SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जून - २०१२ ११९ केवलज्ञान-दर्शनमां काल्पनिक भेद अने वास्तविक अभेद मानता हता ओम आग्रहपूर्वक समजावे छे. खबर नहीं केम, पण आq तात्पर्य आ श्लोकदेखाडनारा 'नित्यं पश्यति बुध्यते च युगपद्' आ अंशने नजरअंदाज करता हशे ? जो आ पद्यना रचयिता खरेखर अभेदवादी ज होत तो, तेओ कदी पण ‘पश्यति' अने 'बुध्यते' ओम बे क्रिया न देखाडत. कारण के अभेदवादमां 'जोवू' अने 'जाणवू' जु, छ ज नहि. ज्यारे अहीं तो स्पष्ट कहे छे – “नित्यं युगपत् पश्यति बुध्यते च." तो आ युगपवाद ज छे के बीजुं कई ? 'पश्यति' अने 'बुध्यते' ने 'युगपत्'- ओक साथे कहेनाराने, इच्छीओ के ना इच्छीओ, पण युगपद्वादी ज गणवा पडे, अभेदवादी नहीं. परन्तु दिवाकरजीने युगपद्वादी गणी लीधा पछी प्रश्न तो रहे ज छे के युगपद्वादमां केवलज्ञान अने केवलदर्शन वच्चे वास्तविक भेद छे, काल्पनिक नहीं. ज्यारे अहीं तो 'कल्पितभेदं केवलम्' आq कां छे. आम केम ? वास्तवमां श्रीसिद्धसेनाचार्यना मन्तव्य- खरं हार्द अहीं ज प्रगट थाय छे. पण ते समजवा माटे आपणे ओ वातने ध्यान पर लेवी पडशे के युगपद्वाद श्रीसिद्धसेनाचार्यना काळथी घणा पहेला ज प्रस्थापित थई चुक्यो हतो. वाचक उमास्वातिजी जे सहजताथी ओक ज वाक्यमां युगपद्वाद मुजबनी उपयोग-व्यवस्था वर्णवे छे२२, ते जोतां युगपद्वाद त्यारे व्यापक प्रचार-प्रसारमां हशे ते सहज समजी शकाय छे. हवे ओ काल के ज्यारे मनुष्यनी तत्त्वजिज्ञासा अत्यन्त प्रदीप्त थई उठी हती, प्रमेय अने तेना रहस्यनी खोज पूरजोशमां चालु हती, दार्शनिक विचारधाराओनी आपसी मूठभेड प्रबल बनी हती, फक्त शास्त्रवाक्योना सहारे थती विचारणानुं स्थान तर्क अने बुद्धिनी कसोटीओ लेवा मांड्युं हतुं अने ओ रीते दर्शनोनुं तथा अनी मान्यताओनुं निश्चित माळखं घडातुं आवतुं हतुं त्यारे; क्रमवादनी तार्किक परिष्कृत विचारणाओ जेम युगपवाद जन्माव्यो, तेम स्वयं युगपद्वाद पण कोईने परिष्करणीय लागे तेम थर्बु अनिवार्य हतुं. युगपद्वादना उद्भव पछी सैकाओ वीत्ये जन्मली अने ओ सैकाओमां विकसेला तत्त्वज्ञानने पचावी चूकेली श्रीसिद्धसेनाचार्य जेवी मूलगामी दृष्टि धरावती तार्किक प्रतिभाने ओने संमार्जित-विकसित-सम्पूर्ण करवानुं मन न थाय तो ज नवाई !
SR No.520560
Book TitleAnusandhan 2012 07 SrNo 59
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2012
Total Pages161
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy