________________ [गाथा 366-373] प्रभम्याकरणाख्यं तीसगुणं काऊणं, सीया(तीसा)ए हायए सया कालं / जं सेसं सा उ तिही, वोच्छं णक्खत्त-करणं से // 366 // लडाइ(ओ) जा तिहीओ, हीणा रूवेण कण्हपक्खस्स / सु(मु)कमि(पि?) दोहिं च भवे, मासस्स नामरिक्खगणं // 367 // सर्वदा प्रश्नकालिनी छाया रास्य(श)यो द्वादश / होरेति पंचदशानां संज्ञा / प्रभाक्षरश्च / / [प० 225, पा० 2] [सर्व?]मेतदेकीकृत्य तृत्सत्या(त्रिंशता)गुणा शून्यक्षेपः 360 वर्तमानातिथियुक्तं च करवा / शेषं गतार्थम् / अनादर्थ (र्श?)मेतत्तिथी(थि)नक्षत्रकांडम् // 365-367 / / गंधवाह(इ) अवग्गे, दिढे विज्जाहरा कवग्गंमि। पमाहाहा(?) [च]वग्गंमि, णागय(?) य(ट)वग्गमिति // 368 // [इयं गाथा अस्पष्टार्था / न चास्या व्याख्यालेशो लभ्यते / - संपादकः / ] . जक्खा य [त]वग्गंमि, देवा भणिया तहा पवग्गंमि / णागा य यवग्गंमि, भूया जाणे सवग्गंमि // 369 // तवर्गाधिके प्रश्ने यक्षा। पवर्गाधिके देवा। यवर्गाधिके नागा / स(श)वर्गाधिके भूताः / / 369 // पेया य षवग्गंमि, जाण सकारे य तह पिसाया य / कोहंडा य हकारे, एवं जाणिज्ज[प० 226, पा० 1 णुक(क)मसो // 370 // ख(प)काराधिके प्रभे प्रेताः / सकाराधिके पिशाचाः / हकाराधिके कुष्मांडाः // 370 // अणुणासिएसु असुरा, णायवा यं(मि दीसए जंमो। सविसग्गंमि अकारे, जक्खा सुणया य संजोए // 371 // अनुनासिकबहुले असुरा / अ(अं)कारः सानुस्वारः, तदधिके प्रभे यमो शेयः / अकार॥ सविसर्गः, तदधिके प्रो यक्षा ज्ञेयाः / संयोगाक्षराधिके प्रश्ने स्वा(श्वा)नरूपिणो यक्षा ज्ञेयाः // 371 // एएहि अक्सरेहि, जाणसु अभिघाइएसु मरणं तु / जो(जा) जस्स देवया अक्ख[र]स्स तेणेव सा भणिया // 372 // यस्य यस्य देवताविशेषस्य येऽक्षराः पूर्वाभिहितास्तैरहि(रभिह) तैरतस्मात् तस्मात् देवताविशेषात् सकासा(शा)न्म[प० 226, पा० २]रणमपि ज्ञेयम् // 372 // पढमय-बीय(बि-तिय)चउत्थो, पंचमवग्गो य तह ध णायबो / वाइय-पित्तिय-सिंभिय-सन्निवाइय अक्खरा कमसो // 373 // प्रथमवर्गाधिके प्रश्ने वातिका व्याधिरादेस्या(श्या)। द्वितीयवर्गे पैत्तिका। तृतीयवर्गे श्लेष्मा / चतुर्थवर्गाक्षराधिके प्रश्ने सान्निपातः / पञ्चमवर्गाक्षराधिके प्रश्ने क्षयो व्याधिरादेश्यः / / प्रष्टरन्यस्य वा यं व्याधिकृत्पृच्छतीति / / 373 / / (101) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org