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प्रकाशकीय
जैन धर्म में साहित्य सर्जन व संरक्षण की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है और इसमें श्रमण वर्ग व श्रावक वर्ग दोनों का सम्मिलित और समर्पित योगदान रहा है। यही कारण है कि जैनों के पास हस्तलिखित ग्रन्थों का विशाल भण्डार उपलब्ध है। उदाहरण स्वरूप जिनभद्रसूरि का नाम लिया जा सकता है जिन्होंने अनेक ज्ञानभण्डार स्थापित करने के पश्चात् जैसलमेर का प्रसिद्ध ज्ञानभण्डार स्थापित किया-जिसमें अनेक जैनेतर ग्रन्थों की प्राचीनतम ताडपत्रीय पाण्डुलिपियाँ भी संरक्षित हैं।
प्राच्य विद्या के मूर्धन्य मनीषी मुनिश्री जिनविजयजी ने इस प्राचीन धरोहर में से श्रेष्ठ ग्रन्थ रत्नों को आधुनिक शास्त्रीय पद्धति से संशोधित संपादित कर प्रकाशित करने की योजना पिछली सदी के तीसरे दशक में बनाई थी। इस योजना को कलकत्ता जैन समाज के प्रसिद्ध व प्रतिष्ठित मुखिया बाबू बहादुर सिंहजी सिंघी का उदार सहयोग प्राप्त हुआ। इसी कार्य को सुचारु रूप से संपन्न करने हेतु उन्होंने अपने पिता श्री डालचंदजी सिंघी की स्मृति में उनके गोत्र-नाम से 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला' की स्थापना करवाई । कालान्तर में यह योजना श्री क. मा. मुंशी द्वारा स्थापित भारतीय विद्या भवन के अन्तर्गत आ गई।
१९४४ में श्री बहादुर सिंहजी सिंघी के देहावसान से योजना के कार्य-कलापों में तनिक ठहराव आया किन्तु उनके योग्य सुपुत्रों ने, अपने पिताश्री की भावनाओं का आदर करते हुए, समुचित सहयोग में बाधा नहीं आने दी। यह कार्य मुनिश्री जिनविजयजी के जीवन काल तक निरन्तर चलता रहा। समर्पित व्यक्तियों के चले जाने के बाद ऐसी योजनाओं का भी अन्त हो जाता है। मुनिजी व मुंशीजी के चले जाने के बाद इस महत्त्वपूर्ण योजना पर भी विराम लग गया। किन्तु तब तक साठ से अधिक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रकाशन हो चुका था और यह ग्रंथमाला जैन विद्या के क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर चुकी थी।
गत ३०-४० वर्षों में शोधार्थी विद्वद् वर्ग को इस ग्रन्थमाला के ग्रन्थों का अभाव रह-रह कर खटकता रहा है? सभी ग्रन्थ अप्राप्य हो गए हैं और अनेक ग्रन्थ तो सुव्यवस्थित पुस्तकालयों में भी उपलब्ध नहीं होते। इस कमी को देखते हुए प्राकृत भारती अकादमी ने इस ग्रन्थमाला के पुन: प्रकाशन की योजना बनाई । यह कार्य कष्ट साध्य होने के साथ-साथ प्रचुर आर्थिक संसाधनों पर निर्भर करने वाला था अत: योजना के क्रियान्वन में विलम्ब होता रहा। तभी संयोगवश इस योजना के संबंध में सिंघी परिवार के ही श्री रंजन सिंघी (सुपुत्र बाबू नरेन्द्र सिंह सिंघी, सुपौत्र बाबू बहादुरसिंहजी सिंघी) से चर्चा हुई। उन्होंने इस पुनर्प्रकाशन योजना की सराहना की और सहर्ष संपूर्ण आर्थिक भार वहन करने की
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