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अनुसन्धान-५९
सम्भवता होवाथी, न जोयेलुं अने न जाणेलुं बोलवानी आपत्ति रहेती नथी.
स्वपक्षनी नबळी दलीलोर्नु परपक्ष द्वारा करायेलुं मान्य खण्डन देखाडवू ओ वैचारिक उदारता छे. अने महामना आचार्य भगवन्ते अत्रे ओ ज उदारता दर्शावी होय तेम लागे छे. वि.भाष्य के वि.ण.मां आ दलील युगपद्वादना खण्डन दरम्यान देखाती नथी, ते पण जणावे छे के आ दलीलनो जवाब क्रमवाद तरफथी अत्रे ज अपाई गयो होवाथी तेनो पुनः उल्लेख जरूरी नहीं बन्यो होय.
अण्णायं पासंतो अद्दिष्टुं च अरहा वियाणंतो ।
किं जाणइ ? किं पासइ ? कह सव्वण्णु त्ति वा होइ ? ॥२.१३॥ टि. - जो केवली भगवन्त न जाणेलुं देखे छे अने न जोयेलं जाणे छे, तो तेओ वास्तवमां शुं जाणे छे ? शुं देखे छे ? अने तेओ सर्वज्ञ पण कई रीते बनशे ?
वि. - प्रस्तुत भावने मळती गाथा वि.ण.मां २४६मा क्रमाङ्के जोवा मळे छे.
केवलणाणमणंतं जहेव तह दंसणं पि पण्णत्तं ।
सागारग्गहणाहि य णियमपरित्तं अणागारं ॥२.१४॥
टी. - केवलज्ञान जेम अनन्त छे तेम केवलदर्शनने पण अनन्त जणाववामां आव्युं छे. तथा साकार विशेषोना ग्राहक ज्ञान करतां तो अनाकारसामान्यमात्रने विषय बनावनाएं केवलदर्शन अवश्य परिमित विषय- ग्राहक बने छे. तेथी जो केवलदर्शन केवलज्ञानथी भिन्न होय तो तेमां केवलज्ञानथी तुल्य अनन्तता कई रीते आवे ? माटे बन्नेने अभिन्न गणवां जोइओ.
युगपद्वादी टीकाकार भगवन्त 'णियमऽपरित्तं' अवो पाठ स्वीकारे छे अने अर्थ पण ओवो करे छे के साकार- विशेषोमां रहेलुं जे सामान्य तेना ग्रहणनो नियम होवाने लीधे केवलदर्शन पण अपरिमित बने छे.२८ (अर्थात् तमाम विशेषोमां सामान्य रहेलुं ज होय छे. तेथी सामान्य पण विशेषोनी जेम अनन्त ज थवा. तो ते सामान्य, ग्राहक केवलदर्शन परिमित कई रीते बने ?)
वि. - आ गाथानो युगपद्वादपरक अर्थ करवो त्यारे ज शक्य बने