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________________ 92 शक्यता छ। श्लो. १२मां 'जलंतं' आवे ज छ। श्लो. २३ - 'वणिविट्ठ' ने स्थाने 'विणिविट्ठा' कल्प्युं छे. परंतु 'वायाणिविट्ठा' कल्पवू वधु योग्य लागे छे। 'जिनपतिसूरिपंचाशिका' मूळ मात्र आपवामां आवी छ। कृतिपरिचय तो नथी ज, आवश्यक एवो प्रतिपरिचय / प्रतिनो स्रोत पण निर्दिष्ट नथी। संपादकोए आ बाबत आग्रह राखवो जोईए । गुरुभक्ति-रंजित आ रचना ऐतिहासिक दृष्टिए महत्त्वनी छे, साहित्यिक दृष्टिए रसिक छे। आवी सुंदर रचना घणी अशुद्ध रही गई छे, संशोधके हजी वधारे श्रम करवो जोइतो हतो। श्लोक २ (पृ. ३२)ना प्रथम बे चरण आम वांची शकाय - माणिमणं व समुन्नय-ममायिवयणं व सरलमभिवंदे । श्लोक १८ (पृ. ३३) - जं सेसवे सयंवि य मणं आसि तुह न चुज्जं । जेणन्नवो(बो)हि(ह)णिज्जा . . . . श्लोक २४ - निदंड मंजणपुरओ . . . . श्लोक ४२मां एक महत्त्वनो शब्द खूटे छे - विक्कमनरेसरा उ दसहिय (सएसु ?) गएसु वासाणं । डॉ. नारायण मं. कंसारानो लेख, बीजी रीते उत्तम होवा छतां, 'अनुसंधान व्यापमां ए आवे के केम-एवो सवाल उद्भवी शके । 'अनुसंधान में अनुसंधानात्मक-संशोधनात्मक सामग्री आपवानी मर्यादा इच्छनीय न गणाय, प्रकाशित थता प्राचीन साहित्यनी समीक्षा आ पत्रमा आपी शकाय, अने । खास आपवी जोइए, परंतु अनुप्रेक्षा-प्रेरणा-विचार-विवेचन जेवी सामग्री अन पत्रो माटे छोडी देवी जोइए एम नथी लागतुं ? मुनि भुवनच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520512
Book TitleAnusandhan 1998 00 SrNo 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1998
Total Pages140
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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