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________________ 22 । द्वेयस्यां(?)(स्याऽ)न्यतामात्रा-गणिते_न्तिभञ्जिनी ॥ अदितौ नैवमेकारो न तद्देशस्य य: स्वरे । कौम्भसः पयसो भेत्ता हंसश्चेद् वृद्धिरस्त्यपि ॥१०७।। आस्ते निरनुबन्धत्वे जातिर्जीवातुरग्रणीः । इत्यन्यपरिषत्प्राप्तौ जातिस्तमनुवर्तते ॥१०८|| दीर्घ दीर्घोऽपि लीयेत, दीप्तिमध्येऽन्यदीप्तिवत् । न याति वपुरुत्सेधं यौवनानन्तरं नृणाम् ॥ अ आ, आ अ, आ आ, इत्यत आ इत्यादि ॥१०९।। ख-ठ-च-जे फ-श-ष-सा-श्छ कारस्थ-फर्यहः । योगवाहा विसर्गश्चाऽनुस्वार )( कपमेव च ॥ ख ठ च ज र श ष स छ थ फ घ झ ढध भ ह । अः अं)( क प यथोत्तरत्वं भावः । खादयोऽपि स्वर(रं) व्यञ्जनं वाश्रित्यैव हु ॥११०॥ किं च - लिविप्रवाह एवायं याऽनुस्वारपुरोऽटवी । नान्त्यव्यञ्जनतश्चित्रा-लङ्कारः परिहीयते ॥ क क का कं क कां का का के कि के का कु का क कु प् । कौ कं कं क क को कै क - का कं का क क का कु कां ॥ पकारस्याऽप्यदोषात् ॥१११॥ ड-ल योरप्यनुस्वार-विसर्गाभाव-भावयोः । ब-वयोः स-षयोरैक्यं यथायुक्ति रलोः शसोः ।। त--नयोर्ण-नयोस्तद्वत् क्वचिदिच्छन्त्यलंक्रियाः ॥११२॥ घोषे दोषापनोदाय षकारस्य सकारता ।। णकारस्य ना(न)कारत्वं जकारस्य गकारता । ष्ट ष्ण जग (?) इति ॥११३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520512
Book TitleAnusandhan 1998 00 SrNo 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1998
Total Pages140
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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