________________ अनुसन्धान-५९ पण तेथी पण्डित साधुरत्न ज आ प्रतिना लेखक छे ओम मानी शकाय नहीं. केम के - 1. जो तेओओ ज आ प्रत लखी होत तो प्रतना अन्ते पुष्पिकामां पोतानुं नाम लखत, मध्यमां नहीं. 2. जो बधां प्रकरणो तेमणे ज लख्यां होत तो तमाम प्रकरणो माटे 'लिखिताः' कहेत, 'अग्नि०..... लिखितः' नहीं. 3. प्रकरणोमां लेखनक्षति जे हदे जोवा मळे छे ते जणावे छे के आ प्रत कोई प्राथमिक अभ्यासी के असंस्कृतज्ञ लहियाना हाथे लखाई छे. पण्डित पदवी प्राप्त विद्वान्न लेखनकर्म आटलुं क्षतिग्रस्त न होय. 4. 'अष्टधाऽनुपलब्धिः 'ओ प्रकरण प्रतमां मध्यभागे अने अन्तभागे अम बे वार लखायुं छे के जे लेखकनी विषयगत अनभिज्ञतानुं सूचक छे. माटे लेखके अग्नि० प्रकरण जे प्रतमांथी ऊतायुं हशे, ते प्रतमांथी आ पुष्पिका पण यथावत् ऊतारी हशे ओम लागे छे. जो के लेखक जे होय ते, पण आ प्रकरणो आपणा सुधी पहोंचाडवामां तेमनो अनहद उपकार छे ज. प्रतिगत सामग्रीमाथी बधुं ज अत्रे मुद्रित नथी कर्यु. मेरुतुङ्गसूरिरचित 'षड्दर्शननिर्णय' अनेक स्थळे मुद्रित थयेलो छे. 'चार्वाकोऽध्यक्ष०' ओ श्लोक पण अतिप्रसिद्ध छे. तथा 'अष्टधाऽनुपलब्धि' पण ईश्वरचन्द्ररचित साङ्ख्यकारिका ‘अतिदूरात् सामीप्यात्' नो अर्थमात्र छे. तेथी आ बधुं अत्रे सम्पादित नथी कर्यु. आ सिवायनां प्रकरणो, खास करीने वज्रशूचीप्रकरण (-अश्वघोष) पण अन्यत्र मुद्रित होय तेवी सम्भावना छे ज. परन्तु निर्णयना अभावमां अत्रे मुद्रित करवा उचित धार्यां छे. तेमां पण वाचकोनी सहुलियत खातर प्रकरणोना क्रममां पण थोडोक फेरफार कर्यो छे. कृतिओने शुद्ध करवा यथामति प्रयत्न कर्यो छे. [ ] के ( )मां पाठ आपवानी पद्धति अशुद्धिबाहुल्यने लीधे प्रायः नथी अपनावी. अन्य प्रतोना आधारे हजु वधारे शुद्धीकरण शक्य छे. पूर्वे जणाव्युं तेम सर्वज्ञसिद्धिप्रकरण (द्वितीय) आ प्रतिमां त्रुटित स्वरूपे हतुं. तेनी पूर्ति जैन आत्मानन्द सभा-भावनगर-प्रत नं. 897 - 'सर्वज्ञव्यवस्थापन'ना आधारे शक्य बनी छे. वज्रशूचीप्रकरण पण प्रस्तुत प्रतमां अशुद्ध हतुं, तेनी शुद्धि कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर-कोबा-प्रत नं. २११६१ना आधारे थई शकी छे. जो के आ प्रत पण अशुद्ध तो घणी ज छे, छतांय