक्का विज्जा (ज्जू) अव(स ) णी णिग्घाउ (ओ) सूरकंताउ ॥ १०४ ॥ उष्णा [] गाराश्च मुमु ( र्मु ) रग्रहणेन कुकूलमुच्यते । एतौ च धाम्यधातुसंज्ञौ वाक्याक्षरैर्ज्ञात[प० ५७, पा० २ ]व्यौ । उल्का विद्युदशति ( निः) निर्घातः सूर्यकान्तं पचैते अधाम्यधातु - 20 सञ्ज्ञाः । वाक्याक्षरो (र) नामतो ज्ञेयाः ॥ १०४ ॥ एसा (गा?) पत्थरजी (जाई), से (सा) सवियप्पा पधाण अप्प (प ) हाणा । सा परिकमि (म्मि)[ अ ]परा, णाअधं (बं) जं जहिं कमइ ॥ १०५ ॥ 25 पाषाणजातिसामान्यादेका पाषाणजातिः । सा द्विभेदा भवति । प्रधाना अप्रधानाश्च (च) । तत्र उत्तराक्षर (रैः) परिकर्म (र्मि)ता पाषाणअतिद्र (जाति)ष्टव्या । अप्रधानाश्च (च) अधराक्षरैः अपरिकर्म (र्मि?) तपाषाणजातिद्र (ई)ष्टव्या । [ १०५८, पा० १] अप्रधाना व । यथायोगं वस्तु (स्तू)पलंभः कार्यः स्वनामनि । परिकर्मिता [टं]कघटिता । देशतश्च विज्ञातव्या भवत्याद्या भारता[:] क्षेत्राः । द्रोणमुखाः, के ? यत्रागम्य यानपात्रान (य) वतिष्ठते (ते) ते देशा द्रोणमुखसंज्ञाकराः (संज्ञकाः?) । खेटकाः, के ? उच्चप्रदेशबहुले भूभागे यो निवसते जनपदः स खेटकसंज्ञः । पृथिव्या एते भेदा भवन्ति । व्याख्यामि मृत्तिकाभेदमिति वक्ष्यमाणोपन्यासः ॥ १०५ ॥ (39) 30 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडमाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा १०६-१११ हरियालमब्भपडलं, [५० ५८, पा० २] मणसि(स्सि)ला पारयं च बोधवं । तह ब(चु)ण्णपारदो वि य, मदू(ट्टि)यभेदा मुणेयवा ॥ १०६ ॥ हरितालम् , अभ्रपड(ट)लम् , मनःसि(शि)ला, पारय(दं), चूर्णपारत(दं) । मृत्तिकाभेदाः पश्च । तत्र चूर्णपारत(द) इति द्वितीयपार[द]जाति चूर्णाकारं द्रष्टव्यम् ॥ १०६ ॥ पण्हक्खरेहि एते, णायवा जे जहा समुदि(दि)ट्ठा । अधरोत्तरक(क)मेण व, सणामनिदो(इ)सतो यावि ॥ १०७ ॥ प्रश्नाक्षरैरेतैर्यथोक्ता भेदा विज्ञेयाः । यदा(था) एषां प्रधान्य(नताs)प्रधानता उत्तराधरक्रमेण ज्ञेया । यावत्स्वनामनिर्देश इति ॥ १०७ ॥ ख छ ठ थ फा घ झ[ढा] वि य, दिट्टे धाउंमि होइ धम्माओ । अट्ठक्खरा हु एते, सेसमधम्मख(क्ख)रा सबे ॥ १०८ ॥ ख छ ठ थ फा(फ) घ झ ढा नामेषा[मष्टानां बाहुल्येन धातुयोनौ लब्धायां धातुद्र(द्र)ष्टव्य(व्यो) धाम्यः । शेषाश्च [प० ५९, पा० १] 'रषध भ व हा' इत्येते षड् गृह्यन्ते । ना(ता)न्येव धातुयोनौ लब्धायां एषां षण्णां बाहुल्येन धातुरधाम्य आदेश्य इति ॥ १०८॥ पढमेकारवररस(रसवार)समसरे य कणयं तु क ख ग घे सुं च । पंचट्ठमयसरेसुं, पढमेऽणुणासिए य तउं ॥ १०९ ॥ पढ(प्रथ)मस्वर अकारः, एकादशस्वरः अकारः सानुस्वारः, अकारः सविसर्ग(गो) द्वादस(श)स्वरः । एतद्बहुले प्रश्ने धातुयोनौ लब्धे कनकं ज्ञेयम् । क ख ग घ(घा) नामन्यतमस्योपरिगतो(ते)नैतेषामन्यतमेन स्वरेण कनकमेव ज्ञेयम् । क ख ग घा नामन्यतमाक्षरेण ऐकारेण युक्ते धातुयोनौ लब्धायां पु ज्ञेयम् ॥ १०९ ॥ च छ ज झ य र ल व एसु य, रययं बीयस(स्स)रसत्तमेसु च । अणुणासिए य वितीए, छठे य सरे [५० ५९, पा० २] हवइ सीसं ॥११॥ च छ ज झ [य]र ल वे षु च प्रभे बहुदुष्टे(ले ?)ऽवेषामेवान्यतमाक्षरे द्वितीयस्वरेण सप्तमस्वरेण च युक्ते धातुयोनौ लब्धायां रजतं ज्ञेयम्। च छ ज झ [य] र ल वेषु च,[ए]षामन्यतमाक्षरा(र)बहुले प्रभे अनुनासिके च द्वितीये धातुयोनौ लब्धायां ज(ऊ)कारेण च युक्ते शीशकं झेप०६०,पा० १.]यम् ॥११०॥ ट ठ ड ढ ई कारस्मि(म्मि) य, तंबं कंसं पुण त थ दध(धे)सुं च । पफ ब भ णवमे य सरे, चउत्थ अणुणासिंए आरं ॥ १११ ॥ ट ठ ड ढ (ढा)नामन्यतमाक्षरबहुले प्रश्ने चतुर्थस्वरेण युक्ते धातुयोनौ लब्धायां ताव(त्र)मादेश्यम् । तथा इमो(?) त थ द धा नां पञ्चानां बहुले प्रश्ने, त थ द धा नां वाऽन्यतमाक्षरे" [प०.६०, पा० २ ]ण चतुर्थखरेण युक्ते कंसमादेश्यम् । च(प) फ ब भ इत्येषां पश्चानामन्यतमाक्षरबहुले प्रभे तेषामेवान्यतमाक्षरेण नवमखरेण (ओ)कारेण युक्ते धातुरादेश्य आरं ब्रह्म रीरिका वट्टलोहं वा ।। १११॥ (40) Jain Education Intemational Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २५ [गाथा ११२-११७ ] प्रश्नव्याकरणाख्यं हत(व)इ मकारे लोहं, दसमसरे अट्ठमंमि वग्गंमि । एते उ धम्मभेया, अधम्मभेया इमे वोच्छा(च्छं) ॥ ११२ ॥ मकारेबहुले प्रश्ने शकारोऽष्टसा(मा)क्षर(रः) तद्बहुले च, औकारः दशमः स्वरः, तेन तु युक्ते मकारे शकारे वा धा............... ...............*न पवालं हेममातिण्णो(?मोत्तियं)। कंतमाण(सं मणिं च)कायं सीसट्ठाणं चाय(च?) नीसासर)॥ ११३ ॥ अधाम्यधातुयोनौ लब्धायां रजताक्षरा ये उक्तास्तेषु दृष्टेषु मौक्तिकं द्रष्टव्यम् । सुवर्णाक्षरा ये उकास्तेषु दृष्टि(दृष्टेषु?) स्वराश्च येऽभिहिता तेख(व)धाम्यधातुयोनौ लब्धायां प्रवालकं वक्तव्यम्। कंसाक्षरा येऽभिहिता स्वरयुक्तो(क्ता) आ(अ)धाम्यधातुयोनौ लब्धायां तेषु मणयो निसा(स्सा)रा सातव्याः । कायमादिका येख(प्व)क्षरेषु सीसकं द्रष्टव्यम् । तेष्वेव अधाम्यातुयोनौ लब्धायां " निःसा[राम]मणयो वि[म]लकादयो विज्ञातव्याः ।। ११३ ॥ [५०६१, पा० २] ॥ धातुप्रकृतिः समाप्ता॥ धम्ममि दिट्ठपुबे, [घडियम]घडियं च तत्थ णायवं । दुविहं च होइ तं पुण, णाणय अण्णाणयं चेव ॥ ११४ ॥ धाम्यधातौ दृष्टे तद् घटितमघटितं चेति । यच्च घटितं त[] द्विविधा - केयूररूपक- 15 द्रमादि, यत्तक(यञ्च) [नाणकम्] । अनाणकम् - कुंडलनूपुररसनाकेयूरकटकादिकम् ॥ ११४ ॥ दिलुमि णाणयंमि [५० ६२, पा० १] य, सम्मिस्सं होइ [तह य] उम्मिस्सं। इतरं पि होइ दुविहं, आहरणं भायणवि[य]प्पं ॥ ११५ ॥ अक्षरलब्ध्यद्यातके (लब्ध्यंकिते?) नूपुरादौ नाणके । तद्व(च) नाणकं द्विविधम् - मिश्रममिश्र चेति । तत्र मिनं सुवर्णरजतताप्रैखिते (खिभिरित?)रेषां द्वयेन वा यत् क्रियते तन्मिश्रम् । " यत्सुवर्णेनैकेन रजतेन वा क्रियते नाणकं तदमिश्रम् । सुवर्णा(प० ६२, पा० २]दिद्विविधं भांडक्ष(क)तमाभरणं चेति ॥ ११५॥ आभरणंमि य दिढे, तं दुविहं देवमाणुसाभरणं । हिट्ठमि(टिम)उवरिमकाए, एकेकं तं पुणो दुविहं ॥ ११६ ॥ अभ[]लाभेनाभरणं यद् दृष्टं तद् वि[वि]धमाभरणं देवामरसीसातुपाहरणावाता (?देवा- 8 भरणं मानुषाभरणं वा ।) तत् पुनर्द्विविधम् - एकैकम् - अधाकाय(यि)कं उपरिकायिक चेति । तदुपरिष्टाद्वे(द्वि)शेषत[:] कथयिष्यामः ॥ ११६ ॥ पञ्चुय-पपुवयं(मपञ्चय) वा, एकेकं तं पुणो दुहा होइ । 'पञ्चोविए वि दिटे, मोत्तिय-माणिक-उम्मिस्सी ॥ ११७ ॥ * अत्र मूलादर्शे एका संपूर्णा पंक्तिरक्षरशून्या स्थिता लभ्यतेऽतोऽस्या गाथायाष्टीकायाः कियान् भागस्तथैवानेतनगाथायाः प्रथमः पादो विनष्टः। tआदर्श 'मोत्तियं अमाणिकमुम्मिस्सएण' इति बहुविकृतपाठो रश्यते। नि. मा. Jain Education Intemational Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम्। [गाथा ११८-१२३ ] यदाभरणमधःकायिकमौपरिका[प०६३,पा० १]यिकं च । ता] द्विविधमुक्तम् । प्रत्युष्ट(प्त)मप्रत्युत्तं च । तदेकैकं पुनः द्विविधम् । प्रत्युप्तमिति संश्लिष्टमणिमौक्तिकं कटकाद्याभरणमुच्यते । पूर्वोक्तहेममौक्तिकाक्षरबहुले प्रश्ने प्रागुक्तन्यायेनैव प्रत्युप्तं ज्ञेयम् ॥ ११७ ॥ उवरि[य]णवण(ण)सहिया, उट्ठा(दड्डा) मत्ताउ जा य दीसंति । आभरणं जाणिजा, उवरि श(स)रीरंमि देहि(ही)णं ॥ ११८ ॥ प्रश्नाक्षराणां उपरि दग्धमात्रा दृश्यन्ते तदाऽऽभरणमवगच्छ, उपरि शरीरस्य देहभृतामिति ॥ ११८॥ अहराओ अहरेसुं, मत्ताओ जारिसाओँ तारिसयं । [५० ६३, पा० २] सं(तं) ठाणं [प]ण्हंमि य, धाउविसेसेण नायचं ॥ ११९ ॥ ॥ अधराधिकाक्षरप्रश्ने अधःकायिकमाभरणं ज्ञेयम् । उत्तराक्षरबहुले प्रश्ने उपरिकायिकमा भरणं शेयम् । अधोमात्राधिकप्रस्त(भे) अधःकायिकमाभरणम्, तिर्यग्मात्राधिकप्रश्ने तिर्यग्भागे नं (ऽलं)कारो ज्ञेयः । ऊर्द्धमात्राधिके प्रश्ने शरीरस्योर्द्धभागे ज्ञेयं धातुविशेषेणेति ॥ ११९॥ दिढे मणिमि पच्चोवियम्मि जीतव(जाती य?) होइ] इतरं वा । जातीए माणिक्कं, पत्था प० ६४, पा० १]रजाती विजातीए ॥ १२० ॥ दृष्टैर्मणिभिः प्रद्यु(त्यु)प्तैः पूर्वन्यायेनैव यैरक्षरैः सारा उक्ता मुक्तादयो मणयः, तैः सारमणिप्रव्यु(त्यु)प्तमाभरणं ज्ञेयम् । यैश्च नि(नि:)सारा विमलकादय उक्तास्तैः प्रश्ने दृष्टे(टै)नि:सारै: प्रद्यु (त्यु)प्तमाभरणं शेयम् ॥ १२०॥ तम्मिख(तं पि य खा)यमखय(खाय),जं तत्थ[ख]यं पुणो वि तं दुविहं । दुवय(ए) चउप्पए वा, दुपए पखी(क्वी) मणुस्सो वा ॥ १२१ ॥ ॥ तदाभरणं वि(द्वि)विधं खातमखातं चेति । धाम्यधात्वक्षरबहुले प्रश्ने [प०६४,पा० २]जीवा क्षररहिते अखातमाभरणं ज्ञेयम् । जीवाक्षर उक्ते च खातमाभरणं ज्ञेयम् । तत्र जीवाक्षरैः पक्षिणो मनुजाश्च ज्ञेया[:] । चतुष्पदजीवाक्षरैती नखी शृङ्गी खुरी वा ज्ञेयः । पूर्वो(वा)क्षरने(भेदेन पूर्वोक्तन्यायेन च ॥ १२१ ॥ दिढे चउप्पये गामवासिणो रण्णवास(सि)णो चेव । दंती सिंगी य खुरी, णही य दाढी य वा होज्जा ॥ १२२ ॥ दृष्टे चतुष्पदे, के ते चतुष्पदाः ? द्विविधा:-ग्रामवासिनोऽरण्यवासिनश्च । पूर्वोक्तास्ते दन्ती शृङ्गी खुरी नखी दंष्ट्री चेति पश्चविधाः । पूर्वोक्तन्यायेन स्वैःस्व(स्वै)[प०६५, पा० १] क्षरैः शेयाः ॥ १२२ ॥ पच्चोविए वि दिट्टे, जो गमउ(ओ) देवमाणुसाभरणो। सो चेव य सविसेसो, णायचो भायणेसुं पि ॥ १२३ ॥ प्रत्युप्तेऽपि दृष्टे यैरक्षरैर्देवानां मानुषाणां वा आभरणानि दृष्टानि तैरेवाक्षरैः प्रश्ने दृष्टे भाजनान्यपि ज्ञेयानि । हेमाद्यक्षरैश्च हेमानि कृतानि शेयानि । यैरक्षरैस्तानि बोद्धव्यानि ॥१२३॥ (42) Jain Education Intemational Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा १२४-१३०] प्रभव्याकरणाख्य धाउस्सराणुणासी, छिद्दा णिढि(च्छि)द सेसया वण्णा । छिद्देसु जाण छिद्दे, णि(मि?)स्सेसु य खुम्मियं दी(द)वं ॥ १२४ ॥ धातुस्वरौ द्वौ उकारो(र-ऊ)कारौ, ङ बण न माः पश्चानुनासिकाः, छिद्रा[:]। प्रथमपि०६५,पा०२] वर्गः तृतीयवर्गश्चान्या(न्या?) यागाधेया(यरलवा?) वक्ता(?) नि(छि?)द्रा ये च द्रष्टव्या]। द्वितीय-चतुर्थवर्गों निछिद्रो(द्रौ) द्रष्टव्यौ । छिद्राक्षरबहुले प्रश्ने छिद्रे(द्रो) धातुरादेश्यः । घना- 5 क्षरबहुले घन(न:), छिद्राछिद्रेषु मिश्रेषु दृष्टेषु स्थुमितं धातु द्रव्यमादेश्यम् ॥ १२४ ॥ ___धातुयोनिः समाप्त(प्ता)। रुखा(क्खा) ग(गु)च्छा गुम्मा, लया य वल्ली य पचया चेव । तणाप० ६६, पा० १ ]वलय-हरित-ओसहि-जलरुह-कुहणा भवे मूले ॥१२५॥ वृक्ष-(गु)च्छ-लता-गुल्म-वल्मी(ल्ली)-पर्वक-तृण-वलय-हरितौ-षधि-जलरुह-कुहणा इति । मूलभेदा द्वादस(श) ॥ १२५ ॥ एगट्ठिय बहुबीया, रुक्खाणं चेव होंति दो भेदा । सेसा वि ग(गु)च्छमादी, वण्णाण कमेण णायबा ॥ १२६ ॥ तत्रैकास्थि-बहुवीजाश्च द्विविधा वृक्षा भवन्ति । शेषा अपि [प० ६६, पा० २] ग(गु)च्छाद्या वर्णाकारप्रमाणादिभिरनुक्रमेण ज्ञातव्या[:] ॥ १२६ ।। तय-मूल-कंद-साहा-पल्लव-फल-कुस(सु)ममेव णिज्जासो। रस-छीर-पसाहाओ, [य] मूलजाईअ(सु) भेयाई(?) ॥ १२७ ॥ त्वग्-मूल-स्कंद(ध)-शाखा-पल्लव-फल-कुसुम-बीज-रस-भेदाश्च मूल-जातिषु विज्ञेयाः। को गुणभेदः ? । सुरभि[:][प०६७, पा० १] दुर्गंधिश्चेति । को वा रसनेवा (भेदः ?) मधुर-लवणकटुक-कषायादिलक्षणः ॥ १२७ ॥ ग(गु)च्छा बहुप्पयारा, कप्पास-करीर-पुप्फग(गु)च्छा य । गुम्मादिया य जाती-कुज्जय-कणवीर-वल्ली य ॥१२८ ॥ ग(गुं)च्छा बहुप्रकाराः। के ते? कप्पा(प्पा)स-करीर-पुष्पग(गु)च्छाय(श्च) । के पुष्पग(ग)च्छा भण्यन्ते ? । ये पुष्पं केवलं प्रय[प०६७, पा०२]च्छन्ति नव(च) फलं बंधन्ते । तत्र गुल्म(ल्मा) जाति(ती) कुब्जका कणवीरं मल्लिका चेति ॥ १२८ ॥ चंपय-असोय-चूया, कुंदलयाओ व होति विविहाओ। तंबोल-लवलि-पिप्पलि-मिरिया वि य होंति क(व)ल्लीओ ॥ १२९ ॥ चंपकासो(शो)कचूता लतासंज्ञकाः। कुंदश्च लतासंज्ञः । तांबो(ताम्यू)ल-पिप्पलि-मरीचाद्या वल्या.(यः) ॥ १२९ ॥ दूर्वा(दुबा)कुसतृणवध्वपय(?)यवसालिकंगुगोधूमादीया । जलसंभवा य हरिया, गंधेणुयादि मुणेयबा ॥ १३० ॥ (43) Jain Education Intemational Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा १३१-१३७] ___ दूर्वा-कुस(श)-तृण-वथकय(?)-यव-सा(शा)लि-कंगु-गोधूमाद्याः तृणसंज्ञा[:] । जलसंभवा अपि तृणा एव । हरितसंज्ञाश्च गंधेनुकाद्या देसिकाः ॥ १३० ॥ वलया साहा विडवा, दलकंदलसरलधम्मणा(मा)दीया । तिलमुग्गमाषचण[प० ६८, पा० १] या[इय ओसहिओ मुणेयवा ॥ १३१ ॥ वाला(बल)या साखा म(प)त्सदलं कंदल-सरल-धम्ममाद्या तिलमुगमाषचणकाद्या ओषधयः॥१३१॥ पउम(मु)प्पलकुमुदाई, मेसे)वालकमे(से)रुया य जलपसुणा । ....मो(नाणा?)विहा य अण्णा, सिंघाडगरलि(वल्लि)यादीया ॥१३२॥ पद्मोत्पलकुसुमसेवालकसेरुकाः नमो(नाना)विधाश्चान्ये शृंगाटकवल्याद्या जलरुह॥ संज्ञकाः ॥ १३२॥ हो(हों)ति कुहणा अबीया, वसुधोर(धाए?) संभवा य जे अण्णे । तत्थ कुहणा च(व) इयरे, भूमीरसकंदली उच्छू ॥ १३३ ॥ अबीजाः प्रावृत(द)काल आसण्णे वसुहा जलो(?ले) एवान्त[र]रसं मुंचंति तदसं(सं) भवास्छत्रका[:] कुहणा[:],अपरेऽपि तदाकृतयो ये उत्पद्यन्ते क्षर(इक्षु?)संज्ञा[:] कंदल्यश्चेति॥१३३॥ इज्जण-वेणुय-वेता-सरकंडसयंगपबगे हे(णे या । [५० ६८, पा.२] बारसविभास(धा य) मूला, कहिया जिणसासणंमि सया ॥ १३४ ॥ इजणवेणुयवेन्यसरकंडिभंगाश्च नलसालि(?) भण्यन्ते । एते पवर्ग(ग?)संज्ञाः । पर्वणि पर्वण्युक्तेभ्योऽप्रते (गे)भ्य उत्पद्यत इति पर्वगामा भण्यन्ते । द्वारस(दश)विधाति(नि) मूलावि(नि) कथितानि जिनसा(शा)ले ॥ १३४ ॥ मूला कंदा य तया, साह य(प)वाला य तह य पत्तफलं । पुप्फाणि य [बीया]णि य, जाणिज्जा जं जहिं कमइ ॥१३५ ॥ मूल-कंद-त्व[-]शाखा-प्रवाल-पत्र-फल-पुष्प-बीजा[नि] [प० ६९, पा०१] संजानीहि । तद्यथा तद्य(द)[प]रिष्टाध(द्व)क्ष्यति ॥ १३५॥ भक्खाऽभक्खा य पुणो, भक्खिा तित्तादिया य पंचार]मा(सा)। गामारण्णा जल-थलय पहाणा अप्पहाणा य ॥ १३६ ॥ भक्ष्या त्य(अ)भक्षा(क्ष्या) विविधास्ते। तत्र भक्षा(क्ष्या)तिक(क)कटुककषायाम्लमधुराः पश्चरसाः । प्राम्या आरण्याश्च । पुनद्वि(वि)विधा जलजाः स्थलजाश्च । प्रधाना [अप्रधाना]श्वेति ॥ १३६ ॥ पण्हक्खरेहि एते, णायवा जे जहा समुदि(हि)ट्ठा । अधरुत्तरक(क)मेण व, सणामणिदे(द)सओ आवि॥१३७॥ [५० ६९, पा० २] ये यथा उक्तास्ते तथा उत्तराक्षरा( र )बहुले प्रश्ने प्रचुरमात्रा[ : स्रिग्धस्थवयश्च( ? ) पुगंधिनः सुरभीविपुला द्रष्टम्याः। अधराक्षरबहुले प्रश्रेऽपि एवं पूर्वोक्ता अल्पमात्रा बृहदा(?रूक्षा )दुर्गधाः (44) Jain Education Intemational Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा १३८-१४१] प्रभव्याकरणाख्यं नीरसाः हस्खाश्च भवन्ति । तैरेव प्रभाक्षः] ताव[]ज्ञेया याव[] नामति(नि) दृष्ट इति [प०७०,पा०१] ॥ १३७॥ ॥ मूलभेदाः समाप्ताः॥ संजुत्ते फलभेदे, खाधण्णे रिक्खं(क्खरं?)मि णिप्पु(फ)ला भणिया । उवरिल्ले उवरिल्ला, अधरा [अ]धरेसु नायबा ॥ १३८ ॥ संयुक्ताक्षरबहुले प्रश्ने सफला वृक्षा ज्ञातव्याः । के ते संयुक्ताक्षराः ? क्ख च्छ टु त्थ । प्फ र ग्घ ज्झ ल द्ध ब्म ल्व इत्येते । [प०७०, पा० २] च्छट्ठसखरैच(?श्च)तुर्भिरिक्षरै(रैः) सफला वृक्षाः। उवरिल्ले उवरिल्लाक्षरैरुत्तराक्षरैरित्यर्थः । तैरक्षराणामुपरिगतैह()ष्ट्रवृ()क्षादीनामुपरिभागे फलं इत्यादेश्यः(श्यम्)। अधराक्षरैः उत्तराक्षराणामुपरिंगते दृष्टे वृक्षादि(दी)नामधोभागे फलं वक्तव्यम् ॥ १३८ ॥ पढमे नवमे य सरे, क-चादिवग्गंमि चेव रुक्खाओ। बितिय-दसमे य सरे, लताओ ख छ ठ क्खरेसुं च ॥ १३९ ॥ ककार-चकारबहुले प्रश्ने [५०७१,पा० १] ककारस्य चकारस्योपरिगते अकारे उ(ओ?)कारे वा अन्यतरस्याप्रतो वाऽनन्तरमवस्थिते वृक्षा शेयाः।ख छ ठ बहुले प्रश्ने ख छठा नामेकस्मिन् द्वितीयेन आकारेण दशमेन औकारेण वा युक्तेऽप्रतोवाऽनन्तरमवस्थितानामन्यतरस्य लता[:] प्रत्येतव्याः ॥ १३९॥ थ फर स एसुं वल्ली, तणं च धातुस्सराणुणासीया । चउरहमबारसमे, सरंमि ग(गु)च्छा य घझ ढे सुं ॥ १४० ॥ थ फर स(ष?)[प०७१, पा० २] बहुले प्रश्ने वल्ली। ङबण न माक्षरबहुले प्रश्न तेषामेवान्यतमे धातुखरान्यतमयुक्ते तेषामेवान्यतमव्या(स्या)प्रतो वाऽनन्तरमवस्थिते धातुस्वरे तृणं ज्ञेयम् । धातुखराः उ ऊ । घझ ढ बहुले प्रश्ने घझ ढा नामेकस्मिंश्चतुर्थ (2)नाष्टमेन द्वादसे(शे)न । वा स्वरेण युक्ते घ झ ढा नामेकस्याग्रतो वाऽनन्तरमवस्थितेन ग(गु)च्छा ज्ञेयाः॥१४॥ गुम्मा य धभ व हे सुं, गज डे वलया हु णवम-तइएसुं । सत्तमसरे तह ओसिहीओ भणिया द ब [ल] से सुं ॥ १४१ ॥ धस (भ) व ह बहुले प्रभे गुल्मा भवति(न्ति)। गजड [प०७२, पा० १]बहुले प्रश्ने गजडा नामेकस्मिनवमस्वरेण ओकारेण तृतीयेन उकारेण वा युक्तेन ग ज डा नां त्रयाणामेकस्याप्रतो । वाऽनन्तरमवस्थितेन वलया झेयाः । वलयग्रहणे च ताल-खजू(G)र-पूगफल-वृक्षादय उच्यन्ते । दमलस बहले प्रभे तेषामेवान्यतमेन सप्तामास्वरेण एकारेण यक्ते. एतेषामेवान्यतम्याम)सापतो वाऽनन्तरमवस्थितेन सप्त[म]खरेण औषधयः प्रत्येतव्याः ॥ १४१ ॥ ॥ एवं मूलयोनिः समाता॥ (45) Jain Education Intemational Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा १४२-१४६ ] जीवाखरेसु मूलं, जीवं मूलक्खरेषु(सु) सु(पु)हेसु । मुट्ठीए नायवं, धातुं [५० ७२, पा० २] धाउख(क्ख)रेसुं च ॥ १४२ ॥ अनया गाथया योनिप्राष्टमा(प्रश्नमे?)वमुच्यते । इदानी प्रत्येकभागस्वरयुक्तेषु जीवाक्षरायेऽभिहता[:] तेषु संख्याधिकेषु मूलं ज्ञेयम् । [मूला]क्षरा येऽभिहतास्तेष्वपि संख्याधिकेषु मुष्टौ 'जीवो ज्ञेयः ! धात्वक्षरा येऽभिहतास्तेष्वप्यधिकसंख्येषु पु(मु)ष्टौ धातु ज्ञेयम् ॥ १४२ ॥ जीवक्खरेसु मूलं, उत्तरसरसंजुएसु मुट्ठीए । अध[र] सहिए[सु] धाउं, जीवं च सभावदीहेसु ॥ १४३ ॥ शुद्धाः स्वरसहिता[:] । के ते उत्तरस्वराः ? 'अ इ उ ए' एते चत्वारः । त एव जीवाक्षरा(३०) युक्ता मुष्टौ मूलं कुर्वन्ति । एते स्वरा जीवाक्षरा अधरस्वरसंयुक्ता मुष्टौ धातुं "कुर्वन्ति । कोसौर(कौ तौ अ)धरस्वरो(रौ)?। 'आ अः' इत्येतौ द्वौ । नान्यौ गृह्य(ह्ये)ते ।। एव जीवाक्षराः स्वभाव-दीर्घस्वरैर्युक्ता मुष्टौ जीवं कुर्वन्ति । के ते स्वभावदीर्घाः स्वराः ? 'ईए (ऐ) औ' इत्येते स्वराः ॥ १४३ ॥ [५० ७३, पा० १] अहरस्सरसंजुत्ता, मूलं धाउस्व(क्ख)रा उ मुट्ठीए । उत्तरसरसंजुत्ते, धाउं धातुख(क्ख)रेसुं च ॥ १४४ ॥ 5 धातु(त्व)क्षरा अधरस्वरसंयुक्ता मुष्टौ मूलं कुर्वन्ति । अधरस्वराः 'आई [२] औ' इत्येते चत्वारः । धात्वक्षरा उत्तरखरैर्युक्ता मुष्टौ धातुं कुर्वन्ति । के ते उत्तराः ? 'अइ एओ' एते उत्तराः। "अधरस्सरसंजुत्ता, मूलं धाउक्खरा उ मुट्ठीए । सेसा उ अधर धाउँ, धाउं धातुक्खरे धाउं" ॥ . पाठान्तरं वा । मात्रा उक्ता एव 'अ इ एउ' ॥ १४४ ॥ . इदानीं मूलाक्षरेषु प्राप्तिमु(रु)च्यते । [प० ७३, पा० २] अहरस(स्स)रसंयु(जुत्ते, धाउं मूलक्खरेसु मुट्ठीए । उत्तरसहिए मूलं, जीवं सहावदीहेसु ॥ १४५ ॥ अधरखरौं । के(कौ तौ ? 'आ अः' इत्येतौ द्वौ............धातु ज्ञेया भवति । उत्तरा 'अइए ओ' धातुमूलाक्षरसहे(हि)तेषु मूलं शेयम् । मूलाक्षरा मुष्टौ जीवं कुर्वन्ति । के ? स्वभाव। दीर्घाः ई ऐ औ' इत्येते त्रयः ॥ १४५ ॥ हिट्ठमि म(अधोमत्ते,[५०७४, पा० १] धाउं मूलक्खरा उ सुद्धी(मुट्ठी)ए । सेसासु(उ) सबमनी(त्ता), करन्नि(न्ति) मूलक्खरे जीवं ॥ १४६ ॥ मूलाक्षरा अधोमात्रावियुक्ताः । का अधोमात्राः ? स्वभावदीर्घस्वरयुक्ताः मुष्टौ जीवं कुर्वन्ति दाहकत्वात् । शेषाः सर्वमात्राः । काश्च ताः सर्वमात्रा उक्ता एव 'ऐ औ(?) एतास्तिस्र• तान्ये(स्ता ए)व गृह्यते(न्ते) । “सेसवियप्पा जहा पुवं"ति वचनकमेतत् । धातु-५०७४, पा० २] जीव-मलानामन्यतमेऽस्मिन् दृष्टे द्वाभ्यां तिसृणा वा द्रव्याणां नामाचक्षराप्य(ज्य संखख्ये)या (46) Jain Education Intemational Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ [गाथा १४७-१५१] प्रश्नव्याकरणाख्यं भिघातमुद्धया(?) द्रव्यरूपसंज्ञाज्ञानं ज्ञात्वा शेषे प्रपंचधातु-धाम्यान्यविकल्पादिकः जीवोत(वस्त)दवयवो वा द्विपदान्यतमस्य मूलं वृक्षगुच्छगुल्मलतादिकं एवं सप्रपंचं विज्ञाय मुष्टौ तथाऽsदेशः कार्य इति ॥ १४६॥ ॥ मुष्टिविभागप्रकरणं समासम् ॥ दो दीह वट्टदीहा, वट्टो तसो य वट्टदीहा वि । [अत्र आदर्शे तु 'वट्टो दीहो दि तंसो य' एतदृशो द्वितीयपदस्थो भ्रष्टपाठो दृश्यते । ] चतुरस्सो वि य वट्टो,[५० ७५, पा० १ ]होइ तह यायणादि(ता वि?)ण्णि॥१४॥ अकार इकारश्च द्वौ वृत्त(?)दीघौं । आकारश्च ईकारश्च द्वौ [वृत्त?]दीर्थो । उकारो वृत्तः । औ(ऊ?)कारस्यसः (रख्यस्रः) । एकारश्च ओकारश्च पुनद्वौं वृत्तदीधौं । ऐकार औकारश्च दीघौं । अंकार अः सविसर्गः दीर्घचतुरस्यै (स्रौ) । मतांतरेण धनुरावेवा (चतुरस्रावेव)। एतेषां मध्ये " यस्य बाहुल्यं तेन तज्जानीयम् । पूर्वनिर्दिष्टा दीर्घा विज्ञेयं(याः) ।। १४७ ॥ दीह(हा) वट्टा तंसा, चतुरंसा आप(य?)दा य संठाणे । क-खमादिणो य वग्गा, मीसामीसेसु [५० ७५, पा० २} नायबा ॥१४८॥ क च ट त प य शाः सप्त दीर्घाः। ख छ ठ थ फर षाः सप्त वृत्ताः । ग ज ड द ब ल साः सप्त त्यमा(व्यनाः)। घझ ढ[ध भ व हाः सप्त चतुरस्राः । इबण न माः पंच दीर्धचतुरस्राः ।। प्रभाक्षराणां मध्ये यस्याक्षरबाहुल्यं भवति तेन तद्[व]स्तु निर्देशः(श्यम्) । वृत्तदीर्घाक्षरस्तु यदि बाहुल्येन दृश्यते तदा वृत्तदीर्घवस्तु निर्देश्यः(श्यम् ) । एवमन्येऽपि मिश्रा ज्ञेयाः ।। १४८॥ पढम-तइया य छि[ प० ७६, पा० १]द्दा, सीया यघणोसिणा अपि(बि) चउत्था। पंचमओ पुण वग्गो, होतिदोसु (उण्होछिद्दो?) या(य वा?) मीसो ॥१४९॥ प्रथमवर्गस्तृतीयवर्गश्च, एतौ द्वौ छिद्रौ क-गादिको सी(शी)तौ च । द्वितीय-चतुर्थों 10 ख-घादिको धनौ उष्णौ च । पञ्चमो वर्ग उष्णो घनछिद्रः । प्रश्ने एतेषां येन बाहुल्यं तेन निर्देश[:]कार्यः ॥ १४९ ॥ दो सेया धूमलओ, रत्तो चित्तो य किण्हवण्णो य । ये उ(ए ओ) य पुणो सेओ, दो नीला पीयला [५० ७६, पा० २] चरिमा॥१५॥ अकार इकारश्च द्वौ स्वरौ श्वेतौ । आकारो धूम्रः। ईकारो लोहितः । उकारश्चित्रलः । । ऊकारः कृष्णः । एकार ओकारश्च द्वौ श्वेतौ । ऐकारो नीलः । औकारो(र:)पीत(?नी)लः । एवं अंजः पीतौ । प्रश्ने एतेषां मध्ये यदा(द)क्षरबाहुल्यं भवति तेन वर्णनिर्देश[:] कार्यः॥ १५०॥ सेदा किन्हा रत्ता, नीला तध पीयला य वण्णेण । कखमादीओ वग्गा, मीसा मीसेसुणायवा ॥ १५१ ॥ कादिवर्गः श्वेतः । खादिवर्गः कृष्णः। गादिवर्गो रक्तः। घादिवर्गो नीलः । ऊब .. णन माः पीतलाः। एतेषां यस्याक्षर बाहुप० ७७, पा० १]ल्यं प्रश्ने [तस्य वर्ण] निर्देशः कार्यः॥१५१॥ (47) Jain Education Intemational Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम्। [गाथा १५२-१५४] सुरभी मंदो सुरभि(भी), मंदो सुगं(दुग्ग)धिया तहा दोण्णि । सुरभी मंदो सुरभी, [मंदो] दुग्गंधियो सुरभी ॥ १५२ ॥ अकारः सुरभिः । आकार ईषत्सुरभिः। इकारः सुरभिः। ईकार ईषत्सुरभिः । ऊ द्वौ दुर्गंधी। एकारः सुरभिः। ऐकारोऽल्पसुरभिः । ओकारः सुरभिः । औकारोऽल्पसुरभिः। । अं दुर्गधिः। [अ: सुरभिः] । प्रश्नाक्षराणां मध्ये सुगंधिखरबाहुल्यं भवति तदा सुगंधफलकुसुमादिकं ज्ञेयम् । दुर्गंधारचे(धीष्वे)वमेव ॥ १५२ ॥ सुरभी क-गादिवग्गो, गगा(ग-जा)दिवग्गो य तह य नायबो । सेसा [५० ७७, पा० २] तिण्णि वि वग्गा, दुग्गंधिव(ब)जणा होति ॥१५३ ॥ क-गादि[ग-जादि?]वर्गों द्वौ सुरभी । शेषवर्गत्रयं ख-घादि दुर्गधि । प्रश्ने एतेषां बाहुल्ये " पूर्व[व]त् सुगंधादयो ज्ञेयाः ॥ १५३ ॥ एतस्मिन्नेवार्थे संवादकारिणो(ण्यः) अन्यग्रन्थस्य गाथा लिख्यन्ते । तद्यथादो वग्गा(हा) दो दीहा, दो तंसा दो य होति चउरसा। दोणि य होति तिकोणा, दो वट्ट खरत्ति नायम्बा। 'अ'पहा, 'भाई'दीहा, 'उ ए' ते(त)सा 'ऊ ऐ चउरंसा।। 'उ(ओ)औ तिकोणा । 'अ' वृत्ति(वट्टा) नायव्वा ॥२॥ [५०७८, पा.१] वहे जाण सुवणं, पीहेसु रूपयं बियाणाहि । संसेण होइ पुव्य तवं?) चउरंसे कंस जाण ॥३॥ तिकोणा(क्कोणे )हि य पित्तला(ल), लोह, तउयं सीसयं च वित्तेहि । [आदर्श 'वित्तेहि नायब्वं' इति पाठः।]. पढे(वष्टे)सु होइ बु(दु)पयं दीहेसु चउप्पयं च णायव्वं ।। तंसेसु होइ दुपयं, चहु(उ)प्पयं होइ चउरंसे ॥ तिको(को)णेहि य चम, मंसं वालट्ठियं च चंकेहि । बसु होइ गुम्मा, दीहेसु लया मुणेयव्वा ॥ तंसेसु होइ छल्ली, चउरसे लक(क) [प० ७८, पा० २] भणियं । [उत्तरार्द्धः? ] तिकोणेहि य पुफ्फफलं, कत्तंपर्ट (पत्तं कट्ठ) च होइ केहि ॥ [पूर्वार्द्धः] जंजं अकमइ सरो, वगं पण्हं तह अक्खरणिहावं । तं तं पावइ णामं, केवल विमलाए जोण्हाए । अमत्तेसु निहत्थं, मत्तासहिएसु ऊस(ोरे जाण । बिंदुसहिएसु वारं, विसग्गसहिएसु वाहे(हि)रे जाण ॥ उत्तरस[२] संजुत्ते, उत्तर तह वंजणे सगेहंमि । महरसरसंजुत्ते, महरख(स)रे जाण सयणगिहे ॥ परवग्गादिहएणं, मसयणगेहे गयं दग्वं । अमत्तेसु म गाने, मत्तासहिएसुजाण नयरेसु ॥ बिंदु सहिएसु भई, [५०७९, पा० १] विसग्गसहिएसु छणमामो ति(१)॥ दो अंधा दो कुम्मा, दो खोडा दो बहिरा । दो कुज्जा दो डियतणू दो काणा मुणेयम्वा ॥ चोरपण्हाए भरिया, भरिजाण तह चेय भस्थभरियावि(१)। भरमाणा जे भट्ठ, भरिया णायग्वा चोरपण्हाए(1)॥भन्यग्रन्थस्य पाठान्तरम् ॥ पढमो णवमो य सरो, क-गादिवग्गो य सीय ल[हुओ [य] । कख(क्ख)ड लुक्खा य घखा(ख-घा?), बिदियदसम वारिस]सरो या॥१५॥ प्रथमस्वरः अकारः । ण(न)वम ओकारः । (क-गा)दिवर्गाः- क च ट त प य शाः, गजडद बलसा ख(श्च)। सी(शी)ता लघवश्च । ख छठ थ फरषा, घश ढध भ व हाश्च । द्वितीयस्वर " आकारः । दशम औकारः । द्वादशो अकारः सविसर्गः । एते कर्कसा(शा) रूक्षाश्च । एषाभुकानां प्रमे यदक्ष[प०७९, पा० २]रबाहुल्यं तदीयं सी(शी)तादिकं वाच्यम् ॥ १५४॥ (48) Jain Education Intemational Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M [गाथा १५५-१६०] प्रश्रव्याकरणाख्यं तइओ [य] सत्तस(म)सरो, कमा(गा)दिवग्गो य मि(नि)डनिडाओ। लुक्खा उण्हा गरुया, खघा सरा य चउरट्ठमा दि(दो)णि ॥ १५५ ॥ तृतीयः स्वर इकारः, सप्तम एकारः, ख(क)गादिवर्गौ च द्वौ । एतेषां बाहुल्ये स्निग्धद्रव्यमादेश्यम् । ख[घा]दिवर्गः, चतुर्थस्वर इकारः, अष्टम ऐकारः । एते रूक्षाः उष्णा [गुरुकाः।] एतदक्षरखरबाहुल्येन तद्भवति ॥ १५५॥ धातुस्सरा य दोण्णि वि, पंचम(य?) अणुणासिया मउअ सीदा। वामिस्सा पुण सन्चे, मिस्सामिस्सा मुणेयवा ॥ १५६ ॥ धातुस्वरौ 'उ', पश्चानुनासिकाः, मृदवः सी(शी)तलाश्च । नि[ग्ध] रूक्षाक्षरै[:] नास्निग्धो न(ना?)रूक्षो(क्ष) आदेश्यः । मृदु-कर्कसा(शा)क्षरेन(ग?) मृदु-कर्कसो(श) आदेश्यः । [प०८०, पा. १] उष्ण-सी(शी)ताक्षरै[:] न उष्णो न सी(शी)त आदेश्यः । यथोक्ताक्षरबाहु- ॥ ल्येनैतद् भवति ॥ १५६ ॥ तित्तो कडुय कसाओ, अंधो(बो) महुरो य आणुपुबीए । को(का)दीणं वग्गाणं, सरपरिमाणं(णो) मुणेयवो ॥ १५७ ॥ कादिवर्गो तिक्तः । गादिवर्गो(र्गः) कटुकः । खादिवर्गः कषायः । घादिरम्लः । मदिवर्गो मधुरः। अनयोरानुपूर्व्या यथोक्तवर्गाऽक्षरबाहुल्ये स(स्वर)परिणामो(माणो) वाच्यः । 15 एवं वर्गाणां स्वराणां संस्थानं च ॥ १५७ ॥ . ॥ वर्ण-रस-गंध-स्पर्शप्रकरणं समाप्तम् ॥ बितिय चउत्थो य सरो, पढमो अणुणासिओ चषज(क ख ग)घाय। एते व(अ)ग्गेईए, अकगा........पुवदा तिण्णि ॥१५८ ॥ 'च(क) ख ज(ग) घ ड(ङ)' इत्येषां पंचानां अन्यतमबाहुल्ये अ(आ)कारेण इ(ई)कारेण ॥ वा युक्ते एते प० ८०, पा० २]षामग्रतो वाऽनन्तरमवस्थिते आकारेण इ(ई)कारेण वा अमेयां(य्यां) दिशितद् वस्तु विज्ञेयम् । अकगाक्षरबाहुल्ये अकारेण इकारेण वा युक्ते प्रश्ने पूर्वस्यां दिसि(शि) तद् वस्तु विज्ञेयम् १५८॥ ट छ ड(च छ ज)झ तइओ य सरो, बितिओ अणुणासिओ य जम्माए। अट्ठमसरो प(य) ट ठ ड ढ, हवंति ण(ण)कारो य णिरईए ॥ १५९ ॥ ट छ ड(च छ ज) झाश्चत्वारोऽक्षराः, तृतीयस्वरः इकारः, द्वितीयानुनासिकश्च अं(म) कारः । एतैः पूर्वोक्तन्यायेन याम्यायां दिशि तद् वस्तु विज्ञेयम् । अष्टमस्वर ऐकारः, : त(ट) ठ ड ढा श्चत्वारोऽक्षराः, [प०८१, पा० १]णकारस्य(श्च)। एभिनैरु(नैर्ऋत्यां दिसि (शि) द्रव्यं । स्ये()यं पूर्वोक्तन्यायेनेति ॥ १५९ ॥ अधरेण सत्तमसरो, चउत्थ अणुणासिओ अपव(तथद)धा य। . दसमसरो सप(मोकारो, अधरुत्तरतो फभ मा(प फ ब भा) य ॥१६॥ नि. शा. ५ (49) Jain Education Intemational Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम्। [गाथा १६१-१६५ ] पब व धाय(त थ द ध न)बहुले प्रश्ने एतेषामेवान्यतमस्याग्रतो औ(ए)कारेण युक्ते एषामेवान्यतमस्याग्रतो वाऽनन्तरमवस्थितेन एकारेण पश्चिमायां दिसि(शि) द्रव्यं ज्ञेयम् । पफल(प फ ब भ म)बहुले प्रश्ने एतेषामेवान्यतमस्याग्रतो वाऽनन्तरमवस्थितेन] औकारेण वायव्यां ज्ञेया(यम्) ।। १६० ॥ धातुस्साप० ८१, पा० २ ]रा य स व ह(हा), णायचा तह य उत्तरद(दि)साए। चरिमो णवम्मे(मो)य सरो, ईसाणीए स र षा(य र ला?)य ॥ १६१ ॥ धातुस्वरौ द्वौ उ ऊ, स व हा श्च त्रयोऽक्षराः, एभिः पूर्वोक्तन्यायेन उत्तरस्यां दिशि द्रव्यं ज्ञेयम् । चरिमौ द्वौ अं अः। नवमस्वर ओकारः। चरषा (यरला?)श्च त्रयोऽक्षराः । एभिः पूर्वोक्तन्यायेन ऐशान्यां दिशि द्रव्यं ज्ञेयम् । एवं नष्टस्य द्रव्यं ज्ञेयम् ॥ १६१ ॥ ॥द्विपदादे(दि)द्रव्यस्य दिसि(शि)[प० ८२, पा० १]प्रकरणं समाप्तम् ॥ उत्तरसरेसु गामे, जाणे अहरेसुं बाहिरओ [य] । उत्तरसरसंजुत्ते, गेहे अहरक्खरेसुं च ॥ १६२ ॥ उत्तराक्षरेषूत्तरस्वरयुक्तेषु यत्किंचिन् पृ(प्र)ष्टा प्र(पृ)च्छति प्रामे तदिति ज्ञेयम् । एषां बाहुल्ये। उत्तराक्षराश्च पूर्वोक्ता एव । अधरस्वरसंयुक्तेषूत्तराक्षरेषु दृष्टेषु यत्किंचित् पृच्छति ॥ तद्व(द)हाद्वायमिति वक्तव्यम् । एतेषां बाहुल्येन । उत्तरस्वरयुक्तेष्वधराक्षा प० ८२, पा० २] रेषु यत्किंचित् पृच्छति कश्चित्त हे ज्ञेयं पूर्वोक्तज्ञा(न्या)येन । उत्तरवराश्च पूर्वोक्ताः ॥ १६२॥ उत्तरसरसंजुत्ते, अहरे तं चेव होइ सयणघरे । परवग्गहए वग्गे, असयणवग्गे हवइ दवं ॥ १६३ ॥ उत्तरस्वरसंयुक्ते अधराक्षरे जानीहि स्वजनगृहे द्रव्यम् । परवर्गहते वर्ग द्रव्यं परगृहे " भवतीत्यादेश्यम् । आलिंगिताभिधूमितदग्धाश्चैते त्रयोऽभिन्नन्ति । यथैते वर्गा [प०८३, पा० १] अभिन्नन्ति तथा पूर्वोक्तत्वानो(नो)क्तमिति ॥ १६३ ॥ जाणे सकारंय(काय)गरुए, अप(प्प)णगेहमि ठविययं(ठावियं) दवं । परवग्गाभिहएणं, सयणग(गि)हे हो(हो)ति तं दवं ॥ १६४ ॥ तत्र स्वकायगुरुवर्गो[प० ८३, पा० २]ऽत्र यो भवति । क्क ग घ च्छ ज दृड्डत्थ 25 इत्यादि । एतद्बहुले प्रश्ने स्वगृहे द्रव्यम् । परवर्गगुरुभिन(र)भिहतैः स्वजनगृहे द्रव्यम् ॥१६४॥ पढने चरमे [य] सरे, दिढे वत्थू य हो(हो)ति पुवेणं । बितियसरे य कवग्गे, अग्गेईए हवइ वत्थू ॥ १६५॥ खगृहे परगृहेऽरण्ये वा प्रश्नम् । गृहा(?) प्रथमसरो अकारः, अः]कारो द्वादशमश्च[स]विसर्गः। आभ्यां केवलाभ्यां प्रश्ने यत्किंचित् पृच्छति तद् गृहाभ्यंतरे पूर्वेण ज्ञेयम् । द्वितीयस्वरे * आकारे कवर्गाक्षरस्योपरिगतेऽप्रतो वाऽनन्तरमवस्थिते यत्किंचित् पृच्छति कश्चित्तद् गृहस्याभ्यन्तरे पूर्व [प०८४, पा० १]दक्षिणदिगूभागेन द्रव्यम् ॥ १६५ ॥ (50) Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा १६६-१७०] प्रश्रव्याकरणाख्यं तइए णवमे य सरे, तइए वग्गे हवइ जम्माए। ईकारेकारंमि य, चउत्थवग्गे य निरईए ॥ १६६ ॥ तृतीयवर्गश्चकार(रः), तस्योपरिगतेन तृतीयखरेण इकारेण णवमस[रेण] ओकारेण वा चकारस्य वाऽग्रतोऽनंतरमवस्थितेन द्वयोरन्यतरेण दृष्टेन यत्किंचित् पृच्छति तद्गृहस्याभ्यन्तरे दक्षिणस्यां दिसि(शि) ज्ञेयम् । चतुर्थवर्गटकारस्योपरिगते[न] ईकारेण ए(ऐ)कारेण वा टकारस्याप्रतो वाऽनन्तरमवस्थितेन स्वरद्वयस्याभ्यन्तरेण दृष्टेन यत्किंचित् पृच्छति तद्गृहस्याभ्यन्तरे नैरइस्या नैर्ऋत्यां) दिसि(शि)[प० ८४,पा० २] ज्ञेयम् ॥ १६६ ॥ एकार सत्तस(म)सरे, पंचमवग्गे य वारुणीए उ । छट्टे दसमसरे [वा], वायवाए उ णायव्वं ॥ १६७ ॥ एकादश स्वरः अं, सप्तम एकारः, ताभ्यां तकारयुक्तस्याग्रतो वाऽनन्तरमवस्थितेन. 10 उभयतः स्थिताभ्यां वा वारुण्यां द्रव्यं ज्ञेयम् । तथा षष्ठे वर्गे पकारे दशमस्वरेण युक्तेऽप्रतो वाऽनन्तरमवस्थिते वायव्यां [प०८५, पा० १] दिशि द्रव्यं ज्ञेयम् ॥ १६७ ।। पंचमरसे(सरे) य वग्गे, सत्तमए हवति सत्तमदिसाए । अट्ठमवग्गे छट्टाह, सरे य ईसाणिए जाण ॥ १६८ ॥ सप्तमवर्गस्या(स्य) यकारस्याधोगते उकारे यकारस्योपरिगते वाऽनन्तरमवस्थिते यत्किंचित् ।। पृच्छति तद् गृहस्याभ्यन्तरे सौम्यां(सौम्यायां) दिशि द्रव्यं ज्ञेयम् । अष्टमवर्ग[स्य] सकारस्याधो गतौ(ते) षष्ठस्पर ऊकारः(रे)[प०८५, पा० २] सकारस्यानन्तरमवस्थिते पृच्छकस्य तगृहाभ्यन्तरे ऐशान्यां दिसि(शि) द्रव्यं ज्ञेयम् ॥ १६८॥ अट्ठसरा आइल्ला, अट्ठ य वग्गा य आणुपुबीए । इंदाणीण दिसाणं, कमसो वग्गेसु पविभत्ता ॥ १६९ ॥ उक्तार्थे (3)व गाथाऽनन्तरप्रपश्चन ।। १६९ ॥ सबे सट्ठाणाओ, सप(प्प)डिहता हवंति चउत्थाओ। उत्तर अह(हो) सवण्णा, ह्रसंति पुवावरं वग्गं ॥ १७० ॥ प्रभायां पूर्ण()दिगृ(ग)क्षरसन्मित्रैः पश्चिमदिगक्षरैस्तुल्यैर्द्वयोरपि विशोन्म(म)ध्ये द्रव्यमादेश्यम् । यदि पूर्व दिगा(ग)क्षा प० ८६, पा० १ ]राणां बाहुल्यं तदा पूर्वस्या(स्यां) दिति(शि)। 25 पश्चिमदिगा(ग)क्षराणां बाहुल्यं तदा पश्चिमादिकसमीपे द्रव्यमादेश्यम् । दक्षिणदिगा(ग)क्षरैरुत्तरदिगा(ग)भरसन्मिस्तुल्येवृ(ल्यै)योरपि दिशोरनयोम(म)ध्ये द्रव्यं ज्ञेयम् । दक्षिणदिगक्षराणां बाहुल्ये दक्षिणदिक्समीपे द्रव्यमवतिष्ठति । पूर्व दिगक्षरैरामेयादिगक्षरैः सन्मित्रैम (म)ध्ये द्वयोरपि दिग्विद(दि)शोरन्तराले द्रव्यं तिष्ठतीति वक्तव्यम् । पूर्व दिगक्षराणां बाहुल्ये पूर्वस्यां दिसि शि) समीप०८६, पा.२]पे दव्यं तिप्रतीति आदेश्यम । आग्नेयाक्षरबाहल्ये आग्नेयायां दिशि . समीपे द्रव्यं तिष्ठतीति विज्ञेयम् । दक्षिणदिगा(ग)रैरामेयादिगा(ग)क्षरमिश्रेस्तुल्यैदक्षिणस्यां (510 Jain Education Intemational Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा १७१-१७२ ] दिसि(शि) द्रव्यम् । आमेयायां च मध्ये द्रव्यमादेश्यम् । यदा द्वयोरनयोदिरा)ग्विदिशोय(य). दक्षराधिक्ये बलं तदा तस्य(स्याः) समीपे द्रव्यमादेश्यम् । दक्षिणदिगक्षरैनैरु(नै)त्यक्षरमित्रैस्तुल्ययोद्व(ई)योरनयोदि(दि)गविदिशोरन्तराले द्रव्यमवतिष्ठत इत्या[५० ८७, पा० १ ]देश्यम् । द्वयोरनयोदिग्विदिशोर्यस्य यदक्षराधिक्या द्] बलमधिका(क) तस्याः समीपे द्रव्यं ज्ञेयम् । । पश्चिमदिगक्षरैनैरु(न)त्यक्षरमित्रैस्तुल्यैद(व)योरनयोदि(दि)गविदिशोर्मध्ये द्रव्यं वक्तव्यम् । यदा द्वयोरनयोर्दिग्विदिशोर्यस्या [अक्षराधिक्याद् बलमधिकं तदा तस्य[स्याः] समीपे द्रव्यं ज्ञेयम् । पश्चिमदिगरैमि(मि)श्रेस्तुल्ये(ल्यै)रनयोर्दिग्विदिशोर्मध्ये द्रव्यमादेश्यम् । यदा द्वयोरप्यनयोदि(दिग्विदिसो(शो)र्यस्या दिशो विदिशो वाऽक्ष[प०८७, पा० २]राधिक्याद् बलमधिकं तदा तस्याः समीपे द्रव्यमादेश्यम् । उत्तरदिगारैवा(वी)यव्यादिगक्षरमित्रैस्तुल्यैरनयोर्दिग्विदिशोर्मध्ये अव"तिष्ठते द्रव्यमित्यादेश्यम् । यदा द्वयोरनयोदि(दि)ग्विदिसो(शो) वाक्षराधिक्याद् [५० ८८,पा० १] बलमधिकं तदा तस्याः समीपे द्रव्यं तिष्ठतीत्यादेश्यम् । उत्तरदिगारैदीसा(रीशा)न्याभरमित्रैः समैरनयोर्दिग्विदिशोर्मध्ये द्रव्यमवतिष्ठतीत्यादेश्यम् । यदा द्वयोरप्यनयोदि(दि)ग्विदिसो(शो)[र्यस्य दिशो विदिशो]वाऽक्षराधिक्याद् बलाप० ८८, पा० २ मधिकं तदा तस्य(स्याः) समीपे द्रव्यमादेश्यम् । पूर्व दिगक्षरैरैसा(शा)न्याक्षरमित्रैस्तुल्यैरनयोर्दिग्विदिशोर्मध्ये द्रव्यमवतिष्ठत इत्या॥ देश्यम् । यदा द्वयोरप्यनयोदि(र्दि)ग्विदिशोर्यस्या दिशो विदिशो वाऽक्षराधिक्याद् बलमधिकं तदा तस्या निकटे द्रव्यं वक्तव्यम् । [प० ८९, पा० १] पूर्व दिगक्षरैद(द)क्षिणाक्षरमित्रैस्तुल्यैरनययोदिगविदिशोर्मध्ये द्रव्यमादेश्यम् । यदा द्वयोरप्यनयोर्दिशोर्यस्या अक्षराधिक्याद् बलमधिकं तदा तस्या निकटे द्रव्यमादेश्यम् । प्रश्नाक्षराणां मध्ये उक्तदिगविविद्विधा(विदिग)क्षरबाहुल्येनैवोवि(?) त्यादेश्य(शः) र्तव्यः ॥ १७० ॥ [प०८९, पा० २] बितिय चउत्थे वग्गे, समि(ब्भिातर-बाहिरं भवे गेहं । अधरसरेषु(सु) य प(ब)हिया, अधरस(स्स)रसंतु(जु)तेसुं च ॥ १७१ ॥ द्वितीयवर्गः - ‘ख छ ठ थ फर षाः', बाह्या [एते । एतबहुले प्रश्ने बहिणू(प्र)हा[] द्रव्यं शेयम् । चतुर्थवर्गी(र्गः)- 'घ झ ढ ध भ व हा' इत्येते अभ्यन्तराः । एतबहुले प्रश्ने गृहाभ्यन्तरे द्रव्यं ज्ञेयमिति । द्वितीय-चतुर्थवर्गाक्षरबहुले गृहाद् बहिग()हाभ्यन्तरे द्रव्यं ज्ञेयम् । अधरस्वरसंयुक्तश्चि(ष्विोत्ययमेवार्थः ॥ १७१ ॥ सगिहम्मि य जं दवं, तं पञ्च प०९०, पा० १]क्खं भवे परोक्खं वा । दिट्ठ(होमि परोख(क्ख)मि ओ(उ), उट्ठ(ड)महो तिरियभागे वा ॥१७२ ॥ स्वगृहे यं (यद्)द्रव्यं स्थापितं नष्टं च तच्च प्रत्यक्षं च परोक्षं चेति अप्रत्यक्षमित्यर्थः । खकायगुर्वक्षरबहुले प्रश्ने स्वयं त्वया स्थापितमिति प्रष्टा वाच्यम् । स्ववर्गसंयोगाक्षरैदृष्टौ(दृष्टैः) 1 पताचात्रा(पित्रा भ्रात्रा)पितृव्येनेत्येवमादिभिः स्थापितं द्रव्यमिति वाच्यम् । अर्द्धक्रान्त(न्ता)क्षरै र(ह)ष्टः खिया स्थापितमितिवाच्यम् । एवा(व)मादिभिर्यत्र स्थापितं द्रव्यं तस्यो प० ९०, पा० २] पलब्धिः क्रियते । अर्द्धभागेऽधोना(भा)गे तिर्यग्भागे वा द्रव्यस्यावस्थितस्य उपरितनया गाथया निर्नय(र्णय) वक्षय(क्ष्य)ति ॥ १७२ ॥ (52) Jain Education Intemational Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा १७३-१७७] प्रश्नव्याकरणाख्य ३७ मूलस(स्स)रेसु उट्ठ(ड), अहो [य] धातुस्सरेय(सु) सवेसु । सेसेसु तिरि[य]भागे, गेहे दत्थं(वं) तुहि?] परोक्खं ॥ १७३ ॥ मूलस्वराः 'ई ऐ औ' एतेषु दृष्टेषु प्रश्ने ऊर्द्धभागे द्रव्यं तिष्ठतीत्यादेश्यम् । धाम्यधातुस्वरौ द्वौ 'उ' आभ्यां दृष्टाभ्यां अधोभागे द्रव्यं तिष्ठतीत्यादेश्यम् । शेषेषु-'अ आ इ एओ' एषां पश्चानां अन्यतमाधिक्ये तिर्यग्भागे द्रव्यमवतिष्ठत इत्यादेश्यम् । स्वगृहे संचयं द्रव्यं नष्टं । तदेभिः स्वरै प० ९१, पा० १]ज्ञा(ा)तव्यमिति ॥ १७३ ॥ जल देवय अग्गिख(घ)रं, दिढे वत्थुमि ति[न्नि?] नि(ति)ट्ठाणं । लक्खेज जीव धाउं, मूलाण य तिनि(नि) वाणइ(ठाणा)इं ॥ १७४ ॥ क च ट त प य सा(शा)नामन्यतमाधिके प्रश्ने जलगृहे द्रव्यमादेश्यम् । ख छ ठथ . फरषाणां चतुर्थवर्गसंज्ञकानां चान्यतमाधिके प्रश्ने गोशालायां द्रव्यमिति ज्ञेयम् । गजड। दबल सा नामन्यतमाधिके प्रश्ने देवगृहे द्रव्यमादेश्यम् । ङबण न माधिके प्रश्ने अनिगृहे द्रव्यमवतिष्ठत इत्यादेश्यम् । मिश्रेषु यत्संबंधिनोऽक्षरा बहव[:] तस्मिन् द्रव्यमिति ज्ञेयम् । जीवयोनौ लब्धायां जीवो नष्टमि(ष्ट इ)त्यादेश्यः। मूलयोनौ लब्धे मूलम् , धातुयोनौ लब्धे धा[प० ९१, पा० २ तुद्रव्यम(व्यं न)ष्टमित्यादेश्यम् । तच्च त्रिवे(ब्वे)व स्थानेष्विति नष्टिकास्वगृहकाण्डम् ॥ १७४ ।। छिद्दे तत्थंरिपं(रत्तरियं?), परवकु(त्थु)मणंतरं घणे दिढे । जो चिय वत्थु निवेसे, गमओ सो चेव रत्थासु ॥ १७५ ॥ क-गादीनां प्रथम-तृतीयवर्गीयानां छिद्रसंज्ञकानां अन्यतमाक्षराधिके प्रश्ने रध्यान्तरितं द्रव्यमादेश्यम् । ख-घादीनां वर्गाक्षराणां घनसंज्ञ[ प० ९२, पा० १]कानां अन्यतमाधिकानां प्रभे स्वगृहस्यानन्तरं यत्परगृहं [तस्मिन् द्रव्यमित्यादेश्यम् । एवं [वस्तुनिवेशविधिरुक्तः । पूर्वाss- 20 मेयी दक्षिणे(णा) नै(@)त्यपरा वायव्योत्तरेशानी चेति [दिक्] । यैरझरैगृ()हाभ्यन्तरे एतासु दिक्षु द्रव्यमभिहतं तैरेवाक्षरैस्तेनैव प्रकारेण रथ्याम्वपि द्रष्टव्यम् ॥ १७५ ॥ हस्सेसु समं ठाणं, सहावदीहे[५० ९२, पा० २]सु उण्णयं जाणे । पंचम छटे य सरे, दोसु वि ण्णि(णि)ण्णं मुणेयवं ॥ १७६ ॥ ह्रस्वानां 'अ इ ए ओ' एतेषामन्यतमाधिके प्रश्ने समस्थाने द्रव्यं तिष्ठतीत्यादेश्यम् । स्वभावदीर्घाणां [ऊ ऐ]औ' एषामन्यतमाधिके प्रभे उन्नते भूभागे द्रव्यमवतिष्ठत इति वाच्यम् । पञ्चमस्वर[उकारः],षष्ठस्वर ऊकारः, अनयोदृष्टयोनि(नि)नोन्नतभूभागे द्रव्यं तिष्ठतीत्यादेश्यम् ।। १७६ ॥ ततियस्सरो वि रत्थं, कवेथिति जइ वंजाप० ९३, पा० १Jणे य संजुत्तो। उत्तर-वंजणसहिते, बितिए उच्चं हवइ ठाणं ॥ १७७ ॥ . . (53) Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमितशास्त्रम् । [ गाथा १७८-१८२ ] तृतीयस्वर इकारः, स उक्तान्यतमाक्षरोपरिगतो रथ्यायां द्रव्यमाचष्टे । द्वितीयस्वर आकारः, सोऽभिहतोत्तराक्षर (रा) न्यतमसंयुक्तो रथ्यायामेव द्रव्यं कथयति ॥ १७७ ॥ 5 ३८. सविसर्गः 'अ' कारः, स यदा प्रश्ने अन्यतमाक्षरपार्श्वस्थि[ १०९३, पा० २ ]तो दृश्यते केवलो वा तदा चतुष्पथे द्रव्यमादेश्यम् । एकादशमोऽनुखारः 'अं' यदाऽन्यतमाक्षरोपरिगतो दृश्यते केवलो वा तदा तस्य चतुष्पथस्य पश्चिमदिग्भागे द्रव्यमवतिष्ठत इत्यादेश्यम् । घनाक्षराणां 'ख छ ठ थ फरषाणां घ झ ढ ध भ व हा नां' चान्यतमबहुले प्रश्ने लौकिकदेवकुले द्रव्यमादेश्यम् । [१० ९४, पा० १] लौकिकं देवकुलं शंकरायतनादिकम् । एतेष्वेव घनाक्षरेषूत्तरस्वरसंयुक्तेषु लोको10 तरदेवकुले द्रव्यमादेश्यम् । लौकोत्तरिकदेवकुले (ल) मित्यर्हतायनं वक्तव्यम् ॥ १७८ ॥ सविसग्गे चउकं, साणुस्सारेसु अधरखरठाणं । लोइय लोउत्तरियं, घणक्खरे देउलं लक्खे ॥ १७८ ॥ सत्थ [य] जीव-धातु-मूलाणं लक्खए तउट्ठा ( ओ ठाणा । एसो य गामदंडो, एसो वि य बाहिरो दंडो ॥ १७९ ॥ सर्वत्र जीव-धातु- मूलानां यदेतत्स्था[ १०९४, पा० २ ] नं नष्टस्योक्तं तच जीव (वं ) धातु (तु) मूलं चेति त्रयम (मे) वावधार्यादेशः कार्य इति । तत्र तत्र स्थाने एष दंडो बहिरभ्यन्तरे च ग्राम1s स्योक्तः । दंडशब्देन च नष्टं व (ध) नमुच्यते ॥ १७९ ॥ ॥ नष्टिको (का) चक्रं समाप्तम् ॥ -C एतो (तो) चिंतविभागो, मुट्ठिविसेसेण अक्खरुप्पत्ती । गेहिरिखा (गह रिक्खाणं सूया, सबेसिं उवगयविसेसो ॥ १५० ॥ अतः परं चिन्तावि[प० ९५, पा० १ ] भागस्य मुष्टिविशेषस्य ग्रहाणां नक्षत्राणां च सूचनं लेसो20 ( शो ) देशेन यथावसरमुत्पत्तिप्रदर्शनं तथाक्षरोत्पादनं च मुष्ट्या ग्रहरि ( ऋ) क्षाणां च वर्णया(नाता)मुपगतविशेषमिति वक्ष ( क्ष्य) माणोपन्यासार्थना (ता ? ) । उपगतः शब्दप्राप्तपर्यायः ॥ १८० ॥ तह सहणिण्णओ वि[य], सबे भावा य सवदवाणं । णंदावते जोए, सत्त वियप्पा [१०९५, पा० २] हवंति इमे ॥ १८९ ॥ पटहास्फोटित कुट्यपतनादिशब्दो भावशब्देन निन (र्ण ) यवर्णाकृति प्रमाणादीनि भण्यन्ते । 28 सर्वभाषा अक्षरप्रतिबद्धाः 'लाभालाभ- सुखदुःख जीवितमरण' इत्याद्यक्षरप्रतिबद्धाः । सकलद्रव्याणां नन्दिकावर्त्ताक्ये (ख्ये) करणे सप्त भेदा भवन्तीति वक्ष्यमाणोपन्यासः ॥ १८१ ॥ तथा चैतत् - पढमो चिंताभेदो, तस्स य भेदा हवंति अट्ठ इमे । जीवादीण जोणी. तिविहो पढमो हवति भेदो ॥ १८२ ॥ (54) Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा १८४-१८७] प्रभव्याकरणाख्यं तेषां सप्तानां भेदानां [प० ९६, पा० १] मध्ये प्रथमचि(श्चि)न्ताभेदः । तस्य भेदा भवन्त्यष्टौ वक्ष्यमाणाः । जीव-धातु-मूलानां योनिखिविधा या सा प्रथमचिन्ताभेदे पतति ॥ १८२॥ गुरु-लहुय अक्खराणं, संजोओ बितियओ हवंते(वति) भेदो। तितीओ पीडासडि(हि)ओ, ततो(तो) अभिघातिता तिन्नि । १८३ ॥ गुरु-लघ्वक्षराणां संयोगो द्वितीयो भेदः। पीडाभेदस्तृतीयकः । क(कः) पुनरसौ? अधा- । (धो)मात्रा अप्रधाना येऽभिहताः रेफ-यकार-उकार-ऊकार-सहिताः। आलिंगितश्चतुर्थः । अभिधूमितः पंचमः । दग्धः षष्ठो भेद [प० ९६, पा० २] इति ॥ १८३ ॥ एक्को पयडिविसेसो, सत्तमओ संकडाइ अट्ठमओ। एत्तो चिंताभेदा, पणयालीअक्खरुप(प्प)ण्णा ॥ १८४ ॥ एकः प्र[क]तिविशेषकः । कु(कः)पुनरसौ ? जीवप्रकृति-धातुप्रकृति-मूलप्रकृति रूपः] 10 सप्तमो भेदः । संकट-विकटभेदा(दो)ऽष्टम उक्त एव । एते चिन्ताभेदाः पंचचत्वारिंशदक्षरप्रतिबद्धा इति ॥ १८४॥ ॥चिन्ताभेदप्रकरणं समाप्तम् ।। [१० ९७, पा०१] दुग दुग तिग तिग य चतू, चतुक्क पण पण छ सत्त वसु णवया। णामक्खराण य सरा, हवं(हों)ति आ(अ)कारादिणं कमसो॥ १८५ ।। म आ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः अकारो द्विसंख्यः । आकारोऽप्य(पि) द्विसंख्य एव । १२ २ ३३४४ ५५ ६ ७ ८ ९] [प०९७,पा०२] इकारस्तृ(स्त्रि)संख्यः। ईकारोऽपि (त्रि)संख्या(ख्य) एव । उकारच(श्रतुः)संख्या(ख्यः)। ऊकारश्चतुःसंख्या(ख्य) एव । एकार:] पञ्चसंख्या(ख्यः।) ऐकारोऽपि पञ्चसंख्या(ख्य) एव । ओकार[:] षट्संख्या(ख्यः) । औकार[:] सप्तसंख्या(ख्यः)। अंकारः स्वा(सा)नुस्वरोऽष्टसंख्यो(ख्यः)। अकारः सविसर्गो नवसंख्या(ख्यः) । अकारादयः स्वरा द्वादश अक्षयुक्ता [प०९८, पा.१] यथोक्तसंख्या द्रष्टव्या इति ॥ १८५ ।। द्वितीयप्रकारःचउ ति ति चउक्क चउत्थ, चउ सत्त वयुहण(कृष्ट णवय)वग्गं च । संखापरिमाणे तस(स्स)राणऽगाराइणं कमसो ॥ १८६ ॥ एगादीया पंच उ, कमादी(दि) अणुणासियावसाणाणं । कमसो णाम ए(प)माणं, पंचइ(चाण) वि आणुपुबीए ॥ १८७ ॥ ककार एकसंख्या(ख्यः)। खकार[रो] द्विसंख्या(ख्यः) । गकारस्तृ(स्त्रि)संख्या(ख्यः) । घकारचतु(श्वतुः)संख्य[]। कार[B] पश्चसंख्य इति । एवं क-गादि-उकारपर्यवासानां क्रमसः (श:) [प०९८,पा०२] संख्याऽभिहतेति ॥ १८७॥ (55) Jain Education Intemational Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा १८८-१९३ ] जो दे(ये)व कवग्गकमो, चादीणं सेसयाण सो चेव । वग्गाण होइ गमओ, जाव ण केण(णा)वि संजुत्तो ॥ १८८ ॥ य एव संख्या प्रति [क]वर्गस्य क्रम[:], स एव चादीनां वर्गाणां क्रमो ज्ञेयः । वरेणाक्षरेण वा असंयुक्तानां अनभिहतानां चेति ॥ १८८॥ जावतिया संजुत्ता, पत्ते पत्तेसि(वि?) मेलिया संखा । आलिंगियाइ तत्तो, विसुद्धसेसा हवइ संखा ॥ १८९ ॥ खरेणाक्षरेण वा युक्ते(क्तो) वर्णेन वा अग्रतो वाऽनंतरमवस्थितेन यः पूर्वाक्षर[:] स संयुक्त इत्युच्यते । स संयोगो येन कृतः स आ[५० ९९, पा० १]लिंग्यमालिंगयति, अभिधूमयं(यि)तव्यमभिधूम[य]ति, दग्धव्यं दहतीति । आलिंगिताभिधूमितदग्धप्रकाराश्च पूर्वोक्ताः । "आलिंगिताभिधूमितदग्धानां मध्ये यो(या) विद्यते संख्या तां सो(शोधयित्वा विशुद्ध(द्धाऽ)वसि(शि)ष्टा संख्या भवति तथा देस(शः) कार्यः प्रष्टुः] सा भ[प० ९९, पा० २ ]ण्यते ॥ १८९ ॥ एक्क[क] तिय तिय दुय दुय, चतु चतु पण छक्क सत्त वस(सुहं च। कमसो अक्खरमाणं, अवग्गजोए ककाररस ॥ १९० ॥ एवं सर्ववर्गेषु ज्ञेयम् । एकः [एकः] तृ(त्रि)कः [त्रिकः द्विकः द्विकः] चतुष्कः चतुष्कश्च । पंचा(च) षट् सप्ताष्टौ अकारादिभिः स्वरैः सविसर्गाकारपर्यन्तेद्वा(न्तैा)दशभिरन्वितानां ककारादीनां अक्षराणां ज्ञेया संख्या क्रमेण यावद् द्वादश इति ॥ १९० ॥ एमेव(व) [५० १०१, पा० २] सेसाणं, खाएही(दी)णणुणासिय(या)वसाणाणं। णामपमाण(णं) कमसो, उत्तरवट्ठी(ड्डी)ए नायबो(बं) ॥ १९१ ॥ एवमेव शेषाणामपि यथा ककारस्य अकारादिद्वादशखरयोगेन संख्या विहिता तथा ७ खादीनामपि अनुनासिकपर्यन्तानि(नां) नामप्रमाणं क्रमसः(शः)। तच्चो(थो?)त्तरवृद्धा(ब्या) ज्ञातव्यमिति पूर्वगाथायामेघ प्रसंगेनोक्तमिति ॥ १९१ ॥ वो (जो) चेव [५० १०२, पा० १] कवग्गकमो, होति उ सो चेव सेसवग्गाणं । णामपमाण(ण) गमओ, अवग्गजोएण निप्पन्नो ॥ १९२ ॥ य एव कवर्गस्य क्रमो भवति स एवावसि(शिष्टानां चादिवर्गाणां सवर्गपर्यन्तानां नाम25 प्रमाणे गमयतां अवर्गयोगेन निष्पन्न इति। अकारादीनां स्वराणां हकारांतानां संयुक्तानां या संख्या सा पूर्वगाथायाः प्रसंगेन व्याख्याता ॥ १९२ ॥ [प० १०२, पा० २] जह उ अवग्गेण समं, कवग्गमादीण सब(त्त)वग्गाणं । एवं चिय संजोओ, परोप(प्पोरं सेसयाणं पि ॥ १९३ ॥ उक्ताव गाथा। यथा अवर्गेण सह कवर्गादीनां सप्तादिना(सप्तानां) वर्गाणां संयोगो(गः) ॥ एवमेव परस्परां(२) कादीनां हकारपर्यतानां अक्षराणामपि संयोगो ज्ञेयः॥ १९३ ॥ (56) Jain Education Intemational Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा १९४-१९५] प्रश्नव्याकरणाख्यं ४१ क का|कि की कु कू के कै द दा به به تن) تم مو به تو تم ख खा खि खी खु खू खे खै खो खौ - गु गू 64*3544 # नः ہو کو م م ... 4.0.0.62 02012900.00 ME9600 . 4.04..64.9.0 مه له و مم له سه له مه به م مه لقي ه م م م . मौ मं मः ه م م م Assemon- Ne04-444440 8550459 M42451589 44 4 Timurram 500F Eur mamm hmmmTEur 59 Frn Front ma aahr tour tv 4t #Fr 1940 2048 Fulr u42420 1500FFurt OF MOSFEE V "New 94.0Awtha, 4 04 94454 she ED000 . م ه كم به ean 4960mooes 06.45e4* ov 20ty u0950 1022 -00-0.64. م و سه م ه خو په اتو م ه في عمره به هر مع ه و به مو سم ه डं डः शशा 04.04.12.6 4.02.24.04.6 4.3 040404 0 ९ १० ११ १२ ه ام می ه م م त ता ति |ति ती तु तू 62.3 तो तौ तः | थ था| थि थी m, थु थू थे थे थो थौ ___ तत्र संयोगो(गे) आलिंगिताभिधूमितदग्धसंख्या कथ्यते- विशेषसंख्या कथ्यते । विशेषसंख्यमानामा(संख्यानाम) प्रमाणमादेश्यम् । - पढमक्खरसंखाए, जाणसु णामक्खराण परिमाणं । आलिंगि[प० १०३, पा० १]याइ तत्तो, एक्कोत्तरिया हवइ हाणी ॥ १९४ ॥ प्रश्नाक्षराणां प्रथमाक्षरस्य या संख्या हस्स(स)ति । अभिधूमिता द्वे, दग्धास्तिश्रा (स्रः) । संख्या इसति ॥ १९४॥ सेसं उ णामसंखा, णिस्सेसमणंतरस्स संखाए । तत्तो नामपमाणं, पढमिल(ल्ल)कमेण णेयवं ॥ १९५ ॥ नि. शा०६ (57) Jain Education Intemational Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा १९६-१९९] ___ तस्माथ(द)क्षराद्य(द)भिघातशुद्धाद्याः (द् या) शेषा समानाक्षरसंख्या निर्दिशा(ष्टा) यदा पूर्वाक्षरो(रा)भिघात(ते)न सकल(ला?) शुद्धयति तदा तस्या[:] पूर्वस्यानन्तरादभिधातशुद्धाद्यः (द्यः) शेष[:] ते[न?] नामसंख्या ज्ञेया। तस्मान्नामाक्षरस्य (प० १०३, पा० २] प्रमाणं क्रमेण ज्ञातव्यमित्युक्तम् ॥ १९५ ।। पढमो(मा) तइया संपत्कराओ थोवं च संखमिच्छति । बितिय-चउत्था तेसिं, विपत्करा ते य बहुसंखा ॥ १९६ ॥ प्रथमाः- क च ट त प य शाः। तृतीयाः- ग ज ड द बल साः । तेषां संपत्कृर्वन्ति लो(ला)भकराः शुभैस्य (श्व)यचिंतायाः प्रष्टुः । कालतस्तु स्वल्पकालं भवति । तद्वहुले प्रश्ऽल्पनामाक्षर संख्या ज्ञेया । द्वितीयो वर्ग:-ख छ ठ थ फर षाः । चतुर्थो वर्ग:-घ झ ढ ध भ व हाः । एते 10 विपक्ष (क)रा अशुभकरा न लाभकरा इत्यर्थः । अल्पफलं बहुकालिकं च कुर्वन्ति । तदहले प्रभे महती नामाक्षरसंख्या ज्ञातव्या ॥ १९६ ॥ एस सराणं गमओ, वग्गाणं सत्तमट्ठा(ट्ठमा)णं च । विसमक्खरम(व)ग्गाणं, चरिमाणं थोविआ संखा ॥ १९७ ॥ एष स्वराणां विधिरिति यद्व(दु)क्तं ह्रस्वस्वराः संपत्करास्ते महति(ती) विभूतिं कुर्वन्ति । लाभकराश्च । नामसंख्याकराख(क्षराश्च ?) स्वल्पां कुर्वन्ति । शेषस्वरा विपत्करा अलाभकराः । नामाक्षरसंख्यां महतीं कुर्वन्ति । अमुमेवार्थ पूर्वोक्तं निर्दिशति । एवं स्वरवर्ग उक्तः । कादयस्तु पंच चान्ये वर्गा उक्ताः । सप्तमवर्गस्याष्टमवर्गस्य च वर्गसंख्या इह (है)वोक्ताअष्टवर्गक्रमे । विषमाक्षरवर्गा ये, के ? क च ट त प य शाः, ग ज ड द बल सा स्व(श्च)। चरिमास्व(श्च ।)पंचवर्गेण 'ङ बण न मा' स्व(श्व)। चरिमौ च 'अंअ' अनयोरप्यल्पसंख्या ज्ञेया ॥१९७॥ जे जे जहा सपक्खा, तेसिं दोण्हं पि मेलिया संखा । अभिहयसुद्धा दुगुणा, काऊणं निदि(दि)से संखा ॥ १९८ ॥ प्रश्नादौ योऽक्षरस्तस्य ये स्वपक्षा उच्यन्ते। यैरभिघात[प० १०४, पा० २ स्याक्षरस्य तत् कृ(क्रियते । स चानभिघातकः । व्यवहितोऽष्यवहितस्तु न दोषः । तयोर्द्वयोर्मिलितयोर्या संख्या तथा(या ?)नामनिर्देश[:]कार्यः । इत्याद्यार्द्धकारिकाया व्याख्यानम् । एतत्तु विरुद्धम् । यत आदाबुतम्-"पढमक्खरसंखाए जाणे नामक्खराण परिमाणं । आलिंगियाउ तत्तो, एकंतरिया हवड़ हाणी॥" इत्यनेन । उच्यते-अत्र उत्सर्गविहितो यो(ऽय) विधिः । इह त्वपरपवादा(त्वपवादः)। उत्सर्गापवादाच सूत्रोपदेश [प० १०५, पा० १] इति । प्रागर्द्धनाभिहि (ह)तस्य पक्षे द्वयसंख्यायोगे संख्या नामाक्षराणामभिहता । यदा स्वपक्षी अभिहती भवतस्तदा सत्यभिघाते अभिघातोक्तसंख्या(ख्या) विशोध्य शेषा(पां) द्विगुणीकृत्य तदा प्रमाणे (तत्प्रमाणो) नामनिर्देशः कार्यः ॥१९८।। परपक्खाणं संखं, अभिहयसुद्धं परोप्परं गुणए । सुण्णेण(ण) विहिऊणं, दवाणं निहिसे संखं ॥ १९९ ॥ यदा धातु-मूल-जीव-संख्या विज्ञातव्या । कियत्परिमाणमिति । तदा स्वपक्षसंख्या नांही(गी)कृ(क्रि)यते । परपक्षसंख्यैवाी(ङ्गी)कर्तव्या । अत्राप्युक्ता(क्त) एव विधिः । प्रश्नादौ योऽक्षरः, (58) Jain Education Intemational Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा २००-२०२] प्रश्नव्याकरणाख्यं योऽभिघातकः । तस्य यो व्यवहितोऽव्यवहितान्यः। अवव्य हितोकता(तोक्ता)भ्यामभिघातसु(शु)द्धाभ्यां परस्परं गुणिने(ते)ति संख्यारूपमिवोच्यते । परस्परं संख्या [याः?] एकपिंडमापाद्य दस(श)भिर्गुणय(यि)त्वा प्रष्टुद्र(ई)व्यसंख्यानिर्देशः कार्यः ॥ १९९ ॥ बहुसंख-अप्पसंखा, वट्ठ(ड)इ हाइति य अप्पसंखाओ। सोहे [ ५० १०६, पा० १] तु अप्पसंखं, दवाणं निद(दि)से संखं ॥ २०० ॥ । अथ द्रव्य अल्प[बहु]संख्याया आनयनोप(पा)यः प्रकारान्तरेण कथ्यते-सकलां प्रां गृह्य । बहुसंख्या द्वि-चतुर्थ-वर्गाक्षराः, अल्पसंख्या प्रथम-तृतीयवर्गाक्षराः । तेषां विद्यमानाभिघातशुद्ध(द्धा)नामवसि(शिष्टसंख्यापिंडं स्थापयेत् । बहुसंख्यानामपि विद्यमानाभिघातशुद्धानां संख्यापिंडमवस्थापयेत् । द्वयोरनयोः संख्यापिंडयोर्या यत्र सुद्ध्यति तां [प० १०६, पा०२] तत्र सोव(शोध)यित्वा या परिशिष्टा ना(ती) शून्येन विश्वा द्रव्यसंख्या ज्ञेया ॥ २००॥ जह चेव दवसंखा, भणिया तह चेव कालपरिमाणं । एक्कमणसो करेजा, पुवाइतिउ(रिओ)वएसेणं ॥ २०१ ॥ यथैव द्रव्यसंख्याऽभिहिता तथा तेनैव प्रकारेण तस्या द्रव्यसंख्याया[:] कालपरिमाणं कुर्यात् । अनन्यमहानैमित्तिः(त्तिक)पूर्वाचार्योपदेशेनेति । तञ्च कालपरिणाम(माणं) कालप्रकरणे यथा वक्ष(क्ष्योतीति नोक्तमिहेति । अन्ये पठन्ति 'तहेव कालपरिमायणं यथा द्रव्यस्य कालपरिमाणं उपचयापचयं वा प्रति । यथा पृष्ठः (धुः) [प० १०७, पा० १] आयु[:]प्रमाणमपि वक्तव्यम् । तदुच्यते-देवकी (दैविकी) प्रश्नां परिगृह्य मानसिं(नुषीं) वा सैवाकाशप्रशोच्यते । प्रष्टुज(ज)न्मकर्मनक्षत्रसंख्यामभिघातशुद्धामेकत्र संपिंड्य विसो(विंशोत्तरस(श)तमध्यात्सो(च्छो)ध्यः । शेषं मध्यः । परमायुरेकांते स्थाप्य ..त[:] प्रत्येकं गर्भरि(ऋ)क्षसंख्यां मेलयित्वा। स च एकोनविंशत्तमो ग्राह्यः । प्रश्नाच प्रत्येकं यो(या) यत्र । शुद्ध्यति तां विशोध्य यत्से(च्छे)षं तत्पूर्व लब्धपरमायुम(म)ध्याच्छोध्यम् । प्रष्टना(टुर्ना)माक्षरां स्वकालरूपां गणयित्वा छो(शो)धयेत् । शेषः स्फुटः परमायुःपिंडक इति । [प० १०७, पा० २] गतकालपरिज्ञानार्थ उदयनक्षत्रसंख्याभिघातशुद्धां संपिंड्यकत्र द्विगुणं कुर्यादेकान्ते अवस्थाप्य ततः जन्मकर्मगर्भरी(ऋ)क्षाद्यक्षरसंख्यामभिघातरहितां संपिड्य(ड्या)नन्तरं द्विगुणीकृत्य संख्यां विशोध्य (?) भूयः सकलां नामाक्षरां सो(शो)धयित्वा शेषेण अतीतकाल इति । परमायुःपिंडाद्वि- 4 शोध्य शेषमागा[५० १०८,पा० १]मिनी भवतीति । एवं नैमित्तिकपूर्वाचार्योपदेशेनानत्यमानां (? नायुष्यमानं) कुर्याविति ॥ २०१॥ तथा लेखाक्षरसंख्यापरिज्ञानार्थम् - अक्खरमीसं दुग(गु)णं, वग्गेयवं सदा पयत्तेणं । पणपण्णभागसेसं, तंमि गुणा म(अ)क्खरं जाणे ॥ २०२ ॥ प्रश्नाक्षराणां या यस्य स्वरसंख्याऽभिहिता तां संख्यां सकलामेकीकृतां द्विगुणं कृत्वा ततो 30 वर्गयित्वाइप० १०८, पा०२]पृच्छा(प्रस्था)पयेत् । तस्य च पृ(प्रस्थापितस्य द्वे क्रिये भवतः । तत्रैका लेखाक्षरसंख्यापरिज्ञानक्रिया, द्वितीया च वर्गानयनक्रिया। तत्र तावले (ल्ले)खाख(क्ष)रस्य संख्याक्रिया भण्यते-वर्गेये(र्गयि)त्वाऽऽद्यं स्थापितं प्राकृतप्रतिरास्य(श्या?) पंचपंचास(श)ता भागमपहात्य (59) Jain Education Intemational Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुंडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा २०३-२०६] यल(ल)ब्धं तत्पृथक् स्थापयेत् । तस्मिंश्च पृथक् स्थापिते पूर्वपिंडीकृत्य(ता)क्षरसंख्यां शोधयित्वा पंचपंचाशतभागावसि(शिष्टाश्च तत्रैव क्षिप्ता लेखाक्षरसंख्या भण्यन्ते । सो(सा)म्प्रतं कवर्गादिवर्गानयनक्रियोच्यते-तत्र पूर्ववर्गित प० १०९, पा० १]मवस्थापितं, तस्य पंचपंचाशता भागमपह(हा?)त्य यल(ल्ल)ब्धं तत्पृथक् स्थापयित्वाऽवशिष्टस्य चाष्टभि5 भा( )गेऽपहृते यल(ल)भ्यते तद्वर्गककारादिपदमपरमवशिष्टं, तदपि ककारादिरेव वर्गः । यदा सर्व शुद्ध्यति तदा स्वरो लभ्यते । अकारपृथकूस्थापितं यत्तत्सप्ताधिकं यदि भवति तत् सप्तभिरेव भाजितव्यम् । त(य)दा न सप्ताधिकं तद्भवति तदा तस्यापि ककारादिरेव वर्गः । एवं नामसंख्याप्रमाणेन अवर्गानू(नु)त्पादेय(दये)त् मतिमानिति ॥ २०२ ॥ ॥ इति लेखगंडिकाधिकारः(रे) संख्याप्रमाणं [प० १०९, पा० २] समाप्तम् ॥ दिणपक्खमाससंवस्स(च्छ)रक्खरा जे हवंति बहुसंखा । तथ(प्प)इ संखा] गुणए, तस्स सनामा हवइ संखा ॥ २०३ ॥ क च ट त प य शा:- दिवसाः।ख छ ठ थ फरषा:-पक्षाःग जड द बल साः-मासाः। घझ ढ ध भ व हाः-संवत्सराः । ङबण न माः-मासाः। दिनपक्षमाससंवत्सरान्यतमाक्षरबाहुल्ये प्रश्रेऽभिघातं शोधयित्वा घे(ये)पा[५० ११०, पा.१]मधिका संख्या दृश्यते तां गणयेत् । ॥ दिवससंज्ञा(ज्ञ)कवर्गस्याधिकसंख्यस्य दिवसैरेवावक्ति(धिः) भवतीति शुभाशुभफलादेशः कार्यः । एवं पक्षाक्षराणां, मासाक्षराणां, संवत्सराक्षराणां चाधिक्य(क्ये) संख्या वक्तव्येति ॥ २०३ ॥ सत्तम-णवमे य सरे, सुक्कदिणे पढम-ततियवग्गे य । बितिययवग्गे दसमे, सरे य पक्खो हवइ बहुले(लो) ॥ २०४ ॥ सप्तमस्वरेण एकारेण, नवमस्वरे[ण] तु उ(ओ)कारेण, क च ट त प य शा नां, गज ड द बल । सानां उपरिगतेन केवलेन वा स्थापितेन शुक्लपक्षो भवति । द्वितीयो वर्ग:-ख छ ठ थ फर षाः, स्ते (तेन) उ(औ)कारेण च कृष्णपक्ष आदेश्यः ॥ २०४ ॥ अट्ठमसरंमि संवत्स(च्छ)रा ह वगे(ग्गे) य तह य चउत्थंमि । चरिमे धातुख(स)रेसु य, मासा अणुणासिये य तहा ॥ २०५ ॥ घ झ ढ ध भ व हा नामन्यतमाधिके प्रश्ने अष्टम[प० १११, पा० १]स्वरेण ऐकारेण युक्ते, एका28 वा(एतेषा)मन्यतमाक्षरे केवले चैकारे यत्र यत्रावस्थिते यत्किंचित् पृच्छति तत् 'संवत्सरेण प्राप्यत'इति वक्तव्यम् । बहुभिर्वा इति । चरिमाभ्यां सविन्दु-विसर्गाभ्यां, च उज (उ ऊ अं?), अनुनासिका ङ बण न माः, एभिरष्टैर्मास्या(सा) आदेश्याः । पूर्वोक्तन्यायेनेति ॥ २०५॥ पढमे य सत्तमसरे, पाडिवओ होइ सुद्धपक्खस्स । कायक्खरेसु सत्तसु, बितियादी अट्ठमी जाव ॥ २०६॥ [५० १११, पा० २] " प्रथमस्वर अकारः । सप्तमस्वर एकारः । एतद्बहुले प्रश्ने शुक्लपक्षस्य प्रतिपद्भवति । ककारबहले प्रश्ने द्वितीया, चकारबहले तृतीया, टकारबहले चतर्थी. तकारबहले पंचमी. पकाराधिके षष्ठी, यकाराधिके सप्तमी, [शकाराधिके अष्टमी । ] एवं शुक्लपक्षस्य ॥ २०६॥ (60) Jain Education Intemational Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा २०७-२१२] प्रश्नव्याकरणाख्यं तइए णवमे य सरे, पाडिवओ [प० ११२, पा० १] होइ सुक्कपक्खस्स । गायक्खरेसु सत्तसु, णवमादी पुण्णिमा जाव ॥ २०७ ॥ तृतीयस्वर इकारः, नवमस्वर ओकारः । एतबहुले शुक्लपक्षस्य प्रतिपदा भवति । गकारबहुले प्रश्ने नवमी। जकारबहुले दशमी । डकारबहुले एकादसी (शी)। दकाराधिक्ये द्वादशी। धकाराधिके त्रयोदशी । लकाराधिके [प० ११२, पा० २] चतुर्दशी । सकारबहुले पूर्णमासी ।। २०७ ॥ । अट्ठम-बितिए य सरे, पाडिवओ होइ किण्हपक्खस्स । खादक्खरेसु सत्तसु, बितियादी अट्ठमी जाव ॥ २०८ ॥ द्वितीयस्वर आकारः । अष्टमस्वर ऐकारः । एतद्बहुले प्रश्ने कृष्णपक्षस्य प्रतिपद् भवति । खकाराधिके द्वितीया। छकाराधिके तृतीया । ठकाराधिके चतुर्थी । थकाराधिके पंचमी । फकाराधिके षष्ठी। रकाराधिके सप्तमी । पकाराधिके अष्टमी । तस्यैव कृष्णपक्षस्य ॥२०८॥॥ दसम-चउत्थे य सरे, निदि(दि)? तह य कण्हपाडिवओ। धादवखरेसु सत्तसु, णवमादी [प० ११३, पा० १] सोलसी जाव ॥ २०९॥ दशमस्वर औकारः । चतुर्थः स्वर ईकारः । एतदधिके प्रश्ने कृष्णपक्षप्रतिपद् भवति । घकारबहुले नवमी । झकारबहुले दशमी। ढकारबहुले एकादशी ।धकाराधिके द्वादशी। भकाराधिके त्रयोदशी । वकाराधिके चतुर्दशी । हकाराधिके अमावास्या । एतास्तस्यैव कृष्णपक्षस्य ॥२०९।। 15 पंचमवग्गे पंचम-सरे [य] एकादसी तहा होइ । अणुणासिएसु दोसु वि, सेसा तिहिणो य चत्तारि ॥ २१० ॥ पंचमो द्विस्वभावः । अतः उभयपक्षस्यापि शुक्ल-कृष्णाख्यस्य ग्राहको भवतीति । पंचमधर्गप्रतिबद्ध उकारस्त[प० ११३,पा० २]बहुले प्रश्ने उभयपक्षस्यापि पंचमी। औकाराधिके षष्ठी । ङकाराधिके सप्तमी। अकाराधिके अष्टमी। णकाराधिके नवमी । नकाराधिके दशमी । । मकारबहुले एकादशी। अकारः सानुस्वारः, तदधिके प्रश्ने द्वादशी च त्रयोदशी। अकार: सविसर्गः, तद्वहुले प्रभे चतुर्दशी पंचदशी चेति । एतास्त्रिवर्गा द्विस्वभावत्ता(त्वा)दक्षराणां पक्षद्वयस्य विज्ञेयाः ॥ २१०॥ बितिया अणुणासाई, एवं तिहिणो कमेण चत्तारि । दिलृमि कण्हपक्खे, एवं तिहिणो य(प)विभागो य ॥ २११ ॥ उक्तार्थे वा अतिदेशार्थकारिका । पूर्वार्द्धदृष्टे च कृष्णपक्षे शुक्लपक्षे च । एवमुक्तन्यायेन तिथीनां प्रविभागः कर्त्तव्यः ॥ २११ ॥ संवत्स(च्छ)रंमि दिट्टे, बितिए वग्गंमि [५० ११४, पा० २] जाण हेमंत(त)। तइयंमि गिम्हकालं, चडले(चउत्थए) पाउसं जाण ॥ २१२ ॥ संवत्सराक्षरे प्रभाक्षराणामादौ दृष्टे द्वितीयवर्गाक्षरे च तस्यानन्तरं अग्रतो दृष्टे हेमंतकालो . द्रष्टव्यः । संवत्सराक्षराः-घ झ ढ धभव हाः, द्वितीयवर्णाक्षराश्च-ख छठ थ फरषाः । तस्य (61) Jain Education Intemational Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा २१३-२१६] संवत्सराक्षरस्य प्रश्नाक्षराणामादौ स्थितस्य यदा ग ज ड द बल सा नामन्यतमाक्षरोऽनन्तरमेवाग्रतो दृश्यते तदा ग्रीष्मकाल आदेश्यः । तस्य संवत्सराक्षरस्य आदौ स्थितस्य यदा घ झ ढध भ व हा नामन्यतमाक्षरो दृश्यते तदा प्रावृट्कालो वाच्यः ॥ २१२ ॥ पंचमयंमि य वरिसा, वसंतकालं च पढमकादीसु । आयक्खरेसु पंचसु, सरओ सेसेसु चड(उ)थं पि ॥ २१३ ॥ तस्यैव संवत्सराक्षरस्य, प्रभाक्षराणामाद्यस्य [५० ११५, पा० २] ङबण न मानामन्यतमाक्षरो यदाऽनन्तरमेवाग्रतो दृश्यते तदा वर्षाकालो(लः) । तस्यैव संवत्सराक्षरस्य प्रश्नाक्षराणामाद्यस्य अएक च ट इत्येतेषां पञ्चाना मनन्तरमेवाग्रतो दृश्यते तदा वसन्तकालो(ल) आदेश्यः। तस्यैव संवत्सराक्षरस्य प्रश्नाद्यक्षराणामाद्यस्य त प य भा(शा?) इत्येतेषां चतुर्णा केचिन् ॥ मन्यते न द्वाभ्यां यकार-स(श)काराभ्यां तदा प्रथमपंचके 'अ-ए' स्वरद्वयं न गण्यते । क च ट त प इत्येते तद् गण्यन्ते । एषां यदाऽनं[प०११६, पा. १]तरमेवान्यतमाक्षरो दृश्यते तदा शरत्काल आदेश्यः। पौष-माघौ हेमन्तः । फाल्गुन-चैत्रौ वसन्तः । वैशाख-ज्येष्ठौ ग्रीष्मः । आषाढ-श्रावणी प्रावृट्कालः । भाद्रपद-अश्वयुजौ वर्षाकालः। कार्तिक-मार्गशीर्षों शरत् । एवं क्रमः । गाथावंधानुलोमतया यथा तथोक्तः ॥ २१३ ॥ पढमस्स पढमतइए, फग्गू चित्तो य दोसु चाईसु । दोस(सु) य कत्तियमासो, मग्गसिरो दोसु चरिमेसु ॥ २१४ ॥ प्रथमवर्गस्य प्रथम-द्वितीय-तृतीये च [प० ११६, पा० २] अ-ए-क फाल्गुनः । प्रश्नादौ व्यवस्थितैरि(ऋ)त्वक्षरैरनन्तरोक्तानां त्रयाणां मासाक्षराणामन्यतमो यदा दृश्यते तदा फाल्गुनो मासः। एवं क्रमेण चकार-टकारौ चैत्रः । तकार-पकारौ कार्तिकः । य-स(श) मार्गशीर्षः ॥ २१४ ॥ एमेव सेसयाणं, उदुवग्गाणं पंच चउरो(त्था) य । मासक्खरा उ कमसो, पोसादी जाव अस्सजुजो(जो) ॥ २१५ ॥ आऐ ख छ ठ पौषः। थ फरष माघः। इओगज ड वैशाखः। द ब ल स ज्येष्ठः । ई औघ झढ आषाढः। धभव ह श्रावणः। [प०११७, पा० १] उङबण भाद्रपदः। नम अं अः अश्वयुजः। एवं पौषादिरश्वयुजपर्यवसा[न]मिति । तत्र चतुर्थवर्गाक्षरा ये च वत्सर25 अ(रा)क्षराः । पंचमवर्गाक्षराः बण न मा मासाक्षराः । ते मासाक्षराः संवत्सराक्षराणामुपरिगता अग्रतो वा व्यवस्थितानां दहति । दग्धेषु तेषु वर्णाक्षरा मासाक्षरा भवन्ति । तैर्मासादेशः कार्यः । अश्वयुजमासादारभ्य वर्षप्रवृत्तिः, समाप्तिश्च तस्य भाद्रपदमासे । एवं मासक्रमः उक्तः । अनेन लाभालाभ[प० ११५, पा०२-सुखदुःख-नामनागमन-जीवितमरण-नष्टजातकादिषु संख्यया लब्धया प्रभाक्षरैः काल आदेश्यः सुसमाहितेन निमित्ते(त)ज्ञानवं(व)तेति ॥ २१५ ॥ ॥ कालप्रकरणं समाप्तम् ॥ लाभद्धि(ट्ठि)यस्स लाभ, वदिज्ज जइ उत्तरा हु अणभिहया । अहरेसु णत्थि लाहो, जे वि[य] अहराहरा चउरो ॥ २१६ ॥ (02) Jain Education Intemational Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा २१७-२२१] प्रश्नव्याकरणाख्यं [प० ११८, पा० १] अनभिहतोत्तराक्षरबहुले प्रश्ने प्रष्टुला(ला)भ आदेश्यः । अधराक्षराधिके नास्ति लाभः। येऽपि चाधराधरा[:] चत्वारः स्वराः प्रागुक्ता[:] तेऽप्यलाभकराः। 'आई ऐऔ' एतेष्वधिकेषु लाभो नास्तीति ।। २१६ ॥ लब्भइ लहं(हुं) सजोणुत्तरेसु[प]रजोणि उत्तरे लाभं । लब्भइ विलंबियकाले, सपरिके(क्के)सं [प० ११८, पा० २] अहएसु ॥२१॥ उत्तरजीवाक्षरबहुले प्रश्ने अभिप्रेतमर्थ(थ) क्षिप्रं लभते स्वजना[त् ], तैरेव जीवाक्षरैरधिकेषु प्रश्ने उत्तरधात्वक्षरमिश्रेषु उत्तरमूलाक्षरमिश्रेषु वा परश(स)काशाल्लाभो वाच्यं(च्यः) । एषामेव जीवधातु-मूलाक्षराणा मुत्तराणामधिकानां आलिंगिताभिधूमितानां चिरात् परिक्लेशेन वाऽभिप्रेतार्थमर्थं प्राप्नोति । यतः कृ(कु)तश्चिद(ह)ग्धेनैवास्ति लाभ इति ॥ २१७ ॥ जह चेव य अभिघाते, तह चेव य उत्तराहरेसुं पि । धातुस्सरा य चरिमा, [५० ११९, पा० १] सभावदीहा य अहरहरा ॥२१८॥ शुभाशुभं पृच्छतः अभिघातरा(ता)लिंगिताभिधूमितदग्धलक्षण उत्तराक्षरेणाधरेण आलिंगितो(ते) उत्कृष्टात् सकाशादल्पक्लेशो भवति । प्रष्टुः उत्तराक्षरेणाधरो(रा)क्षरेणाभिधूमिते सत्युस्कृष्टात् सकाशान्मध्यमक्लेशो भवति । प्रष्टुः उत्तराक्षरेणाधरो(रा)क्षरे दग्धे सत्युत्कृष्टात् सकाशान्महाक्लेशो भवति । अधराक्षरेणोत्तराक्षरे आलिंगिते धर्मादल्पदुःखमवाप्नोति । अधराक्षरेणोत्तराक्षरे । अभिधूमिते धर्म(र्मात् ?)मध्यमं दुःखमवा[५० ११९,पा० २ नोति । अधराक्षरेण उत्तराक्षरे दग्धे धर्मान्मह[]दुःखमवाप्नोति । एवं शुभाशुभं पृच्छतो वाच्यम् । धातुस्वरौ द्वौ 'उ', चरिमौ 'अं अः', ङञण न माः। स्वभावदीर्घास्त्रयः स्वराः 'ई ऐ औ' । इत्येतेषां मध्ये ई औ' अधराधरो(रौ) चतुर्थवर्गप्रतिबद्धत्वात् । एते दाह्या दहन्ति, न लाभं कुर्वन्त्यधिकाः प्रश्ने । दाय(ह्या)श्च पूर्वोक्ता एव ।। २१८ ॥ अहरेसु अत्थि लाहो, जइ उत्तरवंजणेण अणुवलिओ। अहरबलाणुबलेणं, पुणो(?) भणिज्ज लाभं तु णत्थि त्ति ॥ २१९ ॥ अह(ध)रेषु लाभः प्रतिबद्धः अपि वाटार्थ भवत्यधरेषु लाभो याप० १२०, पा० १]त्तरेध्वनुवलिता भवन्ति । यदा त्वधराः अधरानुबलास्ता(स्त)दा नास्त्येव लाभ इति ॥ २१९ ॥ जइ अक्खरअणभिहया, पण्हे दंसीति उत्तरा लहुआ। । तो भणसु रायलाभ, अहराहरसंजुए णत्थि ॥ २२० ।। प्रभायां उत्तराः लघवः जीवाक्षराः अनभिहता शुद्धा यदा बहवः, तदा क्षत्रियस्य राज्यार्थिनो राज्यलाभः । शेषवर्णानां यथास्वमर्थलाभो वाच्यः । योनिधि(वि)शेषाचाक्षराणां तथा देश्यम् । 'अधराधर' इति अधरैः अधरखरयुक्तैर्नास्ति लाभ इति प्रागुक्तमेवेति ॥ २२० । लाभंमि पढमदिढे, [प० १२०, पा० २] तिविहं कालं तु निद्दिसे तस्स । । अतिगतमेस्सं वहन्त पंचवग्गाणुमाणेणं ॥ २२१ ॥ लाभाधिकार एवायम् - लाभे प्रथम दृष्टे तृ(त्रि)विधे कालमतीतमनागतं वर्तमानं च । वर्गाणां परिणामेन निर्दिशेदित्येतत्सूत्रमुपरि गाथा(थ)या व्याख्यास्यति ॥ २२१ ॥ (63) Jain Education Intemational Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा २२२-२२६ ] पढमतइया हु वग्गा, वटुंते वितईअ(बियई)ओ अईअंमि । सेसा दोन्नि वि वग्गा, कालंमि अगामिय(य आगमि)स्संमि ॥ २२२ ॥ प्रथमवर्गाक्षरा[प० १२१, पा०१]णांक च ट त प य शा नाम्, तृतीयवर्गाक्षराणांगजवद बल सा नाम . अन्यतमाधिके प्रश्ने वर्तमानकालमवगच्छ। द्वितीयवर्गाक्षराणांख छ ठ थ फरषाणामन्यतमाधिके अतीतकालवमगच्छ। शेषवर्गाक्षराणां घ झ ढध भ व हा नाम, ङबण न मा नां चान्यतमाधिके भविष्यत्कालमवगच्छ । यदुक्तं वर्तमानकालाधिके प्रश्ने प्रष्टव(4)र्तमानकालो(ले) लाभः । अतीताक्षर प० १२१,पा० २]बहुले प्रश्ने आसीला( ? अतीताल्ला)भः । भविष्यत्कालाधिके प्रश्ने भविष्यति लाभः ॥ २२२ ॥ जा जस्स पुवभणिया, जोणी तस्सक्खराइ लक्खेज्जा । तस्सेव वदे लाभ, वा पाविय णिदिसे तेणं ॥ २२३ ॥ या यस्य जीव-धातुमूलानां योनिरुक्ता तस्यास्त्रिविधाया यौ (योनेः) प्रश्नाक्षराणां मध्ये यदा जीवाक्षरा अधिका भवंति तदा जीवं लभ्यत इति [प० १२२, पा० १]प्रष्टावा(टु)च्यम् । द्विपद-चतुष्पदस्य वा अक्षरानुमानेन पूर्वोक्तक्रमेणैव ज्ञेयम् । एवं धा(तु)त्वक्षरा यदा बहव[:] तदा धातुं प्राप्स(प्स्य)तीति प्रष्टुवा(वा)च्यः । यदा मूलाधिकः, तदा मूलद्रव्य15 मवाप्नोतीति वक्तव्यम् ॥ २२३ ॥ तदा वक्तव्य इति गाथान्तरेणाह - पण्हक्खरेसु पढमो, जारिसओ उद्दिसिज्ज जीवाई। तारिसयस्स य लाभो, दायाति य [प० १२२, पा० २] णिदिसे तेणं ॥२२४॥ उक्ताथैव गाथा ॥ २२४ ॥ पढमाइ बंभणाणं, बीओ वग्गो हवइ वेसाणं । तइओ य खत्तियाणं, सुदाणं सेसया दोण्णि ॥ २२५ ॥. प्रथमवर्गाक्षराणां क च ट त प य शा नां अन्यतमाधिके प्रश्ने ब्राह्मणसकाशालाभो(लाभ) आदेश्यः। द्वितीयवर्गाक्षराणां ख छ ठ थ फरषाणां अन्यतमाधिके प्रश्ने वैश्याला(ल्ला)भो वक्तव्यः। तृतीयवर्गाक्षरा[णां] गज ड द ब ल सा नामन्यतमाधिके प्रश्ने क्षत्रियाला(ला)भो वक्तव्यः । शेष21 वर्गाणां घ झ ढ ध भ व हानां बाहुल्ये तदा शूद्रा[त्] लाभो वक्तव्य [प० १२३, पा० १] इति । ङब ण न मा [नां] अन्यतमबहुले संकरजातीयाला(ला)भ इति । अस्यैव जातीयका उक्ता उक्तं च द्रष्टव्यम् ॥ २२५ ॥ अथे(प्पे)वि यणभिहया, वणिया (ग्गिय ?) वग्गा(ण्णा ?)सवग्गसंजुत्ता। अभिहयपरसंजुत्ता, णीया (णय) हीणाहियसमा भणिया ॥ २२६ ॥ 30 अनभिहताः सर्ववर्णाक्षराः तावलिं(ल्लिं)गो भवति। तैः प्रश्नाधिके लाभो भवति । ये परपा(स्पोरमभिनन्ति । क च ट त प यशा[सै]रुपरिगतैः, घ झ ढध भ व हा नां च गज ड द ब ल सै Jain Education Intemational Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा २२७-२३०] प्रभव्याकरणाख्यं रुपरिगतैभ(भ)वति । स्व[व]र्गसंयोगः । तद्वहुले प्रश्ने लाभो भवति । ये परस्परमभिन्नंति । स चाभि[५० १२३, पा० २]घातत्रिविधः । आलिंगितादिकः पूर्वोक्तः । योऽसौ नता तदभिघातेन वम्मा(ः) कदाचित्संख्यया हीना[:] कदाचिर(द)धिका[:] कदाचित्समा भवति (न्ति) । एकै(ते ?)न अभिम(ह)न्यते(?) । हीने(?) फललाभ[:] प्रश्ने समे ईषत्फलं भवति । दृष्टैरधिकैस्व (श्च) फलाभावः । एवमेति(भिः) शुद्धशेषैः शुभाशुभमध्यमादेश्यम् ॥ २२६ ॥ पढम-तइज(जे) वग्गे, होइ [५० १२४, पा० १] सुही दुक्खिओं बी[य]-चउत्थे । पंचमए पुण वग्गे, सुह-दुक्खे(क्वं) मज्झिमं तस्स ॥ २२७ ॥ प्रथमवर्ग:-क च ट त प य शाः। तृतीयो वर्ग: ज ड द बल साः । एषामक्षराणां बाहुल्ये सुखविवक्षायां प्रष्टुः] सुखलामो भविष्यति सुखावान्ति(प्ति)रित्यर्थः। द्वितीयवर्ग:-ख छ ठ थ फर षाः। चतुर्थो-घ झ ढधभव हारे(ए)तेषां अक्षाणां बाहुल्ये प्रष्टादु(ष्टुरु)त्पातो[प० १२४, पा०२] । ज्ञेयः । दु(उ)त्पा[ता]गमो वा भविष्यतीति । पंचमवर्गो-ङबण न माः । तेषु च [सुखदुःखं मध्यममबाप्नोति । एवमसौ सुख-दुःखी (खानि ?) वा तत्राप्ये (प्रो)ति येवं(एवं) वाच्यम् ॥२२७॥ बीय-चउत्था वग्गा, दिवा इच्छंति सुबहु आउं [च । पंचमओ पुण वग्गो, मभि(ज्झि)मआउं सया इच्छे ॥ २२८ ॥ द्वितीयवर्ग:-ख छ ठथ फर षाः । चतुर्थः-घश ढ ध(प० १२५, पा० १ ]भ व हाः । एतेषाम- ।। क्षराणां बाहुल्ये आयु[:] पृच्छतः, आयु[:] प्रच्छु(भूतं वक्तव्यम् । फलं लाभादिकं पृच्छति(तः) अल्पं वक्तव्यम् । पंचमवर्गाक्षरा[णां] - ङ अ ण न मा नां बाहुल्ये मध्यमायुः पृच्छकस्य, लाभप्रभे मध्यमो लाभो वाच्यः ॥ २२८॥ उत्तरसरसंयु(जु)त्ता, सबे अप्पाउआ फलमुवेति । [१० १२५, पा० २] अहरस्सरसंजुत्ता, तुह (?सुबहुं) इ(य)च्छंति ते आउं ॥ २२९॥ उत्तरस्वराः पूर्वोक्तास्तैः संयुक्ता उत्तराक्षराः प्रथम-तृतीयवर्गीयाः । तद्बहुले प्रश्ने यदि लाभादिकं फलं पृच्छति तेषां प्रभूतं फलं भवति । येऽप्यायुः पृच्छंति तेषामल्पमायुर्भवति(ती)त्यादेश्यम् । त एवाधिका उत्तराक्षरा अधरस्वरयुक्ता आयुःप्रभे प्रभूतमायुः प्रयच्छति । फलप्रश्ने फलं चाल्पं लाभादिकमिति ॥ २२९ ॥ अहव विसण्णो आयुमि होइ सुद्धेसु काइमाईसु । सत्तण्ह मेसममा(वसा?)दि सरसंजुत्तेसु विवज्जासो ॥ २३० ॥ पंचवर्गन्यायेन स(सामान्यतः फलं पृच्छकस्यायु प० १२६,पा०१श्वोक्तम् । अष्टवर्गन्यायेन लममुत्पाद्य आयुर्विभागो नष्टविभागो नष्टजातकमिति वक्तव्यमिति । काद्यादिसप्तवर्गेषु शुद्धेषु मेषादिराशयः । सप्त कथं ? । प्रश्नाक्षरं गृह्य आद्यक्षरं त्यक्त्वा द्वितीये 'क च टतपय शा'द्या(दि)वर्गाक्षराणां वर्गान्यतमं शद्धमात्रारहितं यद वर्गमध्यं याति दृष्टं सरासि(शि)-" रुदयादिः। तत्र च वर्गे यदि (यत?)मो वर्ण[:] तति लिप्ता(कला?) शोध्या। पडंस(श)को वर्णः। वर्णे षटूलाः सो(शो)ध्याः।भुज्यमानस्य वर्णप्रमाणेन षटूलाः शोध्याः । षड(ष्ठव?)र्गस्य पंचमो रेफः, स नि. शा०७ (65) Jain Education Intemational Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम्। [गाथा २३१-२३३ ] [प्तम वर्गस्य झकारः, य एतट च[५० १२६, पा० २]वर्गाश्च वृश्चिकादिकाः । एते स्वराः संतस्तथैव कुर्वन्ति । एवं स्वरयुक्ता आद्यतत्यागेन [वि?] पर्ययो द्रष्टव्यः। एवं वर्ग(त?)मानं लग्नं प्रभाक्षरैरुत्पाद्यते । ततः सिद्धाक्ष[] राशिरुत्पद्य (त्पाद्यः ?)। कथं द्वादश स्वरा द्विगुणीकृत्यास्थाप्याकाशप्रभया दशकसंख्यया निव्यया गुण्य जातं शतद्वयं चत्वारिंश[प० १२७, पा०१]त्यधिकं सिद्धरासि(शिं) • स्थाप्य प्रश्नागतलमांशा[न] विशोध्य शेषभागं ककारगर्भेण कादिवर्गाष्टकगुणेन लब्धं एकान्ते स्थाप्य, रूपमेकं शेषवांकानां यथादृष्टां(ष्ट) स्थाप्य, षष्टिच्छेदं वाऽवस्थाप्य, उपरिवर्णराशिसवण्ये (1) षष्टिपंचभिगु(गुं)ण्यं तेन भागोपरि राशेः लब्धानि वर्षाणि । शेषं स्वरगुणं लब्धा मासा[:] चाक्षरद्वयगर्भगुणे दिनानि । 'क च ट त' चतुरक्षरवर्गगुणे [५० १२५, पा० २] घटिकाः । एसद्वर्षाविक्रमेण स्थाप्य ककारगर्भषड्वर्गगुणाद्विशोध्य पृच्छकस्य प्रथम-मध्यम-तृतीयावस्था ॥ विजा(झा)य धात्वादिव्यंबं देयम् । विसो वा अष्टवर्गा ये आद्यन्तपाते षड्वर्गक्षेपोपवतो वा तृतीयदसा(शा)यां 'अ एक च ट त प यश' वर्ग शोध्यं वाऽव(प)नीयं वा । एवमावृत्त्या यावत्ति(मि)श्चित्तकाल इति । यावंतस्व(श्च) पर्याया धात्वादिपि०१२८, पा० १](त्रि)कस्य बलाद्यवस्थासु शुध्यति(न्ति) प्रक्षिप्यन्ते वा तावद्वर्णक्षेपादयोऽप्यसाधाधोवण्ण(?)सावपि बुद्ध्या पात्यो देयो मा। एवं पृच्छकस्यातीतः कालः स्फुटः। आगामिकालपरिज्ञानार्थ य एषः अति(ती)तकालः, ॥ एषः चतुष्टयगुणाकारः, गर्भाद्विसो(शो)ध्य वर्षादि । इदानीं तस्माद्याव(ती) दसा(शा) विभागां सा(शा) प[तति तावति(ती) इह क्षेत्राक्षिप्तेषु पात्या । [५० १२८, पा० २] इह शेषमार्गादिवर्गादिस(ग)ण उभययोगे सर्वे(4) वर्णाप्रमिति (?) ॥ २३० ॥ आउंमि जो वियप्पो, काले देसे य होइ सो चेव । अणुणासिया य सबे, चरिमा सेसा समा भणिया ॥२३१ ॥ आयुषि यः क्रमोऽभिहितः स एव कालो(ले) वक्तव्यः। उत्तराक्षरैरधिकैः क्षिप्रं ल[प्स्य]तीति वक्तव्यम् । अधराक्षरैरुत्तराक्षरान(नुव?)लितः, दृष्टि(ष्टै)रधिकैः स्व(चि?)रेण प्राप्स्यतीति प्रष्टा वाच्यः। देसो(शो) ग्राम-विषयादिलक्षणः । ग्रामादिकस्य लाभो भवतीति प्रश्ने उत्तराक्षरैरधिकैलब्धैः [क्षिप्रं] अधराक्षरैश्चोत्तरानुवलितैः [प० १२९, पा० १] स्व[चि?]रेण लाभः । अधराक्षरैश्वाधिकैर्नास्ति लाभः । अनुनासिकाश्चरिमसंज्ञास्तैः समो लाभः स्वयोनिगुणतुल्य इति ॥२३१॥ ॥ लाभगंडिकाप्रकरणं समाप्तम् ॥ इस(तइ)य-पढमेसु य जलं, बीय-चउत्थेसु अप्पपाणीयं । पंचमए पुण वग्गे, णत्थि जलं चेव णायचं ॥ २३२ ॥ प्रथमवर्ग-तृतीयवर्गाक्षराधिके प्रश्ने नास्ति जलमादेश्यम् । या मात्रा [ : १] स्ववर्गप्रतिबद्धाः ताभिरप्येवमेवेति ॥ २३२॥ पढम-तइएसु [पर]मा, बितिए मज्झा उ सस्ससंपत्ती । चउ-पंचमए आयरिए (?) णत्थि सस्सं ते(ति) जाणेजा ॥ २३३ ॥ (66) Jain Education Intemational Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा २३४-२३९] प्रभव्याकरणाख्यं प्रथम - तृतीय [ ० १२९, पा० २] वर्गाक्षराधिके सस्यनिष्पत्तिः उत्कृष्टा । द्वितीयवर्गाक्षराधिके मध्यमा सस्यनिष्पत्तिः । चतुर्थवर्गाक्षराधिके स्तोकं निष्पद्यते । पंचमवर्गाक्षराधिके स्तोकमपि नास्ति सस्यम् ॥ २३३ ॥ पढम-तइयंमि वग्गे, सहत्तणं तह य बीयए असई । चउत्थ-पंचमए वग्गंमि (ग्गे ) णत्थि सइ चिय णाया ॥ २३४ ॥ प्रथम- तृतीय वर्गाक्षराधिके प्रश्ने महती सती ज्ञेया । द्वितीयवर्गाक्षराधिके प्रभे मध्यमा सती ज्ञेया । चतुर्थ पंचमवर्गाक्षराधिके प्रश्न सतीरेव नास्तीति निष्पत्यभावात् ॥ २३४ ॥ | वर्गस्य [१०१३०, पा० १] गंडिका समाप्ता ॥ - आदापुसो [य] महा, हत्थो चित्ता तहेव [साई य] । जिट्ठा [ मू] लो एए, इ (दु) अक्खरा अट्ठ नक्खत्ता ॥ २३५ ॥ आर्द्रा-पुष्य-मघा-हस्त-चित्रा-स्वाति - ज्येष्ठा-मूला अष्टौ रे (द्वय) क्षराणि नक्षत्राणि ज्ञातव्यानि ॥ असिणि भरण तह (य) कित्तिय, रोहिणि फणिदेवया विसाहा य । रेवय सवण धणिट्ठा, तिअक (क्ख ) रा णत्र उ नक्खत्ता ॥ २३६ ॥ अश्विनी भरण- कृत्तिका - रोहिणी अश्लेषा [विशाखा ] - श्रवण-घरि (निष्ठा - रेवत्य इति नवनक्षत्राणि अ ( s) क्षराणीति ॥ २३६ ॥ ५०१३०, पा० २] मिसिर पुra (a) सुन्नि, पुबासाढाणुराधजलदेवा । एए पंचविर (रि) क्खा, चउरक्खरनामया भणिया ॥ २३७ ॥ Jain Education Intemational मृगसि (शिरः पुनर्वसुः पूर्वाषाढा अनुराधा शतभिषा एतानि पंच नक्षत्राणि [ चतुरक्षरनामानि भणितानी ]ति ॥ २३७ ॥ ५१ भृगदेवा दगदेवा, रिक्खा पंचक्खरा दुवे एते । अष्ट (ज) - विस्सा छ, सत्तक्खवि (रि) याहिबुद्धी (बन्धु ?) या ॥ २३८ ॥ पूर्वाफाल्गुनी उत्तराषाढा द्वे एते उभाव (भेड) पि पंचाक्षरौ (रे)। अर्यमदेवता - उत्तराफाल्गुनी, विश्वदेवता - पूर्वाभाद्रपद एतौ षडक्षरौ । अहिबन्धुः उत्तराभाद्रपदा सप्ताक्षरा ॥ २३८ ॥ दो [अ] क्खरमादीणं, णक्खत्तग (त्ता?)णं [कमेण ?] ठावेउं । पण्हाइमसंखाए, [५० १३१, पा० १] णक्खत्तगणं वियाणाहि ॥ २३९ ॥ यक्षरादीनां नक्षत्राणां सरा (ता) क्षरपर्यन्तानां क्रमेण स्थापयित्वा प्रभाक्षराणां आद्यक्षरसंख्ययाऽभिघातशुद्धा नक्षत्रगणमध्या नक्षत्रगणं जानीहि । द्वयक्षरं त्र्यक्षरं चतुरक्षरं पंचाक्षरं षडक्षरं सप्ताक्षरं चेति ॥ २३९ ॥ १गण ठावे वेडवे' इति आदर्श भ्रष्टपाठः । (67) 18 15 24 25 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा २४०-२४२] अधरुत्तरक्कमेणं, पच्छा अहरुत्तरेण सट्ठाणं । णादुण(दूणं?) तवणाम, जाणेज्जा णामकरणाणं ॥ २४० ॥ अधरा उक्ताः, उत्तरा अप्युक्ता एव । प्रश्नाक्षराणामाद्यवस्थितो(तेन?) उत्तराक्षरणर(रेणा) ल्पसंख्या(ख्य) नक्षत्रं ज्ञेयम् । प्रभाक्षराणागा(मा)दिस्थितेन अधराक्षरेण बहुसंख्यं नक्षत्रं ज्ञेयम् । [प० १३१, पा० २] प्रभाक्षरैना(ना)माक्षरैर्वा पूर्वोक्ते[न] क्रमेण वर्गमानीय तेषामुत्तराक्षरैउत्तराक्षरा लभ्यन्ते । अधराक्षरैरधराक्षरा लब्धवर्गा[:] प्रतिलब्धा[:] प्राप्यन्ते । तैनक्षत्रं योजयेदिति । अत एव अधररासि(शि)रपि ज्ञेया ॥ २४० ॥ ॥ नक्षत्रगंडिका सभाप्ता ।। तिहि उत्तरेहि वग्गं, उत्तरवग्गेसु [१० १३२, पा० १] पढमयं लहइ । तिहि अधरेहिं अधरं, अधरेसु(सु) य तिजयं लहइ ॥ २४१ ॥ प्रश्नाक्षराणामादौ यदा त्रयोऽक्षरा उत्तरा मात्राभिरभिहता (मात्रारहिताः?) असंयुक्ता अनभिहताश्च भवंति तदा तेषां य आ[दि] स्वर(रः) स आत्मीयं वर्ग लभते । प्रभाक्षराणामादौ यदा त्रयोऽक्षरा अधरा मात्रारहिता [५० १३२, पा० २] असंयुक्ता अनभिहताश्च भवंति तदा तेषां यस्तृतीयोऽक्षरः [स] आत्मीयं वर्ग लभते ॥ २४१ ॥ उभएसुं दोसुं दोणि वि एकेकं चउक्कयं लहइ । वामिस्सेसु वि एकं, पुरिमेसु अणंतरं लहइ ॥ २४२ ॥ प्रभाक्षराणामादौ यदा द्वौ उत्तराक्षरौ भवतः मात्रारहितौ असंयुक्तो अनभिहतौ च तदौ(दा) तौ द्वावपि प्रत्येकं आत्मीय वर्ग [प० १३३, पा०१] लभते । प्रश्नाक्षराणामादौ यदा द्वौ अधराक्षरौ मात्रारहितौ असंयुक्तौ अनभिहतौ च प्रत्येकं आत्मीयं वर्ग लभते । यदा अधरा॥ (र आ)दौ पतितोऽनन्तरश्च त्य(त)स्योत्तरः पतितः। य(त?)दाऽऽलिंगिताभिधूमितदग्ध-लक्षणं अभिघातं सो(शो)धयेद(द्) । निदर्शनम् - खकारस्य गकारेणालिंगितस्यैका संख्या हसति । हसितैकसंख्या[क]श्च ककारो [५० १३३, पा० २] भवति । तस्मिन् ककाराच(रश्च)तुर्थवर्गस्तद्वर्ग लभते । उत्तरानुवलितत्वात्तमर्थं उत्तरं लभते । स एव खकार(रो)घकारेणापतोऽवस्थितेनाभिधूम्यन्ते (ते) । अमिधूमितस्य चकारस्य द्वे संख्ये निवर्त्तते । एका खकारसंख्या, द्वितीया ककारसंख्या । तत्रैका ४ स्थाने(न)त्यागेन खकार-चकारादारभ्य चतुर्थपवर्गमाप्नोति । स चा(च) धकारानुवलितत्वात् पवर्ग अधराक्षरं प्राप्नोति । यदा अधार] आदौ पतितोऽनंतरश्च तस्योत्तरः पतितः], तदाssलिंगिताभिधूमितदग्धलक्षणं अभिघातं शोधयेदिति ।[प० १३४,पा० १] निदर्शनम्-खकारस्य द्वे ककारस्य डकारे[ण] चोत्तरेण दग्धस्य तिस्रः संख्या निवर्तन्ते । कास्तास्तिस्रः संख्याः १ खकारस्य संख्या द्वे वेति । स्थानद्वयहसस्य डकारादारभ्य चतुर्थवर्ग प्राप्नोति । कः पुनरिसौ ४ चतुर्थस्तत्रोत्तरानुवलितत्वात् पवर्गरुत्तराक्षरा(?)प्राप्नोति । एवं एको(के ? )न चतुर्थस्य उक्तः । , 'भारमायं पवर्गभं' इति प्रतिगतः पाठः । (68) Jain Education Intemational Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा २४३-२४६ ] प्रश्नव्याकरणाख्यं ५३ अन्येषामप्यक्षराणां एवमेव क्रमो ज्ञेयः । व्यामिश्रास्तु संयुक्ताक्षराणां यत्र यत्र पतिता आत्मवर्ग लभते (न्ते) । तेषां संयुक्ताक्षराणां क आत्मवर्ग लभते ? किं योऽधस्तात् आहोश्विदुपरिह (ष्ठः १) । [ ५० १३४, पा० २ ] उच्यते - योऽसायु (बु) पया ( ये ) क्षरः । प्रश्ने पूर्वाक्षरौ यदा द्वावुतरौ भवतः, मात्रारहितौ असंयुक्तौ चेति । तदा द्वितीयोऽक्षर आत्मीयं वर्गं लभते ॥ २४२ ॥ अ च तय वग्गा उत्तर- करणं च हवदि [ जइ ? ] च व[ग]स्स । होदि कमेण कट पशा, चदुरा णीपं (यं) च णादवं ॥ २४३ ॥ 'अ च तया'नां चतुर्णामक्षराणां बाहुल्ये ( ल्यं) यदा प्रश्ने भवि (व) त्यभिहि (ह) तानां तदा चिंतायां उत्तमकार्यं पृच्छतीत्यादेश्यम् । लाभप्रश्ने उत्तमो भवतीति वाच्यम् (च्यः) अ ( प्र ? ) ष्टा । 'कटप शा'नां चतुर्णामक्षरा [ १० १३५, पा० १]णां प्राचुर्य यदा प्रश्नाक्षरेषु दृश्यते अनभिहतानां तदा चिंतायां नीचकार्यं पृच्छतीति वक्तव्यम् प्रष्टा । लाभप्रभेऽल्पलाभस्ते भविष्यतीति वक्तव्यम् । 'अ च तया' उत्तरकरणसंज्ञकम् । 'कटप शा' अधरकरणसंज्ञम् ॥ २४३ ॥ संजुत्तमसंजुत्तं, आलिंगियमादियं अक चटा दी । उच्चारिज्जदि कमसो, अणुपुवीए करणमेदं ॥ २४४ ॥ प्र येक्षरास्ते संयुक्ता [असंयुक्ता ] वा आलिंगिता [अ] मिघूमिता दग्धा वा, अकच ट तप [य] शायेऽक्षराः पंचचत्वारिंशत् [ १० १३५, पा० २] तेषां क्रमोच्चारणं आनुपूर्वीति भण्यन्ते (ते) । .. आनुपूर्वीक्रम उच्यते । 'अ क च टा'दीनामष्टानां वर्गाणां क्रमोच्चारणं आनुपूर्वीक्रम उच्यते । विपर्यासोच्चारणं अनानुपूर्वीकरणमिति । एतावानेव नात्र कश्चिद् विशेषः । प्राप्तिस्तु वर्गाणां अन्यतःका (का० ?) रिकयोक्यते ॥ २४४ ॥ [पढ] ( ? ) तिल उक् त प यश वग्गे वि पावए जेण । एवं अना [] पुवीकरणं छटुं मुणेयवं ॥ २४५ ॥ प्रथमवर्गस्य 'अर्का [प० १३६. पा० १] च ट त प य शाख्यस्य अन्य (न्त्या) क्षराश्चत्वारः 'तप यशा' एते यथा प्रामुवंति वर्गाणां तथा वर्णइ ( यि ) ध्याम्युपरिष्ठा [त् ] । यच तद्वर्ग: (र्गा :) विलोम्येन अनानुपूर्व्या प्राप्नुवंति । वर्गाः कवर्गः चवर्ग: टवर्गः शवर्ग मि (इ) ति । अनानुपूर्ण षष्ठं करणं ज्ञेयमिति । अकचटतपयशा इत्यत्र पूर्वा:- 'तपय शा' इत्येवानुपूर्वीक्रम इत्यर्थः । एषामेव विपर्ययोचारणं अन्योन्य ( नानु) पूर्वी [क्रमः ] | प्राप्ति ( पश्चात् ? ) क्रम इत्यर्थः । 25 [१० १३६,पा० २] पंच करारण्य ( करणानि प्र ? ) तीतानि । तृ (त्रिषूत्तरेषु वर्ग: प्रथमकरणम् । एवं (त्रिष्वरेषु द्वितीयम् । उभयत उत्तरौ द्वौ तृतीयम् । घ (ए) केन चतुर्थ लभ्यते चतुर्थकरणम् । व्यामिश्रैयु (यु) कैरेको वर्गः लभ्यत इति पंचमं करणम् । यद्वा व्यामिश्र एकेन चतुर्थमस्यांतर्गत चतुर्थोऽयं भेदः । आनुपूर्वी उच्चारणकरणं पंचमम् । अनानुपूर्वी षष्ठं करणमिति ।। २४५ ॥ अभिहदा संजुत्ता, पढमं पावंति अप्पणी [१० १३७, पा० १] वग्गं । आलिंगिया य तत्तो, हसंति एक्केकयं ठाणं ॥ २४६ ॥ उत्तरा अनभिहता येऽक्षराः प्रश्नादौ अन्यतमेऽप्रतो वा त एवासंयुक्तौ (क्ता) यदा दृश्यन्ते तदा ते प्रथमवर्गाः स(स्व) वर्गं प्राप्नुवंति । यदा त्वालिंगिता असंयुक्ताश्च तदा एकस्थानहासेन हसे (69) 10 20 30 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम्। [गाथा २४७-२४९] (हासं?) प्राप्नुवंति । निदर्शनम्-[ककारः] खकारेणालिंगितश्वकारं प्राप्नुवं(नो)ति । एवं चकारः ह(छ?)कारेणालिंगितः ढ(ट)कारं प्राप्नुवं (मो)ति । तथा गकारो [प०१३७, पा० २] घकारेणाभिधूमितः जकारं प्राप्नुवं(मो)ति । जकारः झकारेणाभिधूमितः डकारं प्राप्नोति । एवं घकारो ड(?) कारेण दग्धः ककारं प्राप्नोति । एवमन्ये ऽपि [वर्गा]क्षराः संयुक्ता द्वितीयादिवर्गान प्राप्नुवंति । द्वितीयवर्गग्रहणेन द्वितीयोऽक्षर उच्यते । त एव संयुक्ता आलिंगिताः स्थानद्वयवसि तत्वात् ते तदा तृतीयं स्थानं टवर्गप्राप्नो(नुवंति। एवंगकारोऽपि संयुक्तो यदाऽऽलिंग्यते तदा[प० १३८,पा.१] तृतीयं वर्ग प्राप्नोति । एवं संयुक्ताभिधूमिताश्चतुर्थो (र्थम् ?) दग्धाः पंचममिति ॥ २४६ ॥ सट्ठाणमुवेंति दढा, बत्तीसं एत्थ होंति संयो(जो)गा । हस्सा य संति कमसो, चउवग्गकमेण एकेकं ॥ २४७ ॥ स्वस्थान मुच(मुपय?)न्ति दुग्धाः । तत्र सरा(ता?)क्षरसंयोगेमा(ना)लिंगिताभिधूमितदग्धसंयोगेन च द्वात्रिंस(शत्)संयोगा भवन्ति । तानुपरि निर्वर्णयिष्यति । अष्टौ वर्गाः संयुक्तालिंगितदग्धाभिधूमिता इत्येते चतुभिर्विका ५० १३८, पा० २]ल्पैर्गुणिता द्वारीस(त्रिंश)द् भवति(न्ति)। हिस्ता(हसिता)येऽक्षरास्ते आलिंगितास्ते द्वितीय स्थान प्राप्नुवंति । अभिधूमिता[:] तृतीयम् ,दग्धा[:] चतुर्थ स्थान प्राप्नुवंति । एतञ्च निदर्शनेन पूर्वशेषा(?) वर्णितमितो(त उ?)क्तम् । अनंतरगा॥ थानुसारेणास्यायमर्थः-'हस्सा लहंति कमसो' चतुर्थवर्गक्रमेणेति एकेक वर्ग प्राप्नुवन्ति । संयोगस्य (प० १३९, पा० १] च प्रक्रांतत्वात् 'अइए ओ' एते चत्वारः इखग्रहणेन स्वरा गृह्यन्ते । तत्र अकारः प्रश्नादौ अन्यत्र वा निरुपहतः अवर्गमेव प्राप्नोति । ककारोपरिगत इकारः कवर्ग प्रामोति । चकारोपरिगत एकार[:] चवर्ग प्राप्नोति । टकारोपरिगता ओकारः टवर्ग प्राप्नोति ॥ २४७ ।। बितिय-चउत्थो पंचम-छट्ठो अण्णेसुलहदि [५० १३९, पा० २] आदेसा। लभदि अ चरिम चउक्को, तकारमादीस(सु?) एकेकं ॥ २४८ ॥ द्वितीय आकारः, चतुर्थ ईकारः, पंचम [उकारः, षष्ठ] ऊकारः । एते चत्वारः स्वरा अन्यवर्गाक्षराणामुपरि प्राप्नुवंति । के ते अन्यवर्गाक्षराः ? 'त प य शाः' । तत्र तकारस्योपरिगत आकार[:] तवर्ग लभते । पकारस्योपरिगत ईकारः पवर्ग लभते [५० १४०, पा० १]यु(य)कार उकारेण युक्तः प(य?)वर्ग लभते। शकार ऊकारेण युक्तः शवर्ग प्राप्नोति । शकारश्चरिमस्तनास्तीति 'तपय शा' चतु(त्वा)रोऽपि चरिमसंज्ञाः । अत एवानि(वास्मिन्) चतुके(के) इस्त्राणां खराणां संयोगेन तत्प्राप्नोति (प्राप्ति)रुका ॥ २४८ ॥ अणुवलिया तिहदा वा, जुत्ता पुबावरेण एक्केकं ।। एस सराण णिवेदो(सो), ककारमादी[सु] त(व)ण्णेसु ॥ २४९ ॥ अनुवलितशब्द आलिंगितवापि(ची) । अनुवलिता द्विविधाः-उत्तरान(नु)वलिता अधरा" नुवलिताश्च । तत्र अधराक्षर उत्तरस्वरसंयुक्त उत्तरान(नु)वलितश(सज्ञः ?) । यद्वर्गसंबंधितेन स्वरेणाक्षरो युक्तस्तस्मिन्नेव च वर्गे [प० १४०,पा० २]उत्तरान(नु)वलितत्वादुत्तराक्षरं लभते । स्वराणामपि मध्ये त्व(त)मेव स्वरमुत्तरं प्राप्नोति । उत्तराक्षरोऽप्यधरस्वरयुक्तो अधरानुवलितसंज्ञः। यदर्गसंबंधी(धि)तेन स्वरेणाक्षरो युक्तस्तस्मिन्नेव व अधरानुवलितत्वादधराक्षरं लभते। (70) Jain Education Intemational Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा २५० - २५३ ] प्रश्नव्याकरणाख्यं स्वराणामपि मध्ये तमेव स्वरमुत्तरं (मधरं ) प्राप्नोति । उत्तराक्षरोऽप्यधरस्वरयुक्तोवर... 1 5 ......† भिधूम्यते स द्वितीयवर्गमवाप्नोति । निदर्शनम् - ककारोऽभिधूमितः खकारेण [च]वर्ग प्राप्नोति । खकारोऽभिधूमितो घकारेण छबर्गं प्राप्नोति । गकारोऽभिधूमितो घकारेण जवर्ग प्राप्नोति । ककारो दग्धः डकारेण टवर्गं प्राप्नोति । एवमन्येऽप्यक्षरा[:] पूर्वाभिहि[ १० १४१, पा० २ ]त विस्तरक्रमेण द्रष्टव्या [:] | ये संयुक्ताक्षरास्तेषामुपरि योऽक्षरः स स (स्व) वर्गाक्षरं लभते । उत्तरः उत्तराक्षरमधरोऽप्यधराक्षरमंत्राप्नोति । एष स्वरनिवेशक (शः ) सकारादिषु हकारान्तेष्वक्षरे[षु] आलिंगिताभिधूमितदग्धलक्षण उक्तः । ह्रस्वा लभंते । आदिचतुष्कम् - अकारप्रभृतयः । [ ५०१४२, पा० १] अन्त्यचतुष्कं प्राप्नो (?) ति साभ्यां (? सान्त्यं) वर्ग लभन्त इति ॥ २४९॥ अस्यैवार्थस्यातिदेशार्थं कारिकान्तरमाह - जह चैव सरवसेसो ( विभागो ?), ककारमादीसु धं (वं ) जणेसुं पि । एमे [वि] रई (इ)यो, निरंतरं जाव [3] हकारो ॥ २५० ॥ एवमेव कर्तव्यो निरंतरं ककारादारभ्य यावत् हकार इत्येष वर्गलब्ध्यर्थं स्वरविभागो विज्ञातव्यो व्यंजनेषु । अयमर्थः पूर्वगाथयाऽभिहित इति नोक्तः ॥ २५० ॥ [ १०१४२, पा० २] एवं अनानुपूर्वी (र्वी) प्रपंचेन षष्ठं प्र ( ? ) करणम् ॥ जो य सराण विभागं, देसेदि य सत्तमो य सो करणो । एमेव वंजणाणं, विभावणो अट्टमो होति ॥ २५१ ॥ उक्तार्थातिदेशार्थं गाथेयं पठिता । षष्ठमुक्तमनानुपूर्वीकरणम् । अनन्तरं वरयोगाद्वर्गलब्धिरुक्ता । असौ स्वरविभागो नाम सप्तमं करणम् । संयुक्तासंयुक्त विकल्पेन वर्गप्राप्तिरित्यष्टमं व्यंजन विभागो नाम प्र ( ? ) करणम् ।। २५१ ॥ 1 ५५ स्ववर्गाक्षरसंयोगेन नवमं करणम् । इदं यथा भवति तथा पूर्वमुक्तम् । परवर्गाक्षरसंयोगा [त्] दशमं करणम् । परवर्गाक्षरसंयोगोऽपि पूर्वाभिह (हि) त एव । अनयोः करणयोथाक्षरलाभ [:] तथोपरि वर्णयिष्यामः || २५२ ॥ सेति सव[ग]क्खर संजोगं [ १० १४३, पा० १] जो य सो हवे णवमो । " परवग्गक्खरसंजोयं, दंसेदि य दसमओ करणे ॥ २५२ ॥ 10 (71) 15 अह उत्तराणुवलिया, हस्सा उ लहंति हस्समन (न्न ) यरं । 25 अहरेणऽवि हम्मंता,[ १० १४३, पा० २] तेसिं चिय वग्गमण्णयरं ॥ २५३ ॥ अधराक्षरा उत्तराक्षरैरालिंगिता ह्रस्ववर्गं अन्यं लभन्ते । निदर्शनं यथा - खकारः ककारेणालिंगितो दग्धः कवर्गं प्राप्नोति, तस्मिंश्चोत्तराक्षरम् । एवमन्ये ( न्य) वर्गेभ्योऽक्षराः प्राप्नुवन्ति । उत्तराक्षरा अधराक्षरे[ण] अभिहन्यमाना लब्धवर्गेऽधराक्षरं प्राप्नुवन्ति । यथा ककारः खकारेणालिंगित[:] चवर्गे अधराक्षरं प्राप्नोति, अधरानुवलितत्वात् । अथवा चास्या गाथाया अन्यथा 30 [१० १४४, पा० १ ]व्याख्यानम् - अधरस्वरा उत्तरैर्हयैः स्वरैरनुवलिता ह्रस्वस्वरमेवान्यतमं लभन्ते । + अत्रादर्श ३-४ पंकयो विनष्टाक्षरा लभ्यन्ते । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा २५४-२५५] अनुवलितमेव लभ्य(भ)न्ते (?) उत्तरा हखाः(?) 'अ इ एउ' इत्येते अधरेण स्वरेणाभिहन्यमाना अधरमेव स्वरं अनुवलितमभिलभत(न्त) इति ॥ २५३ ॥ एवं अहर चउक्के, आइल्लो पच्छिमो व एमेव । चउ तिय एकं कमसो, ह्रस्सेसु हवंति आदेसा ॥ २५४ ॥ अनानुपूर्वीमंग(गी)कृत्य अधरचतुष्कं क ट प शाः चत्वार आद्या भण्यन्ते ।[८० १४४, पा० २] अथवा पश्चाद्भवन्तीति पश्चिमा: 'कट पशाः' । ककारः अकारवर्गश्च (स्य १) पश्चिमो भवति । एवं ने(जे)यम् । एतदन्यतमाधिके प्रश्ने मध्यमलाभ आदेश्यः । 'अचत या' आद्या:। उत्तराः तदन्यतमाधिके प्रश्ने उत्कृष्टलाभ आदेश्यः । एषां 'अचत या'नां मध्ये अकारचकारधिके प्रभे उत्कृष्टो लाभ आदेश्यः । एषां(व) 'कट पशा'नां मध्ये पकार-शकाराधिके "प्रश्ने अधमलाभ आदेश्यः ॥ २५४ ॥ जह चेव सरनिवेसो, भणिओ तह चेव वंजणेसुं पि । एमेव [वि]रइयचो, णिरंतरं जाव उ हकारो ॥ २५५ ॥ अथवाऽस्य(स्या)गाथाया विस्तरेण स्वरव्यंजनविप० १४५, पा० १]भागेनाक्षरोत्पादनं प्रस्तारचतुष्टयं पंचवर्गीये तत्र प्रथमतरं यथा- तिर्यक् चतुर्दशगृहकाणि ऊर्ध्व [न]व च । 1 एवं विरच्याक्षरन्यासः-अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः। अ। एवमेषा प्रथमा पंक्तिः। इ क का कि की कु कू के कै को कौ कं कः । उ । प्रथमाया अधः द्वितीया। उ । चचाचि ची चु चू चे चै चोचौ चंचः। तृतीया। ऊ। ट टा टि टी टु टूटे टै टो टौटंटः । टय ऐ । चतुर्थी । ए। ती तु तू ते ते तो तौ तं तः । त ता ति । उ । पंचमी । ऐ। पुपूपे पै पो पौ पंपः । पपा पि पी। ऊ। षष्ठी। ओ । यु यू ये यै यो यो यं यः। य या यि यी । ए । सप्तमी । औ । [प०१४५, पा०२] ७ शे शै शो शौ शं शः । शशा शि शी शुशू । अष्टमी । अं अः ओ औ ऐए ऊ उई इ आ अ। इ। नवमी। एवमेता नव पंक्तयः अधोऽधः स्थाप्याः । एवं यथा पंचवर्गेषु दर्शितस्तद्वदन्येऽपि'ख छ ठ थ फरष। गज ड द ब ल स । घ झ ढ ध भ व ह ।' इत्येते क्रमेणालिख्य पंचवर्गीयाः?] पंचप्रस्तारा दर्शनीयाः । एकैकस्मिन्प्रस्तारा(रे आ?)दौ अक्षरं दृष्ट्वा प्रस्तारे तदा(द)वलोक्याक्षरत्रय प्राप्तिः विज्ञा(जे)या, इति । कथं ?[प० १४६, पा.१] प्रश्नादौ अधिस्तिर्यग्मात्रा(त्र)मक्षरमवलोक्य 2 ऊर्द्धमात्रे ऊर्द्धगण्याक्षरं गृह्यते । यथा गौरियस्मिन् दृष्टे उपरिष्टात् स्वरसंख्यया एते त्रयाणां त्रयाणां दशमस्य दशमस्य [अ ?]धरत्वादौ ककारस्य गजविलुलितक्रमो यथा-तौ दौ, के, ए ऐ ओ औ अंअः इत्यादि । एवं सिंहेन विपर्ययः । अय(त्र?) मात्रयाधस्ताल्लाभः । तिर्थक्करणद्वयप्रयोगतो लाभो वक्तव्य इति । "जो उ सराण[प० १४६, पा०२]विभागं दंसेदी" तीता(तो!) गाथास्वरविभागो दर्शनो(शितः?) । पूर्वस्य प्रस्तारस्य किंचिद्विशेषेण लिख्यते-तिर्यय(ग्) द्वादश गृहाणि ऊर्द्धमास्तो (मष्टौ) द्रष्टव्यानीति।न्यासः-अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः। प्रथमा पंक्तिः। अस्याधस्तात्क का कि की कु कूके कै को कौ कं कःप०१४७, पा.१] । क। एषा द्वितीया । अस्याधस्तात्-चिची चुचूचे चै चो चौ चं चः। च चा। अस्याधस्तात्-टी टु टूटे टै टो टौ टं टः।[ट टा टि] | अस्याधःतु तू ते ते तो तौ तं तः। तता ति ती। अस्याधस्तात्-पूपे पै पो पौ पंपः । पपा पि पी पु । अस्याधस्तातू-ये यै यो यौयं यः, यया यि यी यु यू । अस्याधस्तात-शै शो शौ शंशः । [प०१४७, पा०२] (72) Jain Education Intemational Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा 256-259] प्रश्नव्याकरणाख्यं 57 [श शा शि शी शु शू शे] एवं विरच्य(च्या)क्षरग्रहणं सिंधा(हा)वलोकित-गजविलु(लि)तकरणद्वयन्यासेन ऊ धस्तियङमात्राकल्पनयाऽक्षरत्रयस्य पूर्ववत् / एवं पंच प्रस्तारान्या(ण्या)लिख्य- . (ख)नीयानि क ख ग घा' इत्यादिभिरपि वगैरिति / एवं स्वरविभागो दर्शितः // 255 // "एमेव वंजणाणं, विभावणो अदमो करणो"॥ [प० 148, पा० १]स च प्रथमस्वरपंक्तिरहितो लिख्यते-अत्रापि पंचवर्गीये पंचैव शेषक्रमः समानाक्षरग्रहणं चेति "दंसेति सवग्गक्खर-संजो' / गाथा / स्ववर्गाक्षरं संयोगकरणमुपरिष्टाद् ग्रन्थेनैवाभिधास्यति / लभते ककारो गुरुः / कोऽसौ ? स(स्व)वर्गमित्यादिना इति / "परवग्गक्खर" इति। तत्र संयोगोऽनेकधा [प० 148, पा०२] स्ववर्गसंयोगः, परवर्गसंयोगः, अद्धाक्रान्तसंयोगमि(ग इ)ति / अत्रैव ककारो लभत इति दर्शयिष्यति / एगादीया कमसो, एक्कोत्तरवटिया मुणेयचा / अधरेसु य आदेसा, एस समत्तो सरविभागो // 256 // इदानीं प्रागुपन्यस्तसप्तमस्वरविभागकरणचक्रव्यतिरिक्तविशेषाक्षरोपलब्ध्यर्थमाह-'एक्का(गा)दीया' इति / य एते द्वादश स्वराः / एते एकादिका एकोत्तरवृद्ध्याश्च(च) / स्थापना अत्र / [प०१४९, पा० 1] अपरे श्वा(चा)देशाः। अक्षरलब्धिरादेशः / वर्गलब्धिर्वा / न केवलमधरखरेपूत्तरस्वरेषु च / कथं ? अकारः प्रश्नादौ अनमिहतासंयुक्त अकारवच (रश्च') नवसंख्यो(ख्या)काकारं भित्त्वा अकार अष्टापगमे ककारमेव लभते। तन्मध्ये उकारः पंचसंख्यः तवर्ग लभते / एवं आकार(रो) द्विसंख्यचकारं लभते / अधस्तादशमं भित्त्वा अष्टाय(प)गमे च ककारमेव / मध्ये तु ऊकारी(रः) षट्(ष्ठ)पवर्ग लभते / एवं त्रयाणां [प० १४९,पा० 2] त्रयाणां प्राप्तिर्द्रष्टव्या / एवं स्वरविभागः / उक्तः सप्तमप्रस्तारः प्रपंचेनेति // 256 // उत्तरसु(स)राणुवलिओ, लहइ ककारो ककारमेवन्नं / अहरभिहओ खकार, सेसा पुवावरेणेकं // 257 // यदुक्तमादौ व्यंजनविभागाष्टमः करणमिति / तस्मादयं लघुतरः प्रयोगः / उत्तरखराः, के ? 'अइ एउ' एषामन्यतमानां ककारो युक्तः कवर्गे उत्तराक्षरं प्राप्नोति उत्तरानुवलितत्वात् / एवमन्येऽप्युत्तराक्षरा अनभिहि (ह)ता उत्तरस्वरयुक्ता उत्तरारं स्ववर्ग लभंते / अधरस्वराः, के 'आई ऐ ओ' इत्ये[प० १५०,पा.१] तेषामन्यतमेन ककारो युक्तः चवगै अधराक्षरं प्राप्नोति / शेषाः पूर्वाक्षरेणैकं लभन्ति / उत्तरानुवलितो(तः) अधरानुवलित इति पूर्वापरमुच्यते / एवमन्येऽप्यक्षरा द्रष्टव्याः // 257 // // व्यंजनविभागोऽष्टमः समाप्तः॥ बीओ पढमेण समं, गुरुओ चत्तारिमो तइज्जेण / सेसा सकायगरुया, वग्गे वग्गे भवे तिण्णि // 258 // द्वितीयोऽक्षरः प्रथमेन [प० 150, पा० 2] युक्तो गुरुर्भवति / यथा 'क(क्ख)। चतुर्थोऽक्षर- " स्तृतीयाक्षरेण युक्तो गुरुको यथा 'ग्घ' इति / शेषाः स्वकायगुरुणा(काः) 'वग्गे वग्गे हवई' तिण्णि वर्गे वर्ग त्रयस्त्रयो(यः) 'क ग्गड' इत्येष क्रमः प्रतिवर्गे द्रष्टव्यः / / 258 // अणुणासिया य जुज्जइ, आदिल्लचउक्कए सवग्गस्स / सत्तट्ठमो य कमसो, सक्का(का)यगरुआ मुणेयबा // 259 // नि. शा. 8 (73) Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् / [गाथा 260-262 ] अनुनासिका ऊरण नमाः, ते युज्यन्ते आधचतुष्केण वर्ग (स्ववर्गण?) यथा-ङ्कङ्क गछ। श्च ब्छ अब्झ। ण्ट ण्ठ ण्ड ण्ड। न्त न्थ न्द न्ध / म्प म्फम्ब म्भ / सप्तमो यकारः। अष्टमो(मः) शकारः / इत्येतौ स्व-स्वकायगुरु(रू) ज्ञेयौ / [प० 151, पा० 1] यथा 'य्य इश' इति // 259 // पढमो तदियं वग्गं, विदिओ य चउत्थयं चउत्थो य / पंचमओ पुण णिचं, चउत्थया यादए वग्गं // 260 // [50 151, पा० 2] इ। ई प्रथमवर्गस्तृतीयवर्गी(ग) तृतीयवर्ग(गों) द्वितीयवर्ग च प्राप्ततः 2 3 | 4 (प्राप्नोति)। द्वितीयो वर्गश्चतुर्थवर्ग लभते / चतुर्थः पंचमं प्राप्नोति / | ऊ ए ऐ पंचमो वर्गश्चतुर्थं प्राप्नोति / किमत्र कारणमित्यत्रोच्यते-च(ख?)कार" 5 6 7 8 स्याग्रतो यदा ककारो दृश्यते तदा तेन ककारेण खकारो(र) आलिंगित | ओ औ अं अः इत्येका (का) संख्या(ख्या) त्यक्त्वा खकार[:] ककारो [50 152, पा० 1] | 9 10 11 12 न भवति / गकारस्याग्रतो यदा खकारो दृश्यते तदा तेन खकारेणा. लिंगित इत्येकसंख्या(ख्या) त्यक्त्वा स गकार: खकारो भवति / घकारस्यापतो यदा खकारो दृश्यते तदा तेन खकारेणाभिधूमित इति द्वे संख्ये हसित्वा धकार[:] खकारो भवति / कारो / चकारेणाप्रतः स्थितेन यदा आलिंग्यते तदा एका(कां) संख्यां त्यक्त्वा डकारो घकारमापद्यते। एवमन्येषु वर्गष्वपि ये आलिंग्यन्ते अभिधूम्यन्ते वा आकारास्तेनैवाभिहितक्रमेण द्रष्टव्याः॥२६॥ // स्ववर्गसंयोगकरणं समाप्तम् // [प० 152, पा० 2] ॐाबा परवग्गक्खरगरुआ, पढमं पावंति अप्पणो वगं / अणुवलिता[?याभिहता, लभंति पुवावरेणेकं // 261 // परवर्गाक्ष]रगुरवः प्रथमं प्राप्नुवन्यात्मनो वर्ग इ(मि)ति / यः उपर्यक्षरः स आत्मवर्गा(ग)प्रतिबद्धाक्षरं लभसे। के ते प[र]वर्गाक्षराः ? ते उच्यते / 'स्त आद्य है' इत्येवमाद्या ज्ञेयाः / अनुवलितशब्दः आलिंगितपर्यायः / [50 153, पा० 1] खकारेण यदा ककार आलिंग्यते तदा आलिंगितत्वात् एका संख्या हृति(ह्रसित)त्वात् ककारः चकारत्वं प्राप्नोति / चवर्गप्रतिबद्धाक्षरं च लभते / घकार: खकारेण?अभिधूमयि(य)त्यभिधूमितत्वात् द्वे संख्ये 28 हसितत्वात् ] स प्य(घ)कारः खकारमापयते। खकारप्रतिबद्धाक्षरं च प्राप्नोत्येवमन्येऽपि / ड(ख)कारो जकारेणाप्रतो[व]स्थितेन [प० 153, पा० 2] दह्यते / दग्धे सति संख्यात्(...?)षष्ठखकार लभते / खकारप्रतिबद्धाक्षरं च प्राप्नोत्येवमन्येऽपि आलिंगिताऽभिधूमितदग्धाः स्ववर्गप्रतिबद्धाक्षरं प्रामवंति पूर्वा(व)पर्यायेणेति / आलिंगिताभिधूमितदग्धं च दर्शयन्ति // 261 // // परवर्गसंयोगकरणं समाप्तम् // सीहाविलोविउ(वलोइओ) पुणो, दुआदि कमसो बहुविया(हा?)देसो। संयो(जो)गवियप्पणं, पावंति [य] लोयणेणं वा // 262 // 'अइ ए ओ' इत्येतेह(तैह)स्वस्वरे()श्चतुर्भिर्युक्ताः ‘क च ट त प यशा'द्याः पंच वर्गाः सिंहावलोकितन्यायेन आत्मनो [प० 154, पा० 1] यः उपर्यक्षरोऽनन्तरं स(तं) प्राप्नुवन्ति / 'आई ए Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा 263-266 ] प्रभव्याकरणाख्यं औ' इत्येतेदी(तैर्दी)घस्वरैश्चतुर्भियुक्ताः क च ट त प य शा' द्याः पंच वर्गा गजविलुलितन्यायेन आत्मनोव(ऽध)स्ताद्यः अक्षरोऽनन्तरः तं प्राप्नुवन्ति / निदर्शनं च-ककारो हखखरयुक्तः अकारं. प्राप्नोति / चकारोऽपि ककारं प्राप्नोति / एवं सर्वत्र सिंहावलोकितन्यायेन द्रष्टव्यम् / दीर्घस्वरयुक्तः ककारश्चकारं प्राप्नोति / चकारो दीर्घस्वरयुक्तः टकारं प्राप्नोति / टकारोऽपि [तकारं प्राप्नोति / ] तकारोप्य(ऽपि)[पकारं] प्राप्नोत्येवं पंचवर्गप्रतिबद्धाक्षरा [प० 154, पा० 2] गजविलुलितन्यायेन / द्रष्टव्य(व्या) इति // 262 // पत्तो वि परं ठाणं, आइल्लं यं पुणो पलोएइ / सिंहावलोइकरणं, एयारसमं मुणेयत्वं // 263 // प्राप्नोति(प्तोऽपि) परं स्थानं तस्मात्परस्थानात् पूर्व यस्मादालोकयति तथाभिहितं सिंहावलोकितकरणं एकादशमं भवति / सिंहश्वातिक्रान्तं पश्यतीति / / 263 // // सिंहावलोकितकरणं समाप्तम् // [10 155. पा० 1] लोएइ पुवभणियं, करणो गयविलुलिओ महा भणिओ। सूरकरविपर(पवि?)ट्ठो, गउ व सरपाणियं सरए // 264 // लोलयति पूर्वोक्तं गजविलुलितमहाकरणोऽप्रिमं अक्षरं पश्यति स्व(सू)रकराहतो गज इव सरसिकाल(शरत्काल?) इव अग्रिममक्षरं पश्यति / लोलयत्यन्विषतीति वाक्यार्थः / / 264 // // चत्तारि मूलवत्थुणि, वह(हवं)ति म(ग)यविलुलियस्स करणस्स / सरवंजणेण [50 155, पा० 2] कमसो, सवग्ग-परवग्गजोए य // 265 // चत्वारि मूलवस्तूनि भवन्ति गजविलुलितस्य करण[स्य] / खरवस्तु, व्यञ्जनवस्तु / व्यञ्जनान्यक्षराणि / स्ववर्गसंयोगवस्तु, परवर्गसंयोग[व]स्त्विति // 265 // तत्थ सरवत्थु तिविहो, संकड-वियडा य मीसया चेव / पढमाण विवि(ति)य तहि(इ?)या, चरिमाणं आदिमा पक्खा // 266 // तत्र स्वरवस्तु त्रिविधः / संकटं, [प०१५६, पा० 1] विकटं, संकटविकटं चेति / प्रथमाः 'कच ट त पय शास्तै(ढि)तीयानां 'ख छ ठ थ फर पा'णामुपरिगतैः संयोगः / 'गजड द बल सा' 'घ झ ढध भ व हा'नामुपरिगतेस्व(तैश्च)संयोगः / चरिमा 'यण न मास्तैः सर्वेषामेवाक्षराणां उपरिगतैः संयोगश्चेति सूत्रम् // अथवाऽस्या गाथाया अन्यथा व्याख्या कृ(क्रि)यते"तत्थ सरवत्थुप० 156, पा० 2] तिविहो" इति।संकटाः 'अइ ए उ अं'। विकटाः 'आई ऊ / संकट-विकटाः 'ओऐऔ। पंचवर्गीयो(या) वर्गा अपि / प्रथम-तृतीयौ संकटौ। द्वितीयचतुर्थों विकटौ। पंचमः संकट-विकट इति // 'पढमा बिदियाण चरिमा' इत्यत्र स्वरेषु प्रथमद्वितीयौ 'अ आ', चरिमौ 'अं अः'। एषां तुल्यता। कथं ? अकारस्य अनुस्वारः सपक्षत्वात् संकट एव भवति / अकार-विसर्जनीयो द्वादशमः खपक्षः, अतो विकटोऽयम् / सपक्षता परस्परं मैत्री- 30 भाव इति // 266 // (75) Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् / [गाथा 267-270 ] आइल्लाणं दोण्हं, सबे वि सरा हवंति सरिपक्खा / [10 157, पा० 1] पंचम-चउत्थ-णवमा, होइं(हों)ति इकारस्स सरपक्खा // 267 // आद्यौ द्वौ स्वरौ 'अ आ' तयोः सर्वे खराः भवंति मित्राणि / पंचम उकारः, चतुर्थ ईकारः, नवम ओकारः / इत्येते त्रय इकारस्य मित्राणि // 267 // अट्ठम-दसमा दोणि वि, एते सत्तमसरस्स सरिपक्वा / एकारस-बारसमा, छट्ठो हवंति उकारसरिपक्खो(क्खा) // 268 // अष्टम ऐकारः, दशम औकारः / इत्येते द्वौ सप्तमस्वरस्य एकारस्य मित्राणि / एकादशमखर[ 'अ', द्वादशमखर] 'अ' षष्ठस्वर ओ(ऊ)कारः / एते त्रय(श्च) उकारस्य मित्राणि / ऐकारौकाराणं, दुविहा [50 157, पा० 2] दिट्ठी उ होइ नायबा / जइ उत्तराणुवलिया, लहंति तो संकडा एदे // 269 // ऐकारस्य औकारस्य च द्विविधा संज्ञा संकट(टा) चिकटा चेति / प्रयोजनमुपरिष्टाद्वक्ष्यति / 'अ इ एउ' इत्येते स्वराश्चत्वारः संकटसंज्ञाः / एतैरुप[रि]गतैः ‘क च ट त प य शा'द्याः पंचवर्गाक्षराः संकटसंज्ञा भवंति / एतैरेव संकटस्वरै प० 158, पा.१र्युक्तानां अक्षराणां विद्यमानाभिघाते शोधिते सति योऽक्षर उत्पद्यति संकट विधिना लभ्यत इति संकट॥ संज्ञा // 269 // अधरबलेण य वियडा, उत्तरअहरेण मिस्सया होति / अहरुत्तरेण वि(?)सेसं, लक्खेज बलाबलविसेसं // 270 // 'आई औ' इत्येते त्रयो विकटसंज्ञाः / एतैर्युक्ताः 'कच ट त प य शा'याः पंच [प० 158, पा. 2 ]वर्ग:(र्गाः?) संकटसंज्ञा भवन्ति / एतैरेव विकटस्वरैर्युक्तानां अक्षराणां विद्यमानाभिपाते ॥शोधिते सति योऽक्षरः प्रश्ने आकारयुक्तः स आलिंगितत्वात्स्वरसंख्यया द्वितीयवर्ग प्राप्नोति। यथा ककार आकारेणालिंगितो द्वितीयवर्गं प्राप्नोति / (यथा ककार आकारेणालिंगितो द्वितीयवर्ग प्राप्नोतीति।) {प० 159, पा० 1] तस्मिनप्यधराक्षरो(रा)नुवलितत्वादधराक्षरम् / स एव ककार इकारेणाभिधूमितो टवर्गमिश्रांतस्वरसंख्यया पवर्ग प्राप्नोति / तस्मिन्नप्यधरानुवलितत्वादधराक्षरम् / स एव ककार उकारयुक्तेन दह्यते / दग्धः स वर्गे मिश्रांतखरसंख्यया तवर्ग प्राप्नोति / तवर्ग 20 उत्तरानुवलितत्वादुत्तराक्षरम् / एभिः स्वरैस्तु(स्त्रि)भिरन्येऽप्यप० 159, पा०२]क्षराः पूर्वोक्तन्यायेन द्रष्टव्याः। 'ऊ ऐ औ' इत्येते त्रयः संकट-विकटसंज्ञाः / एतैर्युक्ताः पूर्ववर्गीयाः] पंच संकटविकटसंज्ञा भवन्ति / एतैः संकटविकटैयु(यु)क्तानां अक्षराणां अभिघाते शोधिते सति संकट-विकटप्रकारेण योऽन्योऽक्षरो लभ्यते स संकट-विकटसंज्ञः। आलिंगिताभिधूमितदग्ध-लक्षणवर्गप्राप्तिश्च पूर्वामिह (हि?)ता / लक्षयेत् बलाबलविशेषमिति / येऽक्षरा आलिंग्यन्तेऽभिधूम्यन्ते दह्यन्ते वा // तेषामा 50 160, पा० १]भिघातशुद्धानां या(यः) संख्याधिको भवति स बलीयान् तेनादेशः कार्यः // 27 // +लेखकप्रमादात आदर्श द्विरुक्तः पाठोऽयम् / (76) Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा 271-273 (1-8)] प्रश्नव्याकरणाख्यं जो य इकारो(रे) गमओ, इ(ई)कारम्मि वि वियाण सो चेव / जो ए(य उ?)कारे गमओ, क(ऊ)कारे हवइ सो चेव // 271 // इकारस्य ईकारस्य च द्वयोरस्ति प्रीतिस्तद्बहुले प्रश्ने 'प्रीतिमें भविष्यतीति?' पृच्छन्तो(तोऽसि प्रीतिरित्यादेश्यम् / ए(उ)कारस्य [ऊकारस्य च द्वयोरस्ति प्रीतिस्तद्बहुले प्रश्ने 'प्रीतिरनेन सह मे भविष्यतीति' चिन्ता(न्त)यतोऽस्ति प्रीतिरित्यादेश्यम् // 271 // [प० 160, पा०२] / जकारे जं वुत्तं, छट्टे एयारसे य बारसमे / होइ सरे तं सबं, सवत्थ बलाबलविसेसो // 272 // उकारस्य ऊकारेण अकारेण च सानुसारेण सविसर्गेण च सह प्रीतिः / उकाराधिके प्रश्ने एषां स्वराणामन्यतमे दृष्टे प्रीतिं पृच्छतोऽस्ति प्रीतिरिति वाच्यम् / बलाबलविशेषश्च द्रष्टव्यः। अनभिहतो अलियां (बलीयान) अभिहतो दुर्बलः। प्रथमो भेदः स्वरवस्तु // 272 // इदानी (प० 161, पा० 1] व्यंजनविभागकरणस्यादेशं कुर्वन्नाहजो चेव पुत्वभणिओ, संजोओ वंजणाण परि(य वि?)भाओ। सो चेव इहं सबो, गयविलुलियवत्थुए बीए // 273 // य एव पूर्वोक्तव्यंजनानां स्वराणां च संयोगविभागस्तस्याक्षरोत्पत्तौ उपरिष्टाद् वर्णयस्य(यिष्य)ति गजविलुलितन्यायेन / एवं द्वितीयो भेद(दो) व्यंजनविभाग उक्तः // 273 // लहति ककारो गरुओ, सवग्गय(ग्गिय?) खकारसंजुओ च-वग्गं / / अणुणासियसंजुत्तो, कमसो पावेइ ट-तवग्गं(ग्गे) // (1) लभति गकारो गरुओ, सयग्गय(ग्गिय?) घकारसंजुओ प-वग्गं / अणुणासियसंजुत्तो, कमसो पावेइ य-स-वग्गं(ग्गे)॥ लल(भ)ति चकारो गरुओ, [50 161, पा० 2] सवग्गयं छकारसंजुओ ट-वग्गं / अणुणासियसंजुत्तो, कमसो पावेइ त-प-वग्गे // लहइ जकारो गरुओ, ज(स)वग्गयं झकारसंजुओ [य]वग्गं / अणुणासियसंजुत्तो, कमसो पावेइ स-क-वग्गे // लहइ टकारो गरुओ, सवग्गयं ठकारसंजुओ त-वग्गं / अणुणासियसंजुत्तो, कमसो पावेइ प-य-वग्गे // लहइ डकारो गरुओ, सवग्गयं [50 162, पा० 1] ढकारसंजुओ स-वग्गं / अणुणासियसंजुत्तो, कमसो पावेइ क-च-वग्गे // लहइ चकारो गरुओ, सवग्गयं थकारसंजुओ प-वग्गं / अणुणासियसंजुत्तो, कमसो पावेइ य-स-बग्गे // लहइ दकारो गरुओ, सवग्गयं धयारसंजुओ क-वग्गं / अणुणासियसंजुत्तो, कमसो पावेइ च-ट-बग्गे // Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् / [ गाथा 273-(9-14) ] लहइ पकारो गरुओ, सवग्गयं [50 162, पा० 2] फकारसंजुओ य-वग्गं / अणुणासियसंजुत्तो, कमसो पावेइ स-क-वग्गे // लभइ य(ब)कारो गरुओ, सवग्गयं ह(भ)यारसंजुओ स(च) वग्गं / अणुणासियसंजुत्तो, कमसो पावेइ ट-त-वग्गे // (10) लहइ ष(य)कारो गरुओ, सवग्गयं रयारसंजुओ स-वग्गं / अणुणासियसंजुत्तो, कमसो पावेइ क-च-वग्गे // लहइ लकारो गरुओ, सवग्गयं वयारसंजुओ ट-वग्गं / अणुणासियसंजुत्तो, कमसो पावेइ त-प-वग्गे // लभइ स(श)कारो गरुओ, सवग्गयं स(ष)कारसंजुओ क-बग्गं / अणुणासियसंजुत्तो, कमसो पावेइ च-ट-बग्गे // लहइ सका[प० 163, पा० १)रो गरुओ, सवग्गयं हकारसंजुओ त-वग्गं / अणुणासियसंजुत्तो, कमसो पावेइ प-स(य)-वग्गे // चतुर्दशानामपि गाथानां स्ववर्गसंयोगवस्तुप्रदर्शकं प्रस्तारमुपदर्शयन्नाह - तिर्यकचतुर्दशगृहाणि, ऊर्द्व सप्त कृत्वा प्रथमा पंक्तिः / क, क, ख, च, क, ट, त, ग, ग, ग्घ, प, अ, य, स(श) // 1 // अस्याधस्तात-च, च, च्छ, द, श्च, त, प, ज, ज, ज्झ, य, अ, स(श) क // 2 // अस्याधः-ह, ट, ह, त, ण्ट, प, य, हु, ड, डू, स(श), ण्ड, क, च // 3 // [प. 163, पा० 2] अस्याधस्तात्-त्त, त, स्थ, प, न्त, य, स(श), 6, द, द्ध, क, न्द, च, ट // 4 // अस्याधः-प्य, प, फ, य, म्प, स(श), क, ब्ब, ब, भ, च, श्व(म्ब), ट, त॥१॥ अस्याधः-य्य, य, र्य, स(श), , क, च, ल, ल, ल्व, ट, लँ, त, प॥६॥ अस्याधः-इश, श, ष, क, स(0), च, ट, स्स, स, स्ह, त, सँ, प, य // 7 // यथा श्रुतिरेवाक्षरलब्धिरिति // [गाथाचतुर्दशकानुसारेण कोष्ठकमिदं स्थापितम्-] (78) Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. [गाथा 274-279] प्रश्रव्याकरणाख्यं एवं तु सभावत्था, लहंति अह अणुवलाभिघाएणं / दिट्ठा पुवावरओ, लहंति तो अंतरं वग्गं // 274 // एवं तु स्वभावत एव प्रस्तारेण लब्धिरुक्ता / प्रश्नाक्षराणामधरधातु(रानु?)वलितत्वोच्चाक्षर लक्षयेत् / उत्त[प० 164, पा० १]रान(नुवलितत्वाश्च आलिंगिताभिधूमितदग्धाच तमेवाक्षरं यथोक्तं यथा लक्षयेत् / पूर्व्या(?)क्रमेण पूर्वोक्ताभिघातसु(शु)द्धेन आलिंगितत्वादनन्तरं वर्ग लभते / / अभिधूमितत्वात् द्वितीयवर्गम् , दग्धत्वात् तृतीयं वर्ग यथा प्रामुवंति तथा पूर्वोक्तम् / स्वरवर्गाक्षरसंयोगवस्तु तृतीयम् // 274 // इदानीं चतुर्थो भेदः - [50 164, पा० 2] परवग्गक्खरगरुया, अ(ज)त्तियमित्तेहि पण्ह आइल्ला / ते सचे पत्तेयं, पढमं पावंति संठाणं // 275 // प्रश्नाक्षराणां मध्ये यावन्मात्राः परवर्गाक्षरगुरवो दृश्यन्ते तेषामुपरि अक्षरो यः स / / प्रत्येकं प्राप्नोत्यात्मनो वर्गम् / उत्तरानुवलितत्वात् उत्तरं, अधरानुवलितत्वादधरमिति // 275 / / सेसा सकायगरुया, सच्चे वि लहंति अप्पणो वग्गं / सेसाण वि एस कमो, सव(ब)त्थ बलाबलविसेसो // 276 // स्वकायगुरुव(रवः) सर्वे [प० 165, पा० 1] यथा प्राप्नुवन्त्यात्मनो वर्ग तथा उक्तमेव / शेषाणामेष क्रमः / शेषग्रहणेनालिंगिताभिधूमितदग्ध (ग्धा) भण्यन्ते / ते यथा स्व[व]गै प्रामु / वन्ति तथा पूर्वमेवोक्तम् / सर्वत्र वलाबलविशेषो द्रष्टव्यः / इत्यभिहन्ता बलीयानी(नि)ति // 276 // // चतुर्भेदं गजविलुलितं समाप्तम् // पण्हाइमसंखाए, जाणिज्जा तंमि वग्ग एकेकं / नामक्खरं तु लब्भइ, एवं से[से]सु वि कमेणं // 277 // प्रभादिमस्याक्षरस्य याऽनवि(भिहतस्य या संख्या तया नामा[५० 165, पा० २]क्षरसंख्या ज्ञेया / स एवानभिहतः स्ववर्गाक्षरं लभते / एवं येऽपि तत्राबलिष्ठा अभिहतास्तेऽपि स्ववर्गाक्षरं लभन्त एव // 277 // जत्थाढगाइरित्ता, हवंति तत्थऽट्टयं विसोहेत्ता। जं तत्थ हवइ सेसं, तं मिंद्रा(?)णामक्खरवग्गे // 278 // प्रश्नाक्षराणां निपतितानां यदा एभ्यो अक्षरेभ्योऽभि(ति)रिक्ता [अक्षरा भवन्ति तदा तेषां या संख्या साऽऽद्याक्षराष्टकमध्ये शोधयित्वा अष्टभिमा(र्भा)गमपहृत्य लब्धावसि (शि)ष्टाञ्च 2 द्वौ वर्गों लभ्येते / [प० 166, पा० १]कवर्गादिगणनया च तौ गण[यितव्यौ / उत्तराक्षरबहुले प्रश्ने . उत्तराक्षरो लभ्यते / अधराक्षराधिके प्रश्ने अधराक्षर इति // 278 // एवं तु सभावत्थे, कीरइ णामक्खराण उप्पत्ती / अणुवलिहा(या)भिहया वि य, पुवावरवग्ग एकेकं // 279 // (79) Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम्। [गाथा 280-283 ] प्रभाक्षराणां मध्ये ये अक्षरा अनभिहताः स्वभावस्था उच्यन्ते तैः स्वभावस्थैरात्मीयवर्गाणाम(र्गनामा)क्षराणामुत्पत्तिज्ञेया। कथं ? उत्तरा(र:) सन् उत्तराक्षरं प्राप्नोति, अधराक्षरोऽपि अधराक्षरम् / [प० 166, पा०२]अभिहतग्रहणेन आलिंगिताभिधूमितदग्धा मु(उ)च्यन्ते / तेष्वभिहतेषु अभिघातसंख्या शुद्धशुद्धशेषेषु यस्मिन् यस्मिन् वर्गे ते शुद्धशेषाः, तस्मिन् तस्मिन् वर्गाक्षराः प्रामुवन्ति / पूर्वापर्यं चालिंगिताभिधूमितदग्धलक्षणमेव संख्याकरणं नाम // 279 // अट्ठयवग्गरस भवे, गुणयारो सेसयाण एकेकं / परिहायंतं कमसो, [50 167, पा० 1] चरिमो एकेकओ सरिसो // 28 // स्वराणामष्टभिर्गुणाकारः / क ख ग घ ङ' सप्तभिर्गुणाकारः / 'च छ ज झा(झ) जां' पनिर्गुणाकारः / 'ट ठ ड ढा (ढ)णां' पंचभिर्गुणकारः / 'त थ द[ध] नां' चतुर्भिर्गुणकारः। " प फ ब भा(भ) मां' तृ(नि)भिर्गुणकारः / 'यरल वां' द्वाभ्यां गुणकारः / 'श ष स हा'नां एकै (के नै)व गुणाकारः / प्रश्नाक्षरस्वरसंख्यापिंडमेकीकृत्य प्रश्ना[५० 167, पा० २]क्षराणामादौ अक्षरो यस्तदुक्तवर्गसंख्यया 9 संगुण्याष्टाभिर्भागे कृते लब्धशेषा च कवर्गादिवर्गो ज्ञेयः / निदर्शनं यथा- तावत्प्रश्नाद्यक्षरः ककारवर्गप्रतिबद्धः / तत्प्रतिबद्धस्व(श्च) सप्तसंख्यागुणाकारः / तस्मात् प्रश्नाक्षरपिंडं सप्तभिर्गुणयेत् / [प० 168, पा० 1] यदा प्रभादौ स्वरो दृश्यते ततो(दो)क्त॥ स्वराष्टगुणकारेण प्रभाक्षरसंख्यापिंडं गुणयेत् / यदा प्रश्नाक्षरो हकारः तदा तद्वर्गप्रतिबद्धैकसंख्यया प्रश्नाक्षरसंख्यापिंडं गुणयेत् / एवमन्येषामपि प्रश्नाक्षराणामुक्तगुणकारेण प्रश्नाक्षरसंख्यापिंडं गुणयित्वा [त]द्भागमाहरेत् / प्रसंगेनोक्तमनु(मु)[प० 168, पा० 2 ]मेवार्थमुपरि गाथया पुनर्वर्णयिष्यति // 28 // पण्हख(क्ख)रा उ सबे, आइम-गुणकारसंगुणा काउं। वग्गट्ठएण विभाए, सेसाण(णा)मक्खरुप(प्प)त्ती // 281 // प्रभाक्षराणां निपतितानां यदादौ उक्तस्वराष्टगुणकारेण गुणयेत् / सर्व-प्रश्नाक्षरसंख्यापिंड (डे) यदा आदौ स्वरा(रो) नास्ति तदा आद्यक्षरस्य संबंधी ओ(यो) वर्गः तस्य गुणकारः तेन गुणयेत् / अष्टभिः भागेऽपहृते ल(ब्धा)वसि(शिष्टा(ष्टः) च-वर्गो शेयः। ये वर्गा लब्धास्तेषामुत्तराधरक्रमेण अक्षरोत्पत्तिइँया / / 281 // [प० 169, पा० 1] पत्तेयं पत्तेयं, एवं पण्हक्खरेसु सवेसु / णियगुणकार(रे?) गुणिए, अट्ठविहि(ह)त्ते हवइ वग्गो // 282 // प्रश्नाक्षरपिंडसंख्यामुक्तनिजगुणाकारगुणितं(तां) भाजयित्वा अष्टाभिर्यल्लब्धं तस्य शेषाञ्च पूर्वं तद्वर्गो ज्ञेयः / पूर्वगाथाया(यां?) नितरामेतद्[वि.]वृत्तं न पुनः विस्तरेणाख्यातम् / / 282 // चिंताए मुट्ठीए, णामे णक्खत्त सुमुणि(मिण)संखाए / अट्ठविभाए छेत्ते, काले लेहक्खरेसुं च // 283 // चिंतायां मुष्टौ नाम्नि नक्षत्रे स्वप्ने चाद्यक्षरसंख्यया नामाक्षरसंख्या ज्ञेया। [50 169, पा० 2] अष्टाभिर्भागे / 'अष्टविभागे क्षेत्रे' इत्येतदुच्यते - पूर्वाऽऽग्नेयी याम्या नैर्ऋती वारुणी वायव्या कौबेरी ऐशानी - इत्यष्टविभागं क्षेत्रम् / तत्पूर्वविहितप्रक्रमेणा(ण) कालप्रमाणं वक्तव्यम् / लेखाक्षराश्च प्रश्नाक्षरैः पूर्वाभिह (हि)तक्रमेणैव विज्ञेयाः / / 283 // (80) Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 65 [गाथा 284-289] प्रश्नव्याकरणाख्यं अण्णेसु एवमाइसु, कजेसु जहट्ठि(च्छि ?)एसु सबेसु / गुणकारं काऊणं, अट्ठाप० 170, पा० 1 ]विहत्ते हवइ इच्छा // 284 // अन्येष्वेवमादिषु कार्येषु यथेप्सितेषु प्रभाक्षरसंख्यापिंडमाद्यक्षरवर्गाक्षरसंख्यया गुणयित्वा अष्टविभक्ते वर्गो लभ्यते / तमेव पूर्वोक्तमर्थं वर्णितवान् // 284 // ॥गुणाकारप्रकरणं समाप्तम् // पंचण्ह वि वग्गाणं, जस्स य वग्गस्स पण्हमादीए / वग्गक्खरं पईसइ, तंमि हु.णामक्खरं [प० 170, पा० 2] वग्गे // 285 // पंचानामपि वर्गाणां क च ट त प य शा'द्यानां यस्य वर्गस्य प्रश्नादौ अक्षरोऽनभिहतो दृश्यते तस्मिन् वर्ग एको नामाक्षरो लभ्यते // 285 // एवं तु सहावत्थे, बलाबल-विसेसओ जहा पुवं / एवं विपक्ख(क)राणं, गमओ संपक्ख(क)राणं च // 286 // स्वभावस्थाः प्रश्नाक्षरा अनभिहतास्तेषु बलाबलविशेषेण यस्मिन् प० 171, पा० 1] वर्गे ते अक्षराः प्रतिबद्धास्तान वर्गान् प्रति लभन्ते / विपक्ख(क)राः, के ? अधराक्षराः / संपत्कराश्चोत्तराक्षराः / उत्तरैरुत्तराक्षरा लभ्यन्ते / अधराक्षरैरधराक्षरा इति // 286 // वग्गक्खरंमि दिढे, तत्तो वग्गक्खर(रा) पवत(त्त)न्ति / / पढमं तइयं छटुं, नवमं च तहक्खरं जाणे // 287 // वर्गाक्षरा इति / त एव प्रश्नाक्षरा उच्यन्ते / तेभ्यः प्रभाक्षरेभ्यः वर्गा(५० 171, पा०२/क्षराणामुत्पत्तिज्ञेया। ये वा प्रथम-तृतीय-षष्ठ-नवम-प्रश्नाक्षरा अनभिहता भवन्ति तदा ते स्ववर्गप्रतिबद्धाक्षरं प्रामुवन्ति // 287 // // उत्तराधरानी(णी)ति विभागप्रकरणं समाप्तम् // 0000 णामक्खराण एसा, पयडी णामाण चेव य पहाणा / तह करणमाइयावि य, पंच य नामा भवे इत्थ // 288 // नामाक्षराणामेष सभावो वर्णितप्रधानः। तथा करणमातृका](प्र)हणेन पंचचत्वारिंशदक्षरा भण्यन्ते / तेषामपि पंचभिः प्रकारैः अक्षरा लभ्यन्ते आलिंगिताभिधूमितदग्धोत्तराधरैः॥२८८॥ णवमाप० 172, पा० 1 8मेसु एकेकयं तु एवं उरेसु(रस्स ?)संठाणं / एमेव य कंठाणं, सत्तट्ठमएहि सह यो(जो)गो // 289 // उरस्य (स्याः), कंठ्याः, जिह्वामूलीयाः, तालव्याः, [मूर्द्धतालव्याः 1], दंत्याः, उ(ओ)च्या, अनुनासिकाः, मूर्द्धन्या इति * नष स्थानानि वर्णानाम् / तत्र नामान्या(?)मूर्धन्याः, तेषामन्यतम आलिंगितः यदा तदा अनुनासिकानां मध्ये अक्षरं लभति / अनुनासिकानामन्यतम आलिंगित नि० शा०९ (81) Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम्। [गाथा 290-294 ] ओष्ठा(ठ्या)नां मध्येऽक्षरं लभते / ओष्ठा(ट्या)नामन्यतम आलिंगितः, दिन्त्यानां मध्येऽक्षरं लभते ?] दन्त्यानामन्यतम आलिंगितः मूर्द्धतालव्यानां मध्येऽक्षरं लभते / मूर्धतालव्यानामन्यतम आलिंगितः तालव्यानां मध्य प० १७२,पा० २]ऽक्षरं लभते / उरस्यानामन्यतम आलिंगितः मूर्धन्यानां मध्येऽक्षरं लभते // 289 // पंचम-चउत्थयाणं, जीहामूलेहि होइ सह जोओ। तालवाणं जोगो, पढम-तइज्जेसु दोसुं पि // 290 // मूर्धन्यानामन्यतम अभिधूमितः मूर्द्धतालव्यानां मध्येऽक्षरं लभते / अनुनासिकानामन्यतम अभिधूमितः दन्त्यानां मध्येऽक्षरं लभते / ओष्ठ्यानामन्यतम अभिधूमितः मूर्द्धतालव्यानां मध्ये प०१५३, पा.१]ऽक्षरं लभते / दंत्यानामन्यतम अभिधूमितः तालव्यानां मध्येऽक्षरं लभते। " मूर्द्धतालव्यानामन्यतमः अभिहतः जिह्वामूलीयानां मध्येऽक्षरं लभते / तालव्या अभिधूमिताः कंठ्यानां मध्येऽक्षरं प्राप्नुवन्ति / जिह्वामूलीया [अ]भिधूमिता उरस्यानां मध्येऽक्षरं प्राप्नुवन्ति / कंठ्यानामन्यतम अभिधूमित(तो) मूर्द्धन्यानां मध्येऽक्षरं लभते / उरस्यानामन्यतम अभिधूमित [प०१५३, पा०२]आनुनासिकानां मध्येऽक्षरं प्राप्नोति / उत्तरा उत्तरमेव, अधरा त्व(स्त्व)धरमे(३)ति क्रममंगीकृत्य स्या(अस्मा ?)भिरुक्ता नु(न ?)गाथानुरूपमिति // 290 // बि-तिय-चउत्थेहि समं, संजोगो होइ मुद्धतालाणं / पंचम-चउत्थएणं, जोगो वग्गाण दन्तेहिं // 291 // मूर्धन्यानामन्यतमो दग्धो दन्यानां मध्येऽक्षरं प्राप्नोति / अनुनासिकानामन्यतमः [प० 174, पा० 1] दग्धो मूर्धन्यानां मध्येऽक्षरं प्राप्नोति / ओष्ठ्यानामन्यतमो दग्धः तालव्यानां मध्येऽक्षरं प्राप्नोति / दन्त्यानामन्यतमो दग्धः जिह्वामूलीयानां मध्येऽक्षरं लभते / मूर्द्धतालव्या॥ नामन्यतमो दग्धः कंठ्यानां मध्येऽक्षरं लभते / तालव्यानामन्यतमो दग्ध उरस्यानां मध्येऽक्षरं लभते / जिह्वामूलीयानामन्यतमो दग्धः [प० 174, पा० 2] मूर्धन्यानां मध्येऽक्षरं लभते / कंठ्यानामन्यतमो दग्धः अनुनासिकानां मध्येऽक्षरं लभते / उरस्यानामन्यतमो दग्धः ओष्ठ्यानां मध्ये. ऽक्षरं लभते / उत्तराक्षरैरुत्तराणि लभ्यन्ते / अधराक्षरैश्चा[धरा]क्षराणि[इति] क्रममंगीकृत्यो. तम् / न गा[था]नुरूपम् // 291 // उहाणं पुण यो(जो गो, पंचम-छठेहि होइ वग्गेहिं / छठेण सत्तमेणं, जोगो अणुणासियाणं च // 292 // क्रममंगीकृत्य यदभिह (हि)तं तथैव व्याख्यानं अर्थतो गाथेयमिति न वृत्ता(विवृता) // 292 // सत्तट्ठमेहि दोसु वि, मूढणा(मुद्धण्णा?)णं [प० 175, पा. 1] तहेव सो यो(जो गो। वग्गे वग्गे एवं, तिण्णि हु णामक्खरा पढमे // 293 // आलिंगितत्वादेकमक्षरं लभते / अभिधूमितत्वाद् द्वितीयं, दग्धत्वात्तृतीयमक्षरमिति / एषायाम(एषोऽ?)पि गाथार्थः व्याख्यातः / अतो न विवृत इति // 293 // सो(सा)हाविहा य एवं, पयडीए पढमओ हवइ णामं / उत्तरमहरचउक्के, बलाबलविसेसओ बिइए // 294 // (82) Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा 295-297] प्रश्नव्याकरणाख्यं प्रभाक्षराणां मध्ये येऽक्षरा अनभिहतास्ते स्वभावतः प्राप्नुवन्ति आत्मवर्गस्तै (गै तै)नामनिर्देशः कार्यः। उत्तरच[५.१७५,पा० २]तुष्क इति 'अचत या' निर्दिश्यन्ते / अधरचतुष्क इति. कचटतपय शा (कटप शा)नां' निर्देशः। 'अ च त या'नामन्यतमस्य 'कट पशा'नामन्यतमोऽमतो यदा भवति तदा स्ववर्गप्रतिबद्धाक्षरं प्राप्नोति / यदा 'कट पशा'नामन्यतमस्य 'अचत या'नामन्यतम(मा)क्षरोऽप्रतो भवति तदा स्ववर्गप्रतिबद्धाक्षरं लभते // 294 // ॥स्ववर्गप्रकरणं समाप्तम् // मूलस्सरा सवग्गे, एक जुत्ता लभंति सट्ठाणोणे)। [50 176, पा.१] परवग्गक्खरगरुजुत्ता, बितियं च अणंतरं अहरं // 295 // मूलस्वराः? / के तेत्रियः। तैर्युक्ताः प्रश्ने वणनमा' रिलषाः एषामेव मध्येऽन्यतमाक्षरं लभते। मूलवर्गप्रतिबद्धत्वात् / पंचमवर्गः स्ववर्गो मूलस्वराणाम्, शेषाः परवर्गाश्चत्वारः, // तैर्युक्तास्त एव मूलस्वराः / येनाक्षरेण युक्तस्तस्याक्षरस्यानंतरो यो वर्गोऽधस्तद्वर्गप्रतिबद्धमेवाक्षरं प्राप्नुवंति // 295 // उत्तरे(र)वग्गे एकं, बीयं पुण होइ जत्थ संजुत्ता / अहरंमि लभे तइयं, दुविहा दिट्ठी उ आकारे // 296 // [50 156, पा० 2] दृष्टिप्रयोगसंयुक्तेन असंयुक्तेन च आकारेण एवमुपरिप्रयोगेष्वपि अक्षरलब्धि[:] विधा / भवतीति / उत्तरैवगै: 'कच ट त पय शाः, गज ड द बल साश्च / एषामन्यतमाक्षरस्योपरिगते मूलखर अनंतरमधोवर्ग प्रामोति / उदाहरणम् - ककारस्योपरिगतो मूलखरः चवर्ग प्राप्नोति / चकारस्योपरिगतः मूलस्वरः [प० 177, पा.१] च(ट)वर्ग प्राप्नोति / टवर्गस्योपरिगतो मूलस्वरः तवर्ग प्राप्नोति / एवमन्येष्वपि द्रष्टव्याः। एषामेव प्रथम-तृतीय-वर्गाक्षराणां प्रश्नायां यदप्रतो मूलखरोऽसंयुक्तो यस्याग्रतो व्यवस्थितस्तस्यैवाक्षरस्य पूर्वस्य संबंधिवर्ग प्राप्नोति / एवं " द्वितीय-चतुर्थवर्गाक्षराणां अग्रतो(तः) स्थिता मूलखरा असंयुक्तास्तृतीयवा प० 177, पा० 2 मतः प्रामुवंति / यथा खकारस्यापतो प्य(व्य)वस्थितो मूलस्वर[:] टवर्ग प्राप्नोति / छकारस्याप्रतो व्यवस्थितो मूलस्वर द्वितीयवर्ग प्राप्नोति / एवमन्येऽपि द्रष्टव्याः। आकाराव(र: क)कारस्योपरिगत आकारः तस्याधोऽनंतरं द्वितीयवर्ग प्राप्नोति / तस्य द्वितीयस्य वर्गस्याधराक्षरमनंतर लभते / यथा ककारस्योप (प०१५८,पा० 1] रिगतः अकारश्चवर्ग प्राप्नोति / चवर्गेऽप्यधराक्षरं / प्रामोति / एवं चकारस्योपरिगतः आकारः टवर्ग लभते / अत्राप्यधराक्षरम् / एवमन्यत्रापि / एवं ककारस्योपरिगतः स्थितः अकारः चकारमेव लभ्य(भ)ते / तथा अधराक्षरोपरिगत सच वा(मा?)कारोम(5)नंतर द्वितीयवर्ग प्राप्नोति / तस्या(स्य) द्वितीयवर्गानंतरमेवाधराक्षर (प. 178, पा० २]प्राप्नोति / एवमनंतरोऽप्यसंयुक्तः / उदाहरणं यथा-पकारस्योपरिगत आकार: ककारवर्गेऽप्यधराक्षरं प्राप्नोति / एवमन्येऽपि द्रष्टव्याः // 296 // एवत्तु(न्तु) अहरवग्गे, एक बितियं तु जत्थ संजुत्ता / धातुस्सराण एवं, दुविहा दिट्ठी उ पयडीए // 297 // (83) Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुउनाम निमित्तशास्त्रम्। [गाथा 298-301] द्वितीय-चतुर्थवर्गयोरधरयोयें अक्षरा धातुस्वरयुक्तास्ते अधोवर्ग द्वितीयानंतरं द्वितीयवर्ग प्रामवन्ति / यथा खकार उकारेण जकारेण वा युक्तः जकारं प्राप्नोत्येवमन्येऽपि द्रष्टव्याः / तयोरेव धातुस्वरयोरन्यतरो यदाऽधराक्षराणां अग्रतोपि० 179, पा० १भवत्यसंयुक्तः, तदा तमेवाक्षरं प्राप्नोति / यथा खकारस्याग्रतो जकारदृष्टः खकारं लभते / द्विविधा दृष्टिरिति प्रयोग [उच्यते // 297 // हस्सस(स्स)रा य भवे(सवग्गे?), एक(क) तु लभंति जत्थ संजुत्ता। बितीयवग्गे तब(सव)ग्गं, लभति अहरेण पढमित्तेल्लेि?) // 298 // हखस्वराश्चत्वारः 'अ इ एउ' / 'क च ट त प य शा'नां ग ज ड द ब ल सा'नां चान्यतमाक्षरे[ग] युक्ताः स्ववर्ग फलं प्राप्नुवंति / यथा ककार एकारेण युक्तः ककारं प्राप्नोत्येवमन्येऽप्यक्षरा स्ववर्ग // प्रामुवन्ति / संयुक्तासंयुक्तैस्तुल्या प्राप्तिः। द्वितीयवर्गाक्षराणां 'ख छ ठ थ फरषाणां अन्यतमा[प० 179, पा• २]क्षरो यथा(दा)न्यतमहखस्वरयुक्तः तदाधस्तृतीयवर्ग प्राप्नोति / यथा खकारः चतुर्थं 'अ इ एउ' अन्यतमेन युक्तः तृतीयवर्गं प्राप्नोति / एवं वद(?)प्युत्तरानुवलितत्वादुत्तराक्षरं प्राप्नुवन्ति / 'कट' वर्गे च तृतीयम् / एवमन्यत्रापि // 298 // // व्यंजनखरप्रकरणं समाप्तम् // जीया(हा)मूलियकंठाइसंजुओ लहइ तिण्णि उ हकारो। उत्तरप[य]डिचउक्के, एकं दो दोसु चरिमेसु // 299 // 'अ इ एउ' इत्येते चत्वारः कंठ्याः / 'क ख ग घा' जिह्वामूलीयाश्चत्वारः / एषामन्यतमाक्षरो अन्यतरं कंठ्यस्वरयुक्तजिह्वामूली[प० 180, पा० १]यानां मध्येऽक्षरं प्राप्नोत्युत्तराणां(नु) वलि तत्वात् / उत्तरं उत्तरप्रकृतिचतुष्कग्रहणेन 'अचत या' उच्यन्ते / तेषां चतुर्णा अन्यतमोऽक्षरः, // “अं अः एतौ चरिमौ अनयोरन्यतरेण युक्तस्तमेव युक्ताक्षरं लभते / यथा 'अं अनेन युक्ते चकारे सति चकार एव लभ्यते / 'अ' अनेन युक्ते चकारो लभ्यते / एवमन्येऽपि द्रष्टव्याः ! 'लब्भइ तिण्णि उ हकारो' तृतीये वर्गे लभतीत्यर्थः जिह्वामूलीयैरिति // 299 // एमेव सेसयासु वि, दोसु(सु) दोसं(सु) तु जासु संज्जोजो(जोगो)। पयडीसु तासु एसो, हवइ हकारस्स [प० 180, पा० 2 ]अहिलासो॥३०॥ 4 एवं 'कटप शा'श्चत्वारः ककारन्टकारावुत्तरौ द्वौ पकार-शकारावधरौ तेषामन्यतमाक्षरोऽन्यात]मेन चरिमेण वरेण युक्तो येन युक्तः स चिर(चरि)मः तमेव(वा)क्षरं लभते / सविसर्गो हकारः सानुस्खारो वा आत्मानमेव लभते स्वभावात् // 300 // उत्तरपयडीसु एकं(ग), लहंति जामुं(सु) च संजुया तासु / एकेक्कमेव कंठा, उट्ठाणं उवरिमि(मे) जाव // 301 // // वियेन(पर्येण) तु यो(यौ)वर्गश्च(च)रिमौ 'अं अः' / ओष्ठ्यानां दंत्यानां मूर्द्धतालव्यानां वाऽन्यतमोऽक्षर उत्तरवराणां चतुर्णामन्यतमेन युक्तस्तमेवाक्षरं लभते / उत्तरस्वराः 'अ इ ए ओ'। [प० १८१,पा.१] // 301 // (84) Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा 302-306] प्रभव्याकरणाख्यं अहरासु लभे एकं, एकेकं चेव जासु जं जुज्जो / अहरपयडीसु चउसु वि, दंतादी जाव सुद्धाहा (मुद्दण्णा ?) // 302 // दत्यानामोष्ठ्यानामनुनासिकानां मूर्द्धन्यानां मध्येऽधराक्षरो वाऽधरखराः 'आई ऐ औं एषां चतुर्णामन्यतमेन युक्तोऽधराक्षरोऽधराक्षरमेव लभते / उत्तरोऽप्येषां दंत्यादीनां मध्ये एतैरेवाधराधरस्वरैर्यदा युक्तो(क्त)स्तदा अधराक्षरमेव लभन्ते(ते) // 302 // ॥खभावप्रकृतिस्समाप्ता // पढमसरा आइल्ला, तिण्णि वि उट्ठा य हो(हों)ति पयडीओ। दोसुत्तरपयडीसुं, दोन्नि य सो अक्खरे लहइ // 303 // प्रथा 10 181, पा० २]मस्वरा आद्यास्त्रयः 'अआइ' ओष्ठ्याक्षरैः सार्द्धमेषां स्वराणां मध्ये अकार इकारश्च द्वावुत्तरौ अ(आ)कारोऽधरः / ओष्ठ्याक्षराणां उत्तरयोरन्यतरो यदा भवत्य-" प्रतः, तदा उत्तराक्षरं प्राप्नोति / एषां मध्ये ओष्ठ्याक्षराणामन्यतमस्याप्रतो दृष्ट आकारोऽधरस्तेषां मध्येऽधराक्षरमेव प्राप्नोति // 303 // [50 182, पा० 1] अका(उत्त?)रसर(रा ?)उ कंठा, दोण्णि वि चरिमा हवंति पयडीए / एवं एस विसग्गो, तिण्णि हु नामक्खरे लहइ // 304 // कंठ्या उत्तरखराः- 'अ इ ए ओ' चत्वारः / तेषामनुस्वारेण अकारेण सविसर्गेण च सह // प्रीतिः / एवमेष (त्रि)संख्यः अकारः तृ(त्रि)नामाक्षरं प्रामोत्येतथो(चो)परिगाथया व्याख्यास्यति // 304 // अवस(धरु ?)त्तरासु एकेकयं तु एकं च ख(ल ?)भइ मिस्सासु / पंचम-छट्ठा [50 182, पा० 2] तह सत्तमा य मो तइउ(?)पयडी // 305 // प्रश्ने यदा अधरवर्गों द्वौ अधरौ द्वितीयवर्गाक्षराणां यदा प्रभे 'ख छ ठ थ फरषा' स्ववर्गा- " क्षराणां चांतरद्वौ दृश्येते तदा तयोरन्तरोऽक्षरो लभ्यते / यथा खकारस्याग्रतः चकारोऽवस्थितः। एवमन्यत्रापि / तथा उत्तरेषु प्रथमवर्गाक्षराणां क च ट त पय शा'नां तृतीयवर्णाक्षराणां च 'गजडदबल सा'नां यदा प्रों द्वावक्षरावनंतरा वा द्वौ दृश्येते तदाऽनयोरेको लभ्यते / यथा ककारस्यापतो गकारः। एवमन्यत्रापि / एवं च अधरोत्तरं लभत इति / उक्ता एव मिश्रा स्थितिः। यदा प्रश्ने एक उत्तरः आद्यः तस्याप्रतोऽधरोऽथवाऽधर आद्यः (तस्यापतोऽधरोऽथवाधर , आधः) तस्याग्रत उत्तरस्तदाभिघाते [प० १८३,पा० 1] शुद्धे सति द्वयोरक्षरयोर्यों बलवान् [स] लभ्यते एक एव / पंचम उकारः, षष्ठ ऊकारः, सप्तम एकारः, इत्येतेषां त्रयाणां इकारेण सह प्रीतिकृति(प्रकृति)रिति प्रीतिरुच्यते // 305 // कंठाअ(s)गुणासि उव्य(? ट्ठा), तिण्णि वि तइयस्स सो लहइ (3) / दोसुत्तर पयडीसुं, एक अहरासु तह जाण // 306 // 1 मूलादर्श द्विवारं लिखितोऽयं पाठः। 2 आदर्श 'सत्तमाय मीयमा तहउ' इति पाठः / (85) Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम्। [गाथा 305-311] अकारस्य एकारस्य उकारस्य वा कंठ(व्य)स्य यदाऽप्रतोऽनंतरं इकारो दृश्यते, तदा तमेव पूर्वखरमवाप्नोति / अनुनासिकानां कबणन मानां ओष्ठ्यानां 'फय फवना (ऐफ ब भा) नां च एषामन्यतमस्योपरिगत इंकारस्तमेवाक्षरं लभते / प्रभोत्तरप्रकृतिरुक्ता / प्रकृतिशब्दो मैत्रीपर्यायः / 'एकं अधरासु जानीह(हि)' इत्येतदुपरिष्टा[त् ] व्याख्यास्यति / / 306 // ईका 50 183, पा० 2 रस्स चउत्था, मुद्दहा(खण्णा ?) सेसया जहा तइए। अक्खरलंभो जो उत्तरासु सो चेव अहरासु // 307 // एकारस्य मूर्द्धन्या(न्य)स्यामतः स्थित ईफारे(र) ऐकार लभते / औकारो(रस्य?)मूर्धन्यस्यामतोऽवस्थित ईकार औकारमेव प्राप्नोति / 'रल षा'ना(णां) मूर्धन्यानामन्यतमस्योपरिगतः ईकारस्तमेवाक्षरं प्राप्नोति / ईकारस्य यथाऽक्षरलाभ उक्तः,[प० 184, पा० १]एवं इकारस्याप्यधरप्रकृतेरुक्तः // 30 // जा ईकारे पयडी, चउरो सा चेव होइ उ(य?) उकारे / अक्खरलंभो जो पंचमस्स सो चेव एयस्स // 308 // चतुर्थस्य ईकारस्य उकारेण सह प्रीतिः। प्रीतिशब्दः खभावपर्यायः / ई ऐ औ' इत्येतेषां व(त्रयाणां अन्यतमस्यामतोऽनंतरस्थित उकारस्तमेव पूर्वस्वरं लभते / [ल?]षा' णामन्यतमस्था(स्य) यस्याधोपि० 184, पा० २]युक्त उकारस्तमेव लभते / पंचम उकारो यथाक्षरं लभते इकारोऽपि तथैव प्राप्नोति // 308 // जीहामूलियकंठा, तालबाणुणासिया य एकारे / अक्खरलंभो तइए, जो वि य सो चेव इहयं पि // 309 // जिह्वामूलीयानां कंठ्यानां तालव्यानामनुनासिकानां चान्यतमाक्षर एकारेण युक्तः उपरिगतेन तमेवाक्षरं एकारः प्राप्नोति / कंठा(व्या)नामपि स्वराणां अन्यतमस्यानंतरमनतोऽवस्थित " एकारस्तमेव पूर्वखरं लभते / एकारेण योऽक्षरलाभः स उक्तः / ऐकारेण वक्ष्यति // 309 // अधर(उर)कंठोट्ठा दंता, मुद्ध(खण्ण)गुणासिया[५० 185, पा० 1 ]य अट्ठमए। अक्खरलंभं इकं, तं पि य अहराहरे लहइ // 31 // उरस्यानां कंठ्यानां ओष्ठ्यानां दंत्यानां मूर्धन्यानां अनुनासिकानां चान्यतमाधर(राक्षर ऐकारेण युक्तोऽधराक्षरं प्राप्नोति / उत्तराक्षरोऽप्येषां मध्ये ऐकारेण युक्तोऽधराक्षरमेव प्राप्नोति / / एषां मध्ये ये स्वराते(स्ते)षामन्यतमस्यामता(तः) स्थित ऐकारस्तमेव खरमाप्नोति // 310 // जीहामूलियकंठा, उट्ठा अणुणासिया य ऐकारे / अक्खरलंभ एसो, लहइ तइजस्स गमणेणं // 311 // जिह्वामूलीयाः 'च छ ज झाः' / कंठ्या 'अ इ उ ए / औष्ट्या [50 185, पा० 2 ] ऐ फब भाः। अनुनासिका अणनमा'। एषामन्यतमस्य यस्योपरिगत ऐकारस्तमेवाक्षरं लभते / स्वराणा“मपि यस्याग्रतोऽनंतरमवस्थिस्तमेव पूर्वखरं लभते / यथा तृतीय इकारो उकारमवाप्नोति / उकारोऽपि तथैवेति // 311 // (86) Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा 312-316 ] प्रमव्याकरणाख्यं मुद्धणुणासियकंठा, तालवा मुद्धतालदंतोट्ठा / दस[म]सरे पयडीओ,[५० 186, पा० 1] अक्खरलंभं जहम्मा(ठुम?)ए॥३१२॥ मूर्धन्यानुनासिककंठ(व्य)तालव्य-दंतोष्ठाः(त्यौष्ट्याः) / तेषामन्यतमोऽधराक्षरस्योपरिगतः पशमस्वरस्तमेवाक्षरं लभते / उत्तराक्षरोपरिगतः उकारोऽधराक्षरमेव लभते / एतत्प्रतिबद्धस्वराणां 'आ ई ऐ' अन्यतमस्याग्रतो संच(ऽनन्त)रमवस्थित औकार[:] पूर्वस्वरं लभते / यथाष्टमा प० 186, पा०२] / ऐकारोऽक्षरं लभते / एवमौकारोऽपीति // 312 // मोत्तुं पंचमपयडी, एकारसमस सेसया अट्ठ। एकेक दंतोडे, मुद्धण्णे अक्खरे एकं // 313 // उरस्याः कंठ्याः जिह्वामूलीयाः तालव्या मूर्द्धतालव्या दंत्या औष्ट्या मूर्धन्याः / एषां अष्टानां अन्यतमोऽक्षर एकादशमः(श?)स्वरेण युक्तः तमेवाक्षरं लभते / (एषामष्टानां यः / / [प० 187, पा० 1] एकादशस्वरेण युक्तः तमेवाक्षरं लभते / ) एषामष्टानां य एकादशखरेण युक्त स एव लभ्यत इति // 313 // जो हका(का)रे म(ग)मओ, पुह(बुत्तो सो इहं विसगंमि / एयस्स णविर(वरि ?)पयडी, संखा वि य तत्तिया चेव // 314 // अकारः सानुस्वारः यथा हर(?)कार प्राप्नुवन्ति(प्राप्नोति)। एवं हकार[:] सविसर्ग-। हकारमेव प्राप्नोति / द्वादशानां [प० 187, पा० 2] स्वराणां यस्तु (वस्तु?)भावः स वर्णितः / प्रकृतिशब्दः स्वभावपर्याय इति // 314 // समाप्त // अणभिनगगव(हते य अ ?)यारे, अज खाट च तथा वाय(?) एकारे / अभिघाइ .................... अिट्ठमे पंचमंमि // 315 // अकारेण असा म हा त ट(?)ककारस्यत्य(स्याप्र)तो व्यवस्थितेन ककार एव लभ्यते / अकारे / अनभिहते व(च)कारस्याप्रतः स्थिते चकार एव लभ्यते / आकारे अनभिहतं(ते) तकारस्याप्रतः स्थिते टकार एव लभ्यते / अकारे अनभिहते तकारस्याग्रतः स्थिते तकार एव लभ्यते / अकारे. अनभिहते यकारस्याप्रतः स्थिते [प० 188, पा० 1] यकार एव लभ्यते / एकारेण युक्ते खकारो(रे) ककारो लभ्यते / एकारेण युक्त छकारे व(च)कारो लभ्यते / एकारयुक्ते ठकारे टकारो लभ्यते। एकारेण युक्त थकारे तकारो लभ्यते / एकारेण युक्ते रेफे यकारो लभ्यते / अष्टमस्य ऐकार[] एकारस्येव संयोगफलमुक्तम् // 315 // अणभिहते आकारे, ख छ ज झ तह अभिहयंति दो चरिमा / ठथ ट त ईकारंमि, उ फर प य चउरो [अ]आरंमि // 316 // खफारस्यामतः स्थितेन अनभिहतेन अ(आ)कारेण खकारो लभ्यते / छकारस्याप्रतः स्थितेन अनभिहतेना(प.१८८,पा० २]कारेण छकारो लभ्यते। जकारः सानुस्वारः जकारमेव लभ्य(भ)ते।" (छकारस्याप्रतः स्थितेन अनभिहतेनाकारेण छकारो लभ्यते / जकारः सानुस्वारः जकारमेव द्विलिखितः पाठ एष लेखकप्रमादात्।आदर्शेऽत्र 5-6 अक्षरपरिमिता पंकिः ग्रन्माक्षरा विद्यते / (87) Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् / [गाथा 317-319] लभ्यते) झकारः सविसर्गो झकार एव लभ्यते / ट(ठ ?)कार इकारयुक्तो टकार लभते / तकार इकारयुक्तः थकारमेव प्राप्नोति / फकार उकारयुक्तः पकारं लभते / रेफ उकारेण युक्तः यकार लभते // 316 // [50 189, पा०१] जह पढम-सत्तमाणं, तइज(य)णवमाण तह य सहाणे। पढम-तइयाणुणासिय, घ झा य छटुंमि अणभिहते // 317 // गकारस्याप्रतोऽनंतरमवस्थितः अनभिहत इकारो गकारमेव लभते / जकारस्याग्रतोऽनंतरमवस्थितः अनभिहत इकारो जकारमेव लभते / उकारस्याप्रतोऽनंतरमवस्थित अनभिहत इकारो डकारमेव लभते / दकारस्याप्रतोऽनंतरमवस्थितः [प०१८९, पा०२] अनभिहत इकारो दकारमेव प्राप्नोति / प(ब?)कारस्याप्रतोऽनंतरमवस्थितो(त:) इकारो(रः) प(ब?)कारमेव लभते। लकारस्याग्र" तोऽनंतरमवस्थितेन अनभिहत इकारो लकार मेव लभते। सकारस्याग्रतो वाऽनंतरमवस्थितेन [अनभिहतः१] इकारः सकारमवाप्नोति / खकार उ(ओ)कारसंयुक्तः कोकारं लभते / छकारः ओकारसंयुक्त[प० १९०,पा.१]चोकारं लभते / ठकार ओकारसंयुक्तः टोकारं लभते / थकार ओकारसंयुक्तोः तो]कारं लभते। फकार ओकारसंयुक्तः पोकारं लभते / रेफ ओकारसंयुक्तः योकार लभते / षकार ओकारसंयुक्तः स(सो)कारं लभते / षष्ठ औकारेना(णा)भिहतः धकारस्याग्रतोऽनं"तरमवस्थिते धकारमेव लभते / उकारो[प० 190, पा०२ ]ऽनभिहतो झकारस्याप्रतोऽनंतरमवस्थितः झकारमेष लभते / झकारोऽनभिहत अकारस्याग्रतः स्थितः अकारं लभते / औकारोऽनभिहत इकारस्याप्रतः स्थितः इकारं लभते / उकारोऽनभिहतः सानुस्वारस्याकारो(र)स्याग्रतोऽनंतरमवस्थितः अनुस्वारमेव अंकारं लभते / यथा पूर्वगाथया प्रथमस्य अकारस्य, सप्तमस्य च एकारस्य प्रयोग उक्तः, तथा तृतीयस्य इकारस्य, नवमस्य ओकारस्य प्रयोगो वर्णितः पश्चार्द्धस्यापि "गाथान्तरेणार्थः // 317 // अभिघाइएसु छठे, हवइ हयारो हु अट्ठमो णवमो / [50 191, पा० 1] ड ढ चतु तइयऽणुणासा, दसमसरे तिण्णि ऊ भवमा // 318 // उकारोऽप्रतोऽनंतरमवस्थितेन ओकारो(रेणा)भिहतो हकारं प्राप्नोति / मकारस्याप्रतो ऽनंतरमवस्थितो णकारः चतुर्थवकारं प्राप्नोति / टकारो दशमस्वरेण युक्तस्तृतीयं व(ल?)कार ___ प्रानोति / 'भषमा शब्द एकान्तपर्याय [B] // 318 // पढम-तइयाणुणासा, घ झा य दोण्हं पि अंतिमसराणं / वावा(बावी)सइमो करणो, णामेण य(?) हयमोहिओ एस // 319 // प्रथमो टकारः अनुस्वारेण अकारेण युक्तो डकार प्राप्नोति / डकारः सविसर्गः डकारं लभते / तृतीयो गकारः सानुस्वारो[प० १९१,पा०२] णकार लभते / णकारः सविसर्गः णकारमेव " लभते / घकारः सानुस्वारः धकार प्राप्नोति / उ(झ)कारः सविसर्गः झकारमेव लभते / झकारः सानुस्वारः झकार प्राप्नोति // 319 // // द्वाविंशतिकरणं समाप्तं / अश्वमोहितं नाम समाप्तम् // एितदन्तर्गतः पाठो द्विलिखितोऽतः पुनरुक्तः / (88) Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा 320-323] प्रश्नव्याकरणाख्य उत्तरसरसंजुत्तो, जइ उत्तरवंजणो य दीसेज्जा / पावइ य पढमवग्गं, अहरस्सरसंजुओ तइयं // 320 // उत्तराः के ? 'अ इ एउ' इत्येतेषां चतुर्णामन्यतमेन युक्तः] प्रथम-तृतीयवर्गाक्षराणां कचटतपय शा नां, गज ड द ब ल सानां अन्य[प० 192, पा० १]तमोऽक्षर आत्मीयं वर्ग लभते। यथा 'कि' क ख ग घानां मध्येऽक्षरं प्राप्नोत्युत्तरानुवलितत्वात् उत्तराक्षरम् / एवं सर्वत्र / अधर-5 स्वरा: के! 'आई ऐऔ' / एषां चतुण्णांमन्यतमेन स्वरेण युक्तः तेषां प्रथम-तृतीयवाक्षराणां अन्यतमाक्षरं तृतीयं वर्ग प्राप्नुवन्ति(मोति)। यथा 'की' ट ठ ड ढा नां तृतीयवर्णाक्षराणां मध्ये ढकाराक्षरं प्राप्नोति // 320 // उत्तरसरसंजुत्तो, पंचमवग्गं तु पावए अहरो। अहरस्सरसंजुत्तो, सत्तमं पावए अहरो // 321 // उत्तरस्वराः के ? 'अ इ एउ' / एतेषां [50 १९२,पा० २]चतुर्णामन्यतमेन युक्तोऽधराणां ख छठ थ फर षाणां, घ झ ढध भ व हा नां चान्यतमाक्षरः पंचमवर्ग लभते / यथा खकारस्योपरिगतोऽकारः पंचमवर्गाक्षरं प्राप्नोति / उत्तरानुवलितत्वादुत्तरम् / एवमन्येऽपि / तथा घकारोऽप्युत्तरस्वरसंयुक्तः पंचमवर्गाक्षरं [प० 193, पा०१Jलभते / एवं सर्वेऽधरा उत्तरस्वरसंयुक्ताः पंचमवर्ग प्राप्नुवन्ति / अधरस्वरा 'आई ऐ औ' एतेषां चतुर्णामन्यतमेन युक्तः द्वितीय-चतुर्थ- 11 वर्गाक्षराणामधराक्षराणामन्यतमः सप्तमवर्ग प्राप्तवन्ति(भोति)। यथा खकारो अधरस्वरसंयुक्तः] सप्तम] वर्ग प्राप्नोति / अधरानुवलितत्वाधरः / एवं छका[प० 193, पा० 2 रोऽधरवरसंयुक्त[:] सप्त[मवर्ग प्राप्नोति / तत्राप्यधरम् / तथाऽधरोऽप्यधरस्वरसंयुक्त[:] सप्त[म]वर्ग प्राप्नोति / तत्राप्यधराक्षरम् (?) / एवं फरषा इति / तथा धकारः सप्तमवर्ग प्राप्नोत्यधरानुवलितत्वादधराक्षरम् // 321 // एवं लभंति पढम(मे), वग्गे सरवंजणेहि संजुत्तो(त्ता)। उत्तर-अहराणुवला, लभंति पुवावरं वग्गं // 322 // यथा प्रथमवर्गे सु(स्व)राक्ष[र]संयुक्ता लभंति अक्षरान् तथाभिहितं पूर्वमेव / ते च खरा उत्तरानुवलितत्वादुत्तराक्षरं प्राप्नुवंति / [प० 194, पा० 1] अधरानुवलितत्वात् अधराक्षर प्रामुवंतीत्येतदपि पूर्वोक्तं पुनरनेन स्थिरतामापादयता वर्णितम् / पूर्व इत्युत्तराक्षर उच्यते / अपर 1 इति चाधरो भण्यते // 322 // उत्तर-अहरसरो वा, लग्गो जो जंमि वंजणे होज / उत्तर-अहराणुवला, लभंति तइ(ई)यसरं तत्तो // 323 // उत्तरस्वरा(र) इकारः, अधरस्वर ईकार[:] उत्तराक्षरै र]धरो(?) विलग्न उत्तराक्षरैः उत्तरो विलम[:] तस्मात्तृतीयस्खरं प्राप्नोति / इकार[?] तृतीयस्वरं प्राप्नोति // 323 // // उत्तराधरसंपत्करणं समाप्तम् // , 'उत्तराक्षरैरुत्तरो विलग्नः, अधराक्षरैरधरो विलग्नः' इति भव्य मूलानुसारेण / नि.शा. 10 (89) Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् / [गाथा 324-326 ] पढमो तइओ य सरो, पण्हाईए समं ककारेण / [50 194, पा० 2] जइ दीसइ सो लस(भ)ए, कवग्गए अक्खरं एकं // 324 // प्रश्नाक्षराणामादौ ककारस्यावस्थितस्याग्रतोऽनंतरं यदा प्रथमः स्वरः अकारो दृश्यते तदा अकार[:] ककारं प्राप्नोति / तृतीयस्वरेण युक्त[:] सकार आदिस्थितप्रभाक्षराणां ककारवर्गादेकमक्षरं लभते / उत्तरानुवलितत्वात् उत्तरम् / एवमन्येऽपि प्रथम-तृतीयवर्गाक्षरा[:] प्रभाक्षराणामादिस्थिता अकारे(रा)प्रतोऽनंतरमवस्थिता इकारेण वा युक्तः (क्ताः) स्ववर्गाक्षरं लभन्ते // 324 // एएहि चेव सहिओ, लहइ खकारो चवग्ग एकेकं / तइय-चरिमा [50 195, पा० 1 ]सबग्गे, लहइ धकारो टवग्गंमि // 325 // प्रथमस्वरेण अकारेणापतोऽनंतरमवस्थितेन इकारेण वा युक्तः खकार[:] चवर्गादेकमक्षरं 'लभते / उत्तरानुवलितत्वादुत्तरम् / तृतीयवर्गाक्षराणां ग ज ड द ब ल सानां चरिमाणां बण न मा नां अन्यतमोऽक्षरो अकारेऽप्रतोऽनंतरमवस्थिते इकारेण युक्त[:] स्ववर्गादेकमक्षरं लभते। उत्तरानुवलितत्वादुत्तरस्य घकारे(र)स्य अकारेऽग्रतोनंतरमवस्थिते इकारेण वा युक्ते घकार(रः) टवर्गादेकमक्षरं प्राप्नोति उत्तरानुवलितत्वादुत्तरमेवेति / [10 195, पा०२]गाथाद्वयस्यापि अर्थ व्याख्याय प्रस्तारेण दर्शने(यते) रचना- क का(च) कि ग एता एव स्वरौ(?) खकारयुक्तो यदा तदा प्रथम15 स्वरेण चकारं लभते / तृतीयेन य(ज)कारम / खकारोऽधरत्वाद द्वितीयवर्गा(ग)ग्राही स्वरानुवलितत्वादक्षरलब्धिः / रचनापूर्वकवर्गा अधस्तात् ख छ खि ज / तथा कारः प्रथमस्वर:(र) युक्तः टकारं लभते, तृतीययुक्तः उकारं / रचना-घट घिट(ड)। एवं चवर्गादीनां शेषवर्गादीनां च शेषवर्गाक्षराणां लब्धि[:]रचनामात्रं दर्शते(दर्यते-) चवर्गस्य अइयुक्तस्य च चाचिज / अस्याध:-ज जा जि ज / अस्याधः-बचा बिज। अस्याधः-झत झि ट(द)। एवं चवर्गटवर्ग-रचना / दद टिड। अस्याधः-ठत ठिद। अस्याध:--ड ड डिड [प. 196, पा. 1] अस्याधः-ण टणि ट / अस्याधः टप टिव / तवर्गस्य रचना-त त ति द। अस्याध:थपथि प / अस्याधः-दत दिद / अस्याधः-न त निद / अस्याधः-वय विल / पवर्गस्यपपपिप। फय फिल। वष विव। म य मिव / भश भिश / यवर्गस्य रचना- य य यिल / अस्याधः-रसरि स / ल ल लि ल / अस्याधः- व क विग। शवर्गस्य प्रस्तारः-शश शिश / षक पिग। अस्याधः-सस सि स / अस्याधः-ड(ह) क डि ड(हिह)। एवं विरच्याक्षरलब्धि उक्तवद्र(इ)ष्टव्या / / 325 // सत्तम-णवमेहि समं, लहइ ककारो चवग्ग एक्केकं / तइय-चरिमा वि एवं, खटवग्गे घ तवग्गे य // 326 // प्रभादौ ककारः सप्तमेन एकारेण युक्तः नवमेन उ(ओ)कारेण युक्तः चवर्गा५० 196, पा० 2* देकमक्षरं लभते / तथा तृतीयो गकारः, चरिमो कारः, सप्तम-नवम-स्वरयुक्तः चवर्गादेवा क्षरम् / एवमुक्त इति / तथा खकारः सप्तमेन नवमेन वा स्वरेण युक्तः स्वर्गादेकमक्षरं उत्तरानुवलितत्वादुत्तरम् / तथा धकारः सप्तमेन नवमेन वा खरे[ण] युक्तः तवर्गादेकमक्षरं लभते उत्तरानुवलितत्वादुत्तरमिति / / 326 / / (90) Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा 327-330] प्रश्नव्याकरणाख्यं सेसाण वि एस कमो, चादीणं अट्ठमा[प० 197, पा० १]वसाणाणं / अहरुवि(व)रि एककं, परिहा[य]इ वट्ट(ड)इ अहरो // 327 // प्रस्तारेणास्यार्थो दर्शयितव्यः / शेषाणामप्येष क्रम इति / प्रश्नाक्षराणामादिस्थितस्य ककारस्य चकारस्य वा चकारेण वा ककारस्य युक्तस्य यथावस्थवर्गाक्षरलाभ उक्तः / चादयोऽपि हकारान्ताः सप्त सप्त प्रस्त(स्ता)रेणयुक्ता उकारयुक्ता] पूर्ववत्सवर्गादेकमक्षरं लभन्ते / उत्तराक्षरो-: उधरस्वरयुक्तः परिहीयन्ते (ते) [50197, पा० 2] अल्पसंख्यो भवतीत्यर्थः। अधराक्षरोऽधरस्वरयुक्तो वर्द्धते बहुसंख्यो भवतीत्यर्थः / एतच्च विस्तरेण वर्णितमिति नोक्तम् // 327 // आकारीकारेहिं, लभइ समेओं ककारो [य] चवग्गे / तइय-चरिमादि एवं, लभइ खकारो य-ट-तवग्गे // 328 // ककारः आकारेण युक्तः चवर्गादेकमक्षरमधरानुचलितत्वादपि० 198, पा० १]धरं प्राप्नोति / 10 ककार ईकारेण युक्त[:] टवर्गे अधराक्षरं अधरानुवलितत्वात् / एवं तृतीयगकारः, पंचमड(?)कारः क्रमेणाकारयुक्तः चवर्गाक्षरं, ईकारेण युक्तः टवर्गाक्षरं अधरं अधरानुवलितत्वात् / खकार आकारेण [युक्तः] टवर्गे अधराक्षरं प्राप्नोति / ष(ख)कार इ(६)कारेण युक्तः तवर्गादेकमक्षरं [प० 198, पा० 2] लभते अधरानुवलितत्वाधरम् / एवं द्वितीयवर्गाक्षराः शेषाः खकारेण क्रमेणाकारयुक्तास्तृतीयवर्गाक्षराणि लभन्ते / इ(ई)कारयुक्ताश्चतुर्थवर्गाक्षरं प्राप्नोति / / (अवन्ति) अधरानुवलितत्वादधरम् / अन्यगाथया अमुमेवार्थं प्रस्तार्यते - ककार आकारयुक्तः ईकारयुक्तश्च क्रमसः(शः) चवर्ग-टवर्गों लभते / यथा- का च कीट / अस्याधः [प० 199, पा०१] खकार-थकाररचना-खा ट खी थ। अस्याधः-गाच गीठ / अस्याधः पकारः आ(आई?)कारयुक्तश्च / त-पवर्गों प्राप्नुवन्तः (प्राप्नोति) // 328 / / तदर्थगाथामाह - त-पवग्गेसु धकारो, दोसु वि एक्कक्कयं लभे कमसो। सेसाण वि एस कमो, चादीणं सबवग्गाणं // 329 // घकार आकारयुक्तः तवर्गादधराक्षरमवाप्नोति / घकार इ(ई)कारेण युक्तः पवर्गादेकमवामोति / क(?)कारादयश्चतुर्थवर्गाक्षराः शेषाः षट् आकारेण युक्ताश्चतुर्थवर्गाक्षरं प्राप्नुवंति / इ(ई)कारयुक्ताः पंचमवर्गाक्षरानधराक्षरान] लभन्ते अधरानुवलितत्वात् / यतोक्तं(थोक्त)क्र- [50 १९९,पा० २]मेण / एवं च चकारादयो हकारान्ताक्षरा आकारेण ईकारेण वा युक्ता यथाप्रामपन्ति वर्गाक्षर(रा)स्तथाभिहत (हि ताः।)प्रस्तारोऽत्र लिख्यते-अनन्तरस्याधस्तात्-पाथ पी भ। एवं डाकारः चकारं / डी टकारम् / स्थापनादनन्तरस्याधस्तात् - डच डी डा। एवमेतौ द्वितीयचतुर्थमात्रौ शेषवर्गानुस्वारे(सार)तोऽपि वक्तव्याद्या(व्यौ यावत् स्ववर्ग [प० 200, पा०१]इति पूर्वत्या गाथया चवर्गे आर्द्धाक्रान्तक्रमेणेति // 329 // क-च-टादीनां पढमा, चरिमो(मा) य समं लहसु ('हं तु) कारेण / लभइ तवग्गे एवं, साणुस्सारे य सविसग्गे // 330 // ककार(?) क च ट वर्ग-त्रयस्य ग्रहणम् / आदिशब्दाच्छेषवर्गाणामपि कवर्ग-चवर्गटवर्गस्य च प्रथमाः। ककार-चकार-टकारोचे(राश्चै)वम् / एते प्रश्रादौ उकारेण सह दृश्यमाना: 1 असावार्थः प्रस्तार्यते' अथवा 'अमुमेवार्थ प्रस्तारयति' इति भव्यम् / (91) Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् / [गाथा 330] [प० 200, पा०२] किं लभंत इत्यत आह-पय स ककारा उकारयुक्ताः पकारं लभते / चकार उकारेण युक्तः यकारम्। टकारः शकारम् / मात्रासंख्यानियमेन शेषवर्गाणामपि चरमः / एषामेव क्रमेण-त्रण एते उकारयुक्ता एत एव लभते(न्ते)। यथा कुकार पकार(२) बुकार यकारं प्रकार सकारं [प० 201, पा०१]रचना-कुपवु य दुरा(स) / अस्याधस्तात् -खुप छु र वुष / अस्याधस्तात् -गु ज / यु ल / दुस / ततः पंचमः-कुप / बुय / णुस / अस्याधः चतुर्थ:शुभ / अव / दुह / एवं लब्धिक(?)ककारवर्गस्य तथा रचना ककारस्यापि टकारस्य चकच टादीनां पढमा चरिमा य समं उकारेणे ति गाथार्थः [प० 201, पा० 2] व्याख्यातः॥'लमह तवग्गे' इत्येतत्पदं व्याख्यायते- 'तपय म(स)' चतुर्णामेषां वर्णानां लब्धिरर्द्धक्रान्तिन्यायेन यथा तकारपकार-यकार-शकाराणां उकारसहितानां क्रमेणैव लब्धिः / केषां ? अकार-ककार-चकार-टकाराणां "स्थापनात् / अपुक / युक / शुट / अस्या० थुआ। कुख रु ठषु / ठ / अस्याधः-दुइ। युग लु / जमुन / अस्याधस्तात् - तु अ / मुडा। यु / गुण / अस्याधः-वुई। भुघ / वुक / हुढ / एवं यथा त प य स वर्गाद्यक्षराणां लब्धिक(?) ककारेण सह तथा शेषाणामपि / यथा-- उकारेण सह लब्धि[:]वक्तव्या इति / व्याख्यातमेतत्पदं [50 202, पा० 1] 'लभति तवर्गे एव'मिति / 'साणुस्सारे य सविसग्गे' इत्यस्य गाथापश्चार्द्धस्य व्याख्या कृ(क्रि)यते- कवर्ग-चवर्ग"टवर्गाक्षराः ककार-चकार-टकाराः सानुस्वारा:-कंचंटं एते पूर्ववद् यथा उकारसहिता लभन्ते / तद् बिंदुविसर्गाभ्यां अपि / बिन्दोर्युक्तस्योदाहरणम्-ककार बिन्दुसहितः पकार लभते, 'चं' इत्येषा(ष) प(य)कारम्, '' इत्येष शकारम् / स्थापना-कंप। चंय / टंश / अस्याध:-खं फ / छर / ठंष / अस्याध:-म व(गं ब)। जंल / डंस / अस्याधः-घंभ / झंव / दह / अस्याधः-डाम बुट घ(डं म / बंय।) णंश। उत्तरं समासादयति / अधर (स्तु) अधरमेव। सविसर्गोघे(प्ये)वं यथा-काप। चः य / टःश। [प० २०२,पा.२] अस्याधः-खःफ। छःर। ध(ठ):ष। अस्याधः-गःब / जाल / डास। अस्याधःहम / साय। णःश / अस्याधः-घः मैं / झःव / दाह / यथा एषां सानुस्वारस्य (स)विसर्गक्रमेण लब्धिरुक्ता तथा 'तपय स' इत्येतेषामपि प्रस्तारः-भ(त) अ। पंक / यं च। सं(शं)ट / अस्याधः-थं आ। पं(फ) ख। ।रंछ। [ 1] दंइ। पं(ब)ग। भं(लं)ज / 17 मंड / अस्याधः-नं अः / मंद:(ङः) / यं बः।ग(श) णः। [प० 203, पा०१] अस्याधः-घंई। भंघ / वंश। हंद / सविसर्ग(गो)प्येवं यथा-तः अ / पःक / यः च / सःट / अस्याध:थः आ। फः ख / रःछ / षः / अस्याधः-दः इ। पःश / [बःग] / लः ज / सड। अस्याधः-न: अ / मः ङ। यः। सःण / अस्याधः-धःई। भः घ / वः झ। हाद। सानुस्वार-विसर्गावेतौ / अथवाऽन्यथा रचनाक्रमेण गुरुरान(ह) // 330 // मूलादर्श सर्वाऽपीयमक्षरस्थापना प्रभ्रष्टपाठात्मिका उपलभ्यते अतोऽधस्तात् कोष्ठकेषु शुद्धरूपेणैषा प्रदर्श्यते भस्माभिः। -संपादकः / सानुस्खाराणां सविसर्गाणां सानुस्खाराणां सविसर्गाणां तपयशानां कचटानां स्थापना- कचटानां स्थापना- तपयशानां स्थापना स्थापनाके पच यर्ट शाकः पचः य टःश | " (तं अपं क यं चशं | तः अपः क यः च शः ट 2 ख फर्छ र बा२ खःफ छः र ठःपाथमा खरे छर्ष ठारथः आफः खः छषःब 3 ग बज लर्ड स|३ गः बजाल डास||३द इबं गल जसं बादः इबः ग लः जसः / धईभ घवं शहद 5 ई मा याणं श५ ङमजा य णःश 5 नं आम ङयशंगापनः अमः ह यः अशःण |४घाभ झाव दाह mal मः वाह: (92) Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा 331-333] प्रश्नव्याकरणाख्यं कचया(टा)दीणं पढमो, चरिमो य समं लभंतुकारेण / लभाप० 203, पा० 2] तवग्गे एकं, साणुस्सारे य सविसग्गे // 331 // 'कच टा दि' इत्यनेन क च ट त प य शा नां प्रथमो वर्गः / तृतीयस्वराः(वर्गः) गजड द बल सा नां। पञ्चमः ङ ण न माः। एवमेवादिग्रहणं समर्थितं भवति / एते क च टा दयः उकारसहिता यथा-कु चुटु तु पुयु शु। मसो(एते?)धस्तात् पंचमवर्गोत्तरान् लभन्ते यथा-तपय 5 स(श)। अक च ट / तृतीयाप० 204, पा० १]स्तु गज डा दयः उकारसहिता यथा-जु गु(गु जु) डुदु(बु) लुसु / एतेऽपि त्व(स्व)स्मात् क्रमेण पञ्चमो पञ्चमो लभते (?) द ब ल स ग ज ड दया (डादयः)। अंत्या उकारयुक्ता यथा-कुबु हुनुमु / ग(य)वर्ग-शवर्गयोः पञ्चमः ऋथाशब्दः, हिकाशब्दश्च / प्रश्नकाले तावपि श्रुत्वा पंचमस्य य-सवर्गप्राप्तिर्भवति / यथा-म य य स दु। क्रथशब्दः, हिकाश प० 204, पा० २]ब्दश्च / एते सप्त / "कच टा दीणं पढमो तइओ चरिमो समं / / उकारेण लभइ तवगं" इत्येतद् व्याख्यातम् // 331 // ख-छ-ठादिएहि सहिया, एते उ हवंति छट्ठए वग्गे / घ-झ-ढाइएहिं सहिया, सत्तमवग्गे लभे एकं // 332 // खकार उकारयुक्तः षष्ठे पवर्गेऽक्षरमुत्तरं प्राप्नोत्युत्तरानुवलितत्वात् / छकार उकारयुक्तः शवर्गे उत्तरानुवलितत्वादुत्तरम् / ठकार उकारयुक्तः अवर्गे उत्तरानुवलितत्वात् उत्तरस्वरम् / 15 एवं थ फर खा(षा)[अ]पि / खकारः अनुस्वारयुक्तः षष्ठे पवर्गे उत्तप० 205, पा० १]राक्षरं लभते। स एव सविसर्गो युक्तोऽधरम् / छकारः सानुस्वारः सवर्गे उत्तरमवाप्नोति / धकारः सानुस्वारः अपवर्गे उत्तरं लभते / विसर्गयुक्तोऽधरम् / एवं छकारोऽपि [स]विसर्गयुक्तो यवर्गेऽधरमिति / एवं थ फरषा वक्तव्याः / एवं गाथाप्रागर्दशक्त(?प्रागर्द्धशब्दार्थः / ) 'घ झ ढाइएहिं सहिया' उकारबिन्दुविसर्गाः / थ(घ)कार ओ(उ)कारयुक्तः सवर्गे उत्तरं लभते / बिन्दुयुक्तः सवर्ग एवोत्तरं 20 लभते / स एव घकारः विसर्गयुक्तः तत्रैवाधरमिति / एवं ऊ(झ)कार उकारयुक्तः सप्तमे सवर्गे उत्तरानुवलितत्वादुत्तरं, स एव बिन्दुयुक्त; [50 205, पा० 2] तस्मिन्नेवोत्तरं लभते / विसर्गयुक्तः अधरम / एवं ढकारोऽपि / एवं च सर्वहा(?भ व हाअपि स्वस्मात्सप्तमं वर्गाक्षरं लभन्ते // 332 // उत्तरवंजणसहि या], सत्तमवग्गे लभंति सेससरा / अहरेहि अ संयु(जु)त्ता, लभंति अहराहरे वग्गे // 333 // उत्तराः [50 206, पा० 1] प्रथम-तृतीय-पञ्चमवर्गाक्षराः परिशिष्टैः स्वरैः 'ऊ ऐ औ' इत्येतेस्तु(खि)भिर्युक्ताः आत्मीयादात्मीया[त् ] सप्तम ईकारयुक्तो लभ्यते / प्रश्नाक्षराणामादिस्थितस्य यदाऽप्रतः हकार इकारयुक्तो दृश्यते तदा टकार इका[प० 206, पा० 2 ]रयुक्तो लभ्यते / प्रश्नाक्षराणामादिस्थितस्य यदाप्रतः टकार औकारयुक्तो दृश्यते तदा दकारो लभ्यते / अधरवर्गा [अ]धराधरमक्षरं लभन्ते अधरस्वरयुक्ताः / इत्येष पश्चार्डो(ई)गाथार्थः // __ अथवाऽस्य (स्या) गाथ(था)या व्याख्या- उत्तरव्यंजनशेषस्वराः 'ऊ ऐ औ' प्रयोऽप्येते उत्तरव्यञ्जनसहिता यथा-कू चू टू तू पू यूशू। ऊकार अधस्तात् उत्तरव्यञ्जनसहितो लभते क्रमसः(शः) सर्वस(?)वर्ग यथा-श अ क च ट त प / तथा उत्तरव्यञ्जना येषु वर्गेषु अधरानुवलि 30 (93) Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम्। [गाथा 334-335 तत्वादधराक्षरान् / तथा उत्तरव्यञ्जनाः-गूजू डू दूपि० 207, पा० १]बूलूसू एषां लब्धि / क्रमेणैव स इ ग ज ड द बाः, एषु वर्गेषु अधरानुवलितत्वाद्धरं लभन्ते / तथा डूणूनू मू क्रमस(शः) सप्तमवर्गा यथा क्रमेण चि(चे)त्यधरानुवलितत्वाधरा(र)मिति / ई(ऐ)कार उत्तरव्यञ्जमसहितः यथा-के चैटै तै पै यै शै / लब्धिस्तु क्रमसः(श:) एषु वर्गेषु तु(त्रि)धा भवति / * [t....................] तत्त्वादधराक्षरं / बु / अ क च ट त प। एवं गज डा दयोऽपि ऐकारयुक्ता वक्तव्याः / ङ च णा दयश्चेति / तथा ऊ(औ)कारयुक्ता उत्तरव्यञ्जनाः / कौ चौ टौ तौ पौ यो सौ(शौ) लब्धिस्तु सप्तमवर्गात अधरानुवलितत्वादधरान् / स क च ट त पाः। एवं गजडा दयो हुमणा दयोऽपीति / एवं ऊकार-ऐकार-औकारयुक्ताः अधरा अधरान] लभन्ते / खूछठू थू फू रूपू / लब्धिस्तूच्यते अधरानुवलितत्वाधरानेव [प० 207, पा० 2] ष आख छ ठ थ फ / // तथा, घू झू टू धू भू वू हू / लब्धिक्रमो वर्गेपु अधरानुवलितत्वाद्धराधरलब्धिः / जइघ झ ढधभ यथा ऊकारयुक्तास्तथा ऐकारौकारावपि वाच्याविति एवं अधराधरेषु लभते / इत्युक्तो गाथार्थ इति / / 333 // लभइ ककारो जुत्तो, चकारवग्गंमि तइय-चरिमेण / ट[त]वग्गे जइ पण्हे, दसमसरो [प० 208, पा० 1] तइओं यादीए // 334 // ककारः प्रश्नाक्षराणामादिस्थिति(त) ईकारेण सानुस्खारेण युक्तः चवर्गादेकमक्षरं लभते / उत्तरमुत्तरानुवलितत्वाल्लभते। प्रश्नाक्षराणामौकारस्यादिस्थस्य यदाग्रत आकारयुक्तो टकारो दृश्यते तदा आकारयुक्तटकार एव लभ्यते। उकारस्यादिस्थितस्य प्रभाक्षर(रेषु) यदामतः [प०२०८, पा०२] टकारः इकारयुक्तो दृश्यते तदा टकार एव ईकारयुक्तो लभ्यते / प्रश्नाक्षराणामौकारस्य यदाप्रतः तकारः अकारयुक्तो दृश्यते तदा ताकारो लभ्यते / औकारादिस्थस्य यदाऽग्रतः तकार ईकारयुक्तो दृश्यते तदा तीकारो लभ्यते। प्रश्नाक्षराणामादिस्थस्य इकारस्य यथा(दाऽ)प्रतः तकार आकारयुक्तो दृश्यते तदा तकार आत्मानं लभते / प्रश्नाक्षराणामादिस्थस्य इकारस्य यदाऽप्रतः तकार इकारयुक्तो दृश्यते तदा तकारो लभ्यते / औकारस्याग्रतः याकारो यदा दृश्यते तदा [प० 209, पा० 1] याकारो लभ्यते / औकारस्यामतः ईकारो दृष्ट ईकार एव लभ्यते / इकारस्याग्रतः याकार आत्मानं लभते // 334 // बितिय-चउत्थेहि समं, सरेहि सो चेव लभइ त-पवग्गे / सत्तम-णवमेहि समं, सेसेहि समं अहरवग्गे // 335 // पूर्वा? अस्य(स्या) गाथ(था)या अनन्तराकान्तगाथया वर्णितः / प्रश्नाक्षराणामादिस्थस्य उकारस्यामतः तोकारं लभते / औकारस्य प्रश्नादिस्थस्य पकार एकारयुक्तः पेकारं लभते / औकारस्य प्रश्नादिस्थस्याग्रतः पाकार औकारयुक्तः पो(पौ)कारं लभते / इकारस्य प्रभादिस्थस्या[प० 209, पा० २]प्रतः इकारः(तकारः) तकारं लभते। इकारस्य प्रमादिस्थस्याप्रतः टो(ट)कारः टोकारं लभते / ईकारस्य प्रश्नादिस्थस्याग्रतः स्थितः तकार:] तेकार लभते / इकारस्य प्रश्नादिस्थस्यामतः तकारः तोकारं लभते / ईकारस्य प्रभादेरमतः स्थितस्य [थकारः?] थेकारं लभते / इकारस्य प्रश्नादिस्थस्य // 335 // + अनादर्श कियान् पाठः पतितः प्रतिभाति / (94) Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. [गाथा 336-342] प्रश्नव्याकरणाख्यं बितिएण य संजुत्तो, चकारवग्गो लभइ [50 २१०,पा० 1] तइयवग्गे। प-यवग्गे पुण लब्भइ, चत्तारिस(म)एण संजुत्तो // 336 // चकार एकसंख्याक[कः], ककारोऽप्येकसंख्य एव / ततः संयोगा[द] क्रान्तिकसंज्ञः। कस्मात् ? तुल्यसंख्यत्वात्। यथा 'च'। स यत्रतत्रस्थः प्रश्ने ध्व(स्व)वर्गान् प्राप्नुतः(प्राप्नोति)। टकारः ककारयुक्तोऽर्द्धक्रान्तिकसंज्ञः यथा 'टू'। स यत्रतत्रस्थः प्रश्ने पवर्ग प्राप्नोति / चतुर्थतकारेण / युक्तः [50 210, पा० 2] ककारोऽर्द्धकान्तमापन्नो यथोक्तः स यत्रतत्रस्थे(स्थः) प्रश्ने तृतीयवर्ग. प्राप्नोतीति // 336 // जो अ ककारे गमओ, भणिओ सो चेव तइय-चरिमाणं / आइम-तइयाभिहए, लभइ तकारो हु त-पवग्गे // 337 // यथा ककारः प्रथमवरेण तृतीयस्वरेण वा युक्तः सवर्गाक्षरं लभते / एवं तृतीयवर्गाक्ष- / / राणां ग ज ड द बल सा नां, चरि[५० 211, पा० १]माणां ङ अण न मा नां चान्यतमाक्षरप्रश्न प्रथमस्वरेण तृतीयस्वरेण वा युक्तः आत्मीयवर्गेऽक्षरमवाप्नोति उत्तरानुवलितत्वादुत्तरम् / खकारः प्रथमवरेण युक्तः तवर्गेऽक्षरमेकं प्राप्नोति उत्तरानुवलितत्वादुत्तरम् / स एव खकारः तृतीयस्वरेण युक्तः पवर्गेऽक्षरमेकमवाप्नोति उत्तरानुवलितत्वाउ(दु)त्तरम् // 337 / / लभए वीव(इ)यजुत्तो, चकारवग्गो य तइया प० 211, पा० 2 वग्गं च / // चत्तारिमएण समं, लभइ यकारो पवग्गं उ // 338 // चकारो द्वितीयस्वरयुक्तः टवर्ग प्राप्नोति / यकारश्चतुर्थस्वरेण य(प)वर्ग लभते // 338 // जह भेओ उ चवग्गे, तह य कवग्गंमि चेव णायबो / एवं चिय दा(ता)दीहिं, सरेहिं भेओ मुणेयबो // 339 // यथा चकारो द्वितीयस्वरयुक्तः तृतीयं वर्ग प्राप्नोति एव्यं(वं) ककारोऽपि द्वितीयस्वरयुक्तो / द्वितीय वर्ग प्राप्नोति / तकार-चकारावप्येवमेव // 339 // एमेव सेसयाणं, चादीणं अट्ठमावसाणाणं / सरवग्गाण य जोगो, अद्धकंतकमो होइ [प० 212, पा० 1] // 340 // एवं यथा प्रथमवर्गः शेषाक्षराणां शकाराष्टसप्तं(ष्टमा)तानां तृतीयवर्गाक्षराणां ग ज ड द ब ल सानां चतुःसंख्यानामक्षराणां यः संयोगः सार्व(?आर्द्ध)क्रान्तिकसंज्ञः। तस्य संयोगस्य अधस्तात् // योऽक्षर: स तृतीयवर्ग प्राप्नोति / तुल्यसंख्यस्य स्वरस्याक्षरस्य च यः संयोगः सोऽप्यर्द्धक्रान्तिकसंज्ञः / अः तृतीयवर्ग प्राप्नोति // 34 // पण्हाइमसंखाए, सबे पण्हक्खरे गुणेऊणं / उवरिल्ले पक्खेळ, आइल्ले अट्ठहि विभाए // 341 // सेसं वग्गे णामक्खरं होइ / * जइ पुच्छइ कं म(स)रं तो, करेज अहाप० 212, पा० 2 ]रुत्तरं कमसो॥३४२॥ * मूलादर्श अस्या गाथाया एतादृश एव पूर्वार्द्ध उपलभ्यते / खण्डितप्राय इत्याभाति / (95) Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् / [गाथा 343-344 ] प्रभाक्षरमध्ये उव(प)रिवराणां संख्या उपरिमात्रारहितानां च संयुक्ताक्षराणां या उपर्यक्षरसंख्या तामेकीकृत्य पृथग (क) स्थापयेत्। परिस(शि)ष्टानां प्रभाक्षराणां विद्यमानाधरस्वराणां च या संख्या तामेकीकृत्य स्थापयेत् / अक च ट त प य श वर्गाणां वसु-मुनि-रस-स(शीर-सागरा-नियम-चन्द्राः क्रमसो(शो) गुणकारा[:] / प्रश्नाक्षराणां मात्राद्यक्षर-प्रतिबद्धो गुणाकारः, तेन गुणयित्वा स्थापितां अधोऽक्षरसंख्यामुपरि प० 213, पा० 1] स्वराक्षरं पृथक् स्थापितां तत्रैव प्रक्षिप्याष्टभिर्भागेऽपहते लब्धाच्छेषाञ्च द्वौ वग्गौँ लभ्य(भ्ये)ते / लब्धवर्गों यदाधिका(क)स्तदास्ताभिः पुनर्भागे हृते लब्धाच्छेषाश्च(च)द्वौ वर्गों पुनर्लभ्य(भ्ये)ते / ककारादयो लब्धवर्गाः शेषाश्च ज्ञेयाः // 341-342 // एमेव सेसवग्गे, णामक्खरपा(या)ण हवइ एकं तु / / जइ इच्छसि तं करणं, करणे(रे)ज अधराधरं तत्तो // 343 // तत्र शेषवर्गाल(ल?)ब्धवर्गाच्च एकैकं नामाक्षरं लभ्यते / प्रभाक्षराणां निपतितानां मध्ये पूर्वोक्ताधराधरक्रमेणाक्षरमुत्तरमधरं वाया। // 343 // // वर्गाक्षरसंयो प० 213, पा० 2 गोत्पादनं समाप्तम् // अत्यु(णु)सार-विसग्गविही, ण(णा)यबो होइ सबओभणे(दे) / चउसु वि दिसासु एवं, वग्गे ण(णा)मक्खरुप्पत्ती // 344 // सर्वतोभद्र[:] प्रस्तारमंतरेण न शक्यते दर्शयितुम् / अनुस्वारविसर्गग्रहणेन शेषखराणामपि सूचना कृता / अतो व्यंजनस्वरयोगाच(च)तुर्वपि दिक्षु(क्ष्व)क्षरपातनिकया सुखदुःखलाभालाभजीवितमरणाद्यपि नामाक्षरोत्पत्तिरपीति प्रस्तारेण दर्श(य)त इति सर्वतोभद्रस्य महाकरश(ण)स्य मूलप्रतिबद्धादारस्या(भ्या)वरणपंचदशपर्यन्ति(न्तं) न्यासमात्रं [प० 214, पा० 1] पंक्ति पंक्ति(?) " लिख्यते / तत्र मूलप्रतिबद्ध अष्टमंडलमध्ये अकार तस्य पूर्वतः एकारः / दक्षिणतः ऐकारः। अपरतः उकारः। उत्तरतः औकारः। द्वितीयवर्गे पूर्वादिगादि अकच ट प य श / तृतीयावरणे दक्षिणादि आ ख छ ठ थ फरष। चतुर्थे अपरादि इ गज ड द ब ल स / पंचमे उत्तरादि उ घ झ ढ ध भ वह / भूयः षष्ठावरणे पूर्वादि आदित्य-भौम-शुक्र-बुध-गुरु-शनि-चन्द्र-राहु-पर्यन्ता प्रहाः / सूर्यां(य)भौमांपुरत)रे पुनर्वसु-पुष्या-श्लेषा / भौमशुक्रान्तरे मघा फाल्मुनीद्वयं च / 21 शुक्रे हस्तः / शुक्रवु[प० 214, पा० २]धान्तरे चित्रा स्वाति विशाखा / बुधि]रा(हस्प)त्यन्तरे अनुराधा ज्येष्ठामूलानि / गुरुसनेश्वरांतरे आषाढाऽभिजित्श्रवण / बृहस्पत्योपरि पूर्वाषाढाः। सनेश्वरांतरे धनिष्ठा शतभिषा पूर्वभाद्रपदा। चन्द्रोपरि उत्तराभाद्रपदा / चन्द्रराहू न(अ)न्तरे रेवती अश्विनी भरणी चेति / राहूसूर्यान्तरे कृतिका [प० 215, पा० 1] रोहिणी मृगसिरश्चेति / सूर्योपरि आर्द्रा / एतत् षष्ठावरणं पूर्व दिगादितः // " मेष क ख ग घ ङ / वृषः च छ ज झ ब / मिथुन घृषोपरि म(ग)कारः। जकारोपरि मिथुनः। दक्षिणस्यां कर्कटकः। ततः ट ठ ड ढ ण डकारस्योपरि सिंहः। त थ द ध न दकारस्योपरि कम्प:(न्या)। अपरदिसा(शा)यां तुल्यः (ला)। प फ ब भ म [प० 215, पा० २]पकार + त्रुटितोऽत्र कियान् पाठः, इति प्रतिभाति / (96) Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा 345-346] प्रश्नव्याकरणाख्य स्योपरि वृश्चिक। य र ल व पंचमोऽयं कुंथशब्दो लकारोपरि धनुः। उत्तरतो मकरः। श ष सह पंचमोऽयं हिंकृतः शब्दः शकारोपरि कुम्भः। क ख ग घ ङ गकारोपरि मीनः / एवं सप्तमावरणम् / अष्टममिदानी-पूर्वादितः क च छ ज झ ञ / बट ठ ड ढ ण / च त थ द धन / पफ चभम / द य र ल व। श ष स ह / त क ख ग घ ङ च छ ज झब। एवा(वमष्टमम् / नवमं इदानी-पूर्वोदितः च ट ठ ड ढ ण / य त थ द धन / प फ ब भ म / श यर लव / त श ष स / ह। क क ख ग घ ङ / पच छ ज झ ब। च ट ठ ड ढ ण / दशममिदानीम् -ट त थ द धन / शप: फबभम / त य र ल व / क श ष स ह / पक ख ग घ ङ च च छपि० 216, पा०१]जझ म। य ट ठ ड ढ ण। क त थ द ध न / एकादश(म)मिदानी-तप फ ब भ म / कयरलव। प श ष सह / श क ख ग घ ङ / ज च छ ज झ ब / बपट ठ ड ढ ण / त थ द धन / कप फ ब भ म / द्वादश[म मिदानीम् -प य रलव / शप सहन / य क ख ग घ ङ / टच छ / / ज ब / श ट ठ ड ढ ण / त थ द ध न / कप फ ब भ म / प य र ल व / त्रयोदश[म]मिदानींम्य श ष स ह / ट क ख ग घ ङ / श च छ ज झब। त ट ठ ड ढ ण | क त थ द ध न / प फ ब भ म / व य र ल वाय श प स हब / चतुर्दशाम मिदानीम् - श अ, क आ, ख इ, गई, घ(उ?), बउ (?), तए, च ए(२), छ उ(ओ), ज ऊ(औ), झ अ, ब अः। क अ, ट आ, इ, द(ड) ई, ढउ, ण ज(ऊ), पए, व ऐ, ष ओ, द औ, ध अं, न अः। च[अ], प आ, फ इ, ब ई, [प० 216, पा० 2] " भ उ, मऊ, य ए, र ऐ, व उ(ओ), ल ऊ(औ), व अं, ढ अः। द अ, [श] आ, [श] इ, सई, हउ, ख ज(ऊ), गए, क ऐ, ख उ(ओ), ग अ(i), घअं, गः(ङ) अः / पंचदश[मं]पूर्वादितः अक च ट त पयश / ए। ऐख छ ठ थ फर प / आ। इ गज ड द ब ल स / ओ / औघ झट धभवह। ई। अक च ट त प य श / ए / आ ख छ ठ थ फरष / ऐ / इग ज ड द ब ल स / ई घ झ ढ ध भ व ह / औ। एवं पंचदशावर्ण(रण)पर्यन्तोऽयम् // 344 // [प० 217, पा० 1] . // सर्वतोभद्रः समाप्तः॥ सर्वतोभद्र इति ग्रहरि(ऋ)क्षराश्यक्षरविधानेन येन केनचिदू यथादिस(श)मायातस्यादेस्यो(श्या)क्षराण(णि) च ग्राह्यानि / अन्यत्र विधानं इति / मंगलार्थ च इह लिखितमिति // छ। कंठंतरिओ वि उरो, उ(प?)रभारं(?) सो न गच्छए मोत्तुं / अवसेसंति(समंत?)रिओ पुण, आइल्लमणंतरं पावे // 345 // // 'अइएउ' एते कंठ्याः / एतेषामन्यतमो[प० 217, पा० 2] हकारस्ये (स्य) प्रश्नाक्षरादिस्थस्य यदाऽप्रतः तदा हकार एव लभ्यते / 'अ इ एउ' एतेषां कंठ्यानां अन्यतमादिस्थस्य 'आई उ ऊ ऐऔ अं अः एतेषां अपरिशिष्टस्वराणां अन्यतमो यदाऽग्रतः स्थितमेवाद्यमन्यतरं तदा कंठ्या(व्य) स्वरं लभते // 345 // उक्कारादिसु एवं, पढमंतरिओ ण एइ परभावं / अभिहमं(म्म)तो पुरओ, आदित्त(ल?)मणंतरं लभइ // 346 / / उकारस्य हकारस्य प्रथमस्य प्रश्नाक्षरादिस्थस्य यथाऽप्रतोऽनंतरं ककारः प्रथमो दृश्यते तदा हकार एव लभ्यते / हकार(रे) ककारेणालिंगिते आदिस्थो [प० 218, पा०१] हकार एवं लभ्यते / उकारस्य कंठ्यसंयोगकरणम् // 346 / / निशा. 11 (97) Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम्। [गाथा 347-351] 1....................तीस भायए सदा कालं / जं सेसं सा हु तिही, वोच्छं णक्खत्तकरणं से // लद्धाओ जा तिथीओ, या(हीणा) रूपेण कण्ण(ण्ह)पक्खस(स्स)। मुकं पि दोहि भाए, माससनामादिरिक्खगणं // / सर्वदा प्रश्नकालिनी छाया राम(श)यो द्वादश होरेति पंचदशानां संज्ञा प्रभाक्षरश्च / सर्वमेतदेकीकृत्य तन्स(त्रिंश)त्पंचगुणाक्षेपः / वर्तमानतिथियुक्तं च कृत्वा शेषं गतार्थः ॥अन्य(ना?)दर्शमेतत्।। पढमो विसमो उ सरो, बितिओ य समो तइज्जओ सम्मो / विसमसमो य चउत्थो, सेसा एवं सरचउक्का // 347 // प्रश्नाक्षराणामादिस्थो गकारो विष[म] इति इकारयुक्त गकारमेव लभते / प्रश्नाक्षरादिस्यो ॥धकार स ईकारयुक्तो घकार एव लभते / दकारो विषम उकारयुक्तो दकार एव लभते // 347 // एवं समवग्गाणं, चउक्कया विसमवग्गयाणं च / णायचा णंतरओ, विसमा (प० 219, पा० 1] विसमाण संजोए // 348 // समस्वरेण] युक्तसमाक्षरस्तमेव लभते / विस(ष)मस्वरेण युक्तो विषमाक्षरो लभ्यते / एवं सर्वे ककारादयो हकारान्ताः समवरे(अ)र्युक्ताः समाक्षरास्तमेव लभन्ते / विषमस्वरैयुक्ता ॥विषमाक्षरास्त एव लभ्यन्ते // 348 // समसंजोएण समो, लभइ अ विसमो य विसमसंजोए / वग्गे दिट्ठो एसो, भणिओ वग्गक्खरविा प० 219, पा० 2 ]भाओ // 349 // समस्वरयोगे व्यंजनं समं लभ्यते / स्वरं च विषमस्वरसंयोगे उत्तरत्वाद् विषमाक्षरो लभ्यते / स्वरश्च विषम एव प्राग्व[दर्थः / ततोऽक्षरस्वरविभागे लब्धिरिति // 349 // // संकट-विकटं समाप्तम् // वग्गक्खरा तिपु(गु)णिया, खेवो पढमक्खरस्स वग्गंमि / तिसु चउसु अधो अढे, तंमि य णा[मक्खरं वग्गे // 350 // प्रश्नाक्षराः। एवं वर्गाक्षराः / प्रश्नाक्षराणां विद्यमानस्वराणां या संख्या तामेकीकृत्य सु(त्रि)गुणां कृत्वा प्रश्नाक्षराणां ककारादीनां हकारांतानां अन्यतमादौ दृष्टा पूर्वतृ (त्रि)गुणितपिंडात् पंच प्रक्षिप्य ये ककारादीनां हकारांतानां [प० 220, पा० 1 ]प्रश्नाक्षराणामन्यतमादौ दृष्टे तस्मिन्नेव संख्या पिंडाख्या चतुरक्षिप्यास्ताभिर्भागेऽपहृते शेषे तकारादिवर्गो लभ्यते / लब्धानां पुनः सप्तभिर्भागे पल(यल्ल)ब्धं यच्च शेषं तयोः ककारादिवर्गों लभ्यते // 350 // अक्खरसरिसा जोणी, मत्तासरिसं च जाणए रूवं / - एवं सेण विभत्ते, वग्गेण निरूविओ भेओ // 351 // भस्या गाथायां एष पूर्वार्द्धः खण्डितरूपेण उपलभ्यतेऽत्रादर्श। परं अग्रे 85 तमे पृष्ठे इयं गाथा भण्डास्मिका पुनर्किखिता लभ्यते / आदर्शान्तरभेदेनेयं पुनरुक्तिरत्र जाता सम्भाव्यते / (98) Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा 352-357] प्रश्नव्याकरणाख्यं जीव-धातु-मूलाक्षरैः पूर्वोक्तैर्जीवधातुमूलयोनिनिर्देशकार्यः(य?) मात्राभिर्द्रष्टव्यम् / रूपं शुक्लं कृष्णं पीतं रक्तादि / लक्षणं दीर्घमल्पं वृत्तं इति / जीव-धातु-मूलोत्तराधरैः पंचभिर्भेदः प्रश्नाक्षराणां निरूपयितव्यो वर्गप्रतिबन्धः // 351 // [प० 220, पा० 2] पढम-तइए य चरिमा, वग्गा पासंडिया तहा भणिया / सेसा य अपासंडी, णिहिट्ठा पण्हइत्तेहिं // 352 // प्रथम-तृतीय-पंचमवर्गाणां अन्यतमबहुले प्रश्ने पाखंडिनो ज्ञेयाः। के ते ? प्रत्रजिताः अरहन्तादयः आजीविकादयश्च / शेषाणां द्वितीय-चतुर्थ-वर्गाक्षराणां अन्यतमाधिके प्रभे अपाखंडिनो ज्ञेयाः / [प० 221, पा० 1] अपाषंडिन इति गृहस्था भण्यन्ते / / 352 // पढमो वग्गो पासंदाहिण (दाहिणपासं?) बिइ(ई)य एव चउत्थे य। रा(वा)मं तइए मज्झं, दो पासे पंचमं जाण // 353 // प्रथमवर्गाक्षरबहुले प्रश्ने तैरेव प्रथमवर्गाक्षरैरनभिहतैर्दक्षिणपार्श्वे पुरुषस्य लांछनं ज्ञेयम् / अनभिहतैः स(श)स्वप्रहार इति / द्वितीय-चतुर्थवर्गाक्षराणामन्यतमबहुले [प० 221, पा० 2] प्रभे तैरेव द्वितीय-चतुर्थवर्गाक्षरैरनभिहते वामपार्श्व लांछनं प्रत्येतव्यम् / अभिहतैस्तैरेव शखैः प्रहारादिकम् // 353 // पढमसरे सिरभागं, णिडालयं होइ तह कवरगंमि / चिबुयं[च] चवगंमि, गिवप्पएसो टवगंमि // 354 // प्रथमस्वरग्रहणेन अवर्गो गृह्यते / तेन सिरो ज्ञेयः / कवर्गे निडालं / चवर्गे 10 222, पा० 1] चिबुकं / टवर्गे ग्रीवाप्रदेशा(शः) // 354 // हिययं च तवग्गंमि, कडिय पवग्गंमि होइ नायबा / अरू [य] यवग्गंमि, जाणु पव(ए)सो सवग्गंमि // 355 // तवर्गाक्षरबहुले प्रश्ने हृदयं ज्ञेयम् / पवर्गबहुले प्रश्ने कटी ज्ञेया। ज(य)वर्गबहुले ऊरू ज्ञेयौ / जाणु(नु)पादौ सवर्गबहुले // एवं अष्टविभागांगकल्पना / [प० 222, पा० 2] पंच(एवं?)प्रदेशभागकल्पनार्थः(र्थमाह!)॥ 355 // सीसो य अवगंमि, णिडालदेसो तहा कवग्गंमि / अच्छी य चवग्गंमि अ, णासा हु तहा टवग्गंमि // 356 // ___ यदभिहितं अवर्गबहुले प्रश्ने शिरो ज्ञेयः, तस्येदानीमवयवा[न] तैरेव वर्गाक्षरैराह - अवर्गाक्षरबहुले प्रश्ने मूर्द्धजाः प्रत्येतव्याः / [50 223, पा० 1] कवर्गाक्षरबहुले प्रश्ने ललाटं ज्ञेयम् / चवर्गबहुले प्रश्ने लोचने / टवर्गे नासिका // 356 // वक होइ तवग्गे, अहरोट्रा तह पवग्गए भणिया / चिबुयं च [य]वग्गंमि, होइ य गीवा शवगंमि // 357 // तकारा(वर्गा)धिके वक्त्रम् / पवर्गाधिके ओष्ठौ / यवर्गे चिबुकः / शवर्गे प्रीवा इति // 35 // (99) Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम्। [गाथा 358-365] एतेसु पए प० 223 पा० २)सेसुं, एतेभि अभिहएहि वग्गेहिं / मसयं तिलयं सत्थ-क्खयं च कमसो वियाणाहि // 358 // सिर(शिरः)प्रभृतयो ये प्रदेशा यैरक्षरा(रै)रुक्ताः तैरनि(न)भिहतैः अधिकैः प्रश्(भे) स प्रदेशो निरुपद्रवो वक्तव्यः / अभिहतैरुपरु (द्र)वयुक्तः। चचा(?शस्त्रा)भिघातस्तु(स्त्रि)विधः / तत्र 'तैर्वर्गाक्षरैरालिंगितैः मस(श)कं तिलकं च वक्तव्यम् / अभिधूमितैब्राह्मणं (णैर्बणं) दग्धैस्तु स(श)स्त्रप्रहारः तत्र प्रदेशे वक्तव्यः // 358 // भणिएहि वयणदेसे, वग्गेहि य अभिहएहि जाणिज्जा / मसय-तिलयाइ सवं, चिण्हं गुरुप(ज्झप्प)एसेसु // 359 // वदने यानि[५० 224, पा० 1] चिह्नानि अभिह (हि)तानि तैरभिहतैरक्षरैस्तानि मशकतिल"कादीनि गुह्यप्रदेशे ज्ञेयानीति / / 359 // // अस्त्र विभागप्रकरणमंगस्य // सत्तम-णवमो य रवी, चंदो वि य होइ पढम-तइएणं / भोमो बीय-चउत्थे, पंचम-छट्ठो य ससिसुओं भणिओ // 360 // सप्तमखर एकारः, णवम उ(ओ)कारः / एतौ सूर्यस्य / चन्द्रः प्रथम-तृतीयैः 'अ'भौमो . द्वितीय-चतुर्थैः 'आई' / बुधः 'उ ऊ' // 360 // एक्कारस सूरसुओ, जीवो दसमे य अट्ठमे सुक्को / बारसमो वि य राहू, एते सरसामिया भणिया // 361 // अं शनिः / औ गुरुः / शुक्र ऐ / अः [प० २२४,पा० 2] राहुः। खराणां सा(स्वामित्वं प्रहाख्यातं तन्नामप्रतिबद्धवस्तूपचयापचयोदया-स्तमन-जया जयोत्पातादिना ज्ञेयाः // 361 // // स्वरक्षेत्रभवनम् // रवि-भीम-सुक्क बुह-गुरु-सणि-य(च)दो राहु अट्ठमो एते / अक च ट त प य श वग्गाण होति खेत्ताहिवा णिययं // 362 // अ क च ट त प य श वर्गाणां ग्रहाः क्षेत्राधिपा उक्ताः / तत्प्रतिबद्धाक्षरवस्तुहैः अस्तमिदा(मना)विहासवृद्धिज्ञेया इति // 362 // पण्हक्खरसत्तमु(गु)णं, तिहिसहियं उ(ओ)मरत्तपरिसुई / मत्त(सत्ते)हि भागसेसे, सुजा(जा)इ[५० 225, पा० १]गहा मुणेयबा // 363 // सुन्नं छएण वा (च?)उरो, तिणि य दो तह य रूवमिकं तु / सूरादीणं एते, उमा(ऊसा?) संझा तहा कमसो // 364 // दिनकरानयनम् // 363 -364 / / छाया रासी होरा, पण्हक्खरयं च होइ तीसगुणं / पक्खो वा तिण्णि सया, सट्ठासतिहि(?) तं सबं // 365 // (100) Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा 366-373] प्रभम्याकरणाख्यं तीसगुणं काऊणं, सीया(तीसा)ए हायए सया कालं / जं सेसं सा उ तिही, वोच्छं णक्खत्त-करणं से // 366 // लडाइ(ओ) जा तिहीओ, हीणा रूवेण कण्हपक्खस्स / सु(मु)कमि(पि?) दोहिं च भवे, मासस्स नामरिक्खगणं // 367 // सर्वदा प्रश्नकालिनी छाया रास्य(श)यो द्वादश / होरेति पंचदशानां संज्ञा / प्रभाक्षरश्च / / [प० 225, पा० 2] [सर्व?]मेतदेकीकृत्य तृत्सत्या(त्रिंशता)गुणा शून्यक्षेपः 360 वर्तमानातिथियुक्तं च करवा / शेषं गतार्थम् / अनादर्थ (र्श?)मेतत्तिथी(थि)नक्षत्रकांडम् // 365-367 / / गंधवाह(इ) अवग्गे, दिढे विज्जाहरा कवग्गंमि। पमाहाहा(?) [च]वग्गंमि, णागय(?) य(ट)वग्गमिति // 368 // [इयं गाथा अस्पष्टार्था / न चास्या व्याख्यालेशो लभ्यते / - संपादकः / ] . जक्खा य [त]वग्गंमि, देवा भणिया तहा पवग्गंमि / णागा य यवग्गंमि, भूया जाणे सवग्गंमि // 369 // तवर्गाधिके प्रश्ने यक्षा। पवर्गाधिके देवा। यवर्गाधिके नागा / स(श)वर्गाधिके भूताः / / 369 // पेया य षवग्गंमि, जाण सकारे य तह पिसाया य / कोहंडा य हकारे, एवं जाणिज्ज[प० 226, पा० 1 णुक(क)मसो // 370 // ख(प)काराधिके प्रभे प्रेताः / सकाराधिके पिशाचाः / हकाराधिके कुष्मांडाः // 370 // अणुणासिएसु असुरा, णायवा यं(मि दीसए जंमो। सविसग्गंमि अकारे, जक्खा सुणया य संजोए // 371 // अनुनासिकबहुले असुरा / अ(अं)कारः सानुस्वारः, तदधिके प्रभे यमो शेयः / अकार॥ सविसर्गः, तदधिके प्रो यक्षा ज्ञेयाः / संयोगाक्षराधिके प्रश्ने स्वा(श्वा)नरूपिणो यक्षा ज्ञेयाः // 371 // एएहि अक्सरेहि, जाणसु अभिघाइएसु मरणं तु / जो(जा) जस्स देवया अक्ख[र]स्स तेणेव सा भणिया // 372 // यस्य यस्य देवताविशेषस्य येऽक्षराः पूर्वाभिहितास्तैरहि(रभिह) तैरतस्मात् तस्मात् देवताविशेषात् सकासा(शा)न्म[प० 226, पा० २]रणमपि ज्ञेयम् // 372 // पढमय-बीय(बि-तिय)चउत्थो, पंचमवग्गो य तह ध णायबो / वाइय-पित्तिय-सिंभिय-सन्निवाइय अक्खरा कमसो // 373 // प्रथमवर्गाधिके प्रश्ने वातिका व्याधिरादेस्या(श्या)। द्वितीयवर्गे पैत्तिका। तृतीयवर्गे श्लेष्मा / चतुर्थवर्गाक्षराधिके प्रश्ने सान्निपातः / पञ्चमवर्गाक्षराधिके प्रश्ने क्षयो व्याधिरादेश्यः / / प्रष्टरन्यस्य वा यं व्याधिकृत्पृच्छतीति / / 373 / / (101) Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम्। [गाथा 374-378 ] पणयालसयं अद्दुत्तरं च दोहावग्गाहिवुव(ध?)रासी / अवसा(से)साणं छण्हं, एक्कोत्तरिया हवइ विठ्ठी(डी) // 374 / / पूर्वादिस्थस्य प्रादक्षण्येन बुधका(?)विन्यस्य प्रश्नाक्षरसहितं कृत्वा गुणयेत् // 374 / / पंच य सत्त यणव तेरसे य अट्ठादसमे य सोलसयं / बत्तीसं तित्तीसं, जाणसु गुणकार रासीओ // 375 // पूर्वादितः प्रश्ना सहिता बुधका(?) यथास्थितप्रस्तुति] दिक्चक्रं गुण्य सोधनिकां यथावं विशोधयेत् // 375 // पंचगतिगछसत्तट्ठमा य ते होंति सोहणा कमसो / धय धूमे(म) सीह साणा, वसहमि पुक्कितिया एते // 376 // णियव(?णवयोक्खरंमि जाणे, सोहणयं चोदसे तु वाणि(?) / पण्णरसगए भरिया, सोलसढके वियाणाहि // 377 // एसो [सो] संखेवो, भणिओ जिणभासिओ समासेण / जाव य णिहइ णामं, लाभालाभेसु सन्वेसु // 378 // एष सः उक्तेन प्रकारेण सात्त्विकाय पुरुषाय बुद्धिबलं ज्ञात्वा, ने नै)तदभव्यापि(य) // नास्तिके(का)याश्रद्धधानया(नाय) अकुलपुत्राय जात्यादा(द)जात्यसंपन्नाय देयम् / गुरुशुश्रूषकाय ज्ञानवते चास्तिकाय देयमिति / जिनमहणपरिज्ञानार्थ कृतं यो यन्नामाक्षरैरक्षरैः लाभालाभादि स सर्व वक्तव्यं प्रो इ]ति // 376-378 // // प्रश्नव्याकरणं समाप्तम् // // संवत् 1336 वर्षे चैत्र शु० 1 // इति संपूर्णम् // (102) Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानदीपकाख्यं चूडामणिसारशास्त्रम् / नमिऊण जिणं सुरअणचूडामणिकिरणसोहिपयजुयलं / इय चूडामणिसारं कहिय मए जा(ना)णदीवक्खं // 1 // जिनमहंतं सुरगणचूडामणिकिरणशोभितपादयुगलं नत्वा इदं चूडामणिसारं ज्ञानप्रदी- / पाख्यं मया कथ्यत इति // 1 // पढम-तईय-सत्तम-रंधसरा पढम-तईयवग्गवण्णाई / आलिंगियाइं सुहया उत्तर-संकडअणामाइं // 2 // अइए ओ एते प्रथम-तृतीय-सप्तम-नवमाश्चत्वारः, तथा क च ट त प य शा गजड द ब ल सा एते प्रथम-तृतीय[वर्ग]चतुर्दशवर्णाश्च आलिंगिताः, सुभगाः, उत्तराः, संकटनामकाच / / भवन्तीति // 2 // कुच-जुग-वसु-दिस-सरआ बीय-चउत्थाई वग्गवण्णाई। अहिधूमिआई मज्झा ते उण अहराइं वियडाइं // 3 // आई ऐ औ एते द्वितीय-चतुर्थाष्टम-दशमाश्चत्वारः स्वराः, तथा ख छ ठ थ फर षाः घश उधभ व हाः एते द्वितीय-चतुर्थवर्गाणां चतुर्दशवर्णाः अभिधूमिताः, मध्यास्तथा उत्तराधरा // विकटाश्च भवन्तीति // 3 // सर-रिउ-रुद्द-दिवाअर-सराई वग्गाण पंचमा वण्णा / दवाई वियड-संकड-अहाहर-असुहणामाइं॥४॥ उऊ अं अः एते पंचम-षष्ठिका एकादशम-द्वादशमाश्चत्वारः स्वराः, तथा बबण नमा इति वर्गाणां पंचमा वर्णाः दग्धाः विकटसंकटा अधरा अशुभनामकाश्च भवन्ति // 4 // सबाण होइ सिद्धी पण्हे आलिंगिएहि सबेहिं / अहिधूमिएहिं मज्झा णासइ दड्डेहिं सयलेहिं // 5 // प्रश्ने आलिंगितैः सर्वैः सर्वेषामेव सिद्धिर्भवति, [अभिधूमितैर्मध्या सिद्धिः] दग्धैः सर्वैः सिद्धिर्नश्यति // 5 // उत्तरसरसंजुत्ता उत्तरआ उत्तरुत्तरा हुति / अहरेहिं उत्तरतमा अहरा अहरेहिं णायबा // 6 // उत्तरसंज्ञकैः स्वरैः संयुक्ता उत्तरसंज्ञका एव वर्णा उत्तरतमा भवन्ति / त एव अधरा. धरसंज्ञकैः स्वरैः संयुक्ता उत्तरसंज्ञका अधरसंज्ञकाश्च भवन्तीति // 6 // (103) Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 चूडामणिसारशास्त्रम् / [गाथा 7-14] अहरसरेहि जुत्ता ते दड्डा हुँति अहरअहरतमा / कजाइं साहंति सुअ(इ)रं अधमा अधमाइं किं बहुणा // 7 // अधरसंज्ञकैः स्वरैः संयुक्ता दग्धा वर्णा अधराधरतरसंशका भवति / ते च सुचिरकालेन अधमाधमानि कार्याणि साधयन्ति किंबहुनेति / / 7 // दडसरेहिं जुत्ता दड्डतमा हुति दड्डया वण्णा / ते णासयंति कजं बलाबलं मीसयेसु सयलेसु // 8 // दग्धसंज्ञकैः स्वरैः संयुक्ता दग्धसंज्ञका वर्णा दग्धतमसंज्ञका भवन्ति तेषां बलत्वान्नि:फलं भवति // 8 // आलिंगिएहिं पुरिसो महिला अहिधूमिएहिं सबेहिं / दड्डेहिं होइ संढो जाणिज्जइ पण्हपडिएहिं // 9 // आलिंगितैर्वर्णैः प्रभे पतितैः पुरुषो भवति / अभिधूमितैः स्त्री। दग्धैनपुंसकमिति जानीतेति // 9 // जइ वग्गाण य वण्णा पढम-बीय-तीय-चउत्थ-पंचमया / तह विष्प-राय-वयसा सुद्दो विय संकरा य सयलाई // 10 // यदि वर्गाणां वर्णाः प्रथम-द्वितीय-तृतीय-चतुर्थ-पंचमकाः, तदा विप्र-राजन्य-विद-शूद्राः, // अपि च संकरजातयः सर्व एव भवन्तीति // 10 // एदेहिं वण्णेहिं कमेण बालो कुमारओँ तरुणो। मज्झिमवयो वि थविरो जाणिज्जइ पण्हपडिएहिं // 11 // तथा एतैरेव वर्णैः प्रभे पतितैः क्रमेण बालः कुमारस्तरुणो मध्यमवया वृद्धश्च भवतीति जानीहि // 11 // आलिंगिएहिं विट्ठी मज्झा अहिधूमिएहिं सा होइ / दड्डेहिं णत्थि विट्ठी जिणवयणं सच्चियं जाण // 12 // थालिंगितैर्वृष्टिः, अभिधूमितैर्मध्यमा वृष्टिः, दग्धे नास्ति वृष्टिरिति जिनवचनं सत्यमेव जानीहिं॥ 12 // अइउप्पज्जइ सस्सं पण्हे आलिंगिएहिं वण्णेहिं / अहिधूमिएहिं किंचण णासइ दड्डेहिं णो चित्तं // 13 // अतिशयेनोत्पद्यते सस्यं प्रश्ने आलिंगिर्वणः, अमिधूमितैः किंचिदुत्पद्यते, दग्धैर्नश्यति, अत्र नो चित्रमिति // 13 // संपदिकालं पण्हे वण्णो आलिंगिओं पयासेइ / अहिधूमिओ वि भूअं दड्डो उण भावियं णूणं // 14 // " प्रभे आलिंगितो वर्णः संप्रतिकालं प्रकाशयति / अभिधूमितोऽपि भूतम् / दग्धः पुनर्भाविकालं नूनमिति // 14 // (104) Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा 15-22] ज्ञानदीपकाल्यं तह पढम बीय तइआ वण्णा वुच्चंति तिण्णि कालाई / मा इत्थ करह भंती जहसंखं सयलवग्गाणं // 15 // तथा समस्तवर्गाणां प्रथम-द्वितीय-तृतीयवर्णाः यथासंख्यं त्रीन् कालान् ब्रुवन्ति / अत्र मा भ्रांतिं प्रकुरुतेति // 15 // आलिंगिएहिं मुक्कइ वाहिं अहिधूमिएहिं ण हु रोई। अहवा चिरेण कटुं दड्डो मरणं पयासेइ // 16 // आलिंगितैाधि रोगी मुंचति, अभिधूमितैन मुंचति, अथवा चिरेण कष्टात् मुंचति, दग्धश्च मरणमेव प्रकाशयति // 16 // विसमा दाहिणपासे वामे य वणं समा य पयडंति / वण्णा पण्हे पडिया पंचमया बेवि पासंमि // 17 / / प्रश्ने पतिता विषमाः प्रथम-तृतीयवर्णा दक्षिणपार्श्वे तथा समाः द्वि-चतुर्थी वर्णाः वामपार्थे पंचमका वर्णाः उत्तरपार्श्व व्रणं प्रकाशयन्ति // 17 // अट्ठ सिरो-मणि-वयण-हियय-कडि-उरु-जाणु-चरणजुयलेहिं / पण्हविलग्गा वग्गा वणाई दरिसंति जहसंखं // 18 // अष्टौ वर्गाः प्रश्नविलब्धाः यथासंख्यं शिरोललाटवदनेषु] तथा हृदय-कटि-ऊरु-जानु-15 चरण-युगलेषु व्रणा निदर्शयन्ति // 18 // अणिलय-पित्तय-सेफय-संसग्गय आहिधाययं रोगं / पयडंति पंचवग्गा जहसंखं पढम उद्दिट्ठा // 19 // प्रथमोदिष्टाः पंचवर्गाः यथासंख्य अनिलजं पित्तजं श्लेष्मजं संसर्गजं अभिघातजं रोगं प्रकटयन्ति // 19 // अइमंद-मज्झ-दारुणपीडाई दिति पण्हपडिआई। आलिंगियाहिधूमियदड्डा वण्णा जहासंखं // 20 // आलिंगिताभिधूमितदग्धा वर्णाः प्रश्नपतिता यथासंख्यं अत्यन्तमन्दमध्यदारुणां पीडां प्रकटयन्तीतिः // 20 // आलिंगिएहिं संधी ण हु संधी विग्गहे(हो) ण अहरेहिं / अहराहरेहिं कहिओ समरो सुहडाण णासयरो // 21 // आलिंगितैः संधिर्भवति, अधरैर्न च संधिर्न च विप्रहः, अधराधरैः संग्रामः सुभटानां नाशकर इति // 21 // विजयं उत्तरवण्णो ण जयं ण पराजयं वि अहरेहिं / अहराहरो पयासइ पराजयं णत्थि संदेहो // 22 // उत्तरो वर्णो विजयं प्रकाशयति, अधरो वर्णो न जयं न पराजयं, अधराधरश्च पराजयमेवेत्यत्र नास्ति संदेहः॥ 22 // नि० आ०१२ (105) Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूडामणिसारशास्त्रम् / [गाथा 23-29] जइ पढमक्खरमहरं अवसाणे उत्तरक्खरं पण्हे / ता उत्तरो सुबलिओ विवरीओ ताण विवरीयं // 23 // जयपराजयप्रश्ने यदा प्रथमाक्षरमधरं अवसाने च उत्तरमक्षरं भवति तदा उत्तरो बली भवति // 23 // पढमसरेण य जुत्ता पण्हे मत्ताविवज्जिया वण्णा / अणभिहिअणामआ दे पअडंति य जीवचिंताई // 24 // प्रथमस्वरेण युक्ता अन्यमानाविवर्जिता वर्णाश्च ते प्रश्ने अनभिहितनामका भवंति ते च जीवचिंता प्रकटयन्ति // 24 // ससि-तइअ-पंच-सत्तम-नवमसरा रुद्दसंखसरसहिया / क-च-टा पंचमहीणा सहिया य-स-हेहिं जीवक्खा // 25 // प्रथम-तृतीय-पंच-सप्तम-नवमाः स्वराः एकादशस्वरसहिताः, तथा कवर्ग-चवर्ग-टवर्गाः पंचमहीनाः, यकार-शकार-हकारसहिता एते एकविंशतिवर्णाः जीवाख्या भवन्तीति // 25 // बीओ छट्ठो सरओ सविसग्गो तह व-सक्खरोपेओ। तह उण पंचमहीणा त-पवग्गा धाउणामा उ // 26 // द्वितीयः षष्ठः स्वरः, सविसर्गः, तथा वकार-सकारोपेतः, तथा पुनस्तवर्गः पवर्गः पंचमहीन एते त्रयोदशवर्णा धातुनामका भवन्ति // 26 // ई ऐ औ सरजुत्ता र-ल-षा ङ-ञ-ण-न-माइं वण्णाई / एआरह मूलक्खा पयासिया जिणवरिंदेण // 27 // चतुर्थाष्टमदशमस्वरयुक्ता र-ल-षकारा ङ-ब-ण-न-माश्चेत्येकादश वर्णा मूलाक्षरप्रकाशका 7 भवंतीति / एतेनैतदुक्तं भवति लाभप्रभे धातुलाभः, मूलाक्षरैर्जीवलाभः, धात्वक्षरैर्जीवाक्षरैर्मूललाभ इति नात्र कार्या विचारणा // 27 / / मुट्ठीजीवक्खरए मूलं जीवं वि मूलअक्खरए / धाउं उण जाणिजह धाउक्खरएण किं चोज्जं // 28 // मुष्टौ जीवाक्षरैर्मूलं ज्ञातव्यम् , जीवं च मूलाक्षरैः, धातुं धात्वरैरेवेति किमित्याश्चर्यमिति // 28 // बहुपढमवग्गवण्णा अह बहुबिंदू विसग्गसंजुत्ता / बहुवन्ना जह पण्हे ता सुन्नं मुट्ठिचिंताई // 29 // प्रमे यदि बहवः प्रथमवर्गवर्णा भवन्तीति, अथवा बहुबिंदुविसर्गसंयुक्ता भवन्ति, अथवा प्रभा एव बहवो भवन्ति तदा मुष्टिचिन्तायां शून्यं भवति // 29 // 1. जीवखरा। (106) Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा 30-36] ज्ञानदीपकाख्यं विसमसरा ऊआरो वग्गाणं पढम-तइयवण्णाई / दुप्पय-णराण एसा एआहाराण णहु होइ // 30 // विषमस्वराः प्रथम-तृतीय-पंचम-सप्तम-नवमैकादशमाः, तथा ऊकारश्च, तथा वर्गाणां प्रथम-तृतीयवर्णाश्च एते द्विपदेषु नराणां वर्णाः, एतदाहाराणां राक्षसानां न भवन्तीति // 30 // बीओ दसमो सरओ वग्गाणं बीयवण्णया सयला / दिसंति जइअ पण्हे ता मुणह चउप्पयं जीवं // 31 // यदि प्रश्ने चतुर्थाष्टद्वादशः स्वरो भवति, तथा वृश्चिकादीनां जातिं दृष्टिं च व्याघ्राविक तं तवर्गवर्णों वदति, तथा वर्गाणां चतुर्था वर्णाश्च तदा चतुष्पादा जीवा भवन्ति / / 31 / / जइ वग्गाण य वण्णा पंचमया हुंति पण्हपडियाई। ता मुणह णरअवासिय भूअपिसाचाई सबाई // 32 // यदि वर्गाणां पंचमा वर्णाः प्रश्ने पतन्ति भवन्ति, तदा नारकवासिनो भूतपिशाचाश्च सकलान् जानीतेति // 32 मत्ता त-पवग्गेहिं य-शवग्गेहिं हुति सउणा य / सिद्धा सरेहि भणिया देवा उण क-च-टवग्गेहिं // 33 // तवर्ग-पवर्गाभ्यां माः, यवर्ग-शवर्गाभ्यां शकुनाः, स्वरैः सर्वैरेव सिद्धाः, देवाः पुनः / / कवर्ग-चवर्ग-टवर्गर्भवन्तीति // 33 // चवइ कवग्गो पण्हे लडो थलचारियं विहंगमयं / तं चिअ अइप्पहाणं तवग्गओ णत्थि संदेहो // 34 // प्रश्नलब्धः कवर्गः स्थलचारिणं विहंगम वक्ति / तमेव स्थलचारिणं विहंगम अतिप्रधान मयूरादिकं तवर्गो वक्तीति संदेहो नास्ति // 34 // जइ अ चवग्गो लद्धो तह पक्खी होइ जलयरो Yणं / तं पि टवग्गे सिट्ठ चवइ पवग्गो गुहसयंधं // 35 // यदि चवर्गो लब्धः तदा जलचराः पक्षिणो भवन्ति / नूनं तमपि जलचरं पक्षिणं श्रेष्ठं हंसादिकं टवर्गो वक्तीति / अधमं ( अन्धं ? ) च गुहाशयं उलुकादिकं पवर्गो वक्तीति // 35 // पण्हे कवग्गवण्णा कालोरय-सिंगिणो पयासंति / राजीवसप्पजाई चवग्गवण्णा य दंतत्थं // 36 // प्रभे कवर्गवर्णाः कालोरगाश्च शृंगिणश्च वृषभादीनि प्रकाशयन्ति / राजीवसर्पजाति शंखचूडादिकं दंतानं च हस्तिप्रभृतिक चवर्गवर्णाः प्रकाशयन्तीति // 36 // 10 मुणहु / 20 अइपमाणं। 3 प्र. पंखी। 40 वञ्चह पवग्गो सभधर्म / (107) Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92 चूडामणिसारशास्त्रम् / [गाथा 37-44] गोणाससप्पजाई टवग्गवण्णा फुडं पयासंति / लहुअविसाणं जाई दिट्ठीणं होई तवग्गवण्णेहिं // 37 // गोनसो सर्पजातिं टवर्गवर्णाः स्फुटं प्रकाशयन्ति / लघुकविषाणां जंतूनां वृश्चिकादीनां जाति दृष्टिं च व्याघ्रादिकं तं तवगर्गो वर्णो वदति // 37 // विसमच्छ-दाहि(ढि ? )दुंदुहि-कीडविसेसाई किं चुजं / जइ किर लद्धो पण्हे पवग्गओ पण्हचउरेण // 38 // यदि प्रश्नचतुरेण प्रश्ने पवर्गो विलब्धस्तदा विषमत्स्यान् शृंगिकाप्रभृतीन् दंष्ट्रान् मकरनक्रप्रभृतीन दुंदुभिप्रभृतिकीटविशेषकान् वक्ति अत्र किमाश्चर्यमिति / / 38 // ससि-जलण-बाण-मुणि-गह-रुद्द-सरा वग्गाण दु-तीयवण्णा य / वुञ्चति धम्मधाउं अधमं चिय सेससरवण्णा // 39 // प्रथम-तृतीय-पंचम-सप्तम-नवमैकादशमाः स्वराः, तथा कवर्गादिसप्तवर्गाणां द्वितीयवर्णाश्च धाम्यधातुं वदन्तीति // 39 // रवि-रुद्द-पक्खसरओ पंचमहीणा कवग्गवण्णा य / कणयं चवन्ति तारं सत्तमवग्गो मुणिंदुसरओ य // 40 // // द्वादशमैकादशम-द्वितीयस्वराः पंचमहीनाः कवर्गवर्णाश्च कनकं वदन्ति / रजतं च सप्तमो वर्ग: तथा सप्तमः प्रथमः स्वरश्चेति // 40 // तंब च तइओ सरओ पंचमहीणो चउत्थओ वग्गो / लोहं दसमो सरओ अट्ठमवग्गो मैकारो य // 41 // तानं तृतीयस्वरः पंचमहीनः चतुर्थो वर्गश्च, लोहं दशमस्वरः तथाष्टमो वर्गों मकारश्च // वदति वचनपरिणामेन पूर्वतो न वर्तत इति // 41 // वंगं तइओ वग्गो पंचमहीणो कवग्गपंचमओ। अट्ठम-पंचमसरओ पण्हे लद्धो पयासेइ // 42 // वंग त्रपु पंचमहीनस्तृतीयो वर्गः, तथा कवर्गपंचमो वर्णश्च, तथाऽष्टमः पंचमः स्वरः प्रश्ने लब्धः प्रकाशयतीति // 42 // - छठुसरो एकंतो पंचमवण्णो अ तईयवग्गस्स / जइ पाविजइ पण्हे ता णूणं सीस मुणहें // 43 // पष्टस्वर एकाकी तथा तृतीयवर्गस्य पंचमो वर्णश्च यदि प्र प्राप्यते तदा नूनं सीसकं कथयन्ति // 43 // न-प-फ-म-भा ऊ वण्णा पण्हे लद्धा कुणंति पित्तलयं / ण-त-था द-धा इ-आरा कंसं ण हु अत्थि संदेहो // 44 // प्रधाम। 250 तंमं / 30 तह म। ४प्र. वग्गो वि। 50 भणए। (108) Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [माथा 45-51] ज्ञानदीपकाख्यं नकार-पकार-फकार-[मकार]-भकारस्तथा ऊकारश्च एते प्रश्ने लब्धाः पित्तलकं कथयन्ति / णकार-तकार-थकार-दकार-धकार-इकारश्च एते कांस्यं कथयन्ति / तथा अत्र न खलु संदेहोऽस्तीति / / 44 // कणयक्खरं पयासइ मरगयमाणिकपहुईरयणाई। मुत्ताहीरयपहुई तारक्खरयं णे संदेहो // 45 // कनकाक्षरं मरकतमाणिक्यप्रभृतिरत्नानि प्रकाशयति, ताराक्षरं च मुक्ताहीरकप्रभृतिकं प्रकाशयति // 45 // कक्करतालयपहुदि [तं]वक्खरयं [च] भणइ णो 'चित्तं / लोहक्खरेहिं जाणह रयणाई इंदनीलपहुदीणि // 46 // ताम्राक्षरः तालकप्रभृति भणति नात्र चित्रम् , लोहाक्षरैश्च इंद्रनीलप्रभृतीनि रत्नानि " जानीतेति // 46 // कंसक्खरं पयासइ रयणऽसेसाई काचपहुदीणि / सेसं सीसयपहुदि पित्तलसीसाइ अक्खरयं // 47 // कंसाक्षरं काचप्रभृतीनि रत्नविशेपाणि प्रकाशयति / शेषं पित्तलसीसकाद्यक्षरं शीशकाभृतीनि रत्नविशेएं प्रकाशयति // 47 // उत्तरवण्णपहाणं पण्हे गढियं पयासए णिचं / धाउमगढिअं अहरं अक्खरयं भणइ सच्चमियं // 48 // प्रश्न उत्तरवर्णाः प्रश्नमक्षरं नित्यं घटितं धातुं प्रकाशयति / अधरमक्षरं अघटितं धातुं भणतीति सत्यमिदम् / / 48 / / आलिंगिएहिं जाणह कंकणकेऊरपहुदि आहरणं / / अहरक्खरेहिं गढिअं कच्चोलयपहुति भायणयं // 49 // घटिते धातोर्लब्धे सति पुनरपि प्रश्ने आलिंगिताक्षरैः घटितं केयूरप्रभृतिकमाभरणक भवतीति / अधराक्षरर्घटितं कचोलकप्रभृति भाजनं भवति // 49 // उत्तरवण्णपहाणं पण्हे दरिसेइ अहिणवाहरणं / अहरक्खर अपहाणं उवभुत्तं णत्थि संदेहो // 50 // आभरणे प्राप्ते सति पुनरन्यप्रश्ने उत्तरवर्णप्रधानं प्रश्नमभिनवाभरणं दर्शयति / अधराझरेऽप्रधानं च उपाभरणं दर्शयतीति नास्ति संदेहः // 50 // सबे उत्तरवण्णा भवंति सुरलोअलोअणाहरणं / अहरक्खराइ णूणं माणवलोयस्स जंतूणं // 51 // पुनरन्यप्रश्ने सर्व एवोत्तरवर्णाः सुरलोकानामाभरणं ब्रुवन्ति / अधराक्षराणि मानवलोकस्य / द्विपदचतुष्पदजंतूनामाभरणं ब्रुवन्ति // 51 // 10 पहुवि / 20 णस्थि / 30 सचं ध।। (109) Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 चूडामणिसारशास्त्रम् / [गाथा 52-59 दुप्पयवण्णा पण्हे दुप्पअजंतूण चवइ आहरणं / सो वि णर-णारयाणं विहगाणं विहगवण्णेहिं // 52 // पुनरन्यप्रश्ने द्विपदवर्णा द्विपदजंतूनामाभरणं ब्रुवन्तीति / विहगवर्णाश्च विहंगानामाभरणं ब्रुवन्ति // 52 // जइ य चउप्पयवण्णा पण्हे लडाई हुंति पउराइं। मा करहु इत्थ भंती जाणिज्ज चउप्पयाहरणं // 53 // पुनरन्यप्रश्ने यदि चतुष्पदवर्णाः प्रश्ने लब्धाः प्रचुरा भवंति तदा मा भ्रांतिं कुरुत चतुपदाभरणं जानीतेति // 53 // दिस-कुच-वेयट्ठमया सरया दरिसंति उद्धआहरणं / ससि-तिय-गह-सत्तमया मझंगे सेस अद्धाणं // 54 // दशम-द्वितीय-चतुर्थाष्टमकाः स्वराः ऊर्द्धदेहाभरणं दर्शयन्ति / प्रथम-तृतीय-नवमसप्तमकाश्च मध्यदेहाभरणं दर्शयति / / 54 // आहरणाण य वण्णा संसिट्ठा हुँति जई य त-पउरा / ता तं रयणणिबद्धं भायणयं ताण वण्णेहिं // 55 // यद्याभरणानां वर्णाः संश्लिष्टाः संबद्धाः तवर्गप्रचुरा भवन्ति तदाऽऽभरणं रजनिबद्धं भवति, भाजनवर्णैश्च संबद्धैर्भाजनं रत्ननिबद्धं भवति // 55 // जइ पउरउत्तरडं ता रयणं सुद्धजाइयं मुणहु / तं अहरक्खरबद्ध कित्तिमयं मीसिए मिस्सं // 56 // यदि ततः प्रचुरोत्तराधरसंबंधे...... कृत्रिमजातिमिश्रितं च इतः ज्ञास्यतेति // 56 // उत्तम-मज्झिम-अधमा हुंति य णाणा तहा जहासंखं / आलिंगियाहिधूमियदड्डयपत्तेहिं पण्हेहिं // 57 // तथा आलिंगिताभिधूमितदग्धके प्राप्ते प्रश्ने उत्तममध्यमाधमानि नाणकानि टंककानि शिवांकादिकानि यथासंख्यं भवन्तीति // 57 // पढमं तरूण वण्णा तह ससि-गहसंमिओ सरो चेव / क-च-टादुआण(? °ण दुइय)वण्णा दसमओ दुज्जो सरो वेवि // 58 // क-च-टादिवर्गानां सप्तानां प्रथमो वर्णस्तथा प्रथम-नवमस्वरश्च एते नववर्णाः तरूणामाम्रादीनां वाचकाः, कवर्ग-चवर्ग-टवर्गाणां च द्वितीयवर्णाः ख-छ-डास्तथा दशम-द्वितीयौ स्वरौ च एते पंच वर्णा लतानां द्राक्षादीनां वाचका इति // 58 // रिउ-बाण-रुद्दसरओ पंचमवण्णा तिणाइ जति / सेसदुइज्जा वण्णा वल्ली वग्गाण चत्तारि // 59 // (110) Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा 60-66] ज्ञानदीपकाख्यं षष्ठ-पंचमैकादशस्वरः, तथा वर्गाणां कवर्गाणां सप्तानां पंचमाश्च वर्णास्तृणानि दुर्वादीनि जल्पन्ति / शेषा द्वितीया वर्णाः चत्वारि तवर्ग-पवर्ग-यवर्ग-शवर्गाणां चतुर्णां वल्लीनां बूलीप्रभृतिका जल्पन्ति // 59 // अट्ठम-चउअं तिसरा चउत्थवण्णेण ठाइआ तिण्णि / जंपंति ख-छ-ठ-फाओ जाइविसेसाइं गुम्माइं // 6 // कवर्गादिसप्तवर्गाणां चतुर्थवर्णेन स्थापिताश्चतुर्थाष्टमीतिमात्रयः स्वराः ख-छ-ठ-फा जातिविशेषान् गुल्मान् जल्पन्ति / / 60 // ग-ज-डेहिं होति य लया सालादि सत्तमसरेहिं गहिएहिं / गहिएहिं दबलसेहिं प(ध ?)ण्णापहुदीनि जाणेह // 61 // कवर्ग-चवर्ग-टवर्गाणां तृतीयवर्णेन भवन्ति तृतीय-सप्तमाभ्यां स्वराभ्यां शालादिकान् / वृक्षान् , तवर्ग-पवर्ग-यवर्ग-शवर्गाणां चतुर्णा तृतीये वर्णे गृहीते धान्यकादीन् जानीतेति // 61 // जल-साहारण-जंगलदेसपभूयं चवंति भूरुहयं / / आलिंगिय-अहिधूमिय-दड्डयवण्णा जहासंखं // 62 // जलसाधारणं जांगलदेशप्रभूतं भूरुहं यथा जलजं कमलोत्पलादिकं जांगलजं करीरकरमर्दादिकं तानेतान् यथासंख्यं आलिंगिताभिधूमिता वर्णा भुवन्तीति / / 62 / / तरवो हुति असोया संणिहिया उत्तरेहिं वण्णेहिं / अधरसरेहिं अधमा पण्हे पडिएहिं दूरट्ठा // 63 // उत्तराक्षरैरशोकाद्यास्तरवः प्रत्यासन्ना भवन्ति / अधराक्षरैरधमा वृक्षाः सर्वत्र शाखोटकादयो दूरस्था भवन्ति // 63 // संजुत्त-असंजुत्ता जहाकम लद्ध[पण्ह]वण्णेहिं / फलियाफलिया तरुणो केवलिनाणेण भासंति // 64 // संयुक्ता असंयुक्ता लब्धाः प्रश्नवर्णाः यथाक्रमं फलिताफलितान् तरून केवलिकाज्ञानेन / भाषन्ति इति // 64 // तह दिवस-मास-पक्खय पुणो वि मासे वि तह य वच्छरए / जहसंखं लाहसुहं एसु य सयलेसुवग्गेसु // 65 // एषु सर्वेषु वर्गेषु कवर्गादिसप्तस्वपि वर्गेषु एकद्वित्रिचतुःपंचमके वर्णे तस्मिन्नेव दिवसे लाभसुखादिकं चिन्तितं भवति / सर्वैद्वितीयवर्णैर्मासे उद्भवति, सर्वे तृतीयवर्णे पक्षे उद्भवति, सर्वे चतुर्थवर्णे पुनर्मासे एव उद्भवति, सर्व पंचमवणे संवत्सरे उद्भवति / / 65 // उत्तरवण्णपहाणो उत्तरअयणं' पयासए पण्हे / अहरक्खरेसु पैण्हे दक्खिणअयणं णे संदेहो // 66 // 1 प्र० उत्तराययं / 2 प्र० अधराखरपहाणं। 3 प्र० दक्खिणयणं णत्थि। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 चूडामणिसारशास्त्रम् / [गाथा 67-73] उत्तरवर्णप्रधानप्रश्नः उत्तरायणं प्रकाशयति / अधराक्षरप्रधानश्च दक्षिणायनं प्रकाशयति अत्र नास्ति सन्देहः // 66 // पढमक्खरेण सिसिरो महु वि तहा वीयएण वण्णेण / तीयक्खरेण गिम्हो चउथेण य पाउसो होइ // 67 // कवर्गादिसप्तवर्गाणां प्रथमाक्षरेण प्रश्नप्राप्तेन शिशिरः, तथा द्वितीयवर्णेन मधुर्वसंतः, तृतीयाक्षरेण ग्रीष्मः, चतुर्थाक्षरेण प्रावृट् भवति / / 67 // सत्तमसरेहिं सरओ कहिओ अणुणासिएहिं हेमंतो। अंअ [: ?] इ उ अक्खरयं पयासियं जिणवरिंदेण // 68 // सप्तमस्वरे शरत् कथितः, अनुनासिके हेमंतः / इदं स्पष्टाक्षरं जिणवरेंद्रेण प्रकाशित"मिति // 68 // होइ च-टेहिं चित्तो वेसाहो होइ ग-ज-डवण्णेहिं / जिट्ठो वि द-ब-ल-सेहिं ई ओघ-झ-ढेहिं आसाढो // 69 // चवर्ग-टवर्गयोः प्रथमाक्षराभ्यां चैत्रो भवति / तथा कवर्ग-चवर्ग-टवर्गाणां तृतीयाक्षरैवैशाखो भवति / तवर्ग-पवर्ग-यवर्ग-शवर्गाणां तृतीयाक्षरैज्येष्ठो भवति / चतुर्थ-दशमस्वराभ्यां Is तथा कवर्ग-चवर्ग-टवर्गाणां चतुर्थाक्षरैराषाढो भवति / / 69 // णहु होइ ध-भ-व-हेहिं सर-रिउसर ङ-अ-णेहिं भद्दवओ। ए ऊ बिन्दु-विसग्गा सेसयवण्णेहिं आसिणओ // 70 // तवर्ग-पवर्ग-यवर्ग-शवर्गाणां चतुर्थाक्षरैनभः श्रावणो भवति / पंच-पड्भ्यां स्वराभ्यां कवर्ग-चवर्ग-टवर्गाणां पंचमाक्षरैर्भाद्रपदो भवति / अनुस्वार-विसर्गाभ्यामाश्विनो भवतीति // 7 // तह त-प कत्तिकमासो कहिओ पढमेहिं दोहिं वण्णेहिं / य-शवण्णेहिं वि दोहिं मियसरणामो य मासो य // 71 // तवर्ग-पवर्गयोः प्रथमाक्षराभ्यां द्वाभ्यां तथा पुनः कार्तिको मासः कथितः, यवर्ग-शवर्गयोः प्रथमवर्णाभ्यां द्वाभ्यां मार्गशीर्षो नामधेयो मासः कथितः इति / / 71 // आ ई ख-छ-ठेहिं सहो थ-फ-र-षवण्णेहिं होइ तह माहो। फग्गुणमासो ससि-मुणिसरएहिं तह कवग्गेण // 72 // द्वितीय-चतुर्थाभ्यां स्वराभ्यां तथा कवर्ग-चवर्ग-टवर्गाणां द्वितीयाक्षरैः सह पौषो मासो भवति / तवर्ग-पवर्ग-यवर्ग-शवर्गाणां द्वितीयवर्णैस्तथा माघो भवति / प्रथम-सप्तमस्वराभ्यां कवर्गस्य प्रथमाक्षरेण फाल्गुनमासो भवतीति // 2 // दो तिन्नि पंच अट्ठा पंच य अट्ठा य तह य दो तिन्नि / चारिक सत्त छक्का सत्त च्छक्का य चारिका // 73 // // इति जिनेन्द्रकथितं प्रश्नचूडामणिसारशास्त्रं समाप्तम् // .. (112) Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ எU ISBN No. 978-81-89698-72-0