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आं जिनाऽजनुराचार्य-मुनितः प्रादुरस्तीह(स्ति ह) ।
अ अ आ म् ॥२७६।। अर्हद्धरणवाग्देव्यो ह्रींकारस्य निबन्धनम् ॥
हरई ॥२७७॥ आधुपान्त्यान्तिमार्हन्तो गीश्चाऽहँ पदमास्थिताः । ज्ञान-दर्शन-चारित्र-मुक्तयो भान्ति तत्र वा ॥
अ र् ह् अं ॥२७८॥ श्रींकारे श्रुत-धरणौ पद्मावत्यृषयः परम् ॥
श् र् ईम् ॥२७९।। होमर्हद्धरणादेह-वाचकर्षिजमीरितम् ॥
ह् र् अ उ म् ॥२८०॥ अर्हन्त धरणादेहै-स्तपसा हुः समाश्रितम्(त: १) ॥
ह् र् अ स् ॥२८१॥ हंसो जिनाऽजनुर्योगी श्रद्धा-श्रुत-तपांसि चेत् ॥
ह् अ म् स् अ स् ॥
अत्यल्पमेतत् । याक्षीयम् ॥२८२॥
- -x - स्वरा अ इ उ ए ओ स्यु-रोष्ट्य-बं तालवीय-शम् । मुक्त्वा व्यञ्जनजाति: स्या-दित्येवोडुलिपेर्गणः ।
अ इ उ ए ओ । क ख ग घ ङच छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ - भ म य र ल व ष स ह । इत्यतः - अ व क हड, म ट पर त, न य भ ज ष, ग स द च ल । घ ङ छ, ष ण ठ, ध फ ढ, ज झ थ। अ इ उ ए कृत्तिका, ओ व वि वु रोहिणी, इत्यादि ॥ नाक्षत्रीयम् ॥२८३॥
आदय: कादयो ज्ञेयाः ख-गौ घ-ङौ परस्परम् । वर्गान्तरेणाऽन्ये वर्णा मूलदेवस्य भाषिते ॥ क का कि की कु कू के कै को कौ कं कः। अग ख ङ घ ट ठ ड
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