Book Title: Anusandhan 1998 00 SrNo 12
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसूत्त, ५२९) 'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे' || प्राकृतभाषा अने जैन साहित्य विषयक संपादन,संशोधन,माहिती वगैरेनी पत्रिका १२ संकलनकार : आचार्य विजयशीलचन्द्रसूरि हरिवल्लभ भायाणी Inte r n ..... .. " Maiwoooooo શ્રી હેમચંદ્ગાચાર્ય कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृतिसंस्कार शिक्षणनिधि अहमदाबाद १९९८ Gamereation interne jaineHerery.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त , ५२९) 'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे' अनुसंधान प्राकृतभाषा अने जैन साहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका सेंपादळे : विजयशीलचन्द्रसूरि हरिवल्लभ भायाणी KM શ્રી હેમચંદ્રાચાર્ય कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि अहमदावाद १९९८ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान १२ संपर्क : हरिवल्लभ भायाणी २५/२, विमानगर, सेटेलाईट रोड, अहमदावाद - ३८० ०१५. प्रकाशक : कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदावाद , १९९७ किंमत : रू. ३५-०० प्राप्तिस्थान : सरस्वती पुस्तक भंडार ११२, हाथीखाना, रतनपोल, अहमदावाद - ३८० ००१. मुद्रक : राकेश टाइपो-डुप्लिकेटींग व राकेशभाई हर्षदभाई शाह २७२, सेलर, बी.जी. टावर्स, दिल्ली दरवाजा बहार, अहमदावाद - ३८० ००४. (फोन : ४६८९०९) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय निवेदन केटलाक सामयिको माटे एवं बने छे के तेना संपादके ज तेना लेखक पण बनवुं पडे छे. "अनुसंधान" पण आ परिस्थितिनो केटलेक अंशे अनुभव करे ज छे. अलबत्त, आ प्रकारना सामयिकमां स्वतंत्र सर्जनात्मक कही शकाय तेवी सामग्री करतां संशोधनात्मक के अन्वेषणात्मक सामग्रीनुं प्रमाण वधु होय, एटले संपादक ए अर्थमां पण संपादक ज रहे छे, ते मोटुं आश्वासन गणाय. "अनुसंधान" माटे प्रेमपूर्वक पोतानां संपादनो, संशोधनो के अन्वेषण-नोंधो पाठवनार मित्रोनुं एक बाबते आदरपूर्वक ध्यान दोरीशुं के तेओ जे पण सामग्री पाठवे ते सुवाच्य अक्षरोमां अने नागरी (बालबोध) लिपिमां ज लखीने पाठवे, तो कंपोज करनार पर तथा प्रूफरीडर पर तेमनो मोटो अनुग्रह थशे. - संपादको Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १-४८ ४९-७० ७१-८० ८१-८९ 3 ९०-९२ अनुक्रम १. मातृकाप्रकरण : एक महत्त्वपूर्ण विजयशीलचन्द्रसूरि अभ्यसनीय कृति हरिवल्लभ भायाणी २. ज्ञानधर्मकृत दामनककुलपुत्रक-रास कल्पना के. शेठ ३. "सप्तदलं लेखकमलम्" । विजयशीलचन्द्रसूरि एक संस्कृत पत्र ४. श्रीसहजकीर्ति उपाध्याय रचित प्रद्युम्नसूरि श्रीपार्श्वनाथ-महादंडक स्तुति ॥ एक पत्र मुनि भुवनचन्द्र Some Notes on the Bauddha H. C. Bhayani Sahajayāni Siddha-Nātha Tradition 1. Saraha's मातृका-प्रथमाक्षर दोहक in Apabhramsa 2. Were śānti and Bhusaka the same or different ? 3. One more instance of the Jhambadaka Song in Apabrāmśa 4. On the Names of Some Siddha-Nāthas ७. सांकळियु : "अनुसंधान" - १ थी साध्वी श्री १२ अंकोर्नु चारुशीलाश्रीजी ९३-१०४ ९३-९६ ९७-९९ १००-१०१ १०२-१०४ १०५-१३४ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मातृकाप्रकरण : एक महत्त्वपूर्ण अभ्यसनीय कृति - सं. विजयशीलचन्द्रसूरि / हरिवल्लभ भायाणी 'मातृकाप्रकरण' ए संस्कृत तेमज प्राकृत भाषाओने लगती, मुख्यत्वे वर्णाम्नायने विषय बनावीने चालती, व्याकरणविषयक एक विलक्षण रचना छे. संस्कृत व्याकरणोमां वर्णसमाम्नाय (स्वरो तथा व्यंजनो)ना निरूपण-प्रसंगे एम कहेवामां आवतुं होय छे के "बाकीनो आम्नाय लोकात्-लोकसम्प्रदाय थकी जाणी लेवो.” संभवतः आ लोक-सम्प्रदायने शब्दबद्ध करवानो अहीं मजानो प्रयास थयो छे, जे अद्वितीय छे. कर्ताए श्लोकात्मक सूत्रोनी पद्धति अपनावी छे. श्लोकसूत्र अने तेनुं उदाहरण - आ सामान्य क्रम रह्यो छे. प्रशस्ति-सहित आवां कुल ३२२ सूत्रो छे, जेमां १ थी २०८ सूत्रो संस्कृत व्याकरण माटे छे. एमां छंदो, आस्यप्रयत्नो, जोडाक्षरोनी प्रक्रिया वगेरे विविध विषयोनो भारे ऊंडाणपूर्वक विचार थयो छे. रजूआत एटली बधी प्रगल्भ परंतु मार्मिक के गूढ शैलीमां थई छे के सादी वातो पण कांईक रहस्यमढ्यो परिवेष धारण करती जणाय छे. वर्णोनी संख्या (१९९) वर्णवतां कर्ता जैन-परंपरानुसारी द्रव्य-पर्यायनी अने जघन्य-उत्कृष्टनी शास्त्रीय प्रक्रियाने (२०१) लई आव्या छे, जे खरेखर अद्भुत छे अने कर्तानी विलक्षण प्रतिभा द्योतन करनार छे. २१० थी २२४ प्राकृत (सामान्य) अने शौरसेनी भाषा माटे, २२६-२३१ मागधी माटे, २३२-२३५ पैशाची माटे, २३६-२३९ चूलापैशाची माटे, २४०-२४९ अपभ्रंश माटे छे. २४९मा सूत्रमा गणावेली छ भाषा आ प्रमाणे छे : प्रकृति (संस्कृत), प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, पैशाची, अपभ्रंश ; अंतमां तेने षडंगी वाक् गणावी तेने (तेनी लिपिने ?) हंसलिवि(पि) तरीके कर्ताए ओळखावी छे, जे संशोधको माटे विचारोत्तेजक बनी शके. जे ते भाषाना नियमो तथा उदाहरणो आपवा उपरांत कर्ताए दरेकमां सर्वोदाहरणो आप्यां छे, जे खास नोंधवायोग्य बाबत छे : सूत्र ४१, २११, २२०, २२७, २३७, २४३ इत्यादि द्रष्टव्य छे. वर्णाम्नाय अने तेनी खास विशेषताओ समजाववा माटे कर्ताए लोकोक्तिओ तथा उपमात्मक उदाहरणोनो एवो मार्मिक विनियोग को छे के जे कर्तानी कल्पना Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 तथा तर्कनी शक्ति माटे दाद आपवा प्रेरे. दा.त. - लघुर्यदि पुरः कृत्वा व्यञ्जनो गुरुतां गतः । फलवान् वीतरागेऽपि विनयः प्राग् भवैषिणाम् ॥ (सू. ३१) अनन्यत्रोदितैदादेः सवर्णत्वप्रयोजनम् । लोकः क्वापि गतो मित्रं स्वपदे प्रेरयत्यपि ॥ (सू. ४४) अकृत्वा गर्विताकारं परेभ्यो वृद्धिदायिनाम् । महतामङ्ग संसारे रीतिरस्ति 'र'कारवत् ॥ (सू. ५२) दिवसाद् बत मासस्य यथा नैकान्तमेकता । अनुदात्तादुदात्तस्य तथा नैकान्तमेकता ॥ (सू. २०३) इत्यादि । संस्कृतथी लईने चूलापैशाचिका सुधीना तमाम भाषा-प्रकारोने कर्ता 'सरस्वतीधर्म' तरीके ओळखावे छे, जे दरेक प्रकरणने प्रांते लखेल इतिवचनमां जोई शकाय छे. वर्णाम्नायनिरूपण तथा भाषानिरूपणनो प्रथम विभाग पत्या बाद बीजा विभागमां कर्ता 'विद्या'-निरूपण करे छे, जेमा क्रमशः भौतीय, याक्षीय, नाक्षत्रीय अने मूलदेवीय विद्याओ वर्णववामां आवी छे. एवं समजाय छे के कर्ताने ते ते विद्यारूपे ते ते लिपि अभिप्रेत छे : दा.त. भूतलिपि (भौतीय, सू. २५०); अर्थात् ते ते लिपिमां केवो वर्णसमाम्नाय छे तेनुं तेओ निरूपण करी रह्या जणाय छे. यक्षलिपिमां बीजमंत्राक्षरोनो वर्णाम्नाय स्फुट थाय छे, अने ते ते मंत्राक्षरना देवता के अधिष्ठाता पण दर्शाव्या छे. 'नाक्षत्रीय'ने तेमणे उडुलिपि गणावी छे (सू. २८३). प्रांते १८ लिपिनामो अने ब्राह्मीलिपिनुं बयान कर्या बाद कर्ता बहु ज महत्त्वपूर्ण मुद्दो कहे छे के -- "बधुं ज सुकर बने, जो अभ्यास होय अने आम्नाय (नुं ज्ञान) होय तो. बाकी (न आवडतुं होय तो पण पोतानी जात प्रत्येना) अहोभाव-मात्रथी ज उद्भवती वक्रता अने जडतानो अमारे खप नथी." त्रीजा विभागमां कर्ता 'मीमांसा'-विचारणा रजू करे छे. जो के तेना पण Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 केन्द्रमां तो वर्णाम्नाय ज छे, एटले एम कही शकाय के तर्क अने दर्शन शास्त्रनी दृष्टिकर्ता वर्णाम्नाय विशे मीमांसा करे छे, अने तेमां ज समस्याओनी, द्रव्यक्षेत्रादि भेदे शब्दार्थ - भेदनी, अनेकान्तनी, चार निक्षेपनी वगेरेनी वातो तार्किक शैलीमां निरूपे छे. एकंदरे, समग्र मातृकाप्रकरण अवलोकतां एवी प्राथमिक छाप पडे छे के आ ग्रंथ एक तरफथी तो व्याकरणविदोनो विषय बनी शके, तो बीजी तरफथी ते मन्त्रविदोनो पण विषय बनी ज शके. एटले आना अध्ययन माटे भाषाविज्ञाननी साथे साथे मंत्रविज्ञाननुं पण ज्ञान होय तो आ प्रकरणना हार्दनी वधु नजदीक पहोंची शकाय, तेम लागे छे. आ प्रकरणना कर्ता छे नागपुरीय बृहत्तपागच्छ- अपरनाम पार्श्वचन्द्रगच्छना आदिपुरुष गच्छपति आचार्यश्री पार्श्वचन्द्रसूरिजीना शिष्य वाचक रामचन्द्रगणीना शिष्य वाचक अक्षयचन्द्र गणी. संभवत: विक्रमना १६मा शतकमां के १७मा शतकना पूर्वभागमां थयेला आ ग्रंथकार विशद प्रतिभासम्पन्न होवा जोईए, अने तर्क-व्याकरण-साहित्य - मंत्रशास्त्र - जिनागम - षट्दर्शन इत्यादि अनेक अनेक विद्याशाखाओमां तेमनी अप्रतिहत गति होवी जोईए, एवं आ प्रकरणमांथी पसार थनारने प्रतीत थया विना नहि रहे. पोताना गुरुने याद करवा उपरांत, पोताना अन्य उपकारी बे गुरुजनो - श्री यशश्चन्द्र तथा श्री रत्नचन्द्र गुरुने पण तेमणे प्रांते संभार्या छे. कर्ता चोक्कसपणे आमांथी कोना शिष्य हशे ते तो तेमनी पट्टावली जोवाथी ज समजी शकाय. आ प्रकरण पर वर्षो पूर्वे डॉ. हरिवल्लभ भायाणीए काम करेलुं. तेमणे आनी नकल पण स्वयं करेली, आनो अंग्रेजी अनुवाद पण लखवा लीधेलो, अने भारतीय विद्या भवन के तेवी कोई संस्थाना आश्रये तेनुं प्रकाशन पण करवा लीधेलुं. परंतु ते काम अधूरुं ज वर्षो सुधी पड्युं रह्युं, अने पार पाडवानुं तेमनुं स्वप्न, पोतानां अन्यान्य गंजावर रोकाणोमां अटवायुं. थोडा वखत पूर्वे तेमणे मातृकाप्रकरण अंगेनी आ बधी सामग्री भरेली पोतानी जूनी फाइल मारा हाथमां सोंपी, कह्युं के तमे आ तैयार करो. में पहेली वखत आ प्रकरण जोयुं तथा तेना विशे सांभळ्युं व्याकरण Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयक कृति होई मने रस पड्यो. फाइल तो जोई, पण में नक्की कर्यु के ग्रंथना प्रत्येक अक्षरमांथी पसार थवाय तो ज मजा पडे. एटले फाइल बाजुए मूकीने, तेनी में वडोदरा-संग्रहमांथी मेळवेली प्रतित परथी पूरी नकल करी, जे अत्रे प्रस्तुत छे. बीजी बे-त्रण प्रतिओ हती, परंतु बधी १९मा शतकनी ज, कोई एक मूळ प्रतिना आधारे ज लखायेली प्रतिओ होई पाठांतरोनो यत्न कर्यो नथी. आ प्रकरणनी जनी प्रति क्यांयथी सांपडी नथी. क्यांक पार्श्वचन्द्रगच्छना भंडारोमां पडी पण होय. तो त्यां सुधीनी पहोंच नथी. प्रतीक्षा करवी रहे. अलबत्त, नकल करवामां ज्यां क्यांक जरूर पडी त्यां डॉ. भायाणीनी प्रतिलिपिन उपजीवन अवश्य कर्यु छे, तो क्यांक सारा सुधारा पण लाघ्या छे. जे प्रतिनो उपयोग थयो छे तेनी पुष्पिका ते स्थळे मूकीज छे. आ प्रकरण, उपर जणाव्युं तेम भाषा तथा मंत्र - ए उभय विज्ञाननी दृष्टिए अभ्यसनीय छे. घणो भाग तो मने पण समजायो नथी तेम लागे छे. कोई तज्ज्ञ विद्वान आवी महत्त्वपूर्ण कृतिनो 'अभ्यास' आपे तेवी कामना. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 वाचक अक्षयचन्द्रगणि कृतं मातृकाप्रकरमम् ॥ नमः पावय ॥ बुद्ध्यर्थोऽयमभियोगः । प्रभुपादप्रसादावाप्तेः ॥१॥ स जयति भगवान् पार्श्वः, उपान्तिमजिन: । सर्वोत्कर्षेण वर्तते प्रवचनेऽपि पुरुषैरादानीयत्वात् तस्य ||२|| अपि चेदं किल सरस्वत्याः स्वरूपं, वक्ष्यमाणं तत्तं (त्त्वं) वाग्देवताया वेदितव्यम् ॥३॥ । श्रेयोर्थसार्थ - - हः समुच्चै विश्वेऽपि वर्णा निरगुर्यतोऽमी । स्वाभाविकोष्णीषविराजमानं ज्ञानाय जैनं वदनस्वरूपम् ॥ - - तत् इति ॥४॥ पदावलीकोशमुशन्ति यद् वै तत् पुस्तकं स्ताद् गुणवृद्धिसिद्ध्यै ॥ ॥ इति ॥५॥ शास्त्रावतारेऽध्ययनादिसीमा रेखाद्वयं तद् दिशताद् विवेकम् ॥ यथा ॥ इति ||६|| दोषा न सन्ति त्वयि, देव! तुभ्यं, विश्वों नमः सिद्धमुपास्महे त्वाम् । स्वामिन्! स्वरत्वा भ्युदितोऽसि स त्वं, त्वं व्यंजनात्माऽसि पराश्रितोऽसि ॥ अत एवेत्थंकारं पदमात्रमपि स्वामिन् ! नास्त्यत्र भुवनत्रये । अर्थयुक्तिविचारेण यद् भवन्तं न धावते ॥ इति ॥७॥ पश्यत भोः ! पुण्यचित्ताः सभासदः !, पश्यन्तु भो भवन्तो विद्वद्वृन्दारविन्दमकरन्दरूपा: !, इह हि स्याच्छब्दशोधितं शुंभ-त्यकारादिश्रुताक्षरम् । अनन्ताणुमयस्कन्ध--समुत्थं योग्यतापथे ॥८॥ अपि च साध्विदमुच्यते अ आ इ ई मता देवि ! सरस्वति Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (O उ ऊ ऋ ऋ ल लू ए ए (ऐ) च ओ औ च । कः ख-गौ घ-ङ मित्यपि । च-छौ ज-झ-अमीहित्वा , ट-ठौ ड-ढ-णमीहसे ॥ त-थौ द-ध-नमूहित्वा प-फौ ब-भ-ममूहसे । मातर्य-र-ल-वाः ख्याता-स्त्वया श-ष-स-हाः क्रमात् ।। अं अः कंठ्याः प्लुतश्चेति, त्वदीहा विश्ववेशिनी ।।९।। किं च - लिपिमन्तः परे चेति वर्णा निगदिता द्विधा । अ आ इ ई उ ऊ इत्यादि १। बहुवचनं प्लुतबहुत्वार्थम् २। १०॥ स्वपराश्रयतः प्रोक्ता द्वेधा लिपिमतां गतिः ॥ अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ । क ख ग घ ङ, च छ ज झ ञ, ट ठ ड ढ ण, त थ द ध न, प फ ब भ म य र ल व श ष स ह १। अं अः)( कंठ्य २। ११।। स्वर-व्यञ्जनतो द्वैधं स्वाश्रिताः पर्युपासते ।। अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ १। कखगघङ, चछजझञ, टठडढण, तथदधन, पफबभम, यरलव, शषस, ह, २।१२।। समान-सन्ध्यक्षरतः स्वरभेदद्वयी भवेत् ॥१३।। तत्र - अ-आ, इ-ई, उ-ऊ चैव, ऋ- ऋ , लु-लु इति स्फुटम् । द्वाभ्यां द्वाभ्यां समानानां, प्रणीताः पञ्च जातयः ॥१४॥ ए-ऐ, ओ-औ, चतस्रोऽमूः, स्युः सन्ध्यक्षरजातयः ॥१५|| मात्रात्वेन भवन्तोऽमी, व्यञ्जनानां वरीयसाम् । विराजन्ते यथायोग-मलङ्कारा नृणामिव ॥ १. के Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क का कि की कु कू कृ कॄ क्लृ क्लू के कै को कौ कं कः इत्यपि स्वाश्रितत्वात् ॥१६॥ ॥ १९ ॥ 7 औपर्यन्ता इकाराद्या नामित्वे विदिताः स्वराः ॥ इ ई उ ऊ ऋ ऋ लृ लृ ए ऐ ओ औ ॥१७॥ स्थान- स्वरूप नमना - न्नामिनो भयथा ( ? ) मता ( : ) ॥ १८ ॥ इदादेः प्रथमैव स्यात्, कि [ कि की। की, कु कु कू कू कृ कृ कृ कृ क्लृ क्लृ क्लृ क्लू एकारप्रभृतेः परा ॥ के के कै कै को[को] कौ कौ ॥२०॥ वर्ग्यावर्ण्यविमर्शेन द्वेधा व्यञ्जनसंमतिः ॥ कखगघङ, चछजझञ, टठडढण, तथदधन, पफबभम १| यरलव, शषस, ह २ ॥२१॥ पञ्चभिः पञ्चभिः पञ्च वर्गाः कु-चु-टव स्तु-पू ॥२२॥ कौ क-खौ ग घ डा श्वोक्ताः, २३॥, चौ च - छौ ज झ ञस्तथा ||२४|| टौ ट-ठौ ड-ढ-णाश्चाप्ताः, २५॥, तौ त - थौ द-धनाः पुनः ॥२६॥ पौ प - फौ ब-भ- माश्चैव प्राज्ञपुङ्गवशिष्टितः ||२७|| अवर्ग्या द्विप्रभेदाः स्यु - रन्तस्थोष्मविचारतः ॥२८॥ चतुर्द्धा ते य-र-ल-वैः प्राञ्चः २९, श-ष- स-हैः परे ॥३०॥ व्यञ्जनस्याऽन्तलभ्यत्वात् स्वाश्रितत्वं विशिष्यते । अनारुह्य समीपोऽपि मा ( अ ? ) श्ववार इतीर्यताम् ॥ स्वरगौरवहेतुत्वान्नेदं दीनदरिद्रवत् । विभाव-पर्यय-स्फूर्तिं छायावदभितः श्रयत् ॥ अत एवेत्थंकारं - लघुर्यदि पुरः कृत्वा, व्यञ्जन (नो ? ) गुरुतां गतः । फलवान् वीतरागेऽपि विनयः प्रा[[ ? ] भवैषिणाम् ||३१|| अं अः क्रमानुस्वार-विसर्गौ ) ( कंठ्य एव तु । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिह्वामूल उपध्मेति चत्वारोऽपि पराश्रिताः ||३२|| शिरोबिन्दु - पुरोबिन्दू वज्रवद् गजकुम्भवत् । वर्णाकारविदः प्राहु-रमीषामाकृतिक्रमम् ॥ अनुस्वारादिकादीनां योऽधिकः कोऽपि कल्प्यते । उच्चारश्च सुखोच्चार-स्तदधीनस्ततः स इत् [३३ ?] ज्यायस्त्वाद-क-पा एव प्रयुक्तास्तत्र तात्त्विकैः । लोकानुग्रहलोपः स्याद् बहुत्वे भेददर्शनात् ।। व्यवहाराः प्रवर्तन्ते शलभीयगतिर्यथा । पंचमत्वादिनोदादि-रिति वर्गादिदेशकः ||३४|| अनुस्वारो विसर्गश्च पृष्ठतः स्वरमिच्छतः । जिह्वामूलमुपध्मा च स्वरं व्यञ्जनमन्तरा ॥ क- खावेव श्रये जिह्वा - मूलीयः पुरतो गमौ । उपध्मानीयनामा तु प-फा वेवेयमौचिती ॥३५॥ अनुस्वारस्य तद्वन्तमुपध्मानीयमूष्मसु । रेफे च सति मन्यन्ते च्छान्दसाः स्वैरिबुद्धयः ॥ यतस्ते 8 ― अलाबुवीणनिर्घोषो दन्तमूल्यस्वरानुगः । अनुस्वारस्तु कर्तव्यो नित्यं होः शषसेषु च ॥ गणपति ७ हवामहे । ब्राह्मणानां ७ राजा । अ ७ शुनाति । सुची ७ षत् । त्व ७ सोमः ॥३६॥ ननु त्रिषष्टिश्चतुःषष्टिर्वा वर्णाः संभवतो मताः | प्राकृते संस्कृते वापि स्वयं प्रोक्ताः स्वयम्भुवा ॥ स्वरा विंशतिरेकश्च, अ आ आ इ ई ई उ ऊ ऊ ऋ ॠ ऋ लृ लृ लृ ए ऐ ऐ ओ औ औ ॥ स्पर्शानां पञ्चविंशतिः । यादयश्च स्मृता ह्यष्टौ चत्वारस्तु यमाः स्मृताः || Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुं खुं गुं घुं ॥ अनुस्वारो विसर्गश्च ) ( कप चापि पराश्रयौ दुःस्पृष्टश्चेति विज्ञेय लृकारः प्लुत एव च ॥ तदेतदल्पीयः । कथं चतुःषष्टिरिति भवतामपि ॥ व्यञ्जनानि त्रयस्त्रिंशत् स्वराणां सप्तविंशतिः । नवानां त्रित्वात् ॥ चत्वारोऽयोगवाहाश्च वर्णसंख्या प्रकीर्तिता ||३७|| 9 अत इदम् - वादे गुम्फे च लिखने वर्तते यस्य नौचिती । गृहकोणगतप्रायं प्रतीतं वैदिकं मतम् ॥३८॥ अथ नं पाही त्याद्यपि ॥ नृनित्यतः पे सति यः सकारः, सूते विसर्गं स च सौत्युपध्मां । द्वय्यप्यसौ काप्यपवादभूता-नुस्वारमेव स्वरवद् विवेद ॥ यस्माद् बहवः चतुर्णामपि सूत्राणा - मितिशब्दः पुनः पुनः । स्वरत्वं व्यञ्जनत्वं च स्वसंज्ञत्वमपीष्यते ॥३९॥ - क्रियामात्रत्वमादृत्य स्वरणं व्यक्तिराश्रयः । त्रितयं नैकवर्त्येव न यो (मो) दाय विपश्चिताम् ||४०|| सर्वोदाहरणस्य व्यूढा ज्ञानोष्म-झंझा भुवनतरुफलं कर्म - कक्षाऽग्निरर्हन् बुद्धयुत्था वाङ्मयाब्धिर्विटपितकरुण ) ( खण्डिताशेषशाठ्यः । स्वच्छः श्लाघैकमूर्ति — प्रकृतिपरतरैश्वर्यपीनः स्फुटयैजा नृदो नृणां स्थितार्चः स भवति भगवान् क्लृप्तसर्वार्थसिद्धिः ॥४१॥ असवर्णतयोच्यन्त- - ऊष्म- रेफ-पराश्रिताः ॥ रश ष स अं अः ) ( क ॥४२॥ तुल्यस्थानास्य-यत्नाभ्यां सवर्णः शेषसंग्रहः ॥ ४३ ॥ अनन्यत्रोदितैदादेः सवर्णत्वप्रयोजनम् । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 लोक: क्वापि गतो मित्रं स्वपदे प्रेरयत्यपि ।। सन्धिभागविपर्यासान्न लिपिस्तस्य साधनम् । इवर्णादाववर्णाद्वा विधिर्मोघस्तु भेदतः ॥ एकारस्य न कंठ्यत्वं नापि तालव्यतैषयत् । कंठ-तालव्यतायुक्ते-विजातिर्नरसिंहवत् ॥ अ-कादेर्न कथं स्वत्वं स्थानतो यदि केवलात् । वक्त्रप्रयत्नादिति चे-ददिदादेः कथं न तत् ? ।। संमत्यैव शकारादेः प्रकारोऽयं निवारितः ।। यतस्तावदुदासीनो न स्वदेहेऽपि मूर्च्छति ॥४४॥ अथवा साध्विदमुच्यते - अदेकार-क-यादीनां सावर्ण्य-निगद-क्रमः । जात्योच्चरितसर्गेण वर्गेण स्वयमेव च ॥ अ आ । आ आ । अ अ । आ अ ॥ यस्मादाहुः - क्रमोत्क्रमस्वरूपेण लघूनां लघुभिः सह । गुरूणां गुरुभिः सार्धं लघूनां गुरुभिः सह ।। गुरूणां लघुभिः सार्धं चतुर्धति सवर्णता । एवं - इ ई । उ ऊ । ऋऋ । ल ल । इति जातेः ।। ए ऐ । ओ औ । उच्चरितेन ।। क क । क ख । क ग । कघ । क ङ। ख क ।ख ख । ख ग । ख घ । ख ङ। ग क । ग ख । ग ग ग घ । ग ङ।घकाघख । घग। घ घ । घ ङ। ङ क । ङ ख । ङ ग। ङ घ ङ ङ ।। च च । च छ। च ज । च झ । चञ । इत्येवं मकारान्ताः । वर्गेण ३। य य । ल ल । व व । स्वयम् ४ ॥४५।। हुवजितव्यञ्जनमाश्रयन्ती द्विताऽस्ति तत्त्वादुपचारतश्च । हस्य द्वयी तूच्चरितुं न शक्या र-योर्दुरुच्चारणमेव दोषः ।। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्क क्ख ग्ग ग्घ ड्ङ । च्च च्छ ज्ज ज्झ ञ्ञ । दृट्ठ ड्ड ड्ढ ण्ण । त्त त्थ द्द द्ध न्न । प्प प्फ ब्ब ब्भ म्म । य्य । र । ल्ल । व्व । श्श । ष्ष । स्स । ह । ४६ ॥ ॥५१॥ 11 परमार्थद्विता सैव या विकुर्वितमूर्तिवत् । अर्क-मूर्खा-र्गला-ग्र्घाश्च क्रुङ्ङ दोर्च्चनमूर्च्छनम् । ऊर्जो झर्झति गीर्ज्जत्वं पट्ट्यो मट्ट्ययनड्डययाः || धुर्द्धढी पर्ण वार्त्तार्थ-मर्द्द-गर्द्धा-महन्नयम् । अर्पणं गीर्फलं चैव शबरी गभितोर्म्मयः ॥ मर्य्यादा दुर्लयौ सर्व्वः पाश्र्वं वर्ष्म चमस्स्यसौ ||४७|| अपरा तूपचारेण सदृशाकारबन्धुवत् । दृक्कला वाक्खरः प्राग्गी-र्वाग्घरिः प्राङ्ङ कारता । तच्चरं तच्छलं तज्जं तज्झर - स्तञ्ञताऽट्टनम् । विट्ठलधुडतड्डारौ षण्णां तत्तोत्थ - तद्दया ॥ तद्धी - तन्नीक कुप्पोषा - प्फला-ब्बल - ककुब्भराः । अम्मयाय्यय-तल्लक्ष्मी-संव्वत्सरवयश्शया ॥ कष्षाडव-यशस्साधु-इत्येवं द्वित्वदर्शनम् ॥४८॥ प्रथमैः स्याद् द्वितीयानां द्वितासिद्धिः प्रसिद्धितः ॥ क्ख, च्छ, टु, त्थ, प्फ १४९॥ तृतीयैस्तु चतुर्थानां ग्घ, ज्झ, ड्ढ, द्ध, ब्भ ॥५०॥ " तैस्तैरपि च कुत्रचित् । ख्ख, छ्छ, ठ्ठ, थ्थ, फ्फ, घ्घ, झ्झ, ढ, ध्ध, भ्भ । अल्पतरप्रयोगत्वात् अकृत्वा गर्विताकारं परेभ्यो वृद्धिदायिनाम् । महतामङ्ग संसारे रीतिरस्ति रकारवत् ॥ णादीनां द्वित्वहेतुत्वाद् हकारोऽप्येवमस्ति चेत् । अल्पत्वादप्रसिद्धत्वात् तत्प्रयोगस्य नाऽऽदरः ॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 पररक्षापटू रेफो प्रशिष्टां प्रत्ययार्हताम् । प्राप्तो यदि तदा सत्यं सन्तः सत्त्वदयालवः ॥५२॥ अघोष-ण-न-मा-ऽन्तस्थाः ककारस्य पुरस्सराः । क्क क्ख । क्च क्छ । क्ट क्ठ । क्ण । क्त । क्थ । क्न । क्प क्फ क्म । क्य क्र । क्लक्क । क्श क्ष क्स ।। सिक्करो दिक्खरो वाक्च दिक्छी वाक्टी किं ककृताः (?) । वृक्णा क्त सक्थि शक्नोति दिक्पालाक्फल रुक्मिणः ।। वाक्ये क्रिया क्लमं पक्व वाक्शूरो यक्ष दिक्सरः ॥५३।। ख-घ-धां न-म-यु वः स्युः , ख्न ख्य ख्य न ख्व । चख्नुः । नानख्मि । संख्या । विनः । आख्वयं ॥५४॥ ग-ड-बां ब-त-नादिनः । ग्ग ग्घ ग्ङ ग्ज ग्झ ग्ञ ग्ड ग्ढ ग्ण ग्द ग्ध ग्न ग्ब ग्भ ग्म ग्य ग्र ग्ल ग्व म्ह ॥ दिग्गे वाग्घृत वाग्ङ त्व-दृग्ज-वाग्झर-सिग्ञताः । वाग्डम्बर-मुदग्ढक्का-रुग्ण-ऋग्दण्ड-दिग्धनम् ।। मग्न-दिग्बल-ऋग्भीति-र्वाग्मि-भाग्याग्र-दिग्लताः । स्रग्विणी-वाग्हरिश्चैवं गाग्रणीनां विभा[व]ना । ड्ग घ ड्ङ । ड्ज झ ञ । ड्ड ढ ण । द ड्ध ड्न । ड्ब ड्भ ड्म । ड्य ड्रड्ल ड्व ड्ह ॥ खड्ग षडित्यतो घस्र-ङाशा-जनन-झंक्रियाः । जार्थन-डाकिनी-ढौकी-णाकृतिर्दम-धी-नयाः ॥ बालिका-भू-मनो-योधा रमा-लक्ष्मी-वशा-हयाः ॥ बा ब्य ब्ङ । ब्ज ब्झ ब्ञ । ब्ड ब्ढ ब्ण ।ब्द ब्ध न । ब्ब ब्भ ब्म । ब्य ब्र ब्ल ब्व ब्ह ।। अबगः । अबित्यतो घस्रादयः ॥५५।। च-छ-ञ-म्यवशाश्चस्य, Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च्च च्छच्च च्म च्य च्व च्श ।। उच्चा-च्छ-याच्या-वावच्मो वाच्यं वच्चोल्लसञ्च्शयः ॥५६।। छ-ढोर्मयर्वः ।। छ्म छ्य छू छ्व । पोपुच्छ्मि । वांछ्यम् । उच्छीः । पोपुच्छ्व : । ढ्म ढ्य द्र व । जाधादिम । आढ्यम् । मेंढ़म् । कृषीवम् ॥ अथ जस्य ज-झ-ब-ह-पि ॥ ज्ज ज्झ ज्ञ ज्म ज्य ज्र ज्व ज्ह । मज्जा । सज्झम्पा । ज्ञानं । वावज्मि । आज्यम् । वज्रम् । उज्ज्वलम् । अज्हलौ ॥५८।। झ-फ योर्मयवम् ॥ झ्म झ्य इव । जाझस्मि । जाझझ्यात् । जाझवः ।। फ्म फ्य फ्व । रारफिम । रारफ्यात् । रारफ्वः ॥५९।। टस्याऽघोष-र-ल-पि ॥ ट्क ट्ख ट्च ट्छ ट्टट्ठ ट्त ट्थ टप टफ ट्म ट्य ट्र ट्व ट्श ट्र ट्स ॥ षट्कम् । षट्खनित्रम् । विट्चरः । त्विट्छाया । पट्टम् । विट्ठलः । षट्तयम् । ध्रुथुर्वति । लिट्पतिः । तत्त्वप्राट्फलम् । पापटिम । लुट्चम् । राष्ट्रियः । वेट्लाट्यति । पट्वी । षट्शम् । वषट्षण्णाम् । षट्सु ॥६०॥ ठस्य ण-म-य-विति ।। ण ठ्म ठ्य ठ्व || हिणाति । पापठिम । पाठ्यम् । पापठ्वः ॥६१।। तस्य क-ख-त-थ-न-प-फ-म-य-र-व-ष-सम् ॥ त्क खत्त त्थ त्न त्प त्फ त्म त्यत्र त्व त्ष त्स ।। तत्कम् । सत्खु । वित्तम् । तुत्थम् । रत्नम् । चित्पतिः । मुत्फलम् । आत्मा । सत्यम् । त्रयम् । सांत्वनम् । तत्षण्णाम् । वत्सरः ।। [थस्य म-य-वम् ।। थ्म थ्य थ्व ॥ पापथ्मि । पथ्यम् । पापथ्वः ॥६२।। दस्य ग्वच्चुदु मुक्त्वा ॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 द्र द्ध द्ङ द्दद्ध द्न द्वद्भ म य द्र दल द्व दह ।। मुदित्यतोऽज-झ-ब-ड-ढ-णो-नाः ॥६३।। चु-टु-ल-शवर्जास्तु नस्य ॥ न्क ख ग घ न्ङ ।न्त न्थ न्द न्ध न्न । न्प न्फन्बन्भ न्म । न्यन न्व न्ध न्स न्ह ॥ सन्नत्यतो(तः) कर-खर-गर-धर्म-ङता-त्सरु-पन्थ:-दर-धर-नर-परफल-बल-भर-माल-यत्न-रत्न-वर-षट्क-सुर-हराः ॥६४॥ पस्य पुनः श्वासि-ण-न-म-मन्तःस्थाः ।। प्क प्ख पच प्छ प्ट प्ठ प्ण प्त प्थ प्न प्प प्फ प्म प्य प्र प्ल प्व प्श प्ष प्स ॥ ककुप् शब्दात् क्रिया-खनि-चेष्टा-छल-टीका-ठत्वं । तृष्णोति । सुप्तः। ककुप्थूत्कारः । स्वप्न । अप्पित्तम्। अप्फलम्। पाप्मा । रूप्यम्। क्षिप्रम्। प्लीहः । त्रप्विदम् ॥६५॥ म-न-मन्तस्था भकारस्य ।। भ्म भ्य भ्र भ्ल भ्व। हभ्नाति । लालम्भि । लभ्यम् । शुभ्रम् । भ्लक्षति । भ्वादयः ॥६६।। मस्य पु-ण-न-हा-न्तस्थाः ।। म्ण म्न म्प म्फ म्ब म्भ म्म म्य म्र म्ल म्व ॥ अर्यम्णः । आम्नातं । किम्पचति । किम्फलति । किम्बलम् । तम्भरति । अम्मयः । रम्यम् । कम्रम् । म्लानिः । किम्वक्तम् । किम्वलति ॥६७।। रेफ-सकारो निता रकारस्य ।। कर्ख ग घ ङ । च छ ज झ । र्ट ठ ड ढ ण त थ द ध न । र्फ ब भ म । र्य लर्व र्श र्ष है। ____ अर्कादयः । गीर्डता । अर्चादयः । अमाश् । गीर्छता । अमाई । धूढ्यादयः । निर्नयः । अर्पणादयः । अर्हन् ॥६८॥ शाश्च छ-न-म-शा-न्तस्थाः ॥ श्च श्छ श्र श्म श्य श्र श्ल श्व श्श ।। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्श्युतिः । कश्छादयति । अश्मः । वश्यम् । श्रीः । श्लीलः । श्वा । कश्शूरः ॥६९॥ क-ट-ठ-ण-प-फ-म-य-व-षाः षस्य ।। ष्कष्ट ष्ठ ष्ण ष्प ष्फ ष्म ष्य ष्व ष्ष ॥ शुष्कम् । षष्टः । षष्ठः । विष्णुः । सर्पिष्याशम् । निष्फलम् । शुष्म । वृष्यम् । लालष्वः । कष्षण्डे ॥७०।। षोनं सस्य त व त् ।। स्क स्ख स्त स्थ स्न । स्प स्फ स्म स्य स्त्र स्व स्स ॥ स्कन्दः । स्खलन ।अस्ति ।स्थानम्।स्नानम्। बृहस्पतिः।आस्फालः। अस्मि । रस्यम् । विस्त्रहा । स्वं । कस्साधुः ॥७१।। ण-न-मा-न्तस्था हस्य ।। ह ह ह्म ह्य ह ह ह ॥ पूर्वाह्नेतरे। मध्याह्नः । जिह्यम् । सह्यः । हीः । आह्लादः । ह्वयति ॥७२।। केन शेषाणां वि-तु-बां ङ-ब-ण-य-व-लामिति ॥ ङ्क ङ ङ्ग छ ड्ङ । ङ्च छ ज झ ञ ।ङ्ट ङ्ठ ङ्ड ङ्ढ । ङ्त थ द ध ङ्न । प फ ब भ ङ्म । डन्य ड्र ङ्ल ङ्व । श र ङ्स ङ्ह ॥ प्रत्यङ्ङित्यत: क-ख-गी-घृत-ङत्व-चीर-च्छद-जू-झर-ताटंक-द्वार्थडम्ब-ढुंढि-ण-तात-रुथत्व-देव-धर्म-नी-पू०फाल्गुनी-बोल-भीम-मद-यतरत-लता-वार्ता-शर-षष्ट-सह-हराः । क ख ग घ ङ ।ञ्च ञ्छ ञ्ज झ ञ । ट ठ ड ढ ण । ज्प ज्फ ब भ म । ब्य रल ज्व । श ष स ह ॥ लिखितजित्यतः कादयस्त-थ-द-ध-न रहिताः ॥२॥ एक ख ग घ ङ । एच छ ज ण्झ ञ । ण्ट ण्ठ ण्ड ण्ड पण । पत पथ पद एध एन । प फ ब भ म । ण्य ण ण्ल ण्व । पश ष स ह ।। सुगणित्यत: कादयः ॥ ३ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 य्क य्ख या य्य य्ङ। य्च य्छ य्ज झ ञ। य्ट य्ठय्ड यढ य्ण । यत य्थ यद यध न । य्प य्फ ब य्भ यम । य्य य य्ल य्व । यश य्ष यस यह ।। सदयित्यतः कादयः ।।४।। ल्क ल्ख ल्ग ल्घ ल्ङ । ल्च ल्छ ल्ज ल्झ ल्ब । ल्ट ल्ठ ल्ड ल्ढ ल्ण । ल्त ल्थ ल्द ल्ध न । ल्प ल्फ ल्ब ल्भ ल्म । ल्य लल्ल ल्व । ल्श ल्ष ल्स ल्ह ।। कमलित्यत: कादयः ।।५।। वक व्ख ग घ व्ङ । व्च व्छ व्ज व्झ ञ । वट व व्ड वढ वण । वत व्थ वद व्ध वन । व्य व्फ ब भ म । व्य व्रव्ल व्व । व्श व्ष व्स व्ह ॥ सुदेवित्यत: कादयः ॥६।। ७३।। ख-फ-छ-ठ-थस्य तु श-ष-सपि ।। विपरीतग्रहणं क्वाचित्कताज्ञापनार्थम् ।। ख्श ख्य ख्स । पश फ्ष फ्स । छ्श क्ष छ्स । ठ्श ठ्क्ष ठ्स । थ्श थ्ष थ्स ॥ अख्शरः । प्राङ्ख्षष्ठः । अख्सरः । अछ्सरः । सुगण्ठ्साधुः । वथ्सरः। इत्यादि ।।७४॥ शिक्षा तु सर्वगता ॥ क्म क्घ क्ङ इत्यादि । नहि शिक्षायाः किमप्यगोचरम् ॥ सर्वमप्येतल्लक्ष्यमिति निर्देशात् ।।७५।। नखा - ३ - नखै - ऋतवः सर्व - र्षि - फणि - सिद्धयः । वेद - सी - पुरीण - श्वे - नख - भूता - खिला स्तथा ॥ । अघोष - हेय - पूर्व -तुं - शवला - विंशति - नयाः । नखे - रागे - हरी: - सर्व - सत्त्रिंश - दखिला - खिलाः ॥ __ ३० ३१ ३२ ३३ । नन्द - दिग् - मास - मुनयः संभवन्तः क्रमादमी । २० Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17 कादितः संगृहीताः स्यु सिद्धाः पंचकपर्यन्तं संयोगाः पदगोचरे ॥ श्रीः । श्रयादिः । लक्ष्म्यः । कार्त्स्यम् ॥७७॥৷ सप्ताक्षरोऽप्यवयवः ‘कार्त्स्य' मित्यादिलम्भनात् ॥ अ । क । स्म । क्ष्मा । दाक्ष्यम् । लक्ष्म्याम् । कार्त्स्यम् । अन्यत्र हम्य ॥७८॥ ग्रण्यः पदपण्डितैः ॥७६ ॥ नानालिखनराभस्याः केऽपि स्वेन परेण वा ॥ ७९ ॥ यथा अ-ज-ड-भ-शम् । ऽ अ । ज ज्ज । 5 ड । मम । शश ||८०|| थश्च व्युत्क्रमो विशेषार्थः ॥ थ छ । ब्लु ङः ॥८श ञ - षाद्यास्तु ज- कादितः ॥ (क्ष) 7) द ज ज्ञ ॥८२॥ ककार एवोकारादि समान-थ-न-रे ल-षोः ॥ कु कू कृ कॄ क्लृ क्लृ के वन क्र क्ल क्ष ॥८३॥ परवत् केऽप्यदूरेण माऽतोऽस्त्वनवधानता ॥८४॥ वपुरीह डकारादेर्मकारादितया त्वरा ॥ डम, सभ, न त, ठ छ, ब व, कफ, पष, न ल । ठ ट लृ । ट ड ङ । ट ढद ह । ख व च । यथ घथ ध । झ ज न । उ ओ औ । ए ए (ऐ)। इत्यादि ॥८५॥ वो द्विप्रकाराः स्युरुपाधेः स्वत एव च ॥८६॥ उपाधिद्विविधः सीम- योगाभ्यां परिभाषितः ॥८७॥ प्राहुः पदस्य वाक्यस्य पादस्य शकलस्य च । अन्यत्र तगणादिभ्यः सीमामपि चतुर्विधाम् ॥८८॥ वाक्ये पदानां पदेषु वा वाक्यस्यान्तर्भाव एवेत्यल्पीय: । परकीयकर्णपीडाकारी श्रवणातिरोगरुग्णः स्यात् । इति नैगमोपदेशं भिन्नतया स्पृहयति स्कन्धात् ॥ देव १ । मुनिर्मानितो भवति २ ॥८९॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 दलयोन मिथ: सन्धिः पादौ स्यातां पृथग् यती । इत्यर्धचरणस्थित्या रेखे रेखा च वादिनी ॥ तुम्यं नमस्त्रिभुवनार्तिहराय नाथ ! ॥१॥ तेषां च देहोऽद्भुतरूपगन्धो निरामयः स्वेदमलोज्झितश्च ॥१०॥ यस्त्वपवादः - आदि-मध्या-न्तभागेषु भ-ज-सामस्ति गौरवम् । लाघवं य-र-तामास्ते म-नोर्गौरव-लाघवम् ॥ कर्णः करतल एव च, पयोधर श्चलन-विप्रनामानौ । आर्या गणा गुरू स-ज-भवच्चतुर्लध्विति प्राप्ताः ।। ते चेमे - ऽ॥भः ।१।।।जः।२।, ॥ सः।३।।ऽऽ यः ।४।, ऽ । ऽ रः ।५।, ऽऽ ।तः।६।,ऽऽऽ मः ७।, नः ।८। ऽऽ कर्णः १, ॥ऽ करतलः २,।।पयोधरः ३,॥चलनः ४, ॥॥ विप्रः ५ इति ॥ आदिशब्दाद् गुरु-लघ्वादिग्रहः । त ग्रहणं स्वोपयोगार्थम् । दैवत । अवेहि । सततं । रमायै । देवता । जानि( नी? )हि । भावार्थी। वरद । देवे । (हे) विपुला । अपार । केवल । हितकर । सा । हु।१। श्रीर्जय । जिनैहि । स शमैत् । इयं ते । रक्ष मां । त्वं मेऽसि । सन्तस्तोंऽश( स्तोष ? ) मिह । प्राहीं । नहि भीः । जयोऽस्तु । सा तत् । त्वमवसि । कैः । य ।२।। विवृजिन-मुनिजन-हितकर-मनुभवगुणविशदयशसमिह रमयेः ॥३॥ सुशील कला-कुल-कौशल देव सुरासुर-मानव-निर्मित-सेव । मते तव देहि विभो ! मतिमेव विराजति या किल चन्द्रकलेव ॥ अर्हदीयनामदामकुम्फने मनो ददीत यः स मानित: सुधीषु भावुकं लभेत भूरि ॥४॥९१।। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19 गणानां गणोऽत्र । ल-द-त-च-प-ष मेक-द्वि-त्रि-चतुः-पञ्च-षट्कलम् । मात्रा-गणभिदो भू-द्वि-त्रि-पञ्चा-5 ष्ट-त्रयोदशाः ॥९२॥ तथाहि - लघुरेको मता रेखा(।) ९३।। गुरुर्दीर्घ इतीरितः (s) ११ विदी? लघुयुगलम् (।) २॥ इति ॥९४॥ ल-ग-वत्तूर एव तु (IS) १ ल-ग वच्च विशेषः स्यात् (।) २॥ न गणस्त्रि-लवत् पुनः (III) |३|| कथमयम् ? । प्रस्तावान्तरितात्वादपुनरुक्तत्ववत् परे च ॥९५।। कर्णादयो द्विगुर्वाद्याः । । पंक्तिचरत्वादव्यासेन । ये हि - ऽऽ १, || 5 २, । ऽ । ३, 5 ।। ४, || || ५, इति ॥९६।। य वदिन्द्रासनं विदुः ।। १। र वत् सूर इति ख्यातः ।। २। न-ग वच्चाटुरित्यहो ॥ ३॥ त वदाचक्षते हीरम् ।। ४। स-ल वच्छेखरं तथा ॥ ५। ज-ल वत् कुसुमावस्था । 5 ।। ६। भ-ल वत् प्रोदितोऽस्त्यहि: 5 ।। ७। पगणो न-ल-लात्मैव ॥ ८॥९७|| म वच्च हरलक्षम् 55 5 १। स-गवच्छशिनस्तत्त्वम् ॥ 5 5 २। ज-ग वत् सूरमूचिरे ।ऽ । ऽ ३। भ-गवच्छक्रमाख्यान्ति 5 ।। ७ । शेषो न-ल-गवत् स्मृतः ।। 5 ५। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 ल-त वद्धरिरेव स्यात् । । ६। र-ल वत् कमलः किल ऽ । ऽ । ७। ब्रह्मा न-ग-ल वत् सिद्धः । । ८। त-ल वत् कृष्टिकल्पना ऽ ऽ ॥ ९। कमठ: स-ल-लैश्चिन्त्यः ॥ 5 ॥ १०॥ ल-भ-लैधुंवचिन्तनम् ॥ ११॥ भ-ल-लैरिह धर्माख्यः ॥ १२॥ शालूरो लघुषट्तयः | १३। इति ॥९८।। किं च - नेन्द्रवंशादिवृत्तानां शैथिल्यं परिहीयते । अयुग्मचरणप्रान्ते गुरुत्वं नास्ति तल्लघोः ॥ तदेव नैवं - कारुण्यकेलीकलितो जिनेशित - रावेद्यसे त्रीणि जगन्ति तायिता । जिनेश्वरो नः सततं भवार्णव - तरीतया तिष्ठति सुप्रतिष्ठितः ॥ जिनपतिर्भगवानुदितोदय - दयितदाक्ष्यदयादिगुणः श्रिये ॥ इत्यादि ॥९९।। व्यक्तेर्येषां तामा (नाम ?) पुनरुक्तवदाद्रियेत ते योगाः । युक्ते प्राश्रिते वा व्यञ्जनमात्रे पुर:स्थे स्युः । अक्षम् । इक्षुः । उक्षा । ऋक्ष । नृक्षितिः । अं। इं। उं । क्रं । लूं । अः । इः । उः । ऋः । लुः । क)(रोति । मुनि)(कुशलः । पटु) (कलावान् । ऋ)( कविः (?) नृ )( क्षतिः। कः पचति । मति पटवी । साधु-पारगः । ऋ पुरं ल-पुत्रः। अक् । इक् । उक् । ऋक् । लुक्। इत्यादि ॥१००॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 आद्येकवृत्तेर्युक्तस्य हादेर्योऽनुचरो लघुः । नैषोऽपि परवन् मन्द-प्रयत्नोच्चार एव चेत् ।। षट्तांगमचक्रकर्कशलसद्वादीन्द्रमुद्राद्रुम - श्रेणीदाहदवानलः कलिमलप्रध्वंसहींकारवत् ।। तीव्रप्रयत्नोच्चारे तुपद्महदमुखादेषा गङ्गाख्या सरिदुत्थिता ॥ आदिज्ञापनान्मैवं - तव निद्रा समुपागमदुच्चकैः सुमुखि ! शीघ्रमशेमहि ते वयम् ।। एकग्रहान्मैवं - मरुद्रथः खलु वारिद! राजते, गगनमण्डलभूपतिवद्भवान् । इत्यादि ।।१०१।। समा समं समानोत्था समानेभ्यः समुत्थिताः । सन्ध्यक्षरपरेभ्यस्ता विधास्तिस्रः स्वयम्भुवाम् ॥१०२॥ 'आ'कार मुख्याः खलु पञ्च दीर्घाः समैः समानैर्जनिता भवन्ति ।। आ । ई । ऊ । ऋ । लु ॥१०३।। ए-ओ इति द्वौ विषमैर्भवेतां ॥१०४।। समान-सन्ध्य क्षर जौ तु ऐ-औ ॥१०५।। मैलः पयसि पयोवत् पयसि सलिलवच्च धान्यकणवच्च । ल(ल)दन्तेष्वेदादिषु संयुक्तव्यञ्जने क्रमशः ।। अ अ इत्यत आ इत्यादि ॥ एवं लकारान्ताः ॥५॥ अइ १, आइ २, अई ३, आई ४, इत्यतः ए। अउ १, आउ २, अऊ ३, आऊ ४, इत्यतः ओ। अए १, आए २, अऐ ३, आऐ ४, इत्यतः ऐ। अओ १, आओ २, अऔ ३, आऔ ४, इत्यतः औ ॥१०६।। द्वावकारौ य आकार इति माऽभिग्रहं विधाः । न मैत्रः संभवेच्चैत्रो चैत्रद्विगुणचेष्टया ।। अ अपेहीति वाक्यं च क्वाऽदात् कृपणसत्कृतिम् । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 । द्वेयस्यां(?)(स्याऽ)न्यतामात्रा-गणिते_न्तिभञ्जिनी ॥ अदितौ नैवमेकारो न तद्देशस्य य: स्वरे । कौम्भसः पयसो भेत्ता हंसश्चेद् वृद्धिरस्त्यपि ॥१०७।। आस्ते निरनुबन्धत्वे जातिर्जीवातुरग्रणीः । इत्यन्यपरिषत्प्राप्तौ जातिस्तमनुवर्तते ॥१०८|| दीर्घ दीर्घोऽपि लीयेत, दीप्तिमध्येऽन्यदीप्तिवत् । न याति वपुरुत्सेधं यौवनानन्तरं नृणाम् ॥ अ आ, आ अ, आ आ, इत्यत आ इत्यादि ॥१०९।। ख-ठ-च-जे फ-श-ष-सा-श्छ कारस्थ-फर्यहः । योगवाहा विसर्गश्चाऽनुस्वार )( कपमेव च ॥ ख ठ च ज र श ष स छ थ फ घ झ ढध भ ह । अः अं)( क प यथोत्तरत्वं भावः । खादयोऽपि स्वर(रं) व्यञ्जनं वाश्रित्यैव हु ॥११०॥ किं च - लिविप्रवाह एवायं याऽनुस्वारपुरोऽटवी । नान्त्यव्यञ्जनतश्चित्रा-लङ्कारः परिहीयते ॥ क क का कं क कां का का के कि के का कु का क कु प् । कौ कं कं क क को कै क - का कं का क क का कु कां ॥ पकारस्याऽप्यदोषात् ॥१११॥ ड-ल योरप्यनुस्वार-विसर्गाभाव-भावयोः । ब-वयोः स-षयोरैक्यं यथायुक्ति रलोः शसोः ।। त--नयोर्ण-नयोस्तद्वत् क्वचिदिच्छन्त्यलंक्रियाः ॥११२॥ घोषे दोषापनोदाय षकारस्य सकारता ।। णकारस्य ना(न)कारत्वं जकारस्य गकारता । ष्ट ष्ण जग (?) इति ॥११३। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23 किमूष्मत्वात् किमादेशात् किं युक्तव्यवहारतः । षस्य सान्तरता मध्य-वृत्तेः किं वा विशेषणात् ॥ नादिरूहो – संत्यागात् प्रकीर्णत्वाच्च नापरः । गनान्तरत्वापातोऽस्तु तृतीये ज-णयोरपि ॥ न तुर्यो भूपयोगित्वाद् हकारस्त्वेष घोषवान् । कवर्गीयमपेक्ष्यैव तत्सिद्धेर्नास्ति पञ्चमः ।। अथ हाविवृतस्यास्य संवृतत्वमिवेति चेत् । देवानुप्रिय ! तत् सम्यगृलोरपि वितर्कय ॥११४।। नाभेरुपरि आक्रामन् विवक्षाप्रेरितो मरुत् । हृदाद्यन्यतमस्थानो प्रयत्नेन विधाय(र्य)ते । विधार्यमाणः स स्थान-मभिहन्ति ततः परम् । ध्वनिरुत्पद्यते सोऽयं वर्णस्यात्मा वितर्कितः ॥११५।। स्वरतः कालतश्चैव स्थानतोऽपि प्रयत्नतः । अनुप्रदानतश्चेति विभागस्तस्य पञ्चधा ॥११६॥ षड्जर्षभौ च गान्धारो मध्यमः पञ्चमस्तथा । धैवतश्च निषादश्च सप्तैते कथिताः स्वराः ॥११७।। षड्जं मयूराः क्रूयन्ते गावस्त्वृषभनादिनः । अजादयश्च गान्धारं क्रोञ्चः क्वणति मध्यमम् ।। उडर: पञ्चमं ब्रूते हेषतेऽश्वस्तु धैवतम् । निषादं करिणो ब्रूयु-रेषा तेषामुदाहृतिः ॥११८।। गान्धारश्च निषादः स्मृतावुदात्तेऽथ धैवतोऽप्यृषभः । द्वावनुदात्ते पञ्चम-मध्यम-षड्जास्त्रयः स्वरिते ॥११९।। उच्चोच्चार उदात्त: स्या-नीचैरुच्चरितोऽपरः । स्वरितः समवृत्त्यैवो-च्चार्यमाण: स्वरो भवेत् ॥ अ० । अ० । अ० । इत्यादि ॥१२०।। द्रुता विलम्बिता मध्या विधेत्युच्चारवृत्तयः । अभ्यास उपदेशे च प्रयोगे च विनिश्रिता ।। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 यथाक्रममिति ॥१२१।। हस्व-दीर्घ-प्लुता एक-द्वि-त्रिमात्रा यथाक्रमम् । अ इ उ ऋ ल । ए १ ऐ १ ओ १ औ १ । आ ई ऊ ऋ ल ए ऐ ओ औ। आ ३ ई ३ ऊ ३ ऋ३ ल ३ ए ३ ऐ ३ ओ ३ औ ३ इति ॥१२२।। व्यञ्जनं त्वर्द्धमानं स्यात् । क ख ग घ ङ् इत्येवं हकारान्ताः ॥१२३।। मात्राकालो निमेषकः । नेत्रस्पन्दनपरिमाण इत्यर्थः ॥१२४।। परिपूर्णमनुत्पाद्य नार्द्धशब्दः प्रवर्तते । देशप्रदेशनिर्णीति-र्न स्कन्धेन विना यतः ॥१२५।। पूर्विणोऽन्तुर्मुहूर्तेऽपि सर्वे सिद्धान्तपारगाः । रोगिणस्त्वक्षमा वक्तुं निमेषोऽन्यानपेक्षताम् ॥१२६।। एकमात्रं वदेच्चाषो द्विमानं वक्ति वायसः । त्रिमात्रं बर्हिणो ब्रूयान्नकुलः सोऽर्द्धमात्रिकम् ॥१२७।। स्मृत्वैव निनदाणूनां इसनान्मुखदारणात् । आलोकान्तं प्लुतेश्चाहु-स्त्रैधमेषु समेष्वपि ॥१२८।। दूरादामन्त्रणे प्रश्ने प्रश्नाख्याने च भर्त्सने । सम्मत्यसूयाकोपादौ यथायोगं स्वराः प्लुताः ।। देवदत्त ३ एहि । जिनदत्त ३ किं करोषि ? । सोमदत्त ३ राजानं पश्यामि । इत्यादि ॥१२९।। ऋकारं वर्जयित्वैकं सर्वस्यापि गुरोरिह । पर्यायेण प्लुतत्वं स्या-दपर्यन्तेऽपि तिष्ठतः ।। दे ३ वदत्त । देव ३ दत्त । देवद ३ त्त । देवदत्त ३ । ऋकारवर्जनात् कृ २ ष्टिः । वृ २ क्णं । इत्यादि ॥१३०।। उरः कण्ठस्ततो जिह्वा-मूलं तालु च मस्तकम् । दन्ता ओष्ठौ च नक्रं च वर्णानामष्ट भूमयः ॥ नहि दन्तेन दन्ताभ्यां वार्थ सततो (वार्थस्ततो) बहुत्वम् ।।१३१।। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कण्ठ्या अकुविसर्ग हः, । अ आ क ख ग घ ङह अः ॥१३२।। ___तालव्या इचवौ यशौ । इ ई च छ ज झ ञ य श ॥१३३।। शीर्ष्या ऋटुरषा ज्ञेयाः,। ऋ ऋ ट ठ ड ढ ण र ष ॥१३४।। दन्त्या लुतुलसास्तथा ।। ल ल त थ द ध न ल स ।।१३५॥ उपूपध्मा मता ओष्ठ्याः , । उ ऊ प फ ब भ म प ॥१३६।। _ एदैतौ गलतालुजौ। ए ऐ ॥१३७॥ ओ औ कण्ठोष्ठजौ ।।१३८॥ वस्तु , दन्तोष्ठ्यः परिकीर्तितः ॥१३९।। जिह्वामूलीयको जिह्वयः, । )( क ॥१४०॥ __ अनुस्वारो नाशिकोदितः । अं ॥१४१।। स्यादुरस्यो हकारश्चे-दन्तस्था-पञ्चमैर्युतः ।। हङ । न ।ह्ण । ह्न । म । ह्य । हू । ल । ह्व ॥१४२।। आदा उच्चरणं यस्या व कार-ल-ड-णां यथा । न तथा मध्यतोऽन्तेऽपि द्वित्वसंयोगतो विना ॥ ययु-लीला-तिलादिभ्यो द्विरुक्तललितोऽपि च । यायाः, यायाः १ । वन्दे, देवं २ । लोलं , लोलं ३ । डिम्भः पण्डितः । नड: ४ । णीया । वणिक् ५ । क्रय्यं । इग्रतुः १ । सव्वं । काव्यं २ । मल्लः । शल्यं ३ । अड्डति । जाड्यं ४ । पुण्णो । पुण्यं ५। __ययौ । येयीयते । यायाति । यियासति । अयीयपत् युः १ । व वौ २। ल लौ । ललति । लीला । तिलं ३ । डेडीयते ४ । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 विपरीतग्रहात्-काव्यं । युयूषति । कल्पः । क्वचित् समासैकपद्ये - उद्यमः । प्रयोगः । निवातः । प्रलयः । प्रडीनः । प्रणवः । उभयमपि क्वचित् - अभियोगः । अभियोगः । प्रवीरः । प्रवीरः । मिलति । मिलति । तिमिगिलगिलः इत्यादि ॥१४३।। परप्रीतिं विचिन्त्येव नहि विघ्नाय नाशिका । अतः कार्याय जायन्ते पञ्चमा अनुनाशिकाः ।। ङ अ ण न म ॥१४४॥ प्रयत्नाः स्थान-करणं स्पृशन्त्यन्योन्यतो यदा । स्पृष्टता, - ॥१४५॥ __- ऽथ मनाक् स्पर्शादीषत्स्पर्शत्वमिष्यते ॥१४६॥ पार्श्वतः संवृतिः(१४७) दूराद् विवृतिः(१४८) स्पृशतां भवेत् ।(१४८॥) अमी अन्तः प्रयत्नाः स्युः, स्पर्शेषत्स्पर्श-विवृति-संवृतय इति ॥१४९।। बाह्यानपि विचिन्तय ।। विवार-संवारादीनिति ॥१५०॥ वायुश्चाक्रमणं कुर्वन् मूनि प्रतिहतो यदा । निवृत्तोऽसौ तदा कोष्ट-मभिहन्याद् बलादपि ।। कोष्टेऽभिहन्यमाने गलबिलविवृतत्वतो विवार: स्यात् ॥१५१॥ तत्संवृतभावो यदि संवारो भवति कविकथितः ॥१५२॥ तत्र वाः स्पर्शाः । क ख ग घ ङ, च छ ज झ ञ, ट ठ ड ढ ण, त थ द। न, प फ ब भ म । _)( क प, एतौ तदाश्रयात् ॥१५३।। याद्या ईषत्स्पर्शाः ।। य र ल व ॥१५४॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27 स्वरोष्मका विवृताः। अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ । श ष स ह ॥१५५।। विवृततरावेदोतौ। ए ओ ॥१५६।। विवृततमा ऐ च औ च ॥१५७॥ विवृते जायते श्वासः ॥१५८।। संवृते नाद एव च ॥१५९॥ एतावनुप्रदानत्वे सद्भिः कैश्चिदगीयेताम् । "श्वास-नादावनुप्रदाने" इति केचित् ॥१६०।। अनु-प्रदीयते नाद-स्तथाभूते यदा ध्वनौ । घोषता भवति (१६१), श्वासानुप्रदाने त्वघोषता ॥१६२।। प्रथमे श-ष-साश्चैव - ईषच् श्वासतया स्थिताः । __ क च ट त प, श ष स ॥१६३।। द्वितीयाः स्युर्बहुश्वासाः ; ख छ ठ थ फ ||१६४|| ___ अघोषास्ते त्रयोदश ॥ क ख च छ ट ठ त थ प फ श ष स ॥१६५।। महाघोषाश्चतुर्थाः स्युः पञ्चमान्तस्थमेव हः । - घ ङ झ )ञ ढ ण ध न भ म य र ल व ह ॥१६६।। स्वल्पघोषास्तृतीयास्तु , ग ज ड द ब ॥१६७॥ ख्यातो घोषवतां गणः ।। ग घ ङ ज झ ञ ड ढ ण द ध न ब भ म य र ल व ह ॥१६८॥ अल्पप्राणत्वमेतेषा-मल्पे मरुति निश्चितम् ।। क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व ॥१६९।। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 महति त्वन्यता (१७०), हन्त महाप्राणतयोष्मता ।। इहैके - उ(उ) भावश्च विवृत्तिश्च शषसा रेफ एव च । जिह्वामूलमुपध्मा च गतिरष्टविधोष्मणः ॥१७१।। आदि-द्वितीय-श-ष-सा जिह्वयोपध्मा-विसर्गकाः । यमौ चादी अघोषाः स्युः प्राप्ता विवृतकण्ठताम् ।। क ख च छ ट ठ त थ प फ श ष स )( क प अकुं खुं ॥१७२।। गादयो विंशतिश्चैवा-नुस्वारश्चरमौ यमौ ।। संवृत्तकंठमिच्छन्तो घोषवन्तः समेऽप्यमी ।। ग घ ङ ज झ ञ ड ढ ण द ध न ब भ म य र ल व ह अंगुं धुं ।।१७३।। आद्यास्तृतीया वर्गाणां यमौ चादितृतीयकौ । अल्पप्राणा भवन्त्येते , कग च ज ट ड प ब कुं गुं ॥१७४।। महाप्राणा अतोऽपरे ॥ ख घ ङ छ झ ञ ठ ढ ण थ ध न फ भ म य र ल व श ष स ह अं अः )( क प खुं धुं स्वराश्च ॥१७५।। नाशिक्याः स्युरनुस्वारयमाः । अं कुं खं गुं धुं ॥१७६॥ इत्यपरागमः ॥ अघोषादिनाशिक्यान्तानामेतत् प्रकारान्तरं वैदिकेष्टं वेदितव्यम् ।।१७७|| प्रयत्नः सर्वगात्रानु-सारी तीव्रतया यदा । निग्रहः स्याच्छरीरस्य कंठरन्ध्रस्य चाणुता ।। स्वर-वाय्वोस्तु रूक्षत्व-मित्युदात्तः स्वरूपितः ॥१७८।। प्रयत्न(त्नो)मन्दगात्रास्य], स्रंसनादेस्ततोऽपरः ॥१७९॥ संनिपातस्तयोर्यस्तु स्वरितः सोऽयमीरितः ॥१८०॥ प्रयत्नानुप्रदानाना - मेतत् किंचन लक्षणम् ।। स्पर्शादि स्वरितपर्यन्तम् ॥१८१।। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिपाटी प्रयोग्यात्मा स्वाश्रितादपराश्रितः ॥ ह अं ॥१८२॥ स्वराद् व्यञ्जनम् ॥ औ का ॥१८३॥ एकीयादनेकीयः प्रसीदति ॥ लृ ए । घ ङ । झ ञ । टण । ध न । भ म लवत् ॥ १८४ ॥ कंठ्य-तालव्य-मूर्धन्य - दन्त्यौष्ठ्यानां प्रतीतया । स्थानानुमतवृत्त्यैव पौर्वापर्यविवेकिता ॥ कु चुटु तुषु ॥१८५॥ कथं तर्हि 'अ इ उ ऋ लृ ' इति नोक्तम् ? ॥ ऋ लृ वर्णौ विजातीया - वपि सावर्ण्यमृच्छतः । उवर्णानन्तरं तेन हेतुना तौ प्रतिष्ठितौ ॥१८६॥ ह्रस्वाद् दीर्घो विनिर्देश्यः ॥ 29 अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ लृ लृ इत्यादि ॥ १८७॥ प्राणैः स्वल्पान् महानपि ॥ व श ॥ १८८ ॥ अवर्गीयस्तु वर्गीयात् ॥ म य ॥ १८९॥ श्वासितो नादवानपि ॥ खग । छ ज ठ ड । थ द । फ ब । स ह ॥ १९०॥ ईषच्छासाद् बहुश्वासः ॥ क ख । च छ । ट ठ । त थ । प फ ।। १९१ ॥ महाघोषोऽल्पघोषतः || ग घ । ज झ । ड ढ । द ध । ब भ ॥१९२॥ आश्रयोत्पत्त्यपेक्षातो भावनीयाः पराश्रिताः ॥ अः ) ( का )( क प |१| अं अः ॥१९३॥ स्वरा विंशतिरष्टौ च षट्त्रिंशंद्व्यञ्जनानि च । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुष्कं शेषमित्यष्ट - षष्टिस्ते लिखनान्तरे ॥ अ अ आ आँ इ ई उ ऊ ऊँ ऋ ऋ ज ल लँ ल लँए एँ ऐएँ ओ ओँ औ औं । क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य य र ल लँ व व श ष स अं अः )( क प ॥१९४॥ अनुनाशिकेऽग्रगेऽपि स्वरः समर्थोऽनुनाशिकत्वाय ॥ 'अपि'शब्दात् स्वतश्च । साम साम । दधि दधिं। मधु म) । कर्तृ कर्तृ । प्रियक्ल प्रियक्लँ । भवाँश्चारुः । इत्यादि ॥१९५॥ . य-व-लं नानुस्वारजम् ॥ . भ वा लें लिखति १। स यं त । स , वत्सरः । य लें लोकं ।२॥१९६।। एषां लिपिरर्द्धबिन्दुमती । इदमेव लिखनान्तरत्वे फलम् ॥१९७॥ स्थानवृद्धिय॑नक्त्येतां गौणत्वेऽपि न तुच्छता। अस्त्यर्ककिरणक्रान्ते: काचे काचीयतापि यत् ॥ अतः - अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ। क ख ग घ, च छ ज झ ट ठ ड ढ, त थ द ध, प फ ब भ, य र ल व, श ष स ह, अः )( क प इति मुख्याः ॥ अँ आँ इँई उँॐ लँखे एँ एँ ओँ औं ङ अ ण न म यँ लँ वँ इति मुखनाशिक्याः ॥ अंनाशिक्यः ।। अ आ इ ई उ ऊ ऋऋ ल ल । क ख ग घ च छ ज झ ट ठड ढ त थ द ध प फ ब भ य र ल श ष स ह अं अः)( क प इत्येकस्थानीयाः ॥ अँ आँ इँई उँॐ जज लँ लँ ए ऐ ओ औ ङञ ण न म यं लं व इति द्विस्थानीयाः ॥ एँ एँ आँ औं वँ इति त्रिस्थानीयाः ॥१९८॥ अवर्णादेः स्वरस्याप्ता हस्व-दीर्घ-प्लुतैस्त्रिता । उदात्तत्वेऽनुदात्तत्वे स्वरितत्वे स्थिता पृथक् ॥ तेषामप्युभयी मुख्य-मुखं नाशिक्यभावतः । उ ऊ ऋ ज झ, ह Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31 इत्येकैकस्य संख्यातः सर्वे द्वाषष्टियुक् शतम् ॥ उच्चारापेक्षया वर्णा द्वे शते व्यधिके मताः ॥ समस्याकारणं - A अ। अ। अ। अँ। अँ। अँ। A आ । आ । आ। आँ । 7 आँ। आँ। A आ ३ आ । आ ३। आँ ३। 7 आँ ३।। आँ ३। इ। इ।इ। । । । । । ई। Vई। ई। ईं। ईं। ईं। ई ३17 ई ३।०ई ३। ३। Vई ३।। ३। उ। उ। उ। उँ। v ।। ।ऊ । v ऊ ।। ऊ । A ऊँ। v ऊँ। ऊँ। A ऊ ३। v ऊ ३। ऊ ३। A ऊँ ३। v ॐ ३।। ॐ ३। ऋ । v ऋ। ऋ । । । । A ऋ । V ऋ ।। ऋ । । । । । ऋ३। vऋ३।० ३ । A ३ ३ ३ A । 7 लु। लु। - लँ। V लँ।- । ल । Vल । ल । A लँ। V । लूँ। A लु ३। V लु ३। लु ३। लँ ३। V ३। लँ ३। A ए ११v ए १।। ए १। एँ १। Vएँ १।एँ १। ए। ए। ए। A एँ। Vएँ। । एँ। A ए ३। 7 ए ३।। ए ३। A एँ ३। Vएँ ३।। एँ ३। A ऐ १। 7 ऐ १।। ऐ१। एँ १ एँ १।। एँ १। ऐ। ऐ। - ऐ । A एँ । Vएँ। एँ। ऐ३। v ऐ३। ऐ३। एँ ३। v एँ ३।। एँ ३। A ओ ११ ओ १।। ओ ११ औं ११ औं १। ओं १। ओ। ओ। ओ। आँ। 7 । - औं । ओ३। 7 ओ ३। ओ ३१ औं ३। औं ३। औं ३ औ ११ औ १।। औ ११ औं ११ औं ११ औं ११ औ। औ। औ। औं । 7 औं । । औं । A औ ३। v औ ३।। औ ३।४ औं ३। 7 औं ३। औं ३। क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ भ म य य र ल लँव व श ष स ह अं अः )( क प ॥२०२॥१९९।। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्भेदतारतम्यं तु कोटित्वेऽपि न निष्ठितम् ॥ २००॥ यथेदम् - 32 - जघन्यात् परमं यावत् क्षेत्र - कालैर्विशेषिताः । असंख्येया भवन्त्येते ; सर्वजघन्यावगाहकाद् वर्णादेकैकप्रदेशवृद्ध्या सर्वोत्कृष्टावगाहकं वर्णं यावत् क्षेत्रापेक्षयाऽसंख्येया वर्णा भवन्ति । १ । सर्वजघन्यस्थितिकादेकैकसमयवृद्ध्या सर्वोत्कृष्टस्थितिकं यावत् कालापेक्षयाऽसंख्येया वर्णा भवन्ति । २ । २०१ || पर्ययांशैस्त्वनन्तकाः । सर्वजघन्यप्रदेशिकादेकैकपर्ययवृद्धया सर्वोत्कृष्टपर्ययं यावत् पर्ययापेक्षयाऽनन्ता वर्णा भवन्ति |२| ॥ २०२ ॥ दिवसाद् बत मासस्य यथा नैकान्तमेकता ॥ अनुदात्तादुदात्तस्य तथा नैकान्तमेकता ॥ तीव्र - मन्दादिभावैश्चेत् कर्मोदर्कविचित्रता । क्षमाक्रोधादिकाकर्षैः किमेषामर्थतुल्यता ? ॥ अर्थान्तरत्वे युक्तिश्चेत् सा वर्णान्तरता न किम् ? | देवो देहान्तरावाप्तौ सोऽयमित्येव मा ग्रहीः ॥२०३॥ अवर्णौ युगपत् प्राप्ता - विवर्णेनाऽनुरुध्यतः । त्वमेव ऋमित्वे तु ऐकारत्वाय सज्जतः ॥ २०४॥ नैकारादिचतुष्कस्य ह्रस्वात् केचन मन्वते ॥२०५॥ वर्णे दीर्घमप्येके वारयन्ति निरंकुशी: (शाः) ॥ २०६ ॥ आकृत्या सिद्धिरिति चे- दैत औतश्च फल्गुता । त्र्यंशतायाः प्लुतत्वं स्यान्न प्लुतो लिपिगोचरः || स्थानसंख्या प्रमाणं चे-दाकाराद्यवमाननम् । अनुनाशिक- वानां च कादिभ्योऽधिकता भवेत् ॥ आदिं विना न मध्यत्वं नेदुत् प्रतिपदं पुनः । वंशानुपातिनी मात्रा ह्रस्वाः पञ्च तु रूढितः ॥ एकादिवर्षप्रमिताः क्रमेण कस्यापि बाला लघु-मध्य-वृद्धाः । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33 अन्यस्य ते व्यादिशरत्प्रमाश्चेत् कश्चेतनावान् बलवद्विवादी ॥ शक्तितावत्तया बालानुग्रहे दीर्घनामनि । भूपति: सिंह इतिवत् समासो लुप्तसंज्ञकः ॥२०७|| लतः प्रतिमा-सन्धी, भवतो यदि दीर्घतैवैति । पाठविभङ्गोऽपरथा वियौवनं जीवितं वा ॥ लु-लकारः लकारः। अपि च-सिद्धो वर्णसमाम्नायः । तत्र चतुर्दशादौ स्वराः। दश समानाः। तेषां द्वौ द्वावन्योन्यस्य सवर्णौ । पूर्वो हुस्वः । परो दीर्घ इत्यादि ॥२०८।। इति परिसमाप्तं संस्कृताख्यं सरस्वतीधर्मः ॥ अतः परं प्राकृतं भविष्यति ॥ नमः पार्वाय ॥ ऋ -लु वर्ण-ङ-ञा ऐ औ तालव्य-श-शिरस्य-षौ । )( क = पौ प्लुत-विसौ च प्राकृते न चतुर्दश ॥ अ आ इ ई उ ऊ ए ओ क ख ग घ च छ ज झ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व सह अं ॥२१०।। सर्वोदाहरणस्य - ठाणं झाण[फालस्स मुत्ति-पुढवी-मेहं खमा-मुं( मं? )डिओ जं देवं थुइ मंगलेण मणसा छत्ताइ-भूसंचियं । वीरं वंदइ धम्मकप्पतरुणो बीयं व मत्तू णतं ( सत्तूणतं ?) घोरन्नागमकंटकक्खयकए पाए वयं वंदिमो ॥२११।। ए-ओ लघुतयाऽपीष्टौ ; . एवं मए पुढे महाणुभावे इणमब्बवी कासर्वे आसुपन्ने ॥२१२।। बिन्दुमन्तावि-ई तथा । अड्डााइज्जेहिं राइदिएहिँ पत्तं चिलाईपुत्तेण ॥२१३॥ अव्यञ्जनेऽप्यनुस्वारः ; स-गणहराणं च सव्वेसिं ॥२१४।। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 व्यञ्जनं त्वादि-मध्यगम् ।। इदमपेक्ष्यैवैके - एकाकिनोऽपि राजन्ते सत्त्वसारा: स्वरा इव । व्यञ्जनानीव निःसत्त्वाः परेषामनुयायिनः ॥२१५।। स्व-स्ववर्गपरौ स्यातां , ङ- जौ ; - ङ्कङ्खङ्ग छ । पङ्को । सङ्खो । अङ्गणं । लवणं ॥ ञ्च [ञ्छ ञ्ज] ज्झ । कञ्चओ । लञ्छणं । अञ्जियं । सञ्झा ॥२१६॥ ऐ-औ च कुत्रचित् ।। कैअवं । कौरवा ॥२१७॥ र-हाभ्यां ङ-ब-यैरूना द्वित्विनः षट् च विंशतिः ॥ क्क क्ख ग्ग ग्घ च्च च्छ ज्ज ज्झ टू टू इ ड्र पण त्त त्थ द्द द्ध न प्प प्फ ब्ब ब्भ म्म ल व्व स्स ॥ विमुक्को भवदुक्खाओ निसग्गजिणवग्घतं । अच्चंतलच्छीविज्जाणं मज्झे वट्टसि सुट्टिओ ॥ अगड्डरिय सीलड्डि-पुण्णो जुत्तत्थ सद्दवी । सुद्धविनाणसिप्पो सि पप्फुडं सुमहब्बलो ॥ निब्भरं धम्ममल्लो सि सव्वस्स हियदेसओ ॥२१८।। शौरसेन्यां त्वमी एव यकारेणाऽधिका मताः ।। एवकारोऽद्वित्वानामविशेषार्थः ॥ क्क क्ख ग्ग ग्घ च्च च्छ ज्ज ज्झट्ट टु ड ढ ण्ण त्त स्थ द्द द्ध न प्प प्फ ब्ब ब्भ म्म य्य ल्ल व्व स्स ॥ सक्कारं । मुक्खो । वग्गो । अग्यो । मुच्चदि । गच्छिदूण । पज्जलं । झुज्झदि । वर्ल्ड । चिट्ठदि । गड्डहो । अड्डो । कण्णो । पत्तो । तित्थं । मद्दणं । मुद्धे । संपन्ना । सप्पो । भिप्फो । दुब्बलो । गब्भो । सुकम्मं । अय्यउत्त । सल्लो । अपुव्वो । तस्स ॥२१९।। विम बब्ध मज्झ हद Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35 सर्वोदाहरणस्य - जो कज्जं न करेदि रीदि-विसढं मुच्छा-ठिदी-खेडओ धम्मे जेण पवट्टिदा स (?) भगवदा बोही थिरप्पा फुडं । सच्चे जस्स जसो न झिज्झदि पहू तेलुककल्लाणवी सो सिग्धं हिदहेदुदिक्खदयिदो भावच्चिदो भोदु मे ॥२२०॥ य-लयोः पुरतो हः स्यात् ;यह । ल्ह ।। तुम्ह । ल्हिक्कइ ॥२२१॥ ण-म-नां स्वेऽपि साम्प्रताः ।। ण्ट । ण्ठ । ण्ड । ण्ढ । ण्ण । ह ॥ कण्टओ । उक्कण्ठा । कण्डं । सण्ढो । पुण्णो । तण्हा ॥ न्त ।न्थ ।न्द ।न्ध । न । न्ह ॥ अन्तरं । पन्थो । चन्दो । बन्धवो । वन्नो । मज्झन्हो । म्प । म्फ । म्ब । म्भ । म्म । म्ह ॥ व्युत्क्रमात् म्व । गुम्पइ । गुम्फो । लिम्बो । रम्भा । अम्मो । तम्वं । अम्हे ॥२२२।। दकारस्य भवेद् रेफ: ;द। चंद्र ॥२२३॥ चकारस्य मतो म् (?) ॥ च्म । रुच्मी॥ प्राकृत-शौरसेन्योरिति वर्तते ॥२२४॥ इति परिसमाप्तं प्राकृतं सरस्वतीधर्म शौरसेनी च ॥ अतः परं मागधिकं भविष्यति ।। नमः पार्वाय ॥ जिया तालव्य-शोर्भावा-दभावाज्ज-र-दन्त्यसाम् । मागध्यामवशिष्यन्ते पञ्चाग्र-दशभिविना ।। अ आ इ ई उ ऊ ए ओ । क ख ग घ , च छ झ , ट ठ ड ढ ण , त थ द ध न प फ ब भ म , य ल व ; श , ह , अं )( क ॥२२६।। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 सर्वोदाहरणस्य - यं पत्ते मघवं फणी खु कलुणासिंगालभूदं झयं ये शम्मत्तघडे तथा छलमढा दुट्ठा य हीलन्दि यं । ये शव्व )( किय लोश प )( क विमुहे यम्हा पवट्टा नया शे मिश्चत्त चलित्तबंधलहिदे भावत्थदे होदु मे ॥२२७।। द्विता षड्विंशतिर्दन्त्य-स-ञाप्ति-श-ट-हानितः ॥ क्क क्ख ग्ग ग्घ च्च च्छ ज्झ ञ ट्ठड्डड्ढ पण त्त थ द ध न प्प प्फ ब्ब ब्भ म्म य्य ल्ल व्व स्स ॥ पक्के । तिक्खे । अग्गे । शिग्घे । शच्चे । लच्छी । बुज्झे । पुञा । लढे । तुड्डुदि । बुड्डे। पण्णा । शुत्ते । शत्थे । मुद्दा । बद्धे । अन्ने । लुप्पी । पष्फोडिदे । दुब्बोही । डिब्भे । शम्मे । अवय्य । कल्लं । शव्वं । भगदत्तस्स ॥२२८॥ च-वौ तालव्यश: स्यातं(तां?); - श्च श्व । उचलदि । तवश्वा मे जणणी ॥२२९।। टकारः शीर्थ्य-षः पुरः ॥ ष्ट । चिष्टदि ॥२३०॥ दन्तीयसस्य क-ख-या ण-त-पाः फ-म-साः ॥ स्क, स्ख, स्ट, स्ण, स्त, स्प, स्फ, स्म, स्स ॥ मस्कली । पस्खलदि । पस्टे । विस्णुं । उवस्तिदे । बुहस्पदी । निस्फलं । उस्मा । देवदत्तस्स ॥ उचितशेषास्तु -ङ्कलङ्ग छ च्म च्च छ ज्झ ण्ट ण्ठ ण्ड ण्ड द्न्त न्थ न्ध म्प म्फ म्ब म्भ म्व म्ह यह ल्ह ।। शङ्के । शङ्के। इत्यादि ॥२३१।। इति परिसमाप्तं मागधीनाम सरस्वतीधर्म ॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37 अतः परं पैशाचिकं भविष्यति ॥ २३२ ॥ नमः पावय | पैशाच्यां द-ण हीनत्वात् षोडशानामशं ( सं ? ) चरः || अ आ इ ई उ ऊ ए ओ । क ख ग घ च छ ज झ ट ठ ड ढ त थ दूध न प फ ब भ म य र ल व सह अं ||२३३|| सर्वोदाहरणस्य - कम्मानं घन गंठि कट्टन कलावूढो कुठारव्व जो सज्झायस्स खने थुवंति मुनिनो पुच्छा ( ? ) पतीपो त्ति जं । जो पासंडिक - भिप्फ-वात- विजयी सो बंभचेरूद्धरं मग्गं पास [प] हू पयच्छतु सता लोगग्गचूजामनी ||२३४|| त्रपदे त्र - ञकाराते द्वित्व - षड्विंशतिर्भवेत् ॥ क्क क्ख ग्गग्घ च्च च्छ ज्ज ज्झ ञ्ञ दृट्ठड्ड ड्ढ त्त त्थ द्ध न्न प्प प्फ ब्ब ब्भ म्म य्य ल्ल व्व स्स ॥ पञ्ञा । पठिय्यते । इत्यादि । चंत्रं ॥ उचितशेषास्तु - ङ्कङ्ख ङ्गङ्घ च्म ञ्च ञ्छ ञ्ज ञ्झ ण्ट ण्ठ ण्ड ण्ढ न्त न्थ न्द न्ध म्प म्फ म्ब म्भ म्व म्ह यह ल्ह ल्ह( ? ) || पङ्के इत्यादि ॥ २३५|| तृतीय- तुर्यान्नैवाख्यु-श्चूलापैशाचिके पुनः ॥ अ आ इ ई उ ऊ ए ओ । क ख च छ ट ठ त थ न प फ म य र लव सह अं ॥२३६॥ सर्वोदाहरणस्य - मोहं फेटति चो कसाय कटनो तूरो कुनप्पा चयी सक्के पूचति चस्स पुव्वपटिमं तेवाथिरा चो मुता । चो काठं परतुक्ख- फंचि - फकवं वानी - सुथा- निच्छरो सामी अतिजिनेसलो तिसतु मे थम्मोतयं मंकलं ॥ परेषां प्रणिषिध्यते नादियुज्योरमी अपि ॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 गती । घम्मो । जीमूतो । झच्छरो । डमलुको । ढक्का । दामोतरो । धम्मो । बालको। भकवती । नियोजितं इत्येकेषाम् ॥२३८॥ व्यात्मता गादिनवकोनत्वात् सप्तदशसु ॥ कक्ख च्च च्छ अदृदृत्त त्थ न प्प प्फ म्म य्य ल्ल व्व स्स ॥ सक्को । सुक्खं । इत्यादि । उचितशेषास्तु -ङ्कङ च्म ञ्च छ ण्ट ण्ठ न्त न्थ म्प म्फ म्व म्ह यह ल्ह । पङ्के इत्यादि ॥२३९।। इति परिसमाप्तं पैशाचिकं तच्चूला च सरस्वतीधर्म ॥ अत: परमपभ्रंशो भविष्यति ।।२४०।। नमः पार्वाय ॥ अपभ्रंशे त्वृत्रन्यासाद् द्वादशोनितसंग्रहः ।। अ आ इ ई उ ऊ ऋ ए ओ । क ख ग घ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व स ह अं ॥२४१॥ सर्वोदाहरणस्य - जं भवियण फासइ निम्मल-दंसण-सुग्घे बुबइ चरित्त सुहं जं तृणसम जाणइ पर घर लच्छी जं देखइ नहि मूढ मुहं । थिर धम्म न छंडइ कटरिन वग्गइ जं सुविसुज्झइ सीलबलं जगजीव-दिणेसर सिवपहवेसर इइ सव्वं तुह भत्तिफलं ॥२४२॥ । अय्हे स्मिन् मेति वं हो नं ।। न्व ह्न । प्राइम्व । गृहेप्पिणु। अयह इति तर्हि यहनिषेधः ।।२४३॥ मतोध्ध्रः प्रादयस्तथा ।। प्र, ध्ध्र इत्यादि । प्रिय । तुद्ध । इत्यादि ॥२४४।। द्विता प्राकृतवत् ।। क्कादयः षड्विंशतिः । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 39 एक्क । सिक्खेइ । लग्गवि । सुग्घे । सच्च । उच्छंग । जज्जरि । सुज्झ । बेट्टी । दिट्टि । वड्डा । डड्ड । सुवण्ण । वत्तडी । एत्थु । महद्दुमु । दिद्ध । दिनी । धिप्पंति । निप्फलं । दुब्बल । गब्भ । छम्मुह । हेल्लि । सव्वु । सुअणस्सु ॥२४५।। न्याय्यावशेषास्तु समेष्वपि प्राकृतवदिति वर्तते ॥ समशब्दाच्छौरसेन्यादयः । ङ्क लङ्ग छ म ञ्च छ ज झ ण्ट ण्ठ ण्ड ण्ढ द्र न्त न्थ न्द न्ध म्प म्फ म्ब म्भ म्ह ल्ह ॥ पङ्क,स्सु इत्यादि ॥२४६।। व्यत्ययश्च भवेत् ॥ समेष्वपीति वर्तते । प्राकृतेऽपि ॥ स्म, ह्न । अस्माकं । गिडंति ॥ सिद्धिरनेकान्तादिति भगवानपि ॥२४७|| यत्तु लौकिकं तदशुद्धवत् निरर्गलत्वाद् , अतः परं लोकाः । यथा - कर्यो करायो भावसुं जौ जिनपूज उच्छाह । सम्यकवंत तुही मुगति गैलै सारथवाह ॥१॥ इत्यादि । 'अशुद्ध' शब्दोऽल्पशुद्ध्यर्थः ॥ मा भूदपार्थतेति ॥२४८॥ प्रकृतिः प्राकृतं चैव शौरसेनी च मागधी । पैशाचिकमपभ्रंशो वाचः षडनुपूर्वशः ।। प्राकृतस्य ता(त)द्धितप्रामाण्यात् प्रकृतिः संस्कृतमित्यर्थः ।। ___ परिसमाप्ता वाक् षडङ्गी हंसलिविश्च ॥२४९।। -x इदानीं विद्या ॥ अ इ उ ऋ ल च ए ऐ ओ औ त तः परम् । ह यं व र ल वच्चैव ङ क खं घ ग वत्ततः ॥ ब च छ झं जसम्पृक्तं ण ट ठं ढ ड संयुतम् । न त थं ध द संयुक्तं म प फं भ ब वत् पुनः ।। श ष श इति नव ते वर्गा भूतलिपौ मताः ।। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ इ उ ऋ लृ ए ऐ ओ औ । ङय व रल । ङक ख घ ग, ञ च छ झज, ण ट ठ ढ ड, न त थ ध द, म प फ भ ब, श ष स ॥ २५० ॥ एकैकवर्णोद्धारेण वियद् वाताग्निवार्भुवः ॥ व्योम १| - वायुः २। अ ए ह ङ ञ ण न म श इऐ य क च ट त प ष उ ओ व ख छ ठ थ फ ऋ औ र घ झ ढ लृ ल ग ज ड द ध ब 40 भ - भौतीयम् ॥२५१॥ - श - - अग्निः ३| जलम् ४। पृथिवी ५। ऐं नमः ॥ अकार मौलिर्मिलिताऽसि मञ्जुलं, त्वमेव मातर्विपुलामलश्रिया ॥ २५२ ॥ त्वदास्यमातंस्तुमहेतरां भृश - प्रसन्नशोचिः श्रुतदेवते ! वयम् ॥२५३॥ इवर्णनेत्रा जगतीर्विलोकसे (२५४), उवर्णकर्णे शृणु सेवकोऽस्म्यहम् । (२५५) ॠवर्ण - घोणाऽसियश: सुमार्चना ( २५६), लृवर्णगंङां (ण्डां ?) भवती जिनो गतः ॥ (२५७) मदीयमेदैद्दश नालियामला दुरूहमागः कुरु चारुचर्बणा । सपरिमिव एओ नयाविनाशात् ऊद्धर्वमधश्च ( ? ) ॥२५८॥ पटिष्ठमोदौद्विदितौष्टिचेष्टतां भवत्यरित्रासकरी वरीयसी । ॥ २५९ ॥ ब्रवीष्यनुस्वाररसज्ञया प्रियं वचः (२६०) वहन्त्यब (म्ब) विसर्गकन्धराम । वर्त्तस इत्यध्याहारः ॥ २६१ || तमोऽम्बु तर्त्तुं भजसे भुजौकुभू (ञ) ; - क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ मिति ॥ २६२ ॥ " शिवाध्वगायाश्चरणौ टु-तू तव । ट ठ ड ढ णं, त थ द ध न मिति ॥ २६३|| पण प्रसूतिः पफ कुक्षिरीक्ष्यसे; सर्वत्रोभयं दक्षिण- वामतः ॥ २६४॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न वज्रजेयाऽसि वरीढका (२६५) इहयां (?), भ-वनाभिमाहुर्मुनिलक्ष्यलक्षणा(ण)म् ॥२६६।। अनीदृशं मो रसमिद्धमेधसः ।। यामिति गम्यम् ॥२६७|| न तत्र चित्रं यदि यादि धातुमत् त्वदङ्गमुच्चावचविश्वबीजवत् । य र ल व श ष सा रा(र) साऽसृग्मांस-मेदो-ऽस्थि-मज्ज(ज्जा)शुक्राणि ॥२६८॥ हकार सुश्वासिनि धर्मधीमतां भवत्प्रसादाद् भृशमायुरेधताम् ।।२६९।। नमो भवत्यै भुवि जीवतालमे(?)ऽनवद्यविद्या मम देव्युदीयताम् ॥२७०॥ क्ष इत्यकर्माणमुपैषि पर्ययं क्रियाद् द्रुतं दारुणदुर्गतिक्षयम् ॥ अतः - अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ, अं अः। क ख ग घ ङच छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स ह लं क्षः ॥२७१॥ अर्हन्तोऽजा अथाचार्या उपाध्याया मुनीश्वराः । मिलित्वा यत्र राजन्ते तदोंकार पदं मुदे ।। . अ अ आ उ म् ॥२७२।। बीज-मूल-शिखा कार्व्य-मेकक-त्रि-त्रि-पञ्चभिः । अक्षरैरोंनमः सिद्धं जपानन्तफलैः क्रमात् ।। १ नमः २ सिद्धं । । इत्यनुवर्तते । नन्ता हन्त भवत्येको भवत्येकश्च शंसिता । शंसिता लभते कामान् नन्ता लभति वा न वा ॥३॥ ४ नमः सिद्धम् ॥२७३।। हुमर्हद्धरणाचार्यो-पाध्यायमुनिगोचरम् । ह र उ उ म् ॥२७४।। सूर्युपाध्यायमुनयः स्पृशन्त्यूंकारमादरात् ॥ उ उम् ॥२७५॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 आं जिनाऽजनुराचार्य-मुनितः प्रादुरस्तीह(स्ति ह) । अ अ आ म् ॥२७६।। अर्हद्धरणवाग्देव्यो ह्रींकारस्य निबन्धनम् ॥ हरई ॥२७७॥ आधुपान्त्यान्तिमार्हन्तो गीश्चाऽहँ पदमास्थिताः । ज्ञान-दर्शन-चारित्र-मुक्तयो भान्ति तत्र वा ॥ अ र् ह् अं ॥२७८॥ श्रींकारे श्रुत-धरणौ पद्मावत्यृषयः परम् ॥ श् र् ईम् ॥२७९।। होमर्हद्धरणादेह-वाचकर्षिजमीरितम् ॥ ह् र् अ उ म् ॥२८०॥ अर्हन्त धरणादेहै-स्तपसा हुः समाश्रितम्(त: १) ॥ ह् र् अ स् ॥२८१॥ हंसो जिनाऽजनुर्योगी श्रद्धा-श्रुत-तपांसि चेत् ॥ ह् अ म् स् अ स् ॥ अत्यल्पमेतत् । याक्षीयम् ॥२८२॥ - -x - स्वरा अ इ उ ए ओ स्यु-रोष्ट्य-बं तालवीय-शम् । मुक्त्वा व्यञ्जनजाति: स्या-दित्येवोडुलिपेर्गणः । अ इ उ ए ओ । क ख ग घ ङच छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ - भ म य र ल व ष स ह । इत्यतः - अ व क हड, म ट पर त, न य भ ज ष, ग स द च ल । घ ङ छ, ष ण ठ, ध फ ढ, ज झ थ। अ इ उ ए कृत्तिका, ओ व वि वु रोहिणी, इत्यादि ॥ नाक्षत्रीयम् ॥२८३॥ आदय: कादयो ज्ञेयाः ख-गौ घ-ङौ परस्परम् । वर्गान्तरेणाऽन्ये वर्णा मूलदेवस्य भाषिते ॥ क का कि की कु कू के कै को कौ कं कः। अग ख ङ घ ट ठ ड Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 43 ढण, च छ ज झ ञ, प फ ब भ म त थ द ध न, श ष स ह य र ल व ॥ मूलदेवीयम् ॥ २८४॥ • हंसी भौती च याक्षी च, नाक्षत्री मूलदेव्यपि । राक्षसी द्रविडी नाटी मालवी लाटि - नागरी ॥ तौरकी पारसीकी च यावनी कीरि-सैन्धवी । अनिमित्ताऽपि चाणाकी लिपयोऽष्टादशाऽप्यमूः ब्राह्म्यै दत्ता भगवता, तन्नाम्ना विश्रुताऽस्तु ॥ आदिदेवेन ब्राह्मीसंज्ञितायै पुत्र्यायिति ॥ " नमो बंभीए लिवीए" इति प्रवचनं च ॥ सर्वं सुकरमभ्यस्त - सम्प्रदायादयो यदि । आहोपुरुषिकाहेतोर्मा वक्र - जडताऽस्तु नः ॥ इति तु शब्दार्थः ॥ २८५॥ इति परिसमाप्तो यथावाप्तो लिपिनिर्देश: ॥ X – अतः परं मीमांसा भविष्यति ॥ २८६ ॥ नमः पावय ॥ शिष्यानुमोदिनी तासा-मियं पर्यायतोऽजनि : (नि) । वस्तुतोऽनादयः सर्वाः स्थावर - सवद् गिरः || नाऽऽसीत्, न भविष्यति वा समयो यत्र नाऽभूवंस्त्रसा न भविष्यति (न्ति) स्थावरा वेति ॥२८७॥ नित्यताऽनित्यताऽस्तित्व - नास्तित्वादिविशेषणैः । अनन्तैर्भारतीर्विद्या-स्तटिनीरिव भङ्गिनीः ॥ नहि विशेष्यस्य विशेषणानि संख्येयान्यसंख्येयानि वेति वक्तुं पार्यते ॥ २८८ ॥ इवर्णस्य कथं यत्वं नित्यतैकान्तमस्तु चेत् । अनित्यतैव चेदास्ते स एवार्थगमः कथम् ? ॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 दद्ध्यानय । दधि आनयेत्यर्थः ॥ मीमांसक - सौगतान्मोहः ॥२८९।। व्यतिरेकाद् भवापायौ घटस्यान्वयतः स्थितिः । यदि किं न तदाऽश्लेषि घटयोरपि तत्त्रयम् ॥ वाच्यानुबद्धं हि वाचकम् । यत्किचित् त्रित्ववच्च । अन्यथा खरविषाणादिवदवस्तुत्वमिति ।।२९०॥ रविरावियते कस्मा-ल्लोहकारत्वधीः कुतः । कस्माच्च कर्मबन्धः स्याद् वद विश्वत्रयेश्वर ! ।। 'घनयोगाद्' इति प्रत्युत्तरी(रि)तम् ॥ घन इति श्रुते मेघत्वाभ्युदयश्चेदयोघनादित्वविगमो घनत्वावस्थितिरित्यादि ॥२९१॥ आदिमध्यावसानस्थः पकार: स्वीयपर्ययैः । पवनं वपनं चैव वनपं व्यञ्जयत्यसौ । पवने यथा-पकारस्यातस्त्वाद् वपनस्योद्गमः । पवनस्य विपर्ययः साधारणवर्णसमूहस्याऽवस्थानमित्यादि ॥२९२॥ द्रव्यतः क्षेत्रत: कालाद् भावतः स्वपराश्रयात् । मिथोऽमी प्रतिपद्यन्ते हेतुमद्धेतुरूपताम् । नहि कश्चिद्धेतुरेव हेतुमानेवेत्यादितया सुवचः ॥२९३।। आग्ग(अगा)दावबलादौ चा-नुत्तरादौ प्रवर्तते । अभावो देशभावश्च सर्वभावो नकारतः ।। न गच्छतीत्यगः । अल्पं बलं यस्याः साऽबला । नास्त्युत्तरमस्मात्पर मित्यनुत्तरं सर्वोत्तरमनुत्तममिति यावत् ॥२९४॥ कुमारशब्दः प्राच्याना-माश्विनं मासमूचिवान् । कीर्त्यते द(दा)क्षिण(णा)त्यानां चौरस्त्वोदनवाचकः । न चैतन्निन्द्यम् , “वर्त्तका शकुनौ प्राचा-मुदीचां हन्त वर्तिका" । इत्यादिप्रामाण्यात् ॥२९५।। 'षड्गुरु' रिति शब्दः शत-मशीतिमाख्यत् पुरोपवासानाम् । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45 उपवासत्रयमेव तु संप्रति आ(त्या)ज्ञाप [य] त्येषः ॥ दुःषमायां संयमस्य दुःपाल्यत्वादिति ॥२९६।। घृतवाची भिषक्तन्त्रे बोधितो 'मिथुन' ध्वनिः ॥२९७।। श्रूयन्ते च परावर्ताः समस्यायामनेकधा ॥ रुचिवैचित्र्यादनुभूयते ककारादौ खकारादीनामन्यतमत्वं तैस्तैरिति ।।२९८।। सर्वासंख्यसमुद्राणां यावन्तो जलबिन्दवः । तदनन्तगुणार्थं स्या-नूनमेकैकमक्षरम् ॥ वस्तूनामानन्त्या माने(दे)वम् ॥२९९।। स्यात्पदस्यैकदेशेऽपि समुदायोपकारिता । नैकान्तभिन्नादेशा हि वपुषांश्च(चू)लिकेव यत् ॥ केली-कुशल-कल्याण-कलादिः कादिमान् गणः । विश्ववर्ती समस्तोऽपि समस्यस्त्वेकशेषतः ॥ ततः सांकेतितत्वं स्याद् विभक्तिविनिवारकम् । इत्यर्थानयनोद्योगः सर्वत्रापि विधीयताम् ॥ __ अनेकान्ततादूतति(दूती)संकेतः ॥३००। चत्वारोऽक्षरनिक्षेपाः प्रोदिताः पूर्वपाठिभिः । नामतः स्थापनातश्च द्रव्यतो भावतस्तथा ॥ एतैः सर्वस्यापि व्याप्तत्वात् ॥३०१॥ द्रव्यार्थतस्त्रयो बोध्या-स्तुरीयः पर्ययार्थतः ॥३०२।। द्रव्ये पर्ययगौणत्वं पर्यये द्रव्यगौणता ॥३०३।। विगौणं नैव मुख्यं स्या-न गौणं मुख्यवर्जितम् । उपचारानुगत्यैव गौणान्मुख्येऽतिरिक्तता ॥३०४।। अकारोऽयमिकारादेः सर्वथैवाऽऽदिमान् यदि । स जातो जायमानो वाऽगातां नामनि नाऽथवा ॥ . इष्टः प्रथमपक्षश्चेत् सामान्याद्वा विशेषतः । । नैकवति तु सामान्यं विशेषे वैरमन्यतः ॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 द्वितीयो यदि वाच्यत्व- हानेर्गगनपुष्पंता । तस्मादक्षर इत्याख्या नामाक्षरतयाऽऽदितः ॥ ३०५ ॥ असद्भूतं च सद्भूत - मिति तु स्थापनाक्षरम् ||३०६|| यत्तदाकारवत् पूर्वं ; अतः समस्या न वित्राणा ॥३०७॥ द्वितीयं लिपयः समाः ॥३०८|| मानसं वाचिकं चेति द्रव्याक्षरमपि द्विधा ॥ ३०९ || चिन्तिते मानसत्वं स्यात् ; ॥३१०॥ वाचिकत्वं तु भाषिते ॥ ३११ ॥ भावाक्षरं द्विधा देश- सर्वावरणहानितः ॥ ३१२॥ द्रव्याक्षरजमाद्यं स्यात् ; पराधारेणाऽऽत्मनिष्ठम् ॥३१३॥ परं तु प्रतिबिम्बवत् ॥ केवलज्ञानिनि परिणतम् ॥३१४॥ साक्षरत्वं निगोदानां जीवत्वादुपयोगतः । यदेषु भावचेतो हि नातीव प्रतिषिध्यते ॥ ३१५ ॥ सनिगोदीयजीवस्य जिनविज्ञातमर्मणः । अक्षरानन्तभागस्तु सर्वदैवाऽवतिष्ठति (ते) ॥ मूल्यत्वेऽनन्तजीवौघ - मूलकस्य कपर्दिका । तदेकजीवस्तन्मूल्या- ऽनन्तभागं यथाऽर्हति ॥ ३१६ ॥ सन्तोऽक्षरतया प्रायः खुंकाराद्यप्यनक्षरम् । संक्षिपन्त्यर्थयुक्तत्वाद् ज्ञानाज्ञानसमासवत् ॥३१७॥ ज्ञानं केवलिनो ब्रूयाः सविकल्पमुताऽन्यथा । आदित्वेऽवतरन्त्येता भवामि - प्रमुखाः क्रियाः ॥ अन्यत्वे दर्शनत्वं स्यात् कपिलश्चातिपूजितः । प्रमाणहानेरापत्ति-स्ततः शशविषाणता ॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वस्मरणसानन्दै - गुरूपास्तिप्रसादतः। . निरक्षरत्ववादाय देयो हन्त जलाञ्जलिः ॥३१८॥ निगोदाद्यजपर्यन्त - जन्तुभ्यो जगतोऽपि वा। . न पनीपत्यते यस्मात् तस्मादक्षरमक्षरम् ॥ न पनीपत्यते - नाऽत्यन्तं पततीत्यर्थः ॥ अत एव कथंचिद् भेदः कथंचिदभेद इति सार्वत्रिकम् ॥३१९।। यदृच्छा-वर्णसंयोग-कात्ामृतमहोदधिः । नैगमादिनयोात्मा चिरं जीयाज्जिनागमः ॥ स्वरादयोऽकारादयश्चोभये वर्णा इति नैगमः ॥१॥ स्वरादय एवेति संग्रहः ।२।। अकारादय एवेति व्यवहारः ।३।। तात्कालिका एवेति ऋजुसूत्रः ।४॥ - - वर्णः अक्षरमित्येवं ध्वनय एवेति शब्दः ।५।। भिन्नो वर्णो भिन्नमक्षरमिति समभिरूढः ।६।। वर्ण्यमान एव वर्ण इत्येवमेवंभूतः ७॥ अस्यातोऽमी अन्तर्गडवः ॥३२०॥ इति शुश्रूषिता किञ्चिद् यथावद्वर्णमातृका । हेयोपादेयविज्ञेय-रहस्याभ्याससिद्धये ॥ अन्यत्र केवलि-पूर्विभ्यः प्राग्भारस्य दुस्तरत्वात् । नयानपद्रोहो यथावत्त्वम् ।१॥ __ अथवा साध्विदमुच्यते - तीर्थे ज्ञातसुतस्य सर्वजनतानन्दैकहेतोरियं या शाखाऽप्रथि पार्श्वचन्द्रनिता तत्राऽभवन् पाठकाः । ये रामेन्दुपदा जिनेन्द्रपदवीपाथेयभाजोगत - च्छिष्यस्याऽक्षयचन्द्रवाचकमणेः पादप्रसादोऽवतात् ॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 यदेवं - १ नमः श्री मच्चरमपरमेश्वरतीर्थसमर्थितपरमार्थपणकोटिमत्कौटिकगणाऽतन्द्रचान्द्रकुलविपुलबृहत्तपोबिरुदपूरितपरभागनागपुरीयावदातविदित मुत्पीवपार्श्वचन्द्रशाखासुखाकृत-सुकृतिवररामेन्दूपाध्यायपदारविन्द मकरन्दमधुकरवाचकपदवीपवित्रिताक्षयचन्द्रचरणेभ्यः ॥३२२।। किं च - संसारार्णवमग्नमादृशजनप्रोद्धाररज्जूपमाः प्रेष्ठाचारविचारविश्रुतयशश्चन्द्रोदयस्फूर्तयः । ये ते विभ्रमभीतिभञ्जनभुजावीर्यप्रवीरा वरं देयासुर्गणिरक्तल ?)चन्द्रगुरवः कारुण्यलीलायितैः ॥ जगद्देशादेरपि कथंचिज्जगत्त्वम् । अन्यथा तीर्थकरादीनामापि जगदीश्वरत्वानुपपत्तेः ॥३२३॥ नन्दन्तु निर्वैरस्वभावा महामुनयः । तथाविधानां नामनिर्देशस्याऽप्युत्तमत्वात् । इदमपेक्ष्यैवेदम् - कृपापीयूषापात्राणां निश्शेषसुखशाखिनाम् । विद्याचरणचारूणां दासोऽस्मि महतामहम् ॥३२४।। परिसमाप्तं मातृकाप्रकरणं तदिति ॥श्री।। आसीदत्र महामुनिश्च विजयानन्दाख्यसूरीश्वरः श्रीलक्ष्मीविजयाह्वयश्च सुगुणस्तस्याऽजनि शिष्यकः । तच्छिष्यस्य मुनीशहंसविजयस्यात्रोपदेशेन च ग्रन्थोऽयं लिखितो बभूव भविनां मोक्षाख्यशौघदः ॥१॥ लिषीतं कला गोपीनाथः ॥ श्रीरीनाथ मुकाम नागोर ।। समत १९६६ रा मीती फागुण बद १४ लिखी छै। मुकाम भडोदामध्ये। मुनी माराज संपतविजेजी ग्रंथा ग्रंथ ५५० ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानधर्मकृत दामनककुलपुत्रक रास - कल्पना के. शेठ प्रास्ताविक : प्राचीन समयथी मानवने कथा के वार्तामा रस रह्यो छे. आना परिणामरूपे विश्वमा भिन्न भिन्न देश, भाषा, समाज अने संस्कृतिना आरंभना समयथी ज कथा के वार्ता लखाती आवी छे. भारतमां छेक ऋग्वेदथी शरू करीने ब्राह्मण, आरण्यक अने उपनिषद्काल सुधी आq साहित्य लखायेलुं मळी आवे छे. संस्कृत-प्राकृत साहित्यमां तो 'बृहत्कथा', 'वसुदेवहिंडी', 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह', 'कथासत् सागर', बृहत्कथामंजरी', 'वैतालपंचविशति', 'पंचतंत्र', 'हितोपदेश' इत्यादि अनेक कथासंग्रहो मळी आवे छे. प्राचीन अने मध्यकालीन गुजराती साहित्य पण आ वारसो साचवे छे. एना फळस्वरूपे इ.स.नी बारमी सदीथी आरंभीने आज सुधी आवी अनेक कथाओ जैन अने जैनेतर कविओ वडे लखाइ छे. अत्रे आवा कथा साहित्यनी एक लघु कृति 'ज्ञानधर्मकृत-दामन्नककुलपुत्रकरास' संपादित करीने आपवामां आवे छे. रास साहित्य ए समग्र प्राचीन गुजराती साहित्यनो एक प्रकार छे. प्राचीन मध्यकालीन गुजराती साहित्यनो घणो मोटो भाग 'रास' नामे ओळखाती रचनाए रोकेलो छे. रास प्रकार ए अपभ्रंशभाषानो गुजराती भाषाने मळेलो वारसो छे. सामान्य रीते रास साहित्य १२मा सैकाथी १८मा सैका सुधीना गाळामां विशेषपणे मळी आवे छे. प्राचीन मध्यकालीन गुजरातीमांथी मळी आवतुं रास साहित्य अत्यंत विशाळ छे, अने भाषा विकासनी दृष्टिए, इतिहासनी दृष्टिए तेमज साहित्य स्वरूपनी दृष्टिए तेनुं घणुं ज महत्व छे. रासनां एकथी वधु प्रकारो हतां. रास गेय हता अने नृत्यमां पण तेनो उपयोग थतो हतो. आवा अनेक रासोमांना महद् अंशे रासो हजी अप्रगट अने हस्तप्रत स्वरूपे ग्रंथभंडारोमां सचवायेला मळी आवे छे. अत्रे एवा एक अद्ययावत् अप्रकाशित ज्ञानधर्मकृत 'दामन्नककुलपुत्रक रास'ने संपादित करी प्रस्तुत कर्यो छे. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___50 50 प्रतवर्णन अने संपादन पद्धति उपर जणावेल कृतिनुं संपादन लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अमदावादना मुनि पुण्यविजयना हस्तप्रत भंडारमाथी प्राप्त एक मात्र प्रत परथी करेल छे. आ प्रतनो क्रमांक ३८०९ छे. प्रतमां कुल्ले चार पत्र छे. पत्रनु कद २६.० x ११.५ से.मी छे. पत्नी बन्ने बाजु २.५ से.मी. नो हांसियो छे. प्रत्येक पाना पर १७ पंक्ति छे. कुल्ले १३६ कडीओ छे. पातळा कागळनी आ प्रत देवनागरी लिपिमां काळी शाहीथी ग्रंथकारे पोते लखेली - स्वहस्ताक्षर प्रति छे. पाठ सुधारेलां छे. पत्रनो क्रमांक जमणी बाजुए हांसिया मां दर्शाव्यो छे. आरंभमां भले मींडु कर्या पछी कृतिनो प्रारंभ करेलो छे. अने अंतमा 'इति दामनककुलपुत्रकसंबंधोयं' एम लखेलुं छे. प्रतनो लेखन सवंत् मळ्यो नथी. पण रचना संवत 'सत्तरइ सइ पइत्रीस समइ' अर्थात् १७३५ मळे छे अने स्वहस्ताक्षर प्रत होवाथी तेज समय लेखननो होवानुं अनुमान करी शकाय. एक मात्र मळेल प्रत परथी प्रस्तुत कृतिनुं संपादन कर्यु छे तेथी प्रतनो पाठ ग्रंथपाठ तरीके लीधो छे. क्वचित् लेखनमां थयेल दोष सुधार्यो छे. काव्यना कर्ता : ज्ञानधर्म काव्यना कर्ता के कविनाम के गुरुपरंपरा विषे काव्यना अंतिम भागमां श्रीखरतरगच्छ दिनकरु ए , युगवर श्रीजिनचंद्र वि० रीहड वंसई परगडउ ए , जिण प्रतबोध्या नेरंद्र १२८ वि० तासु सीस मतिसर गुरु ए , पुण्य प्रधान उवझाय वि० तासु सीस सुमतिसागर भला ए , पाठक पंडितराय १२९ वि० साधुरंग वाचकवरु ए , सकल शास्त्र प्रवीण वि० तासु सीस जगि जाणीय ए , पाठक श्रीराजसार १३० वि० Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 51 तासु सीस ईण परि भणई , ज्ञानधरम हितकार वि० सत्तरई सई पईत्रीस समइ , विजयदशमि रविवार १३१ वि० शांतिनाथ सुप्रसादथीए , रचीयउ ए अधिकार वि० राजई धर्मसुरिंद नइए , रचीया खंभात मझार १३२ वि० मळता उल्लेख परथी कृतिना कवि खरतरगच्छना युगवर श्रीजिनचंद्रनी परंपराना पाठक राजसारना शिष्य ज्ञानधर्म छे. कृतिमां प्राप्त उल्लेख परथी आ काव्य रचना सवंत १७३५(इ.स. १६७९)मां खंभातमां थइ छ एम कही शकाय. आ कृति सिवाय ज्ञानधर्मे अन्य कोइ कृति रची होवाना उल्लेख मळ्या नथी. काव्यनो बंध एकसो छत्रीस (१३६) कडीना आ काव्यनो पद्यबंध मुख्यत्वे दुहा-चोपाई अने देशीओनो छे. कवि, शब्द प्रभुत्व मध्यम कोटिनुं छे. प्रास प्रमाणमां ठीक सारा मळे छे. १. जैन गूर्जर कविओ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 राजसारशिष्यज्ञानधर्मकृत दामनककुलपुत्रकरास स्वस्ति श्री मंगलकरण , प्रशमी पास जिणंद श्रुतदेवी सद्गुरु नमुं, टालई भव-दुख-फंद. श्रीजिनवर ईम उपदेशई , मनवंछित दातार, धरमामाहि प्रधान छई , विरतिधरम श्रीकार. तिणि उपरि दृष्टांत , ए सुणज्यो चतुरसुजाण , कुलपुत्रक दामनकई , जिम कीधउ पचक्खाण. ॥३ तासुं कथा हु वर्णवू , सांभलिज्यो सहु कोय , पाप-तिमर दूरइ हरइ , दिनकर-कर जिम सोय. ॥४ ढाल-१ चउपइनी जंबुद्वीप एहिज विख्यात , दक्षिण दिशा तिहां भरत कहात, गजपुर नामई नगर उदार, ऋद्धि तणउ जिहां को नही पार. ॥५ सुनंद तिहां कुलपुत्रक एक , वसइ विचक्षण अति सुविवेक भद्रक नइ सुविनित प्रवीण , सकल गुणे संपन्न न हीण. ६ जिनदासक श्रावक छई तसुमित्र , धर्म-बुद्धि करि गात्र पवित्र , जिनधर्मी गुरुभक्त दयाल , त्यागी भोगी नइ चउसाल. ते बेहुनइ अधिक सनेह , चित्त एक जूजइ देह , दंभरहित ते पालइ प्रीति , उत्तम-कुलनी एहि ज रीत. ॥८ इण अवसरि उद्यान मझार , समवसर्या गिरूआ गणधार , धर्मधोष नामई गुणवंत , ज्ञान क्रिया सोभित उपशांत. ॥९ दशविध साधु धरम जे धरई , सर्व जीवनी रक्षा करई , क्रोधादिक कीधा सहु दुर , सतरभेद संयम भरपुर. ॥७ ।।१० Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 53 मनशुद्ध भावना भावई बार , छंडई पातक भेद अढार , तप जप करि साधई शिव-पंथ , निरमम निरहंकार निग्रंथ. ॥११ मधुकरनी परि ल्यई आहार , दोष लिगावइ नहीय लिगार , साधुधरम सुधा प्रतिपाल , जिण वांद्या जायइ जंजाल. ॥१२ एहवा देखी नयणे साध , ते पाम्या बे हरख अगाध , चालउ ए मुनीवर वंदीयइ , सुधउ समकित लहीस्युं हीयइ. ॥१३ दूहा देखीनइ आव्या तिहां देइ प्रदक्षिण तीन , चरण-कमल प्रणमी करी , ध्यान धरइ लयलीन. ॥१४ उचित ठाम जोइ करी , बइठा सनमुख आवि , धरम-मारग काइ उपदिशउ , गुरजी इण प्रस्तावि. ॥१५ ढाल-२ (आप सवारथ जग सहरे , एहनी) उपदेश भाखइ साधुजी , करउ मांसनउ परिहार, जीवां तणउ ए पिंड छइ , ए भाख्यउ रे भगवंत विचार. ॥१६ सांभलउ भवियण हित भणी रे, ए तउ विरूपउरे रसनउ अभिलाख ए सेव्यइ जीव दुख लहइ रे , एम बोलइरे गुरु सूत्रनी शाख. ॥१७ ढाल-३ (सांभलउ भवियण हित भणी रे . . . . ए आंकणी) ठाणांगसूत्र मांहे कह्या , गति नरगना हेतु च्यार जिहां अशुभ आउखउ लहइ , वेदन रे जीव विविध प्रकार. ||१८.सां. Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अति घणा आरंभ जे करइ, परमांस भक्षण वलि करइ, संवेगरस मनमां वस्यउ, अभिग्रह लीधउ एहवो " तिण समई तिहां किण प्रगटीयो, हाहाकार हियउ तिहां, छठा अरउ सरिखउ थयउ, प्रेम-भाव सहु माठा पड्या एहवइ घरणी इम भणइ, खंजनी पर बसी रह्यो , उद्यम विना किम चालिस्य ई, सरवर तटइ जइ माछला > , एहवा वयण सुणी करी, परजीव आतम सम अछई, प्रिय तणा वचन सुणी करी, वंच्यउ तुमइ रे वरतीये, 54 मूर्छित परिग्रहमांहि वध त्रस जीव हो इंद्री पांचाहि . ।।१९.सां गुरुवचन सांभलि चित्त, न करूं वध हो पर आप निमित्त. ॥२०. सां कल्पांत सम दुक्काल, माल मुलक तिहां खाधा ततकाल. ।।२१. सां जन करई मांसनउ भक्ष, जाणे माणस हो राक्षस परतक्ष. निज कुटुंब मेटी भूत, पालिस किम हो घरना पूत. ।।२२.सां ।।२३.सां आजीविका सुणि कंत, लेइ आवउ हो खावां निश्चित. ।।२४.सां बोल्यउ तिहां ततकाल, तिण न करूं हो हिंसा विकराल. ।। २५.स , बोली प्रिया तब वयण : धूतारा रे ते नहीं तुझ सयण. ।।२६.सां. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55 ए कुटुंब दीन दयामणउ , भोजन विना किम प्राणनी , अहम प्राण छुटइ वल्लहा , मुहडउ दिखाडिस लोकमां , भरतार कथन करई नही , शाला कहइ तटकी तबई , ते स्वजन नउ प्रेर्यउ थकउ, मीन ग्रहण ऊंडई जल तिहां देखी कृपा नहीं कांइ , धरवानी हो सद्दहणा थाइ. ॥२७.सां. किम लाज रहिस्यइ तुझ , किम करिनइ हों ते कहि तु मुझ. ॥२८.सां. आग्रह कीयो प्रिया जोर , माणस छई हो तुं अथवा ढोर. ||२९.सां. दह गयउ जलनइ तीर , जान नाखइ हो धीवर जिम वीर. ॥३०.सां. भर समुद्र सिंधु मझार , तडफडता हो मच्छ लाख हजार. ।।३१.सां. परतक्ष देखी पाप जीम पामइ हो भव भाव संताप. ॥३२.सां. दुक्खीया देखी मछ , ए कारिज हो किम किजइ तुच्छ. ॥३३.सां. दूहा तिणि दिन संध्याकाल , . चाल्यउ लेइ जाल. ॥३४ नदीयां मिलइ जीम एकठी , तिम जालमांहि आवी पडई , मनमांहि अनुकंपा वसई , विण भोगव्या छुटई नहीं , ततकाल जलमांहि नांखीया , निज कुटुंब सुखनइ कारणइ , पाछउ फिरि आयवउ घरे , बीजइ दिन प्रेर्यउ थकउ, Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 अनुकंपा वसि ऊभउ द्रहनई कुल स्वजन कुटुंब अनेक कहउ पीण हिंसा दुख मूल. ॥३५ वाधइ व्याधि कुपथ्यनी दुख पामइ जिम जीव तिम हिंसा करी आतमा परभवि पाडइ रीव. ॥३६ इम चीतवि आव्यउ फरी त्रीजइ दिनि गयउ जाम जात पड्या मच्छ काढतां मुडी पाख इक ताम. ॥३७ आव्यउ घरे ऊतावलउ तिहां तोडी मच्छ-जाल , कुण देखइ दुख नरकना परिजन काजइ आल. ॥३८ सीख करी सह कुटुंबसु अणसण कीधउ सुनंद आऊखउ पूरी कीयो पालो धरम अमंद. ॥३९ ढाल-४ (चूडलइ जोवन जिलि रहीयो , एहनी) तिहाथी चविनइ ऊपनो देश मगध सुखकार , राजगृह नामइ भलो पत्तन भरत मझार. ए फल देखउ धरमनउ पाम्यउ छइ परलोक , धरम थकी सुख संपनउ हरि गयउ दुख सोक. ए फल देख उ धरम नउ, ए आंकणी. राजा राज करइ तिहां नामइ श्रीनरवर्म तेजइ करि दिनकर समउ भाजि गयउ असि भर्म. ॥४२.ए. वसइ तिहां व्यवहारीया धनवंत सगला लोक इहक आवइ याचिवा आपइ सगला थोक. ॥४३.ए. एक तिहां व्यवहारीयउ नाम अछई मणिकार , मणि माणिक सोना तणउ नहि को तेहनई पार. ||४० ॥४१ ॥४४.५ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घरि घरिणी छइ तेहनइ विस्तरीय यश जेहनउ आवी तसु कुक्षि उपनउ, संपूरण दिवसे थ कुटुंब सहु मेली करी, माबापना मन हरखीयां चंदकला जिम दिन प्रतइ पिता मनोरथ पूरतउ हुयउ वस्तर आठनउ प्रगटी तेहवइ तेहनइ खबर थइ दरबारमां वृत्ति करउ एहन घरे मात पिता बांधव सहु अनुक्रम क्षय पाम्या तदा राउ दामन्नक एकलउ कुंकर कृत विवरइ करी हिव पुरमां भमतउ थकउ रे, धरि धरि भिक्षा मांगता रे तुम्हे जोवउ रे जोवउ पूरव पुन्य तणइ उदइ 57 सुयशा नाम अनुप परिमल कुशम सरुप. उत्तम जीव सुनंद जनम्य पूनिम-चंद. दामन्नक नाम दीध मंगल कारिज कीथ. अनुक्रम वाधउ बाल, लोचन भाल विशाल. थयउ कलान उधार घरे भयंकर मारि. राजा सांभली वात न हुवइ लोकनउ घात. दूहा सगा-सयण कुटुंब जिम दूरवातइ अंब. पूरव पुण्य प्रभाव नाउ देखी दाव ढाल - ५ (पारधियानी) ।।४५. ए० ॥४६. ए० ॥४७. ए० ॥४८. ए० ॥४९. ए० ॥५०. ए० ॥५१. ए० ॥५२. ए० भूख करी पीडाय रे बालक ते, त्रिपति दुहेली थाय रे बालक ते. ॥५३ अचरिज एह, बालक ते लहीयइ लाछि अछेह रे . . बा० ॥५४ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 शेठ एक तिहां किण वसइ रे , आस्या घरिनइ आवीयउ रे, तिण अवसर तिहां विहरता रे, करइ अभिग्रह नवनवा रे, मुनिवर बेहु गोचरी रे , वृद्ध कहइ लघुसाधुनइ रे, ए घरनउ पति ए हुस्यइ रे , एक भीतिनइ अंतर रे, सागरपोत समृद्ध रे , बा० देखी मंदिर वृद्ध रे , बा० ॥५५. तु० धरता धूनउ ध्यान रे , बा० चाढइ संयम-वान रे , बा० ___॥५६. तु० आवइ सेठ-दुवार रे , बा० सामुद्रक अनुसार रे , बा० ॥५७. तु० बालक थयउ युवान रे , बा० सेठ सुणी वात कान रे , बा० ॥५८. तु० मनमां धरीय विषाद रे , बा० भोगवस्यइ कांइ स्वाद रे , बा० ॥५९. तु० सत्यवचन नहीं जूठ रे , बा० एहनइ करूं अदीठ रे , बा० ॥६०. तु० अंकुरनी उत्पत्ति रे , बा० पाडु तासु विपत्ति रे , बा० ॥६१. तु० भोलवइ सागर बाल रे , बा० पाडइ ते तकाल रे , बा० ॥६२. तु० वज्राहत सम ते थयउ रे, कष्ट करी धन अर्जीयउ रे , चारित्रीयइ बोल्यउ तिको रे, तउ हिव मनमां चींतवइ रे , बीज बल्यां किम होइसी रे, एह विचार चित चीतवइ रे , मोदक सखरउ आपिनइ रे , सइघउ कर्यउ चंडालनइ रे , Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 59 मातंग एक वसइ तिहां रे , मुह मांग्यउ द्रव्य आपिनइ रे , ल्यइ लाहो लखिमी तणो पूरइ वंछित आपणा ए बालकनउ वध करी रे, इम कहीनउ घरि आवियउ रे , खंगिल तिहांथी नीकलइ रे , हणवानी बुद्धइ करी रे , भावी ते तउ सही होय पामइ जीव कीया निज कर्म , नयण देखी बालनइ रे, विण अपराधइ किम हणुं रे, ए बालइ एहनो किसुं रे , कोमलतनुं कंचनसमउ रे, मो हुंती पापी नही रे , परधनलोलुप हुं थइ रे , ए करम करिवा भणी रे, बालहत्या नउ ते भणी रे, खंगिल तेहनउ नाम रे , बा० कहइ करि माहरउ काम रे , बा० ॥६३. तु० दूहा विलसइ भोग संयोग , जन्मांतर पुन्य योग. ॥६४. तु० ले आवे अहिनाण रे , बा० सागरपोत सुजाण , बा० ॥६५. तु० ढाल-६ बालकनइ ले साथि, सुणज्यो प्राणि , खड्ग लीयो निज हाथि सुणज्यो प्राणि. टाली सकइ नहीं कोय , सु० . . . . . . . आंकणी. ॥६६ ऊपनी करुणा चित्त , सु० सेठ तणउ ले वित्त. ॥६७. सु० विणसाड्यउ कोइ काज , सु० एहनइ किम हणुं आज. ॥६८. सु० अवर अधम इण काज , सु० बालक का हणुं आज. ॥६९. सु० उद्यत हुं थयउ मुढ , सु० पाप करूं किम गुढ. ॥७०. सु० Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 जीवउ बालक बापडउ रे , वींटी छेदी आंगुली रे, नाठउ वचन सुणी करी रे , नयण देखी सीहनइ रे, सागरपोतनइ गोकुलइ रे , सुनंद नाम गोकुलतणउ रे, सौम्य मूरति शिशु निरखिनइ रे , राख्यउ पुत्रपणइ करी रे , अनुक्रमि ते मोटउ थयउ रे , यौवनवय पाम्यउ तिहां रे, ल्युं विण धन ए पाशि , सु० बालक नइ कहइ नाशि. ||७१. सु० थरहर ध्रुजइ तेह , सु० नासइ मृगजीव लेह. ॥७२. सु० ततखणि पुहतो सोय , सु० अधिपति तिहां किण जोय. ॥७३. सु० हरख्यउ सुनंद सुभचित्ति , सु० संयो सुंप्यउ गोकुल वित्त ॥७४. सुः वधइ जंद(?) जयु नित्र , सु० अधिक पितानउ हित्र. |७५. सु० अंगुलिनउ अहिनाण , सु० हिव जीवित परमाण. ॥७६. सु० दूहा गोकुल देखण काजि तिहां कण सरखइ साजि. ॥७७ देखी सुंदर गात तब कहइ वीतक वात. ॥७॥ मुनि भाखी जे वाच तउ सही थास्यइ साच. ॥७१ हिव पूठइ चंडाल लइ रे , सागर देखी खुसी थयउ रे , सागर जायइ अन्यदा देखइ दामन्नक प्रतइ छेदी अंगुलि देखिनइ पूछइ सागर नंदनइ सुणी सेठ मनि चीतवइ बाह्य विभव स्वामी थयउ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तव हिव उभगवउ नहीं उधम कीधइ सर्वथा मनसुं एम विचारिनइ रे, पाछउ राजगृह भणी रे, मानव देखउ कर्म सरुप, हिवइ नंद कहइ तुम्हे रे, सेठ कहइ इक काम छइ रे, ढाल-७ (कपुर हुवइ अति उजलउ रे, एहनी) इस स्वामी इहां तुम्हे रे, लेख लिखी आपइ तिहां रे, राजगृह उद्यानमइ रे, वीसामउ तिहांकिण लीयउ रे, सूत तिहांकिण देहरइ रे, तेहवइ आवइ कन्यका रे , सागरशेठनी ते सुतारे, पूजी प्रतिमा दिन प्रतइ रे, 61 करिव कोइ उपाय कारिज - सिद्धि जि थाय. सेठ चाल्यउ तिण वार, धरतउ देख अपार रे. इणवसि छइ रंक भूपरे आंकणी उतावला किण हेत किण हीस्युं संकेत रे, ॥ ८१. मा० देख० मुझ पुत्र मूंकर एह, चाल्य उ सेठनंइ गेह रे, ॥ ८२. मा० दे० 1120. कामदेव प्रसाद, थाकउ पंथ विषाद रे, ॥८३. मा० दे० रूप- पुरंदर सोय, जाणे अपछर होय रे, ॥८४. मा० दे० > नाम विषा छइ लास मांगइ वर धउ खास रे, ।।८५. मा० दे० ८६. मा० दे० Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेहas देखी तिहांकिणइ रे, सूतउ भरनिंद्रा वसई रे, मुद्रित कागल तातनउ रे, लेख वांचइ सुंदरी रे, स्वस्ति श्री गोकुल थकी रे, समुद्रदत्त सुतनई लिखई रे, विष देज्यो नर ए भणी रे, रखे विलंब करउ इहां रे, वांची ते पत्र शेठ - पुत्रिका रे, विष शब्दइ कानो दीयउ रे, कागल बीडी तातनउ रे, हरख धरी आवी घरे रे, सूत ऊठी सज थई, आपई सागरपुत्रनइ समाचार वांची करी, तिणहिज दीनरउ थापयीउ 62 दामन्त्रक गुणवंत, मनमोहन दीसंत रे, बाला देखी पास, प्रगट वचन परकाशि रे, श्रेष्ठी सागरपोत इणि वातइ सुख होत रे, अंजन शलाका लेइ, देज्यो विषा . · ८७. मा० दे० वांची लेख तुरत, 'वात राज्यो चित्त रे, दूहा आवई नगर मझार, ते कागल तिणवार. ८८. मा० दे० तेड्याव्या बहु विप्र लगन गोधुलक क्षिप्र. ॥८९. मा० दे० मूकी ठामो ठामि भाग्यई थास्यई काम रे, ॥९०. मा० दे० ॥९१. मा० दे० ॥९२. मा० दे० ॥९३ ॥९४ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 63 ढाल-८ (कहियुं किहांथी आवीयउ रे लाल , एहनी) समुद्रदत्त हरखइ करे ले लो , 'करइ वीवाह मंडाण रे , सोभागी. आरिम कारिम सहु कीया रे लो , काज चढ्यउ परमाण रे , सोभागी. ॥९५. दामन्नक परणइ तिहां रे लो , पुण्यइ परमाण रे सो० गोरी गावइ सोहला रे लो , कोकिल कंठवणाव रे सो० ॥९६. दा० इण अवसरि गोकुल सुणी रे लो , विवाह केरी वात रे सो० सागरपोतइ जन-मुंखई रे लोल , ' खेद धरइ बहु भात रे सो० ॥९७. दा० मइ अनेरउ चीतव्यउ रे लो , थययउ अनेरउ काम , सो० लहणइथी दयणइ पड्या रे लो , थयइ किम आराम रे. सो० ॥९८. दा० दाय उपाय करीसुं वली रे लो , करस्युं एहनउ घातउ रे सो० बेटीनउ दुख अवगणी रे लो , मारणरी करइ वात रे सो० ॥९९. दा० रौद्र-ध्यान धरतउ थकउ रे लो , आवइ खंगिल गेहरे सो० । मारा मारी तुं ए सही रे लो , मुंह माग्यउ द्रव्य लेह रे सो० ॥१००. दा० पहिली मुझनइ भोलव्यउ रे लो , देखाडी अहिनाण रे सो० तिण परितुं हिव मत करे रे लो , हरज्ये एहना प्राण रे सो० ॥१०१. दा० Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 खंगिल बोल्यउ ततखिणइ रे लो , फलइ मनोरथ ताहरा रे लो , संकेत मारण करउ करी रे लो, घरि आव्यउ ऊतावलउ रे लो , परण्या देखी बेहुनइ रे लो , कुलदेवी पूज्या विना रे लो , एम कही शेठ ऊठीयउ रे लो , रवि आथमतइ चालीया रे लो, ते मुज दृष्टिए दिखाडी रे सो० मारुं तेह पछाडि रे सो० ॥१०२. दा० देवी दहेरामांहि रे सो० धरतउ मनि उछाहि रे सो० ॥१०३. दा० बोलइ शेठ वचन्न रे सो० नही पामइ सुख तन्न रे सो० ॥१०४. दा० भरीय चंगेरी फुल रे सो० करज्यो पूज अमूल रे सो० ॥१०५. दा० वल्लभ अस्त्री साथि रे सो० पूछइ झाली हाथ रे सो० ॥१०६. दा० करवा पूज रसाल रे सो० वीभक्त संध्याकाल रे सो० ॥१०७. दा० ऊपगरण आपउ मुह्य(ज्ज) रे लो० मनमां आणउ वज्ज रे सो० ||१०८. दा० अर्चा ऊपगरण ल्येउ तुम्हे रे लो, सागरपुत्र दीठा तिण समइ रे लो , जास्युं देवी देहरइ रे लो , पूज अवसर तुम्ह नही रे लो , हुं जाइसि बइसिउ तुम्ह रे लो , नवपरणीत जास्यउ किहां रे लो , दूहा उपगरण लेइ चालीयउ पूजा करीवा आवीयउ भगनी-पति बइसारि देवीय तणइ दुवारि ॥१०९ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 65 दहेरामांहे पइसता खडागइ छेदाउ सीस , खंगिल जाण्यउ मों भणी हिव करिस्यई बगसीस ॥११० ढाल-९ (केकइ वर मांगइ , एहनी) पुत्र-मरण दुसह सुणी सेठ छोड्या प्राण तुरत रे , भाग्य जाग्यउ पणमइ जे परनर विरूपउ चींतवइ ते पातइ पामइ झप्ति भाग्य जाग्यउ पलमइ ॥१११ एह वात राजा सुणी , तेडइ दामन्नक निज पास रे , भा० कीधउ सेठनउ गृहपति , हिव भोगवइ लीलविलास रे भा० ॥११२. भा० अनाबाध साधइ सदा , पुरषारथ तीने नित्त रे , भा० धरम अहोनिसि आदरइ मुख बोलइ भाषा सत्य रे भा० ॥११३. भा० न करइ खल संगति कहे दातार न शंकारइ संग रे , भा० पडिलाभइ मुनि सुधउ आहार वसन मनरंग रे भा० ॥११४. भा० सगुरु समीपइ सांभलइ सिधांततणा सुविचार रे , भा० दीन दुखी जन्मउ धरइ अनेक करइ उपगार रे भा० ॥११५. भा० इम उत्तमि मारगि चालतां एक दिन इक भट्ट सुजाण रे , भा० आवि भणइ गाथाइ इसी , तिण रंज्यउ सुणउ प्रमाण रे भा० । ॥११६. भा० Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 यथा अणुपुंखमावहता आवया सहु-दुक्खच्छपडओ जस्स गाथा अरथ विचारिनइ लक्ष तीन दिनार दे भलुं , सकल नगरलोके काउ विलसइ ए धन पारकर तेडावइ नृप शेठनइ एतलउ दान किम आपीयउ गाथा तस्स संपया हुंति । कयंतो वहइ पक्खं ॥११७ आपवीतग वात जाणी रे , भा० भाख्युं मनसुं सुहात रे भा० ॥११८ राजानइ एह वृत्तान्त रे , भा० तिण आपीइ मनुज अचीत रे भा० - ॥११९ मूंकीनइ अनुचर एग रे , भा० कहउ शेठ तुम्हे वडवेग रे भा० ॥१२० मूल थकी आप वात रे , भा० तोसुं थइ माहरउ हित रे भा० ॥१२१ कीधउ नगरी केरउ आधक्ष रे . भा० देखउ धरमना फल परतक्ष रे भा० । ॥१२२ विहरंता देस परदेस रे , भा० संभलावउ प्रभुजी देस रे भा० ॥१२३ प्रतिबुधउ तेण तिणवार रे , भा० पालइ ते निरतीचार रे भा० कहइ वृत्तान्त ते तिण समइ सांभलि राजा इम भणइ पूख पुण्य प्रभावथी, सहकउ मानइ तेहनइ इण अवसरि गुरु आवीया , दामन्नक आवी कहइ मुनिवर दीधी देसना जैन धरम तिहां पडवज्यउ ॥१२४ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 67 दूहा पूरण पाली अउखउ हुयउ महधिक दे रे, वलि नरभव पामी करी , करिस्यइ जिन ध्रम सेव रे. ॥१२५ दीक्षा लेइ अनुक्रमइ पामी केवलनाण प्रतिबोधी बहु भविजन लहिस्यइ पूनिरवाण ॥१२६ ढाल-१० (भरतनृप भावसुं ओ , एहनी . .) विरति तणा फल इम सुणीए , दामन्नक कुलपुत्र विरति धरम आदर श्रीजिनवर इम उपदेश्यो ए , फल पचक्खाण वस्त्र वि० ॥१२७ ए संबंध वखाणीयउ ए , वृत्ति आवश्यकमांहि , वि० तिणयी एनइ ए दाखव्यउ ए , मनमां धरीय उच्छाहि. वि० ॥१२८ तुं छउ अधिकउ जे कह्यउ ए , मिच्छामि दुक्कखडताम् , वि० जिण कारण छदमस्तनउ ए , चंचल वचन विलास. वि० ॥१२९ श्रीखरतरगच्छ दिनकरु ए युगवर श्रीजिनचंद्र , वि० रीहड वसइ परगडउ ए जिण प्रतिबोध्या नरेंद्र. वि० ||१३० तासु सीस मतिसर गुरु ए पुन्य प्रधान उवझाय , वि० तसु शिष्य सुमतिसागर भला ए, पाठक पंडितराय. वि० ॥१३१ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुरंग वाचकवरु ए तासु सीस जगि जाणीय ए सकल शास्त्र प्रवीण , वि० पाठक श्रीराजसार. वि० ॥१३२ तासु सीस इणपरि भणई सतरइसइ पइत्रीस समइए , ज्ञानधरम हितकार , वि० विजयदशमि रविवार. वि० ॥१३३ शांतिनाथ सुप्रसादथी राजइ धर्मसूरिंदनइ ए , रचीयउ ए अधिकार , वि० रचीया खंभात मजार. वि० ॥१३४ भवियण भणतां सुख लहइ ए , अधिकारइ पचकाणने , सुणतां कान पवित्र , वि० दामन्नकचरित्र. वि० ॥१३५ वीरत करो गुरुमुख विधे ए , भंगा गुण पंचाससू ए , धरि छंडी आगार , वि० तुं सिद्धि पलणहार. वि० ॥१३६ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 69 कठिन शब्दार्थ (कौंसमां आपेल प्रथम अंक कडी क्रमांक अने बीजो अंक चरणनो क्रम दर्शावे छे.) अउखउ (१२५,१) आयुष्य | खंजनी (२३,३३) ढोलियो, एक अदीठ (६०,४) अदृश्य करवू, मारी | प्रकारनुं बेसवार्नु आसन नाखवू गात (७८,२) गात्र, अंग अनाबाध (१३१,१) मुश्केली (बाध) | गेह (८३,४) गृह, घर वगर गोधुलक (९४,४) गोरजनो समय अपछरा (८५,४) अप्सरा, परी चंगेरी (१०५,२) फुलदानी अर्जीयउ (५९,३) कमावू, रळवू झति (१११,४) झडपथी, त्वराथी अरउ (२२,१) आरो (जैन धर्ममां त्रिपति (५३,४) तृप्ति काळना छ भाग पाडी दरेक दह (३०,२) झरणु भागने आगे कहे छे) दुरवातई (५१,४) खराब पवनथी असि (४२,४) तलवार दुहेली (५३,४) मुश्केलीथी अहिनाण (७६,२) निशानी, ओळख दीनरउ (९४,३) दिवस चिह्न ध्रम (१२५,४) धर्म अंब (५१,४) आंबो पडवज्यउ (१२४,३) स्वीकार करेलुं , आऊखउ (१८,३) आयुष्य कबुल करेलु आधक्ष (१२२,२) अध्यक्ष, नगरशेठ | परगडउ (१३०,३) प्रगटवू आस्या (५५,३) आशा पुरंदर (८५,२) इंद्र उच्छाह (१२८,४) उत्साह, उमंग बगसीस (११०,४) बक्षिस उछाहि (१०३,४) आनंद, हर्ष मुडी (३७,४) तुटवू , कापवू कल्पांत (२१,२) प्रलय मुढ (७०,२) मूर्ख, गमार कारिज (८०,४) कार्य मेटी (२३,२) मोटी कुंकर (५२,३) कुतरा रंज्यउ (११६,४) आनंदित थर्बु, खुश थर्बु Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 रीव (३६,४) चीस, पोकार | विस्तरीयउ (४५,३) फेलावं, प्रसर, रीहड (१३०,३) एक गच्छनुं नाम वीभक्त (१०७,४) वहेंचायेखें आकाश लाछि (५४,४) लक्ष्मी (दिवस अने रात वच्चे) वडवेग (१२०,४) झडपथी, मोटेथी । व्यवहारीयउ (४४,१) वेपारी वरतीये (२६,३) व्रतधारण करनार, साधु सइधउ (६२,३) संधि वस्तार (४९,१) वरस । सखरउ (६२,१) साकर, खांड वंच्यउ (२६,३) छेतर, भरमाव, | सयण (५१,२) स्वजन वाधउ (४८,२) मोटु थर्बु, विकसवं संवेग (२०,१) मोक्षनी अभिलाषा विणसाड्यउ (६८,२) नुकसान करवू सीख (३९,१) विदाय विलसइ (११९,३) वेडफवं, दुर्व्यय करवो सोहला (९६,३) मंगळगीतो, लग्नगीतो विवरइ (५२,३) छींधू, बखोल Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "सप्तदलं लेखकमलम्'' एक संस्कृत पत्र - सं. विजयशीलचन्द्रसूरि प्रत्येक भाषाने तेनुं साहित्य होय छे : विधविध प्रकारचें अने विविध शैलीनुं. आवें वैविध्य धरावतुं साहित्य पोतानी भाषाने अलंकृत ज नहि, समृद्ध पण करे छे. संस्कृत भाषाने निसबत छे त्यां सुधी तेमां साहित्यना असंख्य प्रकारो खेडाया छे. आ प्रकारोना इतिहास पण हवे तो प्राप्त छे. आ असंख्य प्रकारोमां एक प्रकार छ : पत्र-साहित्य. बहु प्राचीन काळथी आपणे त्यां संस्कृतमां पत्र-लेखन चालु छे. संस्कृत जे समये राजभाषा हशे, त्यारे तो बधो ज व्यवहार ते भाषामां थतो हशे, अने ते वखते पत्रो केवी रीते लखातां हरी, ते जाणवा माटे 'लेखपद्धतिः' (गायकवाड्झ ओरिएन्टल सिरीज, वडोदरा) नामे ग्रन्थ जोवा जेवो छे. व्यवहारु पत्रोनुं स्वरूप उक्त ग्रन्थमा जोवा मळे छे. पण साहित्यिक दृष्टिए महत्त्व धरावतां पत्रोनुं संकलन तथा तेनो इतिहास हजी सुधी थयेल नथी. कोईके आ दिशामां अध्ययन करवू जोईए, तो ख्याल आवे के आ प्रकार, पत्रलेखन केटला समयथी प्रवेर्ते छे, अने तेमां सैके सैके के काळांतरे केवां केवां परिवर्तनो आवतां गयां छे. पत्रसाहित्यनी वात करीए एटले सहेजे मेघदूत अने तेना अनुकरणरूपे तथा पादपूर्तिरूपे रचायेलां दूतकाव्योनुं स्मरण अवश्य थवानुं. आ खण्डकाव्योए पत्र-साहित्यने एक नवो ज वैभवी ओप आप्यो छे, एम कही शकाय. आ साहित्यने समृद्ध बनाववामां जैन विद्वानोए पण घणो फाळो आप्यो छे, जेनी नोंध लीधा विना चाले नहि. संस्कृत दूतकाव्यो (विज्ञप्ति त्रिवेणी, इन्दुदूत, मयूरदूत, शीलदूत, सेवालेख, समस्यालेख इत्यादि) उपरांत, विज्ञप्ति पत्रो अने क्षमापनापत्रोनो विपुल जथ्थो, जे आपणा ग्रंथागारोमां तथा ज्ञानभंडारोमां उपलब्ध छे ते, आनो जळहळतो पुरावो छे. अलबत्त, घणीवार आ पत्रो मिश्रभाषा धरावतां होय छे, छतां तेमां संस्कृतनी प्रधानता / प्रचुरता तो होवानी ज. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 अर्वाचीन जैन विद्वानोए पण पत्रव्यवहारनी अर्वाचीन पद्धति तथा भाषारीति वगेरेनो उपयोग-प्रयोग करीने मबलख पत्र-साहित्य नीपजाव्युं छे. क्यारेक गद्यप्रधान, क्वचित् मात्र पद्यमय, कदीक मिश्र पत्रो; तेमां पण छन्दोवैविध्य, अलंकार-प्राचुर्य, रीतिवैलक्षण्य, आम विभिन्न मुद्रा उपसावतां पत्रो; क्यारेक मात्र आवश्यक वातचीत के संदेशानुं आदान-प्रदान करनारा पत्रो तो महदंशे साहित्यिक बोधथी प्रेराइने ज लखाता पत्रो; छेक १६मा शतकथी चालती आवेली, के पछी तेथीय पहेले थी चालु थयेली पत्रसाहित्य-प्रणालीने अस्खलितपणे जीवंत राखता आ बधा पत्रो ए खरेखर तो संस्कृत साहित्यनी आधुनिको द्वारा उपार्जित समृद्धि ज गणावी घटे. अहीं प्रस्तुत थतो पत्र ते आ परंपराने ज अनुसरतो एक रसप्रद पत्र छे. तेना पत्रलेखक छे आचार्य श्रीविजयलावण्यसूरि महाराज. वीसमी शताब्दीना प्रभावक अने प्रतापी जैनाचार्य श्रीविजयनेमिसूरिमहाराजना विद्वान शिष्यो पैकी एक ते विजयलावण्यसूरिजी. व्याकरण, तर्क, छन्द, अलंकार अने काव्य - आ तमाम साहित्यना विशिष्ट कोटिना विद्वान अने बहुश्रुत एवा आ आचार्यश्रीनी ग्रंथरचनाओ, टीकाग्रंथो तथा काव्यरचनाओ अनुपम छे. तेमणे ६० वर्ष पूर्वे संवत् १९९३मां, बो रसद(बहु रसद) थी, पोताना गुरुजी आचार्य श्रीविजयनेमिसूरिजी उपर लखेलो, पद्य-गद्यमय, श्लेषप्रधान विविध अलंकारोथी सभर आ पत्र छे. मूळ पत्र फुल्स्केप कही शकाय तेवां ७ पानामां, पेन्सिल वडे, लेखके स्वहस्ते आले खेल होई तेने, तदनुरूप "श्रीगुरुचरणानां चरणार्चायां सप्तदलं लेखकमलं" एवं नाम लेखके ज आप्युं छे. मूळ पत्रमा तो आ शीर्षकनी साथे ज पेन्सिल द्वारा, लेखके सात पांखडीओ दर्शावतुं कमल पण दोरी बताव्युं छे. आ पत्रमा प्रारंभे पांच पद्योमा इष्ट-स्मरणपूर्वक गुरुवर्यनुं वर्णन अने तेमना प्रत्ये पोतानी विज्ञप्ति माटेनी भूमिका रचवामां आवी छे. त्यारबाद श्लेषगर्भित अने तेथी द्विअर्थी एवां घणां विशेषणो द्वारा गुरुवर्यने संबोधवामां आव्या छे. खूबी ए छे के श्लेषना माध्यमथी पोताना गुरु भगवंत पासे वर्तता साधुओनां नामो आमां वणी लेवामां आव्यां छे. वळी, श्लेषप्रचुर पदोनो बोध सुगमताथी थाय ते माटे लेखके पोतेज नीचे विस्तृत टिप्पणीओ पण लखी छे. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ विशेषणो ए ज पत्रनुं हार्द छे. ते पूर्ण थतां ज आवे छे वृत्तान्तनिवेदनः जेमां पोते पांच साधुओनी कुशलतानुं तथा गुरुजीना सांनिध्यमांथी नीकळ्या बाद सुखपूर्वक बोरसंद पहोंच्यानी वात जणाववापूर्वक, चातुर्मास माटे खंभात, छाणी, भरूच, झगडिया इत्यादि क्षेत्रोना श्रावक-संघोनी विनंति होई पोते क्यां चातुर्मास करवू ते माटे गुरुदेवनी आज्ञानी अपेक्षा व्यक्त करवामां आवी छे. प्रांते वळी बे पद्य छे, अने त्यां पत्र समाप्त थाय छे. Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 श्री गुरुचरणानां चरणार्चायां सप्तदलं लेखकमलम् ॥ लेखक : स्व. आचार्य श्रीविजयलावण्यसूरिः ॥ ॥ स्वस्ति श्रीभृगुकच्छमच्छनगरं नित्यं पुनानं जिनं गीतं गौतमगोत्रनेत्रगणिनाऽनीहं गुणानां गृहम् । लोकालोकविलोकिनं गतमलं लेखालयालीनतं नवा श्रीमुनिसुव्रतं व्रतिनतं वाणीविलासालयम् ॥१॥ यस्मिंस्तीर्थङ्कराणां शुभभवनततौ भावुकास्फालितानां घण्टानां टङ्कृतिभ्यो दधति दश दिशो मञ्जुवाचालभावम् । धयैर्हयैर्युतं तं पदकजरजसा शोभमानं मुनीनां देशं देशं विशेषं शुभवचनरसं यामदेशं महेशम् ॥२॥ पुनानानां नानानरवरनतानामनुदिनं आशैशवशीलशालिने श्रीनेमीश्वराय नमोनमः ॥ लुनानानां नानाभवप्रभवनानाघनिकरान् । धुनानानां रम्यानननयनमातोऽम्बुजरमां दधानानां नानानयनयनकान्तं प्रवदनम् सुशीलालङ्कारं शिशुसमयतोऽलं कलयतां निशाशेषेऽशेषैरसमशमशीतैः शमिजनैः । सदा संस्मर्याणामगणितगुणानां गृहधिया सुधास्वादं स्वादुं वचनरसवारोपहसताम् क्षमापालालीभिर्महितचरणानां चरणिनां तपोगच्छाकाशे दशशतकराणां च विमले । मुदा वन्दं वन्दं सुगुरुचरणानां सुचरणौ शिशुर्लावण्यारव्यो बहरसदतो विज्ञपयति ॥३॥ ॥४॥ 11411 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयि गुरुचरणा भगवन्तः ? पुरुषोत्तमानां सुदर्शनधराणाम्, लोकबान्धवानां सदातपोदयाञ्चितानाम्, कल्याणक्षमाधराणां संदानन्दनोद्यानभुवाम्, पाक्षिकधियाऽनालिङ्गितान्त - राणामपि विज्ञानबन्धुराणाम्, संदापद्मालापहारोल्लसितान्तराणाम्, 75 ३ (१) पुरुषेषु उत्तमानाम् । पक्षे कृष्णानामिव लुप्तोपमा, बहुवचनं गौरवप्रदर्शनार्थम्, एवमन्यत्रापि विज्ञेयम् । (२) सम्यग्दर्शनं शोभनं, विजयदर्शनसूरिं, शोभनानि दर्शनशास्त्राणि वा विभ्रताम् । कृष्णपक्षे सुदर्शनं चक्रविशेषं क्षायिकसम्यक्त्वं वा बिभ्रताम् । (३) निष्कारणजगद्वन्धूनाम् । पक्षे * सूर्याणामिव । (४) सदा तपसा दयया च सहितानाम् । यद्वा सदा अतपेन शान्तेन उदयेन विजयोदयसूरिणा अञ्चितानां पूजितानाम् । सूर्यपक्षे सता विद्यमानेन उत्तमेन आतपस्य आतपनामकर्मण उदयेनाञ्चितानां सहितानाम् । (५) कल्याणं क्षमां च दधानानाम् । यद्वा कल्याणमया ये क्षमाधराः साधवस्तान् दधानानाम् । पक्षे सुवर्णपर्वतानामिव मेरूणामिवेत्यर्थः । (६) सतां आनन्दनस्य - आनन्दस्य यद् उद्यानम् - ऊर्ध्वगमनम् उन्नतिरिति यावत्, तद्भुवां तत्कारणानामित्यर्थः, यद्वा सदा नन्दनस्य विजयनन्दनसूरेः उद्यानभुवाम् उन्नतिकारणानाम् । मेरुपक्षे सदा नन्दनकाननास्पदानाम् । (७) पक्षिज्ञानेन, विरोधपरिहारे तु पक्षपातधिया एकान्तवादधिया वा । (८) पक्षिज्ञानबन्धुराणाम्, विरोधपरिहारे तु विशिष्टज्ञानबन्धुराणां विजयविज्ञानसूरिबन्धुराणां चेति । (९) सतां या आपद्माला आपत्पङ्क्तिस्तस्या अपहारे उल्लसितं हृदयं येषां तेषां तथा, यद्वा सदा पद्मस्य विजयपद्मसूरेः आलापहारैः सुन्दररचनारचितगेयैः उल्लसितं हृदयं येषां तेषां तथा । पदान्तस्थस्य तृतीयस्य पञ्चमे परे विकल्पेन पञ्चमो भवतीति दत्वमेवात्रादृतम् । सूर्यशब्देन चात्र लोकप्रसिद्ध्या आधाराधेययोरभेदोपचारेण वा पार्थिवमणिमयं तद्विमानं विवक्षितम् । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० १७ ११ विबुधाधिपानाममृतरसिकानां लावण्यलीलालयानां गीर्वाणगिरा गेयगुणगणानाम्, मँहावनभुवां कास्तूरामोददानदक्षाणाम्, विभक्तिघटितानां साधुपदानाम्, श्वेताम्बर मणीनां भव्यकमलविबोधकानाम्, भव्यमानसहितानाम्, प्रभावधनराजितानाम्, जीतबन्धुराणाम्, प्रसन्नवदनसोमसुन्दराणाम्, १२ 76 २२ २३ १३ (१०) पण्डितेश्वराणाम् । पक्षे इन्द्राणामिव । (११) मोक्षरसिकानाम् । यद्वा अमृतो विजयामृतसूरि : रसिकः शुभाभिलाषचारी येषां तेषां तथा । इन्द्रपक्षे सुधारसिकानाम् । (१२) लावण्यस्य सौन्दर्यस्य लीलालयानां केलिनिकेतनानाम्, सौन्दर्ये काश्रयाणामित्यर्थः, इन्द्रपक्षेऽपि अयमेवार्थः, यद्वा लावण्यस्य विजयलावण्यसूरेः लीलाया विद्याविनोदादिरूपाया आलयानामाधाराणाम् । (१३) इन्द्रपक्षे सुराणां वचसा, अन्यत्र संस्कृतभाषया प्र. गीर्वाणविजयवाण्या च । (१४) महतोऽवनस्य रक्षणस्य, यद्वा महानां सदुत्सवानां अवनस्य रक्षणस्य च भुवां भूमिकानां कारणानामित्यर्थः, पक्षे विशालवनभूमिकानामिव । (१५) कास्तूरस्य प्र. कस्तूरविजयसम्बन्धिन आमोदस्य हर्षस्य, वनपक्षे कास्तूरस्य कस्तूरिकासम्बन्धिन आमोदस्य सुगन्धस्य, दाने क्षमाणाम्, वनपक्षे मृगविशेषघटितत्वं हेतुः । (१६) साधु पदं येषां तेषां तथा, पक्षे व्याकरणप्रसिद्धशुद्धपदानामिव । (१७) विशिष्टभक्तिगुणसहितानाम् । विशिष्टेन भक्तिविजयेन सहितानाम् । पदपक्षे स्त्यादिरूपविभक्तिसहितानाम् । (१८) श्वेताम्बरसम्प्रदाये सर्वोत्तमानाम् । पक्षे विशदगगनप्रकाशकानां रवीणामिव । (१९) भव्यप्राणिरूपकमलेभ्यो विशिष्टबोधदायकानाम्, यद्वा भव्यो यः कमलविजयस्तस्य विबोधकानाम् । रविपक्षे भव्यानि यानि कमलानि तद्विकासकानाम् । (२०) भव्यजनमनोहितकारकाणाम्, यद्वा योग्यमानविजयसहितानाम् । (२१) प्रकृष्टभावधनेन प्रभावरूपधनेन प्रकृष्टभावेन धनविजयेन च शोभितानाम् । (२२) जीताख्यव्यवहारविशेषेण जीतविजयेन च बन्धुराणाम् । (२३) प्रसन्नतायुक्त - मुखरूपचन्द्रेण प्रसन्नमुखेन सोमविजयेन च मनोहराणाम् । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ३१ २५ 77 २६ सुमित्रानन्दनानामपि अशत्रुघ्नानाम्, क्षमाकाशानां प्रशस्यवल्लभकलितानाम्, प्रेंज्ञाप्रकर्षतोषितवाचस्पति - तिलकानाम्, सौंधुहंसानां सुमौक्तिकफलचञ्चूनामभिरामसन्मानसम्पदं गतानाम्, जयन्तं मेरुचितं सदाचारदक्षं २७ (२४) सुमित्रविजयस्य आनन्दसाधनानाम्, पक्षे सुमित्राया दशरथ भार्याया नन्दनानां पुत्राणामपि । (२५) शत्रुघ्ननामक - सुमित्राभव - दशरथसुतभिन्नानाम् । विरोधपरिहारे शत्रुवधप्रवृत्तव्यतिरिक्तानाम् । (२६) क्षमया क्षमागुणेन काशन्ते प्रकाशन्त इत्यचि क्षमाकाशास्तेषां तथा, पक्षे क्षमा- पृथ्वी आकाशंगगनं तयोरिव । (२७) प्रशंसनीयवल्लभविजयसहितानाम् । पृथ्वीगगनपक्षे प्रकृष्टैर्महापरिमाणैः शस्यैः शसयोरैक्यात् सस्यैर्धान्यरूपै वल्लभैर्नक्षत्रैः क्रमेण सहितानाम् । (२८) प्रज्ञाप्रकर्षेण तोषिता वाचस्पतितिलकाः प्राज्ञशिरोमणयो यैः, यद्वा तोषितौ तिलकविजयवाचस्पतिविजयौ यैस्तेषां; तथा विचक्षणत्वेनार्च्यत्वविवक्षया वाचस्पतिशब्दस्य प्राग्निपातः । (२९) साधुस आत्मा येषां तेषां तथा, यद्वा साधुषु हंसा इव साधुहंसा उत्तमसाधव इत्यर्थः, तेषां तथा, पक्षे राजहंसानामिव । (३०) शोभनानि यानि मौक्तिकफलानि मोक्षफलानि तैः, यद्वा शोभनो यो मौक्तिको मौक्तिका मोति ) विजयस्तस्य फलैः सत्प्रयोजनैः विदितानाम् । विद्याचञ्चवदत्र चञ्चप्रत्ययः, राजहंसपक्षे शोभनानि मौक्तिकफलानि मुक्ताफलानि यत्र तथाविधाश्चञ्चवो येषां तेषां तथा । (३१) अभिरामा मनोहरा या सन्मानसम्पद् साक्षरकृतबहुमानविभूतिः, तां तथा यद्वा अभियुक्तो यो रामो रामविजयस्तेन सहितो यः सन्मानो बहुमानयुक्तः सम्पद् सम्पद्विजयस्तं तथा, राजहंसपक्षे अभिरामं मनोहरं सत् उत्तमं मानसं देवसरोवररूपं पदं स्थानं गतानां प्राप्तानाम् । (३२) जयं विजयं तं जगत्प्रसिद्धं यद्वा जयन्तविजयम् । (३३) मे रुचितमभिप्रेतं, मेरुवन्निचितं मेरुविजयसहितं च । (३४) सदाचारे प्रचारे दक्षं निपुणं सदाचारयुक्तं दक्षविजयं च दधानानाम् । " Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 ३५ ३७ दधानानाम् , सदायशोभदङ्गाणां सुदैवधाम्नाम् , हृदयङ्गमां सच्चिदानन्दकनकमालामादधानानाम् , सुशीलजयपुण्यधुरन्धरविमलविद्यामोक्षनन्दप्रियमहोदयगुणसाधुजनासे वितपादपङ्केरूहाणाम्, हिमांशुकलानां शिवविशुद्धानन्दप्रेमकुमुदविबोधनकृताम् , (३५) आयश्च शोभा च आयशोभम् । सतः प्रधानस्य आयशोभस्य द्रङ्गाणां पत्तनानामाधाराणा-मित्यर्थः, यद्वा सदा यशांसि च भद्राणि च यशोभद्रम् , यद्वा यशोभद्रं यशोभद्रविजयं गतानाम् । पक्षे सद् आयशोभं यत्र तादृशानां द्राणां पत्तनानामिव । (३६) शोभनं दैवं भाग्यं धाम तेजो येषां तेषां तथा, यद्वा शोभनानां दैवानां देवविजयसम्बन्धिनां धाम्नामास्पदानाम् , नगरपक्षे शोभनानि दैवधामानि नृपसत्कमन्दिराणि देवतासत्कमन्दिराणि वा यत्र तादृशानाम् । (३७) हृदयदेशगतां मनोहरां वा। (३८) सन् यश्चिदानन्दो ज्ञानानन्दः स एव कनकमाला सुवर्णमयो हार: तां तथा, यद्वा पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् सन्त उत्तमा ये चिदानन्दविजयानन्दविजय-कनकविजयास्तेषां मालां पङ्क्ति समूहमिति यावत् । (३९) शोभनेन शीलेन जयेन पुण्येन च धुरन्धराः सुशीलनयपुण्यधुरन्धराः, विमलो विद्याया मोक्षस्य च य आनन्दः स प्रियो येषां ते विमलविद्यामोक्षानन्दप्रियाः, महोदया गुणा येषां ते महोदयगुणाः एवंविधा ये साधुजना उत्तमजनास्तैः, यद्वा सुशीलविजयेन जयानन्दविजयेन पुण्यविजयेन धुरन्धरविजयेन विमलानन्दविजयेन विद्यानन्दविजयेन मोक्षानन्दविजयेन प्रियङ्करविजयेन महोदयविजयेन गुणचन्द्रविजयेन च मुनिजनेन, आसेविते पादपङ्केरुहे येषां तेषां तथा । (४०) हिमांशुश्चन्द्रस्तद्वत् कलानां मनोज्ञानाम्, यद्वा हिमांशुना हिमांशुविजयेन कलानां मनोज्ञानाम्, पक्षे हिमांशोश्चन्द्रस्य याः कलास्तासामिव । (४१) शिवस्य मोक्षस्य विशुद्धो य आनन्दः तत्र यत् प्रेम तदेव कुमुदं चन्द्रविकासि कमलं तस्य विबोधनकृतां विकासकानाम्, यद्वा शिवानन्दविजय-विशुद्धानन्दविजय-प्रेमविजय-कुमुदविजयेभ्यो विशिष्टबोधदायकानाम् । चन्द्रकलापक्षे शिवस्य महादेवस्य विशुद्धो य आनन्दः प्रेम च ते एव कुमुदे तयोः विबोधनकृतां विकासकानाम् । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ निरञ्जनशुभरत्नप्रभोद्योतलक्ष्मीविद्यापरमप्रभाधिकस्वयम्प्रभोल्लासिनाम्, सुखास्पदानां सूर्यादिकलाधरसुमङ्गलबुधेज्यकविमतल्लिकामन्दचरणग्रहसाधुसेवितानाम् । चेतनचिन्तामणीनां मानवकामगवीनां जङ्गमकल्पतरूणां तत्र भवतां शुभवतां भवतामकम्पानुकम्पासम्पाततो वयं पञ्चापि कुशलिनः । नानाचरणपचरणबहुलताऽपाकृतसंतापातः सन्निधानोद्यानावनितः प्रस्थितोऽपि भवदीयबाहुच्छायापरिगृहीततया नानाविधाश्चर्यनिधानानि मेदिनीदलानि विलोक्य तत्र तत्र जिनेन्द्रपादांश्च प्रणम्य सुखेनात्रागतवान् । ४५ ४३ 79 (४२) निरञ्जनं कलङ्करहितं शुभं यद् रत्नं तस्य यः प्रभोद्योतः किरणप्रकाशस्तस्य सकाशात्, एवं लक्ष्मीविद्याया द्रव्योपार्जनकलाया या परमप्रभा परमविकासस्तस्याः सकाशात् अधिका या स्वयंप्रभा आत्मनैव न तु बाह्यभावेन प्रकाशनीया प्रभा तदुल्लासिनाम्, यद्वा निरञ्जनविजयस्य शुभंकरविजयस्य रत्नप्रभविजयस्य उद्योतविजयस्य लक्ष्मीप्रभविजयस्य विद्याप्रभविजयस्य परमप्रभविजयाधिकस्य स्वयम्प्रभविजयस्य च उल्लासिनां हर्षदायकानाम् । (४३) सुखानां दुःख-प्रतिकूलानाम् आस्पदानाम् पक्षे शोभनं खं गगनं तद्रूपास्पदानामिव । (४४) सूरय आदयो येषां पक्षे सूर्य आदि र्येषां ते सूर्यादयः; कलाधरा विज्ञानविशेषकुशलाः, पक्षे कलाधरश्चन्द्रः; शोभनानि मङ्गलानि यैर्येषां वा, पक्षे शोभनो मङ्गलो भौमो यत्र ते सुमङ्गलाः; बुधैरिज्याः पूज्याः, पक्षे बुधगुरू; कविमतल्लिका उत्तमकवयः, पक्षे उत्तमशुक्रः; अमन्दोऽमन्दस्य वा चरणस्य चारित्रस्य ग्रहो ग्रहणं येषां ते अमन्दचरणग्रहाः, एवंविधा ये साधवो मुनिजनास्तैः सेवितानाम्, पक्षे मन्दचरणः शनैश्चरः; ग्रहा उक्तस्वरूपा नव खेटास्तैः साधु सम्यक् सेवितानाम् । (४५) नानाविधा ये चरणपा मुनिवरास्तेषां चरणस्य चारित्रस्य या बहुलता अधिकता तया अपाकृतः सन्तापो यत्र ततः, पक्षे नानाविधा ये चरणपा वृक्षास्तेषां चरणैः शाखाभिः बहुलताभिरनल्पवल्लीभिः अपाकृतः सन्तापो यया ततः । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 किञ्च चतुर्मासीकृते स्तम्भनपुर-छायापुरी-भृगुकच्छनिकटग्रामग्रामीणग्रामनिविवत्सितझगडियाप्रभृतीनां श्रमणोपासका अतीवाभ्यर्थनां कृतवन्तः, स्तम्भननगरनिवासिनः पुनः पुनरायान्ति, अस्मिन् विषये श्रीमतां श्रीमती आजैव प्रमाणम् । सपरिवाराणां पूज्यानां श्रीमतां विजयनन्दनसूरिकुञ्जराणां च तनुलताकुशलोदन्तमभिलषामि। किङ्कराहँ किमपि कार्य कृपयाऽऽदेश्यम् । शिक्षावचनसुधासारैः सिञ्चनीयोऽयं जनः । अनलनिधिनिधीन्दुज्ञापिते विक्रमाब्दे मधुबहुलनवम्यां मङ्गलेऽलेखि लेखः । बहुरसदरसातो लादिना किङ्करेण प्रतिवचनप्रतीक्षादत्तचित्तेन मक्षु ॥१॥ वचनविरचनेऽस्मिन् गद्यपद्यानुयाते विनयपथमतीतं बाललीलानुविद्धम् । सकविकथितदोषं श्लेषलेशानुसारे किमपि च कठिनं वा क्षम्यमेतत् क्षमेशैः ॥२॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सहजकीर्ति उपाध्याय रचित श्री पार्श्वनाथ महादंडक स्तुति ॥ प्रद्युम्नसूरि विविध छंदोमां स्तुति-स्तोत्रो रचवानी परंपरा बहु जुनी छे. तेमां प्रचलित वसंततिलका, मंदाक्रान्ता, शिखरिणी, शार्दूला वगेरे छंदोमां तो खूबज स्तुतिस्तोत्रो मळे छे. ज्यारे दंडक छंदमां रचेला स्तुति स्तोत्रो अल्प मळे छे. शोभन मुनिवररचित चतविंशति स्तुतिमां छेल्ली महावीरप्रभुनी स्तुति दंडक छंदमां छे. आ दंडक छंदना पण अनेक प्रकार छे. आ रीतना प्रकारो अन्य छंदमां आवता होय तेवुं जोवामां नथी आवतुं तेमां जेम तेनुं स्वरूप गणवृद्धिथी वधे तेम तेनां नाम बदलाय. एक अक्षरथी लइ नवसो नव्वाणुं अक्षर सुधीना दंडक आवे छे. ते बधाना अलग अलग बंधारण प्रमाणे उद्दाम शंख-संग्राममत्तमातंगलीलाकर-चंडवृष्टिप्रपात वगेरे नाम आपवामां आव्या छे. - प्रस्तुत दंडक श्रीपार्श्वनाथभगवाननी स्तुतिरूप छे. कर्ता श्रीसहजकीर्ति उपाध्याय आने महादंडक कहे छे. ९९९ अक्षरनुं एक चरण आवा चार चरणनो एक श्लोक. आथी मोटो दंडक न होइ शके. तेथी तेनुं महादंडक नाम पण सार्थक छे. एक रीते तो आ मतमातंगलीलाकरना लक्षणमां बंधबेसे छे. तेनुं लक्षण आ प्रमाणे छे : यत्र रेफान् कविः स्वेच्छया पाठसौकर्यसापेक्षया योजयत्येष धीरैः स्मृतो मत्तमातङ्गलीलाकरः ॥ रचना अत्यंत प्रासादिक छे. विषय तरीके श्रीपार्श्वनाथ भगवानना जीवन ने आमां समाव्यो छे. पांच कल्याणकनुं विशद वर्णन, कमठे करेला उपसर्गनुं वर्णन, कलिकुंड तीर्थनी स्थापनानो प्रसंग तेनुं वर्णन आ बधु खूबज प्रांजल शैलीमा अर्थ वांचतां वांचता ज बोध थतो जाय तेवी सुगम शब्दावलिमां अहीं मळे छे. संस्कृत भाषा परनुं तेमनुं प्रभुत्व नोंधपात्र छे. तेनुं कारण तेओनुं व्याकरण अने कोष बन्नेनुं तलस्पर्शी जणाय छे. तेओए सारस्वत व्याकरण उपर वृत्ति रची छे अने एक स्वतंत्र व्याकरणनी रचना पण करी होय तेम लागे छे. नाम सप्तद्वीपिशब्दार्णवव्याकरण एवं मळे छे. अने बीजुं नाम ऋजुप्राज्ञव्याकरणप्रक्रिया ए नामनो पण ग्रंथ रच्यो होय तेम जणाय छे. वळी Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 एक अभिधानचिंतामणीनी जेम छ कांडमां विस्तरेलो नामकोश पण तेमने रचेला ग्रंथोनी यादीमां नों धायो छे. वळी व्याकरणविषयमांज एकादि शतपर्यन्तशब्दसाधनिका नामनी पण रचनानुं नाम मळे छे. आ रीते व्याकरण, कोष अने साहित्य तेमना खूब खेडायेला विषयो जणाय छे अने तेनो आ रचनाने भरपूर लाभ मळ्यो छे. वि.सं. १७८३नी आ रचना छे. जेसलमेरना श्रीपार्श्वनाथभगवाननी आ स्तुति छे. आ प्रभुजीनी प्रतिष्ठा आचार्यश्रीजिनकुशलसूरिजी महाराजे करी छे. आ महादंडक स्तुतिना कर्ता उपाध्याय श्रीसहजकीर्तिमहाराजनी गुरुपरंपरा आ प्रमाणे स्तुतिना अंतमां आपी छे : श्रीरत्नसार शि. रत्नहर्ष शि. हेमनन्दन शिष्य उपाध्याय श्रीसहजकीर्ति. ___ तेमना ग्रंथोनी यादीमां एक नाम महावीर स्तुति वृत्ति - एवं एक नाम मळे छे. आ महावीर स्तुति पण कोइ विशिष्ट रचना हशे के जेना उपर तेओए वृत्तिनी रचना करी होय. हस्तलिखित ज्ञान भंडारमां तपास करतां श्रीसहजकीर्ति उपाध्यायनी अन्य रचना मळे तो ते बहार आणवी जोइए. प्रस्तुत कृतिनी अन्य प्रति मळी नहीं तेथी केटलांक स्थानो शंकित रही गया छे. बहु विचारना अंते आ एकवार तो मुद्रित करी देवू जोइए तेवू लाग्युं. अन्यथा आ छे ते पण क्यांक काळनी गर्तामां विलीन थइ जाय. तेथी आ स्वरूपे अहीं आप्युं छे. ___ आ स्तोत्र पंडित श्रीअमृतभाई मोहनलाल भोजक द्वारा प्राप्त थयुं छे तेनो सानंद उल्लेख करुं छु. Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 83 ॥श्री पार्श्वनाथाय नमः ॥ विदितनिखिलभावसद्भूतभूतप्रभूताखिलज्ञानविज्ञानभास्वत्प्रभाकीर्तिसन्दोहसौभाग्यभाग्योल्लसल्लोककोकस्थितिश्रेणिसन्तोषपोषप्रदं प्रीतिनीतिप्रमाणप्रमाणप्रमे यक्षमालीनपीनध्वनिध्वानसम्मोहविध्वंसदक्षं जिनं पोषमासादिमाया दशम्या दिने प्रा(१००)प्तजन्मानमालोकशोकापनोदाय सम्प्राप्ततारुण्यकं प्राप्तबोधं सुरेभ्यो सुरज्येष्ठलोकान्तिकेभ्यो दिने पोषमासादिमै कादशीसञके ऽवाप्तदीक्षं स्फु रत्स्वर्गि-पातालवासि-स्फुटव्यन्तराधीश-सच्चन्द्रसूर्यारसौम्या-ऽमरा-चार्यवर्यो-शन:-शौरि-नक्षत्रमालानभस्तारका कोटि(२००)कोटिक्षितिप्रीतिभूपालसच्चक्रवालानतांहिद्वयं द्वेषिक द्वेषसंहार-सञ्चारसंसारपाथोधिसम्मग्नचेतः-प्रवृत्त्यङ्गिनिस्तारकोद्वेगवेगप्रपञ्चक्षयाक्षीणलेश्यं सकोपासुरामर्षसम्भूतभीतिप्रदाशेषविद्वल्लताक्षोभशोभारटद्धोरसंहारकल्पक्षमाकाशभे(३००)दावकाशच्युतश्यामरुग्नीरधिध्वानगर्जज्जितानेकमर्त्यप्रचण्डप्रतापद्विपाष्टापदध्वानदुष्टान्धकार प्रचारोच्छलन्त्रीरकल्लोलमालाम्बुदोद्रेककृसमापूर्णसर्वाङ्गमाज्ञाय सर्वप्रभाराजिबिभ्राजमानप्रमाणर्द्धिपाताललक्ष्मीसदाभोगसंयोगविख्यातनामा(४००) भिरामप्रभावोऽमितायामविष्कम्भसम्मोददायिप्रणष्टाहितध्वान्तसंरम्भरम्भावलीचूतसच्चम्पकाऽशोक वृक्षादिनिःसङ्ख्यवृक्षातिशायीष्टशोभाभराने कवादित्रनादोच्चयानन्दकृत्पञ्चवर्णात्मकावांसलक्षाधिपत्यं दधद्देवदेवीमनोवाञ्छितार्थं ददत् स्वीयसिंहास(५००)नोत्कम्पतो ज्ञानसम्भारतश्चापि नागाधिपः स्वीयदेवेन्द्रताप्राप्तिहेतुं प्रभुं भूरिसौख्यं क्षमाकारणं चाकलय्य प्रमोदान्निजां पट्टदेवीं समादाय शीघ्रं जलोपद्रवध्वंसनाय स्थितं पुण्यमूर्ति जगत्क्षेमकृन्नामधेयं प्रभुं पार्श्वनाथं समं निर्ममं चिन्मयं मेरुधीरं Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 धरा (६००) नेकगाम्भीर्य धैर्यार्य सन्तोषपात्रं पवित्रं गुणश्रेणिभी राजितं त्यक्तसंसारसञ्चाररामारमाकारदेहस्थितिं प्रोल्लसद्धर्षसन्दोहमोहः फणानां सहस्रं व्यधान्मस्तकोपर्यलं छत्रसंकाशशोभाधरं वीरविक्षोभसंहारसम्बन्धिकं राजमानं चतुर्दिक्ष्वधोधः स्वकीयां(७००)शयोराश्वसेनेर्भवाम्भोधिनिस्तारकं कारकं सम्पदामास्पदं श्रेयसां साध्वसध्वंसदक्षं नतं नागरैः पद्युगं स्थापयामास भूयोऽथ पार्श्वाग्रतः सम्भ्रमाधिक्यतो नाटकं देवसूर्याभरीत्याप्सरः श्रेणिभिर्दीयमानाप्रमाणोरुगानं कुमारीकुमारैर्जनानन्ददैर्दन्तसङ्घचैर्यु (८००) तं विश्रुतं सर्वतः सर्वपापप्रणाशप्रधानं निधानं गुणानां हितं सौख्यमोक्षप्रदं देवलोकेशता-चक्रवर्तित्व- शीरित्व-सभ्यार्धचक्रित्व - भूपत्व- सिद्धिक्षमाकारणं दुन्दुभिध्वानरम्यं निधानाम्बुराशि प्रमाणाद्भुतातोद्यजातेः पृथक् सिद्धि-दिग्मानसङ्ख्यायुतैर्हारतुर्यैर्युतं (९००) पूर्णपुण्यौघलभ्यंचकारासुरेशश्रियं पावनां कर्तुकामस्ततः सप्तभिर्वासरै रात्रिभिश्चासुरैर्वर्षणे सर्वतः क्षीणभावं समेतेऽसुरं पापलेश्यं महावैरिणं पार्श्वनाथस्य पद्मावतीशो जगादेति सञ्जातरोषो महापाप:(प) दुष्टाधमेशाहमस्तोकशोकास्पदं त्वां नये (१०००)। विहितजिनजलाशिवं कोऽस्ति रे प्राणभृद् यः समागत्य संरक्षति क्ष्मातलेऽद्यापि मूर्खोत्तमो वेत्सि किं नो जिनोऽयं चतुःषष्टिदेवेन्द्रपूज्य श्चिदानन्दभ(?)न्दस्वरूपः समाङ्गिव्रजप्रीतिदः सापराधेऽपि दुष्टाशये नैव रोषं विधत्ते जने जातुचिद् नाकिनि क्षुद्रसत्त्वे दयालीनचेताः (१००) सुखं वाञ्छति प्राणिनां भावतोऽथापहायाखिलं वैरभावं चिरारूढगूढं कृतक्लेशमान्द्या समाधिस्थितिश्लोकविध्वंसहेतुं भजागत्य चानन्तसंसारनीराम्बुधि प्रान्तमेहि प्रसिद्धोदयागारसं सारिशृङ्गारकल्पं मरुच्छाखिचिन्तामणिस्तोमसम्प्राप्तिसन्तोषकल्पं गृहाणां ग ( २०० ) णं सर्वसम्पत्तिभावस्य सम्यक्त्वरत्नं प्रयत्नेन वाक्यं हितप्रीतिकृत् तत् समाकर्ण्य चालोक्य तीर्थेशभक्तं महच्छक्तिभक्ति Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85 प्रभाशोभमानं धराधीश्वरं प्राप्तसंवेगभावोऽसुरो मेघमाली भवाब्धौ पतज्जन्तुजातोद्धृतौ सावधानावनेकांकुशच्छत्रशङ्खाकृतिभ्राजमानौ जिनां (३००) ही प्रणम्यैवमूचे जगन्नाथ पापातपक्लेशसंवेशसङ्घातकद्वेषतोऽहं वेष्वप्रमाणेष्वसद्दुः खसन्दोहरूपेषु तिर्यग्नरामर्त्यपापातिभृन्नारकेषु स्वयं सम्भ्रमस्त्राणभूतं भवत्सन्निभं क्वापि न प्राप्तवानीश सद्भाग्यतोद्यश्रितानन्दचिद्रूपमासाद्य नाजन्म मुञ्चा (४००) मि सभ्यं भवन्तं कृपापात्रमश्लाघ्यमाचीर्णमस्तोकवैरं च निन्दामि गर्हामि नैवं पुनर्वीतरागोत्तमः क्षीणपापो विधास्यामि नत्वे(त्वै) वमावेद्य च प्राप वेश्म स्वकीयं गृहीत्वा सुबोधि ततो नागराजोऽपि जैनाग्रतो नाटकं देवशक्त्या विधायोरु नत्वा च शिश्राय सद्मश्रियं साङ्ग (५००) न: क्षेमकृत्पार्श्वनाथोऽपि पातालनाथाचितः प्राप्तशोभोऽभितोऽभिग्रहं पूर्णमासेव्य निर्जित्य चोपद्रवं नीरजं नीरजाभूमिपीठे विहारं विधत्ते स्म लोकोऽथ तत्र स्वभावेन मूर्तिं नवीनां तथा चैत्यमत्युच्चमानन्दकन्दं विधाय त्रिकालं समभ्यर्चयामास लोके ततस्तीर्थ (६००)मासीद्धितं सज्जनानामहिच्छत्रसंज्ञं जनेष्टार्थसम्पादकं तीर्थनाथः प्रभुर्लोकनिस्तारको नीलवर्णो धरामण्डलं पावनं पादपद्मोच्छलद्रेणुसम्पाततः साधु कुर्वन् कले: पर्वतस्यान्तिके शान्तिमूर्तिः स्थितः कायमुत्सृज्य नीरागतां संसृतेर्भावयन् भावितात्मा तथाभूतमा (७००) लोक्य तं तीर्थपं तन्निवासीकरी जातजातिस्मृतिः स्वं भवं पूर्वकं ज्ञातवानेवमालोचयामास चाहं जडो वामनो मन्त्रिपुत्रो भवं हास्यमानो जनैरेकदा मर्तुकामो मुधा बोधितः साधुना तापसोऽभूवमस्तोककालं तपस्यां विधायान्तकाले शरीरं महन्मे तपस्याफलादा (८००) यतौ स्यादितीदं निदानं दधन्मानसे मृत्युमासाद्य जातो महाकायवान् कुञ्जरोऽत्र स्थले हारितो दुष्टचित्तेन पापेन नारो भवः पुण्ययोगात् पुनस्तीर्थराजो गुणानां निवासो मयाऽदर्शि नैनं विना प्राणिनां कोऽपि निस्तारकोदुःखसंहारकर्ता जनोऽन्यः क्षमामण्डलेऽयं च विज्ञाय (९००) ते मां समुद्दिस्य (श्य) Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 निःसंशयं तारणायागतोऽत्राथ पूज्यो मया पूजनीयो यथाशक्ति भक्त्या यथाऽहं सुखी स्यां विमृश्यैवमानीय पानीयमच्छं तटाकात् तथा पङ्कजश्रेणिभिः पूजयामास वामासुतं भावतो ज्ञातवार्तो जनाद्भूपतिस्तत्र चैत्यं चकार प्रभोरर्चयामास लोके ततः (२०००) । . सकलसुखदमिष्टमासेवनीयं जनैस्तीर्थमापद्वरं जातमेतत् कलेरग्रतः कुण्डंसंज्ञं ततः सोऽथ सम्यक्त्वरत्नान्वितो मेस्तुङ्गाभिधो हस्तिराट् पुण्यसार्थेशयुग देवलोकं महानन्ददाय्यष्टमं प्राप शुद्धाशयस्त्यक्तवल्भः समन्ताद् जिनाधीशनिःसङ्गमूर्तिस्ततोऽन्यत्र भूमौ (१००) तपस्यांव्यधादेवमाचीर्णशुद्धव्रतवातनाथोऽखिलः कर्मराशिर्महानन्त्यजन्यः क्षयं सर्वतो नीयमानो गुणस्थानरीत्या प्रधानेन शुक्लेन बिभ्राजमानोऽवलक्षे चतुर्थी दिने चैत्रमासस्य पूर्वाह्नकाले विशालं समग्रं जगज्ज्योतिरुद्योतकंकेवलज्ञानमासेदिवान् ज्ञात(२००)लोकत्रयालोकपर्यायकोऽगुप्तगुप्तप्रमादा प्रमादप्रसिद्धार्थसार्थप्रवेदी क्षणे तत्र देवा-ऽसुर-व्यन्तर-ज्योतिषां कम्पिताकम्पसिंहासनानां स्वकीयर्द्धिसामान्यदेवीचलत्पत्ति-यानान्वितानामभूदागमः कोटिकोटिप्रमाणश्रितानां ततस्ते मिलित्वा जिनं चाभिवन्द्य प्रमो(३००)देन सालत्रयं रत्न-कल्याणरूप्यात्मकं चक्रुरुत्साहसंसक्तचित्ता अथो वीतरागो नमस्कृत्य तीर्थं स्थितः पूर्वदिक्सम्मुखो राजमानोऽधिकं देशनां धर्मरूपां जगज्जन्तुजीवातुकल्पामनल्पार्थजीवादिसंज्ञानमालांविशालातिविद्वेषहालाहलध्वंसपीयूषनिस्यन्दतुल्यां (४००) शराग्निप्रमाणेन वाचां गुणेनाक्षयां देव-भूस्पृक्-तिरश्चां मन:संशयोच्छेदपट्वीं स्वकीयस्वकीयोरुभाषागतज्ञानभावेन निद्रा-बुभुक्षा-तृषोत्पत्तिनाशां ददौयोजनाक्रान्तभूमिस्थितप्राणिनां श्रोत्रगामेवमेषोऽस्थिरो दुःखहेतुर्भवो यत्र जीवाः समे प्राप्नुवन्ति ध्रुवं जन्म (५००) मृत्युं जरां क्लेशमश्लोकमामं वियोगं तथा निर्धनत्वं मिथो वैरभावं विमातृत्व-मातृत्व-तातत्व-पुत्रत्व Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 87 रामात्वमुख्यानि चिह्नानि भूयः परं नैव धर्मं कृताशेषसातं प्रमादेन कुर्वन्ति सम्मूर्च्छिता स्त्रीविलासाद्यसत्कर्मसु स्तोकसौख्येष्वनित्येष्वसत्कर्मबन्धेष्वथो प्राप्य चि (६००)न्तामणिप्रायचुल्लादिदृष्टांतदुःप्राप्यनृत्वं मनुष्याः ! कुरुध्वं प्रमादं विहायाशु धर्मं जनालम्बनं पार्श्वनाथोदितं मानवा एवमाकर्ण्य सञ्जातवैराग्यतः केऽपि दीक्षां ललुः केऽपि सम्यक्त्वरत्नव्रतानि स्वकायं पवित्रं विधाय प्रणम्याप्तनाथं च केऽपि स्वकीयं स्वकीयं गृहं शि(७००) श्रियुः प्रीतिभाजो नरास्तीर्थराजोऽष्टभिः प्रातिहार्यैः सदा शोभमानो विहारं विधत्ते स्म देवैः समं कोटिभिन्यूँनभावेऽपि जाग्रद्यशावेदलोकप्रमाणैः शयैरातिपूर्वैश्चमत्कारमुत्पादयन् सर्वतः सर्वविश्वश्रियं पालयामास देवाधिदेवो महात्मा मुनीन्द्रो गुणानन्त्यभृत् क्षीण(८००)मोहो जितात्मा चिदानन्दरूपः कलावान् निरीहो जनानन्ददायी कलाकेलिकन्दक्षये कोलभूतः स्वधावाक् क्रियावान् जगन्मित्रतासेवधिः सद्विधिर्बान्धवः प्राणिनां भव्यभूतात्मनां शान्तिमूर्तिर्जगत्कीर्ति-लक्ष्मीवरस्तारकः पारगामी भवाम्भोधिमध्यस्य सभ्यार्चितः कर्मसम्मूलनो(९००)द्योगतीक्ष्णाशयो भारतक्षेत्ररत्नं जिनेशो मुनीनां सहस्राण्यथो षोडशप्रीतिभाजां सहस्रं तथा सिद्धिवह्निप्रमाणंनतार्यार्यकानां (णां) नराणां सुराणां तिरश्चां च कोटीश्च संरक्ष्य संसारतो भीतिहेतोः स्वयं ज्ञातनिर्वाणकालो दयालुः क्षमासागरः प्राप्तसर्वार्थसिद्धिः सुखी (३०००)। शिरसि शिखरिणः श्रिया राजमानस्य सम्मेतनाम्नः समागत्य कृत्वा च संलेखनां मासिकी साधुभिस्त्र्युत्तरत्रिंशता राजमानो वलक्षेऽष्टमीवासरे श्रावणस्यार्धरात्रक्षणे क्षीणकर्मा विशाखास्थिते रोहिणीवल्लभे वल्लभो मोक्षलक्ष्म्या बभूव श्रितो जैनमुद्रामनङ्गो क्षयी सि(१००)द्धकार्योनिरालम्बनः सिद्धमध्यस्थितोऽनन्तचिद्दर्शनोऽनन्तसौख्यश्रितोऽनन्तसारात्मको नक्षरूपारसः Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 स्पर्शगन्धच्युतः सङ्गवेदोज्झितो देवनाथैमि-लित्वाऽथ सर्वैः कृतश्चन्दनैर्देहदाहो जिनस्यास्थिराशिः क्षणादुज्झित:क्षीरनीराम्बुधौ पूर्वरीत्या समादाय दाढाः समां द्वीप(२००)नन्दीश्वरेऽष्टाहिकां जैनभक्त्या च निर्माय देवालयं शिश्रिये भक्तलोकस्ततः स्थापनार्हन्तमानन्द- सन्दोहहेत्वर्थमर्हत्समानं विधायार्चयामासुराजन्मकल्याणरत्नाश्मरूप्यादि- सद्रव्यजातै : पवित्रविचित्रैः स्फुरत्कान्तिभिः शान्तपापं च तं समालोक्य भव्या अनेके नमस्य(३००)न्ति बोधि लभन्ते श्रियं मोक्षलक्ष्मी सुराज्यं शरीरं निरामं यश:कीर्तिसौख्यं च भव्यानागार्जुन श्रीकुमाराद्यनेकाङ्गिवर्गा इव प्रीतिभाजः पुरे राजधान्यां तथा ग्रामजाते गृहे कोटिसङ्ख्यात्मके देशदेशान्तरे सर्वतो भ्राम्यता पार्श्वबिम्बान्यनेकानि दृष्टानि (४००) पुण्यानुभावात् समाकर्णितानि प्रसिद्धानि च स्तम्भनादीनि संवत्सरे लोकसिद्धयङ्गभूमि(१७८३)प्रमाणे मया भाग्यतो जैनराजाज्ञया जेसलाख्ये प्रधाने च दुर्गे क्षमाधीशसन्दोहगर्वापहारे महीमण्डलाक्षोभ्यसामर्थ्य रम्ये विपक्षैरगम्ये शरण्ये महद्धर्मशर्मप्रदं मोक्षल(५००)क्ष्म्याः पदं कृत्तसर्वापदंशस्थितिक्षेमकृल्लोकशोकापहारि प्रमोदास्पदं चैत्यमुच्चं प्रभोः पार्श्वनाथस्य दृष्टं सदिष्टं क्षमाकारणं पापसन्तापनिापनेऽलंभयक्लेशनिर्नाशकं यत्र सर्वत्र बिम्बानि रम्याणि पुण्यानुयायीनि सन्त्यस्त-पापानि भूयश्चतुर्दिक्षु देवालयानां (६००) लघूनां द्विपञ्चाशदङ्गिप्रणम्यास्ति यत्राद्भुतैबिम्बचकैः सदा शोभमाना पुनर्यत्र नन्दीश्वरद्वीपवर्त्यार्हतागारसङ्ख्याकृतिर्वर्तते भव्यलोकैर्नता मुक्तिमार्गे यथा प्रोच्चमाङ्गल्यमालेव विभ्राजते तोरण श्रेणिराप्ताच्छबिम्बैर्युता माननीया महेभ्याङ्गिभिर्यत्र भाग्योद(७००)योद्रेकरूपं गुणानां गृहं मोक्षलक्ष्म्याः सुपुण्द्रोपमं तोरणं द्वारवर्ति प्रदीपोपमं स्वर्गमार्गप्रदे मन्दिरस्याग्रतः शिल्पिभिर्निर्मिताभिः प्रशस्योत्तमै रम्यपाञ्चालिकाभिर्विचित्राभिरानन्ददाय्यस्ति Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 89 सत्सूरिमुख्याकृति-क्षेत्रपाला-ऽम्बिका शासनाधीश्वरीमूर्तिभी राजितं (८००) यत्र पार्श्वस्य पारङ्गतस्याच्छमूर्ति चलत्पुण्यमूर्ति सुरश्रेणितेज:श्रितं नागराजानुभावान्वितां कल्पवृक्षोपमां कामितार्थप्रदे मोक्षनि: श्रेणिभूतां जिनाद्यन्त-कौशल्यसूरीशमुख्यैः प्रतिष्ठां सुनीतां महत्सूरिमन्त्रेण जाग्रत्प्रतापां विलोक्याच्छपात्रं प्रमोदस्य जातं मनः प्री(९००)तिभाग मे सुलब्धो भवो मानुषोऽद्याथ हे नाथ ! विज्ञप्तिरेषा पदि(वि)त्रा महादण्डकेनाश्रिता तावकीना नवीना कृता रत्नसारान्तिषरत्न हर्षोल्लसद्धेमसन्नन्दनानां प्रसादात् स्वभावादिसत्कीर्तिनाम्ना विनेयेन सभ्यं पदं वाचकं बिभ्रता सज्जनानां प्रमोदाय भूयाः सदा (४०००) ॥१॥ इति श्रीजेसलमेरुदुर्गस्थश्रीपार्श्वनाथस्य महादण्डकमयी स्तुतिः समाप्तिमगात् ।। ॥ संवत् १७८३ ॥ श्रीसहजकीर्तिउपाध्यायरचितमिदम् । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक पत्र मुनि भुवनचन्द्र C/o. चुनीलाल मेगजी वोरा मोटी खाखर - ३७० ४३५ कच्छ - गुजरात. ता. ५-४-९८ आदरणीय संपादको, अनुसंधान-११ नी लेखसामग्री वैविध्यसभर छ । मुद्रणमा विविध टाइप-साइझोनो उपयोग हवे थाय छे ते सारुं छे। एनाथी लखाण, एकधारापणुं तो टळे ज, ध्यानार्ह भागो झट नजरे पडे, विषय विभागो विशद थाय । पञ्चसूत्रना कर्ता विशे ऊहापोह करतो आ.श्री शीलचन्द्रसूरिनो लेख विद्वानोनुं ध्यान खेंचशे। जैन साहित्य अने जैन इतिहासनी एक अनिर्णीत बाबत आ लेखमां शास्त्रीय रीते चर्चाइ छ। पञ्चसूत्रना कर्ता अन्य कोई नहीं पण श्री हरिभद्रसूरि ज छे - ए विधानना समर्थनमा पुष्कळ आंतर-बाह्य प्रमाणो लेखके रजू कर्यां छे। वृत्तिना अंते “समाप्तं पञ्चसूत्रकं व्याख्यानतोऽपि" ए वाक्यमा आवता "अपि" शब्दनी चर्चा विचार करवा प्रेरे एवी छे। आ प्रकारचं वाक्य टीकाकारनी कलममांथी कदापि टपकी शके नहीं अने 'अपि' शब्दनी उपयुक्तता अन्य कोई रीते स्थापित थई शके नहीं। आ वाक्य तरफ संशोधकोनुं ध्यान केम नथी गयु ए वात नवाई पमाड़े एवी छ। गणधर-सार्ध शतकनी वृत्तिमां पञ्चसूत्रनो हरिभद्रकर्तृक तरीकेनो उल्लेख तथा उपाध्यायजी द्वारा 'धर्मपरीक्षा'मां थयेलुं विधान - ए बे पण सबळ प्रमाणो छ। बृहट्टिप्पनिकाना उल्लेखने सूक्ष्म दृष्टिए तपासीने लेखके काढेलो निष्कर्ष पण, अन्य प्रमाणोना प्रकाशमां, सुसंगत बने छ। लेखके आ संदर्भमां उत्पन्न थता अन्य आनुषंगिक प्रश्नोनी पर्याप्त विचारणा करी छे । भाषाकीय विचारणा पण थई छ । 'समराइच्चकहा'ना गद्य साथे पञ्चसूत्रना गद्यनी तुलना नथी करी, पण ए बन्ने ग्रन्थ जेमणे वांच्या हशे तेमने एक ग्रन्थ वांचतां बीजानुं स्मरण अवश्य थयु Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 91 हशे । सांकळना अंकोडानी जेम एक पछी एक, श्रेणीबद्ध आवतां ढूंकां वाक्यो ए श्री हरिभद्रसूरिनी गद्यशैली छ । विषय, शैली अने भाषानी दृष्टिए श्री हरिभद्रकृत अन्य ग्रन्थो साथे पञ्चसूत्रनुं साम्य ऊडीने आंखे वळगे एवं छे। पञ्चसूत्र जो पूर्वाचार्यनी कृति होय तो श्री हरिभद्रनी मौलिकता पुनर्विचारने पात्र ठरे। बीजी बाजु, तेओश्रीनी आगवी मुद्रा स्वयंसिद्ध छे। आ संजोगोमां पूर्वाचार्यकृत एक ग्रन्थनी छाया हारिभद्रीय विपुल वाङ्मय पर पडी एम मानवा करतां, हारिभद्रीय मुद्रा जेमां स्पष्ट अंकित छे ते कृतिने श्री हरिभद्रनुं ज सर्जन मानवं वधु तर्कसंगत छे - लाघवभर्यु छ। एना समर्थनमां अन्य प्रमाणो जोईए, अने ते श्री शीलचन्द्रसूरिजीए एकत्र करी आप्यां छे। आ परिश्रम एक महत्त्वना प्रश्नना उकेल तरफ दोरी जशे एमां शंका नथी। आ अंकमांनी सामग्रीमांथी पसार थतां जे कंइ नजरे चड्युं / सूझ्युं ते अहीं नों● छु । चारूपमंडन श्री पार्श्वनाथस्तुतिना छेल्ला श्लोकमां (पृ. ५) प्रतिलिपि करती वखते अथवा बीबांगोठवणी वखते अक्षरो पडी गया छ। प्रथम चरण कंइक आ रीते होवू घटे - इत्थं स्तुतं सुयमकैर्यमकैरवेन्दुं . . . . 'हाल्लारदेशचरित्र'ना ४३मां श्लोकमां (पृ.४१) याम' शब्द छे ते हालारी/ काठियावाडी 'जाम', संस्कृतीकरण छे। जामनगरना राजाओ 'जाम' कहेवाता। गणधरहोरा'नी वाचनामां केटलाक शब्दो सुधारवाना थाय छे। श्लोक ४ - 'गहणसन्नं'ने स्थाने शक्य पाठ 'गहाण सन्ना' - "ग्रहोनी संज्ञा" होइ शके। श्लो. ७ – "आरो य पइट्ठिओ" एम वांचq योग्य लागे छ। 'आर' मंगळना ग्रहनुं नाम छे। श्लो. ९मां, एटलेज, "आरो" साचो पाठ छे । 'आरा'नी कल्पना करवानी जरूर नथी। श्लो. १३- "मण देवाणं" - अहीं मणु-देवाणं' होइ शके। श्लो. २०मां 'वलंतं' छे, ते 'जलंतं' होवानी पूरी Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92 शक्यता छ। श्लो. १२मां 'जलंतं' आवे ज छ। श्लो. २३ - 'वणिविट्ठ' ने स्थाने 'विणिविट्ठा' कल्प्युं छे. परंतु 'वायाणिविट्ठा' कल्पवू वधु योग्य लागे छे। 'जिनपतिसूरिपंचाशिका' मूळ मात्र आपवामां आवी छ। कृतिपरिचय तो नथी ज, आवश्यक एवो प्रतिपरिचय / प्रतिनो स्रोत पण निर्दिष्ट नथी। संपादकोए आ बाबत आग्रह राखवो जोईए । गुरुभक्ति-रंजित आ रचना ऐतिहासिक दृष्टिए महत्त्वनी छे, साहित्यिक दृष्टिए रसिक छे। आवी सुंदर रचना घणी अशुद्ध रही गई छे, संशोधके हजी वधारे श्रम करवो जोइतो हतो। श्लोक २ (पृ. ३२)ना प्रथम बे चरण आम वांची शकाय - माणिमणं व समुन्नय-ममायिवयणं व सरलमभिवंदे । श्लोक १८ (पृ. ३३) - जं सेसवे सयंवि य मणं आसि तुह न चुज्जं । जेणन्नवो(बो)हि(ह)णिज्जा . . . . श्लोक २४ - निदंड मंजणपुरओ . . . . श्लोक ४२मां एक महत्त्वनो शब्द खूटे छे - विक्कमनरेसरा उ दसहिय (सएसु ?) गएसु वासाणं । डॉ. नारायण मं. कंसारानो लेख, बीजी रीते उत्तम होवा छतां, 'अनुसंधान व्यापमां ए आवे के केम-एवो सवाल उद्भवी शके । 'अनुसंधान में अनुसंधानात्मक-संशोधनात्मक सामग्री आपवानी मर्यादा इच्छनीय न गणाय, प्रकाशित थता प्राचीन साहित्यनी समीक्षा आ पत्रमा आपी शकाय, अने । खास आपवी जोइए, परंतु अनुप्रेक्षा-प्रेरणा-विचार-विवेचन जेवी सामग्री अन पत्रो माटे छोडी देवी जोइए एम नथी लागतुं ? मुनि भुवनच Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Some Notes on the Bauddha Sahajayāni Siddha-Natha Tradition H. C. Bhayani 1. Saraha's मातृका - प्रथमाक्षर - दोहक in Apabhramsa Mātṛkā or Kakka (The Alphabet) has been a favourite type or genre in early Indian regional literatures. In 1997 we edited and published its earliest known instance so far, viz. Barahakkhara-kakka of Mahacandra Muni. A paper mostly based on its Introduction was read at the Eighth International Conference on Early Indian Regional Literatures, held at Venice in 1996. Therein we had drawn attention to the fact that in the biography of Gautama Buddha given in the Lalitavistara it is stated that when the teacher began teaching the Alphabet to the boy Gautama, he immediately recited verses in which the first words began with the letters of the Alphabet in their traditional sequence. Now the Barahakkhara-kakka was in post-Apabhraṁśa language and although we had listed the Mātṛkā poems known till now in Gujarati, Rajasthani, Hindi etc. no instance of an Apabhraṁśa Kakka was known. Somehow we missed one such Apabhramsa poem, that preceded Mahācandra's poem by several centuries and that was published as far back as 1957! Only quite recently I came to know about a Buddhist Sahajayāni Siddha's poem belonging to this genre. In his Dohākośa Rahul Samkrityayan has published (pp.129139), on the basis of the Tibetan Tanjur (Stan'gyur), that is an old collection of Tibetan translations of Indian texts, the Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 Tibetan translation of Saraha's Ka-kha-Doha (from the Tantra Section of the Tanjur). The original Apabhramśa text is lost. Samkrityayan has given the Tibetan text in Nāgari characters and has given its Hindi translation. Saraha's works are dated in the eighth century. I have no knowledge of Old Tibetan and I consider Samkrityayan's translation quite reliable. Below I give some idea of Saraha's Mātṛkā poem. Like many poems of this genre its original was in Dohā metre. The Hindi translation of the Tibetan Colophon reads as follows : इति क ख दोहा महायोगेश्वर श्री महान् ब्राह्मण सरहमुखोक्त समाप्त । कोसल देश- जन्मा महायोगी वैरोचनवज्र के - The poem had 34 Dohās. They covered the letters to T. In the introduction to the Bārahakkhara-kakka we have given information about the different alphabetical modes adopted by the various poems. Some follow the sequence of consonants only, others have verses beginning with syllables i.e. either each consonant followed by a and ā, while others have verses in which each initial consonant is followed in order by the whole series of vowels beginning with 37 and ending with 3:. The last type is known as बारह - अक्खरी. The earlier ones are known as ककहरा in Hindi or मातृका - प्रथमाक्षर - दोहक in Sanskrit. Saraha's poem was of the latter type. It seems to have each half of the Doha in which the first word began with the consonants etc. in sequence. The contents of the poem Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 95 pertains naturally to the Sahajayāna ideas and beliefs and it is in the familiar Sahajayāni terminology. In the Ka-kha-dohã in each half of the Dohās the first word after the particular letter seems to have begun with the same letter. 1. कक्का : (a) कमल ; (b) कुमारी. 2. खक्खा : (a) ख-सम ; (b) खाहि. 3. गग्गा : (a) गगण ; (b) गमणागमण. 4. घग्घा : (a) घणघण ; (b) घरिणी. 5. ङङा : (a) निज सहाव ; (b) निरंतर. 6. चच्चा : (a) चउथ आणंद ; (b) चउ-खण. 7. छच्छा : (a) छड्डहो ; (b) छड्डि. 8. जज्जा : (a) जम्म-जरा ; (b) जसउ. झज्झा : (a) झज्झ कुसुम (= बहु कुसुम) (?) ; (b) 10. xx xx xx xx 11. टट्टा : (a) (?); (b) टालमाल. 12. ठट्ठा : (a) ठवणि ; (b) .. 13. डड्डा : (a) डोंबी ; (b) डमरु. 14. ढड्डा : (a) ढलइ ; (b) ढलिअ. 15. णण्णा : (a) णिज-सहाव ; (b) णिज-घरिणी. 16. तत्ता : (a) ति-काय ति-गंथ ; (b) तुल्ल. 17. थत्था : (a) थिर करि ; (b) थाण. 12 दद्दा : (a) दुइ सरह हो वाय ; (b) दुइ बिंदु. 19. धद्धा : (a) धोबी ; (b) धोबिणि. 20. नन्ना : (a) नाणा-पआर ; (b) नास-भअ. 21. पप्पा : (a) पंच अमिअ ; (b) पउम-पुप्फ. Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 22. फफ्फा : (a) फडकार (?) ; (b) फडकार. 23. बब्बा : (a) बणह बंभपुफ्फ ; (b) बस - मज्झे. 24. भब्भा : (a) भग ही भग; (b) भुंज. 25. मम्मा : (a) मइरा ; (b) मूल - चित्त. 26. यय्या : (a) जावहिं ; (b) जइसउ. 27. रर्रा : (a) रवि-ससि ; (b) रसणा. 28. लल्ला : (a) लेहु पवणहो ; (b) ललणा. 29. वव्वा : (a) वर वारि; (b) वज्रजोइणि (?). 30. शश्शा : (a) सहाव; (b) सरह. 31. षष्षा : (a) सहजे ; (b) सम - विसम. (a) सम एउ सव्व; (b) सहजानंद. 32. सस्सा : 33. हह्हा : (a) हास ; (b) हरहर . 34. क्ष-क्षा : (a) क्षले ; (b) क्ष - क्ष. Saraha's Mātṛkā poem provides us definite evidence of there being an early tradition of writing such poems in Apabhramśa. Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 97 2. Were śānti and Bhusaka the same or different ? We know very well that regarding the identity, succession, chronology, life, authorship etc. of the Siddha-Nāthas there is so much disagreement among various traditional lists and legendary accounts, that largely we have to depend upon speculation and guess-work to separate facts and beliefs. With respect to śāntipāda and Bhusukapāda, we are faced with two problems : First, whether these were the names of the same person or of two different persons ? Second, who were they in their early life, prior to renouncing the worldly life ? In his treatment of śāntideva's Śikṣāsamuccaya and Bodhicaryāvatāra, Winternitz has touched upon these problems on the basis of the traditional accounts and views of earlier scholars. I quote him below : “As the most prominent among the later teachers of Mahāyāna Buddhism, who also shone as poets, we have to mention śāntideva, who probably lived in the 7th century A.D. According to Tāranātha, he was born in Saurāstra (in the present-day Gujarat) as a king's son, but was instigated by the goddess Tārā herself to renounce the throne, whilst the Bodhisattva Mañjuśrī, in the form of a Yogin, initiated him into the sciences. He acquired great magic powers, and was for a time the minister of King Pañcasimha, but finally he became a monk. He was a pupil of Jayadeva, the successor of Dharmapāla in Nālandā. Tāranātha ascribes to him Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 the works Śikṣā-Samuccaya, Sūtra-Samuccaya and Bodhicaryāvatāra.!) Now there are two pieces of evidence which so far have not come to the attention of the scholars, and which inditcate that there is some basis for the tradition that Śāntideva was a prince in his early life and that he was the same person who was called Bhusuku in several Caryās as their author. In Caryā no. 41 Bhusuka is referred to as 17371 (= 14T) (TTBT 4015 onaf hes 405, verse no.5). The same is the case with Caryā no. 43 (TIS / BT 97913). In the 379 1 given in the fifth issue of Dhih, published from Sarnath, there is cited an Apabramśa passage (p. 34) from the Sekoddeśa-Commentary in which twice the names of Bhusuka and śānti occur and there is Tāranātha, Geschichte des Budhdismus, übers. von Schiefner, p. 162 ff. The biography of Santideva, which Haraprasada Sastri (Ind.Ant.42, 1913, pp. 4952) found in a Nepalese manuscript of the 14th century, agrees in the main with Tāranātha. In this MS. Rājā Mañjuvarmā is mentioned as his father. It is said here that he had the additional name "Bhusuka", because he was well versed in the meditation called "Bhusuka". He is also said to have been the author of a Tantra, and Haraprasāda found works of the Vajrayāna school and songs in the Old Bengali language, which are attibuted to a certain Bhusuka. This biography, too, speaks of three works of Santideva. The assumption of P. L. Vaidya (Etudes sur Aryadeva, p. 54) that by Siksă-Samuccaya, the text of the Kärikās is meant, and by Sutra-Samuccaya the commentary containing the quotations from Sūtras, is indeed very tempting : nevertheless, I regard it as far more likely that the statement about the threc works of Santideva is merely based upon an erroneous interpretation of the verses Bodhicaryāvatāra V.105 f., where Sāntideva recommends the study of his Siksä-Samuccaya or the Sūtra-Samuccaya of Nāgārjuna; s. Winternitz is WZKM 26, 1912, 246 ff. Cf. also P. L. Vaidya, 1. c., p. 54 ff. and Kieth, HSL, pp. 72 f., 236. Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 99 ap mention of Guru-sisya relation between them, as for example we find in the case of Krsnapăda's. Giti (Samkrityayan's Dohākośa, p. 369), wherein he specifically mentions Jālamdhari as his Guru. These facts clearly point out that śānti was a Rājaputra and that Bhusuka and śānti were probably different names of the same person. One point, however can be looked upon as going against such a conclusion. In the Caryāgitikośa, Caryā no. 15 and 26 bear the name of śānti, while Caryā no.6, 21, 23, 27, 30, 41, 43 and 49 bear the name of Bhusuka. This would clearly indicate that like other authors of the Caryās śānti and Bhusuka were different Siddhas. In the list of Saraha's Guru-paramparā given by Samkrityayan on p. 21 of the Introduction Bhusuka bears the number 41, while śānti is numbered 12. Thus the problem of identification remains unsolved so far. Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 3. One more instance of the Jhambaďaka Song in Apabhrāmsa ___ In my note on occurrences of the झम्बडक-गीत (Anusamdhan, 4, 1994, p. 24-25; 5, 1995, p. 82-83 ; reprinted in शोधखोळनी पगदंडी पर 1997, p. 191-193), I had noted two instances, one from the प्रभावकचरित (1278 A.C.) and one from the विनोदकथासंग्रह (14th century), which is characterized by a ध्रुवपद (कहउं जि भरडइ जं जं किउ). From the fabrgay the following passage is quoted in the अपभ्रंशवचनसंग्रह (Dhih, p. 35) (the corrupt text is restored) : हुउ देक्खु घणु संसार-तरु । दंदालिंगण-जोग-धरु ॥ हेवज्र तुहुं तेन्नाहूं तेन्ना तें तें हूं ।।१ सुर-णर-वंदित-चरण-धरु । करु महु xx xx तोसु करु ।। हेवज्र तुहुं तेन्नाहूं तेन्ना तें तें हूं ।।२ भाव-विमुक्त विसेस-गुण । xx xx णमु णमु हे ॥ - हेवज्र तुहं xx xx xx xx xx x ||३ This instance is noteworthy in that it has a musical ध्रुवपद with song syllables, which must have been characteristic of the Jhambadaka song. We have here the actual songform preserved. In this connection it is significant to note that in Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 101 Svayambhu's Apabhramśa epic Paumacariya (end of the ninth century) तेण तेण तेण चित्तें occurs as a ध्रुवपद with each Pāda of the Apabhraíśa metre Jambhettiã (Sandhi 81, Kadavaka 1). This is similar to aan etc. we find in the lines of the Jhambadaka song discussed here. I think these are instances of what is called all tilfa in musicological texts like the cast, and that mode of performance continues till today under the name of Tarut in the North Indian musical tradition. (See, Bhayani, Indological Studies 1, 1993, p. 9599). Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 4. On the Names of Some Siddha-Nathas We have with us various published lists of the SiddhaNathas, some partial and some complete, some comparatively early and some later and modernized. The traditional figure of eightyfour is quite obviously the result of frequent revisions and alterations. The forms of many names that figure in the lists are evidently corrupt and modernized. Even then, I think it is worthwhile to speculate about their linguistic sources. A large number of the names are in Sanskrit. They are usually respectable and complimentary. To illustrate : आर्यदेव (प्रा. अज्जदेव), कृष्ण (प्रा. कण्ह), घंटा, जयनंदिन् (प्रा. जयणंदी), जालंधरिन्, नागार्जुन, महीधर (प्रा. महीहर), मेखला, राहुल, वीणा, शान्ति (प्रा. संति), सर्वभक्ष. But several have Prakritic form and a number of them are of obscure origin. They are perhaps based on regional usages. It is proposed here to discuss a few of all the three types, because they have some significant social implications. कंबलांबर (abridged कंबल), कंबली : He who wears a woolen blanket. (H... IAL. 2771, 2773 ). कंकण : He who wears wristlet. कुक्कुरि : He who keeps a dog ( सं. कुर्कुर, प्रा. कुक्कुर dog. IAL. 3329 ). गुड्डरि : He who lives in a tent ( प्रा. गुड्डर 'tent' ). Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 103 घंटा : He who puts on little bells. चट्टिल : He who is fond of tasting. ( प्रा. चट्ट 'lick'. IAL 4573). चर्पट : Palm of hand; small flat piece of wood (• सं. चर्पट IAL. 4696 ). जालंधर : He who carries a fishing net, a fisherman. डेंगी : A boatman ( * डेंग small boat, canoe. IAL. 5568 ). डोंबी : A man of the Domba caste ( सं. प्रा. डोंब IAL. 5570). ढेंढण : (?). तंती : He who plays on the lute or he who knows Tantras. ( Compare वीणापाद ). तेल्लो : An oilman ( सं. तैलिक, प्रा. तेल्लिअ. IAL 5963 ). भादे : सं. भद्रदेव (प्रा. भद्ददेअ भद्ददे > भादे). The form be longs to the post-Apabhramsa stage. भुसुक्क : Chaff (भुस + diminutive उक्क) (सं. बुस, प्रा. भुस. IAL. 9293). मेखला : Girdle. लूई : सं. लूता 'spider ; a cutaneous disease.' IAL. 11093. विरुवा : Ugly (सं. विरूपं, प्रा. विरूव ). शबर : A man of the śabara tribe ( सं. शबर, प्रा. सबर, सवर a wild, mountainous tribe ). सरह : A wild animal ( सं. शरभ, प्रा. सरह, IAL. 12331 ). हालि : A ploughman ( सं. हाली, प्रा. हाली ). Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 Remarks : The names dating and 1119 indicate close association with those musical instruments. <416, TSFRYTE, BETYG, 0701916, 0167916, 7742414, CM14G indicate characteristic association with those objects, things, etc. af&MYT indicates a characteristic habit. जालंधरिपाद, डेंगिपाद, डोंगीपाद, तेल्लोपाद, हालिपाद indicate low caste professions. stara, yang indicate the caste. HEYTG (FR247976) is a flattering name like heca, quia etc. 601916, H YG, 4G are obviously pejorative assumed names. Of these the names of the first and second category were possibly given by the devotees and followers. The third and fourth categories are interesting in this sense that they suggest that the Siddhas were closely associated with the lower castes and tribals. Samkrityayan, Majumdar and others have made observations about the changed social mileu and the intimacy of the Siddhas with the lower stratum of the society. Names of the fifth category can be explained as either the childhood bye-names or more probably to show that they considered their worldly selves as of little value. MARCAS Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांकळियुं : "अनुसंधान" - १ थी १२ अंकोर्नु तैयार करनार : साध्वी श्री दीप्तिप्रज्ञाश्रीजीनां शिष्या साध्वी श्री चारुशीलाश्रीजी "अनुसंधान"नी प्रकाशन-तवारीख : अंक १-२, १९९३ ; ३, १९९४ ; ४-५, १९९५ ; ६-७, १९९६ ; ८-९-१०, १९९७ ; ११-१२, १९९८. कर्ता संपादक अनु सं. - पत्र प्रद्युम्नसूरि ९ । ९५-९६ 'धर्ममंगल- विजय शील- शिष्य चन्द्रसूरि ७।४३ - ५० १।१ - २१ ह. भायाणी कृति अ + अखंड दीवानो विस्तरतो उजास । श्री अजपुर (अजार) नगरमंडण पार्श्वनाथ स्तोत्र (भाषा) * अन्वेषण ० केटलाक प्राकृत शब्दो अने प्रयोगो ० निंदावाचक सं. 'आदह' ० प्रा. 'उकुक्कुर' ० आश्चर्यवाचक क्रिया विशेषण 'कटर' ० फेट्टा 'ढींक' ० निर्धारण वाचक क्रिया विशेषण 'बले' ० प्राकृत 'भेज्जलअ' ० सं. 'शीन' थीजेखें, थीथोडाक अपभ्रंश परंपराना भाषा प्रयोग पूर्ति ह. भायाणी १ । ११ १ । १३ १ । ९-१० १ । १३ १ । ९ १ । १४ १ । ११-१३ १।१८-१९ बळवंत जानी ह. भायाणी १ । १९ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृति थोडा विशिष्ट शब्दो प्रथमानुयोगना चौदमी शताब्दी लगभगना बे उल्लेख पूर्वीय प्राकृतोना एक तद्धित प्रत्यय विशे प्रत्यय 'क' संबंधक भूतकृदन्तनो प्राकृत प्रत्यय 'इ'-'उ' 'सुडाबहोंतरी' अथवा 'रसमंजरी' • हेमचन्द्राचार्ये आपेल त्रण उदाहरणो विशे ० 'जिणे भोयणमत्तेओ' पूरक नोंध ० ' शमणे भयवं महावीले' • सिंहपद छंदनुं उदाहरण अनुपूर्ति जैन आगमोनी भूलभाषा विशे परिसंवाद * अनुमानमातृका सावचूरि * * अपभ्रंश दोहा 106 कर्ता रत्नसुंदर सूरि संपादक नारायण कंसारा शीलचंद्र विजयजी के. आर. चन्द्र के. आर. चन्द्र कनुभाई शेठ ह. भायाणी शीलचन्द्रविजय ह. भायाणी मुनि कल्याणकीर्तिविजय मुनि भुवनचंद्र अनु सं. १ । १५-१७ १ । १ - १ । २-३ पत्र १ । ३ - ५ १ । २०-२१ १ । ५ - ८ १ । ७ १ । ७ १ । ५-६ १ / ८ ९ । ११७-१२ ७ । ८५-८८ ६ । ६८-७० Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 107 कृति कर्ता संपादक अनु सं. -- पत्र पं. शीलचन्द्र- विजय गणि ५। ८८-१०२ * अज्ञातकर्तृक अर्हत्प्रवचन सूत्र सविवरण * अवसान नोंध • डॉ. चन्द्रभाल त्रिपाठी ० डॉ. अर्नेस्ट बेन्डर ० डॉ. मधु सेन ० डॉ. र. ना. महेता ० रमेश मालवणिया ० संस्कृत रंगमंचना रंगमां रोकायेल परिव्राजक गोवर्धन पंचाल आ * आजना विज्ञान युगमां जैन जीवविचारणानी आहारक्षेत्रे प्रस्तुतता ७। १३१ ७ । १३१ ७ । १३२ ८ । १३५ ८ । १३५ ९ । ११६ ११ । १०२-९ डॉ. नारायण म. कंसारा १० । ३६-४३ * उत्तरकालीन अपभ्रंश भाषा बद्ध नेमिनाथ आ. वर्धमान- रमणीक शाह सूरि शिष्य श्री सागरचंद्रमुनि आचार्यश्री पं. प्रद्युम्नविज- हरिभद्रसूरि यजी गणी मधुसूदन ढांकी ४ । ३४-३८ * उपधान-प्रतिष्ठा पञ्चाशक प्रकरणम् * उमास्वाति-आर्यसमुद्रनां नवप्राप्त पद्यो विशे ५। ५४-५९ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृति * उर्दुभाषा बद्ध त्रण कृतिओ * उवसग्गहर थुत्तनी समस्या पूर्ति * " उवहाण पइट्ठा पंचासग" उपरथी फलित थतो एक मुद्दो ए * १०१ बोलसंग्रह भूमिका * एक पत्र ओ * ओरिएन्टल कोन्फरन्स ३८मुं संमेलन क * कालजयी साहित्यकृतिना पुनरुद्धारकनुं अभिवादन * केटलाक मध्यकालीन गुजराती शब्दप्रयोगो ० 'अउगउ', 'उगउ' ● 'अउगनाइ' ● 'अउल्हाइ' 108 कर्ता संपादक मुनि भुवनचंद्र पं. शीलचन्द्र विजय गणि महोपाध्याय श्री यशोविजयजी गणि पं. शीलचन्द्रविजय गणि विजयशील चन्द्रसूरि मुनि भुवन चन्द्र विजय पंड्या विजयशील चन्द्रसूरि जयंत कोठारी अनु सं. ७ । ८९-९६ ६ । ६२-६४ पत्र ५ । ५२-५३ ७ । २१-४२ १२ । १०२-१०५ ९ । ११४ ९ । ९७-९८ २ ।९-१३ २ । १० २ । ९-१० २ ।९ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृति • 'अउले खाले वहै' ० 'अखाडो' O ० अछूतउ' ० 'कटरि' • पूरक नोंध * केटलाक मध्यकालीन शब्दो 'अछिवउं', ० 'अधिवासियां' ० 'अनिवड' ०० 'अनुभाव' ● 'अप्रमाण' ० 'अभोखउ',' 'अभोखण' 'अछीउं' ० ० 'अबाह' ● 'अमलीमाण' 'अमाइ', 'अमामो', 'अमाणुं', 'अमान' * केटलाक देश्य शब्दो पर टिप्पण ० 'अभोखाउ' ० 'अणतंग - णंतग' 'उत्तुण', 'उत्तुयय', 'उत्तूइय' • 'उप्पेरं' ● 'उल्लण' ० 'गोलिय ' 109 कर्ता संपादक ह. भायाणी जयंत कोठारी अनु सं. २ ।९ २।१० २ । ११ २ । ११ २ । १२ २ । १२-१३ ३ । ३३-३९ ३ । ३३ ३ । ३३ ३ । ३४ ३ । ३५ ३ । ३६ ३ । ३६ ३ | ३८ ३ । ३८ ८ । १२८ पत्र Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 कृति कर्ता संपादक अनु सं. - पत्र ० 'चप्पुयिका 0 'पहेणग ० 'पद्दिया * गणधर होरा अज्ञात- विजयशील- ११ । ४३-४६ कर्तृक चंद्रसूरि * ग्रन्थमाहिती शीलचन्द्र- ३। ४५-५० विजय गणी + ह. भायाणी * ग्रन्थमाहिती ३ । ५०-५१ सामयिकोमा प्रकाशित लेख.व. * 'गांगेयभङ्ग प्रकरण सस्त- उपाध्यायश्री शीलचन्द्र- २। ५२-५७ बक' नामे कृतिना कर्ता यशोविजय विजय गणि विषे ऊहापोह 'गांगेय-भङ्ग प्रकरणम्' * गुरुस्तुतिरूप त्रण लघु कृतिओ ९ । ९२-९४ ० श्री जिनप्रबोधसूरि-श्री श्री मोहम- भंवरलाल नाहटा ९ । ९२-९३ जिनचन्द्रसूरि चन्द्रायणा न्दिर गणि ० श्री जिनप्रबोधसूरि- महं सज्जन- भंवरलाल नाहटा ९ । ९४ नाराचबंध छंद श्रावक ० श्री जिनेश्वरसूरि महं सज्जन- भंवरलाल नाहटा ९ । ९३ कुण्डलिया श्रावक Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 111 कृति कर्ता संपादक अनु सं. - पत्र * गौतमस्वामि छन्दांसि मेरुनन्दन- शीलचन्द्र विजय ६ । ५६-६१ एक उत्तरकालीन उपभ्रंश गणि गणि रचना * श्री गौतमस्वामी रास श्री रयणसे- पं. शीलचन्द्र- ४ । ५६-६७ हरसूरि विजय गणि * श्री गौतमस्वामी रास श्री शांतिदास विजय शील- ७ । ५१-५७ (चौपाइ) चन्द्रसूरि खोडीदास परमार ४ । ८६ * म.अ.मेहेंदळे मधुसूदन ढांकी ६ । ११३ ७ । १२०-२३ * * * घवली विशे च * चर्चा पत्र * चर्चा पत्र * चर्चापत्र ० प्रशस्तिसंग्रह - पृ.२६ श्री शान्तिनाथज्ञानभंडार खंभात ० 'शेलो' 'कुलिंग' यौगिक साधनाने संदर्भ * चतुरर्थी वीरस्तुतिः अज्ञात कर्तृकावचूरियुता * श्री चारूपमण्डन पार्श्वनाथ स्तुति मुनिचन्द्रविजय गणि ७ । १२३-२५ मकरन्द दवे ७।१२५-२७ ११ । ६७-७० श्री हीरविजय मुनि धुरन्धर सूरि विजय स्व. आगमप्रभाकर मुनि पुण्यविजयजी ११ । १-५ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 अनु सं. - पत्र ११ । ११-२७ कृति कर्ता संपादक * चोवीस जिन गीतो पंडित कवि मुनि जिनसेन तत्त्वविजय विजय * चोवीश जिन नमस्कार वाचक यशो · शीलचन्द्रविजय (अष्टमी-माहात्म्य-गर्भ) विजय गणि ५ । ४४-४६ * जगडूसाह छंद कांतिभाइ बी. १०। ६८-७२ शाह * श्री जिनपतिसूरि पंचाशिका भँवरलाल नाहटा ११ । ३२-३६ * जिनविजयजीनो एक ह. भायाणी . ७ । १२८ स्मरणीय भावोद्गार * श्री जिन स्तुति मुनि जगच्चन्द्र ८।१२५-१२६ विजय गणि * जिन साधारण स्तवन श्री हरिभद्र- विजयशील- ८।१००-१०१ सम संस्कृत प्राकृत सूरि चन्द्रसूरि * जिन साधारण स्तवननो पारुल मांकड ११ । २८-३१ आस्वाद सम संस्कृत-प्राकृत * 'जुगाइ जिणिंद चरियं ना ह. भायाणी ६ । ९० एक पद्यनो आधार * जैन आगम-भाषा विषयक ह. भायाणी १०। ११४ संगोष्ठीना संबंधमां विद्वानोना पत्रो * जैन तीर्थस्थान तारंगा रमणलाल महेता ३ । ४०-४२ एक प्राचीन नगरी कनुभाई शेठ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृति * जैन प्राकृत- संस्कृत प्रयोगोनी पगदंडीए O छंद चर्चा पाठचर्चा वगेरे ० काव्य - गुंफ О ० ० सि.हे. ८-४-३९५ (१) नो पाठ अर्थ ० सि. हे. ८-४-४२२ (२) नो पाठ अर्थ * छंदोनुशासन गत प्राकृत छंद प्रकार द्विभंगीनां उदाहरणोनी पाठचर्चा सि.हे. ८-४-३३० ना उदाहरणनो पाठ अने छंद o शब्द प्रयोगो ० प्रा. उट्ठब्भ के उट्टुब्भ् (?) • गुज. चणवुं, हिं. चुगना ० सं. चेलक्नोपम् (वरसवुं) ० प्रा. पाणद्धि - 'शेरी' - 'गली' दे. मोरउल्ला, 'व्यर्थ' • दे. साइतंकार, विश्वस्त स प्रत्यय * जैन विश्वभारतीनी आगम ग्रंथमालानां चार अद्यतन प्रकाशन 113 कर्ता संपादक ह. भायाणी ह. भायाणी ह. भायाणी ह. भायाणी ह. भायाणी ह. भायाणी ह. भायाणी ह. भायाणी ह. भायाणी ह. भायाणी ह. भायाणी अनु सं. - पत्र २ । २३ २ । २१-२२ २ । १८-१९ २ । २० २ । २० २ । १५ २ । १७ २ । १४ २ । १५ २ । १५ २ । १६-१७ ८ । १२७ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 कृति कर्ता संपादक अनु सं. - पत्र ट ७ । १०५ विजय शील- चन्द्र सूरि ह. भायाणी ह. भायाणी ह. भायाणी ४। २३ ३ । २३ ६। ८३-८६ * ढूंक नोंध ० अजारा तीर्थना चैत्यनी प्राचीनता ० अपभ्रंश छंद भूवक्रणक ० 'असङ्कल' ० 'अंगविज्जा' मां निर्दिष्ट भारतीय ग्रीककालीन अने क्षत्रपकालीन सिक्का ० जू. गुज. 'आंबलु' पति-प्रियतम ० 'उद्दाम' दंडक छंद एक प्राकृत उदाहरण ० उपाध्याय श्री यशोविजय जीना अंतिम समय तथा समाधि स्थल विषे ० एक कहेवतरूप उक्तिनुं पगेलं ० एक गाथाना पाठ विशे ह. भायाणी ६। ७८-७९ ह. भायाणी ४ । २५ ७।१०२-१०४ विजय शील- चन्द्र सूरि पं. शीलचन्द्र ४ । २८ विजय गणि मुनि महाबोधि- . ४ । १९ विजय विजय शीलचन्द्र ८। ८०-८५ ० एक नोंधपात्र पुस्तकनी प्रशस्ति ० 'कडितल्ला' सूरि ह. भायाणी ३। २४ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 115 कृति कर्ता संपादक अनु सं. - पत्र ५ । ७२-७३ ५। ७३-७४ ५। ७४-७५ ५ । ७६ ५ । ७२ ५ । ७१ ५। ६८-६९ ५। ६९-७० ० केटलाक कथा-घटको ० अक्कलना ओथमीर ह. भायाणी ० अज्ञान ढांक्युं न रहे ह. भायाणी ० उत्तम पुत्र प्राप्तिनुं शरती ह. भायाणी वरदान ० खाउधरो शिष्य ह. भायाणी ० गाम डाह्यानो अज्ञानविलास ह. भायाणी ० चार मूर्खाओ ह. भायाणी ० पर पुरुषनो संग निवारवा ह. भायाणी स्त्रीने पेटमां संताडी राखवी ० बोलायेला वचनो अकस्मात् ह. भायाणी सांभळी भलतो ज अर्थ लेता हत्याराथी उगारो ० सामान्य शब्दोनुं मार्मिक ह. भायाणी अर्थघटन ० केटलांक प्रसिद्ध पद्योनां मुनि महाबोधि समान्तर जूनां स्वरूप विजय ० कृष्ण-गोपीना प्रणयने हेमचन्द्राचार्य ह. भायाणी लगतुं एक मुक्तक ० घउंली, गूहली ह. भायाणी ० 'चक्कोडा' ह. भायाणी ० चंदप्पहचरियनी एक हरिभद्रसूरि सलोनी जोषी दृष्टान्त कथा ५। ७६-८० ४ । १८ १०। ७८ ३। २९ ३। २५ ७।११६-१७ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 कृति कर्ता संपादक अनु सं. - पत्र ० झंबडक गीत ० तल्लोविल्लि ० त्रण मूल्यवान पद्यो ० 'तूतीनामा'नां बे जैन चित्रो ह. भायाणी ४। २४ ह. भायाणी ३।३० शीलचन्द्रविजय ३ । २१ शीलचन्द्रविजय ४ । २०-२२ गणि मुनि महाबोधि ४ । १८ विजय पं. शीलचन्द्र ५। ६५ विजय गणि ० धर्मसार (हरिभद्रसूरिकृत) ह. भायाणी ह. भायाणी ह. भायाणी ३ । २६ ४ । २९ ७।१११-११२ ० 'नखच्छोटिका', 'ढौक' 'सुखासिका' 'दुःखासिका', 'ललते' ० 'नंद' ० नीलीराग जैन ० प्रबन्धचिन्तामणिगत एक अनुप्रासनी युक्तिवालुं पद्य ० प्रयोगोनी पगदंडी ० गोरखनाथर्नु एक पद ० झंबडक गीतनुं वधु एक उदाहरण • 'सीझवू' के ‘सीजवू' ? ० 'सूनासणा' ० पांडवचरित्र बालावबोधना थोडाक शब्दप्रयोगो विशे ० प्रियतमा वडे प्रियतमनुं स्वागत ह. भायाणी ह. भायाणी ५। ८३ ५। ८२ ह. भायाणी ह. भायाणी मुनि भुवनचन्द्र ५। ८१ ५। ८१ ५। ६६-६७ ह. भायाणी ६।८७-८९ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 117 - - - कर्ता संपादक अनु सं. - पत्र ह. भायाणी ४। ३१-३३ ४।८९ ह. भायाणी १० । ८८ ह. भायाणी ४ । २६ मुनि भुवनचन्द्र ७।१०७-९ ह. भायाणी ४ । २८ कृति ० 'पुष्प दूषितक' 'नंदयंति' 'भद्राभामिनी' : पूरक नोंध : ० बे परंपरानो एक समान पौराणिक कथाघटक ० बे प्राचीन सुभाषितो उत्तर कालीन साहित्यमां ० मुनि प्रेमविजयजीनी टीपना गुजराती शब्दो ० मूलशुद्धि वृत्तिमांगें एक सुभाषित ० 'युगंधरी' ० व्यवहारभाष्यनी एक गाथानी पाठचर्चा ० प्राकृत 'रंप्' छोलवू ० वाचक उमास्वातिजीना पद्य विशे ० वाचक उमास्वातिजी- एक वधु पद्य ० वाचक उमास्वाति(?) नुं वधु एक पद्य ० शत्रुजयमंडन ऋषभदेव स्तुतिः थोडी पूर्ति ० शब्द प्रयोगो ० 'अज्जुका' गणिकानुं संबोधन ह. भायाणी शीलचन्द्रसूरि ३ । २७ १० । ७७-७८ ह. भायाणी ३। ३१ मुनि महाबोधि- ४ । १६ विजय मुनि महाबोधि- ४ । १७ विजय पं. शीलचन्द्र- ५। ६३ विजय गणि जयंत कोठारी ७ । ११४-१५ ह. भायाणी १० । ७९-८० Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 कर्ता संपादक अनु सं. - पत्र ह. भायाणी १०। ८०-८२ कृति ० 'ओलिंभा'- 'वामलूर' - उधइ, उधइनो राफडो ० गुंड (धूलथी) खरडवू, ० 'चामरी' ० बालग्गकवोदपालिआ, बालग्गपोतिआ ० 'मुग्गड' 'मोग्गड' - अपुत्र विधवानी जप्त कराती मालमिलकत • हेलि प्रत्युषाण्ड ० शुं आ गप्पुं गणाय ? ह. भायाणी ह. भायाणी ह. भायाणी १०। ८७-८८ १० । ८२-८३ १०। ८५-८६ ह. भायाणी १०। ८३-८५ ० स्थूर विशे ० स्थूर विशे बे वधु उल्लेखो ह. भायाणी १०। ८६-८७ पं. शीलचन्द्र- ५। ६३-६४ विजय गणि शीलचन्द्रविजय ३ । २२ पं. शीलचन्द्र- ५। ६५ विजय गणि ह. भायाणी ह. भायाणी ७।११२-११४ ४।३० ० सातवाहनक शास्त्र ० सिद्धहेमना एक अपभ्रंश दोहा- अर्वाचीन रूपांतर ० सेल्लि ० हेमचन्द्राचार्ये प्रतिष्ठित प्रतिमा ० हेमचन्द्राचार्यनी काव्यव्युत्पत्ति सूचक एक वधु उदाहरण ह. भायाणी विजय शील- चन्द्र सूरि ह. भायाणी ३। २५ ८। ८१-८२ ७।११० Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 119 . कृति कर्ता संपादक अनु सं. - पत्र ७।१०४ विजय शील- चन्द्र सूरि ६।८१-८२ ० श्री हेमचन्द्राचार्यनी शिष्य परंपरा विशे * ढूंकी नोंध ० प्रा. कियाडिया ० मीण प्रत्ययवाला अर्धमागधी - वर्तमान कृदन्तो ० लजामणी ० सुकुमारिका प्रथमालिका ह. भायाणी ह. भायाणी ६। ७६-७७ ह. भायाणी ह. भायाणी ६। ८० ६। ८१ ११ ।९९-१०१ ५। ४७-५१ * तीर्थंकर महावीरनुं देहवर्णन ह. भायाणी (जैन आगमग्रंथ औपपातिकसूत्रना महावीर वर्णक अने तेना परनी अभयदेवसूरिनी वृत्तिने आधारे) * त्रण चउवीसी - लक्ष्मीसागर- मुनि कल्याण विहरमाण जिन स्तवन सूरि शिष्य कीर्ति विजय * त्रण जिन स्तोत्रो ० श्री पावक पर्वतमण्डन श्री विवेकरत्न विजय शील- संभव जिन स्तोत्र सूरिना शिष्य चन्द्रसूरि मुनि देवरत्न ० श्री पार्श्वजिन लघु रूपचन्द्र विजय शील- स्तवनम् चन्द्र सूरि ० समस्त जिन स्तुति रूपचन्द्र विजय शील- चन्द्र सूरि ११ । ६५-६६ ११ । ६४-६५ ११ । ६३ ६४ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 कर्ता संपादक अनु सं. - पत्र कृति * व्रण संस्कृत फग्गुकाव्यो ० नाभेय जिन स्तवन ३ । १२-१४ ० नाभेय स्तवन ३।६-९ श्री यशो- पं. शीलचन्द्र- विजयवाचक विजय गणि जगद्गुरु पं. श्री शील- श्री हीर- चन्द्रविजय विजय सूरि गणि वाचक श्री पं. श्री शील- सकलचन्द्र चन्द्रविजय गणि ऋषभदास मुनि भुवनचन्द्र ३ । १०-११ ० श्री सीमंधर जिन स्तवन * त्रंबावती तीर्थमाल ८। ६२-६९ ह. भायाणी ८।१३२ * दसमी विश्व संस्कृत परिषदमां जैन विभागमां रजू थयेल निबंधो * दामनक कुलपुत्रकरास * 'द्वयाश्रय' काव्यना एक पद्यनी शंकास्पद वृत्ति परत्वे विचारणा ज्ञानधर्म कल्पना के. शेठ १२ । ४९-७० शीलचन्द्रविजय २ । ५०-५१ गणि ह. भायाणी * धर्ममहिमा एक सुभाषित * धर्मरत्न करंडक * धर्मसूरि बारमासा बारहनाव (प्राचीन गूर्जर काव्य) ह. भायाणी रमणीक शाह ३ । ४३-४४ २ । ६३-६८ २। ६९-७७ अज्ञात Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृति * धूमावलि प्रकरणम् न * श्री नवखंडा पार्श्वनाथ फग्गु काव्य * नव प्रकाशित साहित्यनो परिचय प * पञ्चसूत्रावचूरिः * पञ्चसूत्रना कर्ता कोण, चिरन्तनाचार्य के आ. हरिभद्र ? * पट्टक * पट्टावली विसुद्धी * पंडित वीरविजयजी स्वाध्यायग्रंथ * पढमाणुओगनी उपलब्ध वाचना 121 कर्ता सूरि पुरन्दर श्री हरिभद्र सूरि श्री आनंद माणिक्य संपादक आ. विजय सूर्योदयसूरि विजय मानसूरि आचार्य प्रद्यु मनसूरि तपगच्छपति विजय शील चन्द्र सूरि श्री मुनिसुन्दर सूरि विजय शील चन्द्र सूरि महाबोधिविजय उपाध्याय श्री प्रद्युम्नसूरि उदयविजय वसंत दवे पं. शीलचन्द्रविजय गणि अनु सं. - पत्र ५ । १-३ ६ । ४३-४६ ५। ८५-८६ ११ । ४७-६२ ११ । ७१-९३ १० । ४५-४९ ७ । १-११ ९।१००-०१ ६ । १-४२ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * कृति पढमाणुओग (अनु. ६) गत विशेषनाम्नां सूचिः । * " परंपरागत प्राकृत व्याकरणकी समीक्षा और अर्धमागधी" ए पुस्तकनो परिचय * पार्श्वनाथ महादंडक स्तुति * प्रयोगोनी पगदंडी पर ० अरित्र ० सात 'सुख' ० क्षेपणी * प्रकाशन परिचय * प्रकाशन माहिती • एरिख फाउवाल्नर्झ पोस्थ्युमस एसेझ • आचारांगसूत्र प्र. श्रु. बालावबोध • आयारङ्ग : पाद इन्डेक्स एन्ड रिवर्स पाद इन्डेक्स जैन दर्शन अने सांख्य ० योगमां ज्ञान दर्शन विचारणा 122 कर्ता उपाध्याय सहजकीर्ति संपादक विजय शील चन्द्र सूरि के. आर. चन्द्र प्रद्युम्नसूरि ह. भायाणी ह. भायाणी ह. भायाणी ह. भायाणी ह. भायाणी ह. भायाणी ह. भायाणी अनु सं. ७ । ५३-८० ८ । १२२-१२४ १२ । ८१-८९ ९ । ९१ ९ । ९० ९ । ९१ ९ । ११३ ४ । ९१ ५ । ८७ पत्र ४ । ९१ ४ । ९१ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 123 संपादक ह. भायाणी ह. भायाणी अनु सं. - पत्र ४ । ९२ ४। ८९-९० १०।११२-११४ १०।११२-११४ ११४-११९ कृति कर्ता ० धेट विच (तत्त्वार्थसूत्र) ० वोर्डर कत इन्डिअन काव्य लिटरेचर (छट्ठो ग्रंथ) * प्रकीर्ण ० नवां प्रकाशनोनी माहिती वगेरे. ० नवां प्रकाशनोनी माहिती जैन आगम भाषा विषयक संगोष्ठीना संबंधमां विद्वानोना पत्रो * पांडवचरित्र बालावबोध * पांडवचरित्र बालावबोध मेरुरत्न (अनु.-४ पृ.८५ थी चालु) उपाध्याय (अंबा-अंबिका- शिष्य अंबालिका - हरण) * प्राकृत प्रयोगोनी पगदंडी पर ० अर्धमागधीमां प्राप्त प्राचीन शब्द प्रयोगो ० (१) उउ बद्ध 'उडुबद्ध' (२) पुरिसादाणीए (३) ताइ । ० प्राकृत 'उडुक्किय' * प्राकृत शब्दाः संस्कृते नानार्थाः ह. भायाणी ह. भायाणी ४ । ६८-८५ ६।१०१-११२ ह. भायाणी ७। ९९-१०० ७।१०१ ह. भायाणी पं. शीलचन्द्र- विजय गणि ५।४-११ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * कृति पूरक नोंध ब * बन्धकौमुदी * बे भास : * • श्री गौतम गणधर भास • श्री सुधर्म गणधर भास * बे सरस्वती स्तोत्र * बे संस्कृत स्तवन • श्री आदिनाथ स्तवन • श्री पार्श्वनाथ लघुस्तवन भ भृगुकच्छ वास्तव्य राणीश्राविका गृहीत द्वादशव्रत वर्णन म * मध्यकालीन धर्म विषयक पद्यपरंपरा संगोष्ठी अहेवाल 124 कर्ता नृसिंह महंसगणि जयसार संपादक ह. भायाणी विजय शील चन्द्र सूरि मुनि जिनसेन विजय मुनि रत्नकीर्ति विजय मुनि धर्मकीर्ति विजय मुनि विमलकीर्तिविजय अनु सं. ४ । ८९ — पत्र ७ । १२-२० वृत्त संकलन - प्रा. रमणीकलाल के. शाह प्रा. विनोद गांधी, गोधरा ९ । ७६-७७ ५। २४-२७ ७ । ८१-८३ ७ । ८३-८४ ३ । १५-२० ११।११०-११४ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 125 अनु सं. - पत्र १२ । १-४८ कृति * मातृकाप्रकरण : एक महत्त्वपूर्ण अभ्यासनीय कृति * मुनि प्रेमविजयनी टीप कर्ता संपादक मुनि अक्षय- विजयशील- चन्द्र चन्द्रसूरि , ह. भायाणी मुनि भुवनचंद्र ६ । ७१-७५ ७ । १०५ ७ । १०६ शीलचन्द्र सूरि ० मुनि प्रेमविजयजीनो एक दस्तावेजी शिलालेख ० मुनि प्रेमविजयजीनी टीपना गुजराती शब्दो मुनि भुवनचन्द्र ७।१०७-१०९ * मङ्गलवाद १० । १-९ वाचक सिद्धिचन्द्र गणि विजय शील- चन्द्र सूरि २ । ५८-५९ * यतिदिनचर्या : वृत्तिनी गवेषणा ० अज्ञात कृत वृत्ति अज्ञात २। ६० प्रद्युम्नविजय गणि प्रद्युम्नविजय गणि प्रद्युम्नविजय गणि ० टीकानो प्रारंभ भाग श्री मति २ । ६१-६२ सागर ह. भायाणी ८।१३०-१३१ * रोयल एसिआटिक सोसायटी (लंडन) मांना टोड हस्तप्रत संग्रह-गत केटलीक नोंधपात्र हस्तप्रत Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 कृति कर्ता संपादक अनु सं. -- पत्र * रेस्टोरेशन ओफ धि के.आर.चन्द्रा ५। ६०-६२ ओरिजिनल लेंग्वेज ओफ धि अर्धमागधी टेक्स्ट्स : एक परिचय * लघु कर्मविपाक-सस्तबकार्थ मुनि धर्मकीर्ति- ८। ८९-९९ विजय * ललितांग चरित्र - एक ह. भायाणी ७। १२९ उत्तरकालीन विरल रासाबंध * ललितांग चरित्र-अपरनाम ईसरसूरि ह. भायाणी ८।१-६१ रासक चूडामणि * लेखशृंगार पुण्यहर्ष महाबोधिविजय १० । ५०-६७ * वज्रस्वामी चरित आगमगच्छीय रमणीक शाह ६। ४७-५५ (अपभ्रंश भाषा बद्ध) आ.श्री.जिन प्रभसूरि * वर्षानुं आगमन - जैन अनुवाद : ह. १०।११०-१११ आगम ज्ञाताधर्मकथा - भायाणी प्रथम श्रुतस्कंधमांनुं वर्षावर्णन * वाचक यशोविजयजीनो पं. शीलचन्द्र- ६।६५-६७ पत्र - खरडो विजय गणि ५ । ४०-४३ * शत्रुजयमंडन ऋषभदेव स्तुति तपागच्छे मुनि भुवनचन्द्र विजय दान सूरि शिष्य 'वासणा' साधु Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 127 कृति __कर्ता संपादक अनु सं. - पत्र * शत्रुजय मंडन ऋषभदेव मुनि भुवनचन्द्र ६ । ११४ स्तुतिनी प्राप्त वधु हस्तप्रतो * शत्रुजय यात्रा वृत्तान्त सोमतिलक विजय प्रद्युम्न- १० । १०-११ सूरि सूरि * शब्द प्रयोगोनी पगदंडी • दुली 'काचबो' ह. भायाणी ४ । ४५ ० चाउरी, गब्दिका, गर्त ह. भायाणी ४ | ३९ ० 'छो', अछो, भलो ह. भायाणी ४। ४१ ० छेअ 'अंत - हानि' ह. भायाणी ४ । ३९ ० जाखल-सेखल ह. भायाणी ४ । ४१-४२ (यक्षप्रतिमा-नागप्रतिमा) ० तणी 'दोरडी' ह. भायाणी ४ । ४३ ० तोडहिआ-एक प्रकारनो ह. भायाणी ४। ४४ ढोल ० शेलो ह. भायाणी ४। ४६ ० सिऊरा ह. भायाणी ४ । ४६-४७ * शब्द-प्रयोगोनी पगदंडी पर ० ए । एय । ओ भाई ह. भायाणी ११ । ९५ ० ओलुं-पेली-अली-अल्या ह. भायाणी ११ । ९४ ० कसरक्क ह. भायाणी ८। १०८ ० केकाण ह. भायाणी ८। २०९ ० खेह ह. भायाणी ८।११० ० बे कहेवत ह. भायाणी ८ । १२० - गाय वाले ते अर्जुन ने बदले गाय वाले ते गोवाल Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 कृति कर्ता संपादक अनु सं. - पत्र ह. भायाणी ह. भायाणी ८ । १११ ८।११२ - चणानी जेम मरी न चवाय ० गुंगलावू , गूंगj ० चपटुं, चांपवू, चीपर्बु, चीवडो ० चंचोलवू ० झपट-झापट ० झुमकुं-झूमखो-झूमणुं ० ठोंसो : ठोसवू-ठांसवू ठसवू-ठेस ० थपथपी, थापडी-थपाट ० दीप-दीवो ० नकलंक ० प्रकीर्ण ० पृथ्वीराज-रासौनी मूल ह. भायाणी ह. भायाणी ह. भायाणी ह. भायाणी ८। ११३ ८ । ११३ ८।११४ ८ । ११५ ह. भायाणी ह. भायाणी ह. भायाणी ह. भायाणी ह. भायाणी ८।११६ ८ । १०८ ८।११६ ८।११९ ८।१२०-१२१ भाषा ० पोपट-पोपचुं ० मळी-तलवट ० रांझण ० ववठावू - वावठवू ० वाणजु ० वावलवू ० वाहडि ० विधवाने रातो साडलो पहेरवानी रूढि ह. भायाणी ह. भायाणी ह. भायाणी ह. भायाणी ह. भायाणी ८ । ११६ ८।११७ ८ । ११७ ८ । ११८ ८।१११ ८।११९ ८ । ११० ८। १२० ह. भायाणी ह. भायाणी इ. भायाणी ह. भायाणी ह. भायाणी ह. भायाणी ११ । ९७-९८ ११ । ९५ ११ । ९५ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 129 कर्ता कृति ० हेय ! हैय्या! * शब्दार्थ चन्द्रिका पं. हंसविजय संपादक अनु सं. - पत्र ह. भायाणी ११ । ९६ मुनि धर्मकीर्ति- ५ । १२-२३ विजय नगीन जी. शाह २।८ * श्रद्धा प्रसाद अने अध्यात्म प्रसाद * शाह वीराना सुकृत वर्णननी प्रशस्ति चउपई पं. प्रद्युम्नविजय ५ । २८-३८ गणि १२ । ७१-८० * सप्तदलं लेखकमलम् एक संस्कृत पत्र * समुद्धारयज्ञनी पूर्णाहुति * 'समुद्र-वहाण' संवाद विजय- विजयशील- लावण्यसूरि चन्द्र सूरि ह. भायाणी वाचक शीलचन्द्रयशोविजय विजय महेश्वर कवि विजय शील- चन्द्र सूरि ९।९८-९९ २ । १-७ * संशय गरल जाङ्गली १० । १२-३५ नाममाला ११ । ११५ आ. विजय प्रद्युम्न सूरि * संशोधन माहिती ० श्री हंसरत्नकृत उपमिति कथा सारोद्धारः * संशोधन वर्तमान ० संशोधन वर्तमान * संशोधन समाचार ० मेरुतुंग बालावबोध व्याकरण १ । २२-४२ २। ८३ १०।१०८-१०९ डॉ. नारायण म. कंसारा Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 संपादक अनु सं. - पत्र १२।१०५-१३४ साध्वीश्रीचारुशीलाश्रीजी मुनि भुवनचन्द्र ८ । ७०-७९ सूरि कृति कर्ता * सांकळियु : "अनुसंधान" १ थी १२ अंकोनुं * स्तंभतीर्थनां देरासरोनी सूचि - १ * श्री स्तंभनाधीश प्रबन्ध संग्रह : भूमिका * श्री स्तंभनाधीश प्रबन्ध मेरुतंग संग्रह * श्री स्तंभन पार्श्वनाथ द्वात्रिंशत् प्रबन्धोद्धार * स्तुत्यात्मक सात लघु कृतिओ १) मंगलपुरीय नवपल्लव . पार्श्वनाथ स्तवन २) मगसी पार्श्वनाथ स्तवन रविसागर (कुटुम्बनामगर्भित) ३) आदिनाथ स्तवन (सुख- रविसागर भक्षिकानामगर्भित) ४) वीरजिन स्तोत्र (सुखा- नेमिसागर शिका नामगर्भित) ५) हीर गीत ६) विजयसेनसूरि-गीत पुण्यहर्ष ७) आदिनाथ स्तुति (कुटु- पंडित म्बनाम गर्भित) भक्तिसागर विजय शील- ९।१-५ चन्द्र सूरि विजय शील- ९।६-६० चन्द्रसूरि विजय शील- ९ । ६१-७५ चन्द्र सूरि मुनि श्री धुरंधर- ८ । ८३-८८ विजयजी अज्ञात पुण्यहर्ष Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 131 . कृति अनु सं. - पत्र * स्याद्वाद-भाषा ८।१०२-१०७ कर्ता संपादक श्री हीरविजय नारायण म. सूरीश्वर शिष्य कंसारा श्री शुभविजय जयंत कोठारी ४ । १०-१५ ह. भायाणी ३। ४३ ह. भायाणी २। २५-२६ ह. भायाणी २। २७-३७ * सालिभद्र-धन्ना चरित्रना कर्ता तथा एने अनुषंगे केटलुक * सिद्धसेन दिवाकरना चरितमां मलतुं एक अपभ्रंश पद्य * सिद्धहेम शब्दानुशासन प्राकृत अध्यायनां उदाहरणोना मूल स्रोत ० मुख्य प्राकृत ८-१-१ थी ८-४-२५९ ० शौरसेनी - ८-४-२६० थी २८६ ० मागधी - ८-४-२८७ थी ३०२ ० पैशाचिक - ८-४-३०३ थी ३२८ ० चूलिका पैशाचिक (८-४-३२५ - ३२८) ० परिशिष्ट-मागधी नमिसाधु-हेमचंद्र ० परिशिष्ट - शौरसेनी नमिसाधु-हेमचंद्र ह. भायाणी २।८४ ह. भायाणी २। ३९-४१ ह. भायाणी २।४२ ह. भायाणी २। ४२ ह. भायाणी २ । ४३-४४ ह. भायाणी २ । ४५-४६ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 कृति कर्ता संपादक अनु सं. - पत्र ह. भायाणी २। ४७ ० परिशिष्ट - पैशाची नमिसाधु-हेमचंद्र ० निष्कर्ष ० पूरक नोंध * सुधर्मास्वामीनो रास ह: भायाणी ह. भायाणी साध्वी दीप्ति- प्रज्ञाश्री २। ४८-४९ २। ८४ ९।७८-८७ अंचलगच्छना पुण्यरत्नसूरि धर्ममुनि * सुभद्रा-सती चतुष्यदिका कनुभाई शेठ २। ७८-८२ शेठ * हस्तप्रतनी प्रशस्तिमां प्राप्त डॉ कनुभाई १० । ७३-७६ नगरो के गामो अंगेनी ऐतिहासिक सामग्री : एक नोंध * हाल्लार देश चरित्रम् मुनि धर्मकीर्ति- ११ । ३७-४२ विजय * हीरविजयसूरिनो लेख मुनि महाबोधि- ५। ३९ विजयजी * श्री हीरविजयसूरिना चार १. धर्मसागर पं. शीलचन्द्र- ४ । ४८-५५ प्राकृत स्वाध्याय गणि विजय २.३. मुनि पद्मसागर ४. विजय चन्द्रविबुध Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 133 कृति कर्ता संपादक अनु सं. - पत्र ४। ५-९ डॉ. प्रह्लाद ग. पटेल * 'हीर सौभाग्यम्'नी स्वोपज्ञ वृत्ति मां प्रयुक्त तत्कालीन गुजरातीदेश्य शब्दो * ज्ञानभंडार प्रशस्ति ११ । ६-१० आ. विजय प्रद्युम्नसूरि अंग्रेजी लेखो H.C.Bhayani ९।१०६-११२ A glossary of Rare and Non-standard Sanskrit Words of The Kathāratnā Kara of Hemavijayagani A Note on अल्लुण, कुसुण/ कुसण, तीमण A Note on ullana, Kusuna/ Kusana H.C.Bhayani ८।१३३-१३४ H.C. Bhayani ९।१०२-१०३ B bhadram te and bhadanta H.C.Bhayani ९।१०४-१०५ Desis employed in Padma Vijaya's Samaraditya-Kevali- Rās Muni Rajhans- १०८९-९३ .. vijay Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृति Interpretation of a Passage in the Bhagavadajjukiya J Jain Monumental Paintings of Ahmedabad N Notes on a few words from Bollee's Glossary to पिंडनिज्जुत्ति and ओहनिज्जुत्ति Notes on some Prakrit Words P Pk. alia - 'tied' Prakrit Subhāśitas from Ramchandra's lost Sudhakalaśa S Some sporadic notes on Bṛhaddeśi Some Note worthy Expressions (in Kathāratnākara) Some Notes on the Buddha Sahajayānai Siddha-Nätha Tradition 134 कर्ता संपादक H.C.Bhayani ६ । ९९-१०० Dr. Shriahar Andhare H.C.Bhayani H.C.Bhayani H.C.Bhayani अनु सं. - पत्र H.C.Bhayani ६ । ९१--९८ H.C.Bhayani ७ । ११८-११९ H.C.Bhayani ७ । १३० १० । ९४-९९ १०११०५ - १०७ H.C.Bhayani ९ । ११२ १०1१००-१४ १२ । ९३-१०४ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________