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________________ जयपायड-किञ्चित् प्रास्ताविक हमारे पूर्वज मनीषियोंने अज्ञात तत्त्वों और भावोंको जाननेके लिये एवं कई प्रकारकी गूढ विद्याओंका ज्ञान प्राप्त करनेके लिये, नाना प्रकारके चिन्तन, मनन और निदिध्यासन किये हैं। इनके फलस्वरूप जो ज्ञातव्य उन्हें प्राप्त हुए उनको वे संक्षेपमें एवं सूत्ररूपमें प्रथित करके ग्रन्थ या प्रकरणके रूपमें निबद्ध करते रहै जिससे भावी सन्ततिको उसका ज्ञान प्राप्त होता रहै । प्रस्तुत ग्रन्थ एक ऐसे ही अज्ञात तत्त्व और भावोंका ज्ञान प्राप्त करने-करानेका विशेष रहस्यमय शास्त्र है। यह शास्त्र जिस मनीषी या विद्वान्को अच्छी तरह अवगत हो, वह इसके आधारसे, किसी भी प्रश्नकर्ताके लाभ-अलाभ, शुभ-अशुभ, सुख-दुःख एवं जीवन-मरण आदि की बातोंके विषयमें बहुत निश्चित और तथ्यपूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सकता है और प्रश्नकर्ता को बता सकता है। प्राचीन ब्राझी लिपि, जो हमारी भारतीय लिपियोंकी माता या मूल प्रकृति मानी जाती है, उसकी वर्णमाला या अक्षरमातृकामें मुख्य रूपसे ४५ अक्षर हैं । इनमें अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः ये १२ खर हैं; और क ख ग घ ङ - क वर्ग च छ ज झ न-च वर्ग ट ट ड ढ ण -ट वर्ग त थ द ध न-त वर्ग प फ ब भ म-प वर्ग य र ल व -य वर्ग श स प ह - श वर्ग इस प्रकार ७ वर्गोमें विभक्त ३३ व्यंजन हैं। १२ खरोंका १ वर्ग है, जिसकी संज्ञा 'अ' है। बाकीके ३३ व्यंजनोंकी 'क. च. ट. त. प. य. श.' इस प्रकार क्रमशः ७ संज्ञाएं हैं। इस प्रकार संपूर्ण वर्णमाला ८ वॉमें विभक्त की गई है । प्रस्तु शास्त्रमें इन वर्गगत अक्षरोंके अनेक प्रकारके मेद - उपभेद बताये गये हैं। ये अक्षर अनेकानेक गुण और धोंके वाचक और सूचक हैं। प्रत्येक अक्षर विशिष्ट प्रकारके खभाव और खरूप का सूचक है और फिर वह जब किसी दूसरे अक्षरके संयोगमें आता है तब, वह उस संयोगके कारण और भी अनेक प्रकारका स्वभाव और खरूप बतलानेवाला बन जाता है । अक्षरोंके स्वभाव और खरूपका निदर्शन करानेके लिये अभिधूमित, आलिंगित, दग्ध आदि संज्ञाएं बताई गई हैं। इन अक्षरोंमें कुछ अक्षर जीवसंज्ञक हैं, कुछ धातुसंज्ञक हैं और कुछ मूलसंज्ञक हैं। इस प्रकार कई तरहसे अक्षरोंके खभाव, गुण और धोका प्रतिपादन इस शास्त्रमें किया गया है। यह एक बहुत विलक्षण और अद्भुत रहस्यमय शास्त्र है इसमें कोई शंका नहीं है। प्राचीन जैन ग्रन्थोंमें इस रहस्यमय अतिशयात्मक शास्त्रीय विषयका उल्लेख बहुत जगह मिलता है। इससे ज्ञात होता है कि प्राचीन कालके जैन आचार्य इस विषयका बहुत ही विशिष्ट ज्ञान रखते थे। इस विषयका निरूपण करनेवाले छोटे-मोटे अनेक ग्रन्थ एवं प्रकरण जैनाचार्यों द्वारा बनाए गये प्रतीत होते हैं जो प्रायः अब विलुप्त-से हो रहे है। (13) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003385
Book TitleJaypayad Nimmittashastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2009
Total Pages76
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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