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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९)
अनुसंधान - ५९
श्री हेमचन्द्राचार्य
प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
संपादक : विजयशीलचन्द्रसूरि
કલકાલ સર્વશ કી હૈમચંડ રિમારાજ
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी
स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
2012
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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९)
'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे'
अनुसंधान
प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य-विषयक सम्पादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
सम्पादकः विजयशीलचन्द्रसूरि
ANIINITION m po-DDED
श्रीहेमचन्द्राचार्य
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
अहमदाबाद
२०१२
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अनुसन्धान ५९
आद्य सम्पादकः डॉ. हरिवल्लभ भायाणी
सम्पादकः विजयशीलचन्द्रसूरि
सम्पर्कः
C/. अतुल एच. कापडिया A-9, जागृति फ्लेट्स, पालडी महावीर टावर पाछळ, अमदावाद-३८०००७ फोन : ०७९-२६५७४९८१
प्रकाशकः
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि,
अहमदाबाद प्राप्तिस्थानः (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि जैन स्वाध्याय मन्दिर
१२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामन्दिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमां,
अमदावाद-३८०००७ (२) सरस्वती पुस्तक भण्डार
११२, हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद-३८०००१
प्रतिः २५०
मूल्य: Rs. 150-00
मुद्रकः
क्रिश्ना ग्राफिक्स, किरीट हरजीभाई पटेल ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद-३८००१३ (फोनः ०७९-२७४९४३९३)
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निवेदन
संशोधन एक साधना छे. धर्मनी आराधना सहजजन्मजात सांपडी होय; शास्त्रादिना अध्ययनथी समजण पुष्टपुख्त बनी होय; तेमां संशोधन द्वारा शास्त्र अने इतिहासने वधु स्पष्ट अने वधु सत्य/यथार्थ बनाववा माटेनी बहुमानसभर तेमज नम्र तमन्ना होय; त्यारे जे संशोधन अथवा ते माटेनो उद्यम थाय ते आपोआप साधना बनी रहे छे.
आजकाल आपणे त्यां, 'साधना' तथा 'तप' जेवा शब्दोने, गमे तेवा-छीछरा पण - सन्दर्भोमां प्रयोजवानी फेशन चाली रही छे. काम समाजनुं करवानुं होय, अने ते करतां करतां पोतानां अनेक अंगत हित/स्वार्थ साधी लेवातां होय तो, तेवा प्रयत्नने 'साधना' केम गणाय ? ए ज रीते, जे ज्ञानोपासनानो प्रयास, पोताना अहंकारने पुष्ट बनाववामां अने अन्यने तुच्छ गणाववामां ज परिणमतो होय, तेवा प्रयासने 'तप'नो दरज्जो पण केम अपाय?
केटलाक लोको संशोधन अने स्वाध्यायना क्षेत्रमा थोडंघj काम करतां जोवा मळे छे. काम थोडं होय अने देखाव झाझो होय एवू पण जोवा मळे छे. अथवा काम घणुं होय पण तेमां उपयोगी के शोधात्मक कार्य घणुं अल्प होय एम पण बने. धन अने साधनोनी सुलभता; दिग्विजय के Concordance नी मनोवृत्ति; (पोते ज श्रेष्ठ, पोते जे करे ते योग्य ज अने तेथी सर्वमान्य ज बनवू जोईए, कोईथी पण एमां भूल न कढाय के खामी न देखाडाय, पोताना सिवायना जे करे ते बधुं तुच्छ अने खामीभरेलुं ज होय, आ प्रकारना मानसने दिग्विजयी मनोवृत्ति कहेवामां आवे छे); छलोछल अहंकार तथा तोछडाई, अने नम्रतानो के कोईना सारा कार्य प्रत्ये पण सन्माननो सदंतर अभाव; - आवी आवी विशेषताओ, ए लोकोनां कार्य परत्वे
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सहेजे प्रश्नार्थ खडा करती होय छे. मजानी वात ए छे के तेओने आ प्रश्नार्थो विशे कशी ज अभिज्ञता नथी के ते विषे कशी परवा पण नथी होती.
__ संशोधन अने स्वाध्याय व्यक्तिने नम्र बनावे, अभिमानी वृत्ति-वर्तनथी चेतवे; वधु अन्तर्मुख बनावे, बहिर्मुखता घटाडे; शास्त्र तथा तेना अर्थ माटेनी पोतानी हठीली मान्यताओ परत्वे पुनर्विचार करवा प्रेरे, अने तथ्य तेमज तत्त्वनी वधु समीपे लई जाय; अन्य पासेथी पण जे साचुं-सारं होय ते शीखवा प्रेरे, अने अन्य पासे सासू-साचुं होय ज नहि एवी मिथ्या धारणाथी उगारे.
शास्त्रसंशोधन ए मात्र शास्त्रमा ज शोधन करे एवं नहि, ए शोधकनी दृष्टिनुं पण शोधन-सम्मान करे छे. हरिभद्राचार्ये 'दृष्टिसम्मोह'ने भयानक दोष गणाव्यो छे. संशोधन अटले के संशोधक वृत्ति, आपणने दृष्टिसम्मोहथी बचावे-बचावी शके छे. जो एq न थाय तो पछी पेलुं संशोधन मात्र शास्त्रपाठ पूरतुं सीमित रहे, 'दृष्टि' - जीवनदृष्टि अथवा तात्त्विक समजण साथे एने कशो ज अनुबन्ध न रहे. अने तो, तेवा शोधकार्यने साधना गणवानुं साहस पण न ज कराय.
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अनुक्रमणिका
श्री मेरुनन्दनोपाध्याय कृत स्तव एवं स्तवन
म. विनयसागर १ श्री कीर्तिरत्नसूरि विनिर्मित ३ कृतियाँ
म. विनयसागर ५ पाटणना चैत्यसम्बन्धी बे अप्रगट कृतिओ
मुनिसुयशचन्द्र - सुजसचन्द्रविजयौ ११ इन्द्रनन्दि – गुरुस्वाध्याय तथा भास मुनिसुयशचन्द्र - सुजसचन्द्रविजयौ १७ भूषण नाम गर्भित एक अप्रगट गहूली मुनिसुयशचन्द्र - सुजसचन्द्रविजयौ २७ अज्ञातकर्तृक प्रश्नोत्तरवाक्यरत्नसंग्रहः
सं. साध्वी चारुशीलाश्री ३० केटलांक दार्शनिक प्रकरणो - सं. मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय ३५ पउमचरियं : एक सर्वेक्षण
प्रो. सागरमल जैन ७२ माथुरी गणना अने वालभी गणना वच्चे
१३ वर्षना तफावतना वास्तविक कारण विशे ऊहापोह
मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय ९६ श्रीसिद्धसेन दिवाकरजीना केवलज्ञान-दर्शन अंगेना
मन्तव्य विशे विचारणा मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय १०६ विहंगावलोकन
उपा. भुवनचन्द्र १४४ नवां प्रकाशनो संशोधन-माहिती
१५२ आगामी प्रकाशनो
१५३
१५१
आवरण चित्र-परिचय
१५४
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विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क
आगामी अंक 'अनुसन्धान'नो ६०मो अंक छे. एक शोधसामयिकनी षष्ठिपूर्तिनो अवसर ते तो ओच्छव ज गणाय. तेनी उजवणी माटे अनुसन्धाननो ६०मो अंक
विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क तरीके प्रकाशित थशे. जेमनी पासे अथवा जाणमां प्राचीन, आज पर्यन्त अप्रगट एवा पत्र अथवा विज्ञप्तिपत्र (सचित्र के सादा) होय तेमने ते पत्रो अथवा तेनी प्रतिलिपि के झेरोक्स/फोटोकॉपी पाठववा अनुरोध छे. स्वयं सम्पादन करीने मोकलवा पण विज्ञप्ति छे.
ओगस्ट २० सुधीमां सामग्री मळे तेम मोकलवा विज्ञप्ति. उपयोग पत्या पछी मूळ सामग्री साभार पाछी मोकलाशे.
मोकलवानुं सरनामुं: जैन उपाश्रय, दादासाहेब, काळा नाळा,
भावनगर-३६४००१
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जून
-
२०१२
श्री मेरुनन्दनोपाध्याय कृत स्तव एवं स्तवन
१
म. विनयसागर
श्री जिनभद्रसूरि ज्ञान भण्डार, जैसलमेर, प्रकरण पोथी पत्र संख्या ६७-६८ और ५६-५८ पर ये कृतियाँ अंकित हैं ।
I
इसके प्रणेता श्री मेरुनन्दनोपाध्याय हैं जो कि श्री जिनभद्रसूरि के शिष्यरत्न थे । इनके जीवनवृत्त, जन्म, स्थान, दीक्षास्थान, दीक्षा संवत्, उपाध्याय पद संवत्, स्वर्गवास संवत् इत्यादि के सम्बन्ध में इतिहास मौन है। अतएव इस सम्बन्ध में कुछ भी लिखना भूलभरा ही होगा ।
इसमें प्रथम कृति श्री करहेटक पार्श्वनाथ स्तवन है । करटक का वर्तमान प्रसिद्ध नाम करहेडा पार्श्वना है, जो कि मेवाड़ में स्थिति है । इस करहेटक पार्श्वनाथ की प्रतिष्ठा सम्भवतः श्री जिनवर्द्धनसूरि ने करवाई थी । इसका जीर्णोद्धार भी लगभग पचास वर्ष पूर्व हो चुका है । राजस्थान के प्रसिद्ध तीर्थों में इसका नाम है ।
वसन्ततिलकावृत्त में रचित श्री करहेटक पार्श्वनाथ का स्तव है, जो कि पाँच पद्यों का है । इसमें करहेटक पार्श्वनाथ की स्तुति की गई है और उनका गुणवर्णन करते हुए कहा गया है कि कल्पवृक्षादि के समान यह मेरे घर में आ गया है । मुझे अब कुछ नहीं चाहिए, पापों का विनाश हो और मेरे हृदय में पार्श्वनाथ का निवास हो ।
I
दूसरी लघु कृति वीस विहरमाण स्तवन है । यह अपभ्रंश भाषा से प्रभावित मरुगुर्जर भाषा में रचा गया है । इस विहरमान स्तवन में जम्बूद्वीप के चार, धातकीखण्ड के आठ और पुष्करार्धद्वीप के आठ, इस प्रकार वीस विहरमान तीर्थङ्करों को नमस्कार किया गया है । सीमन्धरादि प्रत्येक तीर्थङ्कर का नामोल्लेख सहित गुण वर्णन करते हुए देहमान, वर्णनलञ्छन तथा चौंतीस अतिशय का भी उल्लेख किया गया है । अन्त में कृतिकार मेरुनन्दन ने अपना नाम दिया है । प्रस्तुत है यह दोनों कृतियाँ
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अनुसन्धान-५९
श्री करहेडक-पार्श्व-स्तवः आनन्दभ(क)न्द-कुमुदाकरपूर्णचन्द्रं
विश्वत्रयीनयनशीतलभावचन्द्रम् । उद्दण्डचण्डमहिमारमया सनाथं
नित्यं नमामि करहेटक-पार्श्वनाथम् ॥१॥ नाथ ! त्वदीयमुखमण्डलमीक्षमाणो,
__ नायं जनो लवणिमापरपारमेति । पोतः प्रयत्नचलितोऽपि कदापि किं वा,
यं(यद्?) गम्यते चरमसागरपुष्करान्तम् ॥२॥ कान्तं तवेश नयनद्वितयं विलोक्य
कारुण्यपुण्यपयसा भरितं सरोवत् । मल्लोचने हरिणवच्चपले चिराय
सन्तोषपोषमयतां भवदावतप्ते ॥३॥ कल्पद्रुमो मम गृहाङ्गणमागतोऽद्य
चिन्तामणिः करतले चटितोऽद्य सद्यः । अद्याऽऽश्रिता मम पदौ सुरधेनुरेव
___ यद् भेटितोऽसि करहेटक-पार्श्वदेवः ॥४॥ सिद्धानि मेऽद्य सकलानि मनोमतानि,
पापानि पार्श्वजिन ! मे विलयं गतानि । याचे न किञ्चिदपरं भवतो गभीरं
ध्यानं तवाऽस्ति यदि महदि मे स धीरम्(?) ॥५॥ ॥ इति करहेटक-श्रीपार्श्वस्तवनं कृतं श्री मेरुनन्दनोपाध्यायेन ॥
श्रीवीसविहरमाणस्तवनम् भत्ति-सरोवरु ऊलटिउ जागिय हियइ जगीस । साहिब आणंदिहिं संथुणिमो विहरमाण जिण वीस ॥१॥
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जून - २०१२
RU
जंबुदीवि चत्तारि जिण धायईसंडिहिं अट्ठ । पुक्खरद्धि तह अट्ठ इम वीस नमउं गय-कट्ठ ॥२॥ सामिय करुणारसभरिय सीमंधर जिणराय । नियदंसणु दइ अमिय-समु पूरि मणोरह ताय ॥३॥ जाणउं ते सुकयत्थ जण जे तुह वयण सुणंति । धन्न ति जे तुह करि चरणु पामिय कम्म हणंति ॥४॥ पावपंक जगउद्धरण सधर जुगंधर सामि । भव सायर उत्तारि मम लीणउ छउं तुह नामि ॥५॥ मयणानलि संतावियउ वंछउं तुह पय छांह । नंदणवण सम बाहुजिण दइ अवलंबण बांह ॥६॥ जीव जोनि चउगइ भमिउ जिण चउरासी लक्ख । सिरि सुबाह हिव तुह सरणि आविउ दय करि रक्ख ॥७॥ गुण संकुल कमला निलय निम्मल सामि सजाय । करउ केलि महु हियइसरि कमलोवम तुह पाय ॥८॥ सामि सयंपह सो जयउ जसु पसाइ मयकुंभो ।। मोह महाभडु भंजि करि ऊभिज्जइ जस खंभो ॥९॥ गुण-काणण सिंचण सुघण रिसहाणण पय-रंगो । किम पामिय हुं रंजवियो निय मणे स सारंगो ॥१०॥ जे नमंति मनि खंति धरिऽणंतवीरिय पय कंत । भोगवंति ते भविय जण सिव सुह-रिद्धि अणंत ॥११॥ पहु सूरप्पहु संघवणि नाण-किरण गण चूरि । पुन्नपयोहर उल्लसिय पाव तिमिर गय दूरि ॥१२॥ ते अजरामर हंति जिण सिरि तित्थयर विसाल । सवणंजलि जेति तु पीयइं वाणिय अमिय-रसाल ॥१३॥ नाण महीधर वज्जवर पुद्धर वयरधर धीर । रक्खि रक्खि जिण वज्जधर रयणायर गंभीर ॥१४॥
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अनुसन्धान-५९
तिय दंसणि वण-कुमुय जिम उल्लसिय मुणिविंद । नंद नंद आणंदमय चंदाणण जिणचंद ।।१५।। निच्छइ हिव नहु संभवए भूरि भमणु संसारि । चंदबाहु जउ भमर जिम ठिउ मण-कमल मझारि ॥१६।। काम-भुयंगम बल-दलणु नाममंतु मण रंगि ।
जे समरइं सिरि भुयग जिण रोग नहीं तिह अंगि ॥१७|| रयणि दिवसु किम वीसरइं ईसर जिण तुह पाय । सासय-सुक्खहं कारणिहिं जह सेवइं सुरराय ॥१८॥ कवण सु होसिइ मुज्झ दिणु नेमिप्पह नयणेहिं । जिणि जोइ सु रोमंचियउ थुणिसु महुर-वयणेहि ॥१९।। विस्ससेण जिण विसय-विस लहरिउ अम्ह सरीरो । निय संगम पीयूष-रसि-छंटिय करि वयधीरो ॥२०॥ कलि कलमल-नासण सलिल महिमालउ गमह भद्द । निय सेवय महु देहि पहो सिव मंगल महभद्द ॥२१॥ सुर नर तिरि संसय विसर देसण सद्विहरंतो । समवसरण भूसणु जयउ देवेसरु अरुहंतो ॥२२॥ तह मंदिर अंगणि रमइं सिद्धि बुद्धि जस रिद्धि । जे तिसंउ झायंति मणि तित्थेसरु जस रिद्धि ।।२३।। देह माणि धणु पंचसय सवि जिण कंचण-वन्न । चउतीसइ अइसय सहिय वसहंकिय सिरि-पुन्न ॥२४॥ सुरतरु सुंदरु इय थुणिय विहरमाण जिण सार । वसउ मेरुनंदणिहिं जिम महु मणि सुह फलकार ॥२५॥
॥ इति श्री वीसविहरमाण स्तवनं ॥
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जून - २०१२
श्री कीर्तिरत्नसूरि विनिर्मित तीन कृतियाँ
__- म. विनयसागर श्री कीर्तिरत्नसूरि की तीन लघु कृतियाँ इस निबन्ध में दी जा रही हैं । उन कृतियों पर क्रमशः विचार किया जाएगा ।
आचार्य कीर्तिरत्नसूरि जिनवर्धनसूरि के शिष्य थे । उन्हीं से इन्होंने दीक्षा ग्रहण की । इनके पिताका नाम देपमल्ल और माता का नाम देवलदे था । ये शंखवालेचा गोत्र के थे । वि.सं. १४४९ चैत्र सुदि ८ को कोरटा में इनका जन्म हुआ । ये अपने भाइयों में सबसे छोटे थे । १३ वर्ष की उम्र में इनका विवाह होना निश्चित हुआ और ये बारात लेकर चले भी, किन्तु मार्ग में इनके सेवक का दुःखद निधन हो गया जिससे इन्हें वैराग्य हो गया
और अपने परिजनों से आज्ञा लेकर वि.सं. १४६३ आषाढ़ वदि ११ को जिनवर्धनसूरि के पास दीक्षित हो गये और कीर्तिराज नाम प्राप्त किया । अल्पसमय में ही विभिन्न शास्त्रों में निपुण हो गये तब पाटण में जिनवर्धनसूरि ने इन्हें वि.सं. १४७० में वाचक पद प्रदान किया ।
__कीर्तिराज उपाध्याय संस्कृत साहित्य के प्रौढ़ विद्वान् और प्रतिभा सम्पन्न कवि थे । वि.सं. १४७३ में जैसलमेर में रचित लक्ष्मणविहारप्रशस्ति इनकी सुललित पदावली युक्त रमणीय कृति है । (द्रष्टव्य० जैनलेखसङ्ग्रह, भाग-३) । सं. १४७६ में रचित अजितनाथजपमाला चित्रस्तोत्र चित्रालङ्कार और श्लेषगभित प्रौढ़ रचना है । वि.सं. १४८५ में रचित नेमिनाथमहाकाव्य इनकी सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है । इनके अतिरिक्त संस्कृत एवं प्राकृत भाषाओं में इनके द्वारा रचित कुछ स्तोत्र भी प्राप्त होते हैं। आपकी विद्वत्ता से प्रभाविक होकर आचार्य जिनभद्रसूरि ने वि.सं. १४९७ माघ सुदि १० को जैसलमेर में आचार्य पद प्रदान कर कीर्तिरत्नसूरि नाम रखा । वि.सं. १५२५ वैशाख वदि ५ को वीरमपुर में कीर्तिरत्नसूरिका निधन हुआ ।
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अनुसन्धान-५९
प्रथम कृति ज्ञानपञ्चमी विवाहगर्भित नेमिनाथ स्तवन है । यह अपभ्रंश से प्रभावित मरुगुर्जर भाषा में है। इसमें अपभ्रंश की तरह मरुगुर्जर भाषा में भास और वस्तु छन्द का प्रयोग किया गया है। यह भी उपाध्याय कीतिराज के नाम से ही रचना की गई है अतः आचार्यपद पूर्व की ही यह रचना है । अभय जैन ग्रन्थालय में प्रति संख्या ९९३५ सत्रहवीं शताब्दी लिखित यह प्रति सुरक्षित है। पाच ज्ञान के आलोक एवं उसके महत्त्व में पंच प्रकार की वस्तुओं का उल्लेख करते हुए उनके त्याग का या रक्षण का उल्लेख किया गया है और अन्त में ज्ञान के उद्योत से सिद्धि नगरी का निवासस्थान की याचना की गई है।
दूसरी कृति ‘चत्तारि अट्ठ दस' के षड् अर्थ दिए गए हैं। यह प्राकृत भाषा में रचित है । सिद्धाणं बुद्धाणं सूत्र में आगत चत्तारि अट्ठ दस दोय के स्थान पर यह चत्तारि अट्ठ दस के ही भिन्न अर्थों में छ: अर्थ किए हैं। इसमें मात्रिक छन्द, गाथा-विगाथा गाहू का प्रयोग किया गया है । यह कृति आचार्य बनने के पश्चात् की है और इसकी एकमात्र प्रति ९६२५ के स्थान पर अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर में सुरक्षित है ।
तृतीय कृति शान्तिनाथ स्तुति के नाम से आचार्य बनने के पश्चात् की कृति है। इसमें भोजन सामग्री और मुखशुद्धि के शब्दों का प्रयोग करते हुए भिन्नार्थ किए गए हैं। वैसे यह अन्यार्थ स्तुति के नाम से भी प्रसिद्ध है। इसकी अवचूरि की प्रति मैंने कोटा खरतरगच्छ ज्ञान भण्डार में देखी थी, किन्तु उसमें कर्ता का नाम नहीं था ।
इन कृतियों के अतिरिक्त नेमिनाथ महाकाव्य जो कि साधुअवस्था में कीर्तिराज की रचना है, संस्कृत में लिखा गया है और इसका सम्पादन डॉ. सत्यव्रत शास्त्री ने किया है। अन्य कृतियों के नाम हैं - १. जिनस्तवन चौवीसी, २. पञ्चकल्याणक स्तोत्र, ५. नेमिनाथ विनती, ६. पुंजोर विनती, ७. रोहिणी स्तवन प्राप्त है। संवत् १४७३ में जैसलमेर में रचित लक्ष्मण विहार प्रशस्ति प्राप्त है । पाठकों के अध्ययनार्थ कृतियाँ प्रस्तुत हैं :
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जून - २०१२
कीर्तिराजोपाध्याय कृत श्री ज्ञानपञ्चमी गर्भित नेमिनाथ-स्तवन
वंदामि नेमिनाहं, पंचम गइ कुमरि विहिय वीवाहं । भंजिय मयणुच्छाहं, अङ्गीकयसीलसन्नाहं ॥१॥
॥ भास ॥ अत्थिय काया पंच कहिय जिण पंच पमाया । पंच नाण पंचेव दाण पणवीस कसाया ॥ पंच विषय पंचेव जाइ, इन्द्रिय पंचेव । सुमति पंच आयार पंच तह वय पंचेव ॥२॥ पंच भेद सज्झाय पंच चारित्त परूविय । इग्यारिसि पंचमि पमुक्ख तव जेण पयासिय ॥ पंच रूव मिच्छत्त-तिमिर-निन्नासण-दिणयर । नयण सलूणउ देव नेमि सो थुणियइ सुहयर ॥३॥
॥ वस्तु ॥ पंच वन्नहि पंच वन्नहि सुरहि कुसुमेहि । मणि माणिक मुत्तियहि, पञ्च पञ्च वत्थूणि उत्तम । भावइ पञ्चहि पुत्थियहि, पञ्च वरिस काऊण पञ्चमि ॥ जे आराहइ पञ्चविह नाण ठाण लोयाण । नेमिजिणेसर भुवणगुरु द्यउ वर केवलनाण ॥४॥ जिण मूल उमूलिय पञ्चबाण, पञ्चम गइ पामिय जेणि ठाण । सावण सिय पञ्चमि जम्म जासू, हूं भावइ वंदु चरण तासु ॥५॥ जिण चवदह पुव्व इग्यार अङ्ग, उपदेसइ दंसिय मुक्खमग्ग । परमिट्ठपञ्च मझ य पहाण, तं नमह नेमि जिण होइ नाण ॥६॥
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अनुसन्धान-५९
जो केसव पञ्चहि पंडवेहि, पञ्चङ्गइ पणमिय जादवेहिं । सिय पञ्चम नाण आराहगाण, सो हरउ दुरियं जिणसेवगाण ॥७॥
॥ वस्तु ॥ पढम नाणहि पढम नाणहि भेय अडवीस । चउदभेय सुयस्स तह, अवहि नाण छन्भेय निम्मल । मणपज्जव नाण पुण, दुन्नि भेय इग भेय केवल । एवं पञ्चपयारमिह जेण परूविय नाण । सो नंदउ सिरि नेमि जिण मङ्गलमय अभिहाण ॥८॥
॥ भास ॥ पञ्चासव-तक्कर-हरण, दिणयर जिम दीपंति । पइ दिट्ठउ सिरिनेमिजिण, हियय कमल विहसंत ॥९॥ तुटुइ पञ्चपयार मह, अन्तराय अन्धियार । पञ्चाणुत्तर भाव सवि, पयडिय हुइ जगसार ॥१०॥ भवपुरि वसतां सामि हूय, राग दोस मिलिएहिं । रयण(णि)दिवस-संतावियउ ए, पञ्चिदिय चोरेहिं ॥११॥ सिद्धिनयरि दिउ वास हिव, करि पसाउ जिणराउ । पञ्चम गइ कामिणि रमण, वर पञ्चाणण ताय ।।१२।।
(कलश) सिवादेविनंदण पावखंडण तरण तारण पच्चलो । हय-कम्म-रिउ-बल सबल केवल, नाणलोयण निम्मलो । सिरि नाणपंचमि दिवसि थुणिइ, नेमिनाह जिणेसरो । घउ सिद्धिसंपइ देव जंपइ, कीर्त्तिराय मणोहरो ॥१३॥
॥ इति श्री नेमिनाथस्तवनम् ॥
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जून - २०१२
चतारि-अट्ठ-दस षडर्थाः चत्तारि जिणवीसं ठाणेसु सिद्धसंगमणुपत्ता । अट्ठ दो समिलिया वीसे वंदामि सम्मेए ॥१॥ रिसहाणणाह सासय चत्तारि सासउ वंदे । अट्ठ दस दोइ वीसं गए(य) दंतट्ठिएसु वंदामि ॥२॥ चउ गुरु अट्ठ अडयाला दस दो बारस तहा सिट्ठी । एवं चउमुह जिण चेइए सु वंदामि जिण नयरं ॥३॥ अट्ठ दस दोइ वीसे, ठाणे आराहिऊण मे सिद्धा । नामाइ जिण चउरो तेसि वंदामि भत्तीए ॥४॥ चत्तारि सासयउ पडिमा वंदामि तिव्व । अट्ठ दस दोइ वीसं वट्ट वेयड्ढेसु चेइसु ॥५॥ अट्ठ दस दोइ वीसे ते चउगुणिया सवे असी संखा । एवं जिण भवणाइं वंदेहं पंच मेरूसु ॥६॥ सुसहर कय नव अत्था, तदुवरि सिरिकित्तिरयणसूरीहिं । रइआ इमेत्थ अत्था, खरतरगणजलधिरयणेण ॥७॥
इतिषडर्थं श्रीकीर्तिरत्नसूरि विरचिता
शान्तिनाथ स्तुति (अन्यार्थ स्तुतिः) वरसोला भला गूंदबड़ा खजूर साकर । शान्ति दद्यात् सदाचारा नीलपादहिखारिका ॥१॥ अंदरसा गुणाधार, लापसीभां नमीश्वर । अघेवर जलेबी जा रागा स्फुरेति कीर्तीय ॥२॥ सुकाचरी सुकारेला, वडी पापड़ काकडी । कौ सांगरी इसी वांणी जैनी भूया सदा फलम् ॥३॥
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अनुसन्धान-५९
कपूर लवंग रस, सदा पान फरो हरे । तंबोल खयरसारं व सोपारी सुथितं क्रियात् ॥४॥ इति श्री अन्यार्थास्तुतिः । कीर्तिरत्नाचार्यायै ।'
- प्राकृत भारती 13-A मेन गुरु नानक पथ, मालवीयनगर, जयपुर
१. उपरोक्त ३ कृतिओमां अशुद्धता घणी लागे छे. सम्पादकजीए जेवू मोकल्युं तेवं प्रगट करवामां आव्युं छे. आ रचनाओनी हस्तप्रत मळे तो अवश्य सुधारी शकाय. आ ३ उपरान्त अजितनाथ-जपमाला नामे एक संस्कृत रचना पण आपेली. परन्तु ते नितान्त अशुद्ध होवाथी हस्तप्रत वगर सुधारवानुं अशक्य जणातां ते नहि छापवानुं वधु योग्य मान्युं छे. - शी.
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जून - २०१२
पाटणना चैत्यसम्बन्धी बे अप्रगट कृतिओ
- मुनिसुयशचन्द्र - सुजसचन्द्रविजयौ पाटण अने जिनमन्दिरो :
अणहिल्ल नामना भरवाडे बताडेला लाखाराम नामना स्थानमां जैन श्रेष्ठी चांपानी सहायथी शीलगुणसूरिजीए वि.सं. ८०२मां एक नगरनी स्थापना करी. जेनुं नाम 'अणहिल्लपुरपत्तन' एम राखवामां आव्यु. क्रमे करी ए नगर गुजरातनुं पाटनगर बन्यु. आ ज संवत्मां वनराज चावडाए त्यां सौ प्रथम पार्श्वनाथ भगवाननुं जिनालय बनाव्युं. त्यार पछी तो मूळराजवसति, विमलवसति, मुञ्जालवसति, शान्तूवसति इत्यादि अनेक जिनालयो बन्धायां. सं. १३५३ थी १३५६ना समयमां मुस्लिम बादशाह अल्लाउद्दीनना सेनापति मलिक काफरना हाथे पाटणनो नाश थयो त्यारे आमांनां घणां जिनमन्दिरो पण नाश पाम्यां. ढण्ढेरवाडो :
'थिरापद्रीयदेशमां कोई ग्रामे चैत्यमां जिनबिम्बनी प्रतिष्ठा मांडी. त्यां दिन-दिन प्रति अमारि ढंढेरो फेरवाव्यो. तदा लोको ते कुटुम्बनुं नाम ढण्ढेर एहवू पाड्यु. ते ढण्ढेर कुटुम्बना खोना झांझण प्रमुखे अणहिल्लपुरपाटणमां वास पूर्यो. पाटक वसाव्यु. ने ते ढण्ढेरवाडक कहेवायो.' आ मुजबनी नोंध मुनि समुद्रघोषना सन्दर्भमां पूर्णिमागच्छपट्टावलीमां मळे छे. (जै.गु.कविओ भा. ९. पृ. १८०) पूनमियागच्छ अने तेना बे आचार्यो :
चन्द्रगच्छना चन्द्रप्रभसूरिए विधिपक्षनुं मण्डन करी चौदसने बदले पूनमना पाखी करवानी अने प्रतिष्ठा विगेरे सावध कार्यो गृहस्थने योग्य होई साधु तेमां न जाय तेवी प्ररूपणा करी चन्द्रगच्छथी जुदो पोतानो स्वतन्त्र पूनमियागच्छ शरु को. आ ज गच्छनी परम्परामां विद्याप्रभसूरिनी पाटे ललितप्रभसूरिजी नामना प्रभावक आचार्य थया. ते ललितप्रभसूरिजीनी त्रीजी पाटे भावप्रभसूरि थया. जेओ समर्थ विद्वान हता. प्रतिमाशतक-लघुटीका, ज्योतिर्विदाभरण-सुखबोधिका टीका, हरिबल मच्छीनो रास, अम्बडरास इत्यादि
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अनुसन्धान-५९
अनेक ग्रन्थोनी तेमणे रचना करी. वीरा श्रेष्ठी अने तेनो परिवार :
श्रीमाळी वंशना वीरा श्रेष्ठी पूनमिया गच्छना मुख्य श्रावक हता. मूळ भिन्नमालना वतनी तेओ ज्यारे पाटण आव्या त्यारे वीरवाडामां तेमणे जे वीरपरमात्मानो प्रासाद पूर्वे बनावराव्यो हतो ते वीरपरमात्मानी प्रतिमा पाटण (ढण्डेरवाडा)मां स्थापित करी. वीरानां अन्य सुकृतोनी विशेष नोंध अनुसन्धान५मां अज्ञात कवि कर्तृक साहवीरा सुकृतवर्णननी प्रशस्ति-चउपई लेखमां जोवी. वीराश्रावकनी चोथी पेढीए तेजसी श्रावक थयो. तेणे पण शामळा पार्श्वनाथनी प्रतिष्ठा, पित्तळना सहस्रकूट, आचार्यपद प्रदान महोत्सवादि घणां सुकृतो कर्यां. वीरानी वंशावली :
दोशी अदा (भार्या भोळाई)
वीरा (प्र.भा. रंगाइ, द्वि.भा. रूपा)
टोकर (पनोती) शिवजी(भा.चंगा) वीरबाई रवजी चांपा(पुत्री) जेठी(पुत्री) फूला(पुत्री)
(पुत्री) (भा.गंगाइ)
मनजी थानसिंह समरसिंह विजयसिंह इंद्राणी
(पुत्री)
मरघा (पुत्री)
रतनी (पुत्री)
सुरजी मेघजी सोमजी अबजी पकली (भा.सहजबाई)
(पुत्री) जयतसी (भा. रामबाई) तेजसी (प्र.भा. देवबाई, द्वि. भा. राधाकृष्णा)
गुलाब
पूंजी मलूक
लहिरकी (पुत्री)
(पुत्री)
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जून २०१२
केसर अने तेनी पुत्री जोड़ती तथा शिवचंद अने सारंग :
प्रथम कृतिमां उल्लेखित आ स्त्रीओ कोण छे तेनी नोंध काव्यमां के वीरानी वंशावलीमां कशी ज मळती नथी. शिवचंद अने सारंगनो पण बीजी कृति सिवाय क्यांय उल्लेख मऴतो नथी.
१३
प्रथम कृतिसार :
आ कृतिनां शरुआतनां पद्योमां कविए शामळ पार्श्वनाथनी स्तुति करी छे. पाटणना ढण्ढेरवाडामां दोशी वीराए बनावेला ऊंचा चैत्यमां पूर्वे कुमारपाळ महाराजाना देरासरमां जे शामळपार्श्वनाथप्रभुनुं बिम्ब हतुं ते बिम्बनी प्रतिष्ठा पूर्णिमापक्षीय ललितप्रभसूरि पासे करावी हती ते वात कवि पांचमा अने छठ्ठा श्लोकमां करे छे. विषमकाळमां म्लेच्छोथी भय पामी समयज्ञ पुरुषोए ते शामळपार्श्वनाथप्रभुनुं बिम्ब उत्थाप्युं हतुं तेथी ते बिम्बनी पुनः प्रतिष्ठा वीराना ज वंशज दोशी तेजसीए भावप्रभसूरिजीनी तेमज सकल सङ्घनी साथे सं. १७७८ मां श्रावणमासनी चोथना सोमवारे कर्यानी नोंध अन्त्य त्रण पद्योमांथी मळे छे. द्वितीय कृतिसार :
गुरुभगवंतना उपदेशथी कुमारपाळ महाराजाना देरासरनी चौमुख प्रतिमामांथी एक शामल पार्श्वनाथप्रभुनी प्रतिष्ठा दोशी वीराए जिनालय बनावी करी तेवी नोंध कवि प्रथम काव्यमां करे छे. अहीं चौमुखजीनो शब्दार्थ चार प्रतिमा, तो बाकीनी त्रण प्रतिमा अंगे शोध करवी घटे. बीजा कवितमां ढण्ढेरवाडाना वीर प्रभुना जिनालयनी नोंध करी छे. आठबीडोत्तरै नो सन्दर्भ बराबर समजातो नथी. ढण्ढेरवाडाना कलिकुण्डस्वामीना प्रासादना उद्धारनी सामान्य नोंध त्रीजा कवित्तमां छे. चोथा कवित्तमां वीराना सात चैत्यनी तेमज सं. १७७४ मां तेजसीए करावेल पित्तलमय सहस्रकूटनी (१०२४ भगवान) महत्त्वपूर्ण नोंध छे. 'कुंभारीइ' शब्द कुम्भारिया पाडा माटे वपरायो छे. छेल्ला कवित्तमां कविए कुम्भारिया पाडाना आदिनाथप्रभुना नवा चैत्यनी प्रतिष्ठानो संवत् (१६५६) तेमज प्रतिष्ठापकना कुटुम्बनो सामान्य परिचय आप्यो छे.
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१४
अनुसन्धान-५९
अमीचंद (भा. जसीमति?)
ऋषभदास
अमीचंदनी वंशावळी
| अमीचंदनी आ वंशावली | अनुसन्धान-५मां शाहवीरा| सुकृत प्रशस्ति चौपाईने अन्ते मळे छे.
शांतिदास
सामलासकल अमर लखो सुन्दर |
प्रस्तुत बन्ने कृतिनी प्रतोनी झेरोक्ष पाटण हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानभण्डारना हस्तलिखित सङ्ग्रहमांथी मळी छे. ते आपवा बदल भण्डारना व्यवस्थापकश्रीनो खूबखूब आभार.
एँ नमः
(१) ॥ श्री बृहच्छ्यामलपार्श्वनाथस्तुत्यष्टकम् ॥ अहँ नमः
॥ श्रीः ॥ श्रीमत्कान्तिकलापमङ्गललसल्लब्ध्यैकलीलाऽऽलयः सेव्यः पार्श्वजिनेश्वरो विजयते सच्छ्यामलाख्यो महान् । हैमैर्हारि-विभूषणैश्च कुसुमैः सम्पूजितः सुन्दरैवृक्षौघैरहमञ्जनाग(गि)रिरयं मन्ये विचित्रोद्भवैः ॥१॥ प्रोद्यद्दीपकमालिकाप्रतिमिदं पार्श्वप्रभोराननं तेजःपुञ्जविराजमानमनघं दृष्ट्वेति शङ्कां दधे । चञ्चच्चञ्चलितं नभोदपटलं नव्यप्रभाभूषितं किं वा काञ्चनभूधरैरभिनवैः कालोदधी(धा)वुद्गतम् ॥२॥ सज्जात्यादिसुमोत्करैर्धवलभैर्गात्रं प्रभोरचितं, शुद्धं सूर्यसुताजलप्रभसमं संलक्ष्यते सज्जनैः । एतत् किं गगनं दिवाऽपि यदहो ! ताराश्रितं भास्वरं, किं वा नूतनपुण्डरीककलितो गम्भीरनीराशयः ॥३॥
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वक्त्रेणाशु जितो विधुर्विधुरितः खेटोऽभवत्खेदतः, कार्यं सन्दधदन्तरेव सकले लोके कलङ्की ततः । नेत्राभ्यां कमलोत्करोऽपि च जितो यातो जले भीतितः, किं ते नौमि नवीनपुण्यवपुषः सर्वं हि सत्प्रभावम् (?) ॥४॥ श्रीमत्पत्तनपत्तने प्रवरके ढण्ढेरके पाटके, गच्छे स्वच्छगुणान्विते सदयने श्रीपू(पौ)णिमीयाभिधे । पूज्यश्रीललितादिमप्रभगुरोः पादाम्बुजोपासकः प्राप्तः श्रेष्ठिपदं प्रभाकरसमो वीराह्वयो वीर्यवान् ॥५॥ चैत्ये दौष्यकमुख्यकेन विधिना तेनोच्चकैः कारिते, बिम्बं पार्श्वजिनेश्वरस्य सुखदं श्रीश्यामलाख्यं महत् । सार्धं श्राद्धजनैर्महोत्सवभृतं संस्थापितं चा(सा)ऽऽदरं, यत् पूर्वं हि कुमारपालनृपतेश्चैत्यस्य बिम्बं त्विदम् ॥६॥ श्रीश्रीमालविशालवंशकमले जातो मरालोपमः, श्रीवीराह्वयसन्ततौ दिनमणिर्यस्तेजसीश्रेष्ठिराट् । श्रीभावप्रभसूरिणा स्वगुरुणा सङ्घः समं चाधुना चैत्ये तेन महाजनाधिपतिना संस्थापितः श्रीप्रभुः ॥७॥ विषमकलियुगेऽस्मिन् म्लेच्छतो भीतिमाप्य, परमसमयविद्भिः पूर्वमुत्तारितं यत् । पुनरपि जिनबिम्बं स्थापितं चैत्यगर्भ, वसुतुरगतुरङ्गोर्वीप्रमाणेऽत्र वर्षे ॥८॥ (१७७८) निहितनभसि मासे चन्द्रवारे चतुर्थ्यां, विमलतरविलग्ने श्राविका केसराख्या । विहितजिनपभक्ति|इती तत्सुता श्रीरिव कथयति भद्रं सूरिभावप्रभाख्यः ॥१॥
॥ इति श्रीमद् बृहच्छ्यामलपार्श्वनाथस्तुत्यष्टकमिति ॥
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अनुसन्धान-५९
(२) ॥ पत्तनस्थ जिनालय कवित्त (?) ॥
कुमारपालभूपाल दयाल जैनें जिनधर्मको मर्म जगायो, तिनकै देहरै चुमुखै च्यार मोटे जिनराय सुगुरु सुनायो, तिनकै मांहुको बिंब एह एक दोसी वीरै तस चैत्य निंपायो, भावप्रभ कहै सेवो हो भवियन सामलो पास ए पुनै पायो. १ ढंढेर कटंब साह वीरो जैनें वीरवाडा नाम गाम बसाया, उत्तंग मंडप चैत्य निपाय तिहां जिन वीरका बिंब सोहाया, आठ-बीडोत्तरै पत्तन ढंढेरवाडै सोऊ बिंब आनि बिठाया, भावप्रभ कहै पूरन भावथै, श्रीमहावीर तना गुन गाया. कलिकुंड पास जिणंदकी मूरति, देखतै मेरी आंखि ठरै है, काल अनादि मिथ्यातर्थं पावत, पापकी पीर सो दूर टरै है, शिवचंद सारंग सार सेवाथै, स्वामिको चैत्य उद्धारक है, भावप्रभ कहै पास महिमा जगि, रोग-सोग विषवेग हरे है. ३ पुनमगच्छ प्रभावक श्रावक सेठ वीरै सात चैत्य कराये, तिनके वंशमे दोसी तेजसी पित्तलमें सहस्सकोटी भराये, एक हजार उपरि चोवीश जिनेसर बिंब संख्या सवि थाये, भावप्रभसूरीश प्रतिष्ठित [सत्तरचुमोत्तरि जेष्ठ सुहाये] *
यात्र करत सवि पाप पलाये. ४ सोनी अमीचंद चंद जसीमति आदि जिनंदको चैत्य कीनो, कुंभारीइ दुखवारीइ थानक, संवत सोल छप्पन्नै नवीनो, वैशाखी सुदि दसमी योगै, वचन सुनी ललितप्रभसूरिनो, भावप्रभ कहै धन मानव जनैं सुमारगे धन खरचीनो. ५
मात
* आ पंक्ति कवि पाठांतरमां रची होय तेम लागे छे.
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इन्दनन्दि गुरुस्वाध्याय तथा भास
-- मुनिसुयशचन्द्र - सुजसचन्द्रविजयौ
अहँ नमः
ऐं नमः प्रथमकृतिसारांश 'सज्झाय' ए प्राकृत शब्दनो गुजराती पर्याय एटले ज स्वाध्याय. प्रस्तुत कृति 'गुरुस्वाध्याय' ए नामनी ऐतिहासिक कृति छे. कृतिनां शरुआतनां पद्योमां कवि वीरप्रभुना प्रथम पट्टधर सुधर्मास्वामीथी पोताना प्रगुरु श्री इन्द्रनन्दिसूरिसुधीना आचार्योनी स्तुति करे छे. त्यार पछी १३ मी गाथाथी कविए इन्द्रनन्दिसूरिजीना जीवनचरित्रविषयक जन्म, दीक्षा, पदप्रदान, प्रतिष्ठादि प्रसङ्गोनुं रोचक शैलीमा वर्णन कर्यु छे. अन्त्य पद्योमा गुरुनी उपमा- अने पोतानी परम्परानुं वर्णन करी काव्य पूर्ण कर्यु छे. इन्द्रनन्दिसूरिनुं चरित्र : (प्रथम कृतिने आधारे)
मरुधर (मारवाड) देशना पुरपाटणमां चम्पकशाह नामे व्यवहारीनी सीतादेवी नामे पत्नीनी कुखे सं. १४१८ ना मागसर सुद ७ना दिवसे तेमनो जन्म थयो. जन्म महोत्सव करी तेमनुं देवराज ए प्रमाणे नाम करायुं. धर्मनी भावना वाळा तेमने सं. १५०८ मां उदयनन्दिसूरिए ‘इन्द्रनन्दि' ए नाम आपी दीक्षित करी अभ्यासने माटे रत्नशेखरसूरिनी समयशाखामां थयेला मोटा तार्किक रत्नमण्डनसूरिना शिष्य सोमजयसूरि पासे अभ्यासार्थे मोकल्या. विद्याभ्यासनी तेमज चारित्रनी परिणतिवाळा मुनि इन्द्रनन्दिने सं. १५३०मां सिद्धपुरमां श्रीसोमजयसूरिए पोताना हाथे गणिपद आप्यु. सं. १५४१मां अमदावादना साणंद तथा सोनी अंबपता हरिचंदे पूज्यश्रीनी निश्रामां तीर्थनगरी इडरनो संघ काढ्यो. त्यां पूज्यश्रीए युगादिदेवने जुहारी गच्छनायक लक्ष्मीसागरसूरिने वन्दना करी. अहींथी संघपति हरिचंदे संघ काढ्यो. गच्छनायक लक्ष्मीसागरसूरि पण परिवार सहित पधार्या. विविध प्रकारना नाट्यादि खेलोथी अने दानादिथी शोभता ते अवसरे पूज्य इन्द्रनन्दि गणिने गणधर (आचार्य)पद अपायु.
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१८
अनुसन्धान-५९
अनुक्रमे गुरु विहार करता अमदावाद पधार्या. अहीं दोसी पंचायणे १३ शेर प्रमाण रू' कनकथी युक्त एवी प्रतिमानी तेमज कळशनी श्रेणीओनी प्रतिष्ठा सूरिजीने हाथे करावी. त्यांथी वीरनगरमा मन्त्री देवदासे गुरुनी पधरामणी करी, तेमज ६३ श्रावको साथे शीलव्रत उच्चपुं. विहार करी गुरु वटपद्र (वडोदरा) पधार्या त्यारे अहींना गंग मन्त्रीए गुरुना गणधर पदनो महोत्सव को. शाह पूनागरे मङि-सावटू विगेरेनी लाणी करी. अणहिल्लवाडमां वस्तुपाले प्रतिष्ठा महोत्सव को [देखदेखाडवू एटले प्रसंग बताववो ?] तेमज सावटू आपवा पूर्वक संघपूजा करी. गुरुना ज समयमा संघपति कर्मण अने हर्षागर दोसीए पुस्तको लखावी भण्डार कराव्यो हतो. पाटणमां ज्यारे गुरुए श्रीसौभाग्यनन्दिने अने प्रमोदसुन्दरने गणधर पद आप्युं त्यारे संघपति श्रीराजे घणुं धन वापर्यु अने ८४ गच्छने विविध पहेरामणीथी सन्तोष्या. आ प्रसंगे संघपति सोमदत्ते २७ पोषधशाळा, रूपा सहितना कल्पसूत्रनुं लेखन, मोटा चन्दरवा, ठवणी प्रमुख घणी धर्मसामग्री करावी. (कृतिमां वपरायेल नंग शब्द रत्न माटे होय तो ७८ रत्ने पौषधशाळा अने बीजा घणा रत्ने धर्मना उपकरणो कराव्या एम समजवू पडे). वळी आ प्रसंगे पण्डितपद, उपाध्यायपद, प्रवर्त्तिनीपद, गणिपदनी साथे घणां पुरुष-स्त्रीनी दीक्षाओ पण थई. आम अनेक शासन-प्रभावनानां कार्यो करी सं. १५६७मां मागसर सुद १३ना गुरुवारे पाटणमां तेमनो स्वर्गवास थयो. काव्य, मूल्य विविध दृष्टिए
___कर्माशाकृत शान्तिनाथप्रासाद-सप्तमोद्धारप्रशस्ति, विमलप्रबन्ध, सुमतिसाधु विवाहलो जेवी घणी ऐतिहासिक कृतिओनी रचना कवि लावण्यसमये करी छे. प्रस्तुत कृति नानी होवा छतां ऐतिहासिक दृष्टिए महत्त्वनी छे. इन्द्रनन्दिसूरिजीना चरित्र उपरांत दोसी पंचायणे करावेल बिम्बनी प्रतिष्ठा, पाटणमां वस्तुपाले करावेल प्रतिष्ठा, श्रावक सोमदत्ते करावेल २७ पौषधशाळा इत्यादि नोंधो इतिहासनी कडीरूप छे. तो सामाजिक दृष्टिए जन्मोत्सव करी नामकरण करवानी, अन्य साधु पासे भणवा मोकलवानी, विशिष्ट प्रसङ्गोए सङ्घभक्तिरूप ल्हाणीनी, संयमीना काळधर्म प्रसङ्गे तेमना देहनो अग्निसंस्कार करवानी विगेरे रिवाजोनी नोंध महत्त्वनी छे. भाषाकीय दृष्टिए ए काळे वपराता मडि, सावटू, जङ्गपरा, सइं जेवा शब्दो पण तेटलाज महत्त्वना छे.
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जून २०१२
द्वितीयकृतिसारांश :
कविए इन्द्रसूरिजीने उद्देशीने अन्य एक कृति रची छे. ते गुरुभास सड्जक रचना होई जीवनचरित्र पर प्रकाश पाडनारी कृति होवी जोइए. परंतु कृतिमां इन्द्रनन्दिसूरिजीना पिताना नाम सिवाय अन्य कशी विशेष नोंध नथी. कृति सामान्य छे. कविए गुरुना गुणोनुं वर्णन सहिअरने मुखे रजू कर्तुं छे. कृतिकार अने तेनी अप्रगट अन्य रचनाओ
कृतिकार लावण्यसमय एक सुप्रसिद्ध कवि छे. रङ्गरत्नाकरछन्द, विमलप्रबन्ध जेवां काव्यो तेमना कवित्वनो परिचय आपतां अजोड काव्यो छे. कविनो विशेष परिचय अहीं न आपता वाचकोने 'रङ्गरत्नाकरछन्द'नी शिवलाल जेसलपुरानी के भोगीलाल साण्डेसरानी प्रस्तावना जोवा विनंती. कविनी हजु प्रायः ४१ जेटली कृतिओ अप्रगट छे. अहीं तेनी सामान्य नोंध आपी छे. विस्तृत नोंध माटे दर्शनाबेन कोठारीनुं साहित्यसूचि पुस्तक जोवा वाचकोने विनंती.
कृतिनाम अध्यात्मस्वाध्याय २ अन्तरङ्ग गीत
१
३
आठमद स्वाध्याय
४
आत्मजीवस्वाध्याय
ओगणत्रीसीभावना
५
६ कायाप्रतिबोधस्वाध्याय
क
कृतिनाम १५ ते गुरवा स्वाध्याय
१६ दाननी सज्झाय १७ दृढप्रहारी गीत
६ | १८ दृढप्रहारी सज्झाय १९ नवग्रहगर्भित गीत
७
२० नेमराजुल स्तवन १२ २१ नेमजिनस्तवन
२३
२२ पञ्चइन्द्रियगीत
२३ पञ्चतीर्थस्तवन २४ नवपल्लवपार्श्वनाथ
१९
७
कांकसा गीत
८ गोडी पार्श्वनाथ गीत ९ गोरी सांवली गीत विवाद
१० गौतमस्वामीनुं स्तवन
९
११ गौतमस्वामीनी स्तुति १२ चौदस्वप्न स्तवन १३ छोती चतुष्पदी
१० ४६/२५ २५ पुण्यपापफल भास ६८ २६ बलभद्रस्वाध्याय १४ जीवराशि खामणा विधि १४७ २७ मनमांकड स्वाध्याय
प्रभाति स्तवन
कडी
८
१२
१२
२४/१२
४
१९
३५ / ३८
१०
२९
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२०
अनुसन्धान-५९
स्तवन
२८ महावीर स्तुति
५ ३६ सार सिखामण २९ राजीमती गीत
३७ सांतराइमण्डण सुपार्श्वनाथ ३० राजीमती विनती
स्तवन ९ ३१ शिखामण स्वाध्याय
३८ सुभाषित ३२ श्रावकविधि सज्झाय ३१ | ३९ सूर्यदीपवाद छन्द ३३ सरस्वती छन्द
| ४० स्थूलिभद्र गीत ३४ सातवारनी सज्झाय ८ ४१ हरियाली ३५ सातवार भास
४२ हितशिक्षा सज्झाय शब्दकोश
(प्रथम कृतिनो) १. रम्मो = सुंदर
१३. जंगमोयक्षर = ? २. जुगहपहाणो = युगप्रधान
१४. तलीआ = तोरणनो एक प्रकार ३. नाह = नाथ, पति
१५. त्राटो = तोरण, वांसनी पट्टीओनो पडदो ४. जंगपरा = मोटा उत्सव साथे १६. गण = गुण ५. परतिअ = प्रत्यक्ष
१७. माडि, मडि = पूजानां वस्त्रो(?) ६. अप्पिअ = आप्यो
१८. सावटू = रेशमी जरीयान वस्त्र ७. पढेवा = भणवा
१९. दिवारी = देवडावq, अपावQ ८. पयासइ = प्रकाशित करवू २०. देख दिखाडइ = प्रसंग देखाडवो(?) ९. परिपरि =
२१. पोढां - मोटा १०. विगट = व्यक्त (विशेष प्रसिद्ध) २२. कवली - वांसनी पट्टी अने कापडनुं ११. मतुल्ली = असमान
बनेलुं पोथी- एक प्रकारचें बंधन १२. सई = पोताना
२३. उमाहो - उत्साह
(द्वितीय कृतिनो) १. हेलि = सखि
८. सइजल = पाणी २. गेलि = गम्मत
९. गोविलास = ३. हवि = हवे
१०. कुरुमाणी = करमायेल ४. हेली = वर्षा (?)
११. कुठिण = कठिण ५. रेडए =
१२. विसहां = ६. कंकालकाल
१३. द्रूअ = ध्रुवनो तारो ७. गहिरु = गंभीर
१४. नितां = नित्यता (?)
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जून - २०१२
गुरुस्वाध्याय ॥ ए ई० ॥ श्रीइन्द्रनन्दिसूरिगुरुभ्यो नमः ॥ दिउ सरसति वाणी, अमिअ समाणी, कविअण धुरि थिर थाइसिउं ए, श्रीइन्द्रनन्दिसूरी, आनन्दपूरी, पट्टपरम्परा गायसिउं ए ॥१॥ वीरपट्टि सामी सोहम्मो, जम्बू प्रभवसामिगुरु रम्मो, सिज्जम्भव जसभद्द सुसाहू, सिरिसम्भूतिविजय भद्रबाहू ॥२॥ थूलिभद्र महागिरि सुहत्थी, इन्द्रदिन्नगुरू सिवसारत्थी, दिन्नसूरि सीहगिरि जाणउं, वयरसेन वज्रसेन वखाणउं ॥३॥ चन्द्रसूरि सामन्तभद्र सुणीइ, देवसूरि प्रद्योतन भणीइ, मानदेव मानतुङ्ग मुणिन्द, वीराचार्य सूरिगुरु चन्द ॥४॥ तासु पट्टि जयदेव यतीस, देवानन्द नमउ सूरीस, श्रीविक्रम नरसिंह नमीजइ, श्रीसमुद्र मानदेव थुणीजइ ॥५॥ घातः- विबुहसूरी कियदुखदूरी, जयानन्द रविपह गुरू ए, जसदेव विमलचन्द, श्रीउद्योतन सर्वदेवसूरीसरू ए ॥६॥ अजितदेवसूरि आनन्दपूरी, विजयदेव सोमप्पहसूरी, सिरिमुनिचन्दसूरिगुरु वन्दउ, अजितसिंहसूरि चिर नन्दउ ॥७॥ विजयसेन मणिरयण सुजाण, सिरिजगचन्दसूरिगुरुभाण, बार वरस अम्बिलतपकारी, वस्तुपाल हूउ तिणिवारी ॥८॥ बारपञ्च्यासी (१२८५)वरस पसिद्धउ, तपा बिरुद मन्तीसरि दिद्धउ, जावजीव अम्बिलतप किद्धउ, जिणि जगि मज्झि सुजस घण लद्धउ ॥९॥ सिरिदेविन्दसूरि मन मोहइ, धम्मघोष सोमप्पह सोहइ, सोमतिलक सच्चउ गुरुराय, जयानन्दसूरि सेवउ पाय ॥१०॥ सिरिदेवसुन्दर सूरिसोमसुन्दर, सिरिमुनिसुन्दर सूरिवरा, गुरुसिरिजयचन्द, धुरि रयणशेखर, सूरिलच्छीसायर लच्छिकरा ॥११॥ तासु पट्टि गुरु पूनिमचन्दो, चउविह सङ्घ करइ आणन्दो, सिरिइन्द्रनन्दिसूरि जुगहपहाणो', महिमा महीअलि मेरु समाणो ॥१२॥ महिमण्डलि मरुदेस महन्तो, तिहि पुर पट्टण वसइ वसन्तो, व्यवहारी धुरी चम्पक साहो, सीतादेवि तणउ ते नाहो ॥१३॥
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२२
अनुसन्धान-५९
तासु उअरि लिद्धउ अवतारो, जनमिउ कुंअर कुलसिणगारो, संवत चौदअट्ठाणउं (१४९८) वरसे, मागसिर सुदि सत्तम दिवसे ॥१४॥ कीधा उच्छव अति अभिराम, दिद्धउ देवराज वर नाम, क्रमि क्रमि कुंअर वद्धइ वीर, हिअडइ धम्म तणी मति धीर ॥१५॥ पनरअट्ठोत्तरि(१५०८), उदयनन्दिसूरि, दिइ संयम बहु जङ्गपरा', गुरि नाम मनोहर, परतिअ सुन्दर, इन्द्रनन्दि मुनिराजवरा ॥१६॥ अप्पिअप सीस सुजस जगि लेवा, श्रीसोमजयसूरिपासि पढेवा, दिन दिन विद्या-विणय पयासइ, ग्रन्थ अच्छअच्छ अहनिसि अभ्यासइ ॥१७॥ प्रीछ्या आगम वेद पुराण, प्रीछ्या शास्त्र सकल बन्धाण, जाणइ अङ्ग इग्यार वखाणी, जाणइ जे परिपरि जिनवाणी ॥१८॥ जोइस जोग मर्म जगि जाणइं, विद्या चौद विशेषि वखाणइं, विगट० प्रगट ने वादीराय, सीस तणी परि सेवइ पाय ॥१९॥ पालइ चारित्र निरतीचारा पञ्च समिति त्रिणि गुपति विचारा दसविध चारित्र हीअडइ राखइ, दोष बयालीस चिन्ति न चाखइ ॥२०॥ मुनि दिन-दिन वद्धइ, सञ्जम लद्धइ, सीलि सुजस भरइ ए, पूरव रिषि सारा, जम्बूकुमारा, तसु आचारा सिरि धरइ ए ॥२१॥ वाणि सुधारस सरस मतुल्ली११, मूरति पेखी मोहणवल्ली, अवसरि सीख सुमति जस अप्पइ, गुणवंता गुरु गणिपद थप्पड़ ॥२२॥ संवत पन्नरत्रीसा (१५३०) वरसे, पुञ्जराज वित्त वेचइ हरिसे, श्रीसोमजयसूरि सइं१२ हत्थिकरणं, सिद्धपुरि पण्डितपद ठवणं ॥२३॥ अहमदावादि वसइ साणन्दो, सोनी अम्बपता हरिचन्दो, मेली सङ्घ पनरइकतालइ (१५४१), ईडरगढि जिन आदि निहालइ ॥२४॥ विगतिइं देव युगादि जुहारी, अनुक्रमि तीरथनयर मझारी, भेटिआ सहिगुरु गुणमणिआगर, गछनायक सिरिलखिमीसागर ॥२५॥ ईडर अहिठांण, भूपति भांण, बहु बहुमांण दिद्धवर, हरिचङ्ग सुरङ्ग, मेलिअ सङ्घ, मण्डइ जङ्गमोयक्षर१३ ॥२६॥ सङ्घ सकल नवि लहीइ पारो, मोटा मागण सहस बिच्च्यारो, गणधर गणनायक गुणवन्तो, मिल्या साधु सुणीआ सइ सत्वो ॥२७॥
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जून - २०१२
बन्ध्या तलीआँतोरण त्राटो१५, गण१६ गाइं गण गन्ध्रव भाटो, भरहभेद नाटक नवरङ्गा, नाचइ नवला पात्र सुचङ्गा ॥२८॥ वीनवी(वि)आ गुरि ठवी आवासो, सयल सङ्घ मनि अति उल्लासो, सुणिअ टड्क लहु सहस पञ्चासो, वेचिअ वित्त पूगी पहु आसो ॥२९॥ माडि१७ सावटू१८ वेढ सौवर्ण, दीजइ नानाविध आभर्ण, सन्तोष्या मागणजन मन्न, गणधरपदि थाप्या गुरु धन्न ॥३०॥ मेलिअ मुनिवर्से, अति गहगढ़े, लच्छीसायरसूरिवरं, अप्पिअ निअपढें, पुहवि पयर्टी, इन्द्रनन्दिसूरीन्द्रगुरुं ॥३१॥ महिमण्डलि गुरु करइ विहारो, अहनिसि उच्छव जय-जयकारो, सम्पत्ता गुरु अहमदावादे, गाइं गोरी नवलइ नादे ॥३२॥ दर्शन विविध वस्त्र विहरावी, मडि सावटू सङ्घ पहिरावी, दोसी पञ्चायणि सुगरिठा, काराविअ बहु बिम्बपइट्ठा ॥३३।। पडिमा रूप कणय सञ्जुत्ता, तेर सेर परमाण पवित्ता, वर प्रतिट्ठ घण भावि करावी, कलसराजि भण्डार भरावी ॥३४॥ वीरनगरि मन्त्रीदेवदासे, गुरु पधराव्या पुण्यप्रकाशे, समकितनांदि नवल मण्डाण, मोदक कलसी आठ प्रमाण ॥३५॥ मडि-मुद्रा सारी, दत्त दिवारी१९, देवदास भवभय हरइ ए, जन त्रिसट्ठि सत्थिई, एह गुरुहत्थिई, शीलवत आदरइ ए ॥३६।। सिरि वटपद्रि मन्त्रिवर गङ्गे, गणधरपद कारावइ रङ्गे, मडि सावटू दीइ मन हरसे, साह पूनागर साठा वरसे ॥३७॥ वस्तुपाल इणि अणहिलवाडइ, बिम्बप्रतिष्ठा देख दिखाडइ,२० सङ्घपूज सावटू प्रदान, दीजइ सकल सङ्घ बहुमान ॥३८॥ सङ्घपति कर्मण धर्माधारो, हरषागर दोसी दातारो, पोढां२२ पुस्तक लक्ष लिखावइ, गुरुवारइ भण्डार भरावइ ॥३९॥ व्यव श्रीराजि वित्त घण दीधा, पट्टणि गुरि गणधरपद कीधा, श्रीसौभाग्यनन्दिगुरु वन्दो, सिरिप्रमोदसुन्दरसूरिन्दो ॥४०॥ गुरि सुजसपयासी, अमन उल्लासी, गच्छ चउरासी विवहपरे, पहिराव्या रङ्गिइं, नव-नव जागई, सवि सन्तोष्या सुपरिकरे ॥४१॥
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२४
अनुसन्धान-५९
सोमदत्त सङ्घाहिव सुणीइ, तेहना करणी अदभुत भणीइ, अट्ठोत्तर अट्ठोत्तर नङ्गे, वीससत्त पोसाल सुचङ्गे ॥४२॥ रूप सहित बहु कलप लिखावी, चन्द्रूआ चउसाल करावी, ठवणी कवली२२ वडा विवेक, पाट पमुह इम नङ्ग अनेक ॥४३॥ पण्डितपद उवज्झाय वखाणउं, पवत्तणि-गणिपद पार न जाणउं, चेला-चेली दीक्षा लेणा, कीधां काज गुरि लाखीणा ॥४४॥ उदयनन्दि-सूरसुन्दरसूरि, रयणमण्डण-सोमजय गुणपूरि, तास सीस गुणमणिसञ्जतो, पट्टणि अमरभवनि सम्पत्तो ॥४५॥ पनरइगुणहुत्तरि(१५६९), मागसिर शुदि धुरि, तेरसि दिन निरवाण गुरो, बहु चन्दनि दाहो,सुगय उमाहो२३, देवलोकि तिय सुणिय सुरो ॥४६॥ खीरसमुद्र समु को सागर, रयणायर सम रयण न आगर, मन्दर मेरु समु नवि होई, एइ गुरु समु सुगुरु नहीं कोई ॥४७॥ जलधर सम को नहीं उवयारी, सुरतरु सम तरु नहीं संसारी, चिन्तामणि सम रयण न लहीइ, एह गुरु समु सुगुरु कुण कहीइ ॥४८॥ जु घरिं सम्पति वर गोखीर, तु किम पीजइ खारुं नीर, जु एह गुरुनुं जपीइ नाम, सेवा अवर सुगुरि कुण काम ॥४९॥ समयरयण जय पण्डितराओ, तास सीस मनि आणी भाओ, मुनि लावण्यसमय इम बोलइ, कोइ न सदगुरु एह गुरु तोलइ ॥५०॥ सिरिलच्छीसायर, पट्टदिवायर, श्रीइन्द्रनन्दिसूरीसरू ए, मन रङ्गिइं गाया, सहि गुरुराया, चतुर्विधश्रीसङ्घ जयकरु ए ॥५१॥
॥ इति गुरूणां स्वाध्यायः ॥
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जून - २०१२
॥ श्री इन्द्रनन्दिसूरिभास ॥ ॥ ए ६० ॥ श्रीसोमजयसूरिगुरूभ्यो नमः ॥
सरसति सरसति सामणि सेवीइ ए, वरसति वरसति वचनविलास कि, कविजनजननी जाणीइ ए, पणमीय पणमीय पूरइ आस कि,
सरसति सामणि सेवीइ ए १ सेविइ सरसति लहीअ अनुमति, धरिअ भगति भलेरडी, आणंद आणी अह्म वाणी, सुणि-नसुणि साहेलडी, गणधर गणागर महिमसागर, हरिखि वंदणि जाईए, श्रीइंद्रनंदिसूरिंद सहगुरु, हेलि' गेलि' गाईइ २ धन धन धन धन अह्म दिन आजनु ए, सरसिइं ए सरसिइं ए वंछितकाज कि, सहीअर सवि मनि चीतवए, भेटिसुं भेटिसुं सहगरराज कि,
धन धन अह्म दिन आजनु ए ३ धन धन्न वर संगार सहिअर, करई रंग रसाली ए, नव रंगि चीरं शरीर सोहई, घाट-घुग्घुरिआली ए, । करि सुरअंतेउरी पायनेउरी, मयणभेरी अवतरी, करि धरिअ थाल विशाल अक्षत, पूरि पदमनि संचरी ४ गणधर गणधर नरखी नयणले ए, हरिखीअ हरिखीअ हृदयमझारि कि, सुंदरि सवि सिरखी मिली ए, बोलइ ए बोलइ ए मंगल च्यार कि
गणधर नरखी नयणले ए ५ नयणले निरखीअ हीइं हरखीअ, हविः अहिनिसि आवइ, कुंकुम चावल चउक पूरइ, सुगुरु रंगि विधावए, वर कल्पवेली तिसी हेली', अवर कोई न तोलए, निअ मन आणंदइ नवल छंदिइं, धवल-मंगल बोलइ ६ जलहर जलहर जिम जगि ऊनयउ ए, विरसइ ए विरिसइ ए अचलधार कि, वचनविलास सोहामणउ ए, चंदन चंदन शीतल सार कि जलहर।
जिम जगि ऊनयउए ७
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२६
अनुसन्धान-५९
ऊनयउ जलहर जोइ उत्तर-दिसि निरंतर रेडए", कंकालकाल दकाल दोहिलां, दुखना मुख्य फेडए, जनमन-अरितिहर अनि सुहकर, गयणि गुहिरू गज्जए, तिम सइजल संपूरिउ गुरु, गोविलास' विराजए. ८ किसिमिसि किसिमिसि साकर बिहिनडी ए, बिहिनडि बिहिनडी
इणि अहिनाण कि, कुरुमाणी° कुठिण११ हूईए, पेखीअ पेखीअ सहिगुर वाणि कि ९ किसिमिसि साकर बिहिनडी ए बहिनडी किसिमिसि अनइ साकर, सुगुरवाणि सरस जि सुणी, सुर-असुर-कन्नर-नाग-नरवर, रंजिइ त्रिभुवनधणी, किसिमिसि निरंतर एवडए अंतर, पेखि दुखि करमाणी ए, निम हुईअ साकर कठिण काकर, मधुर गणधरवाणिए १० सुरतरु सुरतरु समवडि सोहीइ ए, मोहीइ मोहीइ जनमनवृंद कि, किंद अमीअ तणउ(इ) जीभडी ए, मुख जिम पूनिमचंद कि ११
सुरतरु समवडि सोहीइ ए सोहीइ सुरु(र)ति स्या सहि गुरु, क्षमासागर जाणीइं, बहु नयर-देसि विदेसि आगरि, जय करंत वखाणिइं, चारित्रकमला धरइ विमला, बहु प्रतापिइ दीपए, श्रीइंद्रनंदिसूरिंद केरी, आण कोई न लोपए. १२ श्रीसोम श्रीसोमजयसूरीसरू ए, सासए सासए सीस सिरोमणि तास कि, मुनिलावण्यसमय भणइ ए, वंदओ वंदओ धरिअ उल्लास कि,
श्रीसोमजयसूरीसरू ए १३ सूरीसरू श्रीसोमजयसूरि, सीसविसहां १२दीपए, श्रीइंद्रनंदिसूरिंद हेलां, वादिगजघट जीपए, चंपराज कुलि अवतंस तपगछि, जयु जयु गुरु तां ल[ग]इ सुरगिरि सुधाकर सूर सागर, द्रूअ१३ नितां [जां] १४लगइं
॥ श्रीइंद्रनंदिसूरिराज भाषा समाप्ति ।
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जून - २०१२
२७
भूषण नाम गर्भित एक अप्रगट गहूली
- मुनिसुयशचन्द्र - सुजसचन्द्रविजयौ मध्यकालीन भाषाना साहित्यप्रकारोमांना रास, विवाहलो, गरबो इत्यादि प्रकारो लोकमुखे अविरत वहेता रह्या छे. तो ढूंकी रचनाओमां स्तवन, गहुंली, छन्दादि रचनाओ लोकमुखे वधु प्रचार पामी एम कहेवामां अतिशयोक्ति नहि
गणाय.
गुरुभगवंतोनी पधरामणी वखते जेम मंगल प्रतीकरूपे स्वस्तिकादि गहुंलीनुं आलेखन कराय छे, तेम व्याख्यानादिमां मङ्गलगीतो द्वारा थती गुरुगुणवर्णना गहुंलीसंज्ञक रचना तरीके ओळखी शकाय. सधवा स्त्रीओ गुरुभगवंतने वांदवा उपाश्रये जाय छे त्यारे तेमणे शा शा शणगार सज्या छे तेनुं कविए प्रस्तुत कृतिमां सुन्दर वर्णन कर्यु छे. शणगारमांनां केटलाक झाल, डोडी जेवां आभरणनां नामो हालमां प्रसिद्ध नथी. बीजा केटलाक शब्दो अपरिचित होइ तेना अर्थो अमे नोंधी शक्या नथी. विद्वानो ते अंगे योग्य मार्गदर्शन आपशे. कृतिकार मेरू कोण छे ते अंगे विशेष कशो उल्लेख मळ्यो नथी.
प्रस्तुत कृतिनी प्रत आपवा बदल नेमि-विज्ञान-कस्तूरसूरिजी जैन ज्ञानमन्दिरना व्यवस्थापकश्रीनो खूब खूब आभार.
शब्दकोष
नलवटि = कपाळमां टींगर = ? पीअरि = कंपाळमां लगाडवामां आवती
अर्चा. झाल = कानमां पहेरवानुं एक आभूषण वेसणकांटो = ? (वेसर-नथ ) हांसडी = गळमां पहेरवानुं एक घरेणु
डोडी = हाथे पहेरवानुं मादळियु (?) वेढ = आंगळीए पहेरवानी एक प्रकारनी
मोटी वीटी. चादरचीर = ? अलवइ = हळवेथी, लीलापूर्वक मादल = एक वाद्य, मृदङ्ग
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अनुसन्धान- ५९
भूषण नाम गर्भित एक अप्रगट गहुली
कुंकुम केसर घोली रोली कचोली भरी रे, रूडी कचोली भरी, गोरी गेलइ गूंहली ग्रहइ उलट धरी रे, रूडी उलट धरी, थाल सुविशाल सोनां-रूपानां वारू रें, [रूडा] सोना-रूपानां वारू, माणिक मोती चोखा भरीइं संपति सारू रे, रूडी संपति सारू
'नलवटि टीली टबकां टीलां टींगर करी रे, रूडां टींगर करी, सुविशाल गाल लाल पीअलि भरी रे, रूडी पीअलि भरी, सीसइ सहसफूल सींथो फूलीस्युं सोहइ रे, रूडी फूलीस्युं सोहइ, वेणीबंध बांध्यो देखी मनडां मोहइ रे, रूडां मनडा मोहइ
आंखडी अणिआली काली अंजन अंजइ रे, रूडां अंजन अंजइ, कानि मानिं झाल अबुकइ कामीडा रंजइ रे, जेणइ कामीडा रंजइ, नाके नथ नकफूली "वेसणकांटो रे, रूडो वेसणकांटो, पइहरी चतुरा चित्तिं चालइ मुंकती आंटो रे, रूडो मुंकती आटो.
३
हार हईई हरखइ हेजइ 'हांसडी पहिरइ रे, रूडी हांसडी पहिरइ, चीलमाला 'डोडी वडी मादलीआं धरइ रे, रूडां मादलीआं धरइ, बांहइ बाजुबंध बांध्या बहिरखा खलकइ रे, रूडां बहिरखा खलकइ, सोवनचूडी रूडी मांहइ माणिक झलकइ रे, रूडां माणिक झलकइ ४
रतन रंगीले जड्यो चूडलो चमकइ रे, रूडो चूडलो चमक, वारू ‘वेढ वींटी मांहइ आरीसा झमकइ रे, रूडा आरीसा झमकइ, पायपदनी (मी) झेर झांझर घूघरा घमकइ रे, रूडा घूघरा घमकइ, गजगति गेलइ गोरी चालती ठमकइ रे, रूडी चालती ठमकइ.
५
'चादरचीर चरणाचोली चूनडी पहिरइ रे, रूडी चूनडी पहिरइ, घाटडीस्युं घुंघट ताण्यो मनडा हरइ रे, रूडा मनडा हर, च्यार-पांच सरिखा-सरिखी टोलइस्युं मिली रे, रूडी टोलइस्युं मिली, भगवंतभवनि आवी भास दइ भली रे, रूडी भास दइ भली
६
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जून - २०१२
उपासरइ अलवइस्युं० आवइ उलट अंगइ रे, रूडा उलट अंगइ, खीमाजीनो नंदन वंदन करती रंगइ रे, रूडा करती रंगइ, गोरी गेलइ गुरुजी आगलि गूंहली करइ रे, रूडी गूंहली करइ, माणिक-मोती चोक पूरी सुकृत भरइ रे, रूडां सुकृत भरइ. वारू वेढ वीटां रूपां श्रीफल वली रे, रूडां श्रीफल वली, लटकइस्युं लूछणां करती ललीअ लली रे, रूडां ललीअ लली, धवल-मंगल गाइं गोरडी मिली रे, रूडी गोरडी मिली, ताल तंती मादल वाजइ भेरस्युं भली रे, रूडी भेरस्युं भरी. सुहवि सोभागिणि गाती आसीस दीजइ रे, रूडी आसीस दीजइ, माहरा रे गुरुजी केरा दूखडा लीजइ रे, रूडा दूखडा लीजइ, सुजय विजयवंतो गुरुजी माहरो रे, रूडो गुरुजी माहरो, मेरू कहइ गुरुजी नमी आतमा तारो रे, रूडो आतमा तारो.
॥ इति श्रीभूषणगर्भित गृहली भास ॥
८
C/o. अश्विन संघवी,
कायस्थ महोल्लो, गोपीपुरा, सूरत-१
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३०
अज्ञातकर्तृक प्रश्नोत्तरवाक्यरत्नसंग्रहः
सं. साध्वी चारुशीलाश्री
परम पूज्य आचार्य विजयशीलचन्द्रसूरिजी पासेथी मळेली त्रण पत्रनी आ प्रश्नोत्तरवाक्यरत्नसङ्ग्रहनी हस्तप्रतिनी झेरोक्ष श्री मुनि भक्तिविजयजीना सङ्ग्रहनी (भावनगर, आत्मानन्द सभा) छे.
प्रान्ते 'सं १९५९' लेखन संवतनी नोंध मले छे.
दूंका छतां मार्मिक अने सरल आ प्रश्नोत्तर बोधदायक छे.
अथ प्रश्नोत्तरवाक्यरत्नसंग्रहः ॥
॥ प्रश्न० ॥ जगतमां ग्राह्य शुं छे ॥ ?
॥ उत्तर । गुरुवाक्य ॥
प्र० ॥ त्याज्य शुं ॥ ?
उ० ॥ संसार कार्य० ॥
प्र० ॥ गुरु कोण ॥ ?
उ० ॥ विज्ञाततत्त्व ॥ तथा ॥ जीवदयातत्पर होय ते ॥
प्र० ॥ उत्तम जनने शीघ्र कर्तव्य शुं छे ॥ ?
उ० ॥ संसारवृद्धिना कार्यनुं छेदन ॥
प्र० ॥ मोक्षतरुबीज कयुं ॥ ?
उ० ॥ सक्रिय सम्यग्ज्ञान ॥
अनुसन्धान- ५९
प्र० ॥ जीवने परलोक जतां पाथेय शुं ॥ ?
उ० ॥ करेलुं धर्माराधन ॥
प्र० ॥ पवित्र जन कोण ॥ ?
उ० ॥ शुद्ध मनवालो | प्र० ॥ निद्रावान् कोण ॥ ? उ० ॥ [अ]विवेकीजन ॥
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जून - २०१२
३१
प्र० ॥ विष कयुं ॥ ? उ० ॥ गुरुमां अविश्वास ते ॥ प्र० ॥ संसारमा सार शुं छे ॥ ? उ० ॥ पोतानुं वा परनुं सारं करवु ते ॥ अथवा उद्योग करवो ते ॥ प्र० ॥ मदिरापान कयुं ॥ ? उ० ॥ मोहनुं उत्पन्न थर्बु ते ॥ प्र० ॥ स्नेह कोने कहेवो ॥ ? उ० ॥ सुधर्ममां स्नेह ते ॥ प्र० ॥ चोर कोण ॥ ? उ० ॥ पंचेंद्रियना जे विषयो ते । प्र० ॥ संसारवल्ली कई ॥ ? उ० ॥ तृष्णा ॥ प्र० ॥ वैरी कोण ॥ ? उ० ॥ अनुद्योग ॥ प्र० ॥ जगतमां भय कोनो छे ॥ ? उ० ॥ रणनो ॥ प्र० ॥ घणोज अन्ध कोण ॥ ? उ० ॥ संसाररागी ॥ प्र० ॥ शूरवीर कोण ॥ ? उ० ॥ कामिनीना कटाक्षथी नहि पीडा पामे ते ॥ प्र० ॥ श्रवणीय शुं ॥ ? उ० ॥ सदुपदेश ॥ प्र० ॥ महत्तानुं मूल कयुं ॥ ? उ० ॥ अयाचना ॥ प्र० ॥ पार न पमाय एवं शुं ॥ ? उ० ॥ स्त्रीचरित्र ॥ प्र० ॥ चतुर कोण ॥ ? उ० ॥ स्त्रीचरित्रथी अखण्डित रहे ते ॥ प्र० ॥ दारिद्र कयुं ॥?
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३२
अनुसन्धान-५९
उ० ॥ असन्तोष ॥ प्र० ॥ लघु शुं ॥ ? उ० ॥ याचना करवी ते ॥ प्र० ॥ जीवित शुं ॥ ? उ० ॥ परहित करतां जीवq ते ॥ प्र० ॥ जाड्य ते शुं ॥ ? उ० ॥ बुद्धिमत्ता छतां विद्याभ्यासरहितत्व होय ते ॥ प्र० ॥ जाग्रत कोण ॥ ? उ० ॥ विवेकीजन ॥ प्र० ॥ निद्रा कइ ॥ ? उ० ॥ मूढपणुं ॥ प्र० ॥ यौवनधन आयु ते केवां छे ॥ ? उ० ॥ कमल उपर पडेला पाणीना टीपा जेवां छे । प्र० ॥ चंद्र तुल सीतल शुं ॥ ? उ० ॥ सुजन जननो समागम ॥ प्र० ॥ नरक कयुं ॥ ? उ० ॥ परवशता ॥ प्र० ॥ सुख शुं ॥? उ० ॥ आत्मविरति ॥ प्र० ॥ सत्य शुं ॥ ? उ० ॥ सर्व प्राणीनुं हित करवू ते ॥ प्र० ॥ जीवने वल्लभ शुं ॥ ? उ० ॥ प्राण ॥ प्र० ॥ दान कयुं ॥ ? उ० ॥ जीवोने अभयदान आपq ते ॥ प्र० ॥ मित्र कोण ॥ ? उ० ॥ जे पापथी निवृतावे ते ॥ प्र० ॥ अलंकार शुं ॥ ? उ० ॥ शील ॥
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जून २०१२
प्र० ॥ भूषण कयुं ॥ ?
उ० ॥ सत्य वाक्य ॥
प्र० ॥ अनर्थ फलदायक शुं ॥ ?
उ० ॥ चंचल मन ॥
प्र० ॥ सुखवह मैत्री कई ॥ ?
उ० ॥ सत्साधुनो समागम होय ते ॥
प्र० ।। डाह्यो कोण ॥ ?
उ० ॥ सर्व दु:संगत्यागी ॥
प्र० || अंध बहेरो अने मूक कोण ॥ ? उ० ॥
अकृत कार्य करनार ॥ हितवाक्य न सांभलनार अने समयानुकूल न बोलनार ॥
प्र० ॥ मरण शुं ॥ ?
उ० ॥ अतिमूर्खपणुं ॥
प्र० ॥ अमुल्य शुं ॥ ?
उ० ।। जे समयमां काम आवे ते ॥
प्र० ॥ मरणान्त शल्य कयुं ॥ ? उ० ॥ प्रच्छन्न रीते अकृत कर्तुं होय तो ॥ प्र० ॥ यत्न क्यां करवो ॥ ?
उ० || विद्याभ्यास, सदौषध अने दान तेमां ॥
प्र० ॥ अप्रीति क्यां राखवी ॥ ?
उ० ॥ खलमां, परस्त्रीमां अने परधनमां ॥
प्र० ॥ अहोनिश चिंतवन कोनुं करवुं ॥ ?
उ० ॥ संसारनी असारतानुं ॥
प्र० ॥ मरण पर्यंत पण कोने वैराग्य न आवे ॥ ?
उ० ॥ मूर्खने, पाराधिने, गर्विष्टने अने कृतघ्नीने ॥
प्र० ॥ पूज्य कोण ॥ ?
उ० ॥ सदाचरणी ॥
प्र० ॥ अधम कोण ॥ ?
उ० ॥ ग्रहीत व्रतत्यागी ॥
३३
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अनुसन्धान-५९
प्र० ॥ जगत् कोणे जित्युं छे ॥ ? उ० ॥ सत्य तितिक्षावान् पुरुषे ॥ प्र० ॥ सुर वंदनीय कोण छे ॥ ? उ० ॥ परिपूर्ण दयाधर्म पालनार ॥ प्र० ॥ बुद्धिमान कोनाथी भय पामे ॥ ? उ० ॥ संसारारण्यथी ॥ प्र० ॥ प्राणीयो कोने वश करे छे ॥ ? उ० ॥ सत्य अने प्रिय वाक्य कहेनारने ॥ तथा विनयवान ते (ने) ॥ प्र० ॥ सुजनने क्यां ऊभुं रहेवू ॥ ? उ० ॥ लाभालाभनो विचार छोडी न्यायमार्गमां ऊभं (भुं) रहेवू ॥ प्र० ॥ विजली समान शुं छे ॥ ? उ० ॥ दुर्जनसंगति अने युवति जननी प्रीति ॥ प्र० ॥ कया युगमां सुमनुष्यनी पण मति दुःशील आचरण करवामां
तत्पर थाय छे ॥ ? उ० ॥ कलियुगमां ॥ प्र० ॥ शोचनीय शुं छे ॥ ? उ० ॥ कार्पण्य ॥ प्र० ॥ धनी, शुं प्रशंसनीय छे ॥ ? उ० ॥ औदार्य ॥ प्र० ॥ पराभव पामेला अने निर्धन- शुं प्रशंसनीय छे ॥ ? उ० ॥ सहनशीलपणुं ॥
इति प्रश्नोत्तर वाक्यरत्नसङ्ग्रहः समाप्तः ॥
॥ शुभं भवतु ॥ कल्याणमस्तु ॥ श्रीरस्तु ॥
छ सं. १९५९ छ
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जून - २०१२
३५
केटलांक दार्शनिक प्रकरणो
- सं. मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय
न्यायविद्या माटे 'क्षणादूर्ध्वमतार्किकाः' ओ उक्ति प्रचलित छे. न्याय विद्याने वीसराई जतां वार नथी लागती ओवो आ उक्तिनो भाव छे. आ वातनी यथार्थतानी प्रतीति लगभग दरेक अभ्यासीने थती ज होय छे. स्वाभाविक छे के आ परिस्थितिमां न्यायविद्याने टकावी राखवा अने लेखित रूप आपवू जरूरी बने. आ कारणथी न्यायविद्याना प्रायः प्रत्येक अभ्यासी पोताना के बीजाना अभ्यास माटे दार्शनिक-नैयायिक प्रकरणो, महत्त्वपूर्ण युक्तिओ, ग्रन्थोना अंशो व. लखता-लखावता हता. स्वयं उपाध्याय श्रीयशोविजयजी भगवन्ते स्वहस्ते लखेलां आवां सङ्ग्राहक पत्रो मळे छे. अभ्यासीओ द्वारा सगृहीत आq न्याय-दार्शनिक साहित्य फंफोसतां अमांथी केटलीक वार महत्त्वपूर्ण सामग्री जडी आवे छे.
प्रस्तुत प्रकरणो आवा ज कोईक अभ्यासी द्वारा सङ्ग्रहीत लागे छे. सङ्ग्रहकारे २१ पानानी प्रतमा समावेली सामग्री आ मुजब छे - १. षड्दर्शननिर्णय (-अञ्चलगच्छीय मेरुतुङ्गसूरिजी) २. सर्वज्ञसिद्धि (-अजितसिंहसूरिजी) ३. सर्वज्ञाभावनिराकरण ४. अग्निशीतत्वस्थापना ५. धर्मस्थापनस्थल ६. सर्वज्ञव्यवस्थापन ७. चार्वाकोऽध्यक्षमेकं... ओ श्लोक ८. वागर्थसंस्थापन ९. अष्टधाऽनुपलब्धि १०. वज्रशूचीप्रकरण (-बौद्धाचार्य अश्वघोष) ११. सर्वज्ञसिद्धि (द्वितीय) १२. प्रदीपनित्यत्वव्यवस्थापन १३. व्योम्नो नित्यानित्यत्वव्यवस्थापन १४. प्रमाणसाधनोपायनिरास १५. अष्टधाऽनुपलब्धि (पुनरावर्तित). आमांथी घणीखरी कृतिओनो कर्ता अज्ञात छे.
आ प्रत पूज्य गुरुभगवन्त आ. श्रीविजयशीलचन्द्रसूरिजी म. ना निजी सङ्ग्रहनी छे. प्रत कुल २१ पानानी छे, पण पत्र नं. १७-१८ अमां नथी. तेथी 'सर्वज्ञसिद्धि (द्वितीय)'ना आदि-अन्त ज आ प्रतमां मळे छे. प्रत प्रमाणमां ठीक गणी शकाय तेवा अकसरखा अक्षरोमां लखायेली छे. प्रतना लेखके पोतानुं नाम सूचव्युं नथी. फक्त अग्निशीतत्वस्थापनाने अन्ते “अग्निशीतत्वस्थापनावादः पं. साधुरत्नगणिना स्ववचनाय लिखितः" ओवी नोंध मळे छे.
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________________ अनुसन्धान-५९ पण तेथी पण्डित साधुरत्न ज आ प्रतिना लेखक छे ओम मानी शकाय नहीं. केम के - 1. जो तेओओ ज आ प्रत लखी होत तो प्रतना अन्ते पुष्पिकामां पोतानुं नाम लखत, मध्यमां नहीं. 2. जो बधां प्रकरणो तेमणे ज लख्यां होत तो तमाम प्रकरणो माटे 'लिखिताः' कहेत, 'अग्नि०..... लिखितः' नहीं. 3. प्रकरणोमां लेखनक्षति जे हदे जोवा मळे छे ते जणावे छे के आ प्रत कोई प्राथमिक अभ्यासी के असंस्कृतज्ञ लहियाना हाथे लखाई छे. पण्डित पदवी प्राप्त विद्वान्न लेखनकर्म आटलुं क्षतिग्रस्त न होय. 4. 'अष्टधाऽनुपलब्धिः 'ओ प्रकरण प्रतमां मध्यभागे अने अन्तभागे अम बे वार लखायुं छे के जे लेखकनी विषयगत अनभिज्ञतानुं सूचक छे. माटे लेखके अग्नि० प्रकरण जे प्रतमांथी ऊतायुं हशे, ते प्रतमांथी आ पुष्पिका पण यथावत् ऊतारी हशे ओम लागे छे. जो के लेखक जे होय ते, पण आ प्रकरणो आपणा सुधी पहोंचाडवामां तेमनो अनहद उपकार छे ज. प्रतिगत सामग्रीमाथी बधुं ज अत्रे मुद्रित नथी कर्यु. मेरुतुङ्गसूरिरचित 'षड्दर्शननिर्णय' अनेक स्थळे मुद्रित थयेलो छे. 'चार्वाकोऽध्यक्ष०' ओ श्लोक पण अतिप्रसिद्ध छे. तथा 'अष्टधाऽनुपलब्धि' पण ईश्वरचन्द्ररचित साङ्ख्यकारिका ‘अतिदूरात् सामीप्यात्' नो अर्थमात्र छे. तेथी आ बधुं अत्रे सम्पादित नथी कर्यु. आ सिवायनां प्रकरणो, खास करीने वज्रशूचीप्रकरण (-अश्वघोष) पण अन्यत्र मुद्रित होय तेवी सम्भावना छे ज. परन्तु निर्णयना अभावमां अत्रे मुद्रित करवा उचित धार्यां छे. तेमां पण वाचकोनी सहुलियत खातर प्रकरणोना क्रममां पण थोडोक फेरफार कर्यो छे. कृतिओने शुद्ध करवा यथामति प्रयत्न कर्यो छे. [ ] के ( )मां पाठ आपवानी पद्धति अशुद्धिबाहुल्यने लीधे प्रायः नथी अपनावी. अन्य प्रतोना आधारे हजु वधारे शुद्धीकरण शक्य छे. पूर्वे जणाव्युं तेम सर्वज्ञसिद्धिप्रकरण (द्वितीय) आ प्रतिमां त्रुटित स्वरूपे हतुं. तेनी पूर्ति जैन आत्मानन्द सभा-भावनगर-प्रत नं. 897 - 'सर्वज्ञव्यवस्थापन'ना आधारे शक्य बनी छे. वज्रशूचीप्रकरण पण प्रस्तुत प्रतमां अशुद्ध हतुं, तेनी शुद्धि कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर-कोबा-प्रत नं. २११६१ना आधारे थई शकी छे. जो के आ प्रत पण अशुद्ध तो घणी ज छे, छतांय
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________________ जून - 2012 37 बन्ने प्रतना पाठ परस्पर पूरक बन्या छे. आ प्रत अमने सुश्रावक श्रीबाबुलाल सरेमलजीना प्रयत्नथी मळी छे. अत्रे तेओनो तेमज उपरोक्त बन्ने ज्ञानभण्डारोना व्यवस्थापकोनो हार्दिक आभार मानुं छु. कृतिओनो सङ्क्षिप्त परिचय प्रथम 4 कृतिओ, मीमांसक जेवा जे दार्शनिको 'सर्वज्ञ'नी सत्ता नथी स्वीकारता तेमना मतनो प्रतीकार करनारी छे. प्रथम कृति श्रीअजितसिंहसूरिविरचित सर्वज्ञसिद्धि छे. आ कृतिमां कक्काना प्रथम 15 अक्षरो क थी ण प्रायः नथी वपराया ते ओनी विशेषता छे. कृतिमां पांचे प्रमाणो द्वारा सर्वज्ञ छे ओम सिद्ध करवामां आव्युं छे. बीजी कृति सर्वज्ञाभावनिराकरण (अपरनामसर्वज्ञसिद्धि)मां पण अ ज रीते पांचे प्रमाणोथी सर्वज्ञ सिद्ध नथी थता ओ वातनुं निराकरण करवामां आव्युं छे. कृतिना अन्ते अपायेलुं गजविकल्प-दृष्टान्त अत्यन्त रोचक छे. सर्वज्ञव्यवस्थापनावाद अने सर्वज्ञसिद्धि (अपरनामसर्वज्ञव्यवस्थापन) पण विविध युक्तिओथी सर्वज्ञसत्ता सिद्ध करे छे. धर्मस्थापनस्थल ओक विलक्षण कृति छे. कालकाचार्यनी पोताना शिष्यपरिवारने छोडीने सुवर्णभूमिमां सागरचन्द्र आचार्य पासे चाल्या जवानी कथा जैन संघमां प्रसिद्ध छे. कथामां त्यां गया पछी ओ बे आचार्यो वच्चे केटलाक विषयो परत्वे चर्चा थई अम जाणवा मळे छे, परन्तु ओ विषयो कया ते उल्लेखित नथी. प्रस्तुत कृतिमां सागरचन्द्र आचार्य कालकाचार्यने धर्मचिन्ता करवानी प्रेरणा करे छे. तेना जवाबमां कालकाचार्य 'धर्म' जेवी कोई चीज होती ज नथी ओम कहे छे. आ मुद्दे ते बे वच्चे थयेली चर्चा अत्रे दर्शावी छे. ओम पण बने के कृतिकारे ज आ चर्चाने रोचक बनाववा आचार्योना मुखमां गोठवी होय. __'वागर्थसंस्थापन'मां शब्द अने अर्थ वच्चे कयो सम्बन्ध होई शके ते विशे चर्चा करी योग्यतासम्बन्ध सिद्ध करवामां आव्यो छे. आ कृतिमां उपमानोपमेयभाव विशे पण चर्चा छे. ___ 'अग्निशीतत्वस्थापनावाद'मां अग्निमां उष्णत्व नथी, पण शीतत्व छे ओम युक्तिथी सिद्ध करवामां आव्युं छे. तर्कजालना बलथी केटली विरुद्ध बाबत पण सिद्ध थई शके छे ते दृष्टिले आ कृति अवलोकनीय छे.
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________________ 38 अनुसन्धान-५९ नैयायिको प्रदीपने अकान्ते अनित्य अने आकाशने अकान्ते नित्य माने छे. अनी सामे जैनो ते बन्नेने स्वस्वरूपे (प्रदीपत्व अने आकाशत्व रूपे) नित्य अने प्रतिक्षणे बदलातां परिणामोनी अपेक्षाओ अनित्य गणे छे. प्रदीपनित्यत्वव्यवस्थापन अने व्योम्नो नित्यानित्यत्वव्यवस्थापन-मां आ ज कथंचिद् नित्यानित्यत्वनी सिद्धि करवामां आवी छे. 'प्रमाणसाधनोपायनिरास'मां प्रमाण जेवी कोई साध्यने सिद्ध करनारी चीज होती ज नथी तेम सिद्ध करवामां आव्युं छे. वज्रशूचीप्रकरण बौद्धाचार्य अश्वघोष विरचित छे. आ प्रकरणमां ब्राह्मणत्व ओटले शुं ?, शूद्रो ब्राह्मणो करतां नीच गणाय के नहीं ?, चातुर्वर्ण्य जन्मथी गणाय के कर्मथी ? वगेरे प्रश्नो पर विचार करवामां आव्यो छे. ब्राह्मणोनी रूढिचुस्त वर्णव्यवस्था पर अमनां ज धर्मवचनोथी आकरा प्रहार करवामां आव्या छे. अन्ते, आ प्रकरणो अभ्यासीओने आनन्द आपशे तेवी आशा साथे विरमुं छु. सर्वज्ञसिद्धिः (-अजितसिंहसूरिजी) मीमांसाविदः सर्वविदः प्रतिषेधार्थमनुमानमिदमभिदधते / यथा - नाऽस्त्येव सर्ववेत्ता, प्रमाभिरनुपलभ्यमानत्वात्, यद् यद् न प्रमाभिरुपलभ्यते तत् तदसदिति व्यवहर्तव्यं, यथा नभःपद्मिनीपुष्पसौरभं नोपलभ्यते, तथा पुनरसौ सर्ववेत्ता, तस्माद् नाऽस्तीति व्यवहर्तव्यः सर्ववेत्तेति / दोषोद्धारो यथा - 'नाऽस्त्येव सर्वविदिति साध्यं पदं स्वशब्दविरुद्धादिदोषविहीनम् / पुनरेतत् प्रमाभिरनुपलभ्यमानत्वादिति हेतुः असिद्धविरुद्धतादिदोपैरदूष्यः / तथाहि - स यदि सर्ववेत्ता देशाद्यन्तरितोऽपि विद्वद्भिदृश्यते तदा ह्यसिद्धो हेतुः स्यात् / नाऽपि विरुद्धो हेतुः, प्रतिषेधविरुद्धस्य सर्ववेत्तुरसाध्यमानत्वात् / नाऽपि तृतीयदोषः समुल्लसति, अनुपलभ्यमानस्याऽपि सर्वविदो यदि विद्यमानता भवेत् / तस्माद् निर्दोषोऽनुपलभ्यमानत्वादिति हेतुः / यद् यद्
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________________ जून - 2012 नोपलभ्यते तत् तदसदिति व्याप्तिरपि सर्वदर्शनवतां सम्मता / उदाहृतिरपि एषा निर्दोषतामासादयति / उपनयोऽपि न्याय्यो विदधे / अवसायोऽप्ययमवसितत्वाददोषः / इति प्रतिपादयामासे दोषोद्धारः / / तथा प्रमाभिरनुपलभ्यमानत्वादिति हेतुर्भाव्यते / यथा - स्पर्शनसंवेदसने (वेदने)न नृपहंसरूतपूरिततूल्यादीनामेव मृदुत्वादेरुपलम्भः, न तु मृद्वादिरूपः सर्ववित् / रसनेनाऽपि मधुराम्लादीनामेव फलावस्थितानां वेदनं तेन, न पुनरसौ अम्लादिरूपः / नासया पुनः शाल्योदनादिपरिमलस्योपलम्भो, न पुनरयं तीर्थकृत्परिमलस्वरूपः / रूपसंवेदनेनाऽपि हस्त्यादिवदेष नोपलभ्यते / श्रोत्रं पुनर्भम्भाभेरीशब्दानामुपलम्भनायाऽलं, नाऽप्यसौ तीर्थपतिर्भवदीयः शब्दस्वरूपः, येन श्रोत्रसंवेदनेन संवेद्यः स्यात् / अनुमानमपि नाऽत्र प्रवर्तते / तद्धि हेतुदर्शनात् साध्यस्य प्रतिपत्तये बोभवतीति / यथा नभोवाहिनीं धूमलतां विदित्वा अधस्तात् वह्निसम्भवः स्यात् / नाऽत्र हेतुरुपलभ्यते सर्ववेतृसिद्धये / तस्माद् नाऽनुमानं तद्विषये वरीवृत्यते / ___नाऽपि शाब्दमत्रोत्सहते / वितथमपि सम्भाव्यते विप्रतारयितृपुरुषस्येव / नाऽप्युपमानं समुल्लसति / तद्धि दृश्यमानयोर्द्वयोर्वस्तुनोः सादृश्याद् भवति, समुद्रवत् सरोवरमित्यादिषु स्यात् / नाऽपीह सर्वविदः सम्बन्धे सादृश्यं नयनविषये(यं?) सम्भाव्यते, अविद्यमानत्वात् तस्य / नाऽप्यर्थापत्तिर्मानमत्रोल्लसति / यथा - पीनो देवदत्तो, न पुनः प्साति वासरे, अर्थाद् निशायां प्सातीत्यवधार्यते / तस्मादेषः संवेदनानामभावेऽभावसंवेदनस्यैव तीर्थनाथो विषयतां समासादयति / उक्तं च - "प्रमाणपञ्चकं यत्रे"त्यादि / इति मीमांसाविदां सर्ववेदनिषेद्धव्येऽभिप्रायः / अत्राऽर्थे वदन्ति प्रत्युत्तरमार्हताः प्रतिवादिनः / तथाहि - अनुपलभ्यमानत्वं हि वादिन् ! भवदीयम् आहोस्वित् सर्वेषामपि देहिनाम् ? तत्र यदि भवदीयं संवेदनं यत्र यत्र नोल्लसति तत् तद् नाऽस्तीति / एवं तर्हि
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________________ 40 अनुसन्धान-५९ मातुर्विवाहोऽपि नोपलब्धः, तथा पितामहादयोऽपि न ददृशिरे, तस्माद् नाऽऽसीरनिति व्यवहर्तव्याः / अथ सर्वैरपि न दृश्यते, न पुरा वर्तमानः तीर्थनाथः, तर्हि एवंविधसंवेदनप्रभुभवानेव सर्ववित् / इति फलितं ममाऽपि मनोरथद्रुमैः / ___ अथवा अन्यत् सुधिया निवेद्यते / यथा पर्वतोदरनिलीना दूर्वाप्रवाला विलसन्तः सन्ति अनुपलभ्यमाना अपि / तथा देवोऽपि तीर्थेश्वरो दूरदेशे निलीनोऽपि महाविदेहे सम्भाव्यते / तस्मात् तृतीयहेतुदोषोऽयं भवदीयानुमानेन / अतः "असिद्धं सिद्धसेनस्य, विरुद्धो मल्लवादिनः / द्वेधा समन्तभद्रस्य, हेतुरद्वयसाधने // " इत्याद्यपि भावनीयम् / हेतौ निरस्ते व्याप्त्यादीनि भवदीयानि निरस्तानि / सद्यः समर्थितः सर्वभाववित् भवतां पुरः / तस्मात् स्पर्शनादिभिरनुपलभ्यमानत्वादिति हेतुः असिद्धोऽपि अद्वयसमर्थयिता / तथा रवेः शशिनो वा राहुद्वयं नभसि वर्तमानं सर्ववादविदमन्तरा नाऽवसीयते / शुभाशुभस्वरूपं हि तारासमूहबाधादिस्वरूपं न मनसा बुध्यते / औषधवैद्यकशास्त्रप्रभावो न वेद्यते तं विना / तस्माद् नभसि श्यामताभ्रम इव भित्तिरूपद्विरदसरोवरशैलादिष्विव निम्नानिम्नत्वभ्रमः सर्ववेत्तु-निषेधोऽपि मीमांसाबुद्धानां भ्रमायते // कादिवर्गत्रयपरिहारेण दृब्धा सर्वज्ञसिद्धिः श्रीविमलसूरिशिष्यैः श्रीअजितसिंहसूरिभिः // सर्वज्ञाभावनिराकरणम् इह केचिदहङ्कारशिखरिशिखामध्यमध्यारूढाः सारासारविचारकरणचातुरीव्यामूढाः कूर्चालसरस्वतीतिबिरुदमात्मनः पाठयन्तः स्वगल्लझल्लरीझत्कारेणाऽविद्यानटी नाटयन्तः सकलतार्किकचक्रचक्रवर्तिचूडामणिमात्मानं मन्यमानाः सर्वज्ञसत्तां प्रति विप्रतिपद्यमानाः अतुच्छमात्सर्याद्यनणुगुणमत्कुणतुल्यकल्पाः सङ्कल्पितानल्पविकल्पाः मुग्धजनमनःसदनागतदेवाधिदेवादिपर्युपासनावासनाधनलुण्टाकाः प्रजल्पन्ति जल्पाकाः - किं सर्वज्ञः प्रत्यक्षेण साक्षात्क्रियते
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________________ जून - 2012 आहोस्विदनुमानेन उदश्चिदागमेनोतोपमानेन किंवाऽर्थापत्त्येति विकल्पपञ्चतयी विषयपञ्चतयीव त्रिभुवनजनमनांसि क्षोभयन्ती भवत्पुरः प्रगल्भते / तत्र न तावत् प्रत्यक्षलक्ष्यो भवति सर्वज्ञः / विद्यमान एव हि पदार्थः प्रत्यक्षलक्ष्यतामाक्षिपति / सर्वज्ञस्तु व्योमारविन्दवदविद्यमान एव / तन्न तेन लक्ष्यते विचक्षणैरपि / नाऽप्यनुमानेनाऽनुमीयते / अनुमानं हि धूम-धूमध्वजयोरिव लिङ्ग-लिङ्गिनोरविनाभावग्रहणे सति प्रवृत्तिमातितांसति / न चाऽत्र सर्वज्ञसद्भावसाधने(साध्ये?)नाऽविनाभूतं किमपि लिङ्गमुपलभ्यते / ततः तदप्युदासीनमेव / नाऽप्यागमेनाऽवगम्यते सर्ववेदी / आगमा हि सर्वेऽपि परस्परविरुद्धार्थाभिधायिनः / क्वाऽपि सर्वज्ञः स्थाप्यते, क्वाऽपि सर्वज्ञ उत्थाप्यते / ततः को नामाऽऽगमः प्रमाणीक्रियते ? तन्नाऽऽगमः सर्वज्ञाभ्युपगमहेतुः / नाऽप्युपमानं सर्वज्ञसत्तापरिज्ञानं कर्तुमुत्सहते / यतः कथञ्चिद् कस्यचिद् दृष्टगोरूपस्य नागरिकस्याऽरण्यानीं गतस्य गवयदर्शने सति खुरककुद्विषाणादिसादृश्योपलम्भाद् ‘गौरिवाऽयं गवय' इत्युपमानज्ञानमाविर्भवति / न च केनाऽप्यंशेन सर्वज्ञस्य सादृश्यं कस्याऽपि दृश्यते, येनोपमानं तत्सत्तामाविर्भावयति / नाऽप्यर्थापत्तिः सर्वज्ञापत्तिमाविःकरोति / सा ह्येवं जायते / ‘पीनो देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते' इत्युक्ते पीनत्वस्याऽन्यथानुपपत्त्या 'रात्रौ भुङ्क्ते' इति गम्यते / न च सर्वज्ञसत्तामन्तरेण कोऽप्यर्थो नोपपद्यते, येन सर्वज्ञस्याऽपि सत्ता समापाद्यते / तस्माद् नाऽस्ति सर्वज्ञः, तद्ग्राहक-प्रमाणपञ्चकाभावात्, आकाशकुसुमवत् / उक्तं च - "प्रमाणपञ्चकं यत्र, वस्तुरूपेण(पे न) जायते / वस्तुसत्तावबोधार्थं, तत्राऽभावप्रमाणता // " / इति पराकुर्वन्नाह (न्त आहुः) इदमनवद्यविद्याविशारदाः सदाचारविचारचतुराः सर्वात्मनाऽपि विदग्धमतयः प्रलपन्ति स्म प्राज्ञाः / परे सर्वज्ञापलापिनः पापिनः / यथा - प्रत्यक्षेण तावत् सर्ववेदी न दरीदृश्यते इति तदत्रैवं ते परिपृच्छ्यन्ते - किं भवद्भिः सर्वज्ञोऽपढूयते अत्र देशे सर्वत्र वा ? अस्मिन् काले सर्वकालं वा ? इति विकल्पचतुष्टयं कल्पान्तकालक्षुभिताम्भोनिधिचतुष्कमिव युष्मान् रसातलं प्रापयत् प्रसर्पति / तत्र यद्यस्मिन् देशे अस्मिश्च काले सर्वज्ञोऽध्यक्षेण न वीक्ष्यते इति, तदत्राऽर्थे सिद्धसाध्यता / अहमप्येवं मन्ये, सम्प्रत्यत्र देशेऽसत्त्वात् सर्वज्ञो नाऽवलोक्यते इति / अथ सर्वत्र देशे सर्वकालं
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________________ अनुसन्धान-५९ सर्वज्ञाभावमाविर्भावयन्ति तत्र न हि सर्व(देश)कालव्यापकं तेषामपि ज्ञानमस्ति, येन सर्वत्र देशे काले च सर्वज्ञाभावस्तैनिश्चीयते। अथाऽस्ति सर्वदेशकालव्यापकं ज्ञानं, तहि ते एव सर्वज्ञाः / सिद्धं नः समीहितम् / न चैतदस्ति, तस्मात् क्वापि देशे भूते भविष्यति च काले सर्वज्ञस्य सद्भावात् तद्गतलोकानां समक्ष एव भविष्यति / ___ तथाऽनुमानानुमेयोऽपि भगवान् सर्ववेदी / तच्चेदं - ज्ञानस्य तारतम्यं, क्वचिद् विश्रान्तं, तरतम-शब्दवाच्यत्वात् / यद् यत् तरतमशब्दवाच्यं तत् तत् क्वचिद् विश्रान्तम् / यथा महत्परिमाणतारतम्यमाकाशे, लघुपरिमाणतारतम्यं परमाणौ / विश्रान्तं च क्वचिद् ज्ञानतारतम्यम् / यत्र विश्रान्तं स सर्वज्ञः / उक्तं च - "मा वहउ को वि गव्वं, अत्थि जए पंडिओ अहं चेव / आ सव्वन्नुमईओ, तरतमजोगेण मइविहवा // " पक्ष-हेतु-दृष्टान्तदोषवर्जितं चैतदनुमानं सर्वज्ञसद्भावं साधयत्येव / यदप्युक्तं 'आगमादपि न सर्वज्ञः परिज्ञायते', तदपि न सुमनोमनो रञ्जयति / यतो यस्मिन्नागमे अनागतकालं यत्र यत्र काले ये ये भावा यथारूपेण भाविनः कथिताः सन्ति, तत्र तत्र काले [ते] ते भावाः तथारूपेण भवन्तः सन्तः तदागमकर्तुः सर्वज्ञतामावेदयन्त्येव / उपमानं तु सर्वज्ञसद्भावावेदकं न सम्भवति, तस्य सर्वोत्तमत्वेन तदुपमानभूतस्य त(क)स्याऽप्यभावात् / अर्थापत्तिः पुनः सर्वज्ञसद्भावं प्रादुःकरोत्येव / अविसंवादिवचनो ह्यागमः सर्ववेदिनं प्रणेतारमन्तरेण न जाघटीति / ततोऽर्थादेवं निर्णीयते तत्प्रणेता सर्वज्ञोऽवश्यमेवाऽभूदेवेति / ततो न भवत्परिकल्पितैर्विकल्पैर्गजविकल्पकल्पैः सर्वज्ञोऽपह्नोतुं पार्यते / तथाहि - कश्चिद् भौतकुतर्कमुखरबठरखण्डिककुटुम्बकाविकलकोलाहलाकर्णनमात्रवातूलः कथमपि नृपतिद्वारमुपागतः प्रथमजलधरनीरन्ध्रधाराधोरणीधौतसमुद्वराञ्जन(ना)गिरिशृङ्गसोदरं सपदिविदलितकुन्दकलिकावदातदन्तमुशलद्वितयम् अनुकलविगलदविरलमदजलाकुलकपोलस्थलम् अमन्दमन्दरोन्मध्यमान
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________________ जून - 2012 3 महाम्भोधिध्वनिगम्भीरगर्जितम् ऊर्जितप्रभञ्जनप्रेर्यमाणध्वजपटप्रान्तप्रचलत्कर्णतालम् अन्तरालस्थूलचरणचतुष्टयप्रतिष्ठितम् अनवरतपरिचलत्प्रबलशुण्डादण्डडामरम् अनतिनिकटनिषण्णनिरन्तरभयङ्करहुंकारमुखरमहामात्रप्रदीयमानस्थूलकवलकवलनाव्याकुलं मदकलं गजराजमालोक्य विकल्पयति - किमिदमन्धकारनिकुरम्बं मूलकान् कवलयति ? किं वा वारिवाहोऽयं बलाकावान्वर्षति गर्जति च ? यद्वा बान्धवोऽयम्, “राजद्वारे श्मशाने च यः तिष्ठति स बान्धवः" इति वचनात् / अथवा योऽयमासन्नमेदिनीपृष्ठप्रतिष्ठायी पुरुषः तस्य छायेयं स्त्यानीभूता इति च / दूषयति च - नाद्यः पक्षो अन्धकारविस्तरस्य सूर्पयुगलप्रस्फोटनाभावात् / नाऽपि द्वितीयः, स्तनयित्नोः स्तम्भचतुष्टयाभावात् / नाऽपि तृतीयः, बन्धोरस्मदर्शननिषेधनलगुडभ्रमणासम्भवात् / नाऽपि तुरीयः, नहि नरशिरःशतोद्गिरणनिगरणं सम्भवति छायायाः / ततो न किञ्चिदेतदिति / न चैतावता मतङ्गजस्वभावो व्यावर्तते / एवं सर्वज्ञोऽपि न भवद्विकल्पैरपस्यते / सकलप्रमाणप्रतीतस्याऽपि चाऽस्याऽपलापे सुखदुःखादेरप्यपलापः प्रसज्येत इति स्थितमस्ति सर्वज्ञः // इति श्रीसर्वज्ञाभावनिराकरणं नाम प्रकरणं सम्पूर्णम् // सर्वज्ञव्यवस्थापनावादः इह केचित् त्रिभुवनोदरविवरवति-देशकालस्वभावविप्रकृष्टेतरपदार्थसार्थावलोकनसमर्थ-केवलालोकसम्पदं गतालिङ्गितं पुरुषसत्त्वं न प्रतिपद्यन्ते / तत्संमोहापोहाय प्रमाणमारभ्यते / तद्यथा - ज्ञानस्य तारतम्यं क्वचिद् विश्रान्तं, तरतमशब्दवाच्यत्वात् / यद्यत् तरतमशब्दवाच्यं, तत्तत् क्वचिद् विश्रान्तं, यथा परिमाणम् / तथा तरतमशब्दवाच्यं च ज्ञानं, तस्मात् कुत्रचिद् विश्रान्तमिति / न चाऽयमसिद्धो हेतुरेकेन्द्रियादीनां सकलश्रुतज्ञानरत्नरत्नाकरपारङ्गतानां च ज्ञानस्य तारतम्येनोपलब्धेः / नाऽपि विरुद्धत्वमाद्धत्व (मसिद्धत्व?) माशङ्कनीयं, ज्ञानविकलसकलकुम्भादिभ्यो भावेभ्योऽत्यन्तं व्यावर्तमानत्वात् / नाऽप्यनैकान्तिकतोद्भावनीया, विपक्षतः सर्वथा व्यावृत्तयोगत्वादेव / नाऽपि कालात्ययापदिष्टत्वं साधनस्याऽस्य सम्भावनीयं, प्रत्यक्षादिप्रमाणां(णा)बाधितक्र[म?] निर्देशानन्तरं प्रयुक्तत्वात् / नाऽपि प्रकरणसमोऽयं हेतुः, विपर्ययसाधकस्य
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________________ 54 अनुसन्धान-५९ प्रत्यनुमानस्याऽप्रवृत्तेः / ततो भवति सकलदोषरहितादतो हेतोर्ज्ञानप्रकर्षसिद्धिः / न च सर्वथोच्छेदः सम्भावयितव्यः, उपयोगस्वभावत्वात् जीवस्य। उपयोगक्षणे जीव इति वचनात् स्फूर्तिर्भवति / नवकर्ममलमलीमसत्वाद् विशुद्धेरभावाद् न ज्ञानप्रकर्षो भवतीति वाच्यम्, अनुमानत्वतो विशुद्धिसद्भावसिद्धेः / तथाहि - तथाविधो विवक्षितः कश्चिद् जीवः सम्भवदत्यन्तविशुद्धिकोऽविशुद्धिप्रतिपक्षाविकलकारणकलापोपेतत्वात् / यो योऽविशुद्धिप्रतिपक्षाविकलकारणकलोपोपेतः, स स सम्भवदत्यन्तविशुद्धिकः / यथा क्षारमृत्पुटपाकादिविशुद्धिकारणोपेतो जात्यो रत्नविशेषः / तथाच तथाविधो विवक्षितः कश्चिज्जीवः प्रकर्षप्राप्ततपश्चारित्रानाश्रवध्यानयोगनिरोधविशुद्धिकारणकलापोपेतः, तस्मात् सम्भवदत्यन्तविशुद्धिक इति। तथा तथाविधस्य कस्यचिद् द्रव्यजीवस्याऽष्टादश पापस्थानोपार्जितं कर्म प्रतिनियतविशिष्टसामग्रीसद्भावे सत्यत्यन्तं वियुज्यते, आवृत्तिरूपत्वात् / यद्यदावृतिरूपं तत्तदत्यन्तं वियुज्यते, यथा प्रतिनियतवियोजकभावसामग्रीसद्भावे काञ्चनोपलकाञ्चनस्य मलपटलम् / तथाचेदमष्टादशपापस्थानोपाजितं ज्ञानाद्यावृतिरूपं कर्म, तस्मादत्यन्तं वियुज्यते इति / न चेदमसिद्धत्वादिदूषणदुष्टं, निरवद्यत्वात् / अतः सकलकर्ममलवियुक्तो जीवो ज्ञानस्वभावः सकलार्थग्रहणप्रवणः सर्वज्ञः / किञ्च सर्वे भावाः कस्यचित् प्रत्यक्षाः, प्रमेयत्वात् / यद्यत् प्रमेयं तत्तत् प्रत्यक्षं, यथा घटादि / प्रमेयं वतथच (तथा च) लोकालोकस्वभाववस्तु, तस्मात् कस्यचित् प्रत्यक्षम् / यस्य च प्रत्यक्षं स सर्वज्ञ इति / / तथाच सम्भवति कश्चित् सर्वार्थसाक्षात्कारी पुरुषः, अनुपदेशालिङ्गाविसंवादिविशिष्ट-दिग्देशकालप्रमाणाद्यात्मकचन्द्रादिग्रहणाद्युपदेशदायित्वात् / यो यो यषयोऽ(यद्विषयकाऽ)नुपदेशालिङ्गाविसंवाद्युपदेशदायी स स तत्साक्षात्कारी दृष्टो, यथा अस्मदादिः स्वयमनुभूते अर्थे, अनुपदेशालिङ्गाविसंवादिविशिष्टदिग्देशकालप्रमाणाद्यात्मकचन्द्रादिग्रहणाद्युपदेशदायी च कश्चित्, तस्मात् तत्साक्षात्कारीति / न चाऽयमसिद्धो हेतुः, अनुपदेशालिङ्गाविसंवाद्युपदेशस्याऽस्मदादिष्वप्यविरामेण विद्यमानत्वात् / नाऽप्यनैकान्तिकः, तथाविधोपदेशदायित्वस्याऽसाक्षात्कारिणः सर्वथा निवृत्तेः / नाऽपि विरुद्धः, विपक्षतोऽत्यन्तव्यावृत्तत्वात् /
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________________ जून - 2012 45 एवं न च तथाविधोपदेशस्य वृद्धपरम्परायातत्वादसिद्धं तत्साक्षात्कारित्वम् / तेषां रागादिमत्त्वेन तथाविधोपदेशदानाभावात् / न चाऽनेन युक्तिकलापेन शिशिरकरशेखरसुगतकपिलानामपि सर्वज्ञतापत्तिः, कथम् ऋषभवर्धमानादेः प्रतिनियतस्यैव सर्वज्ञत्वं भवतीति वाच्यम् / तदुक्ततत्त्वानां प्रमाणोपपत्तिभिर्बाध्यमानत्वात् / तथाहि - सदाशिवोऽभ्युपगम्यते नैयायिकैर्वैशेषिकैश्च महेश्वरः / तस्य च तत्त्वप्रणीतिरेव न घटते विमुखत्वात् / वैमुख्यं शरीररहितत्वात् / शरीररहितत्वं च [धर्माधर्मविकलत्वात्] / धर्माधर्मविकलत्वं च संसारिजीवविलक्षणत्वात् / तदुक्तं - "विमुखास्या(स्यो)पदेष्ट(ष्ट्र)त्वं, श्राद्धगम्यं परं यदि / वैमुख्यं वितनुत्वेन, तत्त्व(त्त्वं) धर्माद्यभावतः // " किञ्च, महेशेन षट् तत्त्वानि निरूपितानि / तत्र नव द्रव्याणि पृथिव्यादीनि मनोऽन्तानि प्रतिपादितानि / तत्सङ्ख्या च व्यभिचरति, तमश्छायादेरपि द्रव्यत्वेन घटमानत्वात् / तदुक्तं - "तमः खलु चलं नीलं, परापरविभागवत् / इतरद्रव्यवैधाद्, नवभ्यो भेत्तुमर्हति // " "आतपः कटुको रूक्षश्छाया मधुरशीतला // " इत्यादिवचनाद् / दिक् पुरुषविवक्षिताकाशप्रदेशव्यतिरेकेण न काचिदुपलभ्यते न घटते वा विचार्यमाणा। अतः तस्या अपि न सत्त्वम् / मनोऽप्यणुपरिमाणं नित्यद्रव्यरूपं न किञ्चिद् घटते / अतो व्यभिचार्यभिधायकत्वात् कथं तस्य सर्वज्ञत्वम् ? तन्मार्गानुसारि कणादादिमुनिप्रणीतशास्त्राणामपि न तत्त्वाभिधायकत्वम् / तदभावाच्च न शास्त्रत्वमिति / तथा सुगतस्याऽपि (सुगतकपिलादेरपि ?) इहलोकपरलोकआगोपालाङ्गनाप्रतीतव्यवहारबाधितैकान्ता(न्त)क्षणिकप्रकृतिविकार-सामान्यसत्कार्याविर्भावतिरोभावादिरूपपदार्थप्रतिपादकस्य कथं सर्वज्ञत्वं जाघटीति ? ततश्च सामर्थ्याद् ऋषभवर्धमानादय एव सर्वज्ञाः, युक्तिप्रमाणोपपत्तिव्यवहारघटमानकयथावस्थितार्थाभिधायकत्वात् // इति श्रीसर्वज्ञव्यवस्थापनावादः / /
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________________ 46 अनुसन्धान-५९ सर्वज्ञसिद्धिः इह केचिदज्ञानमहामहीधरभराक्रान्तचेतसः सकलविमलकेवलबलविलोकिताशेषविशेषपदार्थसार्थस्य भगवतः सर्वज्ञस्य निराकरणार्थमित्थं प्रमाणपञ्चकाभावमुद्भावयन्ति / नाऽस्ति सर्वज्ञः, तद्ग्राहकप्रमाणपञ्चकाभावात्, खरविषाणवत् / तथाहि - न तावत् प्रत्यक्षं प्रमाणं सर्वज्ञसाधनायोत्सहते, तस्याऽतीन्द्रियत्वात्, प्रत्यक्षस्य चेन्द्रियविषयत्वात् / यत्सम्प्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म तत् प्रत्यक्षमिति वचनात् / नाऽप्यनुमानम् / तद्धि लिङ्गलिङ्गिनोरविनाभावग्रहणे सति प्रवर्तते / यथा महानसादावग्निधूमयोरध्यक्षेणाऽयं धूमोऽग्नि विना न भवतीत्यविनाभावं निश्चित्य पर्वतनितम्बादौ गगनतलावलम्बिनीं बहलधूमलेखां विलोक्य तत्कारणभूतस्याऽग्नेः प्रतिपत्तिर्भवति / नैवं सर्वज्ञत्वाविनाभूतं किञ्चिल्लिङ्गमुपलभामहे, येन तत्कल्पना साध्वी स्यात् / नाऽप्युपमानं तत्साधनाय कक्षां बध्नाति / उपमानोपमेयसद्भावे तस्य प्रवर्तनात् / यथा नगरायातेन केनचित् कश्चिद् ग्रामवासी पृष्टः - कीदृशो गवय इति / स च प्रयुङ्क्ते - यथा गौः खुरककुद्विषाणसास्नालाङ्गलाद्यवयवसम्पन्नः तथा गवयोऽपीति वचनाकर्णनाहितसंस्कारस्य पश्चात् क्वचिदटव्यां पर्यटतो गवयदर्शनात् तस्य विमर्शः प्रवर्तते - यथा गौरुक्तलक्षणः तथाऽयमपि, तस्माद् गवय इति स प्रतिपद्यते / न चाऽमुकवत् सर्वज्ञ इति कल्पना युक्ता, तथाविधस्य कस्यचिदभावात् / नाऽपि शाब्दं प्रमाणं तदस्तित्वं साधयति / ततोऽपि तस्याऽप्रतिपत्तेः / तथाहि - यथा कश्चिद् दाहपाकाद्यर्थी कञ्चिदविप्रतारकं पुरुषविशेषमप्राक्षीत् - क्वाऽग्निरस्तीति / स चाऽभिधत्ते - अस्मात् कूटात् परत्र प्रविभागे वह्निः तिष्ठतीति तद्वचनानन्तरं प्रवृत्तस्य जाज्वल्यमानज्वालाकलापाकुले दाहपाकाद्यर्थक्रियाक्षमे हुतभुजि प्रतीतिर्भवति / नैवं सर्वज्ञशब्दादाप्तप्रयुक्तादपि सर्वज्ञप्रतिपत्तिर्भवति, तथातददर्शनात् / नाऽप्यर्थापत्तिरत्र गमिका / सा हि कार्यनिष्पत्त्यन्यथानुपपत्त्या व्यवस्थाप्यते / यथा पीनो देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते इत्युक्ते पीनत्वस्याऽन्यथाऽनुपपत्तेर्निशि भुङ्क्ते इति गम्यते / न च सर्वज्ञसद्भावमन्तरेण कश्चिदर्थोऽन्यथा नोपपद्यते इति येन तद्भावः कल्प्येत / तस्मात् प्रमाणपञ्चकाभावादभाव एवाऽत्र प्रवर्तते इति / उक्तं च - "प्रमाणपञ्चकं यत्र, वस्तुरूपे न जायते / वस्तुसत्तावबोधार्थं, तत्राऽभावप्रमाणता // " इति /
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________________ जून - 2012 47 तदेतत् पित्तज्वरोपरुद्धस्येव प्रलापनमात्रम् / न पुनर्विवक्षितार्थप्रसाधकमित्यपहस्तितव्यम् / तथापि विद्वज्जनमनोरञ्जनाय किञ्चिदुच्यते / तत्र यत् तावद् नाऽस्ति सर्वज्ञः, तद्ग्राहकप्रमाणपञ्चकाभावात्, खरविषाणवदिति साधनमुपन्यस्तम् / तत्र प्रतिज्ञापदयोर्विशद्धं (विरुद्धत्वं) प्रकटमेव लक्षयामः / तथाहि - यदि सर्वज्ञो, नाऽस्ति कथम् ? नाऽस्ति चेत्, सर्वज्ञः कथम् ? इति / अथेत्थमाचक्षीथाः - परैः सर्वज्ञोऽभ्युपगम्यते / तेषामनिष्टसम्पादनार्थं सर्वज्ञ इत्युच्यते / तर्हि भवन्तं पृच्छामः / परकीयाभ्युपगमो भवतः प्रमाणमप्रमाणं वा स्यात् इति / यदि प्रमाणं तहि परैः सर्वज्ञस्याऽभ्युपगतत्वाद् निर्मूलतया तावकीनं प्रमाणत्वाभिमतं साधनमप्रमाणताकोटिमारोहतीति प्राप्तम् / अथाऽप्रमाणं, तर्हि प्रतिज्ञापदयोविरोधः तदवस्थ एवाऽवतिष्ठते / हेतुरप्याश्रयासिद्धः, प्रमेयाभावात् / अथ पर्याकुलितचेतोवृत्तिरेवं ब्रूया:परिकल्पितः प्रमेय इति / तर्हि सा विद्यमानस्याऽविद्यमानस्य वेति विकल्पौ जन्मान्तरोपात्तधर्माधर्माविवाऽव्याहतप्रसरौ पुरतोऽवतिष्ठते / यदि विद्यमानस्य, व्यर्था परिकल्पना / तामन्तरेणाऽपि तस्य विद्यमानत्वात् / विद्यमानस्याऽपि च कल्पनेऽतिप्रसङ्गो, वेदस्याऽपि कल्पनापत्तेः / सतश्च प्रमाणोपन्यासेनाऽपि प्रतिक्षिप्तुमशक्यत्वेन विपरीतसाधनाद् विरुद्धश्च हेतुः स्यात् / अथाऽविद्यमानस्य कल्पनाऽभिधीयते / एवं सति न कश्चिदपि हेतुराश्रयासिद्धिमास्कन्देत् / तथा च सत्यनित्यः शब्दः चाक्षुषत्वात्, इत्यादेरपि गमकत्वप्रसङ्गः / तत्रापि कस्यचिद् धर्मिणः कल्पयितुं शक्यत्वात् / किञ्च प्रमाणपञ्चकाभावः किं ज्ञातः सर्वज्ञाभावं साधयेत् अज्ञातो वेति कलहंसयुगलमिव विमलं विकल्पयुगलममलमवतरति / यदि ज्ञातः, कुतो ज्ञप्तिरिति वाच्यम् / अपरप्रमाणपञ्चकाभावादिति चेत् सोऽपि कुतो ज्ञायते इति निर्लज्जकुट्टनीवाऽनवस्था पश्चाद् धावन्ती दुर्निवारा स्यात् / अथ प्रमेयाभावात् प्रमाणाभावः, तर्हि प्रमेयाभावे प्रमाणाभावः, प्रमाणाभावे च प्रमेयाभाव इति महासमुद्रोदकवद् दुरुत्तरमितरेतराश्रयत्वं समापनीपद्यते / अथाऽज्ञातः तर्हि अविशेषेणाऽऽविद्वदङ्गनादीनामपि सर्वज्ञाभावं गमयेत् / न चैतद् / गृहीतसङ्केतस्यैव तदभावप्रतिपत्तेरिति स्वरूपस्याऽपि ज्ञातुमशक्यत्वात् स्वरूपासिद्धश्च हेतुः / खरविषाणस्याऽपि दृष्टान्तत्वेनोपन्यस्तस्याऽपरदृष्टान्तमन्तरेणाऽसिद्धेरपर
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________________ 48 अनुसन्धान-५९ दृष्टान्तोपन्यासापत्तिः स्यात् / तत्राऽप्ययमेव वृत्तान्त इत्यपर्यन्ताऽनवस्था स्यात् / अथ स्वत एव खरविषाणस्याऽभावसिद्धिः, तर्हि तद्वत् सर्वज्ञस्याऽपि सा भविष्यति इति किमनर्थमूलेन दृष्टान्तोपन्यासेनेति / तदेवं प्रत्यवयवं विचार्यमाणं साधनं जीर्णकुटीरकमिव विशीर्यते इत्युपेक्षामर्हति / __किञ्च किं भवत एव तद्ग्राहकप्रमाणाभावः ? किंवा सर्वेषां प्रमातृणामिति विकल्पद्वयं भीमार्जुनद्वयमिव प्रतिपक्षविक्षोभदक्षमुपतिष्ठते / यदि भवतः, सिद्धं साध्यते, भवतो महामोहान्ध्याभिभूतत्वाद्, यद्वचनाच्च तदपनोदो भवति, तस्य च भगवतः सर्वज्ञस्याऽनभ्युपगमात् / अथ सर्वेषाम् / तदसिद्धम् / तस्य ह्येतद् वक्तुं युज्यते, यस्य भुवनोदरान्तर्वतिप्राणिपरिषच्चेतोवृत्तिः प्रत्यक्षा भवति / न भवतः, तत्प्रत्यक्षीकरणे च तवैव सर्वज्ञताप्राप्तेरिति सिद्धं नः समीहितम् / य एव राधावेधं विधत्ते स एवाऽर्जुन इति न्यायात् / अथाऽनुमानान्तरं संगीर्यते / यो यः पुरुषः, स स सर्वज्ञो न भवति, पुरुषत्वादस्मदादिवत् / इत्येतदपि महानदीस्रोतोऽन्तः प्रवहतः कुशकाशावलम्बनप्रायम् / पुरुषत्वस्यैकान्तेनाऽस्मदादिसादृश्यसाधकत्वानुपपत्तेः / तथाहि - पुरुषत्वाविशेषेऽपि मूर्खविपश्चिदादिभेदाः संलक्ष्यन्ते, तद्वत् कश्चित् सर्वज्ञोऽपि भविष्यति इति / __ अथ विकल्पाभ्यां प्रत्यवतिष्ठेथाः / स सर्वं जानन् किमिन्द्रियद्वारेण जानाति, तदन्तरेण वा ? आद्यपक्षेऽक्षाणां सन्निहितार्थग्राहित्वात् मन्दरमकराकरादीनां च व्यवहितत्वात् तदज्ञाने सर्वज्ञत्वहानिरदृष्टमुद्गराघातकल्पा स्यात् / द्वितीये चाऽन्धबधिरादीनामपि सर्वज्ञत्वप्राप्तिरिति / एतदपि अनभ्युपगमवज्रप्रपातदलितमस्तकतया नोत्थातुमुत्सहते, तस्याऽतीन्द्रियज्ञानाभ्युपगमात् / __ अथ यो यः पुरुषः तस्य तस्याऽतीन्द्रियं ज्ञानं नाऽस्ति पुरुषत्वादस्मदादेरिवेति चेत् ? तर्हि तावकीनाऽनुमानेन किमिदानीं तदभावः साध्यते किं वा कालत्रयेऽपीति दन्तिदन्तद्वयमिवाऽमलं विकल्पद्वितयमापतति / यद्यधुना, सिद्धं साध्यते / कालत्रये चाऽसिद्धं, कालत्रयस्याऽप्रत्यक्षत्वात् कस्मिंश्चित् काले तथाभूत
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________________ जून - 2012 स्याऽपि सम्भवात् / अथ यो यः कालः, स सोऽतीन्द्रियज्ञानवत्शून्यः, कालत्वात्, इदानीन्तनकालवदित्यनुमानेन प्रत्यवस्थानं कुर्वीथाः; तहि यो यः कालः, स स त्वत्पितामहादिशून्यः, कालत्वात्, इदानीन्तनकालवदिति नाऽस्माकमपि शठोत्तरमतिदुर्लभं स्यादित्यनिष्टप्राप्तिः / अभ्युपगमे च भवतो निर्हेतुकं जन्म स्यात् / अथैवं पर्यनुयुञ्जीथाः / किमेते भावा इन्द्रियज्ञानग्राह्यस्वभावा उताऽतीन्द्रियज्ञानग्राह्यस्वभावाः ? आद्ये पक्षे प्रतिज्ञाक्षतिर्भवद्विवक्षितस्याऽसर्वज्ञत्वप्राप्तिः, तस्याऽतीन्द्रियार्थज्ञातृत्वेनाऽभ्युपगमात् / द्वितीये च प्रतीतिबाधा, अक्षज्ञानेन तेषां विद्यमानत्वात् / एतदप्यतिभृतजलकुम्भस्योदकबिन्दुरिव बहिः प्लवते / तेषामनेकस्वभावत्वं चेन्द्रियार्थज्ञानेनाऽपि भेदेन ग्रहणदर्शनात् / यदि पुनः सर्वथैकस्वभावा भावा भवेयुः, तदेन्द्रियज्ञानेनाऽपि ग्रहणभेदो न स्यात् / स च दृश्यते / यथैकस्मिन्नेव वस्तुनि मन्दचक्षुषा संस्थानमात्रस्य, विमललोचनेन तु तदभ्यधिकस्य रक्तत्वादेः प्रतिपत्तिरिति / अतीन्द्रियज्ञानसद्भावश्चाऽविसंवादिज्योतिःशास्त्रादिप्रणयनान्यथानुपपत्त्या निश्चीयते / तदन्तरेण तथाविधस्य तस्याऽनुपपत्तेरिति / किञ्च सर्वज्ञाभावोऽपि कथं प्रमाणपञ्चकेन गृह्यते इति चिन्त्यम् / प्रत्यक्षस्य सदिन्द्रियविषयत्वेनाऽभावग्रहणाभावात् / भावे वाऽभावप्रमाणवैयर्थ्य, तेनैव तद्विषयस्य परिच्छिन्नत्वात् / अनुमानस्याऽपि लिङ्गलिङ्गिग्रहणसम्बन्धस्मरणोत्तरकालं प्रवृत्तेरभावस्य तुच्छत्वेन तावतोऽभावात् / भावे वाऽभावत्वविरोधात् / उपमानस्याऽप्युभयसद्भावे भावात् / सर्वज्ञस्य चाऽभावरूपेणाऽभ्युपगतत्वात् / भावाभावयोश्चोपमानोपमेयभावाभावात् / भावस्वरूपत्वे च विद्यमानत्वेनैव ग्रहणात् 'खरविषाणवत् सर्वज्ञः, सर्वज्ञवद् वा खरविषाण'मित्युपमानोपन्यासः प्रलापमात्रफल एव स्यात् / शाब्दस्याऽपि विधिसाधनत्वेनैव प्रमाणत्वाभ्युपगमात् / यथा अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकाम इत्यादेः / न च सर्वज्ञाभावमन्तरेण कश्चिदर्थोऽन्यथाऽनुपपद्यमान उपलभ्यते, येन तत्कल्पना साध्वी स्यादित्यर्थापत्तेरपि न तदभावसाधकत्वमिति / अत एव साधकबाधकप्रमाणाभावात् संशयोऽस्त्विति चेद् ? न, साधकप्रमाणस्य विद्यमानत्वात् / तथाहि - अस्ति कश्चिदतीन्द्रियार्थसाक्षात्कारी, अनुपदेशालिङ्गाविसंवादिविशिष्टदिग्देशकालप्रमाणाद्यात्मकचन्द्रादित्यग्रहणाद्युपदेशदातृत्वाद् / यो यो यद्विषयेऽनुपदेशालिङ्गाविसंवाद्युपदेशदाता स स तत्साक्षात्कारी दृष्टो, यथाऽस्मदादिः स्वयमनुभूतेऽर्थेऽनुपदेशालिङ्गाविसंवाद्युपदेशदाता तत्साक्षात्कारी /
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________________ 50 अनुसन्धान-५९ अनुपदेशालिङ्गाविसंवादिविशिष्टदिग्देशकालप्रमाणाद्यात्मकचन्द्रादित्यग्रहणाद्युपदेशदायी कश्चित् तस्मात् तत्साक्षात्कारी / न चाऽयमसिद्धो हेतुः, अनुपदेशालिङ्गाविसंवाद्युपदेशस्याऽस्मदादिष्वप्यविगानेन विद्यमानत्वात् / नाऽप्यनैकान्तिकः, तथाविधोपदेशदायित्वस्याऽसाक्षात्कारित्वतः सर्वथा निवृत्तेः / ततो व्यावृत्तत्वादेव च न विरुद्ध इति / एवम्भूतश्च सर्वज्ञ एव / / तथाविधोपदेशस्य वृद्धस्य परम्परातः समायातत्वादसिद्धं तत्साक्षात्कारित्वमिति चेद् ? न, तेषां रागादिमत्त्वेन तथाविधोपदेशदानाभावात् / अत एव क्वचिदन्यथाप्ररूपणात् / यतो दश्यन्ते एव क्वचित् परप्रतारणप्रवणाः पुमांसोऽन्यथा विचिन्त्याऽन्यथा शब्दप्रयोगं कुर्वाणाः / यथा - "नद्याः तीरे गुडशकटं पर्यस्तं, धावत धावत डिम्भकाः / " इत्यादिवाक्यवत् / / तथाऽप्यत्यन्तरागादिविश्लेषः तस्याऽयुक्तः पुरुषत्वादिति चेद् ? न, अत्यन्तोच्छेदसद्भावस्य प्रमाणोपपत्तेः / तथाहि - रागादयः क्वचिदत्यन्तमुच्छिद्यन्ते, उत्कर्षापकर्षवत्त्वात्, प्रदीपज्वालादिवत् / यथा वातादिना प्रदीपादेरत्यन्तोच्छेदो भवति, एवं क्वचित् पुंसि विपक्षभावनातो रागादीनां निर्मूलमुच्छेदो भविष्यति / यदि च तथाविधः पुरुषो नाऽङ्गीक्रियेत, तदा रागादिमतां वेदार्थस्य विज्ञातुमशक्यत्वात्, वेदस्य च स्वत एव स्वकीयार्थापरिज्ञानाद् न वेदार्थयाथात्म्यनिश्चयः स्यात् / ततश्चाऽग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकाम' इत्यादेर्वाक्यस्य श्वमुखं भक्षयेत् स्वर्गकाम इत्यादिरप्यर्थः कस्माद् न भवति नियामकाभावात् ? भावे च नियतं पौरुषेयत्वसिद्धिः / वेदवाक्यस्य स्वत एव प्रामाण्याद् न पौरुषेयत्वमिति चेद् ? न, पदवाक्यरचनाविशिष्टस्याऽपौरुषेयत्वासिद्धेः / तथाहि - यद्यत् पदवाक्यरचनाविशिष्टं तत्तत् पौरुषेयं, यथा वाल्मीकादिशास्त्रम् / तथाभूतं चैतत् तस्मात् पौरुषेयमिति / तदेवं प्रमाणपञ्चकाभावस्याऽभावसाधकत्वानुपपत्तेः - "प्रमाणपञ्चकं यत्र, वस्तुरूपे न जायते / स्वसत्तावबोधार्थं, तत्राऽभावप्रमाणता // " इति शब्दगुणनमात्रं विवक्षितार्थरहितत्वादनवद्यम् / न च प्रमाणपञ्चकाभावो लोकेष्वत्यन्ताभावं साधयति समुद्रोदकसिकतादिपरिसङ्ख्यानेन व्यभिचारात् /
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________________ जून - 2012 अथेत्थमभिधीयते / किमिदं सर्वविद्विज्ञानं निराकारमाहोस्वित् साकारम् ? यदि निराकारं, न तेनाऽर्थपरिच्छेदः / साकारं चेत् तदपि किं स्वाकारमुताऽर्थाकारमिति विकल्पौ रागद्वेषाविवाऽभिप्रेतार्थव्याघातकरावनुधावतः / यदि स्वाकारं, पूर्वो दोषः / अर्थाकारं चेत्, तयर्थानामानन्त्याद् भिन्नजातीयत्वाच्च तत्तच्छबलरूपप्राप्त्या नैकस्याऽप्यर्थस्य याथात्म्यग्रहणं स्यात् / नैतदपि चतुरचेतसि चारु चकास्ति / विज्ञानस्याऽर्थग्रहणपरिणामाभ्युपगमात् / यदि ह्या विज्ञाने स्वाकारं समर्पयन्तीत्यभ्युपगम्यते तदैष दोषोऽनुषज्यते / यदा च विज्ञानमेवाऽर्थग्राहकत्वेन परिणमति, तदा अदो दूषणं कथं स्यात् ? तत्परिणामश्च वस्तुनोऽनेकस्वभावत्वादनेकरूपोऽन्यथाऽर्थपरिच्छेदानुप पत्तेः / तथाऽप्यतीता[ना]गतार्थग्रहणमनुपन्नमसत्त्वात् तेषामिति चेत् ? न, सर्वथासत्त्वानभ्युपगमात् / सतः सर्वथासत्त्वानुपपत्तेरसतश्चोत्पत्तिविरोधात् / खरविषाणादीनामप्युत्पत्तिप्राप्तेरतः तदा तेषां सतामेव वर्तमानत्वात् / वर्तमाना हि भावा तथातथापरिणामेनाऽतीतादिव्यपदेशभाजो भवन्त्यन्यथाऽवर्तमानत्वाद् वर्तमानत्वस्याऽप्यनुपपत्तिरिति भूत-भविष्यत्सकलपदार्थसार्थतत्त्वावबोधक: सुव्यवस्थितः सर्वज्ञ इति / इति सर्वज्ञसिद्धिनामप्रकरणम् ॥छः।। धर्मस्थापनस्थलम् आधारो यस्त्रिलोक्या जलधिजलधरार्केदवो(र्कादयो) यन्नियोज्या, भुज्यन्ते यत्प्रसादादसुरसुरनराधीश्वरैः सम्पदस्ताः / आदेश्या यस्य चिन्तामणिसुरसुरभीकल्पवृक्षादयस्ते, श्रीमान् जैनेन्द्रधर्मः किसलयतु स वः शाश्वती शर्मलक्ष्मीम् // 1 // राज्यं सुसम्पदो भोगाः, कले जन्म सुरूपता / पाण्डित्यमायुरारोग्यं, धर्मस्यैतत्फलं विदुः // 2 // ततो सागरचन्द्रः कालिकाचार्यरूपं वृद्धं प्रत्युवाच- "हे जरन्! हितैषिणा मनीषिणा तीर्थङ्करप्रणीतो धर्मः परमदैवतवत् चिन्तनीयः, यत्प्रभावाद
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________________ 52 अनुसन्धान-५९ भोधरोदभोधरोदयादि च (यत्प्रभावादम्भोधिरम्भोधराळदेरुदयादि च ?), पम्फुल्यते समग्रा अपि सुरासुरनरेश्वरतीर्थङ्कर श्रीवल्लयः, शोशुष्यन्ते गवदुर्गतिः दुःखयवासकाः (?) / तदीदृशे धर्मकर्मणि प्रवर्तितव्य''मित्यादि / वादिनि सागरेन्दौ वृद्धोऽपि भद्रभाद्रपदीनाम्भोदोपमं वचः प्रपञ्चयन् आचष्ट - “भो भो आचार्यवर्या! भवतोऽवद्भिर्भवद्भिर्यदुक्तं 'धर्मस्य तप्ति(प्ति) कि(किं) न चिन्तयत ?', तदेतद् विचार्यते / सति हि धर्मिणि धर्माः चिन्त्यमानाः परिचिन्वन्ति चारुताम् / न च धर्मलक्षणो धर्मी कश्चिदुपलभ्यते यत्तप्तिचिन्तनं स[ङ्गतिम गति / कथमिति चेत् ? उच्यते, प्रमाणपथातिक्रान्तत्वात् / तदपि कथमिति चेत् ? एते ब्रूमः "प्रमाणं हि पञ्चप्रकारमुररीक्रियते / तद्यथा - प्रत्यक्षश्मनुमानरमुपमानं ३शाब्द४मर्थापत्तिश्च / तत्रापि प्रत्यक्षं पञ्चविधं - स्पर्शन१रसन२घ्राण३चक्षुः४ श्रोत्र५रूपग्राहकभेदात् / न च पञ्चविधेनाऽपि तेनैषः ग्रहीतुं शक्यः / यदेनं न कोऽपि (यन्न सः केनाऽपि) कदाप्युद्दामकामकामिनीकुचकलशवत् परिस्पृश्यते; नाऽपि भक्ष्यभोज्यलेह्यचूष्यपेयादिभेदभिन्नसरसर[स]वतीवद् रारस्यते, नाऽपि चम्पकाशोकपुन्नागनागकेसरसरोजराजिवद् जेघीयते, नाऽपि घटपटस्तम्भकुम्भाम्भोरुहादिपदार्थसार्थवद् दरीदृश्यते, नाऽपि रणद्वेणुवीणामृदुमृदङ्गध्रोङ्कारस्फीतसङ्गीतवत् शोश्रूयते / न च वाच्यं मानसप्रत्यक्षगोचरः स स्यात्, तस्याऽपीन्द्रियानुसारित्वात् / न हि कोऽपि कदापि स्वप्नदशायामप्ये(प्य)त्यन्ताननुभूतषभूत (भूतासद्भूत ?) मनुभवति / अथ योगिप्रत्यक्षगम्योऽयमिति चेत् ? तदर्थक्तयुक्तम् (तदनर्थकमुक्तम् ?), योगिप्रत्यक्षस्यैव दुरुपपादत्वात् / ततस्तदसिद्धं यदसिद्धसाधितमिति / तदलं तद्विचारेण / __ "नाऽयमनुमानगम्यः / यतः त्रिलिङ्ग(ङ्गा)द् लिङ्गिनि ज्ञानमनुमानम् / पक्षधर्मत्वं सपक्षे सत्त्वं विपक्षेऽसत्त्वं - विपक्षाद् व्यावृत्तिरिति त्रीणि रूपाणि / यथा - अग्निमानयं सानुमान्, धूमवत्त्वाद्, यो यो धूमवान् स स वह्निमान् यथा महानसप्रदेशः / यत्र वह्निर्नाऽस्ति तत्र धूमोऽपि नाऽस्ति, यथा जलाशये / एवमन्वय-व्यतिरेकाभ्यां निश्चितो यो हेतुः स एव गमकः स्यात्, न यथाकथञ्चित्, तत्पुत्रत्वादीनामपि हेतुत्वापत्तेः / न चाऽत्र युष्मदङ्गीकृते धर्मधर्मिणि प्रतिबन्धुरं हेतुमुत्पश्यामः, येनाऽनुमानादपि तत्सिद्धिः /
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________________ जून - 2012 53 "नाऽपि शाब्दात् तत्सिद्धिः, विप्रतारकवचनस्य विसंवाददर्शनात् सर्ववचनेष्वविश्वासात् / नन्वाप्तप्रणीतस्यैव वचनस्य प्रामाण्यं, न शेषवचनानामिति चेत् ? तदप्यचारु / यतो न शृङ्गग्राहिकया आप्तोऽयमनाप्त इति निर्णेतुं शक्यं, तत्साधकप्रमाणाभावात् / "नवोपमानतः / यतः प्रसिद्धवस्तुसाधादप्रसिद्धस्य साधनमुपमानं समाख्यातम् / यथा गोर्गवयस्तथा / न च भवदभ्युपगतधर्मसदृशः कश्चित् प्रसिद्धधर्मोऽस्ति, येन तदुपमानेनाऽपि तत्सिद्धिः साध्यते / "न चाऽर्थापत्तेः / यतः कस्याऽप्यनुपपद्यमानस्याऽर्थस्याऽघटनायाऽर्थान्तरकल्पनमर्थापत्तिः / यथा पीनो देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते, रात्राववश्यं भुङ्क्ते इत्यर्थः / न चाऽत्र कस्याऽप्यर्थस्य तमृतेऽनुपपद्यमानताऽस्ति, यत्साधनार्थं भवदभ्युपगतं धर्ममुररीकुर्महे / "तदेवमभावप्रमाणगोचरचारितामालम्बतेऽसौ धर्मः / यथा चोक्तं - "प्रमाणपञ्चकं यत्र, वस्तुरूपे न जायते / वस्तुसत्तावबोधार्थं, तत्राऽभावप्रमाणता // " प्रयोगश्चाऽत्र - नाऽस्ति धर्मः, प्रत्यक्षादिप्रमाणैरनुपलभ्यमानत्वात् / यद्यत् प्रत्यक्षादिप्रमाणैर्नोपलभ्यते तत्तद् नाऽस्ति, यथा खरविषाणम् / तथा प्रत्यक्षादिप्रमाणैश्च नोपलभ्यते धर्मः, तस्माद् नाऽस्तीति धर्मः / " इति वृद्धेनोक्ते सति सागरचन्द्रोऽन्तः क्षुब्धोऽपि धाष्टर्यमवष्टभ्य प्रत्याचष्ट - "भोः प्रामाणिकः (क!) यत् तावदुक्तं प्रत्यक्षादिप्रमाणैरनुपलभ्यमानत्वात् नाऽस्ति धर्म इत्यादि तदेतत्सकलमप्युत्तालवातूलान्दोलिततूलजाललीलामावहति / यतो न खलु तुण्डताण्डवमात्रेणाऽभिमतार्थसिद्धिः / किन्तु प्रमाणेन / न तु प्रमाणमप्युक्तं तु तमयुक्तम् (?) / सर्वप्रमाणानां धर्मस्य साधकत्वेनैव प्रवृत्तिदर्शनात् / न क्वचिद् बाधकत्वेन / तथाहि - __"प्रमाणं प्रत्यक्ष-परोक्षरूपतया द्विधैवोज्जिहीते / तत्र प्रत्यक्षं द्विविधं - व्यावहारिकं नैश्चयिकं च / तत्र व्यावहारिकमिन्द्रियानुसारि, नैश्चयिकमतीन्द्रियज्ञानानुसारि / तत्र चाऽयमप्यतीन्द्रियो धर्मः तव न प्रतिभाते तदा कस्याऽपराधः ? अतः तदेतद् भवदुक्तं नाऽस्मदभ्युपगतबाधाविधायीति /
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________________ 54 अनुसन्धान-५९ विशदनिर्भासेन प्रत्यक्षेण तु साक्षात्क्रियते एव धर्मः / न च तदप्यसिद्धमिति वाच्यम् / अनुमानेन तत्सिद्धः / तथा[हि -] सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः कस्यचित् प्रत्यक्षाः, प्रमेयत्वात् / यद्यत् प्रमेयं तत्तत् कस्यचित् प्रत्यक्षं, यथा मेरुपरमाण्वादिः / तथा प्रमेयश्चाऽयं धर्मः, तस्मात् कस्यचित् प्रत्यक्षः एव(वेति) सर्वज्ञसिद्धौ तत्सिद्धिः स्वतः सिद्धा / "यद्वा माऽस्तु प्रत्यक्षसिद्धो धर्मः / अनुमानात् तत्सिद्धिः केन निवार्यते? यतः तदतीन्द्रियार्थसार्थसिद्धये त्रिविधं सङ्गीर्यते - पूर्ववत् 1 शेषवत् 2 सामान्यतो दृष्टं च 3 / कारणात् कार्यवितर्कणं पूर्ववत् / यथा - रोलम्बगवलव्यालतमालमलिनः(न)त्विषः / वृष्टिं व्यभिचरन्तीह नैवंप्रायाः पयोमुचः // कार्यात् कारणवितर्कणं शेषवत् / यथा सरित्प्रवाहदर्शनात् शिखरिशिखरोपरिप्रवर्षणाभ्यूहनं, गतिपूर्वकदेशान्तरप्राप्तिदर्शनाद् दिनकरेऽपि तथाऽभ्यूहनम् / सामान्यतो दृष्टं तदत्राऽपि प्रतिजनप्रसिद्धं तथाविधानुभवसिद्धम् / जगति विवर्तमानं कार्यजातमुज्जृम्भमानमालोक्यते, ततः तदनुरूपकारणमवश्यं तथा (मवश्यन्तया?) विधेयम् / यदुक्तं च - ___ 'नाऽकारणं यतः कार्य, नाऽन्यकारणकारणम् / अन्यथा न व्यवस्था स्यात्, कार्यकारणयोः क्वचित् // ' दृश्यते चाऽत्र सकलमहीमण्डला(लमण्डना?)यमानो मानवः [कश्चित्], कश्चित् तदपरः सोदरदरीपूरणमात्रेऽपि कृतात्यन्तप्रयासः पुंस्याशः, प्रज्ञावज्ञातवाचस्पतिमतिप्रपञ्चः कश्चिद् विपश्चित्, तदन्यश्च सरलतरसीरलेखाविधानेऽप्यनभिज्ञः / एवं सुभग-दुर्भग-सरोग-नीरोग-कुलीन(नाऽ)-कुलीनत्वादिवैचित्र्यं विचित्रकारणनिबन्धनम् / तत्र शुभभावाविर्भावनिबन्धनं धर्मः, तद्विरुद्धानामधर्मः / यदामनन्ति सन्तः 'धर्माद् जन्म कुले शरीरपटुता सौभाग्यमायुर्बलं, धर्मेणैव भवन्ति निर्मलयशोविद्यार्थसप(म्प)त्तयः / कान्ताराच्च महाभयाच्च सततं धर्मः परित्रायते, धर्मः सम्यगुपासितो भवति हि स्वर्गापवर्गप्रदः // 1 // '
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________________ जून - 2012 55 ___ "विपक्षपक्षलतालवित्रमत्राऽनुमानमुदीरयामः / त्रिभुवनोदरविवरवर्ति सौभाग्यभाग्यादिवस्तुसमस्तमप्यविकलकारणजन्यं, कार्यत्वात् / यद्यत् कार्यं तत्तदविकलकारणजन्यं, यथा तथाविधमृत्पिण्डतन्तुसन्तानजन्यं घटपटप्रभृतिकम् / यदेवं तदेवम् / न चाऽयमसिद्धो हेतुः, पक्षे तद्भावात् / तदभावे भाग्यसौभाग्यादेः सदैव सद्भावोऽसद्भावो वा स्यात्, न तु कादाचित्कः / नाऽपि विरुद्धः, कारणं विना यत्नसहरैरपि कार्यस्याऽनुत्पादात् / अन्यथा खरविषाणादिभ्योऽपि सर्वथा कार्यसिद्धिः स्यात् / नाऽप्यनैकान्तिकः, विपक्षे तद्गन्धमात्रस्याऽप्यनुपलब्धेः इत्येतदुक्तप्रायम् / अतः सर्वदोषरहितादनुमानात् तत्सिद्धौ नाऽस्ति प्रतिवादिवादलेशस्याऽप्यवकाशः / तदेवं परोक्षावान्तरभेदेनाऽनुमानेन योगिप्रत्यक्षेण च तस्मिन् साधिते प्रत्यक्षपरोक्षाभ्यां प्रमाणाभ्यां तत्सिद्धिः संसिद्धा / "किञ्च शाब्दप्रमाणमपि तत्साधने साधीय एव / यतो न वयं यादृशतादृशेन प्रतिप(पा)दितवचनस्य प्रामाण्यमभ्युपगच्छामः / किन्त्वविसंवादिवचनस्य पुरुषविशेषस्य / अविसंवादिवचनत्वं च सर्वज्ञत्वाद् वीतरागत्वाच्च / सर्वज्ञत्वं चोक्तयुक्त्या साधि[तमे]व / तत्साहचर्याद् वीतरागत्वमपि स्वतः सिद्धमवसेयम् / तदेवं शाब्दप्रमाणेनाऽपि तत्सिद्धिरनिवार्या / "तथा उपमानप्रमाणस्याऽनभ्युपगमादेव न तद्रूषणमस्मत्पक्ष[क्ष]तिमावहति / अर्थापत्तेश्चाऽनुमानान्तर्भूतत्वात्, किं पृथक्प्रयासेन तत्साधने बाधने वा? तदेव(वं) प्रमाणसिद्धे धर्मे धर्मिणि सर्वेषामपि मतिमतामविसंवाद एवे"त्युदित्वाऽवस्थिते सागरेन्दौ वृद्धोऽभ्यधात् - "आचार्याः! तर्के भवतां भव्योऽभ्यासोऽस्ती'"त्युक्त्वा मौनमाश्रयत् / मा जानातु मां सागरोऽप्यहो! अस्य जरतो मद्गुरोरिव प्रमाणग्रन्थेष्वभ्यस्तिरिति विचिन्त्य स्वासनमश्रि(श्र)यत् // धर्मस्थापनस्थलः(लं) सम(मा)प्त:(प्तम्) //
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________________ अनुसन्धान-५९ वागर्थसंस्थापनम् अनुदिनमखर्वसर्वा-नवद्यविद्यानदीनदीष्णेभ्यः / नित्यमनुक्तेभ्यः प्रणमामि महासमुद्रेभ्यः // इह हि कूपमण्डूकः कोऽपि वावदूकष्टिट्टिभसन्निभप्रतिभः खण्डस्फुडितशब्दविद्याकाव्यादिदर्शनमात्रेण सर्वज्ञमन्यः फलितललितबदरीवनमात्रप्राप्तिप्राप्तसुरालयसाम्राज्यंमन्यो वन्यशृगालबालकल्पो जल्पाकतां कल्पयति / तथाहि - अहं शलाकापातमात्रेण कालिदासकृतं काव्यं त्रयी (कृतकाव्यत्रयी)मप्यक्षेपेणाऽऽक्षेपपरिहाराभ्यां व्याख्यानयामि / अतः तन्मानमर्दनाय किञ्चिदुपक्रम्यते / काव्यत्रयीं सर्वामन्यां तव प्रसादेनाऽहं मुञ्चामि / रघुकाव्यस्याऽऽद्यं श्लोकमेकं व्याख्यानय / तत्राऽप्युत्तरपादत्रयं मुक्तम् / आद्य एव पादः किञ्चित् पर्यनुयुज्यते / वागर्थाविवसम्पृक्ताविति वागर्थयोः शब्दपदार्थयोः को नाम सम्पर्कः ? सम्पर्को हि नाम सम्बन्धः / स च संयोगो वा स्यात् सम[वायो] वा तादात्म्यं वा तदुत्पत्तिर्वा / तत्र न तावत् शब्दार्थयोः संयोगः सम्भवति / तस्य द्रव्यद्वयवृत्तित्वात्, शब्दस्य च गुणत्वात् / किञ्च शब्दे चेद् वाच्योऽर्थः सम्बध्यते, तदा यत्र शब्दः तत्राऽर्थः / ततः करवालाचलजलानलानिलादिशब्दोच्चारणे तत्र करवालाद्यर्थसम्बन्धे मुखस्य छेदाऽभिघातक्लेददाहोड्डयनादिप्रसङ्गः / अथाऽर्थे शब्द: सम्बध्यते तदा प्रतिदिशं प्रतिप्रदार्थं शब्दसद्भावेन नित्यं कोलाहलः श्रूयेत। नाऽपि समवायः, तस्य द्रव्य-गुणयोः सम्भवेऽपि, शब्दस्याऽम्बरगुणत्वेन वाच्यार्थ-शब्दयोरसम्भवात् / अपि च वाच्योऽर्थो द्रव्यमेव (द्रव्यमेवेति न) / ततो यदा गौः शुक्लश्चलतीत्यादौ सामान्यगुणकर्माणि वाच्यानि / तदा तेषु न शब्दसमवायो, द्रव्ये एव गुणानां समवायात् / नाऽपि तदुत्पत्तिः सम्बन्धः / सा हि शब्दाद् वाऽर्थस्याऽर्थाद् वा शब्दस्येति द्विधा / तत्र यदि शब्दादर्था उत्पद्यन्ते, ततोऽहं राजा भूयासं, दरिद्रोऽहं कोटीश्वरो भूयासं, रोग्यहमारोग्यवान् भूयासमित्याद्याशीर्वादादेव तत्तदर्थप्राप्तिः स्यात् / अथाऽर्थात् शब्दा उत्पद्यन्ते, तदा वक्तृप्रयत्नमन्तरेणाऽपि प्रतिपदार्थं शब्दाः श्रूयेरन् / तथा च पूर्ववत् कोलाहलप्रसङ्गः /
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________________ जून - 2012 57 अथ तादात्म्यसम्बन्धः, तदा क्षुराग्निमोदकादिशब्दोच्चारणे वक्तृवक्त्र-श्रोतृश्रवणयोः छेददाहपूरणादिप्रसङ्गो दुर्निवारः / न च सम्बन्धान्तरं शब्दार्थयोर्घटते / एवं च यथायथा शब्दार्थयोः सम्बन्धो विचार्यते, तथा तथा जीर्णपटीवत् शतधा विदार्यते / ततः सम्बन्धाभावात् शब्दार्थयो!पमानत्वं जाघटीति / किञ्च पार्वतीपरमेश्वरयोरुपमेययोर्वागर्थावुपमानीकृतौ स्तः, उपमानोपमेयभावश्च साधर्म्यमुपमेति वचनात् / तत्रोपमानोपमेययोः साधर्म्यमेकदेशेन वा सामस्त्येन वेति वाच्यम् / एवं हि मेरुरिव परमाणुः, कर इवाऽमेध्यं, तेज इव तमः, राजेव रङ्कः, गौरिव महिषः, सूर्य इव खद्योतः, हस्तीव मशक इत्यादावप्युपमानोपमेयभावप्रसङ्गः / अत्राऽपि सत्त्वप्रमेयत्वादिना साधर्म्यस्य सम्भवात् / अथ सामस्त्येन साधर्म्यमिति पक्षः कक्षीक्रियते, सोऽसम्भवी / सामस्त्येन साधर्म्यस्य कयोरपि पदार्थयोरभावात् / परस्परविलक्षणस्वभावत्वात् सर्वपदार्थानाम् / किञ्च सर्वसाधर्म्यविवक्षायां चन्द्र इव चन्द्रः, शम्भुरिव शम्भुरित्यादावेवोपमानोपमेयभावप्रसङ्गः, तत्रैव सर्वसाधर्म्यभावात् / न तु दर्पण इव चन्द्रः, चन्द्रवद् मुखं, मुखमिवाऽरविन्दं, अदोऽरविन्दमिवाऽदोऽरविन्द (?) मित्यादौ, अत्र सर्वसाधाभावात् / न चैकदेशसामस्त्याभ्यामन्यः साधर्म्यप्रकारोऽस्ति / तस्मात् साधाभावाद् गौरीश्वरयोर्वागर्थाभ्यां सहोपमानोपमेयभावोऽपि न संगच्छते / ततो यदि तव हृदि काचित् प्रतिभा पोस्फुरीति तदा वागर्थयोः सम्पर्क उपमानोपमेयभावश्च समर्थ(y)तामित्युपरमते पूर्वपक्षोऽयम् / उत्तरं - स्वाभाविकसामर्थ्य-समयाभ्यामर्थबोधनिबन्धनं शब्द इति / स्वाभाविकसामर्थ्यं च शब्दस्याऽर्थप्रतिपादनशक्तिर्योग्यतापरपर्याया, ज्ञानस्य ज्ञेयज्ञापनशक्तिवत् / समयश्च सङ्केतस्त्या(?)भ्यामर्थबोधनकारणं शब्द इति / ततोऽयुक्तमुक्तं शब्दार्थयोर्विचार्यमाणः कोऽपि सम्बन्धो न घटते इति / तादात्म्यतदुत्पत्त्याद्यभावेऽपि शब्दार्थयोर्योग्यताभिधानसम्बन्धसद्भावात् / ननु तादात्म्यादिसम्बन्धाभावे तयोर्योग्यताभिधानः सम्बन्धोऽपि कथम् ? न, नयनरूपयोः क्वचित्त[द?]भावेऽपि तदुपलम्भभावात् / न खलु स्फीतालोककलितसकलरूपेण समं लोचनस्य तादात्म्यं तदुत्पत्तिर्वाऽङ्गीक्रियते, प्रतीति
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________________ 58 अनुसन्धान-५९ विरोधापत्तेः / नाऽपि नेत्रस्य तादात्म्यादिसम्बन्धाभावे रूपप्रकटनयोग्यतासम्बन्धस्याऽनुपपत्तिः, श्रवणादीन्द्रियवत् तस्याऽपि रूपाप्रकाशकत्वप्रसक्तेः / ___ न च वाच्यं योग्यतातः शब्दस्याऽर्थवाचकत्वेऽर्थस्याऽपि शब्दवाचकत्वं किं न भवेदिति / प्रतिनियतशक्तिकत्वाद् पदार्थानाम् / योग्यता हि शब्दार्थयोः प्रति[पादक-प्रति]पाद्यशक्तिर्ज्ञान-ज्ञेययोऑप्य-ज्ञापक(ज्ञापक-ज्ञाप्य)शक्तिवत् / न च ज्ञानज्ञेययोः कार्यकारणभावात् स्वरूपप्रतिनियमो, न पुनर्योग्यता इत्यभिधानीयम् / तयोः कार्यकारणभावसद्भावेऽपि योग्यतात एव स्वरूपप्रतिनियमोपपत्तेः / अन्यथा ज्ञानमेव प्रकाशकं न तु ज्ञेयं, ज्ञेयमेव प्रकाश्यं न पुनर्ज्ञानमिति नियमस्याऽघटनात् / ननु योग्यतावशात् शब्दो यद्यर्थं प्रतिपादयति, तदा भूमिगृहवर्द्धितोत्थितस्याऽपि पुंसः प्रतिपादयतु, विशेषाभावादिति चेत् ? तदप्यनुचितं, सङ्केतसहायस्वयोग्यतामा[हा] त्म्यतः शब्दादर्थस्य प्रतिज्ञानात् / भूमिगृहवर्द्धितोत्थितं प्रति चाऽस्य स्वयोग्यतासद्भावेऽपि सङ्केतसहायकाभावाद् नाऽर्थप्रतिपादकत्वानुषङ्गः / सङ्केतो हि 'इदमस्य वाचक मित्येवंरूपो वाच्यवाचकयोर्विनियोगः / स यस्याऽस्ति तस्यैव शब्दः स्वार्थं प्रतिपादयति, नाऽपरस्येति / / ननु सङ्केतः पुरुषेच्छामात्रनिर्मितः, तदिच्छया वस्तुव्यवस्थापनमनुपपन्नमतिप्रसक्तेः / ततोऽर्थोऽपि वाचकः, शब्दोऽपि वाच्यः किं न भवेत् ? पुरुषेच्छाया निरङ्कशत्वात् / तदप्यविचारितमनोहरं, सङ्केतस्य सहयोग्यतानिबन्धनत्वात्, धूमधूमध्वजवत् / यथैव हि धूमपावकयोः स्वाभाविक एवाऽविनाभावसम्बन्धः, तद्व्युत्पत्तये तु सङ्केतः समाश्रीयते / / ननु शब्दस्य नैसर्गिकी शक्तिः किमेकार्थप्रतिपादने वा अनेकार्थप्रतिपादने वा ? यद्येकार्थप्रतिपादने, तदा सङ्केतकोटिभिरपि ततोऽर्थान्तरप्रतीतिर्न भवति, मदेन(नाऽ)ग्निप्रतीतिवत् / अथाऽनेकार्थप्रतिपादने, तदा समसमयं शब्दादनेकार्थप्रतीतिप्रसक्तेः प्रतिनियतवस्तुनि प्रवृत्तिर्न प्राप्नोतीति / तदपि न निपुणनिरूपितं, शब्दस्याऽनेकार्थप्रतिपादने नैसर्गिकशक्तिसद्भावेऽपि प्रतिनियतसङ्केतसामर्थ्यात् प्रतिनियतार्थप्रतिपादकत्वोपपत्तेः / एकस्याऽपि हि शब्दस्य देशादिभेदेन प्रतिनियतसङ्केतोऽनुभूयते / यथा गूर्जरादौ चौरशब्दस्य तस्करे द्रविडादौ पुनरोदने इति / दृश्यते च सर्वत्र रूपप्रकाशनयोग्यस्याऽपि चक्षुषः प्रत्यासन्नतिमिरवशादसन्निहिते रूपे (वशात् सन्निहिते एव रूपे?) विशिष्टाञ्जनादिवशादन्धकारान्त
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जून २०१२
५९
रितेऽपि ज्ञानजनकत्वम् । काचकामलादिविप्लवबलाच्च विवक्षितरूपाभावेऽपि इति । ततो यथाऽनेकरूपप्रकाशनयोग्यस्याऽपि चक्षुषो दूरतिमिरादिप्रतिनियतसहकारिवशात् प्रतिनियतसन्निहितरूपादिज्ञानजनकत्वं; तथाऽनेकार्थप्रतिपादनयोग्यस्याऽपि शब्दस्य प्रतिनियतपदार्थप्रतिपादकत्वं यदि स्यात्, तदा का नमक्षिति:(न: क्षति: ? ) । शब्दोऽर्थेन सम्बद्धः, प्रतिनियततत्प्रत्ययनिमित्तत्वात्, लोचनवत् । न च लोचनस्याऽप्यर्थेनाऽसम्बन्ध इत्यभिधेयं, योग्यताख्यसम्बन्धस्य तत्रोभाभ्यां प्रतिपन्नत्वात् । न चैवमप्राप्यकारित्वं विरुध्यते, संयोगादेः सन्निकर्षस्याऽनभ्युपगमात् ।
तथा शाब्दो बोधः सम्बन्धन ( सम्बन्धनियत: ?), प्रतिनियतबोधत्वात्, दण्डीत्यादिबोधवत् । इत्थं सम्बन्धो योग्यतानामधेयः शब्दस्याऽर्थेन प्रोक्तयुक्त्या प्रसिद्धः ।
उपमानविचारस्याऽप्रामाणिकानां क्षुन्न (?) एवेति किं तत्र तन्निराकरण
इति वागर्थसंस्थापन(म्) ॥
अग्निशीतत्वस्थापनावादः
शीतो वह्निर्दाहकत्वात्, यद् दाहकं तत् शीतं, यथा हिमं, तथा दाहकश्च वह्निः, तस्मात् शीतः ।
प्रयासेनेति ॥
अथ सकलप्रज्ञालप्रवालचक्रवालाचतूलैर्वावद्यते वादिशार्दूलैः । यथा प्रत्यक्षविरुद्धाऽसौ प्रतिज्ञा । यतः समस्तैरपि जनैर्वह्नावुष्णत्वमेवोपलभ्यते, न शीतत्वलेशोऽपि । तन्न वाच्यं, यतो हेमन्तसमयवासरमुख्यव्यज्यमानार्द्रीकृततालवृन्तप्रान्तप्रोच्छलितशीतशीकरासारशिशिरवैश्वानर उष्णत्वोपलब्धिर्भ्रान्ता एव । यथा विरहिणां सकलजननेत्रपात्रैकलेह्यमहसि उष्णत्वप्रतीतिः।
अथैवमुद्दण्डपुण्डरीकपाण्डुरनिजयशःप्रसरदुग्धमकराकरान्तरपरिस्फुर
त्पाण्डित्यादिगुणडिण्डीरपिण्डीकृतब्रह्माण्डभाण्डैर्बम्भण्यते विद्वत्प्रकाण्डैः । यथा – शीतद्युतावुष्णत्वप्रतीतेर्भ्रान्तित्वं भवतु, बहुभिः तच्छीतत्वोपलम्भात् । वह्नेस्तूष्णत्वं सर्वैरपि प्रतीयते, न केनाऽपि शीतत्वं, तस्मात् प्रत्यक्षविरुद्धः । इदमपि
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अनुसन्धान-५९
विचार्यमाणं न स्थेमानमाप्नोति । यतो निर्दोषाणां कुशीचाटन-फालग्रहणादि दिव्यं कुर्वतामनुस्मृतमन्त्राणां च हुताशने शीतत्वप्रतीतिः समस्त्येव ।
अथैवं निबिडजडिमवननिकुञ्जोज्जासनकुञ्जरैः प्रजल्प(ल्प्य)ते वादिकुञ्जरैः । यथा कुशीचाटन-फालग्रहणादि दिव्यं कुर्वता(तां) देवतानुभावात् कृशानोः शीतत्वोपलम्भः सम्भवति । न पुनः स्वयं शीतः स्यात् । तत् कथं दोषवतां जिह्वास्फोटकदंष्ट्रिकादाहादीन्युपलभ्येरन् ? तस्मादुष्ण एव । तदप्यमात्रमेव(?)। यतो यद् दोषवतां दिव्यं कुर्वतां स्फोटकादिकमुपलभ्यते तद् अपुण्यानुमानेन तदीयदोषाविःकरणाय देवतादिवशात् सञ्जायते, न पुनर्वह्नरौष्ण्यात् ।
अथाऽनवद्यविद्याभिधमधुव्रतश्रेणिसंप्रीणनप्रफुल्लमल्लिकाभिः समुल्लप्यते विद्वन्मतल्लिकाभिः । यथा - क्रियतां नाम दोषवतां देवादिभिः स्फोटनादिकं तदीयदोषाविःकरणाय । परं यदि स्वाभाविकं वह्वरुष्णत्वं नाऽस्ति तत्र सर्वेषामपि जनानां वह्निसंसर्गेण स्फोटकादिकमुत्पद्यमानं दरीदृश्यते इत्यस्मात् स्वभावेनाऽप्युष्ण एवाऽऽश्रयितव्यः । तदेतदपि वावद्यमानं न विदुषामानन्दसम्पदं सम्पादयति । यतो नोष्णत्वं स्फोटकोत्पत्तिकारणं, भल्लातकराजिकादिसम्पर्केऽपि स्फोटकोत्पत्त्युपलम्भात् । न च तेषामुष्णत्वमस्ति । तन्न स्फोटकोत्पादकत्वेन वह्वरुष्णत्वं कल्पनीयमिति ।
___ अथ एवं सार्वभौमयशसः प्रजल्पन्ति सुमनसः - धत्तूरकभावितानां बहूनामपि लोष्टादिषु सुवर्णज्ञानं भ्रान्तं भवितुमर्हति । श्रूयते च सर्वेषु शास्त्रेषु लोकेषु च "शतमप्यन्धानां न पश्यति" । किं च यदि बहूनामुपलम्भः प्रमाणं, तहि ज्ञानमयामूर्तत्वादिलक्षणं यथावस्थितमात्मनः स्वरूपं योगिपरिज्ञातमप्रमाणं भवति । तस्मात् स्वल्पानामपि यत् ज्ञानं सम्यक् भवति तदेव प्रमाणम् । ततश्च भवदादीनां शीतेऽपि वह्नौ उष्णत्वसंवेदनं भ्रान्तमेव ।
___अथैवं प्रकटविकटकोपाटोपप्रकम्पमानतनूकैः प्रतिपाद्यते वावदूकैः । यथा - अस्मदादीनां वह्वरुष्णत्वसङ्ग्राहकं ज्ञानं भ्रान्तमिति कथं निश्चीयते ? न हि सर्वज्ञमन्तरेणाऽन्यस्यैवंविधा शक्तिरस्ति । तदेतदपि प्रवणान्तर्वाणितां प्रकटयति । यतो यथा टेकत्र महानसादौ धूम-धूमध्वजयोरविनाभावग्रहणे सति सर्वत्राऽयमसर्वज्ञस्याऽपि निश्चयो भवति, यथा - यत्र धूमस्तत्र वह्निर्भवत्येवेति । तथाऽत्राऽप्येक(?)ज्ञानस्य विपरीतार्थग्राहकस्य भ्रान्तत्वं निश्चीयते एव । तथा
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विपरीतार्थपरिच्छेद[क]स्य भ्रान्तत्वव्यवस्थापनायाऽनुमानमपि कुर्महे । तथाहि - वडूरुष्णत्वसङ्ग्राहकं सर्वेषामपि ज्ञानं भ्रान्तं, विपरीतार्थपरिच्छेदकत्वात् । यद्यत् विपरीतार्थपरिच्छेदकं तत्तद् भ्रान्तं, यथा शुक्तिकाशकले रजतज्ञानं, विपरीतार्थपरिच्छेदकं तत्, तस्माद् भ्रान्तमिति ।
अथैवं निगद्यते निरवद्यहृद्यगद्यपद्यप्रबन्धुराभिर्वाग्भिर्भवद्भिः । यथा - शुक्तिकाशकले दूरदेशावस्थितत्व-तत्सदृशत्वादिकारणवशाद् रजतबुद्धिर्भवन्ती भ्रान्ता भवति । इह तु शीते वह्नावुष्णत्वोपलब्धिः कुतः संजायते ? इति । नहि तावत् किमपि कारणमुपलभामहे, येन भ्रान्तत्वं स्याद् । एतस्माद् वढेरुष्ण[त्व]संवेदनमभ्रान्तमेव । तदेतदपि वावद्यमानं वसन्तसमयवद् न भवन्मनोरथमल्लिकावल्लिकां पल्लवयति । यतोऽनाद्यविद्यावासनावशात् तुषारकणशीतलेऽपि वह्नौ उष्णत्वबुद्धिर्भवतां बोभवीति । यथा दुःखरूपेष्वपि विषयेषु सुखबुद्धिः । कैश्चिद् मन्त्रदेवतादिसांनिध्ये सकलपदार्थसार्थयाथात्म्यं (अत्र पाठः त्रुटितः प्रतिभाति - सं.) तस्मात् प्रत्यक्षेणैवाऽऽशुशुक्षणे शीतत्वोपलम्भाद् न प्रत्यक्षविरुद्धः पक्षो, नाऽप्यनुमानविरुद्धः ।
अथ प्रचण्डपण्डितप्रकाण्डालिमौलिमण्डनायमा निरूप्यतेऽभिरूपप्रधानैः । यथा - उष्णो वह्निर्दाहकत्वात् । यद्यद् दाहकं तत्तदुष्णम् । यथा मार्तण्डमण्डलम् । दाहकश्चाऽयं तस्मादुष्ण इत्यनुमानेनाऽनुमानविरुद्धोऽयम् । नन्वेतदपि विचारासहमेव । तथाहि - प्रत्यक्षविरुद्धाऽसौ भवदनुमानप्रतिज्ञा, वह्नः शीतत्वस्य प्रत्यक्षलक्षविनिस्थापितत्वात् । अनुमानविरुद्धा वाऽस्मदीयानुमाने[न] । हेतुरप्यनैकान्तिकः, हिमे शीतेऽपि दाहकत्वोपलम्भात् । दृष्टान्तोऽपि साध्यविकलः, तस्याऽपि शीतत्वात् । अनुमानमन्तरेण तस्य शीतत्वं नाऽङ्गीक्रियते तर्हि अनुमानमपि उच्यते । शीतं मार्तण्डमण्डलं, पार्थिवत्वात्, स्फुटिकोपलादिवत् । अथैतद्दोषभीतेर्मार्तण्डमण्डलांशुवत् इति दृष्टान्तान्तरमाश्रीयते । नन्वेवं सति दृष्टान्तान्तरप्रतिपत्तिलक्षणं दूषणं समापद्यते भवताम् । किञ्च किरणान्यपि शीतलान्येव । अत्राऽप्यनुमिमीमहे - शीतलानि मार्तण्डमण्डलांशूनि, पार्थिवसम्भवत्वात्, घटवत् । ततश्च भवतां दृष्टान्तान्तराश्रयणेऽपि न काचिदप्यर्थसिद्धिरभूत् । एवं च सति सोऽयमाभाणकः सत्यः संवृत्तः, यथा - काकोऽपि भक्षितो, अजरामरत्वमपि न सञ्जातमिति । *हेतुरप्यनासिद्धः, सर्वैरपि
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वह्नौ दाहकत्वस्य प्रतीयमानत्वात् । नाऽपि विरुद्धः, विपर्ययसाधने दृष्टान्ताभावात् । नाऽप्यनैकान्तिकः, विपक्षे वृत्त्याभावात् । दृष्टान्तोऽपि न साध्यविकलः साधनविकलो वा, हिमे शीतत्वस्य दाहकत्वस्य च सकलजगत्प्रतीतत्वात् ।* (**चिह्नान्तर्गतपाठस्य प्रकरणसङ्गतिः चिन्तनीया - सं.) तस्मात् सकलकलङ्कचक्रवालविकलेनाऽनुमानेन स्वसाध्यं साध्यते एवेति स्थितम् ।।
__ अग्निशीतत्वस्थापनावादः पं. साधुरत्नगणिना स्वव(वा)चनाय लिखितः।
प्रदीपनित्यत्वव्यवस्थापनम् अथैकान्तानित्यतया परैरङ्गीकृतस्य प्रदीपस्य तावद् नित्यानित्यत्वव्यवस्थापने दिग्मात्रमुच्यते । तथाहि - प्रदीपपर्यायोपपन्नाः तैजसाः परमाणवः स्वरसतः तैलक्षयाद् वाताभिघाताद् वा ज्योतिःपर्यायं परित्यज्य तमोरूपं पर्यायान्तरमादायन्तो नैकान्तेनाऽनित्याः, पुद्गलद्रव्यरूपतया व्यवस्थितत्वात् तेषाम् । न ह्येतावताऽनित्यत्वं यावता पूर्वपर्यायस्य विनाश उत्तरपर्यायस्य चोत्पादः । न खलु मृदुद्रव्यं स्थासकोशकुशूलशिरावकघटाद्यवस्थान्तराण्यापद्यमानमप्येकान्ततो विनष्टं, तेषु मृद्रव्यानुगमस्याऽऽबालगोपालप्रतीतत्वात् । न च तमसः पौद्गलिकत्वमसिद्धं, चाक्षुषत्वान्यथानुपपत्तेः, प्रदीपालोकवत् ।
अथ यच्चाक्षुषं तत्सर्वं स्वप्रतिभासे आलोकमपेक्षते, न चैवं तमस्तत् कथं चाक्षुषम् ? नैवम्, उलूकादीनामालोकमन्तरेणाऽपि तत्प्रतिभासात् । यैस्त्वस्मदादिभिरन्यच्चाक्षुषं घटादिकमालोकं विना नोपलभ्यते तैरपि तिमिरमालोकयिष्यतो(ते), विचित्रत्वाद् भावानाम् । कथमन्यथा पीतश्वेतादयोऽपि स्वर्णमुक्ताफलाद्या आलोकापेक्षदर्शनाः, प्रदीपचन्द्रादयस्तु प्रकाशान्तरानपेक्षा ? इति सिद्धं तच्चाक्षुषम् । रूपवत्त्वात् स्पर्शवत्त्वमपि प्रतीयते शैत्यस्पर्शप्रत्ययजनकत्वात् ।
__ यानि त्वनिबिडावयवत्वमप्रतिघातित्व-मनुद्भतस्पर्शविशेषत्वमप्रतीयमानखण्डावयविद्रव्य-प्रविभागत्वमित्यादीनि तमसः पौद्गलिकत्वनिषेधाय परैः साधनान्युपन्यस्तानि, तानि प्रदीपप्रभादृष्टान्तेनैव प्रतिषेध्यानि, तुल्ययोगक्षेमत्वात् ।
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न च वाच्यं तैजसाः परमाणवः कथं तमस्त्वेन परिणमन्ते इति । पुद्गलानां तत्तत्सामग्रीसहकृतानां विसदृशकार्योत्पादकत्वस्याऽपि दर्शनात् । दृष्टो ह्याट्टैन्धनसंयोगवशाद् भास्वररूपस्याऽपि वह्नेरभास्वररूपकार्योत्पाद इति सिद्धो नित्यानित्यः प्रदीपः । यदापि निर्वाणादर्वाग् देदीप्यमानो दीपः तदापि नवनवपर्यायोत्पादविनाशभाक्त्वात् प्रदीपत्वात्वया त्वनित्य (अनित्यः प्रदीपत्वेन तु नित्य ?) एवेति प्रदीपनित्यत्वव्यवस्थापनम् ॥
व्योम्नो नित्यानित्यत्वव्यवस्थापनम् एवं व्योमाऽपि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मकत्वाद नित्यानित्यमेव । तथाहि - अवगाहकानां जीवपुद्गलानामवगाहदानोपग्रह एव तल्लक्षणम्, अवकाशदमाकाशमिति वचनात् । यदा चाऽवगाहका जीवपुद्गलाः प्रयोगतो विलसातो वा एकस्माद् नभःप्रदेशात् प्रदेशान्तरमुपसर्पन्ति, तदा तस्य व्योम्नः तैरवगाहकैः सममेकस्मिन् प्रदेशे विभाग उत्तरस्मिन् च प्रदेशे संयोगः । संयोगविभागौ च परस्परं विरुद्धौ धौं । तद्भेदे चाऽवश्यं धर्मिणो भेदः । तथा च(चाऽऽ)हुः - "अयमेव हि भेदो भेदहेतुर्वा यद् विरुद्धधर्माध्यास: कारणभेदश्चेति ।" ततश्च तदाऽऽकाशं पूर्वसंयोगलक्षणापत्त्या विनष्टमुत्तरसंयोगोत्पादाख्यपरिणामानुभवात् चोत्पन्नमुभयत्राऽऽकाशद्रव्यस्याऽनुगतत्वाच्चोत्पादव्ययोरेकाधिकरणत्वम् ।
यथा च यदप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकरूपं नित्यमिति नित्य[त्वल]क्षणमाचक्षते तदपास्तम् । एवंविधस्य कस्यचिद् वस्तुनोऽभावात् । तद्भावाव्ययं नित्यमिति तु सत्यं लक्षणम् । उत्पादविनाशयोः सद्भावेऽपि सद्भावदन्वयिरूपाद्(?) यद् न व्येति तद् नित्यमिति तदर्थस्य घटमानत्वात् । यदि हि अप्रच्युतादिलक्षणं नित्यमिष्यते तदोत्पादव्यययोनिराधारत्वप्रसङ्गः । न च तयोर्योगे नित्यत्वहानिः ।
"द्रव्यं पर्यायवियुतं, पर्याया द्रव्यवर्जिताः ।। क्व कदा केन किंरूपा, दृष्टा मानेन केन वा ? ॥" इति वचनात् ।
लौकिकानामपि 'घटाकाशं, पटाकाश'मिति व्यवहारप्रसिद्धः आकाशस्य नित्यानित्यत्वम् । घटाकाशमपि हि यदा घटापगमे पटेनाऽऽक्रान्तं, तदा पटाकाशमिति व्यवहारः । न चाऽयमौपचारिकत्वादप्रमाणमेव । उपचारस्याऽपि
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किञ्चित्साधर्म्यद्वारेण मुख्यार्थस्पर्शित्वात् । नभसो हि सर्वव्यापकत्वं मुख्यं परिमाणम्। तत् तदाधेयघटपटादिसम्बन्धिनियतपरिमाणवशात् कलितभेदं सत् प्रतिनियतदेशव्यापितया व्यवह्रियमाणं घटाकाशपटाकाशादि-तत्तव्यपदेशनिबन्धनं भवति । तत्तद्धटादिसम्बन्धे च व्यापकत्वेनाऽवस्थितस्य व्योम्नोऽवस्थान्तरापत्तिः । स्वतश्चाऽवस्थाभेदेऽवस्थावतोऽपि भेदः, तासां ततोऽविष्वग्भावादिति सिद्धं नित्यानित्यं व्योम इति व्योम्नो नित्यानित्यत्वव्यवस्थापनम् ॥
प्रमाणसाधनोपायनिरासः शुभवद्भिर्भवद्भिरायुष्मद्भिः स्वाभिमतसाध्यसाधनाय यत् प्रमाणमभ्यधायि तत् कोविदवृन्दधुरन्धरैर्माद्यत्कुवादिफलदनर्दनदुर्धरसिन्धुरैरस्माभिर्विचार्यमाणं न चतुरचेतश्चमत्कारकारि । तत् प्रमाणं निश्चितमभिधीयते अनिश्चितं वेति विकल्पयुगली कुलाचलस्थूलदन्तयुगलीवाऽवतरति । न तावदनिश्चितात्,
अनिश्चितस्याऽप्रमाणत्वविशेषात्, उन्मत्तकविरुतवत् । अथ निश्चितं किमप्रमाणाद् [प्रमाणाद्] वा ? न तावदप्रमाण[णादप्रमा]णस्य निश्चायकत्वायोगात् । यद्यप्रमाणमपि निश्चायकं संगीर्यते, तर्हि प्रमाणपर्येषणं विशीर्यते नैरर्थक्यादेव । प्रमाणापदपि (?) निश्चायकत्वाभ्युपगमात् । अथ प्रमाणात्, तत् किमलक्षणं लक्षणोपेतं वा ? अलक्षणं चेद् निश्चायकं प्रमाणं, तहि सर्वप्रमाणानां लक्षणाभिधानमनर्थकं, तद्व्यतिरेकेणाऽपि अर्थनिश्चयसिद्धेः, भवदभिप्रेतालक्षणनिश्चायकप्रमाणवत् । अथ लक्षणोपेतं वा, तत्राऽपि विकल्पयुगलमनिवारितप्रसरं धावति - तद् लक्षणं निश्चितमनिश्चितं वा ? न तावदनिश्चितं लक्षणं [लक्ष्यं] लक्षयति । [निश्चितं चेत् स] निश्चयोऽपि प्रमाणा[दप्रमाणा]द् वा ? [अप्रमाणा]द् निश्चयासिद्धेः प्रमाणाद(दि)ति वक्तव्यम् । तदप्यलक्षणं सलक्षणं वा? अलक्षणत्वे पूर्वस्याऽर्थग्रहणे किं झूणम्(क्षुण्णम्) ? सलक्षणं [चेत्] तल्लक्षणं निर्णीतं चेति तदेवाऽऽवर्तते । तद् न प्रमाणेनाऽर्थसाधनोपायोऽस्ति इति प्रमाणसाधनोपायनिरासः ॥
वज्रशूचीप्रकरणम् (-बौद्धाचार्य अश्वघोष) वेदाः प्रमाणं स्मृतयः प्रमाणं, धर्मार्थयुक्तं वचनं प्रमाणम् । यस्य प्रमाणं न भवेत् प्रमाणं, कस्तस्य कुर्याद् वचनं प्रमाणम् ? ॥
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इह भवतां यदिष्टं सर्ववर्णप्रधानं ब्राह्मणवर्ण इति । वयमत्र ब्रूमः । कोऽयं ब्राह्मणो नाम ? किं जीवः ? किं जातिः ? किं शरीरम् ? किं ज्ञानम् ? किमाचारः ? किं कर्म ? किं वेद इति । तत्र तावद् जीवो ब्राह्मणो न भवति । कस्मात् ? वेदप्रामाण्यात् । उक्तं हि वेदे - "ॐ सूर्यः पशुरासीत् । सोमः पशुरासीत् । इन्द्रः पशुरासीत् । पशवोः आद्यन्ते देवाः पशवः । श्वपाका अपि ब्राह्मणा भवन्ति ।" अतो वेदप्रामाण्याद् मन्यामहे जीवः तावद् ब्राह्मणो न भवति । भारतप्रामाण्यादपि । उक्तं हि भारते -
"सप्त व्याधा दशाऽरण्ये, मृगाः कालिञ्जरे गिरौ । चक्रवाकाः सरित्तीरे हंसाः सरसि मानसे ॥
तेऽपि जाताः कुरुक्षेत्रे ब्राह्मणा वेदपारगाः ॥" अतो भारतप्रामाण्यात् व्याधमृगहंसचक्रवाकदर्शनसम्भवाद् मन्यामहे जीवः तावद् ब्राह्मणो न भवति । न च धर्मप्रामाण्यादपि । उक्तं हि मानवे धर्मे -
"अधीत्य चतुरो वेदान्, साङ्गोपाङ्गान् सलक्षणान् । शूद्रात् प्रतिग्रहग्राही, ब्राह्मणो जायते खरः ॥ खरो द्वादशजन्मानि, षष्टिजन्मानि शूकरः ।
श्वानः सप्ततिजन्मानि, इत्येवं मुनिरब्रवीत् ॥" अतो मानवधर्मप्रामाण्याद् जीवः तावद् ब्राह्मणो न भवति ।
जातिरपि ब्राह्मणो न भवति । कस्मात् ? श्रुतिप्रामाण्यात् । उक्तं स्मृतौ श्रुतौ वा -
"हस्तिन्यामबलो जातः, उलूक्यां केशकम्बलः । अगस्त्योऽगस्तिपुष्पाच्च, कौशिकः कुशसंस्तरात् ।। कठिनात् कठिनो जातः, शरगुल्माच्च गौतमः । द्रोणाचार्यस्तु कलशात्, तित्तिरिस्तित्तिरीसुतः ।। रेणुका जनयेद् रामं, ऋषिशृङ्गं वने मृगी । कैवर्ती जनयेद् व्यासं, काश्यपं चैव शूद्रिका ॥ विश्वामित्रं च चाण्डाली, वशिष्ठं चैव उर्वशी । न तेषां ब्राह्मणी माता, लोकाचाराच्च ब्राह्मणाः ॥"
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अतः स्मृतिप्रामाण्याद् मन्यामहे जातिः तावद् ब्राह्मणो न भवति ।
अथ मन्यसे ब्राह्मणः तावत् तेषां पिता, ततो ब्राह्मणा इति । यद्येवं दास्याः पुत्रा अपि ब्राह्मणजनिता ब्राह्मणा भवेयुः । न चैतद् भवतामिष्टम् । किञ्च यदि ब्राह्मणपुत्रो ब्राह्मणः तहि ब्राह्मणाभावः प्राप्नोति । इदानीन्तनेषु ब्राह्मणेषु पितरि सन्देहाद् गोत्रब्राह्मणमारभ्य ब्राह्मणीनां शूद्राभिगमात् । ततो जातिर्ब्राह्मणो न भवति । मानवधर्मप्रामाण्यादपि । उक्तं हि मानवे धर्मे -
"सद्यः पतति मांसेन, लाक्षया लवणेन च । त्र्यहाच्च शूद्रो भवति, ब्राह्मणः क्षीरविक्रयी ॥ आकाशगामिनो विप्राः, पतिताः मांसभक्षणात् ।
विप्राणां पतनं दृष्ट्वा, ततो मांसानि वर्जयेत् ॥" अतो मानवधर्मप्रामाण्याद् जातिः तावद् ब्राह्मणो न भवति । यदि जातिर्ब्राह्मणः स्यात् तदा शूद्रता नोपपद्यते । किं खलु दुष्टोऽप्यश्वः शूकरो भवति ? तस्माद् जातिरपि ब्राह्मणो न भवति ।
शरीरमपि ब्राह्मणो न भवति । कस्मात् ? यदि ब्राह्मणः स्यात् तर्हि पावको ब्रह्महा भवेत् । ब्रह्महत्या च बन्धूनां शरीरदहनाद् भवेत् । ब्राह्मणशरीरनिस्यन्दजाताश्च क्षत्रियवैश्यशूद्रा अपि ब्राह्मणाः स्युः । न चैतदिष्टम् । ब्राह्मणशरीरविनाशाच्च यजनयाजनाध्ययनाध्यापनदानप्रतिग्रहादीनां ब्राह्मणशरीरजनितानां फलस्याऽपि नाशः स्यात् ।
ज्ञानमपि ब्राह्मणो न भवति । कस्मात् ? ज्ञानबाहुल्यात् । ये ये ज्ञानवन्तः शूद्राः ते सर्वे ब्राह्मणाः स्युः । दृश्यन्ते क्वचित् शूद्राः छन्दोवेदव्याकरणमीमांसासाङ्ख्यवैशेषिकलग्नजीविकादिसर्वशास्त्रार्थविदः । न चैते ब्राह्मणाः स्युः । अतो मन्यामहे ज्ञानमपि ब्राह्मणो न भवति ।
आचारोऽपि ब्राह्मणो न भवति । कुतः ? यदि आचारोऽपि ब्राह्मणः स्यात्, ये आचारवन्तः शूद्राः ते सर्वे ब्राह्मणाः स्युः । दृश्यन्ते च नटभटकैवर्तप्रभृतयः प्रचण्डतराचारवन्तो, न चैते ब्राह्मणा भवन्ति । तस्मादाचारोऽपि ब्राह्मणो न भवति ।
कर्माऽपि ब्राह्मणो न भवति । दृश्यन्ते हि क्षत्रियविट्शूद्रा यजनयाजना
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ध्यययनाध्यापनप्रग्रहप्रसङ्गात् विविधानि कर्माणि कुर्वन्ति । न च ते भवतां ब्राह्मणाः सम्मताः । तस्मात् कर्मणाऽपि ब्राह्मणो न भवति ।
वेदेनाऽपि ब्राह्मणो न भवति । कस्मात् ? रावणो नाम राक्षसोऽभूत् । तेनाऽधीताः चत्वारो वेदाः - ऋग्यजुःसामअथर्वणाश्चेति । राक्षसानामपि गृहे वेदव्यवहारः प्रवर्तते एव । न च ते ब्राह्मणाः स्युः । अतो मन्यामहे वेदेनाऽपि ब्राह्मणो न भवति ।
किं तर्हि ब्राह्मणत्वं भवति ? उच्यते
ब्राह्मणत्वं न शास्त्रेण, न संस्कारैर्न जातिभिः ।
न कुलेन न वेदैश्च, न तथा कर्मणा भवेत् । ततः कुन्देन्दुधवलं ब्राह्मण्यं सर्वपापस्याऽकारणमिति । उक्तं - व्रततपोनियमोपवासदानदमशमसंयमाचाराच्च । तथा चोक्तं वेदे -
“निर्ममो निरहङ्कारो, निःसङ्गो निःपरिग्रहः ।
रागद्वेषविनिर्मुक्त-स्तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥" सर्वशास्त्रेऽप्युक्तं -
"सत्यं ब्रह्म तपो ब्रह्म, ब्रह्म वेन्द्रियनिग्रहः । सर्वभूतदया ब्रह्म, एतद् ब्राह्मणलक्षणम् ॥ सत्यं नाऽस्ति तपो नाऽस्ति, नाऽस्ति चेन्द्रियनिग्रहः । सर्वभूतदया नाऽस्ति, एतत् चाण्डाललक्षणम् ॥ देवमानवनारीणां, तिर्यग्योनिगतेष्वपि ।
मैथुनं नाऽधिगच्छन्ति, ते विप्राः समुदाहृताः ॥” इति । शक्रेणाऽप्युक्तं -
"न जातिर्दृश्यते तावद्, गुणाः कल्याणकारकाः ।
चण्डालोऽपि व्रतस्थश्चेद्, तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥" तस्माद् न जातिर्न जीवो न शरीरं न ज्ञानं नाऽऽचारो न कर्म न वेदो ब्राह्मण इति ।
अन्यच्च भवतां चोक्तं - इह शूद्राणां प्रव्रज्या न विधीयते, ब्राह्मण
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शुश्रूषयैव तेषां धर्मो भवति । चतुर्पु वर्णेष्वन्ते भणनात् ते नीचा इति । यद्यैवं, इन्द्रोऽपि नीचः स्यात् । 'श्वयुवमघोनां' च सूत्रकरणात्, श्वा इति कुक्कुरः, युवा इति पुरुषः, मघवा इति सुरेन्द्रः । तयोः श्व-पुरुषयोरिन्द्र एव नीचः स्यात् । न चैतदिष्टं, किं वचनमात्रेण दोषो भवति ? तथाच - उमामहेश्वरौ, काकमयूरौ, दन्तौष्ठमिति लोकैः प्रयुज्यते । न च दन्ताः प्रागुत्पन्नाः उमा वा । केवलं वर्णसमासमात्रं क्रियते ब्राह्मणक्षत्रियविट्शूद्रा इति । तस्माद् या भवदीया प्रतिज्ञा 'ब्राह्मणशुश्रूषयैव तेषां धर्मो भवति' सा व्याहता । किं वाऽनिश्चितोऽयं ब्राह्मणप्रसङ्गः । उक्तं हि मानवे धर्मे -
"वृषलाफेनपीनस्य, निःश्वासोपहतस्य च । तत्रैव च प्रसूतस्य, ब्रह्मत्वं नोपलभ्यते ॥१॥ शूद्रीहस्तेन यो भुङ्क्ते, मासमेकं निरन्तरम् । जीवमानो भवेत् शूद्रो, मृतः श्वा स तु जायते ॥२॥ शूद्रीपरिवृतो विप्रः, शूद्री च गृहमेधिनी । वर्जितः पितृदेवाभ्यां, रौरवं सोऽधिगच्छति ॥३॥"
ततोऽमुष्य वचनस्य प्रामाण्यादनियतो ब्राह्मणप्रसङ्गः ।
किं चाऽन्यत् ? शूद्रोऽपि ब्राह्मणो भवति । को हेतुः ? इतीह मानवे धर्मेऽभिहितं -
"अरण्यागर्भसम्भूतः, कठिनो नाम महामुनिः । तपसा ब्राह्मणो जातः, तस्माद् जातिरकारणम् ॥१॥ हरिणीगर्भसम्भूत, ऋषिशृङ्गो महामुनिः । तपसा ब्राह्मणो जातः, तस्माद् जातिरकारणम् ॥२॥ कच्छपीगर्भसम्भूतो, नारदोऽथ महामुनिः ।। तपसा ब्राह्मणो जातः, तस्माद् जातिरकारणम् ॥३॥ ब्रह्मचर्येण ब्राह्मणः (?) न चैते ब्राह्मणीपुत्रा-स्ते लोके ब्राह्मणाः स्मृताः । शीलशौचमयं ब्रह्म, तस्मात् कुलमकारणम् ॥४॥ शीलं प्रधानं न कुलं प्रधानं, कुलेन किं शीलविवजितेन ?। एके नरा नीचकुले प्रसूताः, स्वर्गं गताः शीलमुपेत्य धीराः ॥५॥
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के पुनस्ते ? कठिन-व्यास - वशिष्ठ - ऋषिशृङ्ग-विश्वामित्रप्रभृतयो ब्रह्मऋषयो नीचकुले प्रसूताः च लोकस्य ब्राह्मणाः । तस्मादस्य वचनस्य प्रामाण्यादनियतोऽयं ब्राह्मणप्रसङ्गः । इति शूद्रकुलेऽपि ब्राह्मणो भवति । किं चाऽन्यद् भवदीयं मतम् ?
“मुखतो ब्राह्मणा जाताः, बाहुभ्यां क्षत्रियः श्रुतः । ऊरुभ्यां वैश्यः सञ्जातः, पद्भ्यां शूद्रस्य सम्भवः ॥"
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अत्रोच्यते ब्राह्मणा बहवः । न ज्ञायन्ते कतरे मुखतो जाता ब्राह्मणा: ? इह हि कैवर्तरजकचाण्डालकुलेष्वपि ब्राह्मणाः सन्ति । तेषामपि बोडाकरण-मुञ्जकाण्ठादिभिः संस्काराः क्रियन्ते । तेषामपि ब्रह्मसंज्ञा क्रियते । तस्मादपि ब्राह्मणबहुत्वादपि पश्यामः एकवर्णोऽयं नाऽस्ति चातुर्वर्ण्यमिति । अपि च एकपुरुषोत्पन्नानां कथं चातुर्वर्ण्यम् ? इह कश्चिद् देवदत्त एकस्याः स्त्रियः चतुरः पुत्रान् जनयति, न च तेषां वर्णभेदोऽस्ति अयं ब्राह्मणः, अयं क्षत्रियः अयं वैश्यः अयं शूद्र इति । कस्मात् ? एकपितृत्वात् । एवं ब्राह्मणादीनां कथं चातुर्वर्ण्यम् ?
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इह हि गोहस्त्यश्वमृगसिंहव्याघ्रादीनां पदविशेषाः दृष्टाः गोपदमिदं हस्तिपदमिदमश्वपदमिदं मृगपदमिदं सिंहपदमिदम् । न च ब्राह्मणादीनामिदं ब्राह्मणपदमिदं क्षत्रियपदमिदं वैश्यपदमिदं शूद्रपदम् । अतः पदविशेषाभावादपि पश्यामः एकवर्णोऽयं नाऽस्ति चातुर्वर्ण्यम् ।
इह गोमहिषाश्वकुञ्जरखरवानरछागएडकादीनां भगलिङ्गसंस्थानमलगन्धध्वनिविशेषो दृष्टो, न तु ब्राह्मणक्षत्रियादीनाम् । अतोऽप्यविशेषादेकवर्ण इति । अपि च यथा हंसपारापतशुककोकिलशिखण्डिप्रभृतीनां रूपवर्णलोमतुण्डविशेषो दृष्टः, न च तथा ब्राह्मणादीनाम् । अतोऽप्येकवर्ण इति । तथा च वटबकुल– पलाशाशोकतमालनागकेसरशिरीषचम्पकप्रभृतीनां वृक्षाणां विशेषो दृष्टः, यद्वत् दण्डतश्च पत्रतश्च पुष्पतश्च फलतश्च त्वगस्थिबीजरसगन्धतश्च । न तथा ब्राह्मणक्षत्रियविट्शूद्रानामङ्गप्रत्यङ्गविशेषः । न च त्वगुधिरमांसास्थिशुक्रमलवर्णसंस्थानविशेषो वाऽपि प्रसवविशेषो दृश्यते । अतोऽप्यविशेषादेकवर्णो भवति । अपि च भो ब्राह्मण! सुखदुःखजीवितबुद्धिव्यापारव्यवहारमरणोत्पत्तिभयमैथुनोपचारसमतया नाऽस्त्येव विशेषो ब्राह्मणादीनाम् ।
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इदं चाऽवगम्यताम् । यथैकवृक्षोत्पन्नानां फलानां नाऽस्ति वर्णभेदः, तथैकपुरुषोत्पन्नानां पुरुषाणां नाऽस्ति भेदः, उदुम्बरपनसफलवत् । उदुम्बरस्य हि पनसस्य च फलानि कानिचित् शाखातो भवन्ति, कानिचिद् दण्डतः, कानिचित् स्कन्धतः, कानिचिद् मूलतः । न च तेषां भेदोऽस्ति । इदं ब्रह्मफलमिदं क्षत्रियफलमिदं वैशफलमिदं शूद्रफलमिति एकपुरुषोत्पन्नत्वाद् नाऽस्ति भेदः ।
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एकपुरुषोत्पन्नत्वादन्यच्च दूषणं भवति । यदि मुखतो ब्राह्मणा जाता:, ब्राह्मण्याः कुत उत्पत्ति: ? मुखादेव इति चेत् । हन्त ! तर्हि भवतां भगिनीग्रहप्रसङ्गः स्यात् । तथा अगम्यागमनं संभाव्यते । तच्च लोकविरुद्धम् । तस्मादपनीयते एव ब्राह्मण्यम् ।
क्रियाविशेषेण चातुर्वर्ण्यव्यवस्था क्रियते । तथाच युधिष्ठिराध्युषितेन वैशम्पायनेनाऽभिहितं क्रियाविशेषतः चातुर्वर्ण्यमिति ।
“पाण्डोस्तु विश्रुतः पुत्रः, स वै नाम्ना युधिष्ठिरः । वैशम्पायनमागम्य, प्राञ्जलिः परिपृच्छति ॥१॥ के के नु ब्राह्मणाः प्रोक्ता: ?, किं चाऽब्राह्मणलक्षणम् ? । एतदिच्छामि विज्ञातुं, तद् भवान् व्याकरोतु मे ॥२॥"
वैशम्पायन उवाच
‘“क्षान्त्यादिभिर्गुणैर्युक्त-स्त्यक्तदण्डो निरामिष" इत्यादि । “न कुलेन न जात्या च क्रियाभिर्ब्राह्मणो न च । चण्डालोऽपि व्रतस्थश्चेद्, ब्राह्मणः स युधिष्ठिर ! ॥१॥ अहिंसा ब्रह्मचर्यं च, विशुद्ध्या च प्रतिग्रहः । फलेन न समर्थश्चेद्, ब्राह्मणः स युधिष्ठिर ! ॥२॥ " किं वैशम्पायनेनोक्तं ?
"एकवर्णमिदं सर्वं, पूर्वमासीद् युधिष्ठिर! । क्रियाकर्मविशेषेण, चातुर्वर्ण्यं व्यवस्थितम् ॥१॥ सर्वे वै योनिजा मर्त्याः, समांसाः सपुरीषिणः । एकेन्द्रियार्थाश्च तथा, तस्मात् शीलगुणैर्द्विजाः ॥२॥
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शूद्रोऽपि शीलसम्पन्नो, गुणवान् द्विज उच्यते ।। ब्राह्मणोऽपि क्रियाहीनः, शूद्रापत्यसमो भवेत् ॥३॥ पञ्चेन्द्रियार्णवं घोरं, यदि शूद्रोऽपि तीर्णवान् । तस्मै दानं प्रदातव्य-मप्रमेयं युधिष्ठिर! ॥४॥ न जातिर्दृश्यते राजन्!, गुणाः कल्याणकारकाः । जीवितं यस्य नाऽऽत्मार्थं, धर्मार्थं तस्य जीवितम् । अहोरात्रं चरेत् क्षान्ति, तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥५॥ परित्यज्य गृहावासं, ये स्थिता मोक्षकाक्षिणः । कामेष्वसक्ताः कौन्तेय!, ब्राह्मणास्ते युधिष्ठिर! ॥६॥ अहिंसा निर्ममत्वं च, आत्मकृत्यस्य वर्जनम् । रागद्वेषनिवृत्तिश्च, एतद् ब्राह्मणलक्षणम् ।७।। गायत्रीमात्रसारोऽपि, वरं विप्रः सुयन्त्रितः । नाऽऽधीत्य चतुरो वेदान्, सर्वाशीः सर्वविक्रयी ॥८॥ एकरात्रोषितस्याऽपि, या गतिर्ब्रह्मचारिणः । न सा क्रतुसहस्रेण, प्राप्तुं शक्या युधिष्ठिर! ॥९॥ पारगं सर्ववेदानां, सर्वतीर्थाभिषेचकम् । युक्तश्चरति यो धर्म, तं देव ब्राह्मणं विदुः ॥१०॥ यदा न कुरुते पापं, सर्वभूतेषु दारुणम् । कायेन मनसा वाचा, ब्रह्म संपद्यते तदा ॥११॥" अस्माभिरुक्तं यदिदं द्विजानां, मोहं निहन्तुं हतबुद्धिकानाम् ।
गृह्णन्तु सन्तो यदियुक्तमेतत्, मुञ्चन्तु वाऽयुक्तमिदं यदि स्यात् ॥ कृतिरियं बौद्धभिक्षुपण्डितश्रीसिद्धाचार्य-अश्वघोषपादानां वज्रशूचीप्रकरणमिति ॥
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पउमचरियं : एक सर्वेक्षण (रामकथा का प्राचीन एवं उत्कृष्ट जैनग्रन्थ)
प्रो. सागरमल जैन
रामकथा की व्यापकता
राम और कृष्ण भारतीय संस्कृति के प्राण - पुरुष रहे हैं । उनके जीवन, आदर्शो एवं उपदेशो ने भारतीय संस्कृति को पर्याप्त रूप से प्रभावित किया है। भारत एवं भारत के पूर्वी निकटवर्ती देशो में आज भी राम कथा के मंचन की परम्परा जीवित है । हिन्दू, जैन और बौद्ध धर्म परम्परा में रामकथा सम्बन्धी प्रचुर उल्लेख पाये जाते है । राम - कथा सम्बन्धी ग्रन्थों में वाल्मीकि रामायण प्राचीनतम ग्रन्थ है । यह ग्रन्थ हिन्दू परम्परा में प्रचलित राम-कथा का आधार ग्रन्थ है । इसके अतिरिक्त संस्कृत में रचित पद्मपुराण और हिन्दी में रचित रामचरितमानस भी राम - कथा सम्बन्धी प्रधान ग्रन्थ है, जिन्होंने हिन्दू जन-जीवन को प्रभावित किया है । जैन परम्परा में रामकथा सम्बन्धी ग्रन्थों में प्राकृत भाषा में रचित विमलसूरि का 'पउमचरियं' एक प्राचीनतम प्रमुख ग्रन्थ है । लेखकीय प्रशस्ति के अनुसार यह ई. सन् की प्रथम शती की रचना है । वाल्मीकि की रामायण के पश्चात् रामकथा सम्बन्धी ग्रन्थों में यही प्राचीनतम ग्रन्थ है । संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं हिन्दी में रचित रामकथा सम्बन्धी ग्रन्थ इसके परवर्ती ही है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, कन्नड़ एवं हिन्दी में जैनों का रामकथा सम्बन्धी साहित्य विपुल मात्रा में है, जिसकी चर्चा हम आगे विस्तार से करेंगे । बौद्ध परम्परा में रामकथा मुख्यतः जातक कथाओं में वर्णित है । जातक कथाएँ मुख्यतः बोधिसत्त्व के रूप में बुद्ध के पूर्वभवों की चर्चा करती है । इन्हीं में दशरथ जातक में रामकथा का उल्लेख है । बौद्ध परम्परा में रामकथा सम्बन्धी कौन-कौन से प्रमुख ग्रन्थ लिखे गये इसकी जानकारी का अभाव ही है । रामकथा सम्बन्धी जैन साहित्य :
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जैन साहित्यकारों ने विपुल मात्रा में रामकथा सम्बन्धी ग्रन्थों की रचना
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की है, इनमें दिगम्बर लेखकों की अपेक्षा श्वेताम्बर लेखक और उनके ग्रन्थ अधिक रहे हैं। जैनों में रामकथा सम्बन्धी प्रमुख ग्रन्थ कौन से रहे हैं, इसकी सूची निम्नानुसार है -
भाषा
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चउपन्न
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ग्रन्थ लेखक
काल पउमचरियं । विमलसूरि (श्वे.)| प्राकृत | प्रायः ईसा की दूसरी शती वसुदेवहिण्डी | संघदासगणि(श्वे.) प्राकृत | ईस्वीसन् ६०९ पद्मपुराण रविषेण (दि.) | संस्कृत | ईस्वीसन् ६७८ पउमचरिउ स्वयम्भू (दि.) | अपभ्रंश | प्रायः ई.सन् ८वीं शती
(मध्य) शीलाङ्क (श्वे.)| प्राकृत | ई. सन् ८६८ ।। महापुरिसचरियं
उत्तरपुराण गुणभद्र (दि.) | संस्कृत | ई.सन् प्राय ९वीं शती बृहत्कथाकोष हरिषेण (दि.) | संस्कृत | ई.सन् ९३१-९३२ महापुराण पुष्पदन्त (दि.) | अपभ्रंश | ई. सन् ९६५
कहावली भद्रेश्वर (श्वे.) प्राकृत | प्रायः ई.सन् ११वीं शती त्रिषष्टिशलाका- | हेमचन्द्र (श्वे.) | संस्कृत | प्रायः ई.सन् १२वीं शती
पुरुषचरित ११ योगशास्त्र-स्वोपज्ञ | हेमचन्द्र (श्वे.) | संस्कृत प्रायः ई.सन् १२वीं शती
वृत्ति शत्रुञ्जयमाहात्म्य | धनेश्वरसूरि(श्वे.) | संस्कृत | प्रायः ई.सन् १४वीं शती पुण्यचन्द्रोदय- | कृष्णदास (दि.) संस्कृत | ई.सन् १५२८
पुराण
रामचरित देवविजयगणि(श्वे.) संस्कृत | ई.सन् १५९६ १५ लघुत्रिषष्टिशलाका- मेघविजय (श्वे.) संस्कृत | ई.सन् की १७वी शती
पुरुषचरित
इनमें एकाध अपवाद को छोडकर शेष सभी ग्रन्थ प्रायः प्रकाशित है । इनके अतिरिक्त भी रामकथा सम्बन्धी अनेक हस्तलिखित प्रतियों का
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उल्लेख जिनरत्नकोश में मिलता है, जिनकी संख्या ३० से अधिक है । इनमें हनुमानचरित, सीताचरित आदि भी सम्मिलित है । विस्तारभय से यहां इन सबकी चर्चा अपेक्षित नहीं है। आधुनिक युग में भी हिन्दी में अनेक जैनाचार्यों ने रामकथा सम्बन्धी ग्रन्थों की रचना की है। इनमें स्थानकवासी जैन संत शुक्लचन्द्रजी म. की 'शुक्लजैनरामायण' तथा आचार्य तुलसी की 'अग्निपरीक्षा' अति प्रसिद्ध है। जैनों में रामकथा की दो प्रमुख धाराएँ -
वैसे तो अवान्तर कथानकों की अपेक्षा जैन परम्परा में भी रामकथा के विविध रूप मिलते है । जैन परम्परा में भी लेखकों ने प्रायः अपनी अपनी दृष्टि से रामकथानक को प्रस्तुत किया है। फिर भी जैनों में रामकथा की दो धाराए लगभग प्राय ईसा की ९वीं शताब्दी से देखी जाती है - १. विमलसूरि की रामकथा धारा और २. गुणभद्र की रामकथा धारा । सम्प्रदायों की अपेक्षा-अचेल यापनीय एवं श्वेताम्बर विमलसूरि की रामकथा की धारा का अनुसरण करते रहे, जबकि दिगम्बर धारा में भी मात्र कुछ आचार्यों ने ही गुणभद्र की धारा का अनुसरण किया । श्वेताम्बर परम्परा में संघदासगणि एवं यापनीयो में रविशेष, स्वयम्भू एवं हरिषेण भी मुख्यतः विमलसूरि के 'पउमचरिय' का ही अनुसरण करते हैं, फिर भी संघदासगणि के कथानकों में कहीं कहीं विमलसूरि से मतभेद भी देखा जाता है । रामकथा सम्बन्धी प्राकृत ग्रन्थों में शीलाङ्क चउपन्नमहापुरिसचरियं में, हरिभद्र धूर्ताव्याख्यान में
और भद्रेश्वर कहावली में, संस्कृत भाषा में रविषेण पद्मपुराण में, दिगम्बर अमितगति धर्मपरीक्षा में, हेमचन्द्र योगशास्त्र की स्वोपज्ञवृत्ति में तथा त्रिषष्टिशलाकापुरूषचरित्र में, धनेश्वर शत्रुञ्जयमाहात्म्य में, देवविजयगणि 'रामचरित' (अप्रकाशित) और मेघविजयगणि लघुत्रिषष्टिशलाकापुरूषचरित्र (अप्रकाशित) में प्रायः विमलसूरि का अनुसरण करते है। अपभ्रंश में स्वयम्भू 'पउमचरिउ' में भी विमलसूरि का ही अनुसरण करते है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि रविषेण का 'पद्मपुराण' (संस्कृत) और स्वयम्भू का पउमचरिउ (अपभ्रंश) चाहे भाषा की अपेक्षा भिन्नता रखते हो, किन्तु ये दोनों ही विमलसूरि के पउमचरियं का संस्कृत या अपभ्रंश रूपान्तरण ही लगते है ।
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गुणभद्र के उत्तरपुराण की रामकथा का अनुसरण प्रायः अल्प ही हुआ है । मात्र कृष्ण के संस्कृत के पुण्यचन्द्रोदयपुराण में तथा अपभ्रंश के पुष्पदन्त के महापुराण में इसका अनुसरण देखा जाता है । विमलसूरि की रामकथा का वैशिष्ट्य -
विमलसूरि ने अपनी रामकथा में कुछ स्थितियों में वाल्मीकि का अनुसरण किया हो, किन्तु वास्तविकता यह है कि उन्होंने जैन परम्परा में पूर्व से प्रचलित रामकथा धारा के साथ समन्वय करते हुए हिन्दू धारा की रामकथा के युक्ति-युक्त करण का प्रयास अधिक किया है। सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि विमलसूरि के समक्ष वाल्मीकि रामायण के साथ-साथ समवायाङ्ग का वह मूलपाठ भी रहा होगा जिसमें लक्ष्मण (नारायण) की माता को केकई बताया गया था । लेखक के सामने मूल प्रश्न यह था कि आगम की प्रामाणिकता को सुरक्षित रखते हुए, वाल्मीकि के साथ किस प्रकार समन्वय किया जाये । यहाँ उसने एक अनोखी सूझ से काम लिया, वह लिखता है कि लक्ष्मण की माता का पितृगृह का नाम तो कैकेयी था, किन्तु विवाह के पश्चात् दशरथ ने उसका नाम परिवर्तन कर उसे 'सुमित्रा' नाम दिया। पउमचरियं में भरत की माता को भी ‘केकई' कहा गया है। वाल्मीकि रामायण से भिन्न इस ग्रन्थ की रचना का मुख्य उद्देश्य काव्यानन्द की अनुभूति न होकर, कथा के माध्यम से धर्मोपदेश देना है । ग्रन्थ के प्रारम्भ में श्रेणिकचिन्ता नामक दूसरे उद्देशक में इसका उद्देश्य रामकथा में आई असंगतियों तथा कपोल-कल्पनाओं का निराकरण बताया गया है। यह बात सुस्पष्ट है कि यह रामकथा का उपदेशात्मक जैन संस्करण है और इसलिये इसमें यथासम्भव हिंसा, घृणा, व्यभिचार आदि दुष्प्रवृत्तियों को न उभार कर सद्प्रवृत्तियों को ही उभारा गया है । इसमें वर्ण-व्यवस्था पर भी बल नहीं दिया गया है । यहाँ शम्बूक-वध का कारण शूद्र की तपस्या करना नहीं है। चन्द्रहास खड्ग की सिद्धि के लिये बांसो के झुरमुट में साधनारत शम्बूक का लक्ष्मण के द्वारा अनजान में ही मारा जाना है । लक्ष्मण उस पूजित खड्ग को उठाते हैं और परीक्षा हेतु बांसों के झुरमुट पर चला देते हैं, जिससे शम्बूक मारा जाता है । इस प्रकार जहाँ वाल्मीकि रामायण में शम्बूक वध की कथा
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वर्ण-विद्वेष का खुला उदाहरण है, वहाँ पउमचरियं का शम्बूक वध अनजान में हुई एक घटना मात्र है । पुनः कवि ने राम के चरित्र को उदात्त बनाये रखने हेतु शम्बूक और रावण का वध राम के द्वारा न करवाकर लक्ष्मण के द्वारा करवाया है | बालि के प्रकरण को भी दूसरे ही रूप में प्रस्तुत किया गया है । बालि सुग्रीव को राज्य देकर संन्यास ले लेते है । दूसरा कोई विद्याधर सुग्रीव का रूप बनाकर उसके राज्य एवं अन्तःपुर पर कब्जा कर लेता है । सुग्रीव राम की सहायता की अपेक्षा करता है और राम उसकी सहायता कर उस नकली सुग्रीव का वध करते है । यहाँ भी सुग्रीव के कथानक में से भ्रातृ-पत्नी से विवाह की घटना को हटाकर उसके चरित्र को उदात्त बनाया गया है । इसी प्रकार कैकेयी भरत हेतु राज्य की मांग राम के प्रति विद्वेष के कारण नहीं, अपितु भरत को वैराग्य लेने से रोकने के लिये करती है । राम भी पिता की आज्ञा से नहीं अपितु स्वेच्छा से ही वन को चल देते हैं ताकि वे भरत को राज्य पाने में बाधक न रहे । इसी प्रकार विमलसूरि के पउमचरियं में कैकेयी के व्यक्तित्व को भी ऊँचा उठाया गया है । वह न तो राम के वनवास की मांग करती है और न उनके स्थान पर भरत के राज्यारोहण की । वह अन्त में संन्यास ग्रहण कर मोक्षगामी बनती है । न केवल यही, अपितु सीताहरण के प्रकरण में भी मृगचर्म हेतु स्वर्णमृग मारने के सीता के आग्रह की घटना को भी स्थान न देकर राम एवं सीता के चरित्र को निर्दोष और अहिंसामय बनाया गया है । रावण के चरित्र को उदात्त बनाने हेतु यह बताया गया है कि उसने किसी मुनि के समक्ष यह प्रतिज्ञा ले रखी थी कि मैं किसी परस्त्री का, उसकी स्वीकृति के बिना शील भङ्ग नहीं करूँगा । इसलिये वह सीता को समझाकर सहमत करने का प्रयत्न करता रहता है, बलप्रयोग नहीं करता है । पउमचरियंमें मांस भक्षण के दोष दिखाकर सामिष भोजन से जन-मानस को विरत करना भी जैनधर्म की अहिंसा की मान्यता के प्रसार का ही एक प्रयत्न है । ग्रन्थ में वानरों एवं राक्षसों को विद्याधरवंश के मानव बताया गया है, साथही यह भी सिद्ध किया गया है कि वे कला-कौशल और तकनीक में साधारण मनुष्यों से बहुत बढ़े - चढ़े थे । वे पादविहारी न होकर विमानों में विचरण करते थे । इस प्रकार इस ग्रन्थ में विमलसूरि ने अपने युग में प्रचलित रामकथा को अधिक युक्तिसंगत
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और धार्मिक बनाने का प्रयास किया है । विमलसूरिकी रामकथासे अन्य जैनाचार्यों का वैभिन्य एवं समरूपता :
विमलसूरि के पउमचरियं के पश्चात् जैन रामकथा का एक रूप संघदास गणी (छठ्ठी शताब्दी) की वसुदेवहिण्डी में मिलता है । वसुदेवहिण्डी की रामकथा कुछ कथा-प्रसंगो के सन्दर्भ में पउमचरियं की रामकथा के भिन्न है और वाल्मीकि रामायण के निकट है । इसकी विशेषता यह है कि इसमें सीता को रावण और मन्दोदरी की पुत्री बताया गया है, जिसे एक पेटी में बन्द कर जनक के उद्यान में गड़वा दिया गया था, जहा से हल चलाते समय जनक को उसकी प्राप्ति हुई थी। इस प्रकार यहाँ सीता की कथा को तर्कसंगत बनाते हुए भी उसका साम्य भूमि से उत्पन्न होने की धारणा के साथ जोड़ा गया है । इस प्रकार हम देखते है कि संघदासगणी ने रामकथा को कुछ भिन्न रूप से प्रस्तुत किया है । जबकि अधिकांश श्वेताम्बर लेखको ने विमलसूरि का ही अनुसरण किया है । मात्र यही नहीं, यापनीय परम्परा में पद्मपुराण के रचियता रविसेन (७वीं शताब्दी) और अपभ्रंश पउमचरियं के रचयिता यापनीय स्वयम्भू (७वीं शती) ने भी विमलसूरि का ही पूरी तरह अनुकरण किया है । पद्मपुराण तो पउमचरियं का ही विकसित संस्कृत रूपान्तरण मात्र है । यद्यपि उन्होंने उसे अचेल परम्परा के अनुरूप ढालने का प्रयास किया
आठवीं शताब्दी में हरिभद्र ने अपने धूर्ताख्यान में और नवीं शताब्दी में शीलाङ्काचार्य ने अपने ग्रन्थ 'चउपन्नमहापुरिसचरियं' में अति संक्षेप में रामकथा को प्रस्तुत किया है । भद्रेश्वर (११वीं शताब्दी) की कहावली में भी रामकथा का संक्षिप्त विवरण उपलब्ध हैं। तीनों ही ग्रन्थकार कथा विवेचन में विमलसूरि की परम्परा का पालन करते हैं । इन तीनों के द्वारा प्रस्तुत रामकथा विमलसूरि से किस अर्थ में भिन्न है यह बता पाना इनके संक्षिप्त रूप के कारण कठिन है । यद्यपि भद्रेश्वरसूरि ने सीता के द्वारा सपत्नियों के आग्रह पर रावण के पैर का चित्र बनाने के उल्लेख किया । ये तीनों ही रचनाएँ प्राकृत भाषा में है । १२वीं शताब्दी में हेमचन्द्र ने अपने ग्रन्थ योगशास्त्र की स्वोपज्ञवृत्ति में तथा त्रिषष्टिशलाकापुरूषचरित्र में संस्कृत भाषा
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में रामकथा को प्रस्तुत किया है । त्रिषष्टिशलाकापुरूषचरित्र में वर्णित रामकथा
का स्वतन्त्र रूप से भी प्रकाशन हो चुका है । हेमचन्द्र सामान्यतया तो विमलसूरि की रामकथाका ही अनुसरण करतें हैं, किन्तु उन्होंने सीता का वनवास का कारण, सीता के द्वारा रावण का चित्र बनाना बताया है । यद्यपि उन्होंने इस प्रसंग के सिवा शेष सारे कथानक में पउमचरियं का ही अनुसरण किया है, फिर भी सौतियाडाह के कारण राम की अन्य पत्नियों ने सीता से रावण का चित्र बनवाकर, उसके सम्बन्ध में लोकापवाद प्रसारित किया, ऐसा मनोवैज्ञानिक आधार पर प्रस्तुत कर दिया है । इस प्रसंग में हेमचन्द्र, भद्रेश्वरसूरि की कहावली का अनुसरण करते है और इस प्रसंग में धोबी के लोकापवाद को छोड़ देते है । चौदहवीं शताब्दी में धनेश्वर ने शत्रुञ्जयमाहात्म्य में भी रामकथा का विवरण दिया है । यद्यपि इन ग्रन्थों की अनुपलब्धता के कारण इनका विमलसूरि से कितना साम्य और वैषम्य है, यह बता पाना मेरे लिए सम्भव नहीं है । पउमचरियं की भाषा एवं छन्द योजना :
सामान्यतया 'पउमचरियं' प्राकृत भाषा में रचित काव्य ग्रन्थ है, फिर भी इसकी प्राकृत मागधी,अर्धमागधी, शौरसेनी, पैशाची और महाराष्ट्री प्राकृतों में कौन सी प्राकृत है, यह एक विचारणीय प्रश्न है । यह तो स्पष्ट है कि इसका वर्तमान संस्करण मागधी, अर्धमागधी और शौरसेनी प्राकृत की अपेक्षा महाराष्ट्री प्राकृत से अधिक नैकट्य रखता है, फिर भी इसे परवर्ती महाराष्ट्री प्राकृत से अलग रखना होगा । इस सम्बन्ध में प्रो. व्ही.एम.कुलकर्णी ने पउमचरियं की अपनी अंग्रेजी प्रस्तावना में अतिविस्तार से एवं प्रमाणो सहित चर्चा की है । उसका सार इतना ही है कि पउमचरियं की भाषा परवर्ती महाराष्ट्री प्राकृत न होकर प्राचीन महाराष्ट्री प्राकृत है । वह सामान्य महाराष्ट्री प्राकृत का अनुसरण न करके जैन महाराष्ट्री प्राकृत का अनुसरण करती है, अतः उसका नैकट्य आगमिक अर्धमागधी से भी देखा जाता है । वे लिखते है कि “Paumachariya, which represents an archaic form of jain maharastri'' पउमचरियं की भाषा की प्राचीनता इससे भी स्पष्ट हो जाती है कि उसमें प्रायः गाथा (आर्या) छन्द की प्रमुखता है, जो एक प्राचीन और
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सरलतम छन्द योजना है । गाथा या आर्या छन्द की प्रमुखता होते हुए भी पउमचरियं में स्कन्धक, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उपजाति आदि अनेक छन्दों के प्रयोग भी मिलते है, फिर भी ये गाथा/ आर्या छन्द की अपेक्षा अति अल्प मात्रा में प्रयुक्त हुए है । मेरी दृष्टि में इसकी भाषा और छन्द योजना का नैकट्य आगमिक व्याख्या साहित्य में निर्युक्ति साहित्य से अधिक है । इसकी भाषा और छन्द योजना से यह सिद्ध होता है कि इसका रचनाकाल दूसरी-तीसरी शती से परवर्ती नहीं है ।
पउमचरियं का रचनाकाल
किया है
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पउमचरियं में विमलसूरि ने इसके रचनाकाल का भी स्पष्ट निर्देश
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पंचेव य वाससया दुसमाए तीस वरिस संजुत्ता । वीरे सिद्धिमुवगए तओ निबद्धं इमं चरियं ॥
अर्थात् दुसमा नामक आरे के पाँच सौ तीस वर्ष और वीर का निर्वाण होने पर यह चरित्र लिखा गया । यदि हम लेखक के इस कथन को प्रामाणिक मानें तो इस ग्रन्थ की रचना विक्रम संवत् ६० के लगभग मानना होगी । महावीर का निर्वाण दुसमा नामक आरे के प्रारम्भ होने से लगभग ३ वर्ष और ९ माह पूर्व हो चुका था अतः इसमें चार वर्ष और जोड़ना होगे । मतान्तर से महावीर का निर्वाण विक्रम संवत् के ४१० वर्ष पूर्व भी माना जाता है, इस सम्बन्ध में मैंने अपने लेख “Date of Mahavira's Nirvana” में विस्तार से चर्चा की है । अत: उस दृष्टि से पउमचरियं की रचना विक्रम संवत् १२४ अर्थात् विक्रम संवत् की दूसरी शताब्दी के पूर्वार्ध में हुई होगी मेरी दृष्टि में पउमचरियं का यही रचनाकाल युक्ति-संगत सिद्ध होता है । क्योंकि ऐसा मानने पर लेखक के स्वयं के कथन से संगति होने के साथसाथ उसे परवर्ती काल का मानने के सम्बन्ध में जो तर्क दिये गये है वे भी निरस्त हो जाते है । हरमन जेकोबी, स्वयं इसकी पूर्व तिथि २ री या ३ री शती मानते है, उनके मत से यह मत अधिक दूर भी नहीं है । दूसरे विक्रम की द्वितीय शताब्दी पूर्व ही शकों का आगमन हो चुका था अत:
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इसमें प्रयुक्त लग्नों के ग्रीक नाम तथा 'दीनार', यवन, शक आदि शब्दों की उपलब्धि में भी कोई बाधा नही रहती है । यवन शब्द ग्रीकों अर्थात् सिकन्दर आदि का सूचक है जो ईसा पूर्व भारत में आ चुके थे । शकों का आगमन भी विक्रम संवत् के पूर्व हो चुका था, कालकाचार्य द्वारा शकों के भारत लाने का उल्लेख विक्रम पूर्व का है । दीनार शब्द भी शकों के आगमन के साथ ही आ गया होगा। साथ ही नाईल कुल या शाखा भी इस काल में अस्तित्व में आ चुकी थी। इसे मैंने पउमचरियं की परम्परा में सिद्ध किया है। अतः पउमचरियं को विक्रम की द्वितीय शती के पूर्वार्ध में रचित मानने में कोई बाधा नहीं रहती है। विमलसूरि और उनके पउमचरिय का सम्प्रदाय -
यहाँ क्या विमलसूरि व पउमचरियं यापनीय है ? __इस प्रश्न का उत्तर भी अपेक्षित है । विमलसूरि और उनके ग्रन्थ पउमचरियं के सम्प्रदाय सम्बन्धी प्रश्न को लेकर विद्वानों में मतभेद पाया जाता है। जहाँ श्वेताम्बर' और विदेशी विद्वान् पउमचरियं में उपलब्ध अन्तः साक्ष्यों के आधार पर उसे श्वेताम्बर परम्परा का बताते हैं, वहीं पउमचरियं के श्वेताम्बर परम्परा के विरोध में जानेवाले कुछ तथ्यों को उभार कर कुछ दिगम्बर विद्वान उसे दिगम्बर या यापनीय सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं ।३ वास्तविकता यह है कि विमलसूरि के पउमचरियं में सम्प्रदायगत मान्यताओं की दृष्टि से यद्यपि कुछ तथ्य दिगम्बर परम्परा के पक्ष में जाते हैं, किन्तु अधिकांश तथ्य श्वेताम्बर परम्परा के पक्ष में ही जाते हैं । जहाँ हमें सर्वप्रथम इन तथ्यों की समीक्षा कर लेनी होगी। प्रो. वी. एम. कुलकर्णी ने जिन तथ्यों का संकेत प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी से प्रकाशित 'पउमचरियं' की भूमिका में किया है, उन्हीं के आधार पर यहाँ हम यह चर्चा प्रस्तुत करने जा रहे हैं ।
१. पउमचरियं भाग-१, इण्ट्रोडक्सन पेज १८, फुटनोट नं. २ ।। २. वही, ३. देखें, पद्मपुराण (रविषेण), भूमिका, डॉ. पन्नालाल जैन, पृ. २२-२३ ४. पउमचरियं, इण्ट्रोडक्सन (वी.एम. कुलकर्णी), पेज १८-२२ ।
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पउमचरिय की दिगम्बर परम्परा के निकटता सम्बन्धी कुछ तर्क और उनके उत्तर :
___ (१) कुछ दिगम्बर विद्वानों का कथन है कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में सामान्यतया किसी ग्रन्थ का प्रारम्भ- 'जम्बू स्वामी के पूछने पर सुधर्मा स्वामी ने कहा', - इस प्रकार से होता है, आगमों के साथ-साथ कथा ग्रन्थों में यह पद्धति मिलती है, इसका उदाहरण संघदासगणि की वसुदेव हिण्डी है। किन्तु वसुदेवहिण्डी में जम्बू ने प्रभव को कहा- ऐसा भी उल्लेख हैं ।५ जबकि दिगम्बर परम्परा के कथा ग्रन्थों में सामान्यतया श्रेणिक के पूछने पर गौतम गणधर ने कहा- ऐसी पद्धति उपलब्ध होती है । जहाँ तक पउमचरियं का प्रश्न है उसमें निश्चित ही श्रेणिक के पूछने पर गौतम ने रामकथा कही ऐसी ही पद्धति उपलब्ध होती है। किन्तु मेरी दृष्टि में इस तथ्य को पउमचरियं के दिगम्बर परम्परा से सम्बद्ध होने का आधार नहीं माना जा सकता, क्योंकि पउमचरियं में स्त्री मुक्ति आदि ऐसे अनेक ठोस तथ्य हैं, जो श्वेताम्बर परम्परा के पक्ष में ही जाते हैं । यह सम्भव है कि संघभेद के पूर्व उत्तर भारत की निर्ग्रन्थ परम्परा में दोनों ही प्रकार की पद्धतिया समान रूप से प्रचलित रही हो और बाद में एक पद्धति का अनुसरण श्वेताम्बर आचार्यों ने किया हो और दूसरी का दिगम्बर या यापनीय आचार्यों ने किया हो । यह तथ्य विमलसूरि की परम्परा के निर्धारण में बहुत अधिक सहायक इसीलिए भी नहीं होता है कि प्राचीन काल में, श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों में ग्रन्थ प्रारम्भ करने की अनेक शैलियाँ प्रचलित रही हैं । दिगम्बर परम्परा में विशेष रूप से यापनीयों में जम्बू और प्रभव से भी कथा परम्परा के चलने का उल्लेख तो स्वयं पद्मचरितं में ही मिलता है। वही क्रम श्वेताम्बर ग्रन्थ वसुदेवहिण्डी में भी है। श्वेताम्बर परम्परा में भी कुछ ऐसे भी आगम ग्रन्थ हैं, जिनमें ५. ति तस्सेव पभवो कहेयव्वो, तप्पभवस्य य पभवस्य त्ति । वसुदेवहिण्डी (संघदासगणि),
गुजरात साहित्य अकादमी, गांधीनगर पृ. २१ ६. तह इन्दभूइकहियं, सेणियरण्णस्स नीसेसं । - पउमचरियं १, ३३ ७. वर्द्धमानजिनेन्द्रोक्तः सोऽयमर्थो गणेश्वरं । इन्द्रभूति परिप्राप्तः सुधर्म धारिणीभवम् ।। प्रभव क्रमतः कीर्ति ततोनुत्तरवाग्मिनं । लिखितं तस्य सप्राप्य सवेयेत्नोयमुद्गतः ।।
- पद्मचरित १/४१-४२ पर्व १२३/१६६ (नोंध : उद्धरण-पाठ काफी अशुद्ध है -शी.)
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किसी श्राविका के पूछने पर श्रावक ने कहा- इससे ग्रन्थ का प्रारम्भ किया गया है। 'देविन्दत्थव' नामक प्रकीर्णक में श्रावक-श्राविका के संवाद के रूप में ही उस ग्रन्थ का समस्त विवरण प्रस्तुत किया गया है । आचाराङ्ग में शिष्य की जिज्ञासा समाधान हेतु गुरु के कथन से ही ग्रन्थ का प्रारम्भ हुआ है। उसमें जम्बू और सुधर्मा से संवाद का कोई संकेत भी नहीं है । इससे यही फलित होता है कि प्राचीनकाल में ग्रन्थ का प्रारम्भ करने की कोई एक निश्चित पद्धति नहीं थी । श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, स्थानाङ्ग, समवयाङ्ग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, नन्दी, अनुयोगद्वार, दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प आदि अनेक ग्रन्थों में भी जम्बू और सुधर्मा के संवाद वाली पद्धति नहीं पायी जाती है । पद्धतियों कि एकरूपता और विशेष सम्प्रदाय द्वारा विशेष पद्धति का अनुसरण-यह एक परवर्ती घटना है। जबकि पउमचरियं अपेक्षाकृत एक प्राचीन रचना है ।
___ (२) दिगम्बर विद्वानों ने पउमचरियं में महावीर के विवाह के अनुल्लेख (पउमचरियं २/२८-२९ एवं ३/५७-५८) के आधार पर उसे अपनी परम्परा के निकट बताने का प्रयास किया है। किन्तु हमें स्मरण रखना चाहिए कि प्रथम तो पउमचरियं में महावीर का जीवन-प्रसंग अति संक्षिप्त रूप से वर्णित है अतः महावीर के विवाह का उल्लेख न होने से उसे दिगम्बर परम्परा का ग्रन्थ नहीं माना जा सकता है। स्वयं श्वेताम्बर परम्परा के कई प्राचीन ग्रन्थ ऐसे हैं जिनमें महावीर के विवाह का उल्लेख नहीं है । पं. दलसुखभाई मालवणिया ने स्थानाङ्ग एवं समवायाङ्ग के टिप्पण में लिखा है१० कि भगवतीसूत्र के विवरण में महावीर के विवाह का उल्लेख नहीं मिलता है। विवाह का अनुल्लेख एक अभावात्मक प्रमाण है, जो अकेला निर्णायक नहीं माना जा सकता, जब तक कि अन्य प्रमाणों से यह सिद्ध नहीं हो जावे कि पउमचरियं दिगम्बर या यापनीय ग्रन्थ है । ८. देविंदत्थओ (देवेन्द्रस्तव, सम्पादक - प्रो.सागरमल जैन, आगम-अहिंसा-समता
प्राकृत संस्थान उदयपुर) गाथा क्रमांक - ३, ७, ११, १३, १४ । ९. सुयं में आउसं । तेणं भगवया एवमक्खायं । - आचाराङ्ग (सं. मधुकर मुनि), १/
१/१/१ १०. पउमचरियं, इण्ट्रोडक्सन, पृष्ठ १९ का फुटनोट क्र. १ ।
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(३) पुनः पउमचरियं में महावीर के गर्भ-परिवर्तन का उल्लेख नहीं मिलता है, किन्तु मेरी दृष्टि से इसका कारण भी उसमें महावीर की कथा को अत्यन्त संक्षेप में प्रस्तुत करना है । पुनः यहाँ भी किसी अभावात्मक तथ्य के आधार पर ही कोई निष्कर्ष निकालने का प्रयत्न होगा, जो कि तार्किक दृष्टि से समुचित नहीं है।
(४) पउमचरियं में पाँच स्थावरकायों१ के उल्लेख के आधार पर भी उसे दिगम्बर परम्परा के निकट बताने का प्रयास किया गया है। किन्तु हमें यह ध्यान रखना होगा कि स्थावरों की संख्या तीन मानी गई है अथवा पाँच, इस आधार पर ग्रन्थ के श्वेताम्बर या दिगम्बर परम्परा का होने का निर्णय करना सम्भव नहीं है। क्योंकि दिगम्बर परम्परा में जहाँ कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकाय (१११) में तीन स्थावरों की चर्चा की हैं, वहीं अन्य आचार्यो ने पाँच की चर्चा की है। इसी प्रकार श्वेताम्बर परम्परा के उत्तराध्ययन आदि प्राचीन ग्रन्थों में भी, तीन स्थावरों की तथा पाच स्थावरों की - दोनों मान्यताए उपलब्ध होती है । अतः ये तथ्य विमलसूरि और उनके ग्रन्थ की परम्परा के निर्णय का आधार नहीं बन सकते । इस तथ्य की विशेष चर्चा हमने तत्त्वार्थसूत्र की परम्परा के प्रसंग में की है, साथ ही एक स्वतन्त्र लेख भी श्रमण अप्रैल-जून ९३ में प्रकाशित किया है, पाठक इसे वहाँ देखें ।।
(५) कुछ विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि पउमचरियं में १४ कुलकरों की अवधारणा पायी जाती हैं ।१२ दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य ग्रन्थ तिलोयपण्णत्ती में भी १४ कुलकरों की अवधारणा का समर्थन देखा जाता है१३ अतः यह ग्रन्थ दिगम्बर परम्परा का होना चाहिए । किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में अन्तिम कुलकर के रूप में ऋषभ का उल्लेख है । ऋषभ के पूर्व नाभिराय तक १४ कुलकरों की अवधारणा तो दोनों परम्पराओं में समान है। अतः यह अन्तर ग्रन्थ के सम्प्रदाय के निर्धारण में महत्त्वपूर्ण नहीं माना जा सकता है । पुनः जो कुलकरों के नाम पउमचरियं
११. पउमचरियं, २/६५ एवं २/६३ । १२. पउमचरियं, ३/५५-५६ १३. तिलोयपण्णत्ति, महाधिकार गाथा-४२१ (जोवराज ग्रन्थमाला शोलापुर) ।
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में दिये गये है उनका जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति और तिलोयपण्णत्ति दोनों से ही कुछ अन्तर है।
(६) पउमचरियं के १४वें अधिकार की गाथा ११५ में समाधिमरण को चार शिक्षाव्रतों के अन्तर्गत परिगणित किया गया है,१४ किन्तु श्वेताम्बर आगम उपासकदशा में समाधिमरण का उल्लेख शिक्षाव्रतों के रूप में नहीं हुआ है । जबकि दिगम्बर परम्परा के कुन्दकुन्द आदि कुछ आचार्य समाधिमरण को १२वें शिक्षाव्रत के रूप में अङ्गीकृत करते हैं ।१५ अतः पउमचरियं दिगम्बर परम्परा से सम्बन्ध होना चाहिए । इस सन्दर्भ में मेरी मान्यता यह है कि गुणव्रतों एवं शिक्षाव्रतों में एकरूपता का अभाव पाया जाता है ।१६ दिगम्बर परम्परा में तत्त्वार्थ का अनुसरण करने वाले दिगम्बर आचार्य भी समाधिमरण को शिक्षाव्रतों में परिग्रहीत नहीं करते हैं । जबकि कुन्दकुन्द ने उसे शिक्षाव्रतों में परिग्रहीत किया है । जब दिगम्बर परम्परा ही १४. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, यक्षस्कार २ । १५. पंच य अणुव्वयाइं तिण्णेव गुणव्वयाइं भणियाइं । सिक्खावयाणि एत्तो चत्तारि जिणोवइट्ठाणि । थूलयरं पाणिवहं मूसावायं अदत्तदाणं च । परजुवईण निवित्ती संतोसदयं च पंचमयं ।। दिसिविदिसाण य नियमो अणत्थदंडस्स वज्जणं चेव । उवभोगपरीमाणं तिण्णेव गुणव्वया एए ॥ सामाइयं च उववास-पोसहो अतिहिसंविभागो य ।
अंते समाहिमरणं सिक्खासुवयाइ चत्तारि ॥ - पउमचरियं १४/११२-११५ १६. पंचेवणुव्वयाइं गुणव्वयाइं हवंति तह तिण्णि ।
सिक्खावय चत्तारि य संजमचरणं च सायारं ॥ थूले तसकायवहे थूले मोसे अदत्तथूले य । परिहारो परमहिला परिग्गहारंभ परिमाणं ॥ दिसविदिसमाणपढमं अणत्थदण्डस्य वज्जणं विदियं । भोगोपभोगपरिमाण इयमेव गुणव्वया तिण्णि ॥ सामाइयं च पढमं बिदियं च तहेव पोसहं भणियं । तइयं च अतिहिपुज्जं चउत्थ सल्लेहणा अंते ॥ – चारित्तपाहुड २२-२६ ज्ञातव्य है कि जटासिंह नन्दी ने भी वराडगचरित सर्ग २२ में विमलसूरि का अनुसरण किया है।
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इस प्रश्न पर एकमत नहीं है तो फिर इस आधार पर पउमचरियं की परम्परा का निर्धारण कैसे किया जा सकता है ? । साम्प्रदायिक मान्यताओं के स्थिरीकरण के पूर्व निर्ग्रन्थ परम्परा में विभिन्न धारणाओं की उपस्थिति एक सामान्य बात थी । अतः इस ग्रन्थ के सम्प्रदाय का निर्धारण करने में व्रतों के नाम एवं क्रम सम्बन्धी मतभेद सहायक नहीं हो सकते ।
__ (७) पउमचरियं में अनुदिक् का उल्लेख हुआ है ।१७ श्वेताम्बर आगमों में अनुदिक् का उल्लेख नहीं है, जबकि दिगम्बर ग्रन्थ (यापनीय ग्रन्थ) षट्खण्डागम एवं तिलोयपण्णत्ती में इसका उल्लेख पाया जाता है ।१८ किन्तु मेरी दृष्टि में प्रथम तो यह भी पउमचरियं के सम्प्रदाय निर्णय के लिए महत्त्वपूर्ण साक्ष्य नहीं माना जा सकता है, क्योंकि अनुदिक् की अवधारणा से श्वेताम्बरों का भी कोई विरोध नहीं है। दूसरे जब अनुदिक् शब्द स्वयं आचाराङ्ग में उपलब्ध है१९ तो फिर हमारे दिगम्बर विद्वान् यह कैसे कह देते हैं कि श्वेताम्बर परम्परा में अनुदिक् की अवधारणा नहीं है ?
(८) पउमचरियं में दीक्षा के अवसर पर ऋषभ द्वारा वस्त्रों के त्याग का उल्लेख मिलता है ।२० इसी प्रकार भरत द्वारा भी दीक्षा ग्रहण करते समय वस्त्रों के त्याग का उल्लेख है ।२१ किन्तु यह दोनों सन्दर्भ भी पउमचरियं के दिगम्बर या यापनीय होने के प्रमाण नहीं कहे जा सकते । क्योंकि श्वेताम्बर मान्य ग्रन्थों में भी दीक्षा के अवसर पर वस्त्राभूषण त्याग का उल्लेख तो मिलता ही है ।२२ यह भिन्न बात है कि श्वेताम्बर ग्रन्थों में उस वस्त्र त्याग १७. देखिए जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन (लेखक
डा. सागरमल जैन) भाग-२, पृ. सं. २७४ १८. पउमचरियं, १०२/१४५ १९. पउमचरियं, इण्ट्रोडक्सन, पृष्ठ १९, पद्मपुराण, भूमिका (पं. पन्नालाल), पृ. ३० २०. जो इमाओ (दिसाओ) अणुदिसाओ वा अणुसंचरइ, सव्वाओ दिसाओ अणुदिसाओ,
सोऽहं । आचाराङ्ग १/१/१/१, शीलाङ्कटीका, पृ. १९ । (ज्ञातव्य है कि मूल पउमचरियं मे केवल 'अनुदिसाइ', शब्द है जो कि आचाराङ्ग में उसी रूप में है । उससे नौ अनुदिशाओं की कल्पना दिखाकर उसे श्वेताम्बर आगमों में अनुपस्थित कहना उचित
नहीं है।) २१. देखिए, पउमचरियं ३/१३५-३६ २२. पउमचरियं, ८३/५
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के बाद कहीं देवदूष्य का ग्रहण भी दिखाया जाता है ।२३ ऋषभ, भरत, महावीर आदि अचेलकता तो स्वयं श्वेताम्बरों को भी मान्य है । अतः पं. परमानन्द शास्त्री का यह तर्क ग्रन्थ के दिगम्बरत्व का प्रमाण नहीं माना जा सकता है ।२४
(९) पं. परमानन्द शास्त्री के अनुसार पउमचरियं में नरकों कि संख्या का जो उल्लेख मिलता है वह आचार्य पूज्यपाद के सर्वार्थसिद्धिमान्य तत्त्वार्थ के पाठ के निकट है, जबकि श्वेताम्बर भाष्य-मान्य तत्त्वार्थ के मूलपाठ में यह उल्लेख नहीं है। किन्तु तत्त्वार्थभाष्य एवं अन्य श्वेताम्बर आगमों में इस प्रकार के उल्लेख उपलब्ध होने से इसे भी निर्णायक तथ्य नहीं माना जा सकता है । इसी प्रकार नदियों के विवरण का तथा भरत और ऐरावत क्षेत्रों में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के विभाग आदि तथ्यों को भी ग्रन्थ के दिगम्बरत्व के प्रमाण हेतु प्रस्तुत किया जाता है, किन्तु ये सभी तथ्य श्वेताम्बर ग्रन्थों में भी उल्लेखित है ।२५ अतः ये तथ्य ग्रन्थ के दिगम्बरत्व या श्वेताम्बरत्व के निर्णायक नहीं कहे जा सकते । मूल परम्परा के एक होने से अनेक बातों में एकरूपता का होना तो स्वाभाविक ही है । पुनः षटखण्डागम, तिलोयपण्णत्ती, तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि आदि दिगम्बर टीकायें पउमचरियं से परवर्ती है अत: उनमें विमलसूरि के पउमचरियं का अनुसरण देखा जाना आश्चर्यजनक नहीं है किन्तु इनके आधार पर पउमचरियं की परम्परा को निश्चित नहीं किया जा सकता है। पूर्ववर्ती ग्रन्थों के आधार पर पूर्ववर्ती ग्रन्थ की परम्परा को निश्चित नहीं की जा सकती है । पुनः पउमचरियं में तीर्थकर माता के १४ स्वप्न, तीर्थकर नामकर्मबन्ध के बीस कारण, चक्रवर्ती की रानियों को ६४००० संख्या, महावीर के द्वारा मेरुकम्पन, स्त्रीमुक्ति का स्पष्ट उल्लेख आदि अनेक ऐसे तथ्य है जो स्त्री मुक्ति निषेधक दिगम्बर परम्परा के विपक्ष में जाते हैं । विमलसूरि के सम्पूर्ण ग्रन्थ में दिगम्बर शब्द का अनुल्लेख और सियम्बर शब्द का एकाधिक बार उल्लेख होने से
२३. मुक्कं वासोजुयलं....... | - चउपन्नमहापुरिसचरियं, पृ. २७३ २४. एगं देवदूसमादाय...... पव्वइए । - कल्पसूत्र ११४ २५. पउमचरियं भाग-१ (इण्ट्रोडक्सन पेज १९, फुटनोट ५)
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उसे किसी भी स्थिति में दिगम्बर परम्परा का ग्रन्थ सिद्ध नहीं किया जा सकता है ।
क्या पउमचरियं श्वेताम्बर परम्परा का ग्रन्थ है ।
आयें अब इसी प्रश्न पर श्वेताम्बर विद्वानों के मन्तव्य पर भी विचार करें और देखें कि क्या वह श्वेताम्बर परम्परा का ग्रन्थ हो सकता है ? पउमचरियं के श्वेताम्बर परम्परा से सम्बद्ध होने के निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत किये जाते हैं
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(१) विमलसूरि ने लिखा है कि 'जिन' के मुख्य से निर्गत अर्थरूप वचनों को गणधरों ने धारण करके उन्हें ग्रन्थरूप दिया- इस तथ्य को मुनि कल्याणविजय जी ने श्वेताम्बर परम्परा सम्मत बताया है । क्योंकि श्वे. परम्परा की निर्युक्ति में इसका उल्लेख मिलता है | २६
(२) पउमचरियं (२/२६) में महावीर के द्वारा अँगूठे से मेरुपर्वत को कम्पित करने की घटना का भी उल्लेख हुआ है, यह अवधारणा भी श्वेताम्बर परम्परा में बहुत प्रचलित है ।
(३) पउमचरियं (२/ ३६-३७) में यह भी उल्लेख है कि महावीर केवलज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् भव्य जीवों को उपदेश देते हुए विपुलाचल पर्वत पर आये, जबकि दिगम्बर परम्परा के अनुसार महावीर ने ६६ दिनों तक मौन रखकर विपुलाचल पर्वत पर अपना प्रथम उपदेश दिया । डा. हीरालाल जैन एवं डा. उपाध्ये ने भी इस कथन को श्वेताम्बर परम्परा के पक्ष में माना है | २७
(४) पउमचरियं (२/३३) में महावीर का एक अतिशय यह माना गया है कि वे देवों के द्वारा निर्मित कमलों पर पैर रखते हुए यात्रा करते थे। यद्यपि कुछ विद्वानों ने इसे श्वेताम्बर परम्परा के पक्ष में प्रमाण माना है, किन्तु मेरी दृष्टि में यह कोई महत्त्वपूर्ण प्रमाण नहीं कहा जा सकता।
२६. ‘जिणवरमुहाओ अत्थो सो गणहेरहि धरिउं । आवश्यक निर्युक्ति १/१० २७. देखे -- पद्मपुराण (आचार्य रविषेण), प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ काशी, सम्पादकीय, पृ. ७
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यापनीय आचार्य हरिषेण एवं स्वयम्भू आदि ने भी इस अतिशय का
उल्लेख किया है। (५) पउमचरियं (२।८२) में तीर्थङ्कर नामकर्म प्रकृति के बन्ध के बीस कारण
माने है । यह मान्यता आवश्यकनियुक्ति और ज्ञाताधर्मकथा के समान ही है । दिगम्बर एवं यापनीय दोनों ही परम्पराओं में इसके १६ ही कारण माने जाते है । अतः इस उल्लेख को श्वेताम्बर परम्परा के पक्ष
में एक साक्ष्य कहा जा सकता है । (६) पउमचरियं में मरुदेवी और पद्मावती - इन तीर्थङ्कर माताओं के द्वारा
१४ स्वप्न देखने का उल्लेख है ।२८ यापनीय एवं दिगम्बर परम्परा १६ स्वप्न मानती है । इसी प्रकार इसे भी ग्रन्थ के श्वेताम्बर परम्परा से सम्बद्ध होने के सम्बन्ध में प्रबल साक्ष्य माना जा सकता है । पं. नाथूराम जी प्रेमी ने यहाँ स्वप्नों की संख्या १५ बतायी है ।२९ भवन
और विमान को उन्होंने दो अलग-अलग स्वप्न माना है । किन्तु श्वेताम्बर परम्परा में ऐसे उल्लेख मिलते है कि जो तीर्थङ्कर नरक से आते है, उनकी माताएँ भवन और जो तीर्थङ्कर देवलोक से आते है उनकी माताएँ विमान देखती है। यह एक वैकल्पिक व्यवस्था है अतः संख्या चौदह ही होगी । (आवश्यक हरिभद्रीय वृत्ति पृ. १०८) । स्मरण रहे कि यापनीय रविषेण ने पउमचरियं के ध्वज के स्थान पर मीनयुगल को माना है। ज्ञातव्य है कि प्राकृत ‘झय' के संस्कृत रूप 'ध्वज' तथा झष (मीन-युगल) दोनों सम्भव है। साथ ही सागर के बाद उन्होंने सिंहासन का उल्लेख किया है और विमान तथा भवन को अलगअलग स्वप्न माना हैं यहा यह भी ज्ञातव्य है कि स्वप्न सम्बन्धी पउमचरियं की यह गाथा श्वेताम्बर मान्य 'नायाधम्मकहा' से बिल्कुल
२८. पउमचरियं, ३/६२, २१/१३ ।
(यहाँ मरुदेवी ओर पद्मावती के स्वप्नों में समानता है, मात्र मरुदेवी के सन्दर्भ में 'वरसिरिदाम' शब्द आया है, जबकि पद्मावती के स्वप्नों में 'अभिसेकदास' शब्द
आया है - किन्तु दोनों का अर्थ लक्ष्मी ही है ।) २९. जैन साहित्य और इतिहास (नाथूराम प्रेमी), पृ. ९९
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समान है ।३° अत: यह अवधारणा भी ग्रन्थ के श्वेताम्बर परम्परा से सम्बद्ध होने के सम्बन्ध में प्रबल साक्ष्य है ।
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(७) पउमचरियं में भरत और सगर चक्रवर्ती की ६४ हजार रानियों का उल्लेख मिलता है३१, जबकि दिगम्बर परम्परा में चक्रवर्तीयों की रानियों की संख्या ९६ हजार बतायी है । ३२ अतः यह साक्ष्य भी दिगम्बर और यापनीय परम्परा के विरुद्ध है और मात्र श्वेताम्बर परम्परा के पक्ष में जाता है ।
(८) अजित और मुनिसुव्रत के वैराग्य के कारणों को तथा उनके संघस्थ साधुओं की संख्या को लेकर पउमचरियं और तिलोयपण्णत्ति में मत वैभिन्य है ।३३ किन्तु ऐसा मतवैभिन्य एक ही परम्परा में भी देखा जाता है अत: इसे ग्रन्थ के श्वेताम्बर होने का सबल साक्ष्य नहीं कहा जा सकता है ।
(९) पउमचरियं और तिलोयपण्णत्ति में बलदेवों के नाम एवं क्रम को लेकर मतभेद देखा जाता है, जबकि पउमचरियं में दिये गये नाम एवं क्रम श्वेताम्बर परम्परा में यथावत् मिलते हैं । ३४ अत: इसे भी ग्रन्थ के श्वेताम्बर परम्परा से सम्बद्ध होने के पक्ष में एक साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है । यद्यपि यह स्मरण रखना होगा कि पउमचरियं में भी राम को बलदेव ही कहा गया है ।
(१०) पउमचरियं में १२ देवलोकों का उल्लेख है जो कि श्वेताम्बर परम्परा की मान्यतानुरूप है ।३५ जबकि यापनीय रविषेण और दिगम्बर परम्परा के अन्य आचार्य देवलोकों की संख्या १६ मानते है अत: इसे भी ग्रन्थ
के श्वेताम्बर परम्परा से सम्बद्ध होने का प्रमाण माना जा सकता है ।
३०. णायधम्मकहा (मधुकर मुनि) प्रथम श्रुतस्कथं, अध्याय ८, २६ ।
३१. पउमचरियं ४/५८, ५/९८
३२. पद्मपुराण (रविषेण), ४/६६, २४७ |
३३. देखें पउमचरियं २१ / २२, पउमचरियं, इण्ट्रोडक्सन पेज २२ फुटनोट- ३ । तुलनीय - तिलोयपण्णत्ती, ४ / ६०८
३४. पउमचरियं, इण्ट्रोडक्सन पेज २१ ।
३५. पउमचरियं, ६५/३५-३६ और १०२ / ४२-५४
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(११) पउमचरियं में सम्यक्दर्शन को परिभाषित करते हुए यह कहा गया है कि जो नव पदार्थों को जानता है वह सम्यग्दृष्टि है६ । पउमचरियं में कहीं भी ७ तत्त्वों का उल्लेख नहीं हुआ है । पं. फूलचन्दजी के अनुसार यह साक्ष्य ग्रन्थ के श्वेताम्बर होनें के पक्ष में जाता है । किन्तु मेरी दृष्टि में नव पदार्थों का उल्लेख दिगम्बर परम्परा में भी पाया जाता है अत: इसे ग्रन्थ के श्वेताम्बर होने का महत्त्वपूर्ण साक्ष्य तो नहीं कहा जा सकता । दोनों ही परम्परा में प्राचीन काल में नव पदार्थ ही माने जाते थे, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र के पश्चात् दोनों में सात तत्त्वों की मान्यता भी प्रविष्ट हो गई | चूंकि श्वेताम्बर प्राचीन स्तर के आगमों का अनुसरण करते थे, अत: उनमें ९ तत्त्वों की मान्यता की प्रधानता बनी रही । जबकि दिगम्बर परम्परा में तत्त्वार्थ के अनुसरण के कारण सात तत्त्वों की प्रधानता स्थापित हो गई ।
(१२) पउमचरियं में उसके श्वेताम्बर होने के सन्दर्भ में जो सबसे महत्त्वपूर्ण साक्ष्य उपलब्ध है वह यह कि उसमें कैकयी को मोक्ष की प्राप्ति बताई गई है। इस प्रकार पउमचरियं स्त्री मुक्ति का समर्थक माना जा सकता है । यह तथ्य दिगम्बर परम्परा के विरोध में जाता है । किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि यापनीय भी स्त्रीमुक्ति तो स्वीकार करते थे, अत: यह दृष्टि से यह ग्रन्थ श्वेताम्बर और यापनीय दोनों परम्पराओं से सम्बद्ध या उनका पूर्वज माना जा सकता है ।
(१३) इसी प्रकार पउमचरियं में मुनि को आशीर्वाद के रूप में धर्मलाभ कहते हुए दिखाया गया है,३९ जबकि दिगम्बर परम्परा में मुनि आशीर्वचन के रूप में धर्मवृद्धि कहता हैं । किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि धर्मलाभ कहने की परम्परा न केवल श्वेताम्बर है, अपितु यापनीय भी है । यापनीय मुनि भी श्वेताम्बर मुनियों के समान धर्मलाभ ही कहते
३६. पउमचरियं, १०२/१८१ ।
३७. अनेकान्त वर्ष ५, किरण १ - २ तत्त्वार्थ सूत्र का अन्त: परीक्षण, पं. फूलचन्दजी पृ. ५१ । ३८. सिद्धिपयं उत्तमं पत्ता- पउमचरियं ८६ / १२ ।
३९. देखें, पउमचरियं इण्ट्रोडक्सन पेज २१ ।
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थे ४०
ग्रन्थ के श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा से सम्बद्ध होने के इन अन्त:साक्ष्यों के परीक्षण से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि ग्रन्थ के अन्तःसाक्ष्य मुख्य रूप से उसके श्वेताम्बर परम्परा से सम्बद्ध होने के पक्ष में अधिक हैं । विशेष रूप से स्त्री-मुक्ति का उल्लेख यह सिद्ध कर देता है कि यह ग्रन्थ स्त्री-मुक्ति निषेधक दिगम्बर परम्परा से सम्बद्ध नहीं हो सकता है ।
(१४) विमलसूरि ने पउमचरियं के अन्त में अपने को नाइल (नागेन्द्र) वंशनन्दीकर आचार्य राहू का प्रशिष्य और आचार्य विजय का शिष्य बताया है ।४१ साथ ही पउमचरियं का रचनाकाल वी.नि.सं. ५३० कहा है । ४२ ये दोनों तथ्य भी विमलसूरि एवं उनके ग्रन्थ के सम्प्रदाय निर्धारण हेतु महत्त्वपूर्ण आधार माने जा सकते हैं । यह स्पष्ट है कि दिगम्बर परम्परा में नागेन्द्र कुल का कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं है, जबकि श्वेताम्बर मान्य कल्पसूत्र स्थविरावली में आर्यवज्र के प्रशिष्य एवं व्रजसेन के शिष्य आर्य नाग से नाइल या नागिल शाखा के निकलने का उल्लेख है ।४३ श्वेताम्बर पट्टावलियों के अनुसार भी वज्रसेन के शिष्य आर्य नाग ने नाइल शाखा प्रारम्भ की थी । विमलसूरि इसी नागिल शाखा में हुए हैं । नन्दीसूत्र में आचार्य भूतदिन्न को भी नाइलकुलवंशनंदीकर कहा गया है । ४४ यही बिरुद विमलसूरि ने अपने गुरुओं आर्य राहू एवं आर्य विजय को भी दिया है। अत: यह सुनिश्चित है कि विमलसूरि उत्तर भारत की निर्ग्रन्थ परम्परा से सम्बन्धित है और उनका यह ‘नाइल कुल' श्वेताम्बरों में बारहवीं शताब्दी तक चलता रहा
है । चाहे उन्हें आज के अर्थ में श्वेताम्बर न कहा जाये, किन्तु वे
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४०. गोप्या यापनीया । गोप्यास्तु वन्द्यमाना धर्मलाभं भणन्ति । - षड्दर्शनसमुच्चय टीका ४ / १ । ४१. पउमचरियं, ११८/११७ ।
४२. वही, ११८ / १०३ ।
४३. ‘थेरेहिंतो णं अज्जवइरसेणिएहिंतो एत्थ णं अज्जनाइली साहा निग्गया' -कल्पसूत्र २२१, पृ.
३०६
४४. नाइलकुल-वंसनंदिकरे...... भूयदिन्नमायरिए । - नन्दीसूत्र ४४-४५
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श्वेताम्बरों के अग्रज अवश्य है, इसमें किसी प्रकार के मतभेद की सम्भावना नहीं है ।
पउमचरियं जैनों के सम्प्रदाय - भेद से पूर्व का हैं
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४५
पउमचरियं के सम्प्रदाय का निर्धारण करने हेतु यहाँ दो समस्याएँ विचारणीय हैं - प्रथम तो यह कि यदि पउमचरियं का रचनाकाल वीर नि.सं. ५३० है, जिसे अनेक आधारों पर अयथार्थ भी नहीं कहा जा सकता है, तो वे उत्तरभारत के सम्प्रदाय - विभाजन के पूर्व के आचार्य सिद्ध होगे । यदि हम महावीर का निर्वाण ई.पू. ४६७ मानते हैं तो इस ग्रन्थ का रचनाकाल ई. सन् ६४ और वि.सं. १२३ आता है । दूसरे शब्दों में पउमचरियं विक्रम की द्वितीय शताब्दी के पूर्वार्ध की रचना है । किन्तु विचारणीय यह है कि क्या वीर नि.सं. ५३० में नागिलकुल अस्तित्व में आ चुका था ? यदि हम कल्पसूत्र पट्टावली की दृष्टि से विचार करें तो आर्य वज्र के शिष्य आर्य वज्रसेन और उनके शिष्य आर्य नाग महावीर की पाट परम्परा के क्रमशः १३वें, १४वें एवं १५वें स्थान पर आते हैं । यदि आचार्यों का सामान्य काल ३० वर्ष मानें तो आर्य वज्रसेन और आर्य नाग का काल वीर नि. के ४२० वर्ष पश्चात् आता है, इस दृष्टि से वीर नि. के ५३०वें वर्ष में नाइलकुल का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है । यद्यपि पट्टावलिओं में वज्रस्वामी के समय का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है किन्तु निह्नवों के सम्बन्ध में जो कथायें हैं, उसमें आर्यरक्षित को आर्य भद्र और वज्र स्वामी का समकालीन बताया गया है और इस दृष्टि से वज्रस्वामी का समय वीर नि. ५८३ मान लिया गया है, किन्तु यह धारणा भ्रान्तिपूर्ण है । इस सम्बन्ध में विशेष उहापोह करके कल्याणविजयजी ने आर्य वज्रसेन की दीक्षा वीर नि.सं. ४८६ में निश्चित की है । यदि इसे हम सही मान ले तो वीर नि.सं. ५३० में नाइल कुल का अस्तित्व मानने में कोई बाधा नहीं आती है । पुनः यदि कोई आचार्य दीर्घजीवी हो तो अपनी शिष्य परम्परा में सामान्यतया वह चार-प -पाँच पीढ़ियाँ तो देख ही लेता है । वज्रसेन के शिष्य आर्य नाग, जिनके नाम पर नागेन्द्र कुल ही स्थापना हुई, अपने दादा गुरु आर्य वज्र के जीवनकाल में जीवित
४५. पट्टावली परागसंग्रह ( कल्याणविजयजी), पृ. २७ एवं १३८ - १३९
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हो सकते हैं। पुनः आर्य वज्र का स्वर्गवास वी. नि.सं. ५८४ में हुआ ऐसा अन्य स्रोतों से प्रमाणित नहीं होता है। मेरी दृष्टि में तो यह भ्रान्त अवधारणा है। यह भ्रान्ति इसलिये प्रचलित हो गई कि नन्दीसूत्र स्थविरावली में आर्य वज्र के पश्चात् सीधे आर्यरक्षित का उल्लेख हुआ । इसी आधार पर उन्हें आर्य वज्र का सीधा शिष्य मानकर वज्रसेन को उनका गुरु भ्राता मान लिया गया और आर्यरक्षित के काल के आधार पर उनके काल का निर्धारण कर लिया गया । किन्तु नन्दीसूत्र में आचार्यों के क्रम में बीच-बीच में अन्तराल रहे हैं । अतः आचार्य विमलसूरि का काल वीर निर्वाण सं. ५३० अर्थात् विक्रम की दूसरी शताब्दी का पूर्वार्ध मानने में कोई बाधा नहीं जाती है । यदि हम पउमचरियं के रचनाकाल वीर नि.सं. ५३० को स्वीकार करते हैं, तो यह स्पष्ट है कि उस काल तक उत्तरभारत के निर्ग्रन्थ संघ में विभिन्न कुल शाखाओं की उपस्थिति और उनमें कुछ मान्यताभेद या वाचनाभेद तो था फिर भी स्पष्ट संघभेद नहीं हुआ था । दोनों परम्पराए इस संघभेद को वीर निर्वाण सं. ६०६ या ६०९ में मानती है । अतः स्पष्ट है कि अपने काल की दृष्टि से भी विमलसूरि संघभेद के पूर्व के आचार्य है और इसलिए उन्हें किसी संप्रदायविशेष से जोड़ना सम्भव नहीं है। हम सिर्फ यही कह सकते हैं वे उत्तर भारत के उस श्रमण संघ में हुए हैं, जिसमें से श्वेताम्बर और यापनीय दोनों धाराएँ निकली हैं । अतः वे श्वेताम्बर और यापनीय दोनों के पूर्वज है और दोनों ने उनका अनुसरण किया है । यद्यपि दक्षिण भारत की निर्ग्रन्थ परम्परा के प्रभाव से यापनीयों ने उनकी कुछ मान्यताओं को अपने अनुसार संशोधित कर लिया था, किन्तु स्त्रीमुक्ति आदि तो उन्हें भी मान्य रही है।
पउमचरियं में स्त्रीमुक्ति आदि की जो अवधारणा है वह भी यही सिद्ध करती है कि वे इन दोनों परम्पराओं के पूर्वज हैं, क्योंकि दोनों ही परम्परायें स्त्रीमुक्ति को स्वीकार करती है । यदि कल्पसूत्र स्थविरावली के सभी गण, कुल, शाखायें श्वेताम्बर द्वारा मान्य है, तो विमलसूरि को श्वेताम्बरों का पूर्वज मानने में कोई बाधा नहीं है । पुनः यह भी सत्य है कि सभी श्वेताम्बर आचार्य उन्हें अपनी परम्परा का मानते रहे हैं। जबकि यापनीय
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रविषेण और स्वयम्भू ने उनके ग्रन्थों का अनुसरण करते हुए भी उनके नाम का स्मरण तक नहीं किया है, इससे यही सिद्ध होता है कि वे उन्हें अपने से भिन्न परम्परा का मानते थे । किन्तु यह स्मरण रखना होगा कि वे उसी युग में हुए हैं जब श्वेताम्बर, यापनीय और दिगम्बर का स्पष्ट भेद सामने नहीं आया था । यद्यपि कुछ विद्वान उनके ग्रन्थ में मुनि के लिए 'सियंबर' शब्द के एकाधिक प्रयोग देखकर उनकी श्वेताम्बर परम्परा से सम्बद्ध करना चाहेंगे, किन्तु इस सम्बन्ध में कुछ सावधानियों की अपेक्षा है । विमलसूरि के इन दो-चार प्रयोगों को छोडकर हमें प्राचीन स्तर के साहित्य में कहीं भी श्वेताम्बर या दिगम्बर शब्दों का प्रयोग नहीं किया गया है। विद्वानों ने भी विमलसूरि के पउमचरियं में उपलब्ध श्वेताम्बर (सियंबर) शब्द के प्रयोग को सम्प्रदाय सूचन न मानकर उस युग के सर्वत्र मुनि का सूचक माना है । हो सकता है कि परवर्ती श्वेताम्बर आचार्यों या प्रतिलिपि कर्ताओं ने यह शब्द बदला हो, यद्यपि ऐसी सम्भावना कम है। क्योंकि सीता साध्वी के लिये भी सियंबर शब्द का प्रयोग उन्होंने स्वयं किया होगा । मुझे ऐसा लगता है विमलसूरि के ईसा की प्रथम-द्वितीय शती के अंकन भी इसकी पुष्टि करते हैं । जिस प्रकार सर्वत्र साध्वी सीता को विमलसूरि ने सियंबरा कहा उसी प्रकार सवस्त्र मुनि को भी सियंबर कहा होगा । उनका यह प्रयोग निर्ग्रन्थ मुनियों द्वारा वस्त्र रखने की प्रवृत्ति का सूचक है, न कि श्वेताम्बर दिगम्बर संघभेद का । विमलसूरि निश्चित ही श्वेताम्बर और यापनीय - दोनों के पूर्वज है । श्वेताम्बर उन्हें अपने सम्प्रदाय का केवल इसीलिये मानते हैं कि वे उनकी पूर्व परम्परा से जुड़े हुए हैं।
श्रीमती कुसुम पटोरिया ने महावीर जयन्ती स्मारिका जयपुर वर्ष १९७७ ई. पृष्ठ २५७ पर इस तथ्य को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि विमलसूरि और पउमचरियं यापनीय नहीं है । वे लिखती हैं कि 'निश्चित विमलसूरि एक श्वेताम्बराचार्य है । उनका नाइलवंश, स्वयम्भू द्वारा उनका स्मरण न किया जाना तथा उनके (ग्रन्थ में) श्वेताम्बर साधु का आदरपूर्वक उल्लेख - उनके यापनीय न होने के प्रत्यक्ष प्रमाण है।'
विमलसूरि और उनके ग्रन्थ पउमचरियं को यापनीय मानने में सबसे
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बड़ी बाधा यह भी है कि उनकी कृति महाराष्ट्री प्राकृत को अपने ग्रन्थ की भाषा नहीं बनाया है । यापनीयों ने सदैव ही अर्धमागधी से प्रभावित शौरसेनी प्राकृत को ही अपनी भाषा माना है ।
अतः आदरणीय पं. नाथुरामजी प्रेमी ने उसके यापनीय होने के सम्बन्ध में जो सम्भावना प्रकट की है, वह समुचित प्रतीत नहीं होती है । यह ठीक है कि उनकी मान्यताओं की श्वेताम्बरों एवं यापनीयों दोनों से समानता है, किन्तु इसका कारण उनका इन दोनों परम्पराओं का पूर्वज होना है श्वेताम्बर या यापनीय होना नहीं । कालकी दृष्टि से भी वे इन दोनों के पूर्वज ही सिद्ध होते है । पुनः यापनीय आचार्य रविषेण और अपभ्रंश के महाकवि स्वयम्भू द्वारा उनकी कृति का पूर्णत: अनुसरण करने पर भी उनके नाम का उल्लेख नहीं करना यही सूचित करता है कि वे उन्हें अपनी परम्परा का नहीं मानते थे । अत: सिद्ध यही होता है कि विमलसूरि श्वेताम्बर और यापनीय दोनों परम्परा के पूर्वज है । श्वेताम्बरों ने सदैव अपने पूर्वज आचार्यों को अपनी परम्परा का माना है । विमलसूरि के दिगम्बर होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता । यापनीयों ने उनका अनुसरण करते हुए भी उन्हें अपनी परम्परा का नहीं माना, अन्यथा रविषेण और स्वयम्भू कहीं न कहीं उनका नाम निर्देश अवश्य करते । पुनः यापनीयों की शौरसेनी प्राकृत को न अपनाकर अपना काव्य महाराष्ट्री प्राकृत में लिखना यही सिद्ध करता है कि यापनीय नहीं है ।
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अतः विमलसूरि की परम्परा के सम्बन्ध में दो ही विकल्प है । यदि हम उनके ग्रन्थ का रचनाकाल वीर निर्वाण सम्वत् ५३० मानते हैं तो हमें उन्हें श्वेताम्बर और यापनीयों का पूर्वज मानना होगा । क्योंकि श्वेताम्बर दिगम्बरों की उत्पत्ति वीर निर्वाण के ६०६ वर्ष बाद और दिगम्बर श्वेताम्बरी की उत्पत्ति वीर निर्वाण के ६०९ वर्ष बाद ही मानते है । यदि हम इस काल को वीर निर्वाण सम्वत् मानते है, वे श्वेताम्बरों और यापनीयों के पूर्वज सिद्ध होगे और यदि इसे विक्रम संवत् मानते है तो जैसा कि कुछ विद्वानों ने माना है, तो उन्हें श्वेताम्बर आचार्य मानना होगा ।
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C/o. प्राच्यविद्यापीठ शाजापुर (म.प्र.)
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माथुरी गणना अने वालभी गणना वच्चे
वीरनिर्वाण संवत्मा १३ वर्षना तफावतना वास्तविक कारण विशे
ऊहापोह (अनुसन्धान – ५८गत “निह्नव रोहगुप्त, श्रीगुप्ताचार्य...'
लेखना अनुसन्धानमां)
__ - मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय अनुसन्धान-५८गत 'निह्नव रोहगुप्त, श्रीगुप्ताचार्य अने त्रैराशिकमत' ओ लेखमां अक स्थाने पज्जोसणाकप्प(-श्रीकल्पसूत्र) गत अक सूत्रना अर्थ विशे चर्चा थई हती. आ सूत्र अने अनो अर्थ -
"समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव सव्वदुक्खप्पहीणस्स नववाससयाई विइक्कंताई, दसमस्स य वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छइ । वायणंतरे पुण अयं तेणउए संवच्छरे इइ दीसइ ॥"
अर्थ : (माथुरी गणना प्रमाणे - स्कान्दिल वाचनाना अनुयायीओना मते -) श्रमण भगवान महावीरने निर्वाण पाम्ये नव सैका वीती गया अने दसमा सैकानुं आ ८०मुं वर्ष चाली रह्यं छे. परन्तु अन्य वाचना प्रमाणे तो (वालभी गणना प्रमाणे - नागार्जुनीय वाचनाना अनुयायीओ मते -) आ (दसमा सैकानू) ९३मुं वर्ष छे अम देखाय छे. (आ वर्ष = देवर्द्धिगणिनी अध्यक्षतामां मळेली परिषयूँ वर्ष)
बे गणनाओ वच्चे आ १३ वर्षनो तफावत केम पड्यो हशे ते विशे पण त्यां चर्चा थई हती के श्रीभद्रगुप्तसूरिजी पछी श्रीश्रीगुप्ताचार्य अने श्रीवज्रस्वामिजी ओम बे दशपूर्वधर भगवन्तो अकसाथे वाचनाचार्य बन्या. आमांथी श्रीश्रीगुप्ताचार्य १५ वर्ष अने श्रीवज्रस्वामिजी ३६ वर्ष युगप्रधानपदे रह्या. हवे, वालभी गणनाकारोओ, श्रीश्रीगुप्ताचार्यना युगप्रधानत्वपर्यायनां १५ वर्ष, तेओना समकालीन
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श्रीवज्रस्वामिजीना युगप्रधानत्वपर्यायनां ३६ वर्षमां ज समाइ जतां होवा छतां, अलगथी गण्यां. मतलब के जो श्रीश्रीगुप्ताचार्यनां १५ वर्षने गणनामां लो, तो त्यार पछी श्रीवज्रस्वामिजीनां (३६-१५=) २१ ज वर्ष गणवां जोइओ; तेने बदले वालभी गणनाकारोओ श्रीश्रीगुप्ताचार्यनां १५ वर्ष गणीने श्रीवज्रस्वामिजीनां ३६ वर्ष गण्यां. परिणामे आ गणना, श्रीश्रीगुप्ताचार्यने गणतरीमां न लेती माथुरी गणना करतां १५ वर्षना वधारावाळी बनी. किन्तु वालभी गणना, श्रीभद्रगुप्तसूरिजी के जेओ ते बन्नेना पुरोगामी युगप्रधान हता, तेओनो युगप्रधानत्वपर्याय माथुरी गणना (४१ वर्ष) करतां बे वर्ष ओछो (३९ वर्ष) मानती होवाथी', बे गणना वच्चेनो आ तफावत १३ वर्ष जेटलो स्थिर थयो के जे श्रीदेवर्द्धिगणिजीनी लेखनपरिषद्ना वर्ष सुधी कायम रह्यो हतो. आ ज तफावत, सूचन उपरना सूत्रमा थयुं छे.
परन्तु, हमणां जैन सत्यप्रकाश, वर्ष ५, अङ्क ९, पृष्ठ ३३०-३३२मां श्रीहीरालाल रसिकदास कापडियाओ लखेलो ‘पज्जोसणाकप्पना ओक सूत्रनुं पर्यालोचन' ओ लेख जोवा मळ्यो. आ लेखमां श्रीकल्पसूत्रगत प्रस्तुत सूत्रना टीकाओमां करायेला विविध अर्थो अने तेनो साचो अर्थ शुं थई शके ते विशे सरस छणावट करवामां आवी छे. आ सूत्रनो अर्थ तो तेओओ ज जणाव्यो छे के जे अत्रे उपर लख्यो छे. पण बे गणना वच्चे १३ वर्षनी भिन्नता- कारण तेओओ श्रीश्रीगुप्ताचार्यनी गणतरीने बदले जुदुं ज दर्शाव्युं छे -
__ "विशेष आनन्दनी वात तो ओ छे के आ प्रमाणे जे १३ वर्षनो फेर जोवाय छे तेनुं मूळ कारण शुं छे ओ पण आ पुस्तकना (वीरनिर्वाण संवत् और जैन कालगणना -मुनिश्री कल्याणविजयजी) १४४-१४७ पृष्ठमां विचारायु छे. अनुं तात्पर्य ओ छे के केटलाक विक्रमना राज्यारोहणना समयथी विक्रमसंवत् गणता हता, तो केटलाक राज्यारम्भ बाद १३ वर्षमां लोकोने ऋणमुक्त बनावी जे संवत्सर चालु करायो त्यांथी गणता हता."
अत्रे श्रीकापडिया साहेबे मुनिश्री कल्याणविजयजीना मन्तव्य- जे तात्पर्य दर्शाव्युं छे ते मुनिश्रीना मन्तव्यना अन्यथाग्रहणने आभारी छे. केम के मुनिश्रीना मते तो बन्ने गणना मुजब विक्रमना राज्यारोहणना १३मा वर्षे ज विक्रम संवत्नो आरम्भ थयो छे. परन्तु मुनिश्रीओ देखाड्या मुजब माथुरी गणना
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विक्रमना राज्यारोहण- वर्ष वीरनि. सं. ४५७ गणे छे, ज्यारे वालभी गणना वीरनि. सं. ४७०. परिणामे माथुरी गणना ४५७+१३ = वीरनि. सं. ४७०मां विक्रम संवत्नो आरम्भ स्वीकारे छे, ज्यारे वालभी गणना ४७०+१३ = विरनि. सं. ४८३मां. विक्रम संवत्ना आरम्भवर्षना मुद्दे पडेलो बे गणना वच्चेनो आ १३ वर्षनो तफावत श्रीदेवर्द्धिगणिजीना समय सुधी कायम रह्यो छे, जेनुं सूचन श्रीकल्पसूत्रमा थयुं छे अम मुनिश्रीनुं कथन छे.
मुनिश्रीना मते माथुरी गणनाकारो द्वारा स्वीकृत वीरनि. सं. ४७० सुधीनी वास्तविक राज्यकालाधारित कालगणना अने वालभी गणनाकारो द्वारा स्वीकृत क्षतियुक्त कालगणनामां जे भिन्नता छे ते नीचेना कोष्टकमां दर्शाव्या मुजब छे. | मुनिश्रीनी कालगणना | वालभी कालगणना वर्ष वीरनि. सं. राजा
वर्ष । वीरनि. सं.
राजा
पालक
६० । १-६० | पालक ६० । १-६० नन्दवंश १५० ६१-२१० नन्दवंश
६१-२१५ मौर्यवंश १६० २११-३७० मौर्यवंश
२१६-३२३ पुष्यमित्र |३७१-४०५ | पुष्यमित्र
३२४-३५३ बलमित्र-(विक्रमादित्य)
| बलमित्र
३५४-४१३ भानुमित्र
भानुमित्र (भरूचमां) | ५२ ४०६-४५७ नभःसेन ४० ४१४-४५३ (उज्जैनीमां) । ८ ४५८-४६५ | गर्दभिल्ल १३ | ४५४-४६६ नभःसेन । ५ ४६५-४७०शकराजा
| ४६७-४७० । ४७०
।
। ४७० ।
मुनिश्रीओ जणाव्या मुजब भरूचना राजा अने कालकाचार्यना भाणेज बलमित्र-भानुमित्र ज जैनोना विक्रमादित्य छे. वीरनि. सं. ४५३ आसपास कालकाचार्ये शकराजाओनी साथे गर्दभिल्लनी विरुद्ध उज्जैनी पर करेली चडाईमां तेओनो पण साथ हतो. त्यारबाद ४ वर्ष पछी उज्जैनीना शासक शकराजाने हटावी तेओ उज्जैनीनी गादी पर बेठा. अवन्ति साम्राज्यने अनुलक्षीने
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विक्रमना राज्यारोहण, आ वर्ष वीरनि. सं. ४५७ हतुं. ८ वर्ष पछी तेओनो स्वर्गवास थतां उज्जैनीनी गादी पर नभःसेन आव्यो. आ नभःसेनना राज्यना ५मा वर्षे अवन्ति साम्राज्य पर शकसेनानो बहु मोटो हल्लो थयो. आ आक्रमणने अवन्तिनी सेनाले बहु बहादुरीथी खाळ्युं. अने ओ विजयनी यादगीरीमां ओक संवत् प्रवर्ताव्यो के जे आगळ जतां विक्रम संवत्ना नामे ओळखायो. आ संवत् विक्रमादित्यना राज्यारोहणथी १३मा वर्षे प्रवो हतो (८ वर्ष विक्रमशासन + ५ वर्ष नभःसेन). आ वातनुं सूचन नीचेनी पङ्क्तिमां छे -
___विक्कमरज्जाणंतर, तेरसवासेसु वच्छरपवित्ती ।" । पण वालभी गणनाकारोने आ पंक्तिनो अर्थ जुदो ज लाग्यो. तेथी तेओ उज्जैनीनी गादी पर शकराजा पछी विक्रमादित्य नामना राजा वीरनि. सं. ४७०मां बेठा ओवं स्वीकारी, तेमना शासनना १३ वर्ष बाद वीरनि. सं. ४८३ मां विक्रमसंवत् प्रवर्यो अर्बु मानता हता. मतलब के पूर्वोक्त पंक्तिना वास्तविक अर्थनी विस्मृति अने काल्पनिक अर्थनी उत्पत्ति बे गणना वच्चे १३ वर्षना तफावतनुं निमित्त बनी. आ परत्वे मुनिश्रीना शब्दो -
___ "यह बात तो निश्चित है कि पिछले समय में जैन सङ्घ में एक ऐसा समुदाय भी वर्तमान था, जो वीरनिर्वाण का विक्रमराज्यारम्भ से और उसके नाम से प्रचलित संवत्सर से जुदा जुदा अन्तर मानता था और इस मान्यता का कारण मेरे विचार से ५२ वर्ष के विपर्यास के परिणामस्वरूप "तेरसवासेसु वच्छरपवित्ती" इस वाक्य के वास्तविक अर्थ का विस्मरण और काल्पनिक अर्थ की उत्पत्ति ही था । और वालभी गणना में जो १३ वर्ष अधिक आते थे वे इस मान्यता के समर्थक थे ।"
(वी.नि.सं.जै.का. - पृ. १४७) __ आम वीरनिर्वाणनां वर्षोमां बे गणनाओ वच्चे तफावतनुं कारण, कापडिया साहेबना मते 'विक्रम संवत्नी उत्पत्ति विक्रमना राज्यारम्भ (वीरनि. सं. ४७०)थी गणवी के राज्यारम्भना १३ वर्ष पछी ?' ओ मतभेद छे. तो मुनिश्रीना मते 'विक्रमनो राज्यारम्भ वीरनि. सं. ४७०मां गणवो के ४५७ मां?' ओ गणनाभेद छे. ज्यारे आ लखनारना अभिप्राय प्रमाणे 'श्रीश्रीगुप्ताचार्यनी अलग गणतरी करवी के नहि ?' ओ विचारभेद छे.
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आ परत्वे आपणे थोडोक ऊहापोह करीशुं. कापडिया साहेबनो मत जो आपणे स्वीकारीओ तो तेना परथी फलित थतां नीचेनां तारणो पण आपणे स्वीकारवां पडे
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१. वीरनिर्वाण संवत्नी गणना माटे जैन श्रमणो, युगप्रधानोनी पट्टावली, स्थविरावली व. ने बदले विक्रम संवत् साथेना तेना अन्तर पर मदार राखता हशे. केम के विक्रम संवत् क्यारथी आरम्भायो अ ज वात जो गणनाभेदनं निमित्त बनी होय, तो आपोआप नक्की थई जाय छे के युगप्रधानोनी गणना तो बन्ने वाचनाकारोना अभिप्राये सरखी ज हती. अने तेम छतां तेनुं सखापणुं बन्नेना मते गौण हतुं.
२. माथुरी गणनाकारो अने वालभी गणनाकारो ओ बन्ने पक्षो विक्रम संवत् क्यारथी आरम्भायो ओ बाबते पोतपोताना अभिप्राय परत्वे जेम निश्चित हता, तेम श्रीदेवर्द्धिगणिजीनी वाचनानुं वर्ष वि.सं. ५१०नुं वर्ष छे अ बाबते अत्यन्त मक्कम हता. ( माथुरी ४७०+५१० ९८०, वालभी ४८३+५१० = ९९३) अन्यथा कोई ओक पक्षे विक्रम संवत्मां फेरफार करीने (मतलब के ते वाचनानुं वर्ष माथुरी गणना मुजब वि.सं. ५२३ अथवा वालभी गणना मुजब वि.सं. ४९७ करीने) वीरनिर्वाण संवत्नी बाबतमां गणनाभेद निवारी शकायो होत.
=
३. विक्रमादित्य वीरनि. सं. ४७० मां उज्जैनीनो राजा थयो अने त्यारबाद प्रजाने अनृणी करीने तेणे संवत् प्रवर्ताव्यो. संवत् - प्रवर्तननी आ घटना राज्यारम्भना १३मा वर्षे ज बनी आ मान्यताने दृढ करनारा अनेक पुरावा वालभी गणनाकारो पासे होवा जोईओ.
४. पूर्वे जणाव्युं तेम वालभी युगप्रधानपट्टावली जो माथुरी गणना साथेना वालभी गणनाना तफावतमां मूळभूत निमित्तभूत न होय, तो ते पट्टावली पण माथुरी युगप्रधानपट्टावली प्रमाणे वाचनानुं वर्ष वीरनि. सं. ९८० ज दर्शावती हशे ओम मानवुं पडे. बीजी तरफ विक्रम संवत्ने आधारित गणतरी मुजब वालभी गणना त्यारे वीरनि. सं. ९९३नुं वर्ष स्वीकारती हशे. पट्टावली अने गणना वच्चेना १३ वर्षना आ तफावतने पूरवा माटे वालभी वाचनाकारोओ पट्टावलीमां श्री श्रीगुप्ताचार्यनो प्रक्षेप कर्यो हशे .
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उपरनां तारणो केम स्वीकार्य न बनी शके ते क्रमशः जोईओ
१. जैन श्रमणो विक्रम संवत्नी उत्पत्तिथी पहेलां कालगणना माटे जेम युगप्रधानो के स्थविरोनी गणतरी पर आधार राखता हता, तेम विक्रम संवत्नी उत्पत्ति पछी पण घणा समय सुधी ते पट्टावलीओ ज कालगणना माटे मनो मुख्य आधार हती. विक्रम संवत् साथे जैनोनो नातो आमे शिथिल हतो. अने तेथी ज वीरनिर्वाणना १५मा सैका सुधीना जैन ग्रन्थोमां प्रायः विक्रम संवत्नो उल्लेख नथी देखातो. अटलुं ज नहीं, विक्रम संवत् ८९८ ( वीरनि. सं. १३६८) पूर्वेनो विक्रम संवत्नो निर्देश तो जैनेतर क्षेत्रमां पण क्यांय नथी देखातो'. आ संजोगोमां, वीरनिर्वाणना १० मा सैकामां जैन श्रमणोमां वीरनिर्वाण संवत्ना मतभेदनी बाबतमां विक्रम संवत् निमित्त बने, (के जे संवत् क्यारथी शरू थयो, शा माटे शरू थयो व. आज सुधी निर्णीत थयुं नथी) ते थोडुं विचारणीय लागे छे.
—
२. विक्रम संवत्नी बाबतमां प्रवर्तती अनिश्चितता, जे निश्चित हतो ओवा वीरनिर्वाण संवत्नी बाबते अनिश्चितता सर्जवामां कई रीते निमित्त बने ? कहेवानो मतलब से छे के बन्ने गणनाकारोना मते श्रीदेवर्द्धिगणिनी वाचनानुं वर्ष जेम वि.सं. ५१० निश्चित हतुं, तेम पट्टावलीओना आधारे जो वीरनि. सं. ९८० पण निश्चित होय, तो विक्रम संवत् क्यारथी शरू थयो ओ मुद्दे तेओ विक्रम संवत्ने बदले वीरनिर्वाण संवत्मां शा माटे फेरफार स्वीकारे ?
३. विक्रमादित्ये राज्यारम्भना अमुक समय पछी संवत् प्रवर्ताव्यो ओवा उल्लेख मळे छे. पण आ समयगाळो १३ वर्षनो ज हतो ओवो ओक पण उल्लेख प्रायः मळतो नथी. तो वालभी गणना १३ वर्षनो ज आग्रह शा माटे राखे ?
४. युगप्रधानपट्टावलीओ के स्थविरावलीओ साथे चेडां करवानुं अने तेम करीने विसंगतिओ सर्जवानुं काम जैन श्रमणो करे ते कदापि स्वीकारी न शकाय. वळी, पट्टावलीओमां १३ वर्षनी उमेरणी माटे अनेक विकल्प शक्य होवाथी, जो १३ वर्षोनो उमेरो पाछळथी थयो होत तो पट्टावलीओमां ते बाबते भिन्नता जोवा मळत. पण अवुं तो नथी. वालभी गणनाने अनुसरती तमाम पट्टावलीओ, स्थविरावली व. ग्रन्थोमां अकसरखी रीते श्री श्रीगुप्ताचार्यनी गणतने
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लीधे १३ वर्षनो वधारो देखाय छे के जे सूचवे छे के श्रीश्रीगुप्ताचार्यनो ओ गणनामां पाछळथी प्रक्षेप नथी थयो.
आ बधुं विचारतां 'विक्रम संवत् क्यारथी शरू थयो ओ बाबते पडेलो मतभेद बे वाचना वच्चे वीरनिर्वाण संवत्मां १३ वर्षना तफावतनुं कारण बन्यो' ओवो कापडिया साहेबनो अभिप्राय स्वीकार्य न बनी शके.
___ मुनिश्री कल्याणविजयजीनो अभिप्राय के 'विक्कमज्जाणंतर...' ओ गाथानुं वालभी गणनाकारोओ करेलुं अन्यथा अर्थग्रहण बे वाचना वच्चे वीरनिर्वाण संवत्मां १३ वर्षना तफावतनुं कारण बन्यु' ते पण विचारणीय छे. केम के -
१. आ गाथा फक्त मेरुतुङ्गीय विचार श्रेणिना परिशिष्टमां मळे छे. तेथी अटली प्राचीन न होई शके के छेक वीरनिर्वाणना दसमा सैकामां ओना अर्थनी विस्मृति बे वाचनाओमां मतभेद- कारण बने. आमे अेक गाथाना अर्थनुं विस्मरण आटला मोटा मतभेद- कारण बने ओम मानवू थोडं वधारे पडतुं छे ज.
२. आ गाथाने आपणे ओना सम्पूर्ण स्वरूपमा जोइशुं तो जणाशे के ओनो वास्तविक अर्थ ज छे के जे वालभी वाचनाकारोओ स्वीकार्यो छे. गाथा -
"विक्कमरज्जाणंतर, तेरसवासेसु वच्छरपवित्ती ।
सिरिवीरमुक्खओ वा, चउसयतेसीइवासाओ ॥"
अर्थ – विक्रमराजाना राज्यारम्भथी १३ वर्ष बाद संवत्सर प्रवो. आ वर्ष श्रीवीरप्रभुना निर्वाणथी ४८३मुं वर्ष हतुं.
माटे वीरनि. सं. ४५७मां विक्रमनो राज्यारम्भ थयो अने त्यारबाद १३ वर्षे वीरनि. सं. ४७०मां संवत्सर प्रवों - आq 'विक्कमरज्जा...' ओ पङ्क्तिनुं तात्पर्य काढq वाजबी लागतुं नथी.
३. उपर कापडिया साहेबना मतना ऊहापोह दरमियान, पट्टावलीओने बदले विक्रम संवत्ना प्रवर्तनना मुद्दे वीरनिर्वाण संवत्मां मतभेद मानवामां जे असङ्गतिओ दर्शावी छे, ते बधी अत्रे मुनिश्रीना मतमां पण लागु पडे तेम छे.
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४. बलमित्र-भानुमित्र अ ज विक्रमादित्य, उज्जैनीनी गादी पर तेमनुं वीरनि. सं. ४५७मां आरोहण, तेमना अनुगामी राजा नभः सेनना राज्यकालमां ५ मा वर्षे शकसेना साथेनुं युद्ध, आ युद्धमां मळेला विजयनी यादगीरीमां संवत्प्रवर्तन, आ संवत् साथै स्वर्गत राजा विक्रमना नामनुं जोडाण - आ तमाम वातो प्रमाणित थाय तो ज मुनिश्रीनो अभिप्राय ग्राह्य बनी शके. परन्तु वी.नि. सं.जै.का.मां ज दर्शावेला सन्दर्भे तपासतां तेओनी आ तमाम कल्पनाओने ऐतिहासिक रीते प्रमाणित करवी मुश्केल लागे छे.
५. विक्रम संवत्नी उत्पत्तिने सम्बन्धित जे उल्लेखो आजे मळे छे, मां क्यांय विक्रमराजाना वीरनि. सं. ४५७मां राज्यारोहणनी वात नथी. बल्के वीरनि. सं. ४७० पछी विक्रमनुं राज्यारोहण दर्शावता केटलाक छूटाछवाया उल्लेखोने बाद करतां वीरनि. सं. ४७० मां विक्रमना राज्यारोहणानी बाबतमां तमाम जैन ग्रन्थो अकमत छे. जैन श्रमणोनी आ मान्यता आधुनिक इतिहासकारोनी दृष्टि अप्रामाणिक होय तो पण, माथुरी गणनाकारो वीरनि. सं. ४५७मां ज विक्रमनुं राज्यारोहण स्वीकारता हता ओम दृढपणे कई रीते कहेवाय ?
आ बधो ऊहापोह करतां 'वीरनि. सं. ४५७मां विक्रमादित्य राजा थयो के वीरनि. सं. ४७०मां ?' अ मुद्दे बे गणनाओमां १३ वर्षनो तफावत पड्यो ओवो मुनिश्री कल्याणविजयजीनो अभिप्राय ग्राह्य जणातो नथी.
तेथी समग्रपणे विचारतां ओम जणाय छे के श्री श्रीगुप्ताचार्यनी वालभी गणनाकारोओ करेली गणतरी वाजबी होवा छतां, पूर्वे जणाव्यं तेम, अ गणनामां थयेली गरबड़े माथुरी गणना करतां वालभी गणनामां १३ वर्ष वधारी दीघां छे. आ १३ वर्षना तफावतना मुद्दे बन्ने पक्षो अटला मक्कम हशे के श्रीदेवर्द्धिगणिनी अध्यक्षतामां थयेली लेखनपरिषद् वखते बे पक्षो वच्चे समाधान शक्य न बनतां पज्जोसणाकप्पमां बे मतोनो उल्लेख जरूरी बन्यो हशे . लागे छे के त्यारे वि.सं. ५१० प्रवर्तमान होवाथी तेनी साथे वीरनिर्वाण संवत्नो मेळ बेसाडवा, वालभी गणनाकारोओ माथुरी गणनाथी जुदा पडीने, वीरनि. सं. ४७०-विक्रमना राज्यारोहणथी वि.सं.नी उत्पत्ति स्वीकारवाने बदले, तेना १३ वर्ष बाद विक्रमे प्रजाने अनृणी करीने संवत् प्रवर्ताव्यो ओम स्वीकार्यं हशे . मतलब के विक्रमसंवत्ना मुद्दे उद्भवेलो मतभेद वीरनिर्वाणना मुद्दे
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गणनाभेदनुं निमित्त बन्यो, ओम मानवाने बदले, वीरनिर्वाणनी बाबतमां १३ वर्षनो तफावत विक्रमसंवत्नी उत्पत्तिनी मान्यतामां फेरफारनुं कारण बन्यो ओम मानवुं वधु युक्तिसङ्गत लागे छे. जो के आ बाबतमां सत्य शुं छे ते तो विद्वानो ज जणावी शके.
१. वी.नि.सं.जै. का.
२.
-
*
-
*
आर्य भद्रगुप्त (४१) ४९५-५३५ आर्य वज्र (३६) ५३६-५७१ आर्य आर्यरक्षित (१३) ५७२-५८४
-
*
टिप्पणी
पृ. ६१ अने पृ. १३५, टि. ८८
माथुरी गणना
वीरनि. सं.
३.
वी.नि.सं.जै.का. पृ. ५५-६०
४. मौर्यवंशनां १६० ने बदले १०८ वर्ष गणवामां ५२ वर्षनो विपर्यास थयो छे अवुं मुनिश्रीनुं कथन छे.
५.
वी.नि.सं.जै.का. टि. ४३, १०८
६. वी.नि.सं.जै.का. पृ. १४५, छेल्लो परिच्छेद
७. विसङ्गतिओ माटे जुओ
८.
वालभी गणना
वीरनि. सं.
आर्य भद्रगुप्त (३९)
४९५-५३३
आर्य श्रीगुप्त (१५)
५३४-५४८
आर्य वज्र (३६)
५४९-५८४
आर्य आर्यरक्षित (१३) ५८५-५९७
अनुसन्धान ५८, 'निह्वव रोहगुप्त...' लेख
वी.नि.सं.जै.का. टि. १०२
९. जो के मुनिश्री वी.नि.सं. जै. का. पृ. ६० पर विक्रमना राज्यारम्भथी १३मा वर्षे विक्रम संवत्नी उत्पत्ति स्वीकारवा छतां एनो आरम्भ वीरनि. सं. ४७०मां देखाडनारी नीचेनी गाथा आपीछे
“विक्कमरज्जाणंतर, तेरसवासेसु वच्छरपवित्ती ।
सुन्नमुणिवेय (४७०) जुत्तो, विक्कमकालाउ जिणकालो
"
परन्तु तेओओ आ गाथानो स्थाननिर्देश कर्यो नथी. तेथी लागे छे के आ गाथा तेओओ पोताना मन्तव्यनी पुष्टि माटे नीचेनी बे गाथाओनी पङ्क्तिओने जोडीने बनावी होवी जोईए :
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"विक्कमरज्जारंभा, पुरओ सिरिवीरनिव्वुई भणिया । सुन्नमुणिवेयजुत्तो, विक्कमकालाउ जिणकालो ॥" (-माथुरी गणना) "विक्कमरज्जाणंतर, तेरसवासेसु वच्छरपवित्ती । सिरिवीरमुक्खओ वा, चउसयतेसीइवासाओ ॥" (-वालभी गणना) आ गाथाओ वी.नि.सं.जै.का.- पृ. १४६ पर आपवामां आवी छे.
वी.नि.सं.जै.का. – वीरनिर्वाण संवत् और जैन कालगणना, ले. - मुनिश्री कल्याणविजयजी, प्र. - क.वि. शास्त्रसमिति - जालोर, वि.सं. १९८७
पूर्ति अनुसन्धान-५७, पृष्ठ ९३ पर उत्तराध्ययन-नियुक्तिनी अेक गाथाना अर्थ विशे विचार करवामां आव्यो हतो.
"मोत्तूण ओहिमरणं, आवीची आइयंतु(ति)तं चेव ।
सेसा मरणा सव्वे, तब्भवमरणेण णेयव्वा ॥५.१६।।
अवधिमरण, आत्यन्तिकमरण अने आवीचीमरणने छोडीने शेष मरण विशे तद्भवमरण प्रमाणे जाणवू. अर्थात् तद्भवमरणमां जे स्वामित्वव्यवस्था छे ते आ मरणमां पण समजवी.
हमणां जाणवा मळ्युं के आ गाथा 'आवी(ई)यंतियंतियं' अवा पाठभेद साथे प्रवचनसारोद्धार (-नेमिचन्द्रसूरि)मां पण १५७मा द्वारमां मळे छे. आ गाथानी टीका करतां श्रीसिद्धसेनसूरिजीओ जणाव्युं छे के - "आवीई इति गाथा सूत्रे दृश्यते । न चाऽस्या भावार्थः सम्यगवगम्यते । नाऽप्यसावुत्तराध्ययनचूादिषु व्याख्यातेत्युपेक्ष्यते ।"
__परन्तु आ गाथानो उपर दर्शावेलो भावार्थ प्रवचनसारोद्धारगत मरणद्वारना निरूपण सन्दर्भे पण योग्य लागे छे तेम पू.आ. श्रीमुनिचन्द्रसूरिजीओ जणाव्युं छे.
-त्रै
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श्रीसिद्धसेन दिवाकरजीना केवलज्ञान-दर्शन अंगेना मन्तव्य विशे विचारणा
- मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय
आत्मिक विकासनी उत्कृष्ट भूमिकाओ प्राप्त थती ज्ञानशक्ति जैन दार्शनिक परिभाषा प्रमाणे 'केवलज्ञान' तरीके ओळखाय छे. 'केवलज्ञान' ओ नाम ज सूचवे छे तेम आ ज्ञानशक्ति प्राप्त थया पछी केवल ज्ञान ज प्रवर्ते छे, कोई पण वस्तु के धर्म विषे सहेज पण अज्ञान रहेतुं नथी. अर्थात् आत्मा आ शक्ति द्वारा विश्वना त्रणे कालना सघळाये पदार्थो अने तेमना तमाम धर्मोनो बोध करे छे. बोध करवा माटे आत्मा आ शक्तिने बे रीते प्रयोजे छे : १. तमाम वस्तु-धर्मोने जाणवामां, २. तमाम वस्तु-धर्मोने जोवामां. आत्मानुं आ जाणवू (-बोधक्रिया) पण 'केवलज्ञान' कहेवाय छे अने जोवू (-साक्षात्कारक्रिया) 'केवलदर्शन' गणाय छे.
उपर जणाव्युं तेम सकल पदार्थोना बोधनी शक्ति अने सकल पदार्थोनो बोध बन्ने 'केवलज्ञान' गणाय छे. तेनुं कारण ओ छे के 'ज्ञान' शब्द जैन प्रमाणव्यवस्था मुजब अक करतां वधु अर्थ धरावे छे. १. बोध-उत्पादक शक्ति २. ओ शक्ति द्वारा प्रवर्तती बोध माटेनी क्रिया ३. ओ क्रियाजन्य बोध ४. वस्तुना अनेक अंशोनो अथवा वस्तुनी हेयता-उपादेयतानो ग्राहक बोधविशेष' ५. बोधात्मक उपयोग.२
हवे, केवलज्ञानी महात्मा केवलज्ञान अने केवलदर्शन धरावता होय ओम तमाम जैनाचार्यो माने ज छे. परन्तु आ ज्ञान-दर्शन अेक ज धर्मना बे नाम छे के बन्ने भिन्न धर्मो छे ? आ मुद्दे जैनाचार्योमां विचारभेद छे. अटलुं ज नहीं पण, ओ बन्ने धर्मो भिन्न होय तो पण ओ बन्ने ओक साथे वर्ते छे के अलग-अलग समये ? ओ मुद्दे पण जैनाचार्यो जुदा-जुदा विचारो धरावे छे.
शास्त्रीय परिपाटीने अनुसरनारा आचार्यो केवलज्ञान-दर्शनने परस्पर पृथक् धर्मो गणे छे. तेओना मते आ धर्मो क्रमशः प्रवर्ते छे. आ मत 'क्रमवाद' गणाय छे. जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आ मतना प्रबल समर्थक छे.
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श्री मल्लवादीजी व आचार्यो केवलज्ञान- दर्शनने पृथक् धर्मो गणवा छतां बन्नेने सहवर्ती- युगवत् वर्तनारा गणे छे. तेओनो मत 'युगपद्वाद' तरीके ओळखाय छे.
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आनी सामे 'अभेदवादी' आचार्यो बन्नेने सर्वथा अभिन्न गणे छे. सिद्धसेन दिवाकरजी आ मतना स्थापक गणाय छे.
आ त्रणे वादोनी चर्चाने लगतुं विपुल साहित्य अत्यारे उपलब्ध छे.३ तेमांथी क्रमवादना पोषक विशेष - णवति ( - श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण) ग्रन्थना आधारे आपणे अभेदवाद - क्रमवाद अने युगपद्वाद - क्रमवादनी चर्चा जोइशुं. अभेदवाद - क्रमवादनी चर्चा
अभेदवादी ज्ञानावरण कर्म क्षीण थाय ओटले केवलज्ञान प्रगटे छे अने मति-श्रुत व. अन्य ज्ञानो विराम पामे छे. अर्थात् अन्य कोई पण ज्ञान अवशिष्ट रहेतुं नथी. तो केवलदर्शन पण कई रीते होय ? (वि.ण. १८६)
-
-
क्रमवादी अन्य ज्ञानो देशविषयक - सीमित विषयक्षेत्र धरावारां होय छे, माटे सकलविषयक केवलज्ञान प्रगट थाय भेटले ते विराम पामी जाय छे; परन्तु अ ज रीते देशविषयक दर्शनो पण नाश पामी जाय त्यारे सकलविषयक केवलदर्शन केम प्रगट न थाय ? (वि.ण. १८७)
अ. - केवलदर्शन केवलज्ञाननी अपेक्षाओ अत्यन्त परिमित विषयक्षेत्र धरावे छे. तो केवलज्ञान प्रगट थाय ओटले मति व. ज्ञानोनी जेम केवलदर्शन पण नाश न पामे ? (वि.ण. १८९).
क्र. केवलदर्शननुं विषयक्षेत्र केवलज्ञाननी अपेक्षाओ परिमित छे अवुं को कह्युं ? केवली भगवन्त जेम केवलज्ञानना बले सर्व ज्ञेय पदार्थोने जाणे छे, तेम केवलदर्शनना बले सर्व द्रष्टव्य पदार्थोने जुअ ज छे. वास्तवमां शेष असम्पूर्ण ज्ञानोनो सर्वथा अभाव छे ओम तमे कहो छो, खरेखर अवुं होतुं नथी. मति, श्रुत व. तमाम ज्ञानो केवली भगवन्तने होय ज छे, फक्त तेमनो वपराश नथी होतो. सूर्यना प्रकाशमां जोवा माटे दीवानी शी जरूर ? (वि.ण. १९०-१९२) माटे मति- श्रुतना दृष्टान्तथी केवलदर्शननुं निराकरण करी शकाय नहीं.
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वळी, ज्ञानात्मक आत्मिक अवस्थाओ मुख्यत्वे बे ज होय छे - क्षायोपशमिक अने क्षायिक.५ केवलदर्शन क्षायिक भाव छे, तेथी क्षायोपशमिक अवस्थामां तो ते न ज होय. अने क्षायिक केवली अवस्थामां तो तमे आने स्वीकारता नथी. तो केवलदर्शन रहेशे क्यां ? (वि.ण. १९४-१९५)
अ. - केवलदर्शन जेवी कोई चीज होती ज नथी. तो अना रहेवान रहेवानी चिन्ता शुं काम करवी जोइ ?
क्र. - जैन आगमोमां अनेक ठेकाणे ४ दर्शन, ४ दर्शनावरण कर्म, ४ अनाकारोपयोग व. प्ररूपणाओ छे.६ हवे जो तमे केवलदर्शन, अस्तित्व ज न स्वीकारो तो तमारे ओ तमाम प्ररूपणाओ साथे विरोध आवशे. (वि.ण. १९६)
अ. - तमे अमाझं मन्तव्य बराबर समजता नथी. अमे ज्यारे केवलदर्शननो निषेध करीओ छीओ, त्यारे अनो अर्थ ओ नथी के अमे केवलदर्शनना अस्तित्वने ज सदन्तर नकारीओ छीओ. अमे तो फक्त ओम ज कहीओ छीओ के केवलदर्शन ओ केवलज्ञानथी विलक्षण के पृथक् बाबत नथी. ओक ज क्रिया (सर्व पदार्थोनुं बोधात्मक ग्रहण ज) बे नामे ओळखाय छे. माटे ओ क्रियाने केवलज्ञाननी जेम केवलदर्शन पण गणीओ तो शास्त्रीय प्ररूपणाओ साथे कोई विरोध आवतो नथी. (वि.ण. १९७)
क्र. - तमारा मन्तव्यमांत्रण वात विचारणीय लागे छे : १. जो केवलज्ञान अने केवलदर्शन अेक ज होत तो निरर्थक बेनी प्ररूपणा
शुं काम करात ? बन्नेनां अलग-अलग आवारक कर्मो पण शा माटे
देखाडात ? (वि.ण. १९८) २. 'सिद्ध भगवन्तो साकार अने निराकार बन्ने लक्षणवाळा होय छे' ओम
शास्त्रोमां कडं छे. हवे जो केवलदर्शन ओ केवलज्ञानथी जुदुं न होय तो, ज्ञान साकारोपयोगात्मक होवाथी सिद्धोने निराकारोपयोग ज नहीं मळे, अने
तो तेओने निराकार अवस्था पण कई रीते घटशे ? (वि.ण. १९९) ३. ज्ञेय पदार्थोने पोतीका स्वरूपे जाणवा ओ बोधक्रिया (-ज्ञान) छे, अने
द्रष्टव्य पदार्थोने सामान्य स्वरूपे जोवा मे साक्षात्कारक्रिया (-दर्शन) छे,
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तो आ बन्ने क्रियाओने अेक कई रीते गणी शकाय ?" (वि.ण. २००)
अ. - दर्शन अव्यक्त होय छे अने केवली अवस्थामां तो अव्यक्तता होती नथी. तो केवली भगवन्तने व्यक्त केवलज्ञानथी पृथक् अव्यक्त केवलदर्शन केवी रीते सम्भवे ? अक तरफ केवलज्ञानी कहेवा अने बीजी तरफ अमने पदार्थो अव्यक्त रहे छे ओम कहेवू - आमां विरोध नथी ? (वि.ण. २१९)
क्र. - 'दर्शन अव्यक्त होय छे' आ नियम छाद्मस्थिक दर्शनो पूरतो ज समजवानो छे. केवलदर्शन तो सघळाये द्रव्य-पर्यायोने जोतुं होवाथी, तेम ज पोताना आवरणना सर्वथा क्षयथी उद्भूत होवाथी व्यक्त ज होय छे. माटे केवली भगवन्तने केवलज्ञानथी पृथक् केवलदर्शननो उपयोग स्वीकारवामां कोई ज दोष नथी. (वि.ण. २२०-२२१)
वास्तवमा दोष तो केवलदर्शनने केवलज्ञानथी जुदुं न स्वीकारवामां छे. कारण के ज्ञान हमेशां विषयभूत पदार्थोने जाणी शके छे, जोई शकतुं नथी. जोवा माटे तो दर्शन ज जोइओ. माटे केवलदर्शनना स्वतन्त्र अस्तित्वने नकारनाराओना मते तो केवली भगवन्त सर्व पदार्थोने जोई शकता नथी, एम ज मानवं पडे. (वि.ण. २२२)
आम, केवलज्ञान अने केवलदर्शन स्वतन्त्र अने परस्पर पृथक् बाबतो छे ओम नक्की थयु. हवे तेमां पण क्रमवादीओना मते ओक समय केवलज्ञान अने ओक समय केवलदर्शन अम क्रमिक परम्परा प्रवर्ते छे, ज्यारे युगपद्वादीओ बन्नेने अलग समजवा छतां समानकालीन गणावे छे. आ बन्ने मतोनां मन्तव्यने बराबर समजवा माटे आपणे युगपद्वाद-क्रमवादनी चर्चा विशेष-णवतिना ज आधारे सक्षेपमां जोइशुं. युगपद्वाद-क्रमवादनी चर्चा युगपद्वादी - १. आगमोमां केवलज्ञान अने केवलदर्शन बन्नेने सादिअपर्यवसित गणाववामां आव्यां छे. हवे तमारा मते तो केवलज्ञानना समये केवलदर्शन नथी होतुं अने केवलदर्शनना समये केवलज्ञान नथी होतुं. तो आ रीते तो केवलज्ञान-दर्शन उत्पादविनाशी ज सिद्ध थया. तो ओमनी शास्त्रोमां
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दर्शावेली अनन्तता कई रीते घटशे ? (वि.ण. २२५)
२. केवलज्ञान-दर्शननां आवारक कर्मोनो क्षय पण आ रीते निरर्थक बनशे. कारण के अ क्षयथी प्राप्त थनारां केवलज्ञान-दर्शन ओक समयथी वधारे तो टकतां नथी. (वि.ण. २३२)
३. आवारक कर्मो पण न होय अने अन्य कोई प्रतिबन्धक पण न होय अने छतांय केवलज्ञान-दर्शन अक अक समय टकीने नाश पामी जाय, अमां कारणभूत कोण ? कोई ज नहीं. माटे वगर कारणे ज ते नाश पामे छे ओम स्वीकारतुं पडे. अने ओम स्वीकारवा कयो बुद्धिमान पुरुष तैयार थाय? (वि.ण. २३९)
४. केवलज्ञान वखते केवलदर्शन न होवाथी केवली भगवन्त असर्वदर्शी बनशे तेमज केवलदर्शन काले केवलज्ञान न होवाथी असर्वज्ञ बनशे. तो केवली भगवन्तने आपणे क्यारेय सर्वज्ञ-सर्वदर्शी तरीके तो ओळखी ज नहीं शकीओ. (वि.ण. २४६)
माटे आवा दोषोथी बचवा माटे केवली भगवन्तने सदाकाल ओकसाथे केवलज्ञान अने केवलदर्शन प्रवर्ते छे ओम स्वीकारवू जोइओ.
क्रमवादी - आपणे अंक दृष्टान्त जोइओ. मतिज्ञान अने श्रुतज्ञान पोतपोतानां आवरणोना क्षयोपशमथी प्रगटे छे.११ आ बन्ने ज्ञानो छद्मस्थ अवस्थानां ज्ञानो छे. अने छद्मस्थ अवस्थामां कोई पण ज्ञान अन्तर्मुहूर्तथी१२ ओछु के वधु टकतुं नथी अने ओक साथे बे ज्ञान होतां नथी. तेथी अन्तर्मुहूर्त सुधी मतिज्ञानोपयोग अने अन्तर्मुहूर्त सुधी श्रुतज्ञानोपयोग ओवी परम्परा अन्य ज्ञान-दर्शनोना उपयोग सुधी चाल्या करे छे. मतिज्ञान अने श्रुतज्ञाननी उत्कृष्ट स्थिति ६६ सागरोपम१३ जेटली होय छे अने अटलो समय आ ज्ञान धरावनारो जीव मतिज्ञानी-श्रुतज्ञानी तरीके ओळखाय छे.
हवे आ ठेकाणे तमे जे दोषो केवलज्ञान-दर्शनना क्रमिक उपयोग सन्दर्भे आप्या ते तमामे तमाम आपी शकाय तेम छे : १. मतिज्ञानोपयोग के श्रुतज्ञानोपयोग जो अन्तर्मुहूर्तथी वधु समय रहेतो ज न होय तो ओ बन्नेनी ६६ सागरोपमनी स्थिति कई रीते सम्भवे ? २-३. पोतपोतानां आवरणोनो क्षयोपशम
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होवा छतां आ बन्ने ज्ञानो जो अन्तर्मुहूर्तमां ज वगर कारणे नाश पामी जतां होय तो आवरणोनो क्षयोपशम निरर्थक नहीं बने ? अने कारण वगर पण नाश थाय छे ओम स्वीकारवानी आपत्ति नहीं आवे ? ४. मतिज्ञान वखते श्रुतज्ञान न होय अने अ ज रीते श्रुतज्ञान वखते मतिज्ञान विराम पामी जतुं होय तो कोई पण जीवने मति-श्रुतज्ञानी तरीके ओळखी ज न शकीओ.
अत्रे आ बधा ज दोषोनो उद्धार आपणे बन्ने अेक ज रीते करी शकीओ. आत्मानो सहज स्वभाव ज ओक उपयोगमां वर्तवानो छे. तेथी मतिज्ञानोपयोग वखते तेवा कारणोसर श्रुतज्ञानोपयोग सर्जाय तो मतिज्ञानोपयोग नष्ट थई जाय छे, आत्मगत मतिज्ञानशक्ति कंइ नष्ट नथी थती. ओ तो श्रुतज्ञानोपयोग वखते पण विद्यमान ज होय छे अने तेथी ज तो श्रुतज्ञानोपयोग बाद पुनः मतिज्ञानोपयोग प्रवर्ती शके छे. आम मति-श्रुतज्ञानशक्ति जो अन्तर्मुहूर्तमां नाश न पामी जती होय तो ओ शक्तिने आश्रयीने थतुं ६६ सागरोपमनुं विधान कई रीते असंगत बने ? ओ शक्तिने जन्मावनारो क्षयोपशम कई रीते निरर्थक बने ? वगर कारणे नाश पामवानी आपत्ति पण कई रीते आवे ? अने उपयोगमां न होवा छतां मति-श्रुतज्ञानशक्ति धरावनारा जीवने मति-श्रुतज्ञानी तरीके केम न ओळखी शकाय ?
नवाईनी वात ओ छे के आटली स्पष्ट समजण तमे पण धरावो छो अने मति-श्रुतज्ञान स्थळे आवता दोषोनो उद्धार तमे पण करी शको छो तो ओ ज रीते केवलज्ञान-दर्शनने क्रमिक मानवामां उपस्थित थता दोषोनुं निराकरण शक्य छे ओ तमे केम समजता नथी ?
___ अमे केवलज्ञान-दर्शनना उपयोगोने अकसामयिक गणीओ छीओ, केवलज्ञान-दर्शन-शक्तिने नहीं. शास्त्रगत सादि-अनन्ततानुं विधान शक्तिने आश्रयीने छे के जे खरेखर अनन्त छे. तो उपयोगोनी ओकसामयिकतानो ओ विधान साथे कई रीते विरोध आवे ? वळी, आ अकसामयिकता आत्माना सहज स्वभावने लीधे छे. तेथी उपयोगोना ओक समय पछीना नाशने अकारणिक मानवानी आपत्ति पण रहेती नथी. उपरान्त, केवलज्ञान अने केवलदर्शननां आवारक कर्मोनो क्षय केवलज्ञान-दर्शननी शक्तिने प्रगट करे छे के जे अनन्त छे, तो क्षयनी निरर्थक बनवानी वात ज आमां क्यां आवी ? क्षय छे तो ज
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आ शक्तिनुं प्रागट्य छे.
हवे तमे क्रमिक उपयोगमां असर्वज्ञ-असर्वदर्शित्वनी आपत्ति आपी ते पण शक्तिनी अपेक्षाओ विचारीओ तो नथी रहेती. गौतमस्वामी चतुर्ज्ञानी तरीके ओळखाता हता. पण तेमने उपयोग तो अकसाथे ओक ज ज्ञाननो रहेतो हतो. तेथी उपयोगनी अपेक्षाओ ओकज्ञानी अने शक्तिनी अपेक्षाओ चतुर्ज्ञानी - अम आपणे जेम समजीओ छीओ, तेम उपयोग अकला केवलज्ञान के अकला केवलदर्शननो होवा छतां शक्तिनी अपेक्षाओ केवलीने सर्वज्ञ-सर्वदर्शी गणवामां आवे छे. ट्रॅकमां, क्रमिक उपयोग मानवाना मतमां तमे आपेला कोई ज दोष आवता नथी.
यु. - केवलज्ञानावरणनी साथे ज केवलदर्शनावरणनो पण क्षय थाय छे. तो क्षयना तरत पछीना समये केवलज्ञाननो ज उपयोग होय, केवलदर्शननो नहीं, तेमां नियामक कोण ? माटे जेम बन्नेना आवारक कर्मोनो क्षय साथे ज थयो छे, तेम बन्नेनो उपयोग पण साथे ज मानवो जोईओ.१४ (वि.ण. २४८)
क्र. - जेनां आवरक कर्मोनो क्षय साथे ज थाय, तेमनो उपयोग पण साथे ज होय ओवो नियम नथी. केम के केवलज्ञानावरणनी साथे दानान्तराय, लाभान्तराय व. कर्मोनो पण क्षय थाय छे. छतांय क्षयना अनन्तर समये केवलीने दान, लाभ व. प्रवर्ते ज तेम बनतुं नथी. माटे केवलदर्शननो उपयोग क्षय पछी न प्रवर्ते तेमां कोई बाध नथी५. (वि.ण. २४९-२५०)
वळी, "केवली णं इमं रयणप्पभं पुढवि आगारेहिं जं समयं जाणति नो तं समयं पासति, जं समयं पासति नो तं समयं जाणति ।" जेवां सूत्रो द्वारा भगवतीजी, प्रज्ञापना व. अनेक स्थळे, ओकसाथे जोवा अने जाणवानो निषेध करवामां आव्यो छे. (वि.ण. २५१)
यु. - अत्रे आवो अर्थ करवामां केवली भगवन्तनी आशातना थाय छे. माटे अत्रे केवलीनो अर्थ श्रुतकेवली समजवो जोइए. अथवा तो आ वातने परतीर्थिकोनो मत समजवो जोइए. (वि.ण. २५२)
क्र. - प्रज्ञापना, भगवतीजी व.मां आवता आ सिवायना अन्य तमाम केवली सम्बन्धित निर्देशोने स्वसिद्धान्तसम्मत ज तमे समजो छो. अटलुं ज नहीं, पण ओ तमाम स्थाने 'केवली'नो अर्थ तमे 'केवलज्ञानी' ज करो छो.
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तो आ ओक ज स्थळे अने परवक्तव्य मानवुं अथवा केवली - शब्दनो अर्थ बदली नाखवामां तमारी इच्छा सिवाय कयुं कारण ? आ प्ररूपणाओनी आगळ-पाछळना सन्दर्भों परथी पण अत्रे 'केवली' नो अर्थ 'केवलज्ञानी' ज लेवानो छे ते स्पष्ट समजाय तेवुं छे. (वि.ण. २५३-२५८)
वळी, अल्पबहुत्वनी प्ररूपणामां पण साकारोपयोगी अने अनाकारोपयोगीनुं ज अल्पबहुत्व जोवा मळे छे, उभयोपयोगीनुं नहीं. ते पण जणावे छे के साकार अने अनाकार उभय उपयोग अकसाथै सम्भवे नहीं. (वि.ण.२६७) माटे समग्रपणे विचारतां ओक समय केवलज्ञान अने बीजा समये केवलदर्शन ओ रीते उपयोगोनी क्रमिक परावृत्ति ज स्वीकारवी अमने इष्ट लागे छे.
* * *
त्रणे
उपरनी चर्चा परथी अभेदवाद, युगपवाद अने क्रमवाद वादोनुं हार्द बराबर स्पष्ट थइ जाय छे. हवे आपणे प्रस्तुत लेखना मूळ उद्देश्य पर विचार करीशुं. सिद्धसेन दिवाकर भगवन्त क्रमवादना विरोधी छे से अक निश्चित बाबत छे. पण तेओनुं पोतानुं मन्तव्य शुं छे ते विचारणीय मुद्दो बने छे.
सिद्धसेन दिवाकरजीनुं केवलज्ञान-दर्शन विशेनुं पोतानुं मन्तव्य समजवा माटे उपलब्ध सामग्रीमां सन्मतितर्क- द्वितीयकाण्डनी ३ थी ३१ गाथाओ अने स्तुतिकारना नामे नोंधायेलुं ओक पद्य एवं कल्पितभेद...' ओम बे वस्तु छे. १६ आ सामग्रीना आधारे आपणे तेओना मन्तव्यनी विस्तृत छणावट करीओ ते पूर्वे केलांक बाह्य साक्ष्यो विशे जोई लइओ.
श्री अभयदेवसूरिजी सन्मतितर्कनी वादमहार्णव नामनी स्वरचित टीकामां सिद्धसेन दिवाकरजीने अभेदवादी जणाव्या छे :
"
'अत्र प्रकरणकारः क्रमोपयोगवादिनं तदुभयप्रधानाक्रमोपयोगवादिनं च पर्यनुयुज्य स्वपक्षं दर्शयितुमाह । ( - सन्मति ० २. ९नी अवतरणिका) “अत्र च जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यानामयुगपद्भाव्युपयोगद्वयमभिमतम् । मल्लवादिनस्तु युगपद्भावि तद्द्वयमिति । ( - सन्मति ० २.१० टीका) "साकारानाकारोपयोगयोनैकान्ततो भेद इति दर्शयन्नाह सूरिः । (-सन्मति. २.११ अवतरणिका)"
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मलधारी श्रीहेमचन्द्राचार्ये विशेषावश्यक - टीकामां स्तुतिकारने (-सिद्धसेन दिवाकरजीने) अभेदवादी मान्या छे. उपाध्याय श्रीयशोविजयजी भगवन्ते पण ज्ञानबिन्दुमां उद्धृत सन्मति - गाथाओना स्वोपज्ञ विवेचनमां श्रीअभयदेवसूरिजीने अनुसरीने श्रीसिद्धसेनाचार्यने अभेदवादी गणाव्या छे. पण्डित सुखलालजीना ज्ञानबिन्दुपरिशीलन, दर्शन और चिन्तन व ग्रन्थो जोतां जणाय छे के तेओ दिवाकरजीने अभेदवादी ज समजे छे. श्रीजयसुन्दरसूरिकृत सन्मतितर्क - विवेचनमां पण सिद्धसेन दिवाकरजीना मतने अभेदवादस्थापक ज जणाववामां आव्यो छे. मतलब के प्राचीन कालथी ज दिवाकरजीनी अभेदवादना स्थापक तरीके प्रसिद्धि रही छे अने आजे तो ओ बाबतमां भाग्ये ज कोईने शङ्का हशे .
परन्तु, आनी सामे सिद्धसेन दिवाकरजी युगपद्वादना समर्थक हता ते माटेनां साक्ष्यो पण अवलोकनीय छे :
*श्रीहरिभद्रसूरिजी श्रीनन्दिसूत्रनी टीकामां त्रणे वादोना पुरस्कर्ताओनां नाम सूचवतां जणावे छे के
—
“केचन सिद्धसेनाचार्यादयो भणन्ति । किम् ? युगपदेकस्मिन्नेव काले जानाति पश्यति चेत्येकः केवली नत्वन्यः नियमान्नियमेन । अन्ये जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणप्रभृतयः एकान्तरितं जानाति पश्यति चेत्येवमुपदिशन्ति, श्रुतोपदेशेन यथाश्रुतानुगमानुसारेणेत्यर्थः । अन्ये तु वृद्धाचार्या न नैव पृथक् पृथग्दर्शनमिच्छन्ति जिनवरेन्द्रस्य केवलिन इत्यर्थः । किन्तर्हि ? यदेव केवलज्ञानं तदेव से तस्स केवलिनो दर्शनं ब्रुवते । "
आमां स्पष्टपणे श्रीहरिभद्रसूरिजी भगवन्ते दिवाकरजीने युगपद्वादी गणाव्या छे, के जे तेमने अभेदवादी गणावता श्रीअभयदेवसूरिजीना मतथी जुदी पडती बाबत छे. उपाध्यायजी भगवन्ते ज्ञानबिन्दुमां आ मतभेदनुं समाधान करवा प्रयास कर्यो छे के
“यत्तु युगपदुपयोगवादित्वं सिद्धसेनाचार्याणां नन्दिवृत्तावुक्तं तदभ्यु– पगमवादाभिप्रायेण, न तु स्वतन्त्रसिद्धान्ताभिप्रायेण, क्रमाक्रमोपयोगद्वयपर्यनुयोगानन्तरमेव स्वपक्षस्य सम्मतावृद्भावितत्वादिति द्रष्टव्यम् ।' (दिवाकरजीओ सन्मतिमां क्रमवादनुं खण्डन करवा माटे सौ प्रथम युगपद्वादनुं अवलम्बन लीधुं छे, अने त्यारबाद क्रमवादनी साथे ने साथे युगपद्वादनुं पण खण्डन करीने
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स्वसम्मत अभेदवादनी स्थापना करी छे. माटे दिवाकरजीनो पोतानो पक्ष तो अभेदवाद ज छे, परन्तु ओक हद सुधी युगपवाद स्वीकारता होवाथी श्रीनन्दिसूत्रना टीकाकारे तेमने युगपद्वादी गण्या छे.)
__ आ समाधान अटले विचारणीय जणाय छे के जो श्रीहरिभद्रसूरिजी दिवाकरजीने वास्तवमां अभेदवादना ज स्थापक समजता होत तो, अभ्युपगमवादना अभिप्रायथी पण युगपद्वादी तरीके श्रीसिद्धसेनाचार्यनो उल्लेख कर्या पछी, अभेदवादना स्थापक तरीके वृद्धाचार्यने न ज जणावत. केम के तेम करवाथी तो ओ निर्णीत ज थई जाय के अभेदवाद श्रीसिद्धसेनाचार्यनो तो नथी ज.१७
वास्तवमा विशेषावश्यकभाष्य के विशेष-णवतिमां वादोना पुरस्कर्ताओनां नाम न होवा छतां, ओ ग्रन्थोने आधारे ज केवलज्ञान-दर्शननी चर्चा करती वखते श्रीहरिभद्रसूरिजी वादपुरस्कर्ताओनां नाम सौप्रथम वखत उल्लेखे छे, त्यारे ओ नक्की छे के तेओनी आ प्ररूपणा निराधार तो न ज होय. तेओनी पासे आ माटे कोई प्रबल श्रुतपरम्परा के गुरुपरम्परा होवी ज जोईओ. अने अमां पण ज्यारे श्रीमलयगिरिजी पण स्वकीय नन्दीटीकामां त्रणे वादोना पोषक तरीके हरिभद्रसूरिजीओ जणावेला आचार्योने ज उल्लेखे छे, त्यारे 'दिवाकरजी युगपद्वादी हता, अभेदवादी नहीं' ओ मत पुरुषप्रामाण्यनी रीते अत्यन्त सबल बनी जाय छे.
*श्रीअभयदेवसूरिजीओ मल्लवादीजीने युगपद्वादी गणाव्या छे ते पण आ सन्दर्भे विचारणीय बने छे. मल्लवादीजीना बे ग्रन्थो इतिहासनां पाने नोंधायेल छे : १. द्वादशारनयचक्र २. सन्मतिटीका. हवे पण्डित सुखलालजीओ ज्ञानबिन्दुपरिशीलनमा जणाव्या मुजब द्वादशारनयचक्रमां तो केवलज्ञान-दर्शन सम्बन्धे कोई चर्चा ज नथी. तेथी तेओनी युगपद्वाद-प्ररूपणा अंगे बे ज विकल्पो संभवे छे : १. मल्लवादीओ युगपद्वादनो स्थापक त्रीजो ज ग्रन्थ रच्यो होय के जेनो उल्लेख अत्यारे आपणी पासे नथी. २. सन्मतिटीका के जे अत्यारे अनुपलब्ध छे, तेमां तेओओ युगपद्वाद प्ररूप्यो होय. आमांथी प्रथम विकल्प स्वीकारीने बीजा विकल्पने अमान्य करतां पण्डित सुखलालजी ज्ञानबिन्दु-परिशीलनमा जणावे छे के "ज्यारे मल्लवादी अभेदसमर्थक दिवाकरना ग्रन्थ पर टीका लखे त्यारे ओ केवी रीते मानी शकाय के तेमणे दिवाकरना
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ग्रन्थनी व्याख्या लखती वखते तेमां तेमना विरुद्ध पोतानो युगपत्पक्ष कोईक रीते स्थाप्यो होय ?"
परन्तु पण्डितजीनी आ वात वाजबी जणाती नथी. कारण के श्रीसिद्धसेनाचार्यना अभेदवादथी विरुद्ध युगपद्वादनी स्थापना मल्लवादीजी श्रीसिद्धसेनाचार्यना ज ग्रन्थनी टीकामां न करे ओम समजी, मल्लवादीना त्रीजा कोईक ग्रन्थनी कल्पना करवी ते करतां, मल्लवादीजीओ दिवाकरजीने युगपद्वादी ज समजी तेमना ज युगपद्वादनी प्ररूपणा सन्मतिटीकामां करी हशे ओम मानवू वधारे उचित लागे छे. अने आ मान्यताने समर्थन आपतो अेक पुरावो पण आपणने, श्रीअभयदेवसूरिजी कृत सन्मतिटीकामां सांपडे छे.
श्रीअभयदेवसूरिजीओ सन्मति० - २.१४नी टीकामां, ओ गाथानो युगपद्वादी केवो अर्थ करता हता ते जणाव्युं छे - "युगपदुपयोगद्वयवादी 'अनन्तं दर्शनं प्रज्ञप्त'मित्यस्यां प्रतिज्ञायां 'साकारग्गहणाहि य णियमऽपरित्तं' इत्यकारप्रश्लेषात् ... हेतुमभिधत्ते ।" आ उल्लेख परथी स्पष्ट छे के सन्मतितर्कनी युगपद्वादी द्वारा करवामां आवेली कोईक टीका श्रीअभयदेवसूरिजी सामे मोजूद हती. आ टीका बहु ज सम्भव छे के मल्लवादीजीनी ज हती. कारण के ओक तो श्रीअभयदेवसूरिजी गाथा २.१०नी टीकामां मल्लवादीजीने ज युगपद्वादी तरीके ओळखावे छे, अने बीजुं ओ के श्रीअभयदेवसूरिजीथी पूर्वे मल्लवादी सिवाय कोईओ सन्मतितर्क पर टीका लख्यानो उल्लेख जाणवामां नथी. सम्भवित छे के प्रस्तुत युगपद्वादपरक व्याख्याने लीधे ज मल्लवादीजीने श्रीअभयदेवसूरिजीओ युगपद्वादी गणी लीधा होय.
हवे, जो मल्लवादीजीओ सन्मतितर्कनी प्रस्तुत विषयने सम्बन्धित गाथाओनी व्याख्या युगपद्वादपरक करी होय, तो स्वाभाविक रीते समजी शकाय के तेओ दिवाकरजीने युगपद्वादी ज समजता हशे. दिवाकरजीना मन्तव्य विशेनां उपलब्ध साक्ष्योमां मल्लवादीजीनो अभिप्राय ज सौथी प्राचीन छे, अने ओ अभिप्राय श्रीसिद्धसेनाचार्य युगपद्वादी हता ओ वातनी तरफदारी करे छे. ओ दृष्टिले 'सिद्धसेन दिवाकरजी युगपद्वादना स्थापक हता' ओ मत, दिवाकरजी अभेदवादी होवाना मत सामे वधु सबल बने छे. अत्रे ज्ञातव्य छे के श्रीअभयदेवसूरिजीथी पूर्वे कोई दिवाकरजीने अभेदवादी गण्या होवानो
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उल्लेख जडतो नथी.
*तर्कशुद्धतानी कसोटीमां पण अभेदवाद करतां युगपवाद वधु खरो उतरे छे. केमके - १. वि.भाष्य के विशेष-णवतिमां अभेदवादना खण्डन बाद तेना परिष्काररूपे
युगपद्वाद प्ररूपायो छे. आ वात सूचवे छे के क्रमवाद द्वारा अभेदवाद
पर करायेला आक्षेपोने सहन करवानी क्षमता तो युगपद्वाद धरावे ज छे. २. अभेदवादनो स्वीकार १२ उपयोग, ४ दर्शन, केवलदर्शनावरण कर्म जेवी
घणी घणी शास्त्रीय प्ररूपणाओनो छेद उडाड्या पछी ज थई शके. आनी अपेक्षाओ युगपद्वादे बहु ओछी प्ररूपणाओने अमान्य करवानी
रहे छे. ३. वाचक उमास्वातिजीओ तत्त्वार्थभाष्यमां युगपद्वाद ज प्ररूप्यो छे.१८८ ४. दिगम्बर-परम्परा तो प्राचीन कालथी लइने आज सुधी अकमात्र युगपद्वाद
ज स्वीकारती आवी छे'९. शास्त्रबलना सहारे युगपद्वादनु खण्डन करवा छतां श्रीजिनभद्रगणि अने तत्त्वार्थ-टीकाकार श्रीसिद्धसेनगणि जणावे छे के युगपद्वादनो स्वीकार करवामां अमने वांधो नथी, परन्तु अने प्रमाणित करनारुं शास्त्रवचन अमे नथी जोता अने ओथी अमे ओनो स्वीकार नथी करता.२० स्पष्ट छे के युगपद्वादनी तर्कशुद्धता तरफ ज तेओनो इशारो छे. आनी सामे अभेदवाद तर्कबल अने शास्त्रबल बन्ने रीते निर्बल छे. जोवू अने जाणवू ओ बन्ने क्रिया ओक ज छे ओवी अभेदवादीनी वात पण बुद्धिसंगत नथी. अना करतां केवलज्ञान अने केवलदर्शननां आवारक कर्मोनो क्षय जेम साथे थाय छे, तेम क्षयथी जन्य केवलज्ञान-दर्शननी उत्पत्ति पण साथे ज थाय तेवं युगपद्वादीनु मन्तव्य वधु बुद्धिग्राह्य छे.
आम जो अभेदवादनी अपेक्षाओ युगपवाद वधु तर्कपूत होय तो महान तार्किकाचार्य सिद्धसेन दिवाकरजी शा माटे युगपद्वादने छोडीने अभेदवाद स्वीकारे ?
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*आ बाबतमां सौथी महत्त्वनी गणाय तेवी साक्षी मे छे के विशेषणवति के वि.भाष्यमां उल्लिखित अभेदवादनी दलीलोमांथी महत्त्वपूर्ण ओक पण दलील सन्मतितर्कमां श्रीसिद्धसेनाचार्यना केवलज्ञान-दर्शन अंगेना स्ववक्तव्यमां प्रायः निर्दिष्ट नथी. किन्तु युगपद्वादनी ओकथी वधु दलीलो शब्दशः सन्मतिमां कर्तानी स्वमान्यता तरीके देखाय छे.२१ तो आ ज वात सन्मतिकारना अभेदवादी न होवाना प्रमाणमां पूरती नथी ?
जो के श्रीअभयदेवसूरिजी, मलधारी श्रीहेमचन्द्रसूरिजी, उपाध्याय श्रीयशोविजयजी जेवा बहुश्रुत भगवन्तो वगर जवाबदारीओ तो दिवाकरजीने अभेदवादी न ज जणावे. पण प्रश्न ओ छे के एकाधिक साक्ष्यो दिवाकरजीना युगपद्वादी होवानुं समर्थन केम करे छे ? सन्मतिकारना मन्तव्यो विशे श्रीहरिभद्रसूरिजी अने श्रीअभयदेवसूरिजी, मलयगिरिजी अने मलधारीजीना अभिप्रायोमां परस्पर आटली विसंगति शा माटे ? सन्मतिकारनां पोतानां ज वचनोमांथी आ विसंगतिनुं निराकरण शोधवा आपणे प्रयत्न करीशुं.
★ ★ ★ सन्मतितर्क सिवाय सिद्धसेन दिवाकरजीओ केवलज्ञान-दर्शन अंगेनुं पोतानु मन्तव्य रजू कर्यु होय, अर्बु सम्प्राप्त अकमात्र स्थान, अनेक स्थळे उद्धृत नीचे- पद्य छ :
“एवं कल्पितभेदमप्रतिहतं सर्वज्ञतालाञ्छनं, सर्वेषां तमसां निहन्तु जगतामालोकनं शाश्वतम् । नित्यं पश्यति बुध्यते च युगपद् नानाविधानि प्रभो!, स्थित्युत्पत्तिविनाशवन्ति विमलद्रव्याणि ते केवलम् ॥"
(आम जेना भेदो कल्पित कराया छे तेवो, प्रतिघातथी रहित, सघळांये अज्ञानान्धकारने उलेची नाखनार, समग्र विश्वमा प्रकाश पाथरनार, त्रिकालगामी अने सर्वज्ञताना चिह्नरूप अवो आपनो केवलबोध अविरतपणे अनेक प्रकारनां अने उत्पत्ति-विनाश-ध्रौव्यथी युक्त शुद्ध द्रव्योने अकसाथे जुओ छे अने जाणे छे.)
हवे आमां जे 'कल्पितभेदं' शब्द छे, ते जोइने विद्वानो, श्रीसिद्धसेनाचार्य
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केवलज्ञान-दर्शनमां काल्पनिक भेद अने वास्तविक अभेद मानता हता ओम आग्रहपूर्वक समजावे छे. खबर नहीं केम, पण आq तात्पर्य आ श्लोकदेखाडनारा 'नित्यं पश्यति बुध्यते च युगपद्' आ अंशने नजरअंदाज करता हशे ? जो आ पद्यना रचयिता खरेखर अभेदवादी ज होत तो, तेओ कदी पण ‘पश्यति' अने 'बुध्यते' ओम बे क्रिया न देखाडत. कारण के अभेदवादमां 'जोवू' अने 'जाणवू' जु, छ ज नहि. ज्यारे अहीं तो स्पष्ट कहे छे – “नित्यं युगपत् पश्यति बुध्यते च." तो आ युगपवाद ज छे के बीजुं कई ? 'पश्यति' अने 'बुध्यते' ने 'युगपत्'- ओक साथे कहेनाराने, इच्छीओ के ना इच्छीओ, पण युगपद्वादी ज गणवा पडे, अभेदवादी नहीं.
परन्तु दिवाकरजीने युगपद्वादी गणी लीधा पछी प्रश्न तो रहे ज छे के युगपद्वादमां केवलज्ञान अने केवलदर्शन वच्चे वास्तविक भेद छे, काल्पनिक नहीं. ज्यारे अहीं तो 'कल्पितभेदं केवलम्' आq कां छे. आम केम ? वास्तवमां श्रीसिद्धसेनाचार्यना मन्तव्य- खरं हार्द अहीं ज प्रगट थाय छे. पण ते समजवा माटे आपणे ओ वातने ध्यान पर लेवी पडशे के युगपद्वाद श्रीसिद्धसेनाचार्यना काळथी घणा पहेला ज प्रस्थापित थई चुक्यो हतो. वाचक उमास्वातिजी जे सहजताथी ओक ज वाक्यमां युगपद्वाद मुजबनी उपयोग-व्यवस्था वर्णवे छे२२, ते जोतां युगपद्वाद त्यारे व्यापक प्रचार-प्रसारमां हशे ते सहज समजी शकाय छे.
हवे ओ काल के ज्यारे मनुष्यनी तत्त्वजिज्ञासा अत्यन्त प्रदीप्त थई उठी हती, प्रमेय अने तेना रहस्यनी खोज पूरजोशमां चालु हती, दार्शनिक विचारधाराओनी आपसी मूठभेड प्रबल बनी हती, फक्त शास्त्रवाक्योना सहारे थती विचारणानुं स्थान तर्क अने बुद्धिनी कसोटीओ लेवा मांड्युं हतुं अने ओ रीते दर्शनोनुं तथा अनी मान्यताओनुं निश्चित माळखं घडातुं आवतुं हतुं त्यारे; क्रमवादनी तार्किक परिष्कृत विचारणाओ जेम युगपवाद जन्माव्यो, तेम स्वयं युगपद्वाद पण कोईने परिष्करणीय लागे तेम थर्बु अनिवार्य हतुं. युगपद्वादना उद्भव पछी सैकाओ वीत्ये जन्मली अने ओ सैकाओमां विकसेला तत्त्वज्ञानने पचावी चूकेली श्रीसिद्धसेनाचार्य जेवी मूलगामी दृष्टि धरावती तार्किक प्रतिभाने ओने संमार्जित-विकसित-सम्पूर्ण करवानुं मन न थाय तो ज नवाई !
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दिवाकरजीओ जोयुं हशे के शास्त्रीय क्रमवादनी सामे तार्किक बल पर अस्तित्वमां आवेलो युगपवाद स्वयं तार्किक दृष्टि शुद्धीकरणनी शक्यता धरावे छे. ओमां ओक तरफ 'जुगवं दो नत्थि उवओगा' से शास्त्रवचननी असंगतिनी समस्या तो ऊभी ज छे. तो बीजी तरफ अनुभवनी अरण पर पण अ थोडोक नबळो ठरे छे. केम के केवलज्ञान अने केवलदर्शन अकसा वर्तता होवा छतां, जेम भिन्न स्वरूप धरावता होवाथी परस्पर सर्वथा अभिन्न नथी, तेम अकबीजाथी सापेक्षपणे वर्तता होवाथी सर्वथा भिन्न पण नथी. ओक उदाहरण जोइओ. आपणे ज्यारे आंखथी जोइसे छीओ त्यारे बन्ने आंखोनी जोवानी क्रिया स्वतन्त्र अने भिन्न ज होय छे. बे आंखोनी जोवानी क्रिया एक ज छे अवुं तो कोई पण बुद्धिमान् व्यक्ति न कहे. वळी, बन्ने आंखथी मनने मळती माहिती पण भिन्न भिन्न होय छे. जमणी आंख जे कोणथी वस्तुने जुअ छे, डाबी आंखनो कोण तेनाथी लगभग ३° अंश जेटलो तफावत धावतो होय छे. छतां पण मन अ बन्ने माहितीने मूलवीने अक ज दृश्य मानसिक पट पर उपसावे छे, कारण के मननी चक्षु द्वारा बोध करवानी शक्ति तो अक ज छे. ते ओक ज शक्ति बन्ने आंखो द्वारा बोध प्रवर्तावे छे, माटे बे आंखोना बे बोध नथी प्रवर्तता. ट्रंकमां, शक्ति एक, बोध ओक, पण शक्तिथी जन्य बोध माटेनी क्रिया बे. मतलब के क्रियागत भेद, पण क्रियाओनो बोधतः अने शक्तितः अभेद.
हवे आ ज वात केवलबोधमां लागु पाडीओ तो केवलज्ञानशक्ति तो स्वरूपतः ओक ज छे, पण अ शक्ति केवलज्ञान अने केवलदर्शन जेवी बे आंखो द्वारा प्रवर्ते छे. वळी, बन्ने बोधक्रियाओ तो अलग अलग ज छे, पण ओ बन्ने क्रियाओथी जन्य बोध तो ओक ज सर्जाय छे. अर्थात् बोधक्रिया (-केवलज्ञान) अने अवलोकनक्रिया (-केवलदर्शन) परस्पर स्वतन्त्र होवा छतां, बोधतः अने शक्तित: २३ अभिन्न रहे छे. आ थयो भेदाभेदवाद. २४
युगपवाद केवलज्ञान अने केवलदर्शनने समानकालीन गणवा छतां बन्नेने सर्वथा भिन्न गणे छे. ज्यारे सिद्धसेनाचार्ये प्ररूपेलुं अनुं ज परिष्कृत स्वरूप भेदाभेदवाद बन्नेने कालतः, बोधतः अने शक्तित: अभिन्न गणे छे अने स्वरूपतः भिन्न गणे छे. अने माटे ज दिवाकरजी 'कल्पितभेदं' थी बन्ने वच्चे
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अभेद पण जणावे छे अने ‘पश्यति बुध्यते च युगपत्'थी बन्नेनी अकसाथे प्रवृत्ति दर्शाववा द्वारा बन्नेनो भेद पण जणावे छे.
सन्मतिटीकाकार ज्यारे श्रीसिद्धसेनाचार्यने अभेदवादी जणावे छे त्यारे तेमना मनमां तो उपर दर्शावेलो भेदाभेदवाद ज छे –
"भिन्नावरणत्वादेव च श्रुतावधिवन्नैकत्वमेकान्ततो ज्ञान-दर्शनयोरेकदोभयाभ्युपगमवादेनैव ।" - २.५ टीका
"सामान्यविशेषज्ञेयसंस्पर्शी उभयैकस्वभाव एवाऽयं केवलिप्रत्ययः ।" - २.११ टीका
"अतो भिन्ने एव केवलज्ञानदर्शने, न चाऽत्यन्तं तयोर्भेद एव - केवलान्तर्भूतत्वेन तयोरभेदात्, न चैवमभेदाद्वैतमेव - सूत्रयुक्तिविरोधात् ।" - २.२० टीका
"केवलयोरप्येतन्मात्रेणैव विशेषः, एकान्तभेदाभेदपक्षे तत्स्वभावयोः पूर्वोक्तदोषप्रसङ्गाद् ।" - २.२१ टीका
"ततो युगपज्ज्ञानदर्शनोपयोगद्वयात्मकैकोपयोगरूपः केवलावबोधोऽभ्युपगन्तव्य इति सूरेरभिप्रायः ।" - २.३० टीका
मुश्केली फक्त त्यां ज छे के श्रीअभयदेवसूरिजीओ आ भेदाभेदवादने ज 'अभेदवाद' अq नाम आप्युं छे. आ नाम आपती वखते तेओओ ओ ध्यान पर नथी लीधुं लागतुं के दिवाकरजीनी विचारधाराथी जुदी विचारधारा धरावनारो अन्य ओक मत, के जे वि.भाष्य अने विशेष-णवति जेवा ग्रन्थोमां केवलदर्शननो के तेनी केवलज्ञानथी जुदी सत्तानो निषेध करनारा मत तरीके व्यावर्णित छे, ते पण 'अभेदवाद' तरीके ओळखाय छे. जो के बनी शके के आ अन्य मत श्रीअभयदेवसूरिजीना काल सुधीमां 'अभेदवाद' अर्बु विधिवत् नाम न पण पाम्यो होय, तेथी तेमणे श्रीसिद्धासेनाचार्यना मन्तव्यने 'अभेदवाद' तरीके ओळखाव्यु होय; पण पाछळना जैन विद्वानोओ उतावळमां ज, बन्ने- 'अभेदवाद' अq ओकसरखं नाम जोइने, विशेष-णवतिमां वणित अभेदवादने दिवाकरजी- मन्तव्य ज गणी लीधुं होय एम बने. दिवाकरजीने थयेलो कदाच आ मोटामां मोटो अन्याय हशे.
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विशेष-णवतिनो अभेदवाद वास्तवमां दर्शनसमुच्छेदवाद छे". आ मत अ धारणा पर रचायो छे के सर्वद्रव्योमां रहेला महासामान्यने जोनारुं केवलदर्शन छे. अने तेना सिवायना सर्व धर्मोने जाणनारुं केवलज्ञान छे. २६ आ धारणा प्रमाणे केवलदर्शन, केवलज्ञाननी अपेक्षाओ अत्यन्त परिमित विषयक्षेत्र धरावनाएं बने छे. अने तेथी, सघळाये धर्मोने केवलज्ञान जाणे छे तो महासामान्यने पण जाणशे ज ओवा तर्कना बळे, केवलदर्शनना अस्तित्वनो निषेध के तेनो केवलज्ञानमां अन्तर्भाव शक्य बने छे. ट्रंकमां, आ मत केवलज्ञान-दर्शननो सर्वथा अभेद स्वीकारे छे, अने ओ माटे अनुं तमाम ध्यान केवलदर्शननी स्वतन्त्र सत्ताना इन्कार पर केन्द्रित छे.
आ रीते केवलदर्शननो उच्छेद करवो ओ कंइ वादी सिद्धसेन दिवाकरजीनुं मन्तव्य नथी. आ वातनो सौथी मोटो पुरावो से छे के दर्शनसमुच्छेदवादीओ तरफथी केवलज्ञान - दर्शनना औक्यने समजवा जे मतिज्ञानचक्षुर्दर्शननुं दृष्टान्त आपवामां आवतुं हतुं, अने से दृष्टान्त द्वारा ओक ज उपयोगनां बे नाम छे अवुं साबित करवामां आवतुं हतुं, ते विशेष - णवतिमां उल्लिखित दृष्टान्त, थोडाक शाब्दिक फेरफार साथे सन्मतितर्कमां पूर्वपक्ष तरीके जोवा मळे छे, अने त्यां अ रीते बन्ने वच्चे सर्वथा अभेद छे से वातने खोटी साबित करी, ज्ञान-दर्शन वच्चे स्वभावतः भेद देखाडवामां आव्यो छे.
"मइणाणाणत्थंतरभूयस्स वि चक्खुदंसणस्सेह । जह दंसणोवयारो जुत्तो तह केवलस्सावि ॥" "दंसणमोग्गहमेत्तं घडोत्ति णिव्वण्णणा हवइ नाणं । जइ एत्थ केवलाण वि विसेसणं एत्तियं चेव ॥"
" जइ ओग्गहमेत्तं दंसणं ति मन्नसि...." सन्मति २.२३
वि.ण. २१२
वास्तवमां बन्ने अभेदवादना शब्दो सरखा होवा छतां, [" णाणं ति दंसणं ति य एक्कं चिय केवल तस्स" (- वि.ण. १९७) " तम्हा तं णाणं दंसणं च अविसेसओ सिद्धं" (-सन्मति. २.३०)], आ बन्ने वच्चे पायानो तफावत ओ छे के दर्शनसमुच्छेदात्मक अभेदवाद केवलज्ञान अने केवलदर्शननुं सर्वथा औक्य स्वीकारे छे, ज्यारे दिवाकरजीनो भेदाभेदवाद बन्नेने स्वभावतः क्रियारूपे भिन्न मानीने, ओक ज बोधना कारक तरीके अने ओक ज शक्तिना स्वरूप
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तरीके अभिन्न गणे छे. माटे दर्शनसमुच्छेदवादमां केवलज्ञान ज केवलदर्शन छे, ज्यारे भेदाभेदवादमां अक ज केवलबोधनां केवलज्ञान अने केवलदर्शन अम बे क्रियात्मक स्वरूपो छे. आटआटली भिन्नता होवा छतां, फक्त नामनी समानताने लीधे बन्ने वादोने ओक गणी लेवामां आव्या छे ते खरेखर नवाई गणाय !
जो के आवी धारणा बंधाई ते माटे प्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष रीते स्वयं श्रीअभयदेवसूरिजीने जवाबदार गणी शकाय. कारण के तेमना समयमां प्रचलित त्रण वादो- क्रमवाद, युगपद्वाद अने अभेदवादमांथी क्रमवाद अने युगपद्वादना विरोधमां श्रीसिद्धसेनाचार्यनुं मन्तव्य रजू करती वखते तेमणे करवी जोईती ओ स्पष्टता न करी के आ मन्तव्य ओ बे वादोनी जेम त्रीजा वादथी पण जुएं छे. सन्मतिमां अने तेनी टीकामां अभेदवादनुं खण्डन होवा छतां, शब्दशः आ स्पष्टता वगर तो दिवाकरजी- मन्तव्य बाकी रहेलो त्रीजो वाद ज गणाई जाय ओ तद्दन स्वाभाविक हतुं. अमां पण ज्यारे ओ बाकी रहेलो वाद अने दिवाकरजी- मन्तव्य सरखं अभिधान पाम्या त्यारे तो ओ धारणा सुदृढ थवामां कशुं ज बाकी न रह्यु.
__ हवे प्रश्न जे उद्भवे छे के सन्मतिटीकाकार श्रीअभयदेवसूरिजीओ सिद्धसेन दिवाकरजीना निजी मन्तव्य तरीके वर्णवेलो आ भेदाभेदवाद प्रचलित त्रण वादोथी जुदो स्वतन्त्र चोथो वाद ज छे ? के ओ त्रण वादोमां ज अनो अन्तर्भाव शक्य छे ? आ सन्दर्भे आम विचारी शकाय -
कोई पण बे पदार्थ वच्चे भेदक परिबळो मुख्यत्वे चार होय छे : १. उपादानद्रव्य २. क्षेत्र ३. काल ४. स्वरूप (आ चारेनी विवक्षा अनेक प्रकारे थई शके). हवे अत्रे केवलज्ञान अने केवलदर्शन धरावनारो जीव ओक ज होय छे. अटले द्रव्य के क्षेत्रथी तो अमां भेद-अभेदनो विचार करवानो रहेतो नथी. बाकी रहेता काल अने स्वरूप सम्बन्धे त्रण मत छे : १. स्वरूप अने काल बन्नेथी भेद - क्रमवाद. २. स्वरूपथी भेद, पण कालथी अभेद - युगपद्वाद ३. स्वरूप अने काल बन्नेथी अभेद - अभेदवाद. आ सिवायनो चोथो विकल्प - कालथी भेद, पण स्वरूपथी अभेद अq तो भेदाभेदवाद मानतो नथी. तेथी पूर्वोक्त त्रण विकल्पमांथी ज कोईक विकल्पमां अनो
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समावेश करवो पडे. अने ते युगपद्वादमां ज शक्य छे. कारण के युगपद्वादनुं मुख्य अवलम्बन - केवलज्ञान अने केवलदर्शननो ओक साथे उपयोग भेदाभेदवादने पण मान्य छे. श्रीमल्लवादीजी, श्रीहरिभद्रसूरिजी, श्रीमलयगिरिजी व. आ ज कारणसर श्रीसिद्धसेनाचार्यने युगपद्वादी गणे छे.
___ पण भेदाभेदवाद युगपद्वादनी जेम केवलज्ञान अने केवलदर्शनने परस्परथी निरपेक्ष स्वतन्त्र उपयोगो नथी गणतो. केम के ओकसाथे प्रवर्तनारा बे स्वतन्त्र उपयोगो ओकसाथे बे स्वतन्त्र बोधने जन्मावे. अने आत्मानी तथास्वभावता ओकसाथे एक ज बोधमां वर्तवानी छे. आ स्वभाव 'सव्वस्स केवलिस्सा जुगवं दो नत्थि उवओगा'मां जणाव्या मुजब केवलि अवस्थामां पण निवृत्त नथी थतो. माटे पूर्वे जणाव्युं तेम भेदाभेदवाद, 'आंखथी जोवानी शक्ति ओक, तज्जन्य जोवानी क्रिया बे आंखनी बे, अने ओ बे क्रियाओथी देखातुं दृश्य पार्छ ओक - अनी जेम, केवलज्ञानशक्ति ओक, ओ शक्तिनां क्रियात्मक स्वरूपो केवलज्ञान अने केवलदर्शन अम बे(के जे परस्पर सापेक्ष छे; केम के जे द्रव्य-पर्यायोने सामान्यपणे केवलदर्शन जुओ छे, ते ज द्रव्य-पर्यायोने विशेषपणे केवलज्ञान जाणे छे), अने ओ उभय क्रियाथी जनमनारो परिपूर्ण केवलबोध अक' अq स्वीकारे छे. मतलब के भेदाभेदवाद केवलज्ञान अने केवलदर्शनने ओक ज केवलबोधना घटकरूपमा अभिन्न गणे छे. अने तेथी ज श्रीअभयदेवसूरिजी के उपाध्याय श्रीयशोविजयजी श्रीसिद्धसेनाचार्यने 'अभेदवादी' तरीके ओळखावे छे. आ रीते विचारीओ तो भेदाभेदवादने अभेदवाद अने युगपद्वाद बन्नेने व्यापीने रहेलो स्वतन्त्र चोथो वाद गणी शकाय. पण ओम गणती वखते ध्यानमा राखवा जेवी वात ओ छे के भेदाभेदवाद युगपद्वादनो विरोधी नथी, कारण के तेनी पोतानी आधारभूमि ज युगपद्वाद छे. जो के सन्मतिटीकामां श्रीअभयदेवसूरिजीओ तेने युगपद्वादना विरोधी तरीके वर्णव्यो छे, तेना द्वारा युगपद्वादनुं खण्डन पण देखाड्युं छे, पण ते योग्य छे के नहीं ते आपणे सन्मतितर्कगत प्रस्तुत विषयने सम्बन्धित चर्चा द्वारा अवलोकीशुं. आ चर्चा दरम्यान आपणे सौप्रथम दरेक गाथानो संक्षेपमा टीकाकार भगवन्ते करेलो अर्थ जोइशुं अने त्यारबाद जरूर जणाशे त्यां ओ अर्थ पर विचार-विमर्श करीशं.
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सन्मतितर्कगत केवलचर्चा (क्रमवाद-भेदाभेदवाद) मणपज्जवणाणतो, णाणस्स य दरिसणस्स य विसेसो ।
केवलणाणं पुण, दंसणं ति णाणं ति य समाणं ॥२.३।। टी. - मनःपर्यवज्ञान सुधी ज (अर्थात् मत्यादि चार ज्ञान अने चक्षुः वगेरे त्रण दर्शनमां) ज्ञान अने दर्शन वच्चे विशेष- विश्लेष-क्रमिकता होय छे. पण जे केवलबोध छे, तदात्मक केवलदर्शन अने केवलज्ञान समानकालीन ज होय छे. जेम सूर्यनो प्रकाश अने ताप साथे ज वरसे छे तेम केवली ज्यारे जाणे छे त्यारे ज जुओ छे (ओवो आचार्यनो अभिप्राय छे).
वि. - केटलाक विवेचको आ गाथाना अर्थमां ओक स्पष्टता करता होय छे के "श्रीसिद्धसेनाचार्य वास्तवमां तो अभेदवादी ज छे, तेथी 'समाणं'नो 'समानकालीन' ओवो अर्थ आपाततः ज समजवो जोइओ. कारण के ओनो साचो अर्थ तो 'केवलज्ञान अने केवलदर्शन ओक ज छे' अवो छे."
पण आपणे उपर जोयुं तेम श्रीसिद्धसेनाचार्य अभेदवादी नहीं, पण भेदाभेदवादी छे. अने भेदाभेदवादमां तो केवलज्ञान अने केवलदर्शन समानकालीन ज छे. तेथी टीकाकार भगवन्ते करेलो अर्थ आपाततः नहीं, पण वास्तविक ज समजवो जोइए.
केइ भणंति ‘जइया जाणइ तइया ण पासइ जिणो' त्ति ।
सुत्तमवलंबमाणा तित्थयरासायणाऽभीरू ॥२.४।। टि. - सूत्रमात्रने वळगी रहेनारा अने तीर्थकरोनी आशातनाथी न डरनारा केटलाक आचार्यो 'ज्यारे केवली जाणे छे त्यारे जोता नथी' (अर्थात् केवली भगवन्तने केवलज्ञान वखते केवलदर्शननो उपयोग होतो नथी.) ओम कहे छे.
वि. - आमां क्रमवादनुं खण्डन करवा माटे क्रमवादीओ, मन्तव्य रजू करवामां आव्युं छे.
केवलणाणावरणक्खयजायं केवलं जहा णाणं ।
तह दंसणं पि जुज्जइ णियआवरणक्खयस्संते ॥२.५।। टी. - केवलज्ञानावरणनो क्षय थाय अटले जेम केवलज्ञान उत्पन्न
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थाय, तेम पोताना आवरणनो क्षय थये छते केवलदर्शन पण उत्पन्न थाय ज.
साथे वर्तवा छतांय बन्ने वच्चे सर्वथा अभेद नथी, कारण के बन्नेना आवरण जुदां हतां. पण कालनी अपेक्षाओ बन्ने वच्चे अभेद छे.
वि. - आ गाथाथी क्रमवादनुं खण्डन प्रारम्भाय छे. टीकाकार भगवन्ते छल्ले जे चोखवट करी छे ते श्रीसिद्धसेनाचार्यने अभेदवादी गणनाराओओ खास लक्ष्यमां लेवाजेवी छे.
भण्णइ खीणावरणे, जह मइणाणं जिणे ण संभवइ । तह खीणावरणिज्जे, विसेसओ दंसणं णत्थि ॥२.६।।
टी. - (पूर्वे जणाव्युं तेम क्रमिकता मत्यादि ज्ञानो साथे नियत छे. माटे) जेम आवरणनो क्षय थाय अटले मतिज्ञान केवलज्ञानीने नथी होतुं, तेम आवरणनी क्षीणता थये छते केवलज्ञानथी पृथग केवलदर्शन पण न होय.
वि. 'भण्णइ'थी कोइक स्पष्टता थई रही छे अवो सङ्केत मळे छे. ते ओ छे के पूर्वेनी गाथामां जणाव्या मुजब स्वावरणनो क्षय थये छते केवलदर्शननी उत्पत्ति थाय ते वात तो क्रमवादीने पण मान्य ज छे. पण ते केवलज्ञानथी केवलदर्शनना उपयोगने भिन्नकालीन गणे छे. ते वात बराबर नथी ते जणाववा भेदाभेदवादी उपरनी गाथा रजू करे छे.
सुत्तम्मि चेव 'साइ अपज्जवसिय'ति केवलं वुत्तं । सुत्तासायणभीरूहि तं च दट्ठव्वयं होइ ॥२.७॥ संतम्मि केवले दंसणम्मि णाणस्स संभवो नत्थि ।
केवलणाणम्मि य दंसणस्स तम्हा सणिहणाइं ॥२.८।। टी. - आगममां ज केवलने (अर्थात् केवलज्ञान अने केवलदर्शनने) सादि-अनन्त कहेवामां आव्युं छे. माटे सूत्रनी आशातनाथी डरनारा (क्रमवादी) आचार्योओ ते पण ध्यान पर लेवा जेतुं छे. (कारण के क्रमवादमां तो) केवलदर्शन वखते केवलज्ञाननो सम्भव नथी अने केवलज्ञान वखते केवलदर्शननो सम्भव नथी. माटे बन्ने सान्त बने छे. (अर्थात् आ रीते क्रमवादमां पण केवलज्ञान-दर्शननी अनन्तता प्रतिपादित करनारा सूत्र साथे विरोध ज आवे
छे.)
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वि. - आ बन्ने गाथाओमां दर्शावेलो भाव धरावती गाथाओ विशेषणवतिमां अनुक्रमे २२४ अने २४८ क्रमाङ्के जोवा मळे छे.
दंसणणाणावरणक्खए समाणम्मि कस्स पुव्वअरं ।
होज्ज समं उप्पाओ हंदि दुए णत्थि उवओगा ॥२.९॥
टी. - दर्शनावरण अने ज्ञानावरण बन्नेनो क्षय समानकालीन होवाथी कोनो पहेलां उत्पाद मानशो ? (मतलब के पहेलां केवलज्ञान प्रगटे के केवलदर्शन ? तेमां कोई नियामक नथी. माटे) बन्नेनो साथे उत्पाद थाय छे ओम मानवू जोइओ. (आम युगपद्वादीओ कहे छते अभेदवादी आचार्य स्वमन्तव्य दर्शावतां कहे छे के ) पण ओक साथे बे उपयोग होता नथी.
वि. - टीकाकार भगवन्तना मते आ गाथाथी सिद्धसेन दिवाकरजीना स्वपक्ष अभेदवाद(-भेदाभेदवाद)नी स्थापना थई छे. अर्थात् अत्यार सुधी आचार्ये युगपद्वादनु अवलम्बन लइने क्रमवादनुं खण्डन कर्यु अने हवे तेओ स्वपक्ष तरीके भेदाभेदवाद स्थापी क्रमवाद-युगपद्वाद बन्नेनुं ओकसाथे खण्डन करे छे. टीकाकार भगवन्तनी आ मान्यतानो आधार "हंदि दुए णत्थि उवओगा" ओ पङ्क्ति छे के जे भेदाभेदवादी आचार्य तरफथी बोलाती होवानुं तेओओ दर्शाव्युं छे. आ परत्वे केटलीक समस्याओ - १. हजु आचार्ये स्वसम्मत पक्ष तरीके भेदाभेदवादनी स्थापना ज न करी
होय, भेदाभेदवादनुं मन्तव्य ज समजाव्युं न होय अने अेक गाथानी चोथी लीटीमां भेदाभेदवादने पकडी युगपद्वादनुं खण्डन अचानक ज चालु करी दे ओम बनवू शक्य खरं ? आचार्य अत्यार सुधी युगपद्वादनु अवलम्बन क्रमवादना खण्डन माटे लीधुं अq आनुं तात्पर्य समजाय. परन्तु क्रमवाद- खण्डन जे दलीलोथी अत्यार सुधी युगपद्वादे कर्यु छे, ते सघळी दलीलो भेदाभेदवाद तरफथी पण प्रयोजवी शक्य हती ज. छतां पण आचार्य प्रथमथी ज भेदाभेदवाद न प्ररूपे अने युगपद्वादने मान्य करे ते विचारणीय नथी? युगपद्वाद केवलज्ञान अने केवलदर्शनने समानकालीन स्वतन्त्र उपयोगो माने छे. ज्यारे भेदाभेदवाद ओ बन्नेने स्वतन्त्र उपयोगो नथी गणतो, पण
३ .
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ओक ज उपयोगनां परस्पर भिन्न बे स्वरूप समजे छे. महत्त्वनी वात ओ छे के केवलज्ञान अने केवलदर्शनने स्वतन्त्र उपयोगो गणो के ओक ज उपयोगनां परस्पर भिन्न बे स्वरूप समजो, बन्नेनी परस्पर जे विलक्षणता छे ते तो नाबूद थती ज नथी. हवे, भेदाभेदवाद तरफथी युगपद्वादना खण्डनमा जे दलीलो श्रीअभयदेवसूरिजी रजू करे छे, तेनो मुख्यप्रहार केवलज्ञान-दर्शननी भिन्नता पर छे (सन्मति० २.१०-२.१४ विवरण) तो स्वयं भेदाभेदवाद जे भिन्नताने मान्य राखे छे, ते ज भिन्नताने लक्ष्य बनावी ए युगपद्वादनुं खण्डन करी शके खरो ? भेदाभेदवादमां आ भिन्नता कथञ्चिद् छे अने युगपद्वादमां औकान्तिक छे, ओवी भेदरेखा पण बन्ने वच्चे दोरी न शकाय. केम के युगपद्वाद पण केवलज्ञान अने केवलदर्शनने प्रमातृतः (बन्नेनो स्वामी आत्मा ओक ज छे ओ रीते), कालतः अने शक्तितः ओक गणे ज छे. माटे तेने
स्वीकारेली बन्ने वच्चेनी भिन्नता पण भेदाभेदवादनी जेम कथञ्चित् ज छे. ४. आचार्य प्रस्तुत समग्र केवलचर्चाने अन्ते जे निष्कर्ष बतावे छे
"साइ अपज्जवसियं ति दो वि ते ससमयओ हवइ एवं ।
परतित्थियवत्तव्वं च एगसमयंतरुप्पाओ' ॥२.३१॥ । तेमां पण युगपद्वादपरक ज निष्कर्ष देखाड्यो छे अने क्रमवादने ज परमत गण्यो छे, युगपद्वादने नहीं. तो जो आचार्य चर्चानी शरूआतमां युगपद्वादनो परपक्ष तरीके निर्देश न करतां होय, अन्ते युगपद्वादपरक ज निष्कर्ष दर्शावतां होय, चर्चा दरम्यान पण युगपद्वादनुं नामग्रहणपूर्वक साक्षात् खण्डन न करतां होय, तो शा माटे युगपद्वादनी ज भूमि पर उछरेला तेमना मन्तव्यने युगपद्वादनुं विरोधी गणवू जोइओ ? ५. आपने जोइ| तेम हवे पछीनी गाथाओमां पण साक्षात् क्रमवादनुं ज
खण्डन छे. तेने युगपद्वादना खण्डनपरक बनाववा टीकाकार भगवन्तने जे शाब्दिक खेंचताण अने परिश्रम करवा पडे छे ते पण ध्यानपात्र छे.
आ समस्याओने ध्यानमां लेता वास्तवमा 'हंदि दुवे णत्थि उवओगा' ओ पङ्क्ति, युगपद्वाद(-भेदाभेदवाद)-क्रमवादनी चाली रहेली चर्चामां क्रमवादी
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तरफथी ज मूकाई छे ओम समजाय छे. कारण के शरूआतमां स्वपक्षनुं स्थापन युगपद्वादना परिष्कृत स्वरूप भेदाभेदवाद परक ज थयुं छे. "केवलणाणं पुण दंसणं ति णाणं ति य समाणं" कहीने (२.३) त्यां ज आचार्ये भेदाभेदवादनो उपन्यास करी दीधो छे. माटे आ गाथामां अचानक युगपद्वादना विरोधी तरीके भेदाभेदवादनो प्रवेश मानवानी जरूर नथी जणाती.
__ हवे पछीनी गाथाओमां आचार्य बन्ने उपयोगर्नु सह-अस्तित्व सिद्ध करवा प्रयत्न करे छे ते पण अत्रे ध्यानार्ह छे.
जइ सव्वं सायारं जाणइ एक्कसमएण सव्वण्णू ।
जुज्जइ सयावि एवं अहवा सव्वं न याणाइ ॥२.१०॥ टी. - (सामान्य अने विशेष परस्पर अव्यतिरिक्त होवाथी अने केवलज्ञान सामान्य-विशेष उभयात्मक वस्तुना अवबोधरूप होवाथी) केवली भगवन्त जो अकसमयमां बधी ज वस्तुओने विशेषपणे (जाणता छतां तदात्मक सामान्यने त्यारे ज जुओ छे अथवा तो ते सामान्यने जोता छतां तेनाथी अव्यतिरिक्त अवा विशेषोने त्यारे ज) जाणे छे; तो ज (तेओनुं सर्वज्ञत्व अने सर्वदर्शित्व) सदाकाल माटे योग्य जणाय छे.
अथवा -(ओकला सामान्यने जोनाएं केवलदर्शन अने ओकला विशेषोने जाणनारुं केवलज्ञान असत् बनवाथी क्रमवाद के युगपद्वादमां केवली) सर्व नथी जाणता.
वि. - आ गाथानो युगपद्वादना खण्डनपरक अर्थ करवा माटे जे उमरण करवू पडे छे अने शब्दोना अर्थने जे हदे बदलवा पडे छे ते जोतां आ गाथानो आवो अर्थ न होई शके ते स्वयं समजाय तेवू छे, माटे ते परत्वे झाझी टिप्पणी आवश्यक नथी.
वास्तवमां आ युगपद्वादी (-भेदभेदवादी) तरफथी क्रमवाद सामे करवामां आवती सरळ दलील छे के जो केवली ओक समयमां बधी ज वस्तुओने साकारपणे जाणे छे, तो कायम माटे जाणशे ज. (कारण के पहेली क्षणे प्रवर्तेलो साकार उपयोग बीजी क्षणे न प्रवर्ते ते माटे कोई प्रतिबन्धक तो छ ज नहीं) अथवा वगर प्रतिबन्धके पण तेनो अभाव मानशो तो ते बधुं
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नथी जाणता ओम ज सिद्ध थशे. कारण के नियम छे के जेतुं कारण नथी ते कार्य कां तो कायम होय ज कां तो कायम न ज होय.
युगपद्वाद तरफथी थती प्रस्तुत दलील शब्दान्तरे श्रीनन्दिसूत्रनी हारिभद्रीय टीकामां पण मळे छे.
"अकारणमेव अन्यतरोपयोगकालेऽन्यतरस्याऽऽवरणं, तथा च सति सर्वदैव भावाभावप्रसङ्गस्तथा चोक्तम् -
"नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा हेतोरन्यानपेक्षणात् । अपेक्षातो हि भावानां कादाचित्कत्वसम्भवः ॥” इति ।"
___(उद्धृत वि.ण. २२५नी टीका) परिसुद्धं सायारं अवियत्तं दंसणं अणायारं ।
ण य खीणावरणिज्जे जुज्जइ सुवियत्तमवियत्तं ॥२.११॥ टी. - साकार- विशेषग्राही ज्ञान व्यक्त होय छे अने अनाकारसामान्यग्राही दर्शन तो अव्यक्त होय छे. हवे जेनां आवरण क्षीण थई गया छे ओवा अर्हत्ने व्यक्त शुं ? अने अव्यक्त शुं? (माटे सामान्य-विशेष उभयात्मक ज्ञेयने विषय बनावनारो ओक ज केवलबोध स्वीकारवो जोइओ.)
वि. – वि.ण. २१९-२२०मां क्रमवाद सामे रजू थयेल आ प्रकारना तर्कनो जवाब श्रीजिनभद्रगणिजे केवलदर्शननी व्यक्तता सिद्ध करीने आप्यो छे.२७
अदिटुं अण्णायं च केवली एव भासइ सया वि । __एगसमयम्मि हंदी वयणवियप्पो न संभवइ ॥२.१२॥ ___टी. - (युगपद्वादमां बे उपयोग परस्पर स्वतन्त्र होवाथी जे जोडे छे ते जणायुं नथी अने जणायुं छे ते देखायुं नथी. ज्यारे क्रमवादमां जाणवाना समये जोता नथी अने जोवाना समये जाणता नथी. माटे ओ बन्ने मते) केवली भगवन्त ज्यारे बोले छे, त्यारे कां तो जाणेलुं नहीं होय, कां तो जोयेलुं नहीं होय. (अने तेथी बन्ने मते) अकसमयमां (जोयेलुं अने जाणेलं केवली बोले छे अर्बु) विशिष्टवचन अनुपपन्न थशे.
वि. - आ गाथाना टीकागत अर्थ परत्वे केटलीक समस्याओ -
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१. टीकाकार भगवन्ते युगपद्वाद प्रत्ये दर्शावेली आपत्ति, जो अ ज रीते
विचारीओ तो, भेदाभेदवादमां पण लागु पडे तेम छे. केम के तेमां पण जोवू अने जाणवू स्वरूपतः क्रियारूपे तो भिन्न ज छे, बन्नेना विषयो पण परस्पर पृथग् ज छे. अने जो त्यां कथञ्चिद्अभिन्नता स्वीकारी आ आपत्तिनुं निराकरण शक्य होय, तो ओ रीते कथञ्चिअभिन्नता युगपद्वादमां पण शक्य छे ज. 'हंदी'नो अर्थ ज नथी को. आ अव्यय कोइक वातनो प्रतिवाद थई रह्यो छे ओ वातनो सूचक छे. टीकाकार भगवन्ते स्वयं २.९ना अर्थमां ओने ओ रीते दर्शाव्यो छे. माटे ओ रीते जोईओ तो अत्रे उत्तरार्धमां पूर्वार्धनो जवाब छे. पण टीकाकर भगवन्ते अत्रे अने ध्यान पर ज नथी
लीधो. उपरथी उत्तरार्धना विधानना हेतुरूपे पूर्वार्धना विधानने देखाड्युं छे. ३. ‘एगसमयम्मि वयणवियप्पो न संभवइ'नो अर्थ 'अकसमयमां जोयेलुं अने
जाणेलं केवली बोले छे अq वचनविशेष नथी घटतुं.' अवो करवो
क्लिष्ट लागे छे. ४. 'अकसमयमां जोयेलुं अने जाणेलं केवली बोले छे' अर्बु शास्त्रवचन पण
मळवू मुश्केल छे, जेनी अनुपपत्तिनो दोष आपी शकाय.
तेथी समग्रपणे विचारतां चाली रहेली युगपद्वाद (-भेदाभेदवाद)क्रमवादनी चर्चा मुजब आ गाथानो आवो अर्थ करवो युक्तिसङ्गत लागे छे :
पूर्वार्ध - (युगपद्वादी क्रमवादीने) तमारा मते जोवू अने जाणवू ओकसाथे होतुं नथी. तेथी तमारा मते केवली भगवन्त कायम माटे जे पण बोलशे ते कां तो जाणेलं नहीं होय कां तो जोयेलुं नहीं होय. माटे केवली जोया अने जाण्या वगर ज बोले छे ओवी आपत्ति तमारा मतमां आवशे.
उत्तरार्ध - (क्रमवादी युगपद्वादीने) तमे दर्शावेली आपत्ति तो साची ठरत के जो वचनविकल्प अक समयमा सम्भवतो होत. कारण के अक समयमां ओक ज उपयोग अमने मान्य होवाथी ते समयमां बोलाता वचननी विषयभूत वस्तु जोया के जाण्या वगरनी होई शकत. परन्तु वचननो उद्भव अन्तर्मुहूर्तमां थाय छे. अने अन्तमुहूर्तमां तो केवलज्ञान अने केवलदर्शन बन्ने
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अनुसन्धान-५९
सम्भवता होवाथी, न जोयेलुं अने न जाणेलुं बोलवानी आपत्ति रहेती नथी.
स्वपक्षनी नबळी दलीलोर्नु परपक्ष द्वारा करायेलुं मान्य खण्डन देखाडवू ओ वैचारिक उदारता छे. अने महामना आचार्य भगवन्ते अत्रे ओ ज उदारता दर्शावी होय तेम लागे छे. वि.भाष्य के वि.ण.मां आ दलील युगपद्वादना खण्डन दरम्यान देखाती नथी, ते पण जणावे छे के आ दलीलनो जवाब क्रमवाद तरफथी अत्रे ज अपाई गयो होवाथी तेनो पुनः उल्लेख जरूरी नहीं बन्यो होय.
अण्णायं पासंतो अद्दिष्टुं च अरहा वियाणंतो ।
किं जाणइ ? किं पासइ ? कह सव्वण्णु त्ति वा होइ ? ॥२.१३॥ टि. - जो केवली भगवन्त न जाणेलुं देखे छे अने न जोयेलं जाणे छे, तो तेओ वास्तवमां शुं जाणे छे ? शुं देखे छे ? अने तेओ सर्वज्ञ पण कई रीते बनशे ?
वि. - प्रस्तुत भावने मळती गाथा वि.ण.मां २४६मा क्रमाङ्के जोवा मळे छे.
केवलणाणमणंतं जहेव तह दंसणं पि पण्णत्तं ।
सागारग्गहणाहि य णियमपरित्तं अणागारं ॥२.१४॥
टी. - केवलज्ञान जेम अनन्त छे तेम केवलदर्शनने पण अनन्त जणाववामां आव्युं छे. तथा साकार विशेषोना ग्राहक ज्ञान करतां तो अनाकारसामान्यमात्रने विषय बनावनाएं केवलदर्शन अवश्य परिमित विषय- ग्राहक बने छे. तेथी जो केवलदर्शन केवलज्ञानथी भिन्न होय तो तेमां केवलज्ञानथी तुल्य अनन्तता कई रीते आवे ? माटे बन्नेने अभिन्न गणवां जोइओ.
युगपद्वादी टीकाकार भगवन्त 'णियमऽपरित्तं' अवो पाठ स्वीकारे छे अने अर्थ पण ओवो करे छे के साकार- विशेषोमां रहेलुं जे सामान्य तेना ग्रहणनो नियम होवाने लीधे केवलदर्शन पण अपरिमित बने छे.२८ (अर्थात् तमाम विशेषोमां सामान्य रहेलुं ज होय छे. तेथी सामान्य पण विशेषोनी जेम अनन्त ज थवा. तो ते सामान्य, ग्राहक केवलदर्शन परिमित कई रीते बने ?)
वि. - आ गाथानो युगपद्वादपरक अर्थ करवो त्यारे ज शक्य बने
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के आगळ-पाछळनी गाथाओने युगपद्वादमां फलित करवामां आवी होय. प्रश्न ओ छे के जो आ गाथाओ युगपद्वादनी पण प्ररूपक बनती होय तो युगपद्वादने आचार्यना मन्तव्यथी विरोधी कई रीते गणी शकाय ?
___ वळी, टीकाकार भगवन्त भेदाभेदवादमां केवलदर्शनने केवलज्ञानथी अभिन्न बनावीने तेमां अनन्ततानी सङ्गति करे छे, ते वात पण विचारणीय छे. केम के आ रीते तो केवलदर्शनगत अनन्तता औपचारिक ज थशे. अने बदले युगपद्वादी टीकाकार भगवन्ते घटावेली अनन्तता वधु युक्तिसङ्गत लागे छे. अने श्रीसिद्धसेनाचार्यना भेदाभेदवादमां पण ज रीते घटी शके छे.
भण्णइ जह चउनाणी जुज्जइ णियमा तहेव एयं पि ।
भण्णइ ण पंचणाणी जहेव अरहा तहेयं पि ॥२.१५॥
टी. - (क्रमवादी-) जेम चार ज्ञानोनो उपयोग अकसाथे न होवा छतां छद्मस्थने चतुर्ज्ञानी कहेवामां आवे छे, तेम केवलज्ञान अने केवलदर्शननो ओकसाथे उपयोग न होवा छतां, केवलीने सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी कहेवामां आव्या होय तेम न बने ?
(भेदाभेदवादी-) केवलीने केवलज्ञाननी जेम मत्यादि ४ ज्ञानोनां पण आवरणनो क्षय होवा छतां ४ ज्ञानोनो पृथक् उपयोग न होवाथी जेम तेमने 'पञ्चज्ञानी' नथी कहेवामां आवता; तेम केवलज्ञान अने केवलदर्शननो उपयोग क्रमवादमां ओकसाथे न होवाथी, तेमने 'सर्वज्ञ-सर्वदर्शी' पण न कहेवाय. भेदाभेदवादमां तो बन्ने उपयोग ओकसाथे प्रवर्तता होवाथी केवलीने 'सर्वज्ञसर्वदर्शी' गणी ज शकाय छे.
वि. - वि.ण.मां २४७मा क्रमाङ्के प्रस्तुत भावने जणावती गाथा जोवा मळे छे.
पण्णवणिज्जा भावा समत्तसुयनाणदंसणाविसओ ।
ओहिमणपज्जवाण उ अण्णोण्णविलक्खणा विसओ ॥२.१६।। तम्हा चउविभागो जुज्जइ, ण उ णाणदंसणजिणाणं ।
सयलमणावरणमणंतमक्खयं केवलं जम्हा ॥२.१७॥ टी. - प्रज्ञापनीय भावो मतिज्ञान, श्रुतज्ञान अने दर्शनोना विषयभूत
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छे. अने ओ ज रीते अवधिज्ञान-मनःपर्यवज्ञान पण परस्पर विलक्षण विषयक होय छे. माटे ओ चारनो विभाग (-कालभेद) युक्त थाय छे. पण केवलज्ञान अने केवलदर्शननो कालभेद युक्त थतो नथी. कारण के केवलबोध सकलविषयक, आवरणथी रहित, अनन्त अने अक्षय होय छे.
परवत्तव्वयपक्खाअविसिट्ठा तेसु तेसु सुत्तेसु ।
अत्थगईअ उ तेसि वियंजणं जाणओ कुणइ ॥२.१८॥ ___टी. - परदर्शनोना अभ्युपगमथी अविशिष्ट (-सरखं ज) प्रतिपादन ते ते सूत्रोमां मळे छे. माटे अर्थानुसारे ज जाणकार व्यक्तिले अनी व्याख्या करवी जोइओ.
वि. - "केवली जं समयं पासइ णो तं समयं जाणइ" जेवां सूत्रोने क्रमवादीओ युगपद्वाद के भेदाभेदवादना खण्डन माटे प्रयोजे छे. तेना जवाबमां भेदाभेदवादीओ तरफथी आ कहेवायुं छे. तेओ आ सूत्रमा 'केवली'नो अर्थ श्रुतकेवली, अवधिकेवली व. करे छे. अने अम करीने भेदाभेदवादना आ सूत्र साथेना विरोधनो परिहार करे छे. वि.ण. २६७मां जिनभद्रगणिजे आ दलीलने बहु सचोट रीते रदियो आप्यो छे.
___ सन्मतितर्कगत भेदाभेदवाद-क्रमवादनी चर्चा अत्रे सम्पूर्ण थाय छे. हवे आपणे सन्मति २.१९ थी प्रारम्भाती भेदाभेदवाद-अभेदवादनी चर्चा जोइशुं. सन्मतिगत भेदाभेदवाद-अभेदवाद( -दर्शनसमुच्छेदवाद)नी चर्चा
___ अभेदवादी - केवलज्ञान अने केवलदर्शन जो अक ज उपयोगमां अन्तर्भाव पामे छे, तो ओ उपयोगने मनःपर्यवज्ञाननी जेम 'केवलज्ञान' रूपे ज केम नथी ओळखावता? केवलज्ञान अने केवलदर्शन अम बे नाम केम आपो छो ? भेदाभेदवादी
जेण मणोविसयगणाय दंसणं णत्थि दव्वजायाण ।
तो मणपज्जवणाणं णियमा णाणं तु णिद्दिढें ॥२.१९॥
टी. - मनःपर्यवज्ञानना विषयभूत द्रव्योने मनःपर्यवज्ञानशक्तिथी जाणी शकाय छे, पण जोई शकाता नथी. तेथी मनःपर्यवनो ज्ञानात्मक उपयोग ज
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शास्त्रोमां देखाड्यो छे. (मनःपर्यवदर्शन होतुं नथी. परन्तु केवलबोधमां तो आवं नथी. तेनाथी तो सर्व द्रव्य-पर्यायोने जाणी पण शकाय छे अने जोई पण शकाय छे. तेथी केवलज्ञान अने केवलदर्शन अम तेना माटे अलग-अलग निर्देशो छे.)
चक्खुअचक्खुअवहिकेवलाण समयम्मि दंसणविअप्पा ।
परिपढिया केवलणाणदसणा तेण ते अण्णा ॥२.२०॥ टी. - सिद्धान्तमां चक्षु, अचक्षु, अवधि अने केवल - ओम चार प्रकारनां दर्शनो जणाववामां आव्यां छे. तेथी पण केवलदर्शनने केवलज्ञानथी अलग गणवू जोइओ.
अभेदवादीदसणमोग्गहमेत्तं घडो त्ति णिव्वण्णणा हवइ नाणं ।
जह एत्थ केवलाण वि विसेसणं एत्तियं चेव ॥२.२१॥
टी. - ('कंइक छे' अवो) अवग्रहमात्र दर्शन छे अने ‘आ घडो छे' ओवो निश्चय ते ज्ञान छे. जेम आ बन्ने वच्चे फक्त ओळखाणनो तफावत छे, वास्तवमां तो बन्ने अेक ज छे, तेम केवलज्ञान-केवलदर्शन वच्चे पण मात्र नामनो ज तफावत छे, वास्तविक नहीं...
वि. – टीकामां तो आने स्वमतनी ज गाथा गणी छे. पण आगळनी २.२३ गाथामां आ वातनुं खण्डन होवाथी अने दिवाकरजीना स्वमतमां बे उपयोगो वच्चेनी भिन्नता फक्त नामनी भिन्नता पूरती सीमित न होवाथी अत्रे आने परमतनी गाथा गणी छे. वि.ण. २१२मां पण सर्वथा अभेदवादीओ तरफथी ज आवी दलील रजू थई छे.
दंसणपुव्वं णाणं णाणणिमित्तं तु दंसणं णत्थि । तेण सुविणिच्छियामो दंसणणाणाण अण्णत्तं ॥२.२२॥
टि. - दर्शनपूर्वक ज्ञान होई शके छे, परन्तु ज्ञानपूर्वक दर्शन होतुं नथी. तेथी पण जणाय छे के ते बन्ने वच्चे कथञ्चित् भेद छे. (आ क्रम क्षयोपशममूलक छे, माटे केवलीमां क्षयोपशम न होवाथी क्रम पण नथी होतो.)
वि. – टीकाकार भगवन्त आ गाथाने दिवाकरजीना स्वपक्षनी समजे
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अनुसन्धान-५९
छे अने तेथी अत्रे कथञ्चित् भेदनी सिद्धि करे छे. पण वास्तवमां आ पूर्वपक्षअभेदवाद तरफथी थयेली रजूआत छे. उपाध्यायजी भगवन्ते ज्ञानबिन्दुमां जणाव्युं छे के९ जो आ गाथा- ध्येय ज्ञान-दर्शननो भेद सिद्ध करवानुं ज होत तो "दंसणपुव्वं णाणं" अटलुं ज कहेवू पर्याप्त हतुं. "णाणनिमित्तं तु दंसणं णत्थि" अर्बु कहेवानी जरूर न हती. माटे अत्रे "दंसणणाणा ण अण्णत्तं (भजंते)" आवो पाठ मानवो जोईओ अने अवो अर्थ करवो जोइओ के "दर्शनपूर्वक ज्ञान होय छे, पण ज्ञानपूर्वक दर्शन होतुं नथी. (हवे क्रमवादमां तो केवलज्ञान पछी केवलदर्शन मान्य छे. अने तेम बनवू तो असम्भवित छे.) तेथी अमे नक्की करीओ छीओ के केवलज्ञान अने केवलदर्शन वच्चे अभेद ज छे."
आम सर्वथा-अभेदवादन मन्तव्य दर्शाव्या पछी ओ मतनुं खण्डन करवा माटे आचार्य, 'अवग्रहमात्र दर्शन छे' ओवा केवलज्ञान-दर्शननो अभेद सिद्ध करवा माटे अपायेला दृष्टान्तने अयोग्य ठरावतां जणावे छे के -
जइ ओग्गहमेत्तं दंसणं ति मण्णसि विसेसिअं णाणं । मइणाणमेव दंसणमेवं सइ होइ निप्पण्णं ॥२.२३॥ एवं सेसिंदियदंसणम्मि नियमेण होइ ण य जुत्तं(णयजुत्तं?) ।
अह तत्थ णाणमेत्तं घेप्पइ चक्खुम्मि वि तहेव ॥२.२४॥
टी. - जो मतिज्ञाननो अवग्रह तबक्को दर्शन होय अने विशिष्टातायुक्त निश्चय ते ज्ञान होय तो ‘मतिज्ञान अ ज दर्शन छे.' अq आना परथी साबित थाय. तो जेम चाक्षुष मतिज्ञाननो अवग्रह तबक्को 'चक्षुर्दर्शन' अने शेष तबक्का 'चाक्षुषज्ञान' कहेवाय छे. तेम शेष इन्द्रियोमां पण अवग्रह तबक्कानो 'श्रोत्रदर्शन', 'घ्राणदर्शन' व. व्यवहार थवो जोइओ. पण अq तो थतुं नथी. अने जो त्यां श्रोत्रज्ञान, घ्राणज्ञान व. ज व्यवहार थतो होय, तो चाक्षुषमतिज्ञानमां पण ओम केम नथी करता? त्यां अवग्रहने शा माटे 'चक्षुर्दर्शन' ओवी अलग ओळखाण आपवामां आवे छे ?
वि. - दिवाकरजीना कथननो सार ओ छे के अवग्रह ओ ज दर्शन नथी. पण हवे जणावाशे तेवो जुदा प्रकारनो बोध ज दर्शन छे. अने तेथी
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दर्शन-ज्ञाननो सर्वथा अभेद असिद्ध थाय छे.
णाणं अपुढे अविसए य अत्थम्मि दंसणं होइ ।
मोत्तूण लिंगओ जं अणागयाईयविसएसु ॥२.२५।। ३०
टी. - अतीत-अनागत पदार्थोनुं लिङ्गना बळे थतुं जे अनुमान, तेना सिवायनो, अस्पृष्ट अने अविषयभूत पदार्थोमां प्रवर्तनारो बोध ज 'दर्शन' कहेवाय छे. अने तेथी
जं अप्पुढे भावे जाणइ पासइ य केवली नियमा ।
तम्हा तं णाणं दंसणं च अविसेसओ सिद्धं ॥२.३०॥ टी. - केवली अस्पृष्ट भावोने अवश्य जाणता अने जोता होवाथी, तेमनो ते केवलबोध 'ज्ञान' अने 'दर्शन' उभयरूपे अविशेषपणे- सरखी ज रीते सिद्ध थाय छे.
सन्मतितर्कगत केवल ज्ञान-दर्शनने लगती चर्चा अत्रे सम्पूर्ण थाय छे. अने तेनी साथे सिद्धसेन दिवाकरजीना केवलज्ञान-दर्शन विशेना मन्तव्य अंगेनी आपणी विचारणा पण आटोपाय छे. परन्तु ते आटोपता पूर्वे समग्र चर्चाना निष्कर्षो जोइ लइओ : १. दिवाकरजीना मन्तव्य अनुसार केवलज्ञान अने केवलदर्शन, ओक ज
बोधनां समानकालीन, बे क्रियात्मक स्वरूपो छे. २. आ स्वरूपो स्वरूपतः परस्पर भिन्न छे. पण कालतः, शक्तितः, बोधतः,
प्रमातृतः व. रीते कथञ्चिद् अभिन्न छे. माटे बन्ने वच्चे भेदाभेद समजवो जोइओ अq तेओनुं मन्तव्य छे. माटे सिद्धसेनाचार्यना मन्तव्यने आपणे समजण पूरतुं 'भेदाभेदवाद' अq नाम आपी शकीओ. आ भेदाभेदवाद युगपद्वादनो विरोधी नथी. पण युगपद्वादनुं ज परिष्कृत स्वरूप छे, तेथी क्रमवाद, युगपद्वाद अने अभेदवाद - ओ त्रण मुख्य वादोमां जो तेमनुं मन्तव्य समावq होय तो युगपद्वादमां ज समावी शकाय. आ अर्थमां तेओ 'युगपद्वादी' छे.
३ .
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४.
५.
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सन्मतिटीकाकार श्रीअभयदेवसूरिजीओ दिवाकरजीना मन्तव्यने युगपद्वादथी जुदुं पाडवा 'अभेदवाद' अवुं नाम आप्युं छे. आ रीते श्रीसिद्धसेनाचार्य अभेदवादी छे. परन्तु वि. भाष्य के विशेष-णवतिमां वर्णित अभेदवाद तो तेओने मान्य नथी ज; अ अभेदवाद तो केवलदर्शन मानवानो ज निषेध करे छे अथवा तेनुं केवलज्ञान साथे सर्वथा औक्य स्वीकारे छे. ज्यारे सिद्धसेनाचार्य बन्नेने ओक ज बोधनी अन्तर्गत गणी बन्नेने कथञ्चिद् अभिन्न गणे छे. फरी वार, श्रीअभयदेवसूरिजीओ दिवाकरजीना मन्तव्य करीके जणावेलो भेदाभेदात्मक 'अभेदवाद' अने वि.ण.मां वर्णित त्रण मुख्य वादोमांनो दर्शनसमुच्छेदात्मक 'अभेदवाद' बन्ने एक नथी.
केवलज्ञान अने केवलदर्शनमां जैकान्तिक भेद के अभेद मानवामां अनेक दोषो छे. पण दिवाकरजीओ दर्शावेली रीते जो बन्ने वच्चे भेदाभेद स्वीकारीओ तो सर्वथा सङ्गति सर्जाय छे. 'स्याद्वादो विजयतेतराम्'. वळी, सामान्यग्राहक केवलदर्शन अने विशेषग्राहक केवलज्ञानने पोतानामां समावी लेनारो ओक केवलबोध ज परिपूर्ण वस्तुनो ग्राहक बनी शके छे, स्वतन्त्र बे उपयोगो नहीं. अने आ रीते बेने ओक ज उपयोगमां समाविष्ट करी दइओ तो 'जुगवं दो नत्थि उवओगा' अ शास्त्रवचननी असङ्गति पण दिवाकरजीना मतमां नथी रहेती. वास्तवमां दिवाकरजीनुं मन्तव्य केवलचर्चामां अन्तिमबिन्दु गणी शकाय तेटलुं तर्कपूत छे.
✰✰✰
श्रीसिद्धसेन दिवाकरजीना केवलबोध अंगेना मन्तव्य विशे केटलांक नवां ज दृष्टिबिन्दुओ अत्रे रजू कर्यां छे, ते बधां साचां ज छे ओवो आ लखनारनो दावो नथी. ओक अल्पज्ञ जीवनो ओवो दावो होई शके पण नहीं. प्रचलित मान्यता करतां श्रीसिद्धसेनाचार्यनुं मन्तव्य भिन्न होवानी दृढ प्रतीति तेमज शास्त्रबल अने तर्कबल बन्ने रीते निर्बल अभेदवादने, दिवाकरजीना माथे थापी देवामां, तेमने अन्याय थतो होवानी समजणे ऊहापोह करवा प्रेर्यो छे. बहुश्रुत भगवन्तोने नम्र विनन्ति के आ विचारधारामां जो क्षति जणाय तो अवश्य सुधारे तथा सूचवे.
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बालस्य यथा वचनं, काहलमपि शोभते पितृसकाशे । तद्वत् सज्जनमध्ये, प्रलपितमपि सिद्धिमुपयाति ॥
(प्रशमरति - ११)
टिप्पणी १. सम्यक्त्वीनुं ज्ञान ते ज्ञान अने मिथ्यात्वीनुं ज्ञान ते अज्ञान - आवी जैन
प्रमाणशास्त्रीय व्यवस्था अनुसार आ अर्थ थाय छे. २. जैन-प्रमाणशास्त्रीय परिभाषा अनुसार 'उपयोग' शब्द पण ओक करतां वधु अर्थ
धरावे छे : १) शक्तिने क्रियात्मक स्वरूपे प्रयोजवी. जेमके मतिज्ञानशक्तिजन्य ४ विलक्षण क्रियाओ छे - मतिज्ञानसाकारोपयोग, मत्यज्ञानसाकारोपयोग, चक्षुदर्शननिराकारोपयोग, अचक्षुदर्शननिराकारोपयोग. आ अर्थ वखते उपयोगशब्द बोधक्रियाओ अने अवलोकनक्रियाओ दर्शावतो होवाथी ज्ञान अने दर्शन शब्दनो पर्यायवाची बने छे. २) ज्ञान (-बोधक्रिया) अने दर्शन (-अवलोकनक्रिया) आत्माना मूलभूत गुणो छे. तेथी आत्मामां हरहमेश बोधक्रियाओ अने अवलोकनक्रियाओ प्रवर्तमान ज होय छे. (जेनो कोई ने कोई पर्याय द्रव्यमां सदाकाल विद्यमान न रहेतो होय, ते मूळभूत गुण न गणाय.) ध्यानमा राखवा जेवी बाबत ओ छे के आत्मा सभानपणे तो ते बे के तेथी वधु क्रियाओमांथी कोईपण ओकमां ज व्याप्त होय छे. (अटले तो आपणने ध्यान बीजे होय तो कानमां अवाज पेसवा छतां संभळातुं नथी.) आ सभानता त्यारे ज जन्मे छे के ज्यारे आत्मा बोधक्रिया के अवलोकनक्रियामां तन्मय थई तथाप्रकारनी परिणतिने पामे छे. आ आत्मिक परिणति के तज्जन्य जागृति ज 'उपयोग' तरीके ओळखाय छे.
"जुगवं दो नत्थि उवओगा" जेवा स्थळे उपयोग-शब्द आवो ज भाव धरावे छे. ३. आ त्रणे वादोनी चर्चाने सम्बन्धित तमाम साहित्यनी सूची माटे जुओ -
'उपयोगवादनुं समग्र साहित्य' - ले. श्रीहीरालाल रसिकदास कापडिया, जैन
सत्यप्रकाश - वर्ष ९, अङ्क ८, पृष्ठ ३८६-३८८ ४. वस्तुगत सामान्यनुं ग्राहक ते दर्शन अने वस्तुगत अनन्तानन्त विशेषोनुं ग्राहक
ते ज्ञान - आवी मान्यता पर आधारित आ तर्क छे. आ मान्यतानी चकासणी
माटे जुओ - 'दर्शन विशे विचारणा' - अनुसन्धान ५६, पृष्ठ १४३-१७३ ५. कर्मना आंशिक क्षय अने आंशिक उपशमथी जन्य अवस्था क्षायोपशमिक गणाय
छे. (क्षय- विघात, उपशम- शक्तिहनन) अने कर्मना सर्वथा क्षयथी उद्भवती
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अनुसन्धान-५९
अवस्था क्षायिक कहेवाय छे. ६. आ प्ररूपणाओ माटे जुओ अभिधानराजेन्द्रकोशगत दंसण, दंसणावरण,
अणागारोवओग व. शब्दो. ७. आ पछी अभेदवादीओ तरफथी करायेली अन्य ३-४ दलीलो पण वि.ण.मां
छे. पण आ दलीलो आ मतनुं हार्द समजवामां अतीव उपयोगी न होवाथी
अत्रे नथी लखी. ८. अत्रे अभेदवादीओनो जे तर्क अने अनुं निराकरण दर्शाव्युं छे ते वि.ण.गत
नीचेनी गाथाओने आधारे छे : "णाणं वत्तं दंसणमव्वत्तं भणइ देसियं समए । तो णाणदंसणाणं जिणम्मि सविसेसणं जुत्तं ॥१८८॥ "भण्णइ केवलदसणमव्वत्तं जेण होज्ज को हेऊ ? । जइ नाणाओ अन्नं वत्तं च हवेज्ज को दोसो ? ॥१८९।। "जह सव्वं विण्णेयं नाणेण जिणोऽमलं विजाणाइ । तह दंसणेण पासइ णिययावरणक्खए सव्वं ॥१९०।। "जेसिमणिटुं दंसणमण्णं णाणा हि जिणवरिंदस्स । तेसिं न पासइ जिणो सविसयणिययं जओ नाणं ॥१९१॥"
___ आ गाथाओना अत्रे दर्शावेला अर्थ करतां तद्दन जुदो अर्थ वि.ण.नी अक्षरगमनिका टीका (-कुलचन्द्रसूरिजी, प्र.- दिव्यदर्शन ट्रस्ट-धोळका, वि.सं. २०६७)मां आपवामां आव्यो छे. लेखमां आ ४ गाथाओमांथी प्रथम गाथाने अभेदवाद-परक अने पछीनी ३ गाथाने क्रमवादपरक समजाववामां आवी छे. ज्यारे उपरोक्त टीकामां प्रथम गाथाने क्रमवादपरक, बीजी गाथाने परपक्षनी अने त्रीजी-चोथी गाथाने पुनः क्रमवादपरक बताववामां आवी छे. टीका -
"सिद्धान्ती स्वलक्षणमेव भणति । तथाहि - ज्ञानं व्यक्तं स्पष्टं साकारत्वात्, दर्शनमव्यक्तमस्पष्टं निराकारत्वात्, देशितं- निर्दिष्टं समये- सिद्धान्ते तीर्थकरगणधरैः। ततो ज्ञानदर्शनयोः जिने- केवलिनि सविशेषणं- साकारनिराकारभेदभिन्नत्वं युक्तं- युक्तिसङ्गतम् ॥१८८॥
"अथ केवलज्ञानदर्शनयो नात्वमभ्युपगम्य परेण भण्यते परवादिना । तथाहि - केवलदर्शनं येन हेतुना अव्यक्तं भवेत् स हेतुः कः ? इत्येकः प्रश्नः । अथ द्वितीयः प्रश्नः । यथा - यदि ज्ञानात् दर्शनम् अन्यत् व्यक्तं च भवेत् तहि को दोषः स्यात् ? न कोऽपि दोष इति पराशयः ॥१८९॥
"सिद्धान्ती प्राह - जह सव्वं..."
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आ अर्थने ग्राह्य गणतां पहेलां केटलाक विचारणीय मुद्दा१. आह (गाथा १६६, १७३, १८५), अह (गाथा १७७, १९८, २००),
भणइ (गाथा २०१, २०७) व. शब्दोनो उपन्यास परपक्षनी नवी आशाना निदर्शन माटे थाय छे. तो गाथा १८८ गत 'भणइ' शब्द परपक्षनुं कथन होवा- नथी सूचवतो ? 'भण्णइ' शब्द उत्तरपक्ष क्रमवाद तरफथी आशङ्कानो उत्तर अपाई रह्यो छे तेवं सूचवे छे (गाथा १७३, १७८, १८२, २०२, २०७, २११, २१८). तो ओ ज शब्दथी शरू थती गाथा १८९ क्रमवाद तरफथी अपातो जवाब
न होय ? ३. 'सविशेषणं' शब्दनो दर्शावेलो अर्थ करवो क्लिष्ट लागे छे. ४. अभेदवादी केवलज्ञान-दर्शन- नानात्व स्वीकारी शके खरा ? ५. सर्व पदार्थोने केवलदर्शनथी जोई शकाय छे अर्बु स्वीकारनारा (गाथा
१९०) जिनभद्रगणि अने अव्यक्त गणे खरा ? जो जिनभद्रगणि केवलदर्शनने अव्यक्त गणे तो तेमणे सन्मति०-२.११मां अपायेली क्रमवादमां केवलदर्शन अव्यक्त रहेवानी आपत्तिनो स्वीकार करवानो थाय. जो गाथा १९०-१९१मां, गाथा १८९मां परवादी तरफथी पूछायेल 'जो केवलदर्शन केवलज्ञानथी भिन्न होय अने व्यक्त होय तो शुं दोष ?' आ प्रश्ननो जवाब होय तो, त्यां केवलदर्शननी अव्यक्तता सिद्ध करवा प्रयत्न होवो जोइओ, पण अq तो नथी. उपरथी "जेसिमणिटुं दंसणमण्णं णाणा" ओम कां छे, जे सूचवे छे के प्रश्न पूछनारो परवादी बेने अभिन्न गणे छे. ___ माटे समग्रपणे विचारतां आ गाथाओनो नीचेनो अर्थ करवो युक्तिसङ्गत
लागे छेक्र. - केवलज्ञान-दर्शन- नानात्व स्वीकारQ तमने शा माटे अनिष्ट छे ? (गाथा
१८७) अ. - सिद्धान्तमां ज्ञानने व्यक्त अने दर्शनने अव्यक्त गणवामां आव्युं छे. (हवे
जो केवलज्ञान-दर्शनने भिन्न गणीओ) तो केवलीमां ज्ञान-दर्शन- (नानात्व -पूर्वगाथाथी अनुवृत्त) पोताना विशेषणो साथे (-व्यक्त-अव्यक्त) ज युक्त
थशे. अर्थात् केवलीने अव्यक्तता मानवानी आपत्ति आवशे. (गाथा १८८) क्र. - केवलदर्शन अव्यक्त रहे तेमां कयुं कारण ? अने केवलज्ञानथी भिन्न
पण गणो अने व्यक्त पण मानो तो कयो दोष ? (गाथा १८९) आ पछीनी गाथाओमां केवलदर्शननी भिन्नता अने व्यक्तता सिद्ध करवामां आवी छे.
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१०. समय मे जैनदर्शन मुजब कालनो अन्तिम सूक्ष्मतम निविभाज्य अवयव छे. ११. वास्तवमां आ आखी प्ररूपणा मत्यादि ४ ज्ञान अने चक्षुः व. ३ दर्शनोने
अनुलक्षीने समजवानी छे. पण सरळता खातर फक्त मतिज्ञान-श्रुतज्ञानने अनुलक्षीने
ज समजावी छे. १२. असङ्ख्य समयो- अन्तर्मुहूर्त थाय छे. १३. सागरोपम कालना ओक बृहत् खण्डनुं नाम छे. १४-१५. टिप्पण नं. २मां जणाव्युं तेम "जुगवं दो नत्थि उवओगा'मां उपयोगनो
अर्थ सभानता छे. केवलज्ञान अने केवलदर्शननां आवरणोनो साथे क्षय थाय ओटले केवलज्ञान अने केवलदर्शन साथे ज जन्मे ओवी युगपद्वादीनी वात चोक्कस साची छे. किन्तु अत्रे ध्यानमा राखवानी बाबत ओ छे के आ ज्ञानदर्शन क्रियात्मक छे, उपयोगात्मक नहीं. क्रियात्मक केवलज्ञान-दर्शनना साहचर्यनो इन्कार तो खुद क्रमवादी पण न करी शके. केमके पूर्व जणाव्युं तेम क्रियात्मक ज्ञानदर्शन आत्माना मूळभूत गुणो छे अने मूळभूत गुणोनी पर्यायधारा अखण्ड वर्ते छे. परन्तु क्रमवादीनी केवलज्ञानोपयोग अने केवलदर्शनोपयोग साथे न होवानी वात पण यथार्थ छे. कारण के एकसाथे केवलज्ञान-दर्शनरूप उभयक्रियामांथी कोई ओक ज क्रियामां आत्मा सभानपणे वर्ती शके - तद्रूप परिणति पामी शके अवी आत्मानी तथास्वभावता छे. आ रीते विचारीओ तो क्रमवादयुगपद्वाद परस्परना विरोधी नथी, पण प्रमाणव्यवस्थानुं साचं चित्र स्पष्ट
करवामां परस्परना पूरक बने छे. १६. वि.भाष्य-टीकामां अभेदवादना मन्तव्यमां स्तुतिकारना नामे मलधारीजीओ प्रस्तुत
पद्य उद्धृत कर्यु छे. हवे स्तुतिकार तरीके श्वेताम्बर परम्परामां सिद्धसेनसूरिजीनी प्रसिद्धि छे. तेथी आ परथी बे तारण काढी शकाय : १. प्रस्तुत पद्य
दिवाकरजीनुं छे. २. मलधारीजी दिवाकरजीने अभेदवादी गणता हता. १७. मलयगिरिजीओ तो नन्दीसूत्रनी टीकामां युगपद्वादनी तमाम दलीलो ज वादी,
सिद्धसेन व.ना मुखे बोलावी छे. तो तेओने फक्त अभ्युपगमवादथी ज
युगपद्वाद सम्मत छे अवं कई रीते गणी शकाय ? १८. “मतिज्ञानादिषु चतुर्पु पर्यायेणोपयोगो भवति, न युगपत् । सम्भिन्नज्ञानदर्शनस्य
भगवतः केवलिनो युगपत् सर्वभावग्राहके निरपेक्षे केवलज्ञाने केवलदर्शने चाऽनु
समयमुपयोगो भवति ।" - तत्त्वार्थभाष्य १.३१ १९. "तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनम् ।
क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृतम् ॥" -आप्तमीमांसा "तत्र सकलज्ञानावरणपरिक्षयविजृम्भितं केवलज्ञानं युगपत्सर्वार्थविषयं करणक्रमव्य
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वधानातिवर्तित्वाद् युगपत्सर्वभासनं तत्त्वज्ञानत्वात् प्रमाणम् ।' –अष्टशती-अष्टसहस्री २०. “कस्स व णाणुमयमिणं जिणस्स जइ होज्ज दो वि उवओगा ।
णूणं ण होति जुगवं जओ णिसिद्धा सुए बहुसो ॥" "न चाऽतीवाऽभिनिवेशोऽस्माकं युगपदुपयोगो मा भूदिति,
वचनं न पश्यामस्तादृशम्' - तत्वार्थ० सिद्ध० टीका-१.३१ २१. आगळ सन्मतितर्कने आधारित चर्चामां विचारविमर्श जुओ. २२. जुओ टि. १८ २३. जेम ऊर्जा ओक ज होवा छतां गतिऊर्जा, स्थितिऊर्जा, उष्माऊर्जा व. अनेक
स्वरूपे व्यक्त थाय छे. आपणने भले ओ स्वरूपो तद्दन भिन्न जणातां होय, परन्तु वैज्ञानिको तो ओ तमाम स्वरूपोमां वर्तती ऊर्जाने मूलभूतरूपमां अक ज
जुले छे. तेम अत्रे शक्तितः अभेद समजवो जोइओ. २४. सिद्धसेन दिवाकरजीना अभेदवादने प्राचीन अभेदवादथी जुदो पाडवा अत्रे अने
'भेदाभेदवाद' अर्बु तत्पूरतुं नाम आप्युं छे. २५. प्राचीन अभेदवाद केवलदर्शनने स्वीकारवानो निषेध करतो होवाथी, अत्रे अने
दिवाकरजीना अभेदवादथी जुदो पाडवा 'दर्शनसमुच्छेदवाद' तरीके ओळखाव्यो
२६. जुओ टि. ४ २७. जुओ टि. ८ २८. श्रीअभयदेवसूरिजीओ युगपद्वादीना मते फक्त "णियमऽपरित्तं' अटलो ज
पाठभेद देखाड्यो छे. पण टीकामां उद्धृत युगपद्वादी-टीकानो अंश अने अर्थसङ्गति जोतां गाथानो उत्तरार्ध युगपद्वादीना मते “सागारगयग्गहणणियमऽपरित्तं
अणागारं' अवो होवो जोईओ अम लागे छे. २९. दंसणनाणा इति दर्शनज्ञाने नाऽन्यत्वं न क्रमापादितभेदं केवलिनि भजते इति
शेषः । ... यत्तु क्षयोपशमनिबन्धनक्रमस्य केवलिन्यभावेऽपि पूर्वं क्रमदर्शनात् तज्जातीयतया ज्ञानदर्शनयोरन्यत्वमिति टीकाकृव्याख्यानं, तत् स्वभावभेदतात्पर्येण सम्भवदपि दर्शने ज्ञाननिमित्तत्वनिषेधानतिप्रयोजनतया कथं शोभते इति विचारणीयम्
-ज्ञानबिन्दु. ३०. प्रस्तुत गाथाना विस्तृत विवेचन माटे जुओ अनुसन्धान ५६, पृ. १६०
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विहंगावलोकन
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उपा. भुवनचन्द्र
अनुसन्धान-५७
वीतरागस्तवन नामक संस्कृत स्तुति भाववाही अने प्रासादिक छे. हृदयमां भाव जन्माववा माटे भिन्न भिन्न भावभङ्गी अने कथनशैलीथी रचायेलां स्तोत्रो उपकारक थतां होय छे. प्रस्तुत रचना पण ए तथ्यनुं सुपेरे निर्वहण करे छे.
‘आदिनाथ नमस्कार' अपभ्रंश पछी अने गूर्जरना उदयकाळनी रचना जणाय छे. हस्तप्रतना वाचनमां थोड़ी भ्रान्ति थई छे. क. ३मां 'छेल' छे त्यां ‘छल' योग्य रहे; ‘छलछद्म' एवो शब्दसमूह प्रसिद्ध पण छे. ए ज कडीमां आगळ 'भूख उस' (? उर? ) ' एम छे त्यां 'उस'ना स्थाने 'तुस' होवानी कल्पना सहेजे थाय. अहीं भूख - तरसनां दुःखनो उल्लेख छे. जूनी लिपिमां ‘तु’ अने उ वच्चे भ्रान्ति थाय एवी रीते ए बे अक्षर लखाता. क. ४मां 'न करइ ' छे त्यां 'न ठरइ' वधारे बंधबेसता थाय. ए ज कड़ीमां 'लबध' छे ते लुबध हशे. आ ज कड़ीमां ‘अट्टडाय' शब्द छे. सम्पादक तेनो अर्थ 'अथड़ाय' एवो सूचवे छे पण अहीं सन्दर्भ दुष्टचिन्तननो छे, आथी 'अट्ट झाइ' जेवो पाठ होवानो सम्भव वधु छे.
'उम्मरवाडी पार्श्वनाथ प्रशस्ति' ऐतिहासिक महत्त्व धरावे छे. आ जिनालयमां अन्य कोई पार्श्वनाथनी प्रतिमाजीनी प्रतिष्ठा थई होय तो तेनी प्रशस्ति उम्मरवाडी पार्श्वनाथना नामे रचाय नहि; आथी जिनालयनो जीर्णोद्धार थयो होय अने पछी मुख्य उमरवाडी पार्श्वनाथ भगवाननी प्रतिष्ठा थई होय ते समयनी आ प्रशस्ति छे एम मानवुं उचित जणाय छे. प्रशस्तिमां एक ज बिम्बनो उल्लेख छे ते, ए भगवाननी मुख्यताना कारणे थयो होय एम बने.
‘एक अनुकरणात्मक स्तुति' पठनीय छे. थोड़ी कृत्रिमता जणाय छे, पण अनुकरणात्मक कृति तरीके ते रसप्रद छे. श्लो. १३मां 'धर्म' छे त्यां 'धर्मे' होवुं घटे.
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आ अंकनी एक विशिष्ट अने रसिक कृति छे : 'कुमारपाल रास'. भावुक उद्गार तथा प्रत्यक्षदृष्ट होय तेवुं वर्णन सूचवे छे के कां तो कवि कुमारपालनी नजीकना समयना होय ने कां तो हेमसूरिनी परम्परा साथे सम्बन्धमां होय. कृतिनी भाषा अपभ्रंशनी निकटता दर्शावे छे. 'स्यां चेटोऽपि दरिद्रोऽपि' ए श्लोकनी वात ३२मी कड़ीमां गूंथी लेवाइ छे : 'जहिं कुलि तइं नो लखउ तिहिं चक्कवइ म देउ'. कुमारपालनी ‘अमारी', व्यसननिषेध, शत्रुञ्जयना संघ वगेरेनी वात कवि उलट अने उमळकाथी करे छे. कविए पोताना गुरु सोमतिलकसूरिनो उल्लेख कर्यो छे. सम्पादक मुनिद्वयने विनन्ति के आ नामना आधारे कविना समयनो निर्णय करवानो प्रयास करे.
देशी भाषाओनी कृतिओनुं सम्पादन, एक रीते, संस्कृत - प्राकृतादि भाषाओनी अपेक्षाए कठिन छे. कारण के उच्चार, जोड़णी, व्याकरण वगेरे सैके सैके अने स्थलविशेषे बदलाया करतां होय छे. ध्यानपूर्वक अने सूझसमज साथे वाचन न थाय तो भाषाना तत्कालीन स्वरूपने हानि पहोंचे. कोई पण कृतिना मूळ भाषास्वरूप सुधी पहोंचवुं ए सम्पादक- संशोधकनुं मुख्य कर्तव्य बनी रहे छे. प्रस्तुत रचनामां गुजराती भाषानुं जूनुं रूप समायुं छे. सम्पादकोए काळजीभर्युं सम्पादन कर्तुं छे तो पण केटलांक स्थानोए अशुद्ध वाचन थयुं
छे.
क. ७मां धाउ छपायुं छे. अहीं साचो शब्द घाउ छे. आ शब्द आ ज अर्थमां ११मी कडीमां पण छे. क. ८मां उसावग जेवो शब्द भ्रमवश सर्जायो जणाय छे. मूळमां पाठ कंइक आवो होवानी शक्यता छे : 'ए तु भइउ सावग'. जूनी प्रतोमां 'तु' अक्षर 'उ'नो भ्रम थाय एवी ढबे लखातो हतो. क. ११ 'जांमे इणिहि' पण भ्रान्त पाठ छे. 'रात करई जां मेइणिहिं कुमरड रायह राय' आम वांचवाथी अर्थ बराबर बेसे छे. क. १८मां 'करिन' छे ते 'करि-न' (कर ने !) एम वांचवानो छे. ए ज कडीमां 'मन सिद्धिइं' छे त्यां 'मनसुद्धिइं' वधु संगत थाय, छतां ह.प्र.मां 'सिद्धिइं' ज होय तो (सु) आम कौंसमां सम्भवित पाठ बतावी शकाय. क. २४मां 'चालिउ ( ? ) ' एम प्रश्नचिह्न मूक्युं छे, पण तेवी जरूर नथी. कथन स्पष्ट छे : 'चालिउ नरवर सुरठभणी'. क. ३२मां त्रीजी पंक्ति आम वांचवी जोड़ती हती : 'जहिं कुलि त नो लखउ, तिहिं
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चक्कवइ म देइ'. क. ३८मां 'लईणइं' अशुद्ध भासे छे. 'लइ ईणइं' होइ शके. लेखक दोषथी लइणइ थयुं होय. क. २४मां 'चउरा' छे त्यां 'चउरी' होई शके; दीर्घ ईकारान्त शब्द आकारान्तनो भ्रम सर्जी शके छे. जो 'चउरी' होय तो 'चउरी गूडर संघतणा' - संघना मण्डप अने तम्बू - एवो अर्थ पण बेसे.
म.गू.को.मां न नोंधाया होय एवा शब्दो आ रचनामां देखा दे छे. मध्यकालीन गूजराती कृतिओनां सम्पादन वखते म.गू.कोशना उपयोगने सम्पादकोए अनिवार्य समजवो जोइए, जेथी कृतिनो पाठ स्पष्ट थाय, अने घणी वार कोशमां आवरी न शकाया होय एवा नवा शब्दो मळी आवे तो मध्यकालीन शब्दसमृद्धिमां एटलो वधारो थाय.
___ कृतिनो शब्दकोश तैयार करती वखते शब्दनी साथे श्लोक, कड़ी के पंक्तिनो क्रमांक लखवो जरूरी छे. ए विना विद्यार्थी के अभ्यासीने ए शब्द- स्थान शोधवामां मुश्केली पडे. प्रस्तुत कृतिमां आवा क्रमांक शब्दनी साथे अपाया नथी.
शब्दकोशमां उमेरवा जेवा थोडा शब्दोआलि (४) मस्ती, तोफान सारि (१२) द्यूत थिआ (६) रहेनार, रहेलुं धामी (२३) धार्मिक, श्रावक पिआरी (१८) पराई
धामिणि (२७) श्राविका वालीनाह अने परहडा - आ बे व्यक्तिनामो जणाय छे. (९मी कड़ी). हिंसाप्रिय देव अथवा कोई क्रूर व्यक्तिओ होय, अने कुमारपाळे तेमने सुधार्या होय एवो सम्भव छे. वालीनाह विशे 'अनुसन्धान'मां अगाउ श्रीशीलचन्द्रसूरि तरफथी कोई नोंध छपायानुं स्मरणमां छे. 'पडण' ए पडह नथी. पुडणा (क. ८) तथा पडण (९ तथा ११)- आ बे शब्दो बलि अथवा जीवहत्याना अर्थमां होय एवो सम्भव छे. क. ३७मां नो 'मोगउ' शब्द विशिष्ट छे. कुमारपाळे अपुत्रिया- धन लेवानुं बंध करेलुं तेनो उल्लेख जो अहीं थयो होय तो मोगउ = अपुत्रियानुं धन थाय. 'गूडर' (२४) पगलां नथी ज, तंबू होइ शके.
'ओसवाल गोत्र कवित्त' सामाजिक इतिहास माटे दस्तावेजी साधनरूप कृति छे. रचनार कोई विद्वान मुनि जणाय छे. नाम कवित्तनुं आप्युं छे पण
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दोभासु
आखी रचना आर्या छन्दमां छे. श्लो. २७मां 'अर्णोधा' छे ते 'अरणोट्टा' होवानो सम्भव छे.
'नेमिनाथ स्तवन' तेमांनी भाषानी दृष्टिए १८मी सदीना अन्तभागनी रचना जणाय छे. फुटकळ कृतिओमां एक हरियाळी छे तेनो उत्तर 'शत्रुञ्जय पर्वत' छे. नवतत्त्व प्रकरण आधारित बे चोपाई आ अंकमां छे. देवचन्द्रजी कृत चोपाईनी एक प्रत १७००मां लखेली मळे छे तेथी तेनी रचना ३६८ वर्ष पूर्वेनी समजाय छे. आणन्दवर्धन कृत चोपाइ साड़ा चारसो वर्ष जूनी छे. आ चोपाइनां थोड़ा संमार्जनयोग्य स्थान –
क. २४ छाणयोनि गणयोनि क. १३४ जुधं धूणइ जु धंधूणइ क. १६६ नु इह
नुहइ (न होय) क. १६६
अलकसमलकस अलकस-मलकस क. १७८ दो भासु क. १७९ वूस्तह लावद् वू(ह)स्त हलावइ क. १९३ स्नान नवायु | स्नान न वायु क. २२६ आस दिइ आस[न] दिइ
शब्दकोशमां ‘परीखा' (२०६)नो अर्थ 'खाई' बताव्यो छे, परन्तु वास्तवमां 'पुरीष'- भ्रष्ट रूप 'परीखा' थयुं छे, माटे परीखा = मळ, विष्टा थाय. रेवणी (२५४) = रहेनार नहि पण रहेवू, वास एवो अर्थ थाय. क. २३०मां 'कुदली' छपायुं छे ते भ्रान्त पाठ छे. आखुं चरण आम वांचq जोइतुं हतुं : 'श्रम हाथउ, कर्म संकु (?) दली'. तपरूपी घंटीमां कर्म दळवानी वात छे. 'सुंकु' पाठ शंकास्पद तो रहे ज छे. ह.प्र. चोकसाईथी तपासवी पड़े. 'जुधं धूणइ (१३४)ने पण आ रीते वांचवाथी अर्थ बेसे : 'जु धंधूणइ'. अने आम वांचतां 'धंधूणइ' एक नवो शब्द मळे छे, जे म.गू.कोशमां नोंधायो नथी. त्यां धंधोलिय, धंधोलq जेवां रूपो नोंधायां छे, एमां आ एक वधु रूप उमेराय छे. 'अलकसमलक सयेलु' (१६६) - ए पण खोटुं वंचायुं छे. 'अलकसमलकस मेलु' - एम वांचवें जोइए. 'अलक-मलक'नुं आ जूनुं रूप अहीं सांपडे छे.
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शास्त्रीय पदार्थोना परिशीलननी नीपज रूपे, मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजयजीनो मरणना प्रकार विषे तथा ३४ अतिशयो विषेनो ऊहापोह अभ्यासीओने आनन्ददायक बनशे. हस्तप्रतिओ प्राप्त करवानी मुश्केली, लहियाओना लेखनदोषो, भाषागत परिवर्तनो वगेरेना कारणे महान श्रुतधर भगवन्तोने पण व्याख्या करती वखते {झवण वेठवानी आवी छे. आजे विविध क्षेत्रे संशोधनो थइने घणां तथ्यो स्पष्ट थया छे, हस्तप्रतोनी जाणकारी अने उपलब्धि अपेक्षाकृत सुलभ बनी छे, तेथी घणी वातो स्पष्टीकरण पामे छे. अहीं पण आq ज बन्युं छे. लिपिकार द्वारा थयेली लेखनभूलना कारणे तथा 'त' श्रुतिवाळा उच्चारो तरफ ध्यान नहीं जवाना कारणे वादिवेताल शान्तिसूरि जेवा महान शास्त्रकारे जे गाथानी व्याख्या करवानुं मुलतवी राख्युं ते गाथा मुनिश्री द्वारा स्पष्ट थवा पामी छे. 'तब्भवमरणेण णेयव्वा' नो अर्थ 'तद्भव मरण कह्या छे' एवो न ज थई शके, परन्तु 'तद्भव मरण प्रमाणे जाणवा' एवो जरूर थई शके. मुनिश्रीनो आ तर्क पण साचो छे.
अतिशयोनी गणतरी आगमकाळे जुदी रीते थती हती, पछी तेमां परिवर्तनो थयां छे – ए वात मुनिश्रीए करेला तुलनात्मक विवरणथी स्पष्ट थाय छे. चाली आवती मान्यताथी जुदी पडनारी आवी वातो घणाने अग्राह्य के अश्रद्धेय थई पड़े एवो सम्भव छे, परंतु तटस्थ अने तुलनात्मक अभ्यासना निष्कर्षरूपे सामे आवतां तथ्योथी अकलाइ जq ए पण एक प्रकारनी दुर्बलता छे. सत्यान्वेषी-गवेषी जन एनाथी मुक्त रहे छे. पूर्वाचार्योए एवां सूत्रो के पाठोने यथातथ राख्या-सुधारी के उडाड़ी न मूक्या ते तेमनी तथ्यपरक के तथ्यप्रतिबद्ध दृष्टिनो जीवतो-जागतो पूरावो छे. अनुसन्धान ५८
श्री अमृत पटेल द्वारा सम्पादित थयेलां स्तम्भनक पार्श्वनाथ भ.नां त्रण स्तोत्र आ अंकमां छे. अज्ञातकर्तृक स्तोत्रना श्लो.२मां एक अक्षर खूटे छे ते माटे सम्पादके पाठमां सुधारो सूचव्यो छे, परंतु, तेने माटे श्लोकना बीजा उपलब्ध शब्दोमां पण फेरफार सूचव्यो छे. त्रुटित पाठनी पूर्ति माटे पाठना बीजा स्पष्ट प्राप्त अक्षरो/शब्दोमां घणो बधो फेरफार करवो पड़तो होय तो एवो सुधारो इष्ट न गणवो जोइए. प्रस्तुत पाठमां, अन्य शब्दोने स्पर्श कर्या वगर
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खूटतो अक्षर उमेरीने पाठशुद्धि साधी शकाय छे : पुराराधि [तो ] राजराजेन्द्रदेवैः ... ‘रत्नाकरपञ्चविंशतिका'नी एक वृत्ति पण आमां प्रगट थई छे. एनो टबार्थ पण ए ज प्रतिमां छे ते पण छाप्यो छे. सम्पादिका साध्वीजीए भूमिकामां जणायुं छे के टबार्थ पण वृत्तिकारे पोते लख्यो छे. वस्तुतः टबार्थ अन्यनो करेलो छे, जे टीका अने टबाना पाठनी सरखामणी करवाथी स्पष्ट थाय छे. टीकाकारे अन्तिम श्लोकमां 'शिव- श्रीरत्नाकर' (मोक्षलक्ष्मीना समुद्र) एवो समास स्वीकारीने विवरण कर्तुं छे ज्यारे टबामां 'शिवं' छे अने तेने बोधिरत्ननुं विशेषण बनावीने अर्थ कर्यो छे. श्लो. ७मां टीकाकारे मनोज्ञवृत्त - त्वदास्य० एम समास मान्यो छे. टबाकारे 'मनोज्ञवृत्तं' करीने आने मननुं विशेषण समजी अर्थ कर्यो छे. आथी वृत्तिकार तथा टबाकार एक नथी, ए निश्चित थाय छे. टीकामां मूळना केटलांक पाठान्तरो ( आजे प्रचलित पाठ करतां भिन्न) जोवा मळे छे.
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श्री जिनवल्लभसूरिरचित 'प्रश्नोत्तरशतक'नी एक लघु टीका अहीं प्रकाशित थई छे. कर्तानुं भाषा परनुं प्रभुत्व अने कल्पनासमृद्ध कवित्व अद्भुत कही शकाय तेवां छे. ‘अनेकान्ततत्त्वमीमांसा' प्राचीन सूत्रशैलीमां अर्वाचीन आचार्य द्वारा रचित ग्रन्थ छे. षड्दर्शनना व्यापक परिचय विना आनुं विवरण न करी शकाय. ग्रन्थनामनो अर्थ 'अनेकान्तना तत्त्वनी मीमांसा' एवो नथी करवानो, पण ‘अनेकान्त ( अनेक धर्मात्मक) एवा तत्त्वनी मीमांसा' एम करवानो छे.
'सच्चायिका बत्तीसी'नी भाषा मिश्र जेवी छे. सम्पादकश्री आने मुख्यतया राजस्थानी कृति गणे छे, परंतु कृतिमां गुजरातीनी असर वधारे जणाय छे. इम, ज्या, त्यां चढती, समर्यां, रांकाथी, अंधारइ, अजुआलइ जेवा शब्दो प्रगटपणे गुजराती छे. राजस्थानी तथा पंजाबी उपरांत अपभ्रंशनी असर पण आमां छे ज. क. १४मां 'त्वरा' छपायुं छे पण त्यां साचो पाठ 'तूरा' हशे . क. ६मांनो ‘अठील' शब्द देश्य के प्राकृत भाषानो जणाय छे. आनो अर्थ 'बेड़ी' (बन्धन) थाय छे. अपणाइत (८) : पोतापणुं. इसराई (१४) = एैश्वर्य, मोटाई. करसण (२३) कृष्ण नहि पण कर्षण = खेती, कृषि. सैंस (१२) वाचनभूल छे. भैंस जोइए. बीजा केटलाक नोंधवा जेवा शब्दो
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अनुसन्धान-५९
परघल (७) खूब, घj ईत (१५) इति, उपद्रव तुरका (९८) तुर्क चिगड़चगड़ (२०) चोर-डाकू सवरी (२४) ? झतराली (२६) ? सीयइ (३०) ठंडीमां माहू (३०) ?
'संवेगकुलक' प्रेरणादायी कृति छे. गा. ७मां 'विसयेसु' छे त्यां 'विसहेसु' शब्द होवानी पूरी शक्यता छे.
नवतत्त्व सम्बन्धी संस्कृत-प्राकृत रचनाओ तथा बालावबोध, टबार्थ जेवी रचनाओनी एक समग्रसूचि मुनिद्वय द्वारा आपणने प्राप्त थाय छे, जे रसप्रद छे. कृतिओनो क्रम रचनावर्ष प्रमाणे राख्यो होत तो सूचि वधारे सूचक बनत. टबार्थ साहित्यनी सूचिमां पार्श्वचन्द्रसूरिनो गच्छ सौधर्मगच्छ दर्शाव्यो छे ते हकीकत दोष छे. एमनो गच्छ नागपुरीय बृहत् तपागच्छ सुप्रसिद्ध छे. सौधर्मगच्छ एमना शिष्य ब्रह्मषिए शरु को हतो.
__जैन कथासाहित्यना प्रकार, भाषा, उद्देश्य वगेरे बिन्दुओनी क्रमबद्ध विचारणा करतो श्री सागरमल जैननो अभ्यासलेख पठनीय छे. मुनिश्री त्रैलोक्यमण्डनविजयजीनो निह्नवरोहगुप्त, श्रीगुप्ताचार्य तथा त्रैराशिक मतनी ऐतिहासिक दृष्टिए विचारणा करतो अभ्यास लेख, घनिष्ठ अभ्यास, तुलनात्मक विचारणा वगेरे थकी ध्यानार्ह बन्यो छे.
जैन मन्दिर, नानीखाखर-३७०४३५,
कच्छ, गुजरात
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जून - २०१२
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नवां प्रकाशनो
१. योगग्रन्थव्याख्यासंग्रह : सं. आ. कीर्तियशसूरिः, प्र. सन्मार्ग प्रकाशनम्, अहमदाबाद; सं. २०६८, ई. २०१२
जैन योगना विषय, निरूपण-प्रतिपादन करनारा ३६ जेटला ग्रन्थोमां योग विषयक अनेक शब्दो-पारिभाषिक शब्दोनी, ते ते ग्रन्थकर्ताओओ करेली मार्मिक अने तात्त्विक व्याख्याओगें उपयोगी संकलन. जिज्ञासुओ, अभ्यासीओ, संशोधकोने माटे उपयोगी प्रकाशन.
२. आयारंगसुत्तं (पढमो भागो) नियुक्ति-चूर्णियुक्त. सं. अनन्तयश वि., प्र. दिव्यदर्शन ट्रस्ट, धोलका; सं. २०६८
__आचाराङ्गसूत्र उपरनी प्राचीन चूणिर्नु नवेसरथी सम्पादन तथा प्रकाशन. पूर्वे आ चूर्णि पूज्यपाद श्रीसागरानन्दसूरीश्वरजीए मुद्रित करावी हती. तथा पूज्यश्री पुण्यविजयजीए तेनी ताडपत्राधारे संशोधनात्मक प्रेसकोपी करावी हती. ते बधांने साथे राखीने तैयार करायेलुं संस्करण. प्रथम भागमा ४ अध्ययन पर्यन्त ग्रन्थ प्रगट थयो छे. श्रमसाध्य कार्य करवा बदल सम्पादकने अभिनन्दन घटे छे. प्रान्तभागे उपयुक्त परिशिष्टो पण छे.
३. योगविंशिकाप्रकरणम् : कर्ता - श्रीहरिभद्रसूरिजी, टी. - उपा. श्रीयशोविजयजी, सं. - श्रीकीर्तियशसूरिजी प्र. - सन्मार्ग प्रकाशनम्, अहमदाबाद; सं. २०६३, ई. २००७. ___टीका, टीकानुवाद, विस्तृत गुजराती विवेचन, अनेक शास्त्रीय सन्दर्भोथी सभर टिप्पण, परिशिष्टोथी अलङ्कत बहुमूल्य सम्पादन.
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अनुसन्धान-५९
संशोधन-माहिती मुनिश्री धर्मरत्नविजयजी निम्नलिखित ग्रन्थो पर संशोधन-सम्पादन करी रह्या छ : १. श्रीहरिभद्रसूरिकृत पञ्चाशक-प्रकरण-टीका, टीकाकर्ता : आ.
यशोभद्रसूरि. जेसलमेर-भण्डारमाथी प्राप्त, सं. ११२१मां लिखित ताडपत्र-प्रतिना आधारे कार्य चालु छे. अन्य प्रतिओ (ताडपत्र के हस्तप्रति) उपलब्ध थाय तो कार्य सुगम थाय. श्रीअजितनाथचरित्र, कर्ता : आ. देवानन्दसूरि (संस्कृत-पद्यात्मक). आगमप्रभाकर मुनिश्री पुण्यविजयजी द्वारा करवामां आवेल प्रेसकॉपीना आधारे कार्य थई रह्यं छे. अन्य पोथीओ मळे तो कार्य वधु सुन्दर थई
शके. ३. श्रीनेमिनाथचरित्र, कर्ता : आ. रत्नप्रभसूरि-शिष्य (संस्कृत-पद्यात्मक).
श्रीपुण्यविजयजी-निर्मित प्रेसकॉपीना आधारे. अन्य प्रतिओ अपेक्षित. ४. सूत्रकृताङ्गसूत्र-चूर्णि भाग २, पाटण, अमदावाद (ला.द.) ना भण्डारोनी हस्तप्रतिओना आधारे.
उपरोक्त ग्रन्थो सम्बन्धित प्रतिओ तेमज विशेष जाणकारी सम्पादक मुनिश्रीने अपेक्षित छे. तेमनो सम्पर्क -
संजय रिपेरिंग वर्क्स १६, क्रिश्ना कोम्प्लेक्स, गांधी रोड,
अमदावाद-३८०००१
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जून - २०१२
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आगामी प्रकाशनो १. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् (भाग ५, पर्व १०)
कर्ता - कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य सं. - आ. श्रीविजयशीलचन्द्रसूरि प्र. - क.स. श्रीहेमचन्द्राचार्य न.ज.श.स्मृ.सं.शि.निधि - अमदावाद
हस्तप्रतोना आधारे तैयार थयेली संशोधित वाचना. २. कहावली (भाग १)
कर्ता - श्रीभद्रेश्वरसूरिजी सं. - मुनि श्रीकल्याणकीर्तिविजय प्र. - प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी - अमदावाद
प्रायः विक्रमना ८-९मा सैकाना प्राचीन ग्रन्थनुं सौप्रथम प्रकाशन. उपलब्ध ओकमात्र ताडपत्रप्रतिना आधारे अत्यन्त परिश्रमपूर्वक तैयार थयेलो ग्रन्थ. ३. प्राकृतप्रबोधः
कर्ता - मलधारी श्रीनरचन्द्रसूरिजी सं. - साध्वी श्रीदीप्तिप्रज्ञाश्रीजी प्र. - क.स. श्रीहेमचन्द्राचार्य न.ज.श.स्मृ.सं.शि.निधि - अमदावाद
श्रीहेमचन्द्राचार्य विरचित प्राकृतव्याकरणनां उदाहरणोनी साधनिका दर्शावतो विक्रमना १३मा सैकानो ग्रन्थ. ४. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रसारोद्धारः (भाग १ थी ७)
कर्ता - आ. श्रीविजयशुभङ्करसूरिजी सं. - मुनि श्रीधर्मकीर्तिविजय प्र. - क.स. श्रीहेमचन्द्राचार्य न.ज.श.स्मृ.सं.शि.निधि - अमदावाद
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यने आधारे सरल संस्कृत गद्यमां रचायेला अने वर्षों पूर्व प्रताकारे प्रकाशित ग्रन्थहैं पुस्तकाकारे पुनःसम्पादन.
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________________ 154 अनुसन्धान-५९ आवरण चित्र-परिचय आवरण - 1 एक प्राचीन हस्तचित्र, जेमां तीर्थकर भगवान कायोत्सर्ग मुद्रामां ऊभा छे, अने बे बाजु बे देव-उपासको तेमनी उपासनार्थे ऊभा जणाय छे. आवरण - 2 श्रीहेमचन्द्राचार्यनो जीवनकाल वि.सं. 1145 थी १२२९नो छे. ते पछी थोडांक ज वर्षों बाद सं. १२५७मां तेमनी प्रतिमा बनी, जे पहेला महेसाणाना जैन देरासरमा हती, अने अत्यारे धंधुकाना जिनालयमां छे. आवरण पृष्ठ 4 उपर तेनी तसवीर आपेल छे. जो के आ प्रतिमानी छबी पूर्वे अनेक वार प्रकाशित थई गई छे. परंतु अहीं पुनः प्रगट करवानुं कारण तेनो प्रतिमालेख छे. ए प्रतिमानी पलांठी-पाटली पर वंचातो लेख आ प्रमाणे छ : "सं 57 आषाढ शु 9 गुरौ पूज्य श्रीहेमचन्द्रसूरीणां मूर्तिः // आगमगच्छे॥ सं. 1257 वर्षे // " आ लेखना अक्षरो अत्रे आपेल प्रथम चित्र पर जोवा मळे छे, पण बीजा चित्रमा ते जोवामां आवता नथी. केम के तेना पर लाल रंगनो पट्टो करी देवामां आव्यो छे. एवं बने के रोजेरोजनी पूजापद्धतिने कारणे लेख साव नष्ट थयो होय, तेथी तेने ढांकी देवा माटे आम करवामां आव्युं होय. ___ आवी प्रतिमा तथा तेना आवा लेख ते आपणो ऐतिहासिक वारसो छे. तेनो नाश थवो ते आपणने - इतिहासने बहु बहु हानिकर्ता बाबत छे. परंतु आ वात आपणा समाजने क्यारे समजाशे ? ए सवाल अनुत्तर ज रहेवानो छे. अस्तु. -x