________________
(O
उ ऊ ऋ ऋ ल लू ए ए (ऐ) च ओ औ च । कः ख-गौ घ-ङ मित्यपि । च-छौ ज-झ-अमीहित्वा , ट-ठौ ड-ढ-णमीहसे ॥ त-थौ द-ध-नमूहित्वा प-फौ ब-भ-ममूहसे । मातर्य-र-ल-वाः ख्याता-स्त्वया श-ष-स-हाः क्रमात् ।। अं अः कंठ्याः प्लुतश्चेति, त्वदीहा विश्ववेशिनी ।।९।।
किं च - लिपिमन्तः परे चेति वर्णा निगदिता द्विधा । अ आ इ ई उ ऊ इत्यादि १। बहुवचनं प्लुतबहुत्वार्थम् २। १०॥ स्वपराश्रयतः प्रोक्ता द्वेधा लिपिमतां गतिः ॥
अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ । क ख ग घ ङ, च छ ज झ ञ, ट ठ ड ढ ण, त थ द ध न, प फ ब भ म य र ल व श ष स ह १। अं अः)( कंठ्य २। ११।।
स्वर-व्यञ्जनतो द्वैधं स्वाश्रिताः पर्युपासते ।। अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ १।
कखगघङ, चछजझञ, टठडढण, तथदधन, पफबभम, यरलव, शषस, ह, २।१२।।
समान-सन्ध्यक्षरतः स्वरभेदद्वयी भवेत् ॥१३।। तत्र - अ-आ, इ-ई, उ-ऊ चैव, ऋ- ऋ , लु-लु इति स्फुटम् । द्वाभ्यां द्वाभ्यां समानानां, प्रणीताः पञ्च जातयः ॥१४॥ ए-ऐ, ओ-औ, चतस्रोऽमूः, स्युः सन्ध्यक्षरजातयः ॥१५|| मात्रात्वेन भवन्तोऽमी, व्यञ्जनानां वरीयसाम् । विराजन्ते यथायोग-मलङ्कारा नृणामिव ॥
१. के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org