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जून २०१२
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श्री मल्लवादीजी व आचार्यो केवलज्ञान- दर्शनने पृथक् धर्मो गणवा छतां बन्नेने सहवर्ती- युगवत् वर्तनारा गणे छे. तेओनो मत 'युगपद्वाद' तरीके ओळखाय छे.
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आनी सामे 'अभेदवादी' आचार्यो बन्नेने सर्वथा अभिन्न गणे छे. सिद्धसेन दिवाकरजी आ मतना स्थापक गणाय छे.
आ त्रणे वादोनी चर्चाने लगतुं विपुल साहित्य अत्यारे उपलब्ध छे.३ तेमांथी क्रमवादना पोषक विशेष - णवति ( - श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण) ग्रन्थना आधारे आपणे अभेदवाद - क्रमवाद अने युगपद्वाद - क्रमवादनी चर्चा जोइशुं. अभेदवाद - क्रमवादनी चर्चा
अभेदवादी ज्ञानावरण कर्म क्षीण थाय ओटले केवलज्ञान प्रगटे छे अने मति-श्रुत व. अन्य ज्ञानो विराम पामे छे. अर्थात् अन्य कोई पण ज्ञान अवशिष्ट रहेतुं नथी. तो केवलदर्शन पण कई रीते होय ? (वि.ण. १८६)
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क्रमवादी अन्य ज्ञानो देशविषयक - सीमित विषयक्षेत्र धरावारां होय छे, माटे सकलविषयक केवलज्ञान प्रगट थाय भेटले ते विराम पामी जाय छे; परन्तु अ ज रीते देशविषयक दर्शनो पण नाश पामी जाय त्यारे सकलविषयक केवलदर्शन केम प्रगट न थाय ? (वि.ण. १८७)
अ. - केवलदर्शन केवलज्ञाननी अपेक्षाओ अत्यन्त परिमित विषयक्षेत्र धरावे छे. तो केवलज्ञान प्रगट थाय ओटले मति व. ज्ञानोनी जेम केवलदर्शन पण नाश न पामे ? (वि.ण. १८९).
क्र. केवलदर्शननुं विषयक्षेत्र केवलज्ञाननी अपेक्षाओ परिमित छे अवुं को कह्युं ? केवली भगवन्त जेम केवलज्ञानना बले सर्व ज्ञेय पदार्थोने जाणे छे, तेम केवलदर्शनना बले सर्व द्रष्टव्य पदार्थोने जुअ ज छे. वास्तवमां शेष असम्पूर्ण ज्ञानोनो सर्वथा अभाव छे ओम तमे कहो छो, खरेखर अवुं होतुं नथी. मति, श्रुत व. तमाम ज्ञानो केवली भगवन्तने होय ज छे, फक्त तेमनो वपराश नथी होतो. सूर्यना प्रकाशमां जोवा माटे दीवानी शी जरूर ? (वि.ण. १९०-१९२) माटे मति- श्रुतना दृष्टान्तथी केवलदर्शननुं निराकरण करी शकाय नहीं.