________________
एक पत्र
मुनि भुवनचन्द्र C/o. चुनीलाल मेगजी वोरा मोटी खाखर - ३७० ४३५ कच्छ - गुजरात. ता. ५-४-९८
आदरणीय संपादको,
अनुसंधान-११ नी लेखसामग्री वैविध्यसभर छ । मुद्रणमा विविध टाइप-साइझोनो उपयोग हवे थाय छे ते सारुं छे। एनाथी लखाण, एकधारापणुं तो टळे ज, ध्यानार्ह भागो झट नजरे पडे, विषय विभागो विशद थाय ।
पञ्चसूत्रना कर्ता विशे ऊहापोह करतो आ.श्री शीलचन्द्रसूरिनो लेख विद्वानोनुं ध्यान खेंचशे। जैन साहित्य अने जैन इतिहासनी एक अनिर्णीत बाबत आ लेखमां शास्त्रीय रीते चर्चाइ छ। पञ्चसूत्रना कर्ता अन्य कोई नहीं पण श्री हरिभद्रसूरि ज छे - ए विधानना समर्थनमा पुष्कळ आंतर-बाह्य प्रमाणो लेखके रजू कर्यां छे। वृत्तिना अंते “समाप्तं पञ्चसूत्रकं व्याख्यानतोऽपि" ए वाक्यमा आवता "अपि" शब्दनी चर्चा विचार करवा प्रेरे एवी छे। आ प्रकारचं वाक्य टीकाकारनी कलममांथी कदापि टपकी शके नहीं अने 'अपि' शब्दनी उपयुक्तता अन्य कोई रीते स्थापित थई शके नहीं। आ वाक्य तरफ संशोधकोनुं ध्यान केम नथी गयु ए वात नवाई पमाड़े एवी छ। गणधर-सार्ध शतकनी वृत्तिमां पञ्चसूत्रनो हरिभद्रकर्तृक तरीकेनो उल्लेख तथा उपाध्यायजी द्वारा 'धर्मपरीक्षा'मां थयेलुं विधान - ए बे पण सबळ प्रमाणो छ। बृहट्टिप्पनिकाना उल्लेखने सूक्ष्म दृष्टिए तपासीने लेखके काढेलो निष्कर्ष पण, अन्य प्रमाणोना प्रकाशमां, सुसंगत बने छ। लेखके आ संदर्भमां उत्पन्न थता अन्य आनुषंगिक प्रश्नोनी पर्याप्त विचारणा करी छे । भाषाकीय विचारणा पण थई छ । 'समराइच्चकहा'ना गद्य साथे पञ्चसूत्रना गद्यनी तुलना नथी करी, पण ए बन्ने ग्रन्थ जेमणे वांच्या हशे तेमने एक ग्रन्थ वांचतां बीजानुं स्मरण अवश्य थयु
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org