Book Title: Aagam 30 V GACHCHHAACHAAR Moolam evam Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' [३०-वृ] श्री गच्छाचार (प्रकीर्णक)सूत्रम् नमो नमो निम्मलदंसणस्स। पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः । “गच्छाचार" मूलं एवं वृत्ति: [मूलं एवं वानर्षिगणि विवृत्ता वृत्ति: [आदय संपादकः - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ।। (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.) | 15/01/2015, गुरुवार, २०७१ पौष कृष्ण १० jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिल......आगमसूत्र-[३०-७], प्रकीर्णकसूत्र-0] गच्छाचार" मूलं एवं वानर्षिगणि विहिला वृत्तिः Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-वृ) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [-]-------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[३०-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार' मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: प्रत सत्राका ॥ अर्हम् ॥ श्रीमदानन्दविमलाचार्यान्तिपच्छ्रीमद्वानरर्षिविहितवृत्तियुतं श्रीमद् गच्छाचारप्रकीर्णकम् । प्रकाशयित्री प्राग्मुद्रितागमविक्रयागतद्रव्यसाहाय्येन आगमोदयसमितिः शाह, वेणीचन्द्र सुरचन्द्रद्वारा-श्रीआगमोदयसमितिः 215HRSHASH575PRS asRAPPA दीप अनुक्रम मोहमय्या निर्णयसागरमुद्रणालये कोलभाटवीच्या २३ तमे निलये रामचंद्र येसू शेडगेद्वारा मुद्रयित्वा प्रकाशितम्, प्रतयः १२५० ] पीरसंपत् २४५७. विक्रम संवत् १९८०. क्राइष्ट सन् १९२३. [पण्यम् १.. R-SHRSHHHHHHHSLR-SUR-SUSSSS | गच्छाचारप्रकीर्णक-(सवृत्तिक)स्य मूल टाईटल पेज ~1~ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाङ्का: १३७ 'गच्छाचार' प्रकीर्णकसूत्रस्य विषयानुक्रम दीप-अनुक्रमा: १३७ । मुलाक: गाथा: पृष्ठांक: मूलाक: गाथा: पृष्ठाक: मलाक: गाथा: पृष्ठांक: । ०६ ००१ | ०४१ | मङ्गलं-आदिः गुरू-स्वरुपस्य वर्णनं । । ०४ २८ । ००३ | १०७ । गच्छ-संवसमानस्य-गुणा: । ०५ आर्या-स्वरुपस्य वर्णनं ६८ ००७ | १३४-१३७ सूरि-स्वरुपस्य वर्णनं उपसंहार मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[३०-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार" मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: ~ 2~ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ['गच्छाचार - मूलं एवं विजयविमलगणि विवृत्ता वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत "श्रीमद् गच्छाचारप्रकीर्णकम् नामसे प्रकाशित हुई, इस प्रतमे (आगम-३०) 'गच्छाचार नामक प्रकीर्णक-७ एवं वानर्षि विवृत्ता वृत्ति: सम्मिलित है इसके आद्य संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | इस प्रत को पूज्य आचार्यदेव श्री सागरानन्दसूरीश्वरजी ने सन १९२३ मे अर्थात् विक्रम संवत १९८० मे आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशीत करवाई थी | हमारा ये प्रयास क्यों? आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर मूलसूत्र या गाथा के क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा सूत्र या गाथा चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रो के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है। हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक विषय-आदि लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते विषय तक आसानी से पहुँच शकता है | कई-कई पृष्ठो के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जहां उस पृष्ठ पर चल रहे खास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन-भूल सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है | अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ......मुनि दीपरत्नसागर..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[३०-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार" मुलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: ~3~ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) (३०-व) ...................-- मूलं ||१|| .................... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार" मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: 4% ॥ अर्ह ॥ गच्छायारपइण्णयं। मङ्गलामिधेयादि गा.१ प्रत ||१|| दीप अनुक्रम श्रीपार्श्वजिनमानम्य, तीर्थाधीशं वरप्रदम् । गच्छाचारे गुरोर्शाता, वक्ष्ये व्याख्या यथाऽऽगमम् ॥ १॥ शास्त्रस्यादी प्रयोजनाभिधेयसम्बन्धमङ्गलान्यभिधातव्यानि, तत्र प्रयोजनमनन्तरपरम्परभेदाद् द्विधा, पुनरेकैकं कर्तृश्रोतृभेदाद् द्विधा, तत्र गच्छाचारप्रकीर्णककर्तुरनन्तरप्रयोजनं शिष्यावबोधः, परम्परं त्वपवर्गप्राप्तिः, श्रोतुरप्यनन्तरं तदर्थावगमः, परम्परं तु मुक्तिपदप्राप्तिः १, अभिधेयं तु गच्छाचारः, तस्यैव भणिष्यमाणत्वात् २, सम्बन्धश्चोपायोपेयभावलक्षणः, तत्र वचनरूपापन्नमिदमेव गच्छाचारप्रकीर्णकमुपायः, उपेयं तु तदर्थपरिज्ञानम् ३, मङ्गलं द्विधा द्रव्यभावभेदात्, तत्र द्रव्यमङ्गलं पूर्णकलशादि, तद् अनैकान्तिकत्वात् मुक्त्वा भावमङ्गलं तु शास्त्रकर्तुरनन्तरोपकारित्वादभीष्टदैवतस्य वर्द्धमानस्वामिनो नमस्कारद्वारेणाह नमिऊण महावीरं तियसिंदनमंसियं महाभागं । गच्छायारं किंची उद्धरिमो सुयसमुदाओं ॥१॥ 'नत्वा' प्रणम्य, के ?-महांश्चासौ वीरश्च महावीरस्तं महावीर, किंविशिष्टम् -त्रिदशा-सुमनसस्तेषामिन्द्रैः A4- [१] गनछा.१ 54-5 | भगवन् महावीर वंदना एवं 'गच्छाचार' उद्धरण-कथनं ~ 4~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३० - वृ) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [१] श्रीगच्छाचार उघुवृत्ती ॥ १॥ “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः) - मूलं ||१|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ३० वृ], प्रकीर्णकसूत्र [७] “गच्छाचार” मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्तिः उन्मार्ग ईशैर्नमस्थितं नमस्कृतं 'महाभागं' विश्वविख्यात चतुस्त्रिंशन्महाऽतिशयविराजमानं अचिन्त्यशक्त्यन्वितं वा गच्छस्यभावमुनिवृन्दस्याचारो - ज्ञानाचारादिः गणमर्यादारूपो वा तं गच्छाचारं 'किञ्चित्' स्वल्पमुद्धरामो वयं श्रुतमेव- 4 सन्मार्गगद्वादशाङ्गी लक्षणमेव समुद्र:- सागरः श्रुतसागरस्तस्मात् श्रुतसमुद्रात् ॥ १ ॥ अथ प्रथमं तावदुन्मार्गस्थिते गच्छे वसतां फलं दर्शयति च्छवासफ-. लंगा. २०७ १५ अस्थेगे गोयमा ! पाणी, जे उम्मग्गपइट्टिए। गच्छंमि संवसित्ताणं, भमई भवपरंपरं ॥ २ ॥ अत्थे० ॥ अस्तीत्यव्ययं बहुवचनार्थे 'अस्ति' सन्ति विद्यन्त इत्यर्थः 'एके' केचित्-वैराग्यवन्तः 'प्राणिनो' जीवाः हे गौतम ! 'ये' जीवाः अज्ञानत्वेन पण्डितंमन्यत्वेन च मार्गदूषणपूर्वकमुत्सूत्रप्ररूपणा यत्र स उन्मार्गः अथवा यत्र | पञ्चाश्रवप्रवृत्तिः स उन्मार्गस्तस्मिन् प्रतिष्ठिते-प्रकर्षेण स्थिते एवंविधे 'गच्छे' साध्वाभासगणे 'संवसित्ताणं' ति उषित्वा 'भ्रमन्ति' परिभ्रमणं कुर्वन्तीत्यर्थः, कां ? - भवस्य - चतुर्गतिलक्षणस्य परम्परा-परिपाटी तां भवपरम्पराम् ॥ २ ॥ अथ किश्चित्प्रमादवतामपि सन्मार्गस्थिते गच्छे वसतां गाथापञ्चकेन फलं दर्शयति जामद्ध- जाम- दिण पक्खं, मासं संवच्छरंपि वा । सम्मग्गपट्टिए गच्छे, संवसमाणस्स गोयमा ! ॥ ३ ॥ लीला अलसमाणस्स, निरुच्छाहस्स वीमणं । पिक्खविक्खाइ अण्णेसिं, महाणुभागाण साहूणं ॥ ४ ॥ उज्जमं सबधामेसु घोरवीरतवाइयं । लज्जं संकं अइकम्म, तस्स बिरियं समुच्छले ॥ ५ ॥ वीरिएणं तु जीवस्स, समुच्छलिएण गोधमा । जम्मंतर कर पावे, पाणी मुहुतेण निद्दहे ॥ ६ ॥ अथ उन्मार्ग- सन्मार्ग गच्छवास फलम् कथयते ~5~ २० ॥ १॥ २५ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं ||३-७|| ---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार' मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३-७|| दीप अनुक्रम [३-७] तम्हा निउणं निहालेउ, गच्छं सम्मग्गपट्टियं । वसिज्ज तत्थ आजम्म, गोयमा ! संजए मुणी ॥ ७॥ सद्गच्छफलं 'जामे त्यादिगाथापञ्चकम् ॥ 'यामार्द्ध' प्रहराई 'याम' प्रहरं 'दिन' अहोरात्र 'पक्ष' मासार्द्ध 'मास' पक्षद्वयं 'संवत्सरं प्रतीतं, अपिशब्दादू वर्षद्वयादिकं यावत् ,वाशब्दो विकल्पार्थः, 'सन्मार्गप्रतिष्ठिते' जिनोक्तवचने यथाशक्ति स्थिते 'गच्छे'||* सत्साधुगणे 'संवसमानस्य' निवासं कुर्वाणस्य साधोवश्यमाणलक्षणस्येतिशेषः हे गौतम!॥३॥किंभूतस्य ?-लीलया-सुख| वन 'अलसमाणस्स'त्ति आलस्यं कुर्वाणस्य 'निरुत्साहस्य' निरुद्यमस्य 'वीमण'ति षष्ठ्यर्थे द्वितीया 'विमनस्कस्य' शून्यचि|त्तस्य 'पिक्खविक्खाइ'त्ति पश्यतः साधूनां 'महानुभागानां' प्रौढप्रभावाणाम् ॥४॥ 'उद्यम' अनालस्य 'सर्वस्थामसु' सर्वकि यासु, किंभूतमुद्यम ?-'घोरवीरतबाइअंति घोर-दारुणमल्पसत्वैर्दुरनुचरत्वात् 'वीर'न्ति वीरे-कमरिपुविदारणसमर्थे भवं| 5 ४ बैरं, एवंविधं तप आदियंत्र तम् , आदिशब्दाहुष्करगुर्वादिवैयावृत्त्यं, 'लज्जा' ब्रीडां 'शङ्कां' जिनोक्ते गुरुवचने च संशयरूपां |'अतिक्रम्य' सर्वथा परित्यज्य 'तस्य' सुखशीलादिदोषयुक्तस्यापि साधोः 'वीर्य' जीवोत्साहरूपं समुच्छलेत्, अहमपि जिनोक्त|क्रियां करोमि येन दुष्टदुःखसागरान्मुञ्चामीत्यर्थः, षष्ठाङ्गोक्तशेलकाचार्यवत् ॥५॥ वीर्योच्छलने फलमाह-वीर्येण तु जीवस्य | समुच्छलितेन हे गौतम ! 'जन्मान्तरकृतानि' बहुभवोपार्जितानि 'पापानि' ज्ञानावरणादिदुष्कर्माणि 'पाणी' आसन्नमो. क्षकः 'मुहूर्तेन' अन्तर्मुहूर्तमात्रेण 'निदेहेत्' भस्मसात्कुर्यादित्यर्थः, स्कन्धकाचार्यशिष्यदृढप्रहारिमरुदेव्यादिवदिति || ॥६॥ यस्मादालस्यवतामपि सद्गणे एते गुणास्तस्मात् 'निपुणं' आत्ममोक्षकर, यथा स्यात्तथा 'निभाल्य' ज्ञानचक्षुषा-8 विलोक्य 'गच्छं' गणं 'सन्मार्गप्रस्थितं' जिनोक्तमार्गव्यवस्थितं 'वसेत्' गुर्वाज्ञापूर्वक निवासं कुर्यादित्यर्थः, 'तत्र' सद्गणे | १४ ~6~ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं ||३-७|| ----- ---- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[३०-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार' मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: आचार्य सूत्रांक ||३-७|| दीप अनुक्रम [३-७] श्रीगच्छा जन्म मर्यादी कृत्य 'आजन्म' यावजीवमित्यर्थः 'हे गौतम ! 'संयतः' षड्जीवपालनतत्परः 'मुनिः' गुर्वभिप्रायागमवेत्ता ॥७॥ चारलघु- 1 अथ सन्नणः सदाचार्येणैव भवत्यतः सदाचार्यलक्षणमाह मेढी आलंबणं खंभ, दिट्ठी जाणं सुउत्तिमं । सूरीज होइ गच्छस्स, तम्हा तं तु परिक्खए॥८॥ ४ मेढी० ॥ 'मेढी'त्ति मेढिः-पशुबन्धार्थ खलमध्ये स्थूणा, यथा तया बद्धानि बलीवादिवृन्दानि मर्यादया। प्रवर्त्तन्ते, 'आलम्बनं' यथा गादी पतजन्तोहस्ताद्याधार आलम्बन तथा भवगायां पततां भव्यानामाचार्य आलम्बन, कामातुरस्वशिष्यं प्रति नन्दिषेणवत्, 'खंभ' यथा स्तम्भो गृहाधारो भवति तथाऽऽचार्यः साधुसंयमगृहाधारः मेघसंयम-18| गृहं प्रति श्रीवीरवत् , दिही ति नेत्रं यथा नेत्रेण हेयोपादेयं विलोक्यते तथाऽऽचार्यरूपनेत्रेण हेयोपादेयं ज्ञायते प्रदेशिवत्, 'यानं' यानपात्रं यथा अच्छिद्रं यानपात्रं सत्संयोगे तीरं प्रापयति तथाऽऽचार्योऽपि भवतीरं प्रापयति, जम्बूस्वामिनं प्रति श्रीसुधर्मस्वामिवत् , 'सुउत्तिम मिति सुष्ठु-अत्यर्थ दृढा गुप्तिः-नवब्रह्मचर्यरूपा अस्यास्तीति सुगुप्तिमान ,यद्वा सुष्टु-अतिशायिनी कुमतककैशप्रस्तरटङ्कणायमाना सङ्घपद्मचन्द्रायमाना युक्तिरस्यास्तीति सुयुक्तिमान् , अथवा 'सुउत्तम'मिति पाठे तु सुठु अतिशयेनाचार्यगुणैरुत्तमः 'यत्' यस्मात् एवं विधः 'सूरि' आचार्यों भवति 'गच्छस्य' गणस्य योग्यस्तस्मात् 'ते' आचार्य का परिक्खए'त्ति तस्य परीक्षां कुर्यादित्यर्थः॥८॥ सन्मार्गस्थिताचार्यस्वरूपं किञ्चिदर्शितं, अथैतद्विपरीतस्वरूपं प्रश्नयन्नाह-x॥२॥ भयवं! केहिं लिंगेहि, सूरि उम्मग्गपट्ठियं । वियाणिज्जा छ उमत्थे, मुणी ! तं मे निसामय ॥९॥ भय० ॥ 'हे भगवन्!' हे पूज्य ! कैः लिङ्गैः' लक्षणः सूरि 'उन्मार्गप्रस्थित' विरुद्धमार्गव्यवस्थितं विजानीयात् । | अथ आचार्यस्य लक्षणं प्रदर्शयते Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) (३०-व) ...........- मूलं ||९|| ............---- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-व], प्रकीर्णकसूत्र-[७] "गच्छाचार" मलं एवं वानर्षिगणि विहिता वत्ति: प्रत सूत्रांक ||९|| दीप अनुक्रम SANSARASHTRA ६'छद्मस्थः' केवलज्ञानकेवलदर्शनशून्यः ?, इति परप्रश्ने सति गुरुराह-'हे मुने' हे भिक्षो ! 'तत्' उन्मार्गप्रस्थिताचार्यचिहंदू उन्मार्गगा|'मे' मम कथयतस्त्वं 'निसामय'त्ति शृणु-आकर्णय ॥९॥ मिसूरिचिसच्छंदयारि दुस्सीलं, आरंभेसु पवत्तयं । पीढयाइपडिबद्ध, आउकायविहिंसगं ॥१०॥ हंगा. मूलुत्तरगुणभट्ठ, सामायारीविराहयं । अदिण्णालोयणं निचं, निश्चं विगहपरायणं ॥११॥ |१०-११ सच्छन्द० मूलु० ॥ स्वच्छन्देन-स्वाभिप्रायेण न तु जिनवचनेन चरति स्वपूजार्थं मुग्धकुमतिपातनार्थ च यः स है स्वच्छन्दचारी तं स्वच्छन्दचारिणं दुष्ट-जिनगुर्वाज्ञाभञ्जकत्वेन शीलम्-आचारः पश्चाचारलक्षणो यस्य स दुःशीलस्तं दुःशीलं, अथवा दुरिति कुत्सितः-परवञ्चनाऽनाचारसेवनादिलक्षणः शीलं-स्वभावो यस्य स दुम्शीलस्तं दुःशील, 'आरंभेसु'त्ति बहुवचनात्सरम्भसमारम्भयोर्ग्रहणं, तत्रारम्भः-पृथिव्यादिजीवोपघातः १ संरम्भो-वधसङ्कल्पः २ समारम्भः परितापः ३ तेषु प्रवर्तकं, वर्षाकालं विनेति शेषः, पीठम्-आसनमुपवेशनार्थ, आदिशब्दात्पट्टिकादयस्तेषु प्रतिबद्धं ४ कारणं विना सेवनतत्परमित्यर्थः, आपो-जलमेव कायः-शरीरं यस्य सोऽप्काय:-अप्रासुकजले तस्य विविध-अने-IG कधा पदक्षालनपात्रक्षालनादिप्रकारेण हिंसकं-घातकं अप्कायविहिंसकम् ॥ १०॥ मूलु० ॥ चारित्रकल्पवृक्षस्य मूलकल्पा गुणा:-प्राणातिपातविरमणादयो मूलगुणाः, मूलगुणापेक्षया उत्तरभूता गुणा:-पिण्डविशुद्ध्यादयो वृक्षस्य शाखा इवो-131 त्तरगुणास्तेभ्यो भ्रष्ट-सर्वथा तत्राप्रवर्तकं, 'सामायारीविराहय'ति त्रिधा सामाचारी-ओघनियुक्तिजल्पितं सर्वमोघसामाचारी, सा च नवमपूर्वात्तृतीयाद्वस्तुन आचाराभिधानात् तत्रापि विंशतितमात् प्राभृतात् तत्राप्योषप्राभृतान्नि!-1 १४ ~8~ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं ||१०-११|| .............--- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-व], प्रकीर्णकसूत्र-[७] "गच्छाचार" मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वत्ति: श्रीगच्छा चारलघु प्रत वृत्ता सूत्रांक ||१० -११|| CLASSAGACASSASSSSS ढेति १, पदविभागसामाचारी जीतकल्पकनिशीथादिच्छेदग्रन्थोक्ता, साऽपि नवमपूर्वादेव २, चक्रवालसामाचारी तु अभ्यर्थ- उन्मागंगानैव तावत्साधूनां न कल्पते, कारणे तु यद्यभ्यर्थयेत् परं तत्रेच्छाकारः कार्यः, यद्वा तस्य कुर्वतः किश्चित् कश्चिन्निर्जराथी मसूराच ब्रूते, यथा-तव कार्यमहं विधास्ये, तत्रापीच्छाकारो न बलात्कारः, दुविनीते बलात्कारोऽपि १, कल्पाकल्पे ज्ञाननिष्ठां हंगा. प्राप्तस्य संयमतपोभ्यामान्यस्य गुरोनिर्विकल्पं वाचनादौ ययं वदत तत्तथेति वाच्यं २, संयमयोगेऽन्यथाऽऽचरिते सति || मिथ्याकारः ३, ज्ञानाद्यर्थमवश्यं गमने आवश्यिकी कार्या ४, वसतिचैत्यादी प्रविशन्नैपेधिकी कुर्यात् ५, कार्योत्पत्ती है |गुरोरापृच्छनं ५, गुरुणा पूर्वनिषिद्धेनावश्यकार्यत्वात्प्रतिपृच्छा, पूर्वनिरूपितेन वा करणकाले पुनः प्रतिपृच्छा ७, पूर्वगृही तेनाशनादिना छन्दनम्-आह्वानं साधूनां कार्यम् ८, अटनार्थं गच्छता निमन्त्रणं ९, ज्ञानाद्यर्थमन्यगुरोराश्रयणमुपसंपत् | |१०-३ । अन्या वा निशीथोक्ता दशधा सामाचारी, यथा प्रातःप्रभृति क्रमशः प्रतिलेखना उपधेः १, ततः प्रमार्जना , वसतेः २, भिक्षा कार्या ३, आगतैरीर्या प्रतिक्रम्या ४, आलोचनं कार्य गृहानीतानां ५, असुरसुरंतिभोक्तव्यं ६, कल्पत्रयेण पात्रकाणां धावनं कार्य ७, विचारः सजोत्सर्गार्थ बहिर्यानं ८, स्थण्डिलानि 'बारस २ तिन्नि यत्ति २७ कार्याणि ९ प्रतिक्रमणं कार्य १० इत्यादि, विशेषतस्तु पञ्चवस्तुकद्वितीयद्वारे ज्ञेया, तस्या विराधको-भजकस्तं सामाचारीविराधकं, नित्यं यावज्जीवमित्यर्थः, दत्ता-अर्पिता आलोचना-स्वपापप्रकाशनरूपा येन स दत्तालोचनो न दत्तालोचनः अदत्तालोचनस्तमदत्तालोचनं स्वपापाप्रकाशकमित्यर्थः, महानिशीथोक्तरूपीसाध्वीवत्, आलोचनाग्रहणं किश्चिद् यथा-प्रथम |स्वकीयाचार्यपार्षे आलोचयितव्यं १ तदभावे स्वोपाध्याये २ तदभावे स्वप्रवर्तके ३ तदभावे स्वस्थविरे ४ तदभावे गणाव ACACAAAAAAAKA दीप अनुक्रम [१०-११] ~9~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं ||१०-११|| ---------------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-व], प्रकीर्णकसूत्र-[७] "गच्छाचार" मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वत्ति: प्रत सूत्रांक ॥१० -११|| च्छेदिनि ५, अथ स्वगच्छे पश्चानामप्यभावे परगच्छे सांभोगिके आचार्यादिक्रमेणालोचयितव्यं, सांभोगिके गच्छे उन्मार्गगापञ्चानामध्यभावे संविग्नेऽसांभोगिके पश्चाचार्यादिक्रमेणालोचयितव्यं, संविग्नासाम्भोगिकानामध्यभाव गीतार्थपार्श्वस्थ-6 मिसूरिचि हगा. समीपे तदभावे सारूपिके संयतवेषगृहस्थे तदभावे गीतार्थपश्चात्कृते त्यक्तचारित्रवेषगृहस्थे तदभावे सम्यक्त्वभा १०-११ है वितदेवतायां, यतो देवता महाविदेहादी जिनानापृच्छय कथयत्यतः, तदभावे जिनप्रतिमापुरतः, तदभावे पूर्वाद्यभिमुखोPऽहंतः सिद्धानभि समीक्ष्य जानन् प्रायश्चित्तविधि स्वयमेव प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यते, एवं प्रतिपद्यमानः शुद्ध एवेति, ४ तथा नित्य-सदा सर्वत्र विरुद्धा कथा विकथा, तत्र स्वीकथा १ भक्तकथा २ देशकथा ३ राजकथा ४ मृदुकारुहै णिकाकथा ५ दर्शनभेदिनीकथा ६ चारित्रभेदिनीकथा ७ रूपा सप्तधा, आद्याश्चतस्रः कण्ठ्याः , श्रोतृहृदयमार्दवजननान्मृद्वी सा चासौ पुत्रादिप्रलापप्रधानत्वात्कारुण्यवती मृदुकारुणिका, यथा-"हा पुत्त!२ हा वच्छ ! २ मुकाऽसि | कहमणाहाऽहं । एवं कलुणपलावा जलंतजलणेऽज सा पडिया ॥१॥" दर्शनभेदिनी ज्ञानाद्यतिशयतः कुतीर्थिकनिवप्रशंसारूपा ६ यस्यां कथायां कथ्यमानायां कृतवारित्रमनसः प्रतिपन्नव्रतस्य वा चारित्रं प्रति भेदो भवति | अथवा विविधरूपा परपरिवादादिलक्षणा कथा विकथा तस्यां परायणं'ति भृशं तत्परमित्यर्थः, भुवनभानुकेवलिपूर्वभव18 रोहिणीश्राविकावत् । यद्वा कथा चतुर्धा यथा-आक्षिप्यते-मोहात्तत्त्वं प्रत्याकृष्यते श्रोता यया साऽऽक्षेपणी १, विक्षिप्यते-4 |कुमार्गविमुखो विधीयते श्रोता यया सा विक्षेपणी २ संवेद्यते-मोक्षसुखाभिलाषी विधीयते यया सा संवेदनी ३, निर्वेद्यते-131 संसारनिर्विण्णो विधीयते यया सा निर्वेदिनी ४, तद्विपरीता विकथा तस्यां तत्परस्तं, हे सौम्य ! एवंविधं सूरिमुन्मार्गगा tortortortortortortortortortor दीप अनुक्रम [१०-११] ~ 10~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-वृ) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं ||१०-११|| .............--- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार" मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक |१० वृत्ती 54545C -११|| दीप श्रीगच्छा-1 मिनं जानीहीति ॥ ११॥ पूर्व दोषवतामदत्तालोचनानां दोषवत्त्वमुक्तम् , अथ किं गुणवतामालोवनास्वरूपवेत्तृणां सा है परसाशिचारलघु- गृहीता विलोक्यते न वा ? इत्याह क्यालोच| छत्तीसगुणसमण्णागएण तेणवि अवस्स कायक । परसक्खिया विसोही सुहवि ववहारकुसलेण ॥१२॥ दिना गा.१२ ॥ ४॥ | छत्ती० ॥ देशकुलादयः षट्त्रिंशद्गुणा यथा-आर्यदेशोत्पन्नः सुखावबोधवाक्यः स्यात् १, पैतृकं कुलं, सुकुलोद्भवो यथोक्षिप्तभारोद्वहने न श्राम्यति २, मातृकी जातिस्तत्संपन्नो चिनयान्वितः स्यात् ३, रूपवान् आदेयवाक्यः स्याद् आकृतौ गुणा वसन्तीति ४, संहननयुतो व्याख्यानादिषु न श्राम्यति ५, धृतिः-चित्तावष्टम्भस्तद्युतो गहनेष्वप्यर्थेषु न भ्रमं याति ६,६ अनाशंसी न श्रोतृभ्यो वखाद्याकालते ७, अविकत्वनो न बहुभाषी स्यात् ८, अमायी-शाठयत्यतः ९, स्थिरपरिपाटिः, तस्य हि सूत्रमर्थश्च न गलति १०, गृहीतवाक्योऽप्रतिघातवचनः स्यात् ११, जितपर्षत् परप्रवादिक्षोभ्यो न स्यात् १२ |जितनिद्रोऽल्पनिद्रः १३, मध्यस्थः सर्वशिष्येषु समचित्तः १४, देश १५ काल १६ भाव १७ ज्ञः सुखेन विहरति १७ आसन्नलब्धप्रतिभः परतीर्थिकादीनामुत्तरदाने समर्थः १८, नानाविधदेशभाषाज्ञो नानादेशजविनेयान् सुखेन शास्त्राणि ग्राहयति १९, पश्चविधाचारयुतः श्रद्धेयवचनः स्यात् २४, सूत्रार्थोभयज्ञः सम्यगुत्सर्गापवादप्ररूपका स्यात् २५, आहरण-151 दृष्टान्तः २६, हेतुर्द्विधा-कारको ज्ञापकश्च, तत्र कारको यथा घटस्य कर्ता कुम्भकारः, ज्ञापको यथा तमसि घटादीनाम-6 |भिव्यञ्जका प्रदीपः २७, उपनयः-उपसंहारो दृष्टान्तदृष्टस्यार्थस्य प्रकृते योजनमिति भावः, कचित् कारण-निमित्तं २८,1 नया-जैगमादयस्तेषु निपुणः २९, स हि श्रोतारमपेक्ष्य तत्प्रतिपत्त्यनुरोधतः कचिद् दृष्टान्तोपन्यासं २६ कचिद्धेतूपन्यासं अनुक्रम [१०-११] %ECALCCC | आलोचना स्वरुपवेत्तानाम् ३६ गुणानाम् कथनं ~ 11~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) (३०-व) ------------ मूलं ||१२|| -.........--- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-७], प्रकीर्णकसूत्र-[७] "गच्छाचार" मलं एवं वानर्षिगणि विहिता वत्ति: प्रत सूत्रांक ||१२|| दीप अनुक्रम [१२]] |२७ कचिदधिकृतमर्थमुपसंहरति २८, नयप्रस्तावे नयानवतारयति २९, ग्राहणाकुशलः प्रतिपादनशक्तियुक्तः ३०, Gपरसाक्षिस्वसमयं परसमयं वेत्ति, परेणाक्षिप्त उभयं निर्वाहयति ३१ । ३२ । गम्भीरः-अतुच्छस्वभावः ३३, दीप्तिमान् परवादिना- क्यालोचमक्षोभ्यः ३४, शिवो-मारिरोगाद्युपद्रवविघातकृत् ३५, सौम्यः शान्तदृष्टितया प्रीत्युत्पादकः ३६, तैः समन्वागतेन-संयु नागा.१२ तेन तेनापि, अन्य आस्ताम् , अवश्यं-निश्चयेन कर्त्तव्या, का?-परेपामाचार्याणां साक्षिकी परसाक्षिकी विशेषेण-निर्मायत्वेन शुद्धिः-दोषमलकर्षणं विशुद्धिरालोचनेत्यर्थः, पुनः किंविशिष्टेन तेन ?-सुष्वपि ज्ञानक्रियाव्यवहारकुशलेन-सुविहितेनेति, ६ यद्वा सुष्ठपि व्यवहारेषु पश्चप्रकारेषु आगम १ श्रुता २ ज्ञा ३ धारणा ४ जीतलक्षणेषु ५ कुशलो-निपुणस्तेन, तत्राऽऽग-181 म्यन्ते-परिच्छिद्यन्ते पदार्था अनेनेत्यागमः स च केवलिमनःपर्यायज्ञान्यवधिज्ञानिचतुर्दशपूर्विदशपूर्विनवपूर्विणां भवति, तत्र यदि केवली प्राप्यते तदा तस्यैवालोचना दीयते तदभावे परेषां १, निशीथकल्पव्यवहारदशाश्रुतस्कन्धप्रमुखं सर्वमपि श्रुतव्यवहारः २, देशान्तरस्थिते गुरौ शिष्यो गूढपदानि लिखित्वा प्रेषयति तदाऽसौ आज्ञारूपव्यवहारः, यद्वा देशान्तरस्थितयोद्धयोगीतार्थयो'ढपदैरालोचना-जातातीचारनिवेदनमाज्ञाव्यवहारः, कोऽर्थः?-यदा द्वावप्याचार्यावासेवितसूत्रार्थ तयाऽतिगीतार्थों क्षीणजङ्घावलौ विहारक्रमानुरोधतो दूरदेशान्तरव्यवस्थितावत एव परस्परस्य समीपे गन्तुमसमर्था14वभूतां तदाऽन्यतरः प्रायश्चित्ते समापतिते सति तथाविधयोग्यगीतार्थशिष्याभावे सति धारणाकुशलमगीतार्थमपि शिष्य समयभाषया गूढार्थान्यतीचारासेवनपदानि कथयित्वा प्रेषयति, तेन च गत्वा गूढ पदेषु कथितेषु स आचार्यों द्रव्यक्षेत्रकालभावसंहननधृतिबलादिकं परिभाव्य स्वयं तत्रागमनं करोति, शिष्यं वा तथाविधं योग्यं गीतार्थ प्रज्ञाप्य प्रेषयति, का १४ ~ 12 ~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-वृ) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं ||१२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-व], प्रकीर्णकसूत्र-[७] "गच्छाचार" मलं एवं वानर्षिगणि विहिता वत्ति: श्रीगच्छा- प्रत वृत्ता सूत्रांक ||१२|| २० दीप अनुक्रम [१२]] तदभावे तस्यैव प्रेषितस्य गूढार्थामतिचारशुद्धिं कथयतीति ३, इह केनचिद्गीतार्थसंविग्नेन गुरुणा कस्यापि शिष्यस्य आलोचकचिदपराधे या शुद्धिःप्रदत्ता तां तथैवावधार्य सोऽपि शिष्यस्तथैवापराधे प्रयुले तदाऽसौ धारणाव्यवहारः, उदृतपद-नादृष्टान्तः धरणरूपा वा, कश्चित्साधुर्गच्छोपकारी अयशेषच्छेदग्रन्थयोग्यो न भवति गुरुस्तस्योदतपदानि ददाति, तेषां पदानां आचार्यकधरणं धारणाव्यवहारः ४, द्रव्यादि विचिन्त्य संहननादीनां हानि ज्ञात्वा चोचितेन केनचित्तपःप्रकारेण यां गीतार्थाः 3 यं गा. शुद्धिं दिशन्ति तत्समयभाषया जीतमुच्यते, यद्वा यत्प्रायश्चित्तं यस्याचार्यस्य गच्छे सूत्रातिरिक्तं कारणतः प्रवर्तित १३-१४ अन्यैश्च बहुभिरनुवर्तितं तत्तत्र रूढं जीतमुच्यते, तदेवमेतेषां पञ्चानां व्यवहाराणामन्यतरेणापि व्यवहारेण युक्त एव प्रायश्चित्तप्रदाने गीतार्थों गुरुरधिक्रियते न चागीतार्थोऽनेकदोषसम्भवादिति, अपिशब्दादनेकमब्यानां विधिना दत्तालोचनस्तेनापीति ॥ १२ ॥ अथालोचनायां दृष्टान्तमाह| जह सुकुसलोऽवि विज्जो अण्णस्स कहेद अत्तणो वाहिं । विजुवएसं सुच्चा पच्छा सो कम्ममायरइ ॥१३॥ जह सु०॥ यथा सुष्टु कुशलोऽपि-भिषक्शाने निपुणोऽपि, अपिशब्दाद्वय प्राप्तोऽपि, 'वैद्यः' चिकित्साकर्ता 'आत्मनः४॥ स्वस्य 'व्याधि' रोगोत्पत्तिं 'अन्यस्य' परवैद्यस्य 'कथयति' यथास्थितं निरूपयति, 'वैद्योपदेश' वैद्यनिरूपितं 'श्रुत्वा आकर्ण्य 'पश्चात्' परवैद्यकथनानन्ततरं सः-वैद्यस्तद्वैद्योक्तं 'कर्म' प्रतीकाररूपं 'आचरति' करोतीत्यर्थः, एवमालोचना- ५ स्वरूपज्ञाता आलोचकोऽपि सद्गुरूक्तं तपो यथाऽर्पितं करोतीति ॥ १३ ॥ अथाचार्यकृत्यं किशिदाह देसं खितं तु जाणित्ता, वत्थं पत्तं उवस्सयं । संगहे साहुबग्गं च, सुत्तत्थं च निहालई १४॥ ~ 13~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३० - वृ) प्रत सूत्रांक ॥१४॥ दीप अनुक्रम [१४] “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र- ७ (मूलं+वृत्ति:) - मूलं ||१४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ३०-वृ], प्रकीर्णकसूत्र [७] “गच्छाचार” मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्तिः देसं० ॥ 'देश' मालवकादिकं 'क्षेत्रं' रुक्षारूक्षभाविताभावितादिरूपं तुशब्दाद् गुरुग्लानबालवृद्धप्राघूर्णादियोग्यं द्रव्यं | दुर्भिक्षादिकालं च ज्ञात्वा 'वस्त्रं' आचाराङ्गाद्युक्तविधिना चीवरं 'पात्रं' पतग्रहादिकं 'उपाश्रयं' स्त्रीपशुपण्डकवर्जितमुनियोग्यालयं संगृह्णीत, तथा चोक्तं स्थानाङ्गसप्तमस्थानके - आचार्योऽनुत्पन्नान्युपकरणानि सम्यगुत्पादयिता भवति, पूर्वोत्पन्नान्युपकरणानि सम्यक् संरक्षयिता उपायेन चौरादिभ्यः संगोपयिता अल्पसागरिककरणेन मलिनतारक्षणेन चेति, तथा साधूनां वर्गो-वृन्दं साधुवर्गस्तं चशब्दात्साध्वीवर्ग च नतु हीनाचारवर्ग, तथा सूत्र - गणधरादिवद्धं तस्यार्थो - निर्यु|क्तिभाष्य चूर्णिसङ्ग्रहणिवृत्तिटिप्पनादिरूपः सूत्रं चार्थश्च सूत्रार्थं 'निभालयति' जिनोपदेशेन चिन्तयतीत्यर्थः, चशब्दात्सुविनीतविनेयवर्ग जिनगणधराज्ञया पाठयति, अविनीतविनेयं प्रति नार्पयति प्रायश्चित्तापत्तेः एवंविध आचार्यो मोक्षमार्गवाहकः कथितः ॥ १४ ॥ अथ मोक्षमार्गभञ्जकः कथ्यते संगोबरगहं विहिणा, न करेइ अ जो गणी । समणं समणिं तु दिक्खित्ता, सामायारिं न गाहए ।। १५ ।। बालाणं जो उ सीसाणं, जीहाए उवर्लिए । न सम्ममग्गं गाहेइ, सोसूरी जाण वेरिओ ॥ १६ ॥ संग० ॥ सङ्ग्रहं-ज्ञानादीनां सच्छिष्याणां वा संग्रहणं, उपग्रहं च तेषामेव भकश्रुतादिदानेनोपष्टम्भनं 'विधिना' उत्सर्गापवादप्रकारेण न करोति स्वयं प्रमादमदिरामस्तत्वेन चशब्दान्न कारयति कुर्वन्तमन्यं द्वेषयति यः कश्चित् 'गणी' आचार्याभासः, तथा श्रमणं च श्रमणी 'दीक्षित्वा' व्रतारोपं विधाय 'सामाचारी' 'जयं चरे जयं चिट्ठे' इत्यादिरूपां अथ मोक्षमार्गभञ्जकः कथ्यते ~14~ मोक्षभञ्जकः गा. १५-१६ ५ १० १३ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं ||१५-१६|| --------------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[३०-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार' मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: प्रत श्रीगच्छाचारलघु वृत्तो * सूत्रांक ॥१५-१६|| -* -644 सत्स्वगच्छोक्तां वा 'न ग्राहयेत्' निर्जरापेक्षी सन्न शिक्षयतीत्यर्थः, तुशब्दात्सुविनीतप्रतीच्छकगणमपि न सूत्रार्थ ददाति सदसद्गुरुसोऽयोग्य इति ॥ १५॥ शिष्यस्वबाला॥'बालानां' प्रश्नव्याकरणोक्तानां यो-ाणी 'शिष्याणां' अन्तेवासिना, तुशब्दान्महत्तरा स्वशिष्यणीनां, 'जिलया। रूपम् गा. रसनया उपलिम्पेत् गौरिव वत्सं, भावार्थोऽयम्-अत्यन्तबाह्यहितकोमलामन्त्रणचुम्बनादिप्रकारान् करोतीत्यर्थः, 'सम्य-2 |१७-१८ ग्मार्ग' मोक्षपथं 'न ग्राहयति' न दर्शयति न शिक्षयतीत्यर्थः, उपलक्षणाच्छिशयन्तमन्यं निवारयति स आचार्यो-गणा-13 धीशो 'वैरी' रिपुरिति त्वं जानीहि, अथवाऽऽर्षत्वाद्विभक्तिपरिणामः, तमाचार्य वैरिणं जानीहि त्वमिति ॥ १६ ॥ अथासद्गुरुसद्गुर्वोः किञ्चित्स्वरूपं दर्शयति- . जीहाए विलिहंतो न भहओ सारणा जहिं णत्थिं । दंडेणवि ताडतो स भद्दओ सारणा जत्थ ॥१७॥ जीहाए। 'जिह्वया विलिहन्' बाह्यहितं कुर्वन्नाचार्यों 'न भद्रोंन कल्याणकृत् यत्र गणिनि-गुरौ 'सारणा' हिते हैं प्रवर्तनलक्षणा कृत्यस्मारणलक्षणा वा, उपलक्षणत्वाद्वारणा-अहितान्निवारणलक्षणा चोयणा-संयमयोगेषु स्खलितः सन्नयुक्तमेतद्भवादृशां विधातुमित्यादिवचनेन प्रेरणा, प्रतिचोदना-तथैव पुनः पुनः प्रेरणा 'नास्ति' न विद्यते, तथा दण्डेनापि यष्यापि, अपिशब्दावरकादिना 'ताडयन्' शरीरे पीडां कुर्वन् स आचार्यों 'भद्रः' कल्याणकृत् यतो यत्र है| २५ सारणादि विद्यत इति ॥ १७॥ अथ विनेयनिर्गुणत्वमाह सीसोवि वेरिओ सो उ, जो गुरुं नवि बोहए । पमायमइराघत्थं, सामायारीविराहयं ॥१८॥ दीप अनुक्रम [१५-१६] अथ सद्-असद् गुरु-शिष्य स्वरुपम् दर्शयते ~ 15~ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-वृ) “गच्छाचार" - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं ||१८|| -.............-- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-], प्रकीर्णकसूत्र-[७] "गच्छाचार" मलं एवं वानर्षिगणि विहिता वत्ति: प्रत सूत्रांक ||१८|| - दीप अनुक्रम [१८] 'सीसो० ॥ 'शिष्योऽपि' स्वहस्तदीक्षितोऽपि वैरी' शत्रुः स यो 'गुरुं' धर्मोपदेशक 'न बोधयति' हितोपदेशं न ददाति, तशब्दाद्धितोपदेशं दत्त्वा सन्मार्गे न स्थापयति, किंभूतं ?-प्रमादो-निद्राविकथादिरूपः स एव मदिरा-वारुणी प्रमाद-12 | गुरुबोधनं गणिस्वरू. मदिरा तया प्रस्तम्-आच्छादितं तत्त्वज्ञानमित्यर्थः सामाचारीविराधकं, षष्ठाडोक्तशेलकाचार्यवत् येन चातुर्मासिकमपि न ज्ञातमिति ॥ १८ ॥ अथ कथं प्रमादिनं गुरुं बोधयति ? इत्याह [१९-२० तुम्हारिसावि मुणिवर ! पमायवसगा हवंति जइ पुरिसा । तेणऽन्नो को अम्हं आलंयण हुज्ज संसारे ॥१९॥ मी तुम्हा०॥ युष्माशा अपि हे 'मुनिवर ! श्रमणश्रेष्ठ 'प्रमादवशगाः' प्रमादपरवशा भवन्ति 'यदि' चेत् 'पुरुषाः' पुमांसः हतेन कारणेन 'अन्य' पूज्यव्यतिरिक्तः कः 'अस्माकं' मन्दभाग्यानामकृतपुण्यानां प्रमादपरवशानां भवच्चरणारविन्दचच रीकाणां त्यकपुत्रगृहगृहिणीनां आलम्बनं सागरे नौरिव भविष्यति भयङ्करे पीडाकरे शोकभरे दुःखाकरे अपारसंसारे चतु|र्गत्यात्मके पततामिति ॥ १९॥ . नाणमि दंसणंमि य चरणमि य तिमुवि समयसारेसु । चोएह जो ठवेडं गणमप्पाणं च सो अ गणी ॥२०॥ | नाणं. ॥ 'ज्ञाने' अष्टविधज्ञानाचारे 'दर्शने' अष्टविधदर्शनाचारे च 'चरणे' अष्टविधचारित्राचारे च त्रिष्वपि समयसारेषु, चशब्दात्तपआचारे वीर्याचारे च, 'चोपइति प्रेरयति यो 'गणी' सूरिः, किं कर्तुं ?-स्थापयितुं, कं !-'गणं' कुलसमुदायरूपं 'आत्मानं च स्वयं च, चशब्दात् श्रोतृवर्ग च, स च 'गणी' आचार्यः कथितो गणधरादिभिः ॥२०॥ पिंडं उबहिं सिजं उग्ममउप्पायणेसणासुदं। चारित्तरक्खणडा सोहिंतो होइ स चरिती ॥२१॥ %ाऊक गन्ना.२७ अथ 'गणि'स्वरुपम् कथयते ~16~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं ||२१|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-व], प्रकीर्णकसूत्र-[७] "गच्छाचार" मलं एवं वानर्षिगणि विहिता वत्ति: प्रत सूत्रांक ||२१|| दीप अनुक्रम श्रीगच्छा- पिंड०॥"पिण्ड' चतुर्विधाहारलक्षणं 'उपधि' औधिकौपग्रहिकलक्षणं, तत्रौधिकस्त्रिधा-मुखवत्रिका १ पात्रकेशरिका २४चारित्रिलचारलघु-द गुच्छका पात्रप्रस्थापनं ४ चेति चतुर्विधो जघन्यः, पटलानि १ रजत्राणं २ पात्रबन्धः ३ चोलपट्टः ४ मात्रकं ५ रजो- क्षणम् गा. वृपा शाहरणं ६ चेति पनिधो मध्यमः, पतब्रहः १ कल्पत्रयं ४ चेति चतुर्विध उस्कृष्टः, औपग्रहिकोपधिरपि दण्डासनक १ दण्डक २ पुस्तका ३ दिभेदेन त्रिधा स्यात्, विशेषतो जीतकल्पटीकादिभ्यो ज्ञेयमुपधिस्वरूपमिति, 'शय्यां' आचाराङ्गोक्तवदसतिलक्षणां, एतत्रयमुद्गमोत्पादनैषणादोषशुद्धं, तत्रोगमः-पिण्डस्योत्पत्तिः तद्विषया आधाकर्मिकादयः षोडश दोषा उद्गम दोषाः, एते च प्रायेण गृहिभ्यः समुत्पद्यन्ते, प्रायेणेत्युक्त स्वद्रव्यक्रीतस्वभावकीतलोकोत्तरप्रामित्यलोकोत्तरपरिवर्तितरूप४ दोषाः साधुनाऽपि क्रियमाणा अवसेया इति १६, उत्पादना-मूलतः शुद्धस्यापि पिण्डस्य धात्रीत्वादिभिरुपार्जनं तद्वि- II षयाः षोडश दोषाः, साधुसमुत्थाः ते उत्पादनादोषाः, साधुनैव तेषां विधीयमानत्वात् १५, एषणा-शङ्कितादिभिरन्वेषणं| तद्विषया गृहिसाधुजन्या दश दोषाः एपणादोषाः, शङ्कितदोषस्य साधुभावापरिणतदोषस्य च साधुजन्यत्वात् शेषाणां च ४ गृहिप्रभवत्वादिति, 'चारित्ररक्षार्थ' संयमपरिपालनार्थ 'शोधयन्' विशुद्धपिण्डग्रहणार्थमवलोकयन् तदप्राप्ती गुरुलघुदोषाहैनन्वेषयंश्च भवति स 'चारित्री' चारित्रवानित्यर्थः, गुरुलघुदोषस्वरूपं यथा तत्र सर्वगुरु मूलकर्म, तत्र मूलं १८०, एतस्मा चाधाकर्मकं कौंदेशिकचरमत्रिकं मिश्रान्त्यद्विकं बादरप्राभृतिका सप्रत्यपायाभ्याहृतं लोभपिण्डः अनन्तकायाव्यवहित-| निक्षिप्तपिहितसंहतमिश्रापरिणतच्छर्दितानि संयोजना साङ्गारं वर्तमानभविष्यन्निमित्त चेति लघवो दोषाः, मूलप्रायश्चित्ता-| है चतुर्थतपोवत् १ तेभ्यः कमौदेशिकाद्यभेदः मिश्रप्रथमभेदः धात्रीत्वं दूतीत्वं अतीतनिमित्तं आजीवनापिण्डः वनीपकत्वं [२१] : अत्र चारित्रि-लक्षणं दर्शयते ~ 17~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-वृ) “गच्छाचार" - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं ||२१|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-व], प्रकीर्णकसूत्र-[७] "गच्छाचार" मलं एवं वानर्षिगणि विहिता वत्ति: प्रत सूत्रांक ||२१|| दीप अनुक्रम [२१] बादरचिकित्साकरणं क्रोधमानपिण्डी संबन्धिसंस्तवकरणं विद्यायोगचूर्णपिण्डाः प्रकाशकरणं द्विविघं द्रव्यक्रीतं आत्मभा-15 गच्छरक्ष वक्रीतं लौकिकपामित्यपरावर्तिते निष्पत्यपायपरग्रामाभ्याहृतं पिहितोद्भिन्न कपाटोनिन्नं उत्कृष्टमालापहृतं सर्वमाच्छेद्यं कस्वरूप है सर्वमनिसृष्टं पुरःकर्म पश्चात्कर्म गर्हितम्रक्षितं संसक्तमक्षितं प्रत्येकाव्यवहितनिक्षिप्तपिहितसंहृतमिश्रापरिणतच्छर्दितानि प्रमा गा. शणोलनं सधूमं अकारणभोजनं चेति लघवो दोषाः, चतुर्थादाचाम्लमिव २ एतेभ्योऽप्यध्यवपूरकान्त्यभेदद्वयं कृतं 5 भेदचतुष्टयं भक्तपानपूतिकं मायापिण्डः अनन्तकायव्यवहितनिक्षिप्तपिहितादीनि मिश्रानन्ताव्यवहितनिक्षिप्तानि चेति त & लघवः, आचाम्लादेकभक्तमिव ३ एतेभ्योऽप्योघौद्देशिकमुद्दिष्टभेदचतुष्टयमुपकरणपूतिकं चिरस्थापितं प्रकटकरणं लोकोत्तरं |परावर्तितं प्रामित्यं च परभावक्रीतं स्वग्रामाभ्याहृतं दर्दरोद्भिन्नं जघन्यमालापहृतं प्रथमाध्यवपूरकः सूक्ष्मचिकित्सा गुणसं स्तवकरणं मिश्रकर्दमेन लवणसेटिकादिना च बक्षितं पिष्टादिरक्षितं किश्चिदायकदुष्टं प्रत्येकपरम्परस्थापितादीनि मिश्राहै नन्तरस्थापितादीनि चेति लघवः, एकभक्तात्पुरिमार्द्धमिव ४ एतेभ्योऽपि त्वित्वरस्थापितं सूक्ष्मप्राभृतिका सस्निग्ध सरजस्करक्षितं प्रत्येकमिदं परम्परस्थापितादीनि चेति लघवः, पुरिमार्द्धान्निर्विकृतिकमिवेति ५ । विशेषस्तु छेदग्रन्था४ दवसेय इति ॥२१॥ अपरिस्सावी सम्म समपासी चेव होइ कज्जेसुं । सो रक्खइ चक् पिब सवालवुड्डाउलं गच्छं ॥२२॥ अप० ॥न परिश्रवति-न परिगलतीति अपरिश्रावी, आचाराडोक्ततृतीयभङ्गा(हृद)तुल्य इत्यर्थः, तद्यथा-एको हृदः परि-181 8 गलच्छ्रोताः पर्यागलच्छ्रोताच, शीताशीतोदाप्रवाहहृदवत्, यतस्तत्र जलं निर्गच्छत्यागच्छति च १ अपरस्तु परिगलच्छ्रोताः CAMANASALARS अत्र गच्छरक्षकस्य स्वरुपम् प्रकाश्यते ~ 18~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार" - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं ||२२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-व], प्रकीर्णकसूत्र-[७] "गच्छाचार" मलं एवं वानर्षिगणि विहिता वत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| ॥८॥ दीप श्रीगच्छा-टनो पर्यागलच्छ्रोताः पद्मदवत्, पद्महदे तु जलं निर्गच्छति न त्वागच्छति २ तथा परो नो परिगलतोताः पर्यागलत-| अधमाचाचारलघुश्रोताच, लवणोदधिवत् , लवणे आगच्छति जलं न तु निर्गच्छति ३ अपरस्तु नो परिगलत्श्रोता नो पर्यागलश्रोताच, येस्वरूप मनुष्यलोकादहिः समुद्रवत्, तत्र नागच्छति न च निगेच्छति ४ । तत्राचार्यः श्रुतमङ्गीकृत्य प्रथमभङ्गपतितः, श्रुतस्य । 'गा.२३-४ दानग्रहणसद्भावात् १ साम्परायिककोपेक्षया तु द्वितीयभङ्गपतितः, कषायोदयाभावेन ग्रहणाभावः कायोत्सर्गादिना ४ाक्षपणापत्तेच, साम्परायिककर्म तु कषायकर्म २ आलोचनामङ्गीकृत्य तृतीयभङ्गपतितः, आलोचनायाः अप्रतिश्रावि-18 लात् ३ कुमार्ग प्रति चतुर्थभङ्गपतितः, कुमार्गस्य हि प्रवेशनिर्गमाभावात् ४ । यद्वा केवलं श्रुतमाश्रित्य धर्मभेदेन , भङ्गा योज्यन्ते, तत्र स्थविरकल्पिकाचार्याः प्रथमभङ्गपतिताः १ द्वितीयभङ्गपतितास्तु तीर्थकृत् २ तृतीयभङ्गकास्त्वा-12 हालन्दिकाः, तेषां च क्वचिदर्थापरिसमाप्तावाचार्यादेनिर्णयसद्भावात् ३ प्रत्येकबुद्धास्तूभयाभावाच्चतुर्थभङ्गस्थाः ४, कथं ?,18 सम्यक्-सर्वप्रकारेण, तथा समा-अविपरीता पासीति-दृष्टिदर्शनमवलोकनं यस्यासौं समदृष्टिर्भवति, व?-'सर्वकार्येषु' आगमव्याख्यानादिसकलव्यापारेष्वित्यर्थः 'सः' पूर्वोक्त आचार्यः 'रक्षति' धत्ते कुमार्गे पतितमिति शेषः, कं?-12 'गच्छं' गणं, किंभूतं ?-सबालाश्च ते वृद्धाश्च सवालवृद्धास्तैराकुल:-सङ्कीर्णस्तं सबालवृद्धाकुलं, किमिव !, चक्षुरिव, यथा 8 |चक्षुर्गादौ पतन्तं जन्तुगणं धत्ते तथाऽयमिति ॥ २२ ॥ अथाधमाचार्यस्वरूपं गाथाद्वयेनाह सीयावेइ विहारं सुहसीलगुणेहिं जो अबुद्धीओ। सो नवरि लिंगधारी संजमजोएण णिस्सारो॥२३ ।। कुलगामनगररजं पयहिय जो तेसु कुणइ हु ममत्तं । सो नवरि लिंगधारी संजमजोएण निस्सारो ॥२४॥ अनुक्रम RECENS E [२२]] | अथ आचार्यस्य स्वरुपम् कथयते ~ 19~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३० - वृ) प्रत सूत्रांक ||२३ -२४|| दीप अनुक्रम [२३-२४] “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः) - मूलं ||२३-२४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [ ३० - वृ] प्रकीर्णकसूत्र [७] “गच्छाचार” मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्तिः सीया० ॥ 'सीयावे 'त्ति शिथिलत्वं प्रापयति मुनीनामिति शेषः कं प्रति ? - विहारं प्रति अथवा 'सीयावेइ'त्ति स्वयमलसो भवति, क्व ? - विहारे, अत्र "सप्तम्या द्वितीये" ति प्राकृतसूत्रेण सप्तम्यर्थे द्वितीयेति, अत्र विहारस्वरूपं बृहत्कल्पादिभ्यो यथा-साधूनां ग्रामनगरराजधान्यादिषु वृत्तिप्राकारपरिक्षेपयुक्तेषु बहिर्गृहपद्धतिरहितेषु एकं मासं यावद्वस्तु कल्पते कारणं विना हेमन्तग्रीष्मयोः, कारणे तु पाटकपरावर्त्तनं क्रियते, तदभावे गृहपरावर्त्तनं, तदभावे वसतावेव स्थानपरावर्त्तनं, न त्वेकस्थानवसनमिति, ग्रामादिषु वृत्तिप्राकारपरिक्षेपयुक्तेषु बहिर्गृहपद्धतियुकेषु मासद्वयं यावद्वस्तुं कल्पते हेमन्तग्रीष्मयोः, मासमेकमन्तः वहिरेकं च, यत्रैव वसति तत्रैव भिक्षाचर्या भवति, एवं साध्वीनामपि, नवरं यत्र साधूनां मासकल्पस्तत्र साध्वीनां मासद्वयं यावद्वस्तुं कल्पते । तथा सुखशीलस्य - साताभिलाषिणो गुणाः पार्श्वस्थादिस्थानानि सुखशीलगुणास्तैर्यः 'अबुद्धीओ'त्ति तत्त्वज्ञानरहितः, यद्वा 'सुहसीलगुणेहिंति, इत्यत्र सप्तम्यर्थे तृतीया, सुखं च-उपशमसन्तोषलक्षणं शीलं च-मूलगुणलक्षणं गुणाश्च- उत्तरगुणरूपास्तेषु यः, न विद्यते बुद्धिः - अन्तःकरणभावरूपा यस्यासौ अबुद्धिः अबुद्धिरेवाबुद्धिकः भावशून्य इत्यर्थः, यद्वा सुखे मोक्षलक्षणे शीलं स्वभावो येषां ते सुखशीलाःजिनास्तेषां गुणाः केवलज्ञान केवलदर्शनादिरूपास्तेषु यः 'अबुद्धीओ'त्ति अत्र नञ् कुत्सार्थे कुत्सिता विरुद्ध प्ररूपणरूपा बुद्धिः - मतिर्यस्यासौ अबुद्धिकः, 'स' पूर्वोक्तः 'नवरं' केवलं लिङ्गं साधुनेपथ्यरूपं धरतीत्येवंशीलो लिङ्गधारी, द्रव्यलिङ्गधारीत्यर्थः, तथा संयमः पृथिव्यादिः सप्तदशलक्षणः, यथा पृथिवी १ भू २ वह्नि ३ वायु ४ तरु ५ द्वि ६ त्रि ७चतुः ८ पञ्चेन्द्रियाणां ९ मनोवाक्कायैः करणकारणानुमतिभिः संरम्भसमारम्भारम्भवर्जनमिति जीवसंयमः, पुस्तकादीन् ~20~ अधमाचार्यस्वरूपं गा. २३-४ १० १४ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) (३०-वृ) ............-- मल ||२३-२४|| .................. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[३०-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार' मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: श्रीगच्छा प्रत सूत्रांक ||२३-२४|| प्रतिलेखनापूर्वकं धारयतोऽजीवसंयमः १०, प्रेक्ष्य चक्षुषा शयनासनादीनि कुर्वीतेति प्रेक्षासंयमः ११, पावस्थादीनामु- उत्तमाचापेक्षणमुपेक्षासंयमः १२, सचित्ताचित्तमिश्ररजोऽवगुण्डितपादादीनां प्रमार्जनं प्रमार्जनासंयमः १३, अनुपकारक वस्तु हायस्वरूपं विधिना परिष्ठापयतः परिष्ठापनासंयमः १४, द्रोहेयादिभ्यो निवृत्तिधर्मध्यानादिषु प्रवृत्तिर्मनासयमः १५, एवं वाकाय-12 योरपि १६:१७, तस्य योगः-प्रतिलेखनादिव्यापारस्तेन निस्सारश्चर्वितताम्बूलवदिति, यद्वा 'संजम' निर्गतं सारं-स्वर्गा-15 द्र पवर्गफलं यस्य स निस्सारः, केन ?-संयमश्च योगश्च-योगोद्वहनं संयमयोगं तेन, बाध्यसंयमयोगोद्वहनहेतुत्वादिति ॥२३॥ कु०॥ कुलं-गृहं ग्राम-सकर नकर-गो १ महिषी २ उष्ट्र ३ छाग ४ च्छगली ५ तृण ६ पलाल ७ बूरक ८ काष्ठा ९-12 झार १० क्षेत्र ११ गृह १२ दूरदेशव्यवसायि १३ बलीवर्द १४ घृत १५ चर्म १६ भोजन १७ सेइमाणाक १८ रूपाष्टा- दशकररहितं राज्य-सप्ताङ्गमयं, अथवा राज्यमिति सर्वत्र योज्यं, यथा कुलराज्य ग्रामराज्यं नगरराज्य, यद्वा कुलग्राम-IX नगराणि यत्रैवंविधं राज्यं 'पयहियत्ति त्यक्त्वा पुनरिति शेषः 'यः' साध्वाभासः 'तेषु' कुलादिषु 'करोति' विधत्ते 'हु' |निधितं 'ममत्वं ममैतदिति मन्यते 'स: पूर्वोक्ता केवलं 'लिङ्गधारी' वेपमात्रधारी संयमा-पञ्चाश्रवविरमण ५ पञ्चेन्द्रिय-| निग्रह १० कषायचतुष्टयजय १४ दण्डनयविरति १७ लक्षणस्तस्य योगो-व्यापारस्तेन निस्सारो-गतसार इति ॥ २४ ॥ *पुनर्गाथात्रयेणोत्तमाचार्यस्वरूपमाहविहिणा जो उ चोपड, सुत्तं अत्थं च गाहई । सो धण्णो सो अ पुण्णो य, स बंधू मुक्खदायगो ॥२५॥ स एव भवसत्ताणं, चक्खुभूए वियाहिए । दसेइ जो जिणुदिडं, अणुहाणं जहट्ठियं ॥ २६ ॥ दीप अनुक्रम [२३-२४] BAMCHAAKAAAAACN २८ ~ 21~ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३० - वृ) प्रत सूत्रांक ||२५ -२७|| दीप अनुक्रम [२५-२७] “गच्छाचार" - - प्रकीर्णकसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः) मूलं ॥ २५-२७|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [ ३० - वृ] प्रकीर्णकसूत्र [७] “गच्छाचार” मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्तिः तित्थयरसमो सूरी सम्मं जो जिणमयं पयासेइ । आणं अइकमंतो सो काउरिसो न सप्पुरिसो ॥ २८ ॥ स बिहि० ॥ ‘विधिना' आगमोक्तन्यायेन यः आचार्यः तुशब्दादुपाध्यायादिकः 'चोर'त्ति नोदयति- प्रेरयति दिन| स्मारणवारणप्रति नोदनादिभिः शिष्याणामिति, 'सूत्र' आचाराङ्गादिकं उत्सर्गा १ पवादो २ सर्गापवादिका ३ दौत्सर्गिको ४ सर्वोत्सर्गिका ५ पवादापवादिकात्मकं ६, तथा सूत्रपाठनानन्तरं तस्यैव निर्युक्तिभाष्यचूर्णि संग्रहणी त्या| दिरूपं परम्परात्मकमर्थं 'ग्राहयति' शिक्षयति चकारात् नैगमसह व्यवहारऋजुसूत्रशब्दसमभिरूढैवंभूतान् सप्त यान् ज्ञापयति स आचार्यः 'धन्यः' सूत्रधनदायकत्वात् स च 'पुण्यः' अर्थदानपुण्यकृत्त्वात् चकाराज्जिनाज्ञाप्रतिपाल बन्धुरिव बन्धुः कुमत्यादिनिवारणेन सन्मार्गे स्थापकत्वात् मुक्ख० ज्ञानेन जीवादिपदार्थपरिज्ञानं तेन संयमे ढ दृढत्वेन कर्माभावस्ततो मोक्षदायक इति ॥ २५ ॥ स ए० ॥ स एव' अनन्तरोक्त एव 'भव्यसत्त्वानां' मोक्षगमन ग्यजन्तूनां 'चक्षुर्भूतः' नेत्रतुल्यः 'व्याहृतः' कथितः जिनादिभिः 'दर्शयति' कुमतिपटलनिराकरणेन प्रकटयति 'यः' | आचार्यशिरोमणिः 'जिनोद्दिष्टं' जिनोकं 'अनुष्ठानं' मोक्षपथप्रापकं रक्षत्रयं 'यथास्थितं' यादृशं स्यात्तादृशम् ॥ १६ ॥ | तित्थ० ॥ तीर्थ - चतुर्विधः सङ्घः प्रथमगणधरो वा तत्कुर्वन्तीति तीर्थकरास्तेभ्यः समः - तुल्यः, देशसमत्वमिदं ज्ञेयं, अन्यथा क तीर्थकरत्वं क्वाचार्यत्वमिति कः ? - सूरिः - अनेकातिशयसंयुक्तो गौतमादिसदृश आचार्यः 'सम्यगू' इति सर्व त्या यो 'जिनमतं' जगत्प्रभुदर्शनं नित्यानित्यादिस्वरूपवाचकं सप्तनयात्मकं कुमततरुगजायमानं 'प्रकाशयति' : ध्यान् ~ 22~ उत्तमाचार्यस्वरूपं गा. २५-७ ५ -१० १३ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) -------- मूलं ||२५-२७|| ..............--- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-३०-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार" मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२५-२७|| श्रीगच्छादर्शयतीत्यर्थः, 'आज्ञा' पारगतोक्तमर्यादा 'अतिक्रमन्' उल्लयन् पुनः सः 'कापुरुषः' पुरुषाधमः, 'न सत्पुरुषः' न प्रधान आज्ञातिचारलघु- पुरुषो, जमालिवदिति ॥ २७ ॥ अथ कीदृशा आचायों आज्ञातिकामका भवन्ति , आह क्रामकस्य वृत्ती ट्राभट्टायारी सूरी १भट्ठायाराणुविक्खओ सूरी २। उम्मग्गठिओ सूरी ३तिनिवि मग्गं पणासंति ॥२८॥ स्वरूपं तWI भद्रा० ॥ भ्रष्टः-सर्वथा शिथिलीभूतः आचारो-ज्ञानाचारादिर्यस्य स भ्रष्टाचारः 'सूरिः' अधर्माचार्यः १ भ्रष्टा- त्सेवाफलं ॥१०॥ चाराणां-मुक्तसंयमव्यापाराणां मुनीनामुपेक्षका, प्रमादप्रवृत्तसाधुसाध्वीवृन्दान् न निवारयतीत्यर्थः, 'सूरि' मन्द-18 गा.२९ट्राधर्माचार्यः २ 'उन्मार्गस्थितः' उत्सूत्रादिप्ररूपणे प्रवृत्तः 'सूरिः' अधमाधमो नामाचार्यः ३ एते त्रयोऽपि 'मार्गाल ज्ञानादिरूपं पन्थानं 'प्रणाशयन्ति' भृशं विनाशयन्तीत्यर्थः॥ २८ ॥ एतान् यः सेवते तस्य फलं दर्शयन्नाह उम्मग्गठिए सम्मग्गनासए जो उ सेवए सूरिं। निअमेणं सो गोयम ! अप्पं पाडेइ संसारे ॥२९॥ । ट्र उम्म०॥ 'उन्मार्गस्थितान्' आगमविरुद्धप्ररूपकान् 'सन्मार्गनाशकान्' जिनोकमार्गदूषकान् 'यः' भव्यसत्त्वः सेवते, तदुक्तममुष्ठानं कुरुत इत्यर्थः, तुशब्दात्तदुक्तमनुष्ठानं कारयति अनुमोदयति च, 'सूरि मिति 'सूरीन्' आचार्यान् प्राकृतत्वादे-12 कवचनं, 'नियमेन' निश्चयेन स हे गौतम! आत्मानं स्वयं पातयति 'संसारे' भवान्धकूपे क्षिपतीत्यर्थः ॥२९॥ किञ्चद्रा उम्मग्गठिओ एकोऽवि नासए भवसत्तसंघाए । तं मग्गमणुसरंतं जह कुत्तारो नरो होइ ॥३०॥ सम्म ॥ एकोऽपि'- अद्वितीयोऽपि सूरिः साधुर्वा 'उन्मार्गस्थितः' कुमतिकदाग्रहप्रस्तो नाशयति, संसारसागरे पातसारसागर ॥१०॥ पातयतीत्यर्थः 'भव्यसत्त्वसङ्घात' भवसिद्धिकजन्तुसमूहं तन्मार्ग अनुसरन्त' आश्रयन्तं, यथेति दृष्टान्तोपदर्शने 'कुतार'| दीप अनुक्रम [२५-२७] ~ 23~ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं ||३०|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-व], प्रकीर्णकसूत्र-[७] "गच्छाचार" मलं एवं वानर्षिगणि विहिता वत्ति: प्रत सूत्रांक ||३०|| कुत्सिततारको नरो भवति स बहून पृष्ठलग्नान् जन्तुसमूहान नद्यादौ बोलयति आत्मानमपि च बोलयतीति ॥३०॥ अथो- उन्मार्गगन्मार्गपरम्परालग्नानामाचार्याणां मुनीनां च किं फलं भवति? इत्याह फलं संविउम्मग्गमग्गसंपहिआण साहूण गोअमा! नूनं । संसारो अ अणंतो होइ य सम्मग्गनासीण ॥ ३१॥ पाक्षिकउम्म० ॥ उन्मार्गा-गोशालकबोटिकनिहवादयस्ते तेषां मार्गः-परम्परा तस्मिन् यद्वा उन्मार्गरूपो यो मार्गस्तस्मिन् । स्व. गा. जास्थितानां 'साधूनां' मुनिवेषाभासकानां उपलक्षणत्वात्तदाचार्याणामपि हे 'गौतम !'. हे इन्द्रभूते! 'नून' निश्चितं |3|| ३१-२ 15 'संसारः' चतुर्गत्यात्मकः न विद्यतेऽन्तः-पर्यन्तो यस्यासावनन्तो भवति, चकारस्तद्गतानेकदुःख सूचकः, किंभूतानां:*'सन्मार्गनाशिनां जिनोक्तपथाच्छादकानां, महानिशीथोक्तमुनिचन्द्रसाधुवत् ॥३१॥ अथ कोऽपि कदाचित्प्रमादपरत्वेन । न जिनोक्तक्रियां करोति परन्तु भव्यानां यथोक्तं जिनमार्ग दर्शयति स कस्मिन् मार्गे आत्मानं स्थापयति?, तविपरीतश्च 8/ कीदृशो भवति ?, इत्याहसुई सुसाहुमग्गं कहमाणो उवइ तइअपक्खंमि । अपाणं इयरो पुण गिहत्थधम्माओ चुक्कत्ति ॥ ३२॥ सुद्धं ॥ 'शुद्ध' आज्ञाशुद्धिसंयुक्तं 'सुसाधुमार्ग' सुविहितपथं 'कथयन्' आकाङ्क्षाऽभावेन प्ररूपयन् 'स्थापयति' रक्षयति 3 'आत्मानं स्वयं, क-साधुश्रावकपक्षद्वयापेक्षया 'तृतीयपक्षे संविग्नपाक्षिके, संविग्नानां-मोक्षाभिलाषिसुसाधूनां पाक्षिक*साहाय्यकर्ता संविग्नपाक्षिकस्तस्मिन् , तस्येदं लक्षणं-"सुद्धं सुसाहुधम्मं कहेइ निदइ य निययमायारं। सुतवस्सियाण पुरओ होइ प सबोमराइणिओ ॥१॥ वंदइ न य वंदावइ किइकम्म कुणइ कारवे नेव । अत्तहा नवि दिक्ख इ. देइ सुसाहूण 8 दीप ASHAAGRAAGAR अनुक्रम [३०] ~ 24~ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार" - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं ||३२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार" मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: प्रत शुद्धप्ररूप बारलघु णा तत्फल सूत्रांक ||३२|| LEA श्रीगच्छा- बोहे ॥२॥" इत्यादि । तथा 'इतरः पुनः' उत्सूत्रभाषकः साघुद्वेषी च गृहस्थधर्मात् 'चुक'त्ति भ्रष्टो यः स साधुन भवति उत्सूत्रप्ररूपकत्वात् साधुपरिद्वेषपरिणामत्वाच्च गृहस्थोऽपि न भवति गृहाश्रमधर्माभावात् गृहस्थवेषाभावाच्चेति ॥ ३२ ॥ यद्येवं ततः किं कर्त्तव्यम् ? इत्याहजइवि न सकं काउं सम्मं जिणभासिअं अणुहाणं । तो सम्म भासिज्जा जह भणियं खीणरागेहिं ॥ ३३ ॥ जइ०॥ यद्यपि शक्यं न भवति तेन 'सक्कइत्ति पाठे तु न शक्यते 'कर्तुं विधातुं, कथं ?-'सम्यक् त्रिकरणशुद्ध्या 'जिनभाषितं' केवल्युक्तं 'अनुष्ठान' आजन्म क्रियाकलापरूपं, ततः 'सम्यक् आत्मसामर्थ्येण भाषेत यादृशं स्यात्तादृशं यथा क्षीणरागैः' जिनैः 'भणितं' कथितं तथा निरूपयेदिति ॥ ३३ ॥ अथ प्रमादिनामपि शुद्धप्ररूपणया को गुणःइत्याह उस्सन्नोऽवि विहारे कम्मं सोहेइ सुलभवोही य । चरणकरणं विसुद्धं उवहितो परूवितो ॥ ३४॥ उस्स०॥ अवसन्नोऽपि' शिथिलोऽपि, क ?-'विहारे' मुनिचर्यायां 'कर्म' दुष्टज्ञानावरणादिकं शोधयति, कर्मणां शिथिलत्वं प्रापयतीत्यर्थः, सुलभा-सुखेन लभ्येत्यर्थः बोधिः-जन्मान्तरे जिनधर्मप्राप्तिरूपा यस्यासौ सुलभबोधिः, चकारारसुदेवत्वप्राप्तिस्तदनन्तरं च सुकुलोत्पत्तिर्भवति, किं कुर्वन् ?-चरणकरणं 'विशुद्धं निर्दोष 'उपबृंयन्' निर्मायभावेन प्रशंसां कुर्वन् 'प्ररूपयन्' च वाञ्छाविरहितो यथास्थितं भव्यानां कथयन्निति । तत्र “वय ५ समणधम्म १० संजम १७ 13/वेयावच्चं च १० बंभगुत्तीओ ९णाणाइतियं ३ तव १२ कोहनिग्गहाइ ४ य चरणमेयं ॥१॥" तथा-"पिंडविसोही ४ ॐABABASAPAN दीप अनुक्रम [३२] ॥११॥ २७ ~ 25~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं ||३४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-व], प्रकीर्णकसूत्र-[७] "गच्छाचार" मलं एवं वानर्षिगणि विहिता वत्ति: प्रत सूत्रांक ||३४|| समिई ५ भावण १२ पडिमा य १२ इंदियनिरोहो ५ । पडिलेहण २५ गुत्तीओ अभिग्गहा ४ चेव करणं तु ॥ २॥" संविग्नपाइति ॥ ३४॥ अथ संविज्ञपाक्षिकस्य साधुविषये किश्चित्कृत्यं दर्शयन् इत्याह |क्षिककृर्त्य समग्गमग्गसंपढिआण साहूण कुणइ वच्छल्लं । ओसहभेसज्जेहि य सयमन्नेणं तु कारेइ ॥३५॥ तत्पूज्यता xगा. ३५-६ हा संमग्गः ॥'सन्मार्गमार्गसंप्रस्थितानां' प्रधानमार्गपरम्पराप्रवृत्तानां 'साधूनां' जगदुत्तममुनीनां 'करोति' निर्जरार्थ ६ विधत्ते 'वात्सल्यं अन्तरङ्गभावेनोपकारकरणं, कैः - औषधभेषजैः' तत्रौषधम्-अनेकद्रव्यसंयोजितं तव्यतिरिक्त भेषजं, यद्वा औषधं-हरीतक्यादि भेषजं-पेयादि, चशब्दोऽनेकपकारभावसूचकः, 'स्वयं' आत्मना 'अन्येन' आरमव्यतिरिक्तेन | कारयति तुशब्दात्कुर्वन्तमन्यमनुजानाति यः स संविग्नपाक्षिक आराधको ज्ञेय इत्याशयः ॥ ३५॥ किश-. भूया अस्थि भविस्संति केइ तेलुकनमिअकमजुअला।जेसिं परहिअकरणिकवद्धलक्खाण वोलिही कालो ॥३६॥ | भूया०॥'भूताः' अतीतकाले 'अत्थि'त्ति 'सन्ति' विद्यन्ते वर्तमानकाले 'भविष्यन्ति' भविष्यत्काले 'केचित्' अल्पाः 8 संविग्नपाक्षिकाः, किंभूताः त्रैलोक्येन-स्वर्गमर्त्यपाताललक्षणेन तन्निवासिप्राणिगणेनेत्यर्थः नतं क्रमयुगलं-चरणयुग्मं येषांत ते त्रैलोक्यनतक्रमयुगलाः, 'येषां' सत्पुरुषाणां संविनपाक्षिकाणां, पुनः किंभूतानां -'परहितकरणकबद्धलक्षाणां' परस्मै४ अभ्यस्मै हितं परहितं परहितस्य करणं परहितकरणं तस्मिन् एकम्-अद्वितीयं वद्धं लक्षं-आलोचनलक्षणं यैस्ते पर०, लक्षणं 81 आलोचनं इति, यद्वा परहितकरणे एक बड़े लक्ष-दर्शनं लक्षण वा यैस्ते परहि. 'लक्षीण दर्शनांकनयो रिति तेषां पा दीप अनुक्रम [३४] ACLASARASCARSAEX . A | संविज्ञपाक्षिकस्य कृत्य एवं तस्य पूज्यता दर्शयते ~ 26~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-वृ) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं ||३६|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[३०-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार' मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: बारलघु प्रत सूत्रांक ||३६|| दीप अनुक्रम [३६] श्रीगच्छा- बोलिही'ति गमिष्यति 'काल' समयादिलक्षणः, ते संविग्नपाक्षिकाः पूज्या विज्ञेया इति ॥३६॥ ये एवंविधा न नामाचास्युस्तेषां स्वरूपमाह द्वियोः शिक्षा'वृत्तौ तीआणागयकाले केइ होहिंति गोयमा ! सूरी। जेसि नामग्गहणेऽवि होइ नियमेण पच्छितं ॥ ३७॥ वश्यकता । तीआ०॥ अतीते कालेऽनागतकाले च 'केचित्' अनिर्दिष्टनामानोऽभूवन्निति शेषः 'होहिंति' भविष्यन्ति वर्तमानेऽपि १५ दि काले सन्ति हे गौतम ! 'सूरयः' आचार्यपदनामधारकाः, येषां परिचयकरणादिकं दूरे आस्तां 'नामग्रहणेऽपि' अमुक देवदत्ताख्यसूरिरित्यपि कथ्यमाने भवति निश्चयेन प्रायश्चित्तमिति, तथा चोक्तं श्रीमहानिशीथपञ्चमाध्ययने-"इत्थं हैI चायरियाणं पणपण्णं होंति कोडिलक्खाओ । कोडिसहस्से कोडीसए य तह एत्तिए चेव ५५५५५५०००००००० ॥१॥ लाएतेसि मज्झाओ एगे न बुड्डेइ गुणगणाईण ॥” इति ॥ ३७॥ जओ-सहरीभवंति अणविक्खयाइ जह भिववाहणा लोए।पडिपुच्छाहिं चोयण तम्हा उगुरू सया भयइ ॥३८॥ 8 जओ-स०॥जओत्ति भिन्नपदं यतो भणितं-'सइरीत्ति स्वेच्छाचारिणो भवन्ति 'अणविक्खयाइ'त्ति शिक्षारहितत्वेन यथा मृत्यवाहनादयः, तत्र भृत्याः सेवकाः वाहनानि-हस्त्यश्ववृषभमहिषादीनि लोके, तथा विनेयाः गुरूणां कार्य २ प्रति पृच्छाः प्रतिपृच्छास्ताभिः प्रतिपृच्छाभिः 'चोयणेति प्राकृतत्वाद्विभक्तिपरिणामः चोदनादिभिश्च विनेति गम्यं | स्वेच्छाचारिणो भवन्तीत्यर्थः, यस्मात्स्वेच्छाचारिणो भवन्ति तस्मात्प्रतिपृच्छादिभिराचार्यों विनेयानां तुशब्दान्महत्तरा 51 स्वशिष्यणीनां 'सदा' सर्वकालं 'भयइत्ति धातूनामनेकार्थत्वात् 'सत्यापयति' शिक्षा ददातीत्यर्थः ॥ ३८ ॥ किश्च EACCASCCCCCCCASS+50 ~ 27~ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार" - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं ||३९|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-व], प्रकीर्णकसूत्र-[७] "गच्छाचार" मलं एवं वानर्षिगणि विहिता वत्ति: + प्रत सूत्रांक ||३९|| आझावि. राधना मु. निवृन्दलक्षणम् गा. ३९-४२ +% | जो ऊ पमायदोसेणं, आलस्सेणं तहेव. य । सीसवग्गं न चोएइ, तेण आणा विराहिया ॥ ३९ ॥ | जो उ०॥'यो' गणी तुशब्दादुपाध्यायगणावच्छेदादिः प्रमादश्च-निद्रादिः द्वेषश्च-मत्सरः दोषश्च वा-स्वशिष्ये रागादिकः प्रमादद्वेषं प्रमाददोषं वा तेन, यद्वा प्रमादरूप एव यो दोषः-कुलक्षणत्वं तेन प्रमाददोषेण, आलस्येन तथैवं च, चकारान्मोहा&वज्ञादिप्रकारेण, 'शिष्यवर्ग' अन्तेवासिवृन्दं न प्रेरयति संयमानुष्ठान इति शेषः 'तेन' आचार्येण 'आज्ञा' जिनमर्यादा विराधिता' खण्डितेत्यर्थः ॥ ३९ ॥ संखेवेणं मए सोम!, वन्नियं गुरुलक्षणं । गच्छस्स लक्खणं धीर!, संखेवेणं निसामय ॥ ४०॥ । | संखे०॥ सङ्केपेण' विस्तराभावेन मया 'हे सौम्य' हे विनेय ! 'वर्णितं' प्ररूपितमित्यर्थः गृणाति-वदति तत्त्वमिति गुरुस्तस्य लक्षणं-चिह्नम् । अथेति शेषः 'गच्छस्य' मुनिवृन्दस्य लक्षणं धिया राजत इति धीरस्तस्य सम्बोधनं क्रियते हे धीर ! सङ्केपेण 'निशामय' आकर्णयेति ॥ ४०॥ । गीअत्थे जे सुसंविग्गे, अणालस्सी दवए । अक्खलियचरित्ते सययं, रागदोसविवज्जिए.॥४१॥ निट्ठवियअट्ठमयहाणे, सोसिअकसाए जिइंदिए । विहरिजा तेण सद्धिं तु, एउमणवि केवली ॥४२॥ X गीअ०॥ निढ॥ गीत-सूत्रमर्थस्तस्य व्याख्यानं तद्येन युक्तो गीतार्थः यः 'सुसंविग्गे'त्ति अत्यर्थं संवेगवान् ना *विद्यते आलस्यं वैयावृत्त्यादौ यस्यासौ 'अनालस्यः' आलस्यरहित इत्यर्थः दृढानि-सुनिश्चलानि प्रतानि-महानतलक्षणानि | यस्यासी दृढव्रतः, अस्खलितम्-अतीचाररहितं चारित्रं सप्तदशभेदं यस्यासी अस्खलितचारित्रः 'सततं' अनवरतं रागद्वेष दीप अनुक्रम [३९] SAGAR ~ 28~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार" - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं ||२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-व], प्रकीर्णकसूत्र-[७] "गच्छाचार" मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वत्ति: प्रत सूत्रांक ||४२|| २० दीप श्रीगच्छा-विवर्जितः' तत्र मायालोभारमको रागः क्रोधमानात्मको द्वेष इति ॥४१॥ निष्ठापितानि-क्षयं नीतानि अष्टौवाः सा |४|मदस्थानानि-जाति १कुल २ रूप ३ बल ४ लाभ ५ श्रुत ६ तपो७विभव ८ लक्षणानि येनासौ निष्ठापिताष्टमदस्थानः, धयः गीवृत्ती शोषिता:-दुर्बेलीकृताः कषायाः-सभेदाः क्रोधमानमायालोभा येनासौ शोषितकषायः, जितामि-आत्मवश्वीकृतानि तार्थ महिइन्द्रियाणि-श्रोत्र १६गू २ नासा : जिहा ४ स्पर्शन ५मनो ६ लक्षणानि येनासी जितेन्द्रियः 'विहरेत्' विहारं कुर्यादित्यर्थः ४३-५ |तेन छद्मस्थेनापि सार्द्ध 'केवली' केवलज्ञानी ॥४२॥ अथोक्तविपरीतैः सार्द्ध विहारो न विधेय इत्याह जे अणहीयपरमत्था, गोअमा! संजया भवे । तम्हा ते विवजिज्जा, दुग्गईपंथदायगे ॥४३॥ . जे अ०॥ 'ये' मुनयः अनधीता-अनभ्यस्ताः परमार्थाः-ये आश्रवाः-कर्मबन्धस्थानानि से परिश्रवाः-कर्मनिर्जरास्था-15 ४ नानि १, ये एव परिश्रवा-निर्जरास्थानानि तान्येवाश्रवाः-कर्मबन्धस्थानानि २, येऽनाश्रवातेऽप्यपरिश्रवाः-कर्मषन्धस्था-पटू है नानि कौङ्कणसाध्वादिवत् ३, अपरिश्रवाः-कर्मबन्धस्थानानि तेऽनाश्रवा न कर्मवन्धस्थानानि कणवीरलताभ्रामकPIक्षुलकस्येव ४, इत्याद्यागमपरिज्ञानरूपा यैस्तेऽनधीतपरमार्थाः हे गौतम! संयता भवन्ति तस्मात्तानपि 'विवजेयेत्। २५ दूरतस्त्यजेत् , किंभूतान् ?-'दुर्गतिपथदायकान्' तिर्यग्नरककुमानुपकुदेवमार्गप्रापकानित्यर्थः ॥४३॥ अथ गीतार्थो- पदेशः सोऽपि सुखावहो भवतीत्याह गीअस्थस्स वयणेणं, विसं हालाहलं पिवे। निश्विकप्पो य भक्खिजा, तक्खणे जं समुरवे ॥४४॥ परमत्थओ विसं नोत, अमयरसायणं खुतं । निविग्धं जनतं मारे, मओऽवि अमयस्समो ॥४५॥ अनुक्रम [४२] ॥१३॥ गीतार्थ-अगीतार्थस्य महिमा-अमहिमा दर्शयते ~ 29~ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं ||४४-४५|| ------------------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-३०-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार" मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||४४ -४५|| गीअ० परम० गाथाद्वयम् ॥ 'गीतार्थस्य' अधीतगुरुपार्श्वसूत्रार्थस्य 'बचनेन' उपदेशेन 'विर्ष' गरलं, किंभूतं?- गीतार्थमहाहालाहलं' उत्कटं 'पिबेत्' गलरन्ध्र पातयेत् , विनेय इति शेषः, किंभूतः ?-'निर्विकल्पः' सर्वथा गतशङ्कः, भक्षयेच्च विष-18| हिमा अ गुटिकादिकं यद्विषगुटिकादिकं 'तत्क्षणे' भक्षणप्रस्तावे समुपद्रवेत, पञ्चत्वं प्रापयेदित्यर्थः ॥ ४४ ॥ 'परमार्थतः' तत्त्वतः गीतार्थमतद्विषं न भवति, 'अमृतरसायनं' अमृतरसतुल्यं 'खु' निश्चितं तद्विषं निर्विघ्नं' विघ्नविवर्जितं 'यद्' यस्मात् कारणात् न | तद्विर्ष मारयति-न प्राणत्यागं करोति, अतः कथमपि 'मृतोऽपि' मरणं प्राप्तोऽपि 'अमृतसम एवं' जीवन्निव भवतीत्यर्थः,18 शाश्वतसुखहेतुत्वादिति, गीतार्थस्येत्यत्र चतुर्भङ्गी यथा-संविना नाम एके नो गीतार्थाः१न संविना नाम एके गीतार्थाः २ संविना नाम एके गीतार्था अपि ३ न संविग्ना नाम एके नो गीतार्थाः ४, तत्र न प्रथमभङ्गस्था धर्माचार्याः आगमपरिज्ञानाभावात् १ द्वितीयभङ्गस्था अपि न धर्माचार्याश्चारित्ररहितत्वात् , यदि शुद्धप्ररूपका भवन्ति साधून वन्दन्ते साधूंश्च[8 न बन्दापयन्ति तदा संविग्नपाक्षिका जायन्त इति २ तृतीयभङ्गस्था धर्माचार्या एव, समग्रचारित्रज्ञानयुक्तस्वात्, नन्वेव|विधास्तु गणधरादय एव भवन्ति न संप्रतिकाले तथाविधा अप्रमादिनः, कथं धर्माचार्यत्वं तेषां ?, उच्यते-वर्तमानकाले | यत्सूत्रं वर्तते तस्य गुरुपरम्परया गृहीतार्थाः विनिश्चितार्थाः गीतार्था भवन्ति, दुषमासेवार्तसंहननाद्यनुभावतो वीर्यम|गोपयन्तः संविना एव अतो न तेषां धर्माचार्यत्वं व्यभिचरतीति ३, चतुर्थभङ्गस्था अपि न धर्माचायों, ज्ञानक्रियाशून्य-| *त्वात् केवललिङ्गमात्रोपजीवित्वाच्चेति ४ ॥४५॥ अथोक्तविपरीतमाह अगीअत्थस्स वयणेणं, अमियंपि न छुटए । जेण नो तं भवे अमर्य, जं अगीअस्थदेसियं ॥ ४६॥ दीप अनुक्रम [४४-४५] ~ 30~ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं ||४६-४७|| ---------------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार" मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: ९८-९ प्रत सूत्रांक ||४६-४७|| श्रीगच्छा परमत्थओ न तं अमयं, विसं हालाहलं खु तं । न तेण अजरामरो हुज्जा, तक्खणा निहणं वए ॥४७॥ 'अगी० ॥ पर० ॥ 'अगीतार्थस्य' पूर्वोक्तचतुर्थभङ्गस्थस्य वचनेन अमृतमपि 'न घुण्टेत्' न पिवेत् , येन कारणेन न कुसङ्गवर्जचारलघुवादातद्भवेत अमृतं, यदगीतार्थदेशितं परमार्थतो न तदमृतं, विष हालाहलं 'खु' निश्चितं, न तेनाजरामरो भवेत, तत्क्षणादेवी है 'निधनं ब्रजेत्' मरणं प्रामुयादित्यर्थः ॥४६॥४७॥ किञ्च1.अगीअत्थकुसीलेहि, संगं तिविहेण वोसिरे । मुक्खमग्गस्सिमे विग्घे, पहंमी तेणगे जहा ॥४८॥ द &ा अगी०॥ अगीतार्थाश्च कुशीलाश्च तैरगीतार्थकुशीलैः, उपलक्षणत्वारसभेदपार्श्वस्थावसनसंसक्तयथाच्छन्दैः सह, 'सङ्गं संसर्ग 'त्रिविधेन' मनोवाकायेन, तत्र मनसा चिन्तनम्-अहं मिलनं करोमीति, वाचा आलापसंलापादिकरणमिति, कायेन सम्मुखगमनप्रणामादिकरणमिति, 'व्युत्सृजेत्' विविधं विशेषेण वा उ इति-भृशं सृजेत्-त्यजेदित्यर्थः, तथा चोदा श्रीमहानिशीथषष्ठाध्ययने-“वासलक्खंपि सूलीए, संभिन्नो अच्छियामुहो। अगीयत्षेण समं एक, खणद्धपि न संवसे | P१॥" तथा 'मोक्षमार्गस्य निर्वाणपथ 'इमे पूर्वोक्ताः 'विग्घेत्ति विघ्नकरा इत्यर्थः, 'पथि' लोकमार्गे 'स्तेनका' चौरा:|| यथेत्युदाहरणोपदर्शन इति ॥४८॥ किञ्च| पजलियं हुयवहं दुहुँ, निस्संको तत्थ पविसिउं । अत्ताणं निहिज्जाहि, नो कुसीलस्स अदिन्नए ॥४९॥ पज०॥ प्रज्वलितं 'हुतवह' वैश्वानरं 'दुट्ठ'मिति 'दुष्र्ट' निर्दयं यद्वा 'दद्दु'मिति 'दृष्ट्वा' विलोक्य 'निःशङ्कः' त्यक्तशङ्कः। मितत्र' हुतवहे 'प्रविश्य' प्रवेशं विधाय 'आत्मानं' स्वयं 'निर्दहेत्' भस्मसारकुर्यादित्यर्थः, परं 'नो' नैव कुशीलस्य 'अदि- २८ SOCCALCOCOST दीप अनुक्रम [४६-४७] २५ ROCESC-25-25% ~31~ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार" - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं ||४९|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-७], प्रकीर्णकसूत्र-[७] "गच्छाचार" मलं एवं वानर्षिगणि विहिता वत्ति: अगच्छस्व प्रत सूत्रांक ||४९|| दिनए'त्ति कुशीलो दूरे तिष्ठतु, तदाश्रितस्यापि सङ्ग न कुर्यात् , यद्वा कुशीलस्य उपलक्षणत्वादगीतार्थस्य 'अदिन्नए'त्ति | सङ्गन कुर्यात् , अनन्तसंसारहेतुकत्वात् , उक्तञ्च श्रीमहानिशीथद्वितीयाध्ययनप्रान्ते-"जीव संमग्गमाइण्णो, घोरवीरतवं|8 |चरो। अचयंतो इमे पंच, कुज्जा सचं निरत्थयं ॥१॥ पासत्थोसन्नहाछंदे, कुसीले सबले तहा । दिट्ठीएवि इमे पंच, गोयमा ! न निरिक्खए ॥२॥" सुमतिवदिति ॥४९॥ अथ पूर्वोक्तगच्छस्वरूपमाह साराा.५० पजलंति जत्थ धगधगस्स गुरुणावि चोइए सीसा । रागद्दोसेणवि अणुसरण तं गोयम! न गच्छं॥५०॥ ५१ 8 पज०॥ प्रज्वलन्ति अग्निवत् यत्र गणे कथं ?-धगधगायमानं यथा स्यात्तथा प्राकृतत्वाद्विभक्तिपरिणामः 'गुरुणा' ५ स्वाचार्येणापि अपिशब्दाद्गणावच्छेदस्थविरादिनाऽपि 'चोइएत्ति भवादृशामयुक्तमेतदित्यादिना प्रेरिताः, के-'शिष्या स्वान्तेवासिनः, काभ्यां प्रज्वलन्ति ?-रागद्वेषाभ्यां,प्राकृतत्वात्सूत्र एकवचनं, अपिशब्दश्चशब्दार्थे, 'अनुशयेन' चक्रोधानु-18 बन्धेन, निरन्तरक्रोधकरणेनेत्यर्थः, यद्वा प्रज्वलन्ति, केन ?-रागद्वेषेण, किंभूतेन ?-'विअणुसएण'त्ति विगतो-गतोऽनुशयः& पश्चात्तापः पश्चादपि यत्र स व्यनुशयस्तेन 'व्यनुशयेन' सदा गतपश्चात्तापेनेत्यर्थः हे गौतम ! स गच्छो न भवतीति ॥५०॥ गच्छो महाणुभावो तत्थ वसंताण निजरा विउला । सारणवारणचोअणमाईहिं न दोसपडिवत्ती ॥५१॥ | गच्छो० ॥ 'गच्छो' मुनिवृन्दरूपः, किंभूतः?-महान अनुभावः-प्रभावो यस्यासौ महानुभावः, 'तत्र' गच्छे 'वसतां वास है हे कुर्वतां 'निर्जरा' देशकर्मक्षयरूपा, उपलक्षणत्वात्सर्वकर्मक्षयरूपो मोक्षोऽपि भवतीति शेषः, किंभूता?-'विपुला' विस्तीर्णा 15 तथा यत्र च वसतां सारणवारणनोदनादिभिः पूर्वोक्तशब्दार्थैः, मोऽलाक्षणिकः, 'दोषप्रतिपत्तिः' दोषागमो न भवति ॥५१॥ टू १४ दीप SAKASONGSCSC-A5%C454 अनुक्रम [४९] अगच्छस्य स्वरुपम् तथा गच्छवास फ़लम् दर्शयते ~ 32 ~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार" - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं ||२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-३०-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार" मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: प्रत ५२ सूत्रांक ॥५२|| श्रीगच्छा- गुरुणो छंदणुवत्ती सुविणीए जियपरीसहे धीरे । नवि थडे नवि लुद्धे नवि गारविए न विगहसीले ॥५२॥ | सद्गच्छलचारलघु- MI 'गुरोः' स्वाचार्यस्य 'छन्दोऽनुवृत्तयः' अभिप्रायानुचारिणो, न स्वाभिप्रायचारिणः, 'सुविनीताः' शोमनविनययुक्ताःक्षणम् गा. वृत्ती ६ जिता:-पराजिताः परीपहाः-शीतोष्णा यैस्ते जितपरीषहाः, उक्तं चाचाराङ्गनिर्युक्तौ-"इत्थीसकारे परीसहा य दो है। ॥ १५ ॥ *भावसीयला एए । सेसा बीसई उहा परीसहा होति णायचा ॥१॥जे तिवपरीणामा परीसहा ए भवंति उण्हा उ ।। जे मंदपरीणामा परीसहा ते भवे सीया ॥ २ ॥" तथा च ज्ञानावरण १ वेदनीय २ मोहनीया ३ स्तरायेषु ४४ द्र श्रुत्पिपासा २ शीतोष्ण ४ दंशा ५ चेला ६ रति ७खी ८ चर्या ९ नैषेधिकी १० शय्या ११ ऽऽक्रोश १२ वध १३ याचा-II है १४ ऽलाभ १५ रोग १६ तृणस्पर्श १७ मल १८ सत्कार १९ प्रज्ञा २० ऽज्ञान २१ सम्यक्त्व २२ लक्षणा द्वाविंशतिरप्यवतरन्ति, यथा दर्शनमोहे सम्यक्त्वपरीपहः, तदुदये तस्य भावात् १, प्रज्ञाऽज्ञाने द्वे ज्ञानावरणे ३, अलाभोऽन्तराये ४, आक्रोशारतिस्त्रीनषेधिक्यः अचेलयाश्चासत्कारपुरस्काराः सप्त चारित्रमोहेऽवतरन्ति ११, क्षुत्पिपासा २ शीतोष्ण४ दंश ५ चर्या ६ शय्या ७ मल ८ वध ९ रोग १० तृणस्पर्श ११ एते एकादश वेदनीयोदये भवन्ति, शेषेषु दर्शनावरणनामायुर्गोत्रेषु नास्त्यवतारः परीपहाणामिति । तथा नवमगुणस्थानक यावत्सर्वेऽपि परीषहाः संभवन्ति, पुन-द हार्वेदयति विंशतिमेव, यतो यस्मिन् समये शीतं वेदयति न तस्मिन् समये उष्णत्वं वेदयति, यस्मिनुष्णं तस्मिन् शीतं न, ॥१५॥ #तथा यस्मिन् चर्या वेदयति तस्मिन् नैषधिकी न, यस्मिन् नैषेधिकी तस्मिन् चर्या न वेदयतीति । सूक्ष्मसंपराये-दशम-| गुणस्थाने क्षुत्पिपासाशीतोष्णदेशचर्याशय्यावधालाभरोगतृणस्पर्शमलप्रज्ञाऽज्ञानरूपाश्चतुर्दश भवन्ति, द्वादश पुनर्वेदयति, दीप अनुक्रम [१२] 15 अत्र सद्गच्छस्य लक्षणं कथयते ~33~ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं ||२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-व], प्रकीर्णकसूत्र-[७] "गच्छाचार" मलं एवं वानर्षिगणि विहिता वत्ति: प्रत सूत्रांक ||५२|| शीतोष्णयोरेकदैकत्वात् चर्याशय्ययोरेकदैकत्वाचेति । तथा उपशान्तमोहे-एकादशगुणस्थाने क्षीणमोहे-द्वादशगुणस्थाने| सनच्छलहै छद्मस्थवीतरागे त एव चतुर्दश, यतः सप्तानां चारित्रमोहनीयप्रतिबद्धानां मोहनीयस्य क्षपितत्वेनोपशमितत्त्वेन वा 31 क्षणम् गा. दर्शनमोहनीयप्रतिबद्धस्य एकस्य च तत्रासम्भवादिति पूर्ववत्, द्वादश पुनर्वेदयति ते, सयोग्ययोगिरूपे एकादश परीपहाः ५३ ६ संभवन्ति, यथा क्षुत् १ पिपासा २ शीतो ३ष्ण ४ दंश ५ चर्या वध ७ मल ८ शय्या ९ रोग १० तृणस्पर्श ११ रूपाः, जिने वेद्यस्य संभवात् न यांति, शीतोष्णयोरेकदैकत्वात् चर्याशय्ययोरेकदैकत्वाच्च न च पुनर्वेदयति, धिया राजन्त इति धीराः वज्रस्वामिवत् , नापि स्तब्धा-नाहङ्कारपराः स्कन्धकवत् , नापि लुब्धा-नाहारोपधिपात्रादिगृद्धा धन्यमुनिवत्, न गौरविता-न गौरवत्रिकासक्ता मथुरामङ्गशिष्यवत् , न विकथाशीला-न विरुद्धकथाकथनस्वभावा हरिकेशमुनिवत् ॥५२॥ है। खंते दंते गुत्ते मुसे बेरग्गमग्गमल्लीणे । दसविहसामायारीआवस्सगसंजमुज्जुत्ते ॥५३॥ खते ॥ 'क्षान्ताः' क्षमायुक्ता गजसुकुमालवत्, 'दान्ताः' दमितेन्द्रियाः शालिभद्रादिवत्, 'गुप्ताः' नवब्रह्मचर्यटूगुप्तिमन्तः श्रीस्थूलभद्रवत् , 'मुक्ताः' न लोभयुक्ता जम्बूस्वाम्यादिवत्, 'वैराग्यमार्गमालीनाः' संवेगपथमाश्रिताः अति-II मुक्तककुमारकालोदाय्यादिवत्, दशविधसामाचार्याम्-उक्तलक्षणायामुयुक्ताः, अवश्यं कर्त्तव्यमावश्यकं यद्वा गुणानां 8 आ-समन्ताद्वश्यं करोतीत्यावश्यक, गुणशून्यमात्मानं आ-समन्ताद् वासयति गुणैरित्यावासकमनुयोगद्वारोक्तलक्षणं तत्रौद्युक्ताः-तत्पराः ॥ ५३॥ खरफरुसककसाए अणिदुवाइ निदुरगिराए । निन्भच्छणनिद्धाडणमाईहिं न जे पउस्संति ॥५४॥ दीप अनुक्रम [१२] ~34 ~ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं ||१४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार' मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: प्रत सद्गच्छलक्षणम् गा. ५४-५ सूत्रांक ||५४|| ॥१६॥ दीप श्रीगच्छा खर०॥ खरपरुषकर्कशया गिरा अनिष्टदुष्टया गिरा निष्ठुरगिरा निर्भर्त्सननिर्धाटनादिभिश्च, मोऽलाक्षणिकः, 'ये चारलघु मुनयो 'न प्रद्विष्यन्ति' न प्रद्वेष यान्ति ते सुसाधवो गणयोग्या इति, तत्र खरा रे मूढ ! रे अपण्डित ! इत्यादिका, वृत्ती परुषा रे प्रमादिन् ! रे कुशील ! रे सामाचारीभञ्जक ! इत्यादिका, कर्कशा रे जिनाज्ञाभञ्जक! रे उत्सूत्रभाषक ! रे व्रतभञ्जक! इत्यादिका, अनिष्टा रे पापिष्ठ ! मुखं मा दर्शय, रे निर्दय ! इतो व्रज, रे वीरवचनोल्लङ्घक ! स्वस्थानं कुरु इत्यादिका, दुष्टारे आचारतस्कर ! रे जिनप्रवचननगरप्राकारच्छिद्रकर्त्तः! रे जिनागमकोशार्थरत्नचौर ! इत्यादिका, निष्ठुरा रे सूत्रार्थोभयप्रत्यनीक! रेनिह्नवकुशीलसङ्गकर्तः! रे जिनाज्ञारामच्छेदक! इत्यादिका, निर्भर्त्सनम्-अङ्गुल्यादिना तर्जन, निर्द्धाटन-वसतिगणादिभ्यो निष्काशनं, आदिशब्दात्तच्चिन्ताकरणादिकं, यद्वा प्रवाहेणैकार्थिका एते शब्दाः, यद्वाऽन्योऽपि यः सत्परम्परागतोऽर्थः स समाह्य एवेति ॥ ५४ ।। जे अन अकित्तिजणए नाजसजणए नाकजकारी य । न पवयणुड्डाहकरे कंठग्गयपाणसेसेऽवि ॥५५॥ | जे अ०॥ 'ये' गणमुनयः नाकीर्तिजनकाः नायशोजनकाः, चकारान्नावर्णजनकाः, नाशब्दजनकाः नोऽश्लाघाजनकाः, है तत्र सर्वदिग्व्याप्यसाधुवादोऽकीर्तिः, अयशो-निन्दनीयतादि, एकदिग्व्याष्यसाधुवादोऽवर्णः, अर्द्धदिग्व्याप्यसाधु वादोऽशब्दः, तत्स्थान एवासाधुवादोऽश्लाघेति, 'नाकार्यकारिणः' नासदनुष्ठानकर्तारः 'न प्रवचनोड्डाहकराः' न प्रवचनमालिन्यकर्तारः, कण्ठे गतः-प्राप्त आगत इत्यर्थः कण्ठगतः प्राणानां-जीवस्य शेषो यत्र, अधस्तनप्रदेशाकर्षणेन अनुक्रम [५४]] २७ ~35~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं ||१५|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार' मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: मरचालन क्षणम् गा. प्रत सूत्रांक ||५५|| है बहुप्रदेशबहिःकर्षणेन, एवं विधेऽप्यवसरे ये ईदृग्विधास्ते सुन्दरान्तेवासिनः, यद्वा कण्ठगतः कण्ठागतः प्राणस्य-बलस्य लाशेषो यत्र, एवंविधेऽप्यबसरे ये ईदृविधास्ते धन्या इति ॥५५॥ गुरुणा कजमकज्जे खरकक्कसदुद्दनिहरगिराए । भणिए तहत्ति सीसा भणंति तं गोअमा! गच्छं ॥५६॥ है। गुरु० ॥ 'गुरुणा' स्वाचार्येण कार्य चाकार्य च कार्याकार्य तस्मिन् , मकारोऽलाक्षणिकः, यत्कृत्यं गुरवो जानन्ति | शिष्योऽपि जानाति तत्कार्यमुच्यते यत्कृत्यं गुरवो जानन्ति न तुः शिष्यः तदकार्य, अन्यथोत्तमानां किमपि बाह्यान्तरकार्य विना जल्पनं न संभवतीति, यद्वा कार्य-सनिमित्तं अकार्य-प्रधाननिमित्तरहितमिति । 'खरकर्कशदुष्ट-16 निष्ठुरगिरा' पूर्वोक्तशब्दार्थया 'भणिते' कथिते सति 'तहत्तित्ति तथेति यथा येन प्रकारेण यूयं वदथ तथा तेन प्रका-2 रेणेति 'शिष्याः' सुविनेयाः भणन्ति' कथयन्ति यत्र तं गच्छं हे गौतम! त्वं जानीहीति, सिंहगिरिगुरुशिष्यवदिति ॥५६॥ दूरुजिझय पत्ताइसु ममत्तए निप्पिहे सरीरेऽवि ।जायमजायाहारे(जत्तयमत्ताहारे) बापालीसेसणाकुसले ॥५७॥ | दूरु०॥'दूरुज्झिय'त्ति प्राकृत्वाद्विभक्तिलोपः दूरतस्त्यक्तं ममत्वं, क-पात्रादिषु, आदिशब्दाद्वस्तुवसतिश्राद्धनगर-2 ग्रामदेशादिषु यैरिति शेषः, तथा 'निःस्पृहाः' ईहारहिता मेघकुमारादिवत् 'शरीरेऽपि स्ववपुष्यपि, 'यात्रामात्राहारकाः दतत्र यात्रा-संयमगुरुवयावृत्त्यस्वाध्यायादिरूपा मात्रा तु-तदर्थमेव पुरुषस्त्रीपण्डानां द्वात्रिंशदष्टाविंशतिचतुर्विशतिक्रमेण कवलप्रमाणमध्यात्परिमिताहारग्रहणमिति, कवलप्रमाणं च कुक्कुट्यण्डं, कुक्कुट्या अण्डं कुकुदृयण्डं, कुकुटी द्विधा-द्रव्यभावभेदतः, द्रन्यकुकुटी द्विधा-उदरकुकुटी १ गलकुकुटी च २, तत्र साधोरुदरं यावन्मात्रेणाहारेण न न्यून नाप्याघ्रातं दीप अनुक्रम [५५] ॐॐ584545555 ~36~ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं ||७|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-३०-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार" मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: प्रत श्रीगच्छाचारलघु- वृत्तौ ५८ सूत्रांक ||७|| दीप |स आहार एव उदरकुकुटी, उदरपूरकाहार इत्यर्थः, तस्य द्वात्रिंशत्तमो भागोऽण्डक, तत्प्रमाणं कवलस्य १, गल एवं | सद्गच्छलकुकुटी तथा अन्तरालमण्डकं, अयं भावः-अविकृतास्यस्य पुंसो गलान्तराले यः कवलोऽविक्षनः प्रविशति तत्प्रमाणं | | क्षणम् गा. कवलस्य, भावकुकुटी तु येनाहारेण भुक्तेन न न्यून नाप्यत्यानातं स्यादुदरं धृतिं च समुदहति तावत्प्रमाण आहारो भावकुकुटीति २ । यद्वा 'जायमजायाहारे'त्ति जाताजाताहारपारिष्ठापनिकायां कुशलाः-निपुणा इत्यर्थः, तत्राधाकर्मणा लोभाद्गृहीतेन विषमिश्रेण मन्त्रादिसंस्कृतेन दोषेण च जातोच्यते, आचार्यग्लानप्राघूर्णकार्थे दुर्लभद्रव्ये सहसालाभे सत्यधिकग्रहणेऽजातोच्यत इति । अथवा जातो-गुरुग्लानादियोग्य आहार उत्पन्नस्तद्रक्षणे निपुणाः, तत्र वा निःस्पृहाः, अजातो-गुरुग्लानादियोग्य आहारः अनुत्पन्नस्तदुत्पादने कुशला इति । तथा 'द्विचत्वारिंशदेषणाकुशलाः' तत्रैषणा चतुर्धा, कस्याप्येषणेति नामेति नामैषणा १, एषणावतः साध्वादेरियमेषणेति स्थापनेति स्थापनैषणा २, द्रव्यैपणा-सचित्ताचित्तमिश्रद्रव्यभेदात्रिधा ३, भावैषणाऽपि गवेषणा १ ग्रहणैषणा २ ग्रासैषणा ३ भेदानिधा, तत्र गवेषणायामाधाकमोदिधाञ्यादिद्वात्रिंशद्दोपाः, ग्रहणैषणायां शङ्कितादिदशदोषाः, ग्रासैषणायां संयोजनादिपश्चदोषा विज्ञेया इति ॥५॥ तंपि न रूवरसत्थं न य वण्णत्थं न चेव दप्पत्थं । संजमभरवहणत्थं अक्खोवंगं व वहणत्थं ॥ ५८॥ २५ तंपि न०॥ तमपि' आहारं न 'रूपरसाथै तत्र रूप-शरीरलावण्यं रसश्च-भोजनास्वादस्तदर्थ न 'न च वर्णा' न च ६-१७॥ शरीरकान्त्यर्थमित्यर्थः, 'न चैव दीर्थ' न चानङ्गवृद्ध्यर्थे भुञ्जीतेति शेषः, किन्तु 'संयमभरवहनार्थं चारित्रभारवहनार्थ अनुक्रम [१७] ~37~ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३० - वृ) प्रत सूत्रांक ||५८|| दीप अनुक्रम [५८] “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः) - मूलं ||१८|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ३०-वृ], प्रकीर्णकसूत्र [७] “गच्छाचार” मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्तिः भुञ्जीत, किमिव ?-अक्षोपाङ्गमिव वहनार्थम् एतदुक्तं भवति यथाऽभ्यङ्गं शकटाक्षे युक्तया दीयते न चातिबहु न चातिस्तोकं भरवहनार्थं साधूनामाहारः ॥ ५८ ॥ तमपि कारणे भुङ्क्तः कारणमाह | वेअण १ वेयावच्चे २ इरिअट्ठाए अ ३ संजमट्ठाए ४ । तह पाणवतिआए ५ छ पुन धम्मचिंताए ६ ॥ ५९ ॥ अण० ॥ क्षुद्वेदनोपशमनाय भुङ्क्ते यतो नास्ति श्रुत्सद्दशी वेदना, उक्तञ्च – “पंथसमा नत्थि जरा, दारिदसमो परिभवो नत्थि । मरणसमं नत्थि भयं, छुहासमा वेयणा नत्थि ॥ १ ॥” अतस्तत्प्रशमनार्थं भुञ्जीत २, बुभुक्षितः सन् वैयावृत्त्यं कर्त्तुं न शक्नोति, अतो गुरुग्लानशैक्षादिवैयावृत्त्यकरणाय भुञ्जीत २, 'ईर्यार्थ' ईर्यासमित्यर्थे ३, संयमः प्रत्यु|पेक्षणाप्रमार्जनादिलक्षणः साधुव्यापारस्तत्पालनार्थं, बुभुक्षित एवं कर्त्तुं न शक्नोतीतिकृत्वा ४, तथा प्राणा-जीवितं तेषां वृत्त्यर्थ-रक्षार्थं परिपालननिमित्तमित्यर्थः५, षष्ठं पुनर्धर्मचिन्तार्थम्, सूत्रार्थानुचिन्तनादिलक्षणं शुभचित्तप्रणिधानं, एतदपि बुभुक्षितः कर्त्तुं न शक्नोतीतिकृत्वा भुञ्जीतेति शेषः ६ ॥ ५९ ॥ जत्थ य जिद्वकणिट्ठो जाणिज्जर जिद्ववयणबहुमाणो । दिवसेणवि जो जिट्ठो न य हीलिज्जइ स गोअमा ! गच्छो ॥ ६० ॥ जत्थ य० ॥ यत्र गणे 'ज्येष्ठः ' व्रतपर्यायेण वृद्धः 'कनिष्ठः' दीक्षापर्यायेण लघुः चशब्दान्मध्यमपर्यायोऽपि ज्ञायतेअयं ज्येष्ठः अयं लघुः अयं मध्यमः इत्येवं प्रकटत्वेन विज्ञायते, कस्मात् ज्ञायते ? - ज्येष्ठवचनबहुमानात् - हे आर्य ! हे पूज्य ! हे मदन्त! हे पसाउकरी ! इत्यादिजल्पनात्, यद्वा ज्येष्ठस्य - पर्यायगुणैर्वृद्धस्य वचनम् - आदेशो ज्येष्ठवचनं तस्य तस्मिन् वा बहुमान-सम्मानं यत् पूज्यैः प्रतिपादितं तत्तथेत्येवं ज्ञायत इति, तथा यन्त्र दिवसेनापि यो ज्येष्ठः स न अत्र भोजनकरणस्य कारणानि कथयते ~38~ भोजनका रणानि मा. ५९-६० ५ १० १४ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार" - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं ||६०|| ---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-व], प्रकीर्णकसूत्र-[७] "गच्छाचार" मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वत्ति: प्रत ६१-२ सूत्रांक ||६०|| श्रीगच्छा शाहील्यते वचनोल्लानसम्मुखजल्पनमर्मोद्घाटनादिप्रकारेण चकाराद् यत्र पर्यायेण लघुतरोऽपि गुणवृद्धो न हील्यते वज्रं प्रति भोजनकाचारलघु- सिंहगिरिशिष्यरलवृन्दवत् हे गौतम! स गच्छ इति ॥६०॥ अथाऽऽाधिकारमाह रणानि गा. जत्थ य अज्जाकप्पो पाणच्चाएवि रोरदुभिक्खे । न य परिभुंजइ सहसा गोयम ! गच्छं तयं भणियं ॥ ६१॥ जत्थ य० ॥ यत्र च गणे आर्याकल्पः-साध्न्यानीतं रोरदुर्भिक्षे प्राणत्यागेऽपि 'सहस'त्ति सिद्धान्तोक्तविधिमकृत्वा न| परिभुज्यते, यद्वा यत्र च गणे आर्याकल्पः-साध्व्यानीतमशनादिकमित्यर्थः सहसेत्युत्सर्गमार्गेण न परिभुज्यते, अपवादे : दातु परिभुज्यते, जङ्घावलक्षीणश्रीअन्यकापुत्राचार्यादिवत् , हे गौतम! 'गच्छ:' गणः 'तय'ति सः मया भणितः, आर्षत्वादत्र विभक्तिपरिणामः । अस्या गाथाया व्याख्यानमन्यदपि जिनाज्ञापूर्वकं कर्त्तव्यमिति ॥ ११॥ अथोत्सर्गेण जल्पनपरि-1* चयादिकं निवारयन्नाहजत्थ य अजाहिं समं थेरावि न उल्लवंति गयदसणा । न य झायंति थीणं अंगोवंगाई तं गच्छं ॥ १२॥ जत्थ य० ॥ यत्र गणे 'आर्याभिः' साध्वीभिः 'सम' सार्द्ध चकारागण्डागतकान्तादिभिः स्त्रीभिः सार्द्ध च तरुणाः साधव आस्तां स्थविरा अपि 'नोल्लपन्ति' न निष्कारणमालापसंलापादिकं कुर्वन्तीत्यर्थः, स्थविराखिधा, तत्र षष्टिवजाता जाति-I |स्थविराः १ समवायधराः श्रुतस्थविराः २ विंशतिवर्षपर्यायाः पर्यायस्थविराः, ३ किंभूताः-ता:-प्रनष्टा दशना-दन्ता 31॥ १८ ॥ दियेषां ते गतदशनाः, 'न ध्यायन्ति'नसरागदृष्ट्या चिन्तयन्तीत्यर्थः 'स्त्रीणां' नारीणां, कानि?- अङ्गोपाङ्गानि तत्र अशान्यष्टीदा २७ SECSCIOSECSC दीप अनुक्रम [६०] | अथ 'आर्या' (साध्वी) अधिकार: वर्णयते ~ 39~ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार" - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं ||२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-व], प्रकीर्णकसूत्र-[७] "गच्छाचार" मलं एवं वानर्षिगणि विहिता वत्ति: प्रत सूत्रांक ||६२|| बाहुद्वय २ ऊरुद्वय ४ पृष्ठि ५ शिरो ६ हृदयो ७ दर ८ लक्षणानि, उपाङ्गानि-कर्णनासिकादीनि, चकारान्न विलोकयन्ति | कदाचित् राष्ट्राऽपि नान्यस्मिन् वर्णयन्ति स गच्छ इति ॥ १२॥ किश्व हरदोषाःगावजेह अप्पमत्ता अज्जासंसग्गि अग्गिविससरिसं । अज्जाणुचरो साहू लहइ अकित्तिं खु अचिरेण ।। ६३ ॥ ४६२-७० वजे० ॥ 'वर्जयत' मुञ्चत 'अप्रमत्ताः' प्रमादवर्जिताः सन्तो यूयं, कं !-'आर्यासंसर्ग' एकान्तसाध्वीपरिचयादिकमित्यर्थः, किंभूतं ?-'अग्निविषसदृशं' यथाऽग्निना सर्व भस्मसात्स्यात्तथाऽसां संयोगे चारित्रं भस्मसाद्भवति, यथा च ५ तालपुटविष जीवानां प्राणनाशकरं भवति तथाऽऽसां परिचयश्चारित्रप्राणनाशकरः, कूलवालुकवत् । तथा 'आर्यानुचरः' It आर्या-साध्वी तस्या अनुचरः-किङ्करः, कः ?-'साधुः' मुनिः 'लभते' प्रामोति 'अकीति' असाधुवाद यथा अहो साधुत्वं अहो तपोधनत्वं अहो त्यक्तगृहगृहिणीसङ्गत्वं अहो शिवमार्गसाधकत्वं अहो इन्द्रियबाधकत्वमित्याद्यवर्णवादरूपं खु यस्मादर्थे 'अचिरेण' इति स्तोककालेन, अतो हे मुनयः! आर्यासंसर्ग वर्जयतेति ॥१३॥ । रस्स तवस्सिस्स व बहुस्सुअस्स व पमाणभूयस्स । अज्जासंसग्गीए जणजंपणयं हविजाहि ॥ १४ ॥ । धेर०॥ 'स्थविरस्य' वृद्धस्य 'तपस्विनो वा' अष्टमादितपोयुक्तस्य वा 'बहुश्रुतस्य' अधीतबहागमस्य वा 'प्रमाणभूतस्य'। सर्वजनमान्यस्य एवंविधस्य साधोरपि 'आर्यासंसर्गेण' बहुतमसाध्वीपरिचयेन 'जणजपणय'ति लोकमध्येऽपकीर्तिलक्षणं ||2|| भवेत् यथा एष सुलक्षणो नेति ॥ ६४॥ किं पुण तरुणो अबहुस्सुओ अ नयविहु विगिकृतवचरणो । अज्जासंसगीए जणजपणयं न पाविजा ? ॥ ६५ ॥ दीप अनुक्रम -%A4%A4% [६२] ~ 40~ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ..............-- मूलं ||६५|| --.................----- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-व], प्रकीर्णकसूत्र-[७] "गच्छाचार" मलं एवं वानर्षिगणि विहिता वत्ति: प्रत सूत्रांक ||६५|| श्रीगच्छा- किं पुण॥ किं पुनः 'तरुणः' युवा, किंभूतः -'अबहुश्रुतः' आगमपरिज्ञानरहितः, चकारान देशादौ मुख्यत्वेन आर्यानुचचारलघु-ट्र प्रवृत्तः, न चापि हु विकृष्टतपश्चरणो-न दशमादितपःकर्ता, एवंविधो मुनिः 'आर्यासंसा' निष्कारणं मुण्ड्या सह विकथा-रदोषाः गा. वृत्ती परिचयादिकरणेन 'जनवचनीयता' लोकापवादलक्षणां किं न प्राप्नुयात् !, अपि तु प्राप्नुयादित्यर्थः ॥ ५५॥ ६२-७०. राजवि सयं थिरचित्तो तहावि संसग्गिलद्धपसराए । अग्गिसमीचे व घयं विलिज्ज चित्तं ख अजाए ॥६६॥ ४| जइ० ॥ यद्यपि 'स्वयं आत्मना 'स्थिरचित्तः' दृढाध्यवसायः साधुस्तथाऽपि तस्य मुनेः संसा-गमनागमनादिदरूपया लब्धा-प्राप्तः प्रसर:-अवसरो घटीद्विषव्यादिवार्तालापादिरूपो यया सा तथा तया आर्यया अग्निसमीपे घृतवत् । विलीयते रागवद्भवतीत्यर्थः 'चित्त' साधोः साध्व्यध्यवसानरूपं 'खु' निश्चयेनेति ॥ १६॥ सवत्थ इत्थिवग्गंमि अप्पमत्तो सया अवीसत्थो । नित्थरइ बंभचेरं तविवरीओ न नित्थरइ ॥ ६७॥ | सब०॥ 'सर्वत्र' दिवानिशागृहाङ्गणमार्गादिषु 'स्त्रीवर्ग अनाथरण्डामुण्ड्यादिरामावृन्दे 'अप्रमत्तः' रामाभिः सह । है निद्राविकथादिप्रमादरहितः सन् 'सदा' सर्वकालं 'अविश्वस्थः (स्तः) विश्वासरहितो रामासु एवंविधो 'निस्तरति' निरतीचारं पालयतीत्यर्थः, किं ?-'ब्रह्मचर्य' मैथुनत्यागरूपं, तद्विपरीतः' उक्तविपर्यस्तो 'न निस्तरति' न ब्रह्मचर्य पालयतीत्यर्थः॥ ६७॥18| सबत्धेसु विमुत्तो साह सवत्थ होइ अप्पबसो। सो होइ अणप्पवसो अजाणं अणुचरंतो उ ॥ १८॥ |x सबत्थे०॥ 'सर्वार्थेषु' सर्वहेयपदार्थेषु 'विमुक्तः' ममतादिरहितः 'साधुः' मोक्षसाधकः 'सर्वत्र' क्षेत्रकालद्रव्यभावादिषु दीप अनुक्रम [६५] ASS+ MASALADSAX ~ 41~ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) .-.------------ मूलं ||६८|| ----------------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-व], प्रकीर्णकसूत्र-[७] "गच्छाचार" मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वत्ति: प्रत सूत्रांक ||६८|| दीप हैमवति 'आत्मवशः' न कुत्रापि परवशी भवतीत्यर्थः, 'सः' मुनिर्भवति 'अनात्मवशः' परवशः य आर्याणां 'अनुचरत्वं आर्यानुचकुर्वम् सेवकत्वं निष्पादयन् तिष्ठतीति ॥ २८॥ अंत्र इष्टान्तमाह हरदोषागा. खेलपडिअमप्पाणं म तरह जह मच्छिआ विमोएई । अजाणुचरो साहू न तरह अप्पं विमोएउं ॥१९॥ ६२-७० खेलना श्लेष्मपतितमात्मानं 'न तरतिम शक्रोति यथा मक्षिका 'मोचयितुं' पृथक कर्स स्थानान्तरे गन्तुमित्यर्थः एवं || 'आर्यानुचरः' साध्वीपाशबद्धपादः साधुः 'न तरति' न शक्नोति 'आत्मानं विमोचयितुं' स्वेच्छयां ग्रामादिषु विहन्तु-15 मित्यर्थः॥६॥ साहुस्स नत्थि लीए अज्जासरिसा हुबंधणे उबमा । धम्मेण सह ठवंतो नयसरिसी जाण असिलेसो।। ७०।। | साहु०॥ 'साधोः' मुनेः 'नास्ति' न विद्यते, क-'लोके' प्राकृतजने 'आर्यासदृशी' साध्वीतुल्या 'हु' निश्चित 'बन्धन' पाशलक्षणे 'उपमा तत्सहर्श वस्त्वित्यर्थः, अपवादापवादमाह-'जाण'त्ति याः साध्वीः संयमभ्रष्टा धर्मेण सह *स्थापयन् साधुः 'नयसदृशः' आगमवेदीत्यर्थः 'अश्लेषः' अबन्धको ज्ञातव्य इति । "कचिद्वितीयादेः" इति प्राकृतसूत्रेण । जाणेत्यत्र द्वितीयार्थे षष्ठी । अथवा 'धर्मात् श्रुतचारित्रात् काश्चिद्भष्टा 'ज्ञात्वा' दृष्टा तत्पान्य गच्छोपदेशपरिचयादिका कृत्वा 'धर्मेण सह' श्रुतचारित्रलक्षणेन सह स्थापयन् उपलक्षणत्वात् अतीवगहनवृक्षदुर्गे व्याघसिंहादिश्वापददुर्गे| म्लेच्छादिभयमनुष्यदुर्गे ग पाषाणादिविषमस्थाने विषमपर्वते वा प्रस्खलमानां सर्वगात्रैः पतम्ती वा बाहादावणे | गृहम् सर्वाङ्गीणं वा धारयन् एवमुदकपङ्कादी अपकसन्तीं अपोह्यमानी वा मष्टचित्तां दीप्तचित्ता लाभादिमदेन परवशी अनुक्रम [६८] ~ 42 ~ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं ||७०|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-व], प्रकीर्णकसूत्र-[७] "गच्छाचार" मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वत्ति: Re%AMESH श्रीगच्छाचारलघु प्रत सूत्रांक पत्तों ||७|| + +k दीप भूतहृदयां यक्षाविष्टां उन्मादप्राप्तां उपसर्गप्राप्तां संयत्या गृहस्थेन वा समं साधिकरणां सप्रायश्चित्तप्रायश्चित्तभयेन विषण्णां भ्रष्टनिग्राप्रायश्चित्तं वहन्तीं तपसा क्लान्तां वा सर्वाङ्गीणं धारयन् देशतः साहयन् वा स्थानाङ्गपञ्चमस्थानकोक्तसभयादिकारणैरेकत्रहको गच्छः तिष्ठन्नपि 'नयसरिसो'त्ति नयसदृशो भवति साधुः, कोऽर्थः-यथा नैगमादिभिः सप्तभिर्नयैः सूत्र व्याख्यायमानं आज्ञां ट। नातिकामति, एवमत्रापि जिनाज्ञां नातिकामति साधुः । तथा 'जाण असिलेसो'त्ति 'अश्लेषः' अबन्धकः 'जाण'त्ति ज्ञातव्यः, आर्षत्वात्तव्यप्रत्ययलोपोऽत्र, अशुभकर्मबन्धकारको न भवतीत्यर्थः । अस्या गाथाया अन्याऽपि यथागर्म | 81 व्याख्या कार्येति ॥ ७० ॥ पुनः साधुशिक्षाप्रदानेन गुणवर्णनेन च गुणस्वरूपमाहवायामित्तेणवि जत्थ भट्टचरित्तस्स निग्गहं विहिणा । बहुलद्विजुअस्सावी कीरइ गुरुणा तयं गच्छं ॥ ७१ ॥ | वाया ॥ वामात्रेणापि, आस्ता क्रियया, भ्रष्टचारित्रस्य विधिना निग्रहं यत्र क्रियते यद्वा बहुलब्धियुक्तस्यापि स गच्छ,४ लावामात्रेण वचनव्यापारेण रे कुशील! रे अपण्डित ! रे जिनाज्ञाभञ्जक!रे सद्गच्छमर्यादावल्लीकन्दकुद्दाल! इत्या-1.. दिना, अपिशब्दान्मनसा यथाऽयं न संयमगुणकारी अतः शिक्षा देयेत्यादिचिन्तनेन कायेन-करचालनशिर कम्पनादिना यत्र गणे, कस्य -'भ्रष्टचारिस्य' शिथिलसंयमस्य 'निग्रहः दण्डः 'विधिना' सूत्रोक्तप्रकारेण, कथंभूतस्य -'बहुलब्धियुक्त-18 स्यापि' आमीषधिविण्मूत्रौषधिश्लेष्मौषध्यादिसहितस्यापि 'क्रियते' विधीयते 'गुरुणा' स्वधर्माचार्येण 'तयंति स गच्छः। किश्चिल्लब्धिस्वरूपं यथा-"आमोसहि १ विष्पोसहि २ खेलोसहि ३ जल्लओसही ४ चेव । सबोसहि ५ संभिन्नसोय ६ ओही ७ रिउ ८ विउलमइलद्धी ९॥१॥चारण १० आसीविस ११ केवली य १२ गणधारिणो १३ य पुषधरा १४। अनुक्रम CREASCCCCCC445343% [७०] ॐॐॐॐॐ २५ अथ उत्तम'गच्छ' स्वरुपम् वर्णयते ~ 43~ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार" - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं ||१|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-], प्रकीर्णकसूत्र-[७] "गच्छाचार" मलं एवं वानर्षिगणि विहिता वत्ति: प्रत सूत्रांक ||७१|| सन्निध्यादिवर्जको . गच्छः गा. ७२ दीप है अरहंत १५ चकवडी १६ बलदेवा १७ वासुदेवा य १८ ॥२॥ खीरमहुसप्पिासव १९ कुट्ठयबुद्धी २० पयाणुसारी |य २१ । तह बीयबुद्धि २२ तेअग २३ आहारग २४ सीयलेसा य २५॥३॥ वेउविदेहलद्धी २६ अक्खीणमहाणसी| |२७ पुलाया य २८ । परिणामतवविसेसेण एमाई हुंति लद्धीओ॥४॥ भवसिद्धियपुरिसाणं एयाओ २८ हुँति भणि- दाय लद्धीओ । भवसिद्धियमहिलाणवि जत्तिय जायति तं बुच्छं ॥५॥ अरिहंत १ चकि २ केसव ३ बल ४ संभिन्ने य ५ चारणे व पुषा ७॥ गणहर ८ पुलाय ९ आहारगं च १० नहु भवियमहिलाणं ॥६॥ अभवियपुरिसाणं पुण दस पुबिल्ला उ केवलितं च ११ । उज्जुमई १२ विपुलमई १३ तेरस एयाउ न हु हुंति ॥ ७॥ अभवियमहिलाणं पुण एयाओ न हुंति| भणियलद्धीओ १३ । महखीरासबलद्धीवि नेव सेसा उ अविरुद्धा ॥८॥" इति ॥ ७१॥ जत्थ य सन्निहिउक्खडआहडमाईण नामगहणेऽवि । पूईकम्मा भीआ आउत्ता कप्पतिप्पेसु ॥७२॥ जस्थ य०॥ यत्र च गणे 'सन्निहित्ति आहारमनाहारं च तिलतुषमात्रमपि पानकं वा बिन्दुमात्रमपि तेषां निशास्थापनं संनिधिरुच्यते, संनिधिपरिभोगे रक्षणे च चतुर्गुरुः प्रायश्चित्तं आत्मसंयमविराधना अनवस्थाऽऽज्ञाभङ्गादिदोषाः गृहस्थतुल्यश्चेति, उक्तं च दशकालिके-"लोभस्सेसमणुप्फासो, मन्ने अन्नयरामवि । जे सिया सन्निही कामे, गिही पवइए न से ॥१॥” इति । अत्र द्वितीयपदं निशीथचूर्णितो ज्ञेयमिति । 'उक्खड'त्ति औद्देशिकं, तच्चौघविभागभेदाद्विधा, तत्र * स्वार्थाग्निज्वालनस्थाल्यारोपणादिके व्यापारे यः कश्चिदागमिष्यति तस्य दानार्थ यत्क्रियते तदोषौदेशिक, विभागीदेशिकं| तु-उद्दिष्टकृतकर्मेति मूलभेदत्रयरूपं उद्देशसमुदेशादेशसमादेशोत्तरभेदेन द्वादशविधं, तत्र स्वार्थमेव निष्पन्नं भिक्षादा अनुक्रम [७१] CAAAAAA ~ 44 ~ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार" - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं ||७२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-३०-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार" मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: श्रीगच्छाचारलघु- वृत्ती प्रत सूत्रांक ॥ २१॥ ||७२|| नाय यत्प्रकल्पितं तदुद्दिष्टं १, यत्कृतोद्वृत्तं शाल्योदनादि दानाय करम्भः क्रियते तत्कृतं २, यत्कृतोद्वृत्तं मोदकचूर्णादि सन्निध्याN भूयः पाकगुडक्षेपेण दानाय मोदकाः क्रियन्ते तत्कर्म ३, तंत्र च ये केचन अवपतन्ति तेभ्यो दातव्यमित्युद्देशः १, पाप-८ दिवर्जको ण्डिनां दातव्यमिति समुद्देशः२,श्रमानों-शाक्यादीनामादेशः ३, निर्ग्रन्थानाम्-आर्हतानां समादेश ४ इति । 'आहड- गच्छः माईण'त्ति स्वपरग्रामादेर्जलस्थलपथेन पादाभ्यां नावादिना गन्यादिवाहनेन वा साध्वर्थ भक्तपानवस्त्रपात्राद्यानयनम- गा. ७२ |भ्याहृतमुच्यते, तेषां, आदिशब्दात्पूतिव्यतिरिक्तानामन्येषां दोषाणां च, पूतिदोषस्त्वने वक्ष्यमाणत्वात्, नामग्रहणेऽपि टू मुनयो भीता भवन्ति । पूईकम्म'त्ति आधाकर्मादि षोडशविध उद्गमः, सच सामान्यतो द्विधा-विशोधिकोटि १ रविशोधिकोटिश्च २, तत्राधाकर्म सभेदं १ विभागौद्देशिकस्य द्वादशविधस्यान्त्यं भेदत्रयं कर्मसमुदेश १ कर्मादेश २ कर्मसमादेश ३लक्षणं २ पूतिराधाकर्मलेशश्लेषः ३ मिश्रजातं पापण्डिगृहिमिदं साधुगृहिमिश्र ४, बादरप्राभृतिका गुर्वागमनं ज्ञात्वा है विवाहादिलग्नस्याग्रतः पश्चात्करणलक्षणा ५ अध्यवपूरः स्वगृहपापण्डिमिश्रः स्वगृहसाधुमिश्रः ६, इयमविशोधिकोटिः, अस्याः शुष्कसित्थुनाऽपि पूतिकर्म भवेत् , कल्पत्रये तु दत्ते शुद्ध्यति, उद्गमस्य शेष दोषजालं विशोधिकोटिः, अस्यां| मिलितायां यदि विवेकः कर्तुं शक्यते तदा शुद्धिः, नो चेत् कल्पत्रयेणेति । तथा 'आउत्ता कप्पतिप्पेसुत्ति कल्पत्रेपौ-असंसृष्टनीरादिना स्वस्वगच्छोक्तसमाचारीविशेषौ तयोरायुक्ताः, यद्वा आयुक्ता-उद्यमपराः, कयोः?-कल्पश्च-पात्रवस्त्र-19 क्षालनलक्षणः बेपश्च-अपानादिक्षालनलक्षणः कल्पत्रेपो तयोः कल्पत्रेपयोः, तत्र कल्पो जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन त्रिधा, कथं :ओदनमण्डकयवक्षोदकुल्माषराजमाषचपलचपलिकावृत्तचनकसामान्यचनकनिष्पावतुबरीमसूरमुद्गाद्यलेपकृदाहारे गृहीते, दीप अनुक्रम SACSAMACHAR [७२] २५ ॥११॥ ~ 45~ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३० - वृ) प्रत सूत्रांक ||62|| दीप अनुक्रम [७२] “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः) - मूलं ||७२ || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ३०-वृ], प्रकीर्णकसूत्र [७] “गच्छाचार” मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्तिः गो. ७२ पात्रे एको मध्ये कल्पः १ द्वितीयो वहिः २ तृतीयस्तु सर्वत्रेति कल्पत्रयं ‍जघन्यतः १ शाकपेयायवागूकोद्रवदनराजमु- सन्निध्या द्रदास्याद्यल्पलेपकृदाहारे गृहीते पात्रे कल्पत्रयं मध्ये तत एक बहिर्मध्ये च तत एकः सर्वत्रेति कल्पपञ्चकं मध्यमतः २ ७ दिवर्जको क्षीरदधिक्षीरपेयातैलघृतमुङ्गपानकातीवरसाधिके बहुलेपकृदाहारे गृहीते कल्पत्रयं मध्ये ततो द्वौ बहिर्मध्ये ततो द्वौ * गच्छः हस्तमुखपात्र बहिर्मध्ये सर्वत्रेति कल्पसप्तकमुत्कृष्टतः ३, सामान्येन च सर्वत्रापि कल्पसप्तकं देयमिति वृद्धवादः हस्ते तु मणिबन्धं यावत्कल्पा देया इति । त्रेप:- अपानादिक्षालनविधिः, तथा चोक्तं श्रीनिशीथसूत्रतृतीय चतुर्थोद्देशके - “जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा उच्चारपासवणं परिठावेत्ता परं तिन्हं णावापूराणं आयम आयमंतं वा साइज्जइ" सूत्रम् । अस्य चूर्णि :"णावत्ति पसई ताहिं तिहिं आयमियवं, अण्णे भांति - अंजलि पढमणावापूरं तिहा करेति, अवयवे विगिंचर, वितिय णावापूरं तिहा करेत्ता सर्वावयवान् विसोहेइ, ततियं णावापूरं तिहा करेत्ता तिण्णि कप्पे करेइ, सुद्धं अतो परं जइ तो 'मासलहुं"ति षङ्कायवधदोषों वकुशत्वं च कारणे तु "अतिरित्तेण आयमइ जेण वा निलेवं णिग्गंधं भवती" त्यर्थः तथा कारणे तु मूत्रेणापि कल्पते, उक्त बृहत्कल्पे-"णो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा अण्णमण्णस्स मोयं आइयत्तए वा आयमित्तए वा गण्णत्थ गाढेसु वा रोगार्थकेसु" नो कल्पते निर्मन्थानां निर्मन्थीनां वा अन्योऽन्यस्य परस्परस्य मोकं मूत्रमापातुं वा आचमितुं वा, किं सर्वथैव ?, नेत्याह- गाढा-अहिविषविशूचिकादयः अगाढाश्च ज्वरादयो रोगातङ्कास्तेभ्योऽन्यत्र न कल्पते, तेषु कल्पते इत्यर्थः इति, एवंविधाः साधवो यत्र भवन्ति स गच्छः ॥ ७२ ॥ मउए निहुअसहावे हासद्दवविवज्जिए विगहमुक्के । असमंजसंमकरते गोपरभूम विहरति ॥ ७३ ॥ ~46~ ५ १० १४ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-वृ) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं ||३|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[३०-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार' मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक गच्छः ||७३|| श्रीगच्छा- | मउए० ॥ द्रव्यभावभेदान्मृदुका द्विधा, तत्र द्रव्यमृदुका अर्कतूलादिकाः भावमृदुकाः सिद्धान्तयथोक्तकथकाः गोचरभूचारलघु जिनो निःशङ्कादिस्वभावा वा 'निभृतस्वभावाः' अपवादापवादागमश्रवणे गुरुणा विद्यामन्त्रादिरहस्ये कथितेऽपि गम्भी-18 म्यादियुतो रस्वभावाः गुर्वादिना ताडिता अपि गुरुकुलावासे निश्चलचित्ता वा 'हास्यद्रवविवर्जिताः' तत्र हास्य-सामान्येन हसनंदा ॥२२॥ भावः-परोपहासः, यद्वा हास्य-दन्तोद्घाटनादिना हसनं द्रवः-कर्करादिना क्रीडादिकरणं 'विगहमुके' विकथाविमुक्ताः 'असमञ्जसं' गुर्वाज्ञाभङ्गाद्यन्यायमकुर्वन्तः गोरिव चरणं गोचरस्तस्य भूमिर्गोचरभूमिस्तदर्थ विहरन्ति, अयं भावः-ज्ञाना-18 दिप्रयोजने भ्रमन्ति न निष्प्रयोजनमिति । यद्वा गोचरभूमिः-अभिग्रहस्य द्वितीयो भेदस्तस्याष्टौ भेदास्तदर्थ विचरन्ति, है उपलक्षणादन्येऽपि ग्राह्याः । स चाभिग्रहो द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदाच्चतुर्दा, तत्र लेपकृतं जगारिप्रमुखमलेपकृतं वा वल्लादिकं द्रव्यमहं ग्रहीष्यामि, अमुकेन वा दींकुन्तादिना दीयमानमहं ग्रहीष्येऽयं द्रव्याभिग्रहः १ क्षेत्राभिग्रहेऽष्टी गोचरभूमयो, ट यथा यस्यामेकां दिशमभिगृह्योपाश्रयान्निर्गतः प्राञ्जलेनैव पथा समश्रेणिव्यवस्थितगृहपती भिक्षार्थे परिधमन् तावद् है याति यावत्पती चरमगृह, ततो भिक्षामगृह्णन्नेवापर्याप्ऽपि प्राञ्जलयैव गत्या प्रतिनिवर्त्तते साऋग्वी १, यत्र पुनरेकस्यां गृहपङ्की परिपाव्या भिक्षमाणः क्षेत्रपर्यन्तं गत्वा प्रत्यागच्छन् पुनर्द्वितीयस्यां गृहपती भिक्षामटति सा गत्वाप्रत्यागतिका २, यस्यां तु वामगृहाद्दक्षिणगृहे दक्षिणगृहाच्च वामगृहे भिक्षां पर्यटति सा गोमूत्रिका ३, यस्यां तु त्रिचतुरादीनि गृहाणि है विमुच्याप्रतः पर्यटति सा पतङ्गवीथिका ४, यस्यां तु साधुः क्षेत्रं पेटावच्चतुरनं विभज्य मध्यवत्तीनि च गृहाणि मुक्त्वा चतसृष्वपि दिक्षु समश्रेण्या भिक्षामटति सा पेटा ५, अर्द्धपेटाऽप्येवमेव नवरमर्द्धपेटासदृशसंस्थानयोटिंगद्वयसं -1954554 दीप अनुक्रम [७३] ~ 47~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३० - वृ) प्रत सूत्रांक ||63|| दीप अनुक्रम [७३] “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः) - मूलं ||७३ || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [३० वृ], प्रकीर्णकसूत्र [७] “गच्छाचार” मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्तिः वद्धयोगृहश्रेण्योरत्र पर्यटति, ६ तथा शम्बूकः शङ्खस्तद्वत् या वीथिः सा शम्बूका, सा द्वेधा-यस्यां क्षेत्रमध्यभागात् शङ्खावर्त्तया परिभ्रमणभन्या भिक्षां गृह्णन् क्षेत्रवहिर्भागमागच्छति साऽभ्यन्तरशम्बूका ७, यस्यां तु क्षेत्रवहिर्भागात्तथैव भिक्षामटन् मध्यभागमायाति सा बहिःशम्बूका ८, तथा श्रीवीरस्योदुम्बरविषयोऽन्योऽपि स्वपरग्रामे गृहसङ्ख्याविषयः क्षेत्राभिग्रहः २, अमुकवेलायां मया भिक्षार्थं गन्तव्यमिति कालाभिग्रहः ३, तथा गायन् रुदन् अपसरणं कुर्वन् संमुखमागच्छन् पराङ्मुखः अलङ्कृतोऽनलङ्कृतः पुरुषो यदि दास्यति तदा मया ग्राह्यमित्ययं भावाभिग्रहः ४ इति ॥ ७३ ॥ मुणि नाणाभिग्गह दुक्करपच्छित्तमणुचरंताणं । जायह चित्तचमकं देविंदाणंपि तं गच्छं ॥ ७४ ॥ मुoि || 'मुनीन' साधून 'नानाऽभिग्रहं' पूर्वोकलक्षणं दुष्करप्रायश्चित्तं चानुचरतो दृष्ट्वेति गम्यते 'जायते' उत्पद्यते चित्ते - मनसि चमत्कार:- आश्चर्य चित्तचमत्कारः केषां ? - देवेन्द्राणामपि यत्रैवंविधा मुनयो भवन्ति स गच्छः । तत्र प्रायश्चित्तं दशधा - आहारादिग्रहणोच्चारस्वाध्यायभूमिचै त्यय तिवन्दनार्थं पीठफलकप्रत्यर्पणार्थं कुलगणसङ्घादिकार्यार्थ च हस्तशताद्वहिर्निर्गमे आलोचना प्रायश्चित्तं भवति, आलोचना च गुरोः पुरतः प्रकटीकरणं तेनैव शुद्धिः १, समितिगुष्ठिप्रमादे गुर्वाशातनायां विनयभने इच्छाकारादिसामाचार्यकरणे लघुमृषावादादत्तादानमूर्च्छासु अविधिनाऽऽवासादिकरणे कन्दर्पहास्यविकथाकपाय विषयानुषङ्गादिषु प्रतिक्रमणं प्रायश्चित्तं मिथ्यादुष्कृतं, तेनैव शुध्यति न गुरुसमक्षमालोच्यते इति भावः २, सहसाऽनाभोगेन वा संभ्रमभयादेर्वा सर्वनतातिचारेषु उत्तरगुणातीचारेषु वा दुश्चिन्तितादिषु कृतेषु वा मिश्र प्रायश्चित्तं यद् गुरोः पुर आलोच्य तदादिष्टं मिथ्यादुष्कृतं दत्त इति भावः ३, पिण्डोपधिशय्यादिकेऽशुद्धे ज्ञाते यद्वा ~48~ आलोचनादिकारी गच्छः मा. ७४ ५ १० १४ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं ||७४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-व], प्रकीर्णकसूत्र-[७] "गच्छाचार" मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वत्ति: प्रत सूत्रांक ||७४|| दीप अनुक्रम श्रीगच्छा- कालातिक्रान्ते क्षेत्रातिक्रान्ते अनुद्गतेऽस्तमिते वा गृहीते कारणगृहीते उद्धरिते वा भक्कादिके विवेकः प्रायश्चित्तं, त्यजन् आलोच शुद्ध इत्यर्थः ५, नौनदीसन्तारसाबद्यस्वमादिषु कायोत्सर्गः प्रायश्चित्तं ४, पृथ्व्यादीनां संघट्टादी तपः प्रायश्चित्तं ६, यः नादिकारी षण्मासक्षमकोऽन्यो वा विकृष्टतपःकरणसमर्थस्तपसा गर्वितो भवति यथा किं ममानेन प्रभूतेनापि तपसा क्रियत इति गच्छ! तपाकरणासमों वा ग्लानाऽसहबालवृद्धादिः तथाविधतपाश्रद्धानरहितो वा निष्कारणतोऽपवादरुचिर्वा भवति तस्य || गा. ७४ छेदः प्रायश्चित्तं, अहोरात्रपञ्चकदशकादिक्रमेण पर्यायच्छेदः क्रियत इति भावः ७, आकुदृया पश्चेन्द्रियवधे दर्पण मैथुने 5उत्सनविहारे इत्यादी मूलं प्रायश्चित्तं, पुनर्वतारोपणमिति भावः, भिक्षोर्नवमदशमप्रायश्चित्तापत्तावपि मूलमेव दीयते ८,12/२० हस्वपक्षे परपक्षे वा निरपेक्षप्रहारिणि करादिघातके वा अर्थादाने इत्यादी अनवस्थाप्याई प्रायश्चित्तं, यावदुत्कृष्टं तपो द्र *नाचीर्ण तावद् व्रतेषु न स्थाप्यते पश्चात्तु स्थाप्यत इति भावः, एतत्प्रायश्चित्तमुपाध्यायस्यैव दीयते ९, तीर्थकरादीनां बहुश आशातनाकारिणि नृपघातके नृपानमहिषीप्रतिसेवके स्वपरपक्षकषायविषयप्रदुष्टे स्त्यानार्डिनिद्रावति पाराश्चिकहप्रायश्चित्तं, स त्वव्यक्तलिङ्गधारी जिनकल्पिवत् क्षेत्राद्वहिः स्थाप्यते द्वादश वर्षाणि, यदि प्रभावनां करोति तदा शीघ्रमेव | प्रवेश्यते गच्छे शुद्धत्वात्, इदं च प्रायश्चित्तमाचार्यस्यैव दीयते १०, तत्रानवस्थाप्यस्तपःपाराश्चितकश्च प्रथमसंहनन-* चतुर्दशपूर्वधरे गती, शेषाः पुनर्लिङ्गक्षेत्रकालानवस्थाप्यपाराञ्चिता यावत्तीर्थ तावद्भविष्यन्तीति ॥ ७४ ॥ अथ जीवरक्षा-1 Rel ॥२३॥ दिद्वारेण गच्छस्वरूपमाह पुढविदगअगणिमारुअ वाउवणस्सइतसाण विविहाणं । मरणतेऽविन पीडा कीरइ मणसा तयं गच्छं ॥७॥! २८ ISCCUMCMCHAKAM [७४] ~ 49~ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) .............- मूलं ||७५|| --....................---- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[३०-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार' मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||७५|| दीप पुढ०॥ पृथ्वीदकाग्निमारुतानां वाशब्द एषां भेदसूचका तुशब्दस्तु यतनासूचका, वनस्पतित्रसाणां विविधानी मनसाऽपि सचित्तादि मरणान्तेऽपि यत्राबाधा न क्रियते स गच्छः । तत्र पृथ्वीकायखिधा-सचित्ताचित्तमिश्रभेदात्, सचित्तो द्विधा-निश्चय- पृथ्ब्यादिव्यवहाराभ्यां, रक्षशर्कराप्रभृतीनां महापर्वतानां हिमवदादीनां च बहुमध्ये यः स निश्चयतः सचित्तः १, शेषोऽरण्यादौ पृथ्वी- यतनाकाकायः स व्यवहारसचित्तः, उदुम्बरादिक्षीरदुमाणामधः पथि च मिश्रः, हलकृष्टो यः स तत्क्षणादेवार्डोशुष्कः कचि री गच्छः न्मिश्रः २, शीतोष्णक्षारक्षत्राग्निलवणौषधकाञ्जिकस्नेहशस्त्रैरभिहतोऽचित्तः३ । तथाऽप्कायोऽपि विधा, घनोदधिषनवलयकरकाः समुद्रमध्ये द्रहमध्ये च यः स निश्चयतः सचित्तः, शेषोऽगडादीनां व्यवहारतः सचित्तः १, अनुत्ते त्रिदण्डे * मिश्र वर्षे पतितमात्रं च मिनं चाउलोदकं यावद्वहु प्रसन्नं निर्मलं न स्यात्तावन्मिथ २, बहुप्रसन्ने त्वचित्तमेवेति तथेष्ट-31 कापाकादिमध्यगो विद्युदादिकश्च नैश्चयिकः अङ्गारादिको व्यावहारिका सचित्तः १, मुर्मुरादिको मिश्रः२, ओदनव्यञ्जना-द चाम्लावश्रवणादिकोऽचित्ताग्निकायः ३ । तथा धनतनुवाता निश्चयतः सचित्ताः, अतिहिमपाते यो वायुः अतिदुर्दिने च स * 13/नश्चयिकः सचित्ता, प्राच्यादिवायुर्व्यवहारतः सचित्तः, क्षेत्रतो वायुभृतो दृतिर्जले एकहस्तशतगतश्चेदचित्तः, द्वितीय-31 हस्तशतप्रारम्भे मिश्रः, तृतीयहस्तशतप्रारम्भे सचित्तः, कालतः वायुपूरितो वस्तिः स्निग्धे उत्कृष्टमध्यमजघन्ये त्रिविधेऽपि काले एकद्वित्रिपौरुषीभिर्द्वित्रिचतुःपौरुषीभित्रिचतुःपञ्चपौरुषीभिश्च यथाक्रममचित्तः मिश्रः सचित्तः स्यात् , रूक्षे त्रिविधेऽपि । काले एकद्वित्रिभिर्द्वित्रिचतुर्भिस्त्रिचतुःपञ्चभिर्दिनैर्यथाक्रममचित्तः मिश्रः सचित्तः स्यात् । तथा सर्व एवानन्तवनस्पतिकायो निश्चयतः सचित्तः शेषः प्रत्येकवनस्पतिर्व्यवहारतः सचित्तः १, प्रम्लानफलकुसुमपर्णानि मिश्राणि, लोहस्य मिश्र- १४ अनुक्रम [७५] ~50~ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं ||५|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-व], प्रकीर्णकसूत्र-[७] "गच्छाचार" मलं एवं वानर्षिगणि विहिता वत्ति: प्रत वृत्ती सूत्रांक ||७|| दीप श्रीगच्छा- कालो यथा-"पणदिण मीसो लोट्टो अचालिओ सावणे य भद्दवए ११चउ आसोए कत्तिय २ मगसिरपोसेसु तिन्नि दिणार चारलघु 5॥१॥ पण पहर माहफग्गुणि ४ पहरा चत्तारि चित्तवेसाहा ५। जिट्ठासाढे तिपहर ६ अंतमुहुतं च चालियओ ॥२॥" बाह्यजल द्वीन्द्रियाः सकलजीवप्रदेशवन्तः सचित्ताः, विपर्ययादचित्ताः, जीवन्मृता एकत्र संमिलिता मिश्राः, एवं त्रीन्द्रियादयः ।। त्यागीच ॥२४॥ यतमा यथा पृथिव्युदकयोर्गमने प्राप्ते पृथिव्यां गम्यं उदके पृथ्वीत्रसादिसद्भावात् १, पृथिवीवनस्पत्योः पृथिव्यां गम्यं नागच्छ गा. हवनस्पती तद्दोषस्यापि संभवात् २, पृथिवीत्रसयोस्त्रसरहिते विरलत्रसे वा गम्यं निरन्तरे तु पृधिव्यामेव ३, जलवनस्पतिकाययोर्वनस्पतिना गम्यं उदके नियमावनस्पतिसद्भावात् ४, इत्यादि ॥ ७५ ॥ खजूरिपत्तमुंजेण, जो पमज्जे उवस्सयं । नो दया तस्स जीवेसु, सम्मं जाणाहि गोयमा!॥७३॥ खजूरि०॥ खजूरपत्रमयप्रमार्जन्या मुञ्जमयबहुकर्या वा 'य' साधुः उपाश्रीयते-भज्यते शीतादित्राणार्थ यः स उपाश्रयस्तमुपाश्रयं प्रमार्जयति तस्य मुनेजीवेषु 'दया' घृणा नास्ति हे गौतम! त्वं सम्यग् जानीहीति ॥ ७६ ॥ ४ जत्थ य वाहिरपाणिअ बिंदूमित्तंपि गिम्हमाईसु । तण्हासोसिअपाणा मरणेऽवि मुणी न गिण्हति ॥ ७॥ | जत्थ य०॥हे गौतम! यत्र च गच्छे 'बाह्यपानीयं' तटाककूपवापीनद्यादिसचित्तजलं 'बिन्दुमात्रमपि' जलकणमात्रकमपि, २५ *क-ग्रीष्मादिषु कालेषु, आदिशब्दाच्छीतवर्षाकालयोः, तृष्णया-द्वितीयपरीपहेण शोषिता-लानि प्रापिताः प्राणा:-P॥ २४ ॥ उच्छ्रासादयो येषां ते तृष्णाशोषितप्राणाः प्राणान्तेऽपि 'मुनयः' साधवो न गृह्णन्ति स गच्छ इति खुडुकवत् ॥ ७ ॥31 इच्छिज्जइ जत्थ सया बीयपएणावि फासुअं उदयं । आगमविहिणा निउणं गोअम! गच्छं तयं भणियं ॥७८॥ २८ अनुक्रम AAAAAAECSCN [७५] ~514 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार" - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं ||८|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-७], प्रकीर्णकसूत्र-[७] "गच्छाचार" मलं एवं वानर्षिगणि विहिता वत्ति: 4% प्रत सूत्रांक ||७८|| इच्छि०॥हे इन्द्रभूते ! 'इष्यते' वान्छा क्रियते 'यत्र' गणे 'सदा' सर्वकालं उग्रपदापेक्षया द्वितीयमपवादपदं तेनापि अप्रियता प्रगता असवः-प्राणा जीवा यस्मात्तत्मासुकं, किं?'-उदक' जलं 'आगमविधिना' आचाराङ्गनिशीथादिसिद्धान्तोक्तप्रकारेण गा.eनिपुणं यथा स्यात्तथा गच्छो भणितः॥ ७८ ॥ जत्थ य मूलविसूइय अन्नयरे वा विचित्तमायके । उप्पण्णे जलणुलालणाइ न करह तयं गच्छं ॥७९॥ जत्थ०॥ यत्र च गणे शूले विशूचिकायां च, आर्षत्वाद्विभक्तिलोपः, अन्यतरस्मिन् वा 'विचित्रे' अनेकविधे 'आतङ्के सद्योघातिरोगे 'उत्पन्ने' प्रादुर्भूते सति ज्वलनस्य-अग्नेरुज्ज्वालनं-प्रज्वलनं ज्वलनोज्वालनं अन्यारम्भमित्यर्थः मुनयो न कुर्वन्ति, आदिशब्दादन्यदपि सदोष, स गच्छा, आवश्यकोकाषाढाचार्यवदिति ॥ ७९ ॥ बीयपएणं सारूविगाइ सडाइमाइएहिं च । कारिती जयणाए गोयम! गच्छं तयं भणियं ॥८॥ बीय०॥ 'द्वितीयपदेन' अपवादपदेन सारूपिकादिभिः श्राद्धादिभिश्च कारयन्ति 'यतनया' निशीथादिग्रन्थोक्तयतनाकरणेन, यथा-"साहुणो सूलं विसूइया वा होजा, तो तावणे इमा जयणा-महापीडाए जत्थ अगणी अहाकज्जो झियाइ तत्थ गंतुं सूलादि तावेयषं जइ गिहवइणो अचियत्तं न भवइ, अब गुज्झगाणि तावेयवाणि ताणि य गिहत्थपुरओ न स-15 कति तावे तो ण गम्मइ" इत्यादियतनाविशेषो विशेषज्ञैर्विशेषसूत्राद्विज्ञेयः, तत्र प्रथम मुण्डितशिराः शुक्लवास परिधायी कच्छां न बधीत अभार्याको भिक्षां हिण्डमानः सारूपिकस्तस्य समीपे, तस्याभावे सभार्याको वा शुक्लाम्बरधरो मुण्डितशिराः सशिखाकोऽदण्डकोऽपात्रकः सिद्धपुत्रका, तस्याभावे त्यकचारित्रः पश्चात्कृतः, तस्याभावे गृहीताणुव्रतः श्राद्ध, तस्याभावे ।। १४ दीप अनुक्रम ॐॐॐॐकारुर [७८] - - ~52~ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं ||८०|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-३०-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार" मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: प्रत वृत्ती सूत्रांक ||८०|| दीप श्रीगच्छा-४ भद्रकान्यतीर्घिकस्तस्य समीपे कारयन्त्यग्नियतनां यत्र हे इन्द्रभूते! 'तय'ति स गच्छो भणितो मयेति ॥८॥ संघट्टहाचारलघु दा पुष्फाणं बीआणं तयमाईणं च विविहदवाणं । संघट्टणपरिआवण जस्थ न कुज्जा तयं गच्छ॥ ८१॥ + स्यादिवर्ज. पुप्फा०॥ पुष्पाणि चतुर्विधानि, जलजानि १ स्थलजानि २, तत्र जलजानि सहस्रपत्रादीनि १ स्थलजानि-कोरण्टका- नं च गा. ४दीनि २, तान्यपि प्रत्येक द्विविधानि-वृन्तबद्धानि-अतिमुक्तकादीनि ३ नालबद्धानि च-जातिपुष्पप्रभृतीनि ४, तत्र यानि ८१-८२ नालबद्धानि तानि सर्वाणि समषेयजीवानि, यानि तु वृन्तबद्धानि तान्यसङ्ख्येयजीवानि, नुह्यादीनां पुष्पाणि अनन्तजीवात्मकानि, तेषां पुष्पाणां, तथा बीजानि-शालीगोधूमयववरट्टादीनि तेषां बीजानां त्वगादीनां च, आदिशब्दात्तृणमूलपत्राकरफलादीनां, विविधसजीवद्रव्याणां संघट्टनं-स्पर्शनं परितापनं-सर्वतः पीडनं यत्र न क्रियते स गच्छः ॥८१॥ हासं खेड्डा कंदप्प नाहियवायं न कीरए जत्थ । धावण डेवण लंघण ममकाराऽवण्ण उच्चरणं ॥ ८२ ॥ हासं०॥ हास्यं सामान्येन हसनं वक्रोक्त्या हसनं वा खेड्डा इति क्रीडा बालकवद्गोलकादिना रमणमित्यर्थः,कीडा वाऽन्ताक्ष४ रिका प्रहेलिकादानादिरूपा, 'कंदप्पत्ति कन्दर्पभावना, उपलक्षणत्वात् किल्बिषिकारभियोगिका ३ऽऽसुरिक४मोहभावनाः ५, द्रतत्र मायया परविप्रतारणवचनं वाऽदृट्टहासहसनं अभृतालापाश्च गुदिनाऽपि सह निरवकोत्यादिरूपाः कामकथा || २५ कामोपदेशप्रशंसा कायचेष्टा वाक्चेष्टा परविस्मापकविविधोल्लापाः तत्कन्दर्पभावना १, सातरसदिहेतवे यन्मप्रयोगभूति-16|॥ २५ ॥ | कर्मादिकरणं तदाभियोगिकभावना २, यत् श्रुतज्ञानादेः केवलिनां धर्माचार्यस्य सङ्घस्य साधूनां च निन्दाकरणं तत्किल्बि| पिकभावना ३, यन्निरन्तरक्रोधप्रसरः, यच्च पुष्टालम्बनं विनाऽतीतादिनिमित्तकथनं तदासुरीभावना ४, यदात्मवधार्थ अनुक्रम [८०] % * ~534 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-वृ) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ..........- मूलं ||८१-८२|| -... -- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार" मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||८१-८२|| MSROADCASTOSTSMSACSC शस्त्रग्रहणं विषभक्षणं भस्मीकरणं जलप्रवेशनं भृगुपातादिकरणं कारणं विना तन्मोहभावना ५। 'नाहियवाय'ति नास्तिक- स्त्रीस्पर्शक वादा,यथा नास्ति जीवः नास्ति परलोकः नास्ति पुण्यं नास्ति पापं इत्यादिकं 'नाहियवार्य'ति मायया परविप्रतारणवचनं वार्जनम् गा. 'न क्रियते' न विधीयते साधुभिर्यत्र गणे, तथा 'धावन' सामान्येन वक्रगत्या गमनं, यद्वा 'धावन' अकाले कारणं विना ८३-८४ वर्षाकल्पादिक्षालनं 'डेवनं' वेगेनाश्ववद्गमनं कोशिकतापसवत्, 'लहन वाहादिकोलनं अर्हन्मित्रसाधुवत्, यद्वा 'लइन' परस्परकलहेन क्रोधादिना श्राद्धोपरि वाऽन्नपानादिमोचनं, ममकारः' ममताकरणं वखपात्रोपाश्रयश्राद्धादिषु 'अवर्णोच्चारणं' ट्र अवर्णवादकथनमर्हदादीनामिति ॥ ८॥ जस्थित्थीकरकरिसं अंतरिअं कारणेऽवि उप्पन्ने । दिट्ठीविसदित्तग्गीविसं व वज्जिजए गच्छे ॥ ८३॥ जस्थित्थी०॥ यत्र गणे 'खीकरस्पर्श' साध्वीहस्तसङ्घन, उपलक्षणत्वात्पादादिसट्टनं 'अंतरिअ'मिति बिना 'कारणे'त्ति कारणं, अत्र द्वितीयार्थे सप्तमी,कण्टकरोगोन्मत्तादिलक्षणं, 'अपि' समुच्चये, किंभूतं कारणं १-'उत्पन्नं' संजातं,दृष्टिविषसर्पदीप्ताग्निविषमिव वर्जयेत् स गच्छः, यद्वा यत्र स्त्रीकरस्पर्श-गृहस्थरामाकरपादादिसट्टनं 'अन्तरे' वखादिव्यवधाने, अब प्राकृतत्वाद्विभक्तिपरिणामः, कारणे उत्पन्नेऽपि दृष्टिविषसर्पदीप्ताग्निविषमिव वर्जयेत् स गच्छ इति ॥ ८३॥ बालाए बुड्ढाए नत्तुअदुहिआइ अहव भइणीए । न य कीरइ तणुफरिसं गोयम! गच्छं तयं भणियं ।। ८४॥ बालाए०॥ बालाया' अप्राप्तयौवनायाः 'पृद्धाया' स्थविरायाः उपलक्षणत्वान्मध्यमायाः एवंविधायाः 'नकायाः' सुत-18 सुतायाः 'दुहितकायाः' सुतासुतायाः अथवा 'भगिन्याः' याम्याः उपलक्षणत्वान्मातुः पुत्र्याः कलत्रस्येत्यादिग्रहणं| दीप अनुक्रम [८१-८२] ~ 54~ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३० - वृ) प्रत सूत्रांक ||८४|| दीप अनुक्रम [८४] श्रीगच्छाचारलघुवृत्तौ ॥ २६ ॥ “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र- ७ (मूलं+वृत्ति:) - मूलं ||२४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ३० - वृ], प्रकीर्णकसूत्र- [७] “गच्छाचार” मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्तिः 'तनुस्पर्शः' अङ्गस्पर्शो न च क्रियते हे इन्द्रभूते! स गच्छः अत्र सूत्रे स्पर्शनिषेध उक्तः, एवमन्ये शब्दादयोऽपि त्याज्या :, यतः पुरुषस्पर्शेन पुरुषस्य मोहोदयो भवति न था, यदि भवेत्तदा मन्दो न स्त्रीस्पर्शवदुत्कटः, स्त्रीस्पर्शेन पुनः पुरुष स्य नियमाद्भवति मोहोदय उत्कटः १ । एवं स्त्रियाः स्त्रीस्पर्शे सति भजना, स्त्रियाः पुरुषस्पर्शेन नियमान्मोहोदयः २ । तथा पुरुषस्य पुरुषशब्दं श्रुत्वा भजना, पुरुषस्येष्टे स्त्रीशब्दे श्रुतेऽवश्यं मोहोदयः ३ । एवं खिया अपि भावनीयम् ४ । तथैव - मिष्टे रूपेऽपि जीवसहगते चित्रकर्मादिप्रतिमायां वा भाव्यम् । स्पर्शे उदाहरणानि यथा - "आणंदपुरं नगरं जितारी राया, वीसत्था भारिया, तस्स पुत्तो अणंगो नाम, बालत्ते अच्छिरोगेण गहिओ निचं रुयंतो अच्छइ, अन्नया जणणीए निगिनठियाए अहाभावेण जाणूरुअंतरे छोढुं उवगूढिओ, दोऽवि तेसिं गुज्झा परोप्परं समफिडिया, तहेव तुण्हिको ठिओ, लद्धोवाओ, रूयंतं पुणो पुणो तहेव करेइ ठायइ रुयंतो, पवद्रुमाणो तत्थेव गिद्धो मोतुं पियं विलपतीं, पिता से मओ, सो रज्जे ठिओ, तहावि तं मायरं परिभुंजइ, सचिवाईहिं बुज्झमाणोवि णो ठिओत्ति १ ॥ तथा-"एगो वणिओ, तस्स महिला अतीव इट्ठा, सो वाणिजेण गंतुकामो तं आपुच्छर, तीए भणियं-अपि गच्छामि, तेण सा नीया, सा गुबिणी, समुदमझे विण पवहणं, सा फलगं विलग्गा अंतरदीवे लग्गा, तस्थेव पसूया दारगं, स दारगो संबुडो, सा तत्थेव संपलग्गा, बहुणा कालेण अन्नपवहणे दुरुहित्ता सणगरमागया, तीए बुग्गाहिओ सो-मा लोग सेण अहं जणणित्तिकांड परिचया, स लोगेण भण्णइ-अगम्मगमणं मा करेहि, परिचयाहि, तहावि णो परिचयतित्ति २ ॥ तथा-" वासुदेवज्ये व भ्रातृजराकुमारपुत्रजितशत्रुराज्ञः शशकभशकपुत्रौ तयोर्भगिनी देवाङ्गनातुल्या यौवनं प्राप्ता सुकुमालिका, अशिंवेन सर्वकुलवंशे प्रक्षीगे ~ 55~ गच्छे स्त्री स्पर्शवर्जनं २० २५ ॥ २६ ॥ २८ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं ||८४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-व], प्रकीर्णकसूत्र-[७] "गच्छाचार" मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वत्ति: वर्जनम् गा. प्रत सूत्रांक ||८४|| SEASUR दीप ते त्रयोऽपि कुमारत्वे प्रबजिताः, सुकुमालिकाऽतिरूपतया न भिक्षाद्यर्थ गन्तुं शक्नोति,तरुणाः पृष्ठत आगच्छन्ति,तन्निमितमुपाश्रयेऽप्यागच्छन्ति,गणिन्या गुरोः कथितं,तदा गुरुणा स्वभ्रातरौ रक्षार्थ भिन्नोपाश्रये तत्पार्थे मुक्ती, ती सहस्रयोधिनी, तयोरेको भिक्षां हिण्डति अन्यस्ता रक्षति, एवं बहुकाले गते सति साधुपीडां दृष्ट्वा तयाऽनशनं कृतं, बहुभिर्दिनः क्षीणा दमूर्ची गता, मृतेतिकृत्वा एकेन सा गृहीता, द्वितीयेन तस्या उपकरणं गृहीतं, सा मागें शीतलवातेन गतमूर्छा भातृस्पर्शन |सवेदा जाता, तथाऽपि मौनेन स्थिता, ताभ्यां परिष्ठापिता, तयोर्गतयोः सा, उत्थिता, आसन्नं बजता सार्थवाहेन गृहीता, स्वमहिला कृता, कालेन भिक्षार्थमागताभ्यां भ्रातृभ्यां दृष्टा, ससंभ्रममुत्थिता दत्ता भिक्षा, तथाऽपि मुनी तां निरीक्षमाणौ तिष्ठतः, तयोर्क-किं निरीक्षेथः, तो भणत:-अस्मद्भगिनी तव सरक्षाऽभूत् , किन्तु सा मृता, अन्यथा न प्रत्यय उत्पद्यते आवयोः, तयोः-सत्यं जानीथः, महमेव सा, तया सर्व पूर्वस्वरूपं कथितं, ताभ्यां सा वय परिणता सार्थवाहान्मोचिता 8 दीक्षिता आलोच्य स्वर्गतेति ॥ ८४ ॥ किश्चद जत्थित्थीकरफरिसं लिंगी अरिहावि सयमवि करिज्जा । तं निच्छयओ गोयम! जाणिज्जा मूलगुणभट्ट ॥८॥ | जस्थित्थी०॥ यत्र गणे स्त्रीकरस्पर्श 'लिङ्गी' मुनिः, किंभूतः -'अर्हन्नपि' पूजादियोग्योऽपि स्वयमपि कुर्यात् तं गच्छं । निश्चयतो हे गौतम! जानीयात् 'मूलगुणभ्रष्टं' पञ्चमहाव्रतरहितमिति ॥ पाठान्तरे तु-"जस्थित्थीकरफरिसं, अंतरिया कारणेवि उपक्षे । अरिहावि करिज सयं, तं गच्छं मूलगुणमुकं ॥" सुगमा ॥ अत्र श्रीमहानिशीथपञ्चमाध्ययनोक्तसावधा-12 चार्यस्य दृष्टान्तो ज्ञेय इति ॥ ८५ ॥ अथापवादमाह अनुक्रम [८४] ~56~ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं ||८|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-व], प्रकीर्णकसूत्र-[७] "गच्छाचार" मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वत्ति: आर्यावर्त प्रत सूत्रांक ||८६|| दीप श्रीगच्छा कीरइ बीयपएणं सुत्तमभणियं न जत्थ विहिणा उ । उप्पण्णे पुण कजे दिक्खाआयंकमाईए ॥ ८६ ॥ चारलघु कीरइ०॥ "क्रियते' विधीयते 'द्वितीयपदेन उत्सर्गपदापेक्षयाऽपवादपदेन 'सुत्तमभणिय'मित्यत्र मकारोऽलाक्षणिकः नम् गा.८६ सूत्रे-वृहत्कल्पादौ अभणितं-भगवता अकथितं सूत्रभणितं साध्वीपदे न यत्र' गणे 'विधिवत् शास्त्रोक्तप्रकारेण, तुशब्दो|ऽनेकद्रव्यक्षेत्रकालभावप्रकारसूचका, 'उत्पने' प्रकटीभूते पुनः कार्ये महालाभकारणे, किंभूते कार्ये -दीक्षायां गृहीतायां | दीक्षाऽऽतङ्कादिकं तस्मिन् , आदिशब्दाद्विपमविहारादाविति, आतङ्क आदिर्यत्र तत् , स न गच्छ इति ॥ अत्र किञ्चिन्निशीहै थचूर्णिपश्चदशोद्देशकगतं यथा-"एत्थ सीसो पुच्छइ-आगमे व पचावणिजा अजा अतो संसओ किं परियट्टियषाओ न परियट्टियवाओ?, आयरिओ भणइ-णस्थि कोइ णियमो, जहा अवस्सं परियट्टियवाओ णत्थि वत्ति, जइ पुण पषावेत्ता आणाए परिवति तो महानिजराए वट्टइ, अह अणाणाए उ पालेइ तो अतिमहामोहं पकुवइ, दीहं संसारं णिवत्तेइ, तो केरिसेण परियट्टियवाओ? को वा परियट्टणे विही ?,अतो भण्णइ-सही भीयपरिसित्ति २,एतेहिं दोहिं पदेहिं चउभंगो काययो, ४|सदू भीयपरिसे १ असहू भीयपरिसो २ सह अभीयपरिसो ३ असर अभीयपरिसो ४, तस्थ धितिबलसंपुण्णी इंदियणिग्ग-1 दाहसमत्थी थिचित्तो य आहारुवहिखेत्ताणि य तप्पाउग्गाणि उपाए समत्थो एरिसो सह १,जस्स भया सबा साहुसाहुणिका सावग्गो ण किंचि अकिरियं करेइ भया कंपर एरिसो भीयपरिसो २. एत्थ पढमभंगिल्लस्स परिवर्ण अणुण्णायं, सेसेसु तिसुदा एभंगसु णाणुण्णायं, अह परिय१ति तो चउगुरूं, सो पढमभंगिल्लो जह जिणकप्पं पडिवज्जओ अणुबहावगस्सासात जइ| |जिणकप्पं पडिवज्जइ तो चग्गुरुगा, अपणं च जिणकप्पठियस्स जा णिज्जरा सा उ विहीए संजतीभा अणुपालयतरस विउलतरा णिज्जरा भवति"त्ति ॥८६॥ किञ्च +++ACSCCUSK AASARAMSANICADASANSAR अनुक्रम [८६] ~57~ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं ||८|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[३०-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार' मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: 4-44 प्रत सूत्रांक ||८७|| INI ५ दीप मूलगुणेहिं विमुफ षट्चगुणकलियंपि लडिसंपन्नं । उत्तमकुलेऽवि जायं निद्धाडिजह तयं गच्छं ।। ८७॥ मूलगुणही. मूलगु०॥ बहुगुणकलितं' विज्ञानादिगुणवृन्दसहितमपि 'बहुलब्धिसंपन्नं' अनेकाहारवस्त्राद्युत्पादनलब्धिकलितं मधुक्षीराश्र ननिर्घाटन वादिलब्धियुक्तं वा उत्तमकुलेऽपि जातं' उपभोगादिके चान्द्रादिके वा कुले जातम्-उत्पन्नं, एवंविधगुणयुक्तमपि साधुसाध्वी हिरण्यादिवर्ग 'मूलगुणैः' प्राणातिपातविरमणादिभिः विशेषेण मुक्तं-भ्रष्टं विमुक्तं यत्राचार्याः 'निर्धाटयन्ति' तिरस्कारं कृत्वा स्वगणा-181 वर्जनं च | निष्काशयन्तीत्यर्थः 'तयंति स गच्छः, उपलक्षणात् स्त्यानर्द्धिनिद्राऽतिदुष्टवभावलक्षणमपि निष्काशयंतीति ॥८॥ गा.८७-८९ जत्थ हिरण्ण सुवणे धणधपणे फंसतंयफलिहाणं । सपणाण आसणाण य मुसिराणं चेव परिभोगो ॥ ८८॥ | जत्थ य वारडिआणं तेकूडिआणं च तहय परिभोगो । मुत्तुं सुकिलवत्थं का मेरा तस्थ गच्छंमि ? ॥८९॥ । जस्थ य हि०॥ जत्थ य वा०॥ यत्र गणे 'हिरण्यस्वर्णयोः' तत्र हिरण्यं-रूप्यं अघटितस्वर्ण वा स्वर्ण च घटितस्वर्ण, तथा 'धनधान्ययोः तत्र धनं चतुर्धा-गणिर्म-पूगफलनालिकेरादिकं १ धरिम-गुडादि २ मेयं-घृतादि ३ पारिच्छेद्य-माणि-17 क्यादि ४, अत्राचन्तभेदेनाधिकारः, धान्यं-अपक्वयवगोधूमशालिमुद्गादि चतुर्विंशतिविधं, 'कंस'त्ति कांस्यानि-स्थालक-18 चोलकादीनि पात्राणि 'तंय'त्ति ताम्राणि-ताम्रसम्बन्धिलोट्टिकादीनि स्फटिकरतमयानि भाजनादीनि, उपलक्षणत्वात् काचकपर्दिकादन्तादिबहुमूल्यानि पात्राणि, पात्रादिषु च पित्तलकादिवालिकानां बन्धनानि तेषां, तथा चोक्तं निशीथसूत्रे | आचाराने च-"जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा अयपायाणि वा १ कंसपा०२तंबपा०३ त उयपा०४ सुवण्णपा० ५रूप्पपा०18 ६ सीसगपा० ७ रीरियपा०८ हारपुटपत्तिलोहपा०९ मणिकायपा० १० संखपा० ११ सिंगपा० १२ दंतपा० १३ चेल-| अनुक्रम [८७] ~58~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३० - वृ) ཡྻ सूत्रांक ८९|| अनुक्रम [८८-८९] श्रीगच्छा चारलघुवृत्तौ ॥ २८ ॥ “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः) - मूलं ||८८-८९ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [ ३० - वृ] प्रकीर्णकसूत्र [७] “गच्छाचार” मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्तिः पा० १४ सेलपा० १५ चम्मपा० १६ वइरपा० १७ करेइ करेंतं वा साइजइ घरेइ घरेंतं वा साइज्जइ परिभुंजइ परिभुंजंतं वा साइज्जइ तस्स चाउम्मा सियं परिहारठाणं अणुग्धातियं ॥ जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा अयबंधणाणि वा १ कंसबंधणाणि वा २ जाव १६ वइरबंधणाणि वा १७ करेइ करतं वा साइजइ जाव परिभुजंतं वा साइजइ तस्सवि पुर्वपच्छितं ।” 'सयणासण'त्ति शयनानां - खद्वापल्यङ्कादीनां आसनानां - मचिकाचाकलकादीनां चशब्दाद्भुतदवरक जीणक जलेचक शेत्रिजिकादीनां तथा 'झुसिराणं ति सच्छिद्राणां पीढफलकादीनां परिभोगो-निरन्तरव्यापारणम् । तथा यत्र च 'वारडिआ णं'ति आद्यन्तजिनतीर्थापेक्षया रक्तवस्त्राणां 'तेकूडियाणं'ति नीलपीतविचित्रभाति भरतादियुक्तवस्त्राणां च 'परिभोगः' सदा निष्कारणं व्यापारः 'मुक्त्वा' परित्यज्य 'शुक्लवस्त्रं' यतियोग्याम्बरमित्यर्थः क्रियत इति शेषः, का मर्यादा १, न काचिदपि तत्र गणे इति ॥ ८८ ॥ ८९ ॥ कांस्यतास्त्रादिभ्यः स्वर्णरूप्यं वह्ननर्थकारीत्यतस्तनिवेधं दृढयन्नाह | जत्थ हिरण्ण सुवण्णं हत्थेण पराणगंपि नो छिप्पे । कारणसमप्पियंपि हु निमिसखणद्वेपि तं गच्छं ॥ ९० ॥ जत्थ हि० ॥ यत्र गणे 'हिरण्यस्वर्ण' पूर्वोक्तशब्दार्थं साधुः 'हस्तेन' स्वकरेण 'पराणगंपि'त्ति परकीयमपि - परसम्ब न्ध्यपि 'न स्पृशेत्' न संघट्टयेत् 'कारणसमर्पितमपि' केनाप्यगारिणा केनापि भयस्नेहादिहेतुनाऽर्पितमपि 'निमेषक्षणार्द्धमपि तत्र निमेषो-नेत्र सञ्चालन रूपः अष्टादशनिमेषैः काष्ठा काष्ठाद्वयेन लवः लवपञ्चदशभिः कला कलाद्वयेन लेशः लेशैः पञ्चदशभिः क्षणः तयोरर्द्धमपि स गच्छः । यद्वा यत्र परकीयमपि हिरण्यस्वर्ण हस्तेन साधुर्न स्पृशेत् कारणसमर्पितमपि, ~59~ हिरण्यादिवर्जनं गा. ९० २० २५ ॥ २८ ॥ २७ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३० - वृ) प्रत सूत्रांक ||8o|| दीप अनुक्रम [30] +++ “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः) मूलं ||९|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [३०-वृ], प्रकीर्णकसूत्र- [७] “गच्छाचार” मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्तिः भावार्थस्वयं-कार्ये संपूर्ण कृते सतीत्यर्थः, उक्तश्च निशीथपीठिकायाम् - "विसि कणगति विसघत्थस्स कणगं- सुवणं घेतुं घसिऊण विसणिग्धायणट्ठा तस्स पाणं दिजइति ॥ ९० ॥ अथाऽऽर्यकाद्वारेण गणस्वरूपमाह - जत्थ य अज्जालद्धं पडिगहमाईवि विविहमुवगरणं । परिभुंजइ साहूहिं तं गोयम ! केरिसं गच्छं १ ॥ ९१ ॥ जत्थ य० ॥ यत्र च गणे 'आर्यालब्धं' साध्वीप्राप्तं पतग्रहप्रमुखं 'विविधं' नानाभेदमुपकरणं परिभुज्यते साधुभिः कारणं विना 'हे गौतम !' हे इन्द्रभूते !, स कीदृशो गच्छो ?, न कीदृशोऽपीति । अत्र किञ्चिदुपकरणस्वरूपं निशीथतो यथा“जे भिक्खू वा २ गणणातिरित्तं वा पमाणातिरित्तं वा जबहिं घरेह, उवहिं घरेंतं वा साइजइ तस्स चउलहु" तथा "जो जिणकप्पिओ एगेणं कप्पेणं संथरइ सो एगं गेण्हइ परिभुंजइ वा, जो दोहिं सं० सो गेण्हइ परि०, एवं ततिओषि, जिणकप्पिओ वा जो अचेलो संधरइ सो अचेलो चेव अच्छइ, एस अभिग्गहविसेसो भणिओ, एतेण अधिकतरवत्थे ण हीलियनो जम्हा जिणाणं एसा आणा सज्ञेणवि तिण्णि कप्पा घेत्तवा थेरकप्पियाणं, जइवि अपाउएण संवरइ तहावितिष्णि कपाणियमा घेत्तवा इति, जो सामण्णभिक्खू तस्सेयं वत्थप्पमाणं भणियं, जो पुण गणचिंतगो गणावच्छेषगो सो दुलहवत्यादिदे से दुगुणपडोयारं तिगुणं वा, अहवा जो अतिरित्तो उवग्गहिओ वा सो सबो गणचिंतगस्स परिग्गहो भवइ, महाजणो ति गच्छो, तस्स आवत्तिकाले उवग्गहकरो भविस्सति" ति । तथा-"जेसु खित्तेसु चाउम्मासं कथं, तत्थ दो मासा वत्थं न गेण्डंति, किं कारणं १, जेण पासत्थाइ वासासुवि उवगरणं गेव्हंति, ण य च उपाडिवए पुणो णियमा विहरंति, तेण कारणेन तेहिं सुद्धे असुद्धे वा उवगरणे गहिए जं सेसगं सड़गा पयच्छंति तं सगं संविग्गाणं ण कप्पड़ घेतुं सपरखेत्तेतु, तति अत्र आर्या/साध्वी द्वारेण गच्छ स्वरुपम् वर्णयते ~60~ आर्यालाभवर्जनम् गा. ९१ ५ १० १४ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३० - वृ) प्रत सूत्रांक ||९१|| दीप अनुक्रम [१] श्रीगच्छा चारलघुवृत्ती ॥ २९ ॥ “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः) - मूलं ||१|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ३०-वृ], प्रकीर्णकसूत्र [७] “गच्छाचार” मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्तिः यमासे गेहंति, चिक्खलपंथा वासं वा णोवरमए वाहिं वा असिवं दुब्भिक्खं एवमाइएहिं कारणेहिं चउपाडिवएण णिग्गया | तत्थ दो मासमझे कोइ वत्थाणि देज्जा ते पडिसेहंति, दोसु मासेसु पुण्णेसु गेण्हंति, जम्हा जे इह खित्ते वासावासमवट्टिया तेसिं | वत्थे दाहामोति सहयाण जो भावो सो निग्गएसु वोच्छिज्जइ, साहूणं वा जे वत्था संकप्पिया ते अण्णसाधूणं अण्णपाखंडस्थाणं वा देति, अप्पणा वा परिभुंजंति वा, बालअसहुगिलाणा सीयं पडतं ण सहर, एवमाइएहिं कारणेहिं दोहिं मासेहिं अपुष्णेहिंवि ओमत्थगपणगपरिहाणीए गहणं कायबंति, उडुबद्धे य मासकप्पं जत्थ ठिया तत्थवि उक्कोसेणं दो मासा परिहरंति, कारणे ओमत्थगपणगपरिहाणीए गेण्हंति, इच्चाइ उवहिवित्थरो निसीहदसमोद्देसओ ओ "न्ति ॥ ९१ ॥ किश्वअइदुल्ल भेसचं बलबुद्धिविवर्णपि पुट्टिकरं । अज्जालडं भुंजइ का मेरा तत्थ गच्छंमि ? ॥ ९२ ॥ अइदु० ॥ ‘अतिदुर्लभं' दुष्प्रापं 'भेषजं' तथाविधचूर्णादिकं उपलक्षणत्वादौषधमपि बलं च शरीरसामर्थ्य बुद्धिश्चमेधा तयोर्विवर्द्धनमपि 'पुष्टिकरं' शरीरगुणकरं 'आर्यालब्धं' साध्व्यानीतं यत्र गणे साधुभिर्भुज्यते तत्र 'का मेरा' का मर्यादा १, न काचिदित्यर्थः ॥ ९२ ॥ एगो एगिथिए सद्धिं, जत्थ चिट्टिज गोयमा । संजईए विसेसेण, निम्मेरं तं तु भासिमो ॥ ९३ ॥ एगो० ॥'एकः'अद्वितीयः साधुः एकाकिन्या- रण्डाकुरण्डादिस्त्रिया सार्द्ध'यंत्र'गणे राजमार्गादौ वा तिष्ठेत् हे गौतम 1, तथा एकाकिन्या संयत्या सार्द्ध 'विशेषेण' हास्यविकथादिबहुप्रकारेण यत्र गणे साधुभिः परिचयः क्रियते 'तु'पुनः तं गच्छे' निर्मर्यादं' जिनाज्ञाविकलं 'भाषामहे' कथयामः, एवं तं गच्छे निर्मर्यादं सद्गुणव्यवस्थाविकलं भाषयाम इति ॥ ९३ ॥ ~61~ आर्यापरिचयवजेनम् मा. ९२-९३ २० २५ ॥ २९ ॥ ૨૮ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार" - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं ||१४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[३०-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार' मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||९४|| SDESAKCESS दढचारित्तं मुत्तं आइजं मइहरं च गुणरासिंहको अझावेई तमणायारं न तं गच्छं ॥ १४ ॥ आर्यापाठदढचा०॥ दृढं चारित्रं-पश्चमहानतादिलक्षणं यस्याः सा तथा तां 'मुक्कां' निःस्पृहां 'आदेयां' लोके आदेयवचनां ट्र | नवर्जनम् 'मइहरे' ति मतिगृह-गुणराशिं साध्वी चशब्दात् महत्तरां यद्वा महत्तरपदस्थितां सर्वसाध्वीनां स्वामिनीमित्यर्थः, महत्तरास्वरूपं यथा-"सीलस्था कयकरणा कुलजा परिणामिया य गंभीरा । गच्छाणुमया बुहा महत्तरत्तं लहइ अज्जा ॥१॥" एवंविधामप्येकाकिनीमायाँ 'एक अद्वितीयो मुनिः 'अध्यापयति' सूत्रतोऽर्थतो वा तत्रं पाठयतीत्यर्थः हे शिष्य ! तम-दी नाचारं जानीहि, न तं गच्छं, 'मुत्तुंति पाठान्तरे यत्र गणे दृढचारित्रं मदहरं गुणराशिं एवंविधमाचार्य मुक्त्वा-परित्यज्य, एतदुक्कं भवति-एवंविधः कदाचिदध्ययनोद्देशकादिकं पाठयेदिति ॥१४॥ घणगज्जिय हयकुहए विजूदुग्गिज्झगूढहिययाओ। अजा अवारिआओ इत्थीरज न तं गच्छं॥९५॥ जत्थ समुद्देसकाले साहणं मंडलीइ अज्जाओ। गोअम! ठवंति पाए इत्थीरजंन तं गच्छं ॥१६॥ घनस्य गर्जितं भाविनि दुज्ञेयं यस्य कुहक-उदरस्थो वायुविशेषः विद्युत्-प्रतीतैव ता इव दुर्गाचं हृदयं यासां ता आर्या अवारिता:-स्वेच्छाचारिण्यो यत्र गणे तत् स्त्रीराज्यं न तु स गच्छः ॥ ९५॥ जत्थ०॥ यत्र गणे 'समुदेशकाले' भोजनकाले साधूनां मण्डल्यां 'आर्या' संयत्यः हे गौतम! 'पादौ स्थापयन्ति' मण्डलीमध्ये आगच्छन्तीत्यर्थः, तत् खीराज्यं जानीहि त्वं, न तं गच्छम् । जओ-"अकाले पइदिणं आगच्छमाणीए लोयाणं संका भवइ, भोयणवेलाए सागारियाऽभावेण मोकलमणेण आलावे संलावे भवइ, साहूर्ण चउत्थे संका भवइति SASAGAGEISHIA दीप अनुक्रम [९४] ~62~ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३० - वृ) प्रत सूत्रांक ||९५ -९६|| दीप अनुक्रम [९५-९६] श्रीगच्छाचारलघुवृत्ती ॥ ३० ॥ “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र- ७ (मूलं+वृत्ति:) - मूलं ॥ ९५-९६ || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ३० वृ], प्रकीर्णकसूत्र [७] “गच्छाचार” मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्तिः परुप्परं पीई भवइ, तओ सबैऽवि साहवो अज्जाए अणुवहंति, अज्जाणुरागरता न मुणंति अप्पणो सज्झायपडिलेहणाइअसंजमहाणी, तओ संघाडए संजमहाणिकारणीए रजं भवति, संजईए संघाडए रज्जं कुणमाणीए पयठाणीयावि पहाणपुरिसा रज्जुबंधणबद्धबलतुल्ला भवंति, साहूणं च दुग्गई फलं भवइ, अओ उस्सग्गमग्गेण साहूहिं समं भोयणवेलाए अण्णत्थवि बहुसंसग्गो संजईएन कायवोत्ति, साहुणाऽवि पढमपरण संजईण मंडलीए एगागिणा न गंतवं "ति ॥ ९६ ॥ अथ सम्मुनिसद्गुणप्ररूपणेन सद्गुणस्वरूपमाह - जत्थ मुणीण कसाया, जगडितावि परकसाएहिं । निच्छिति समुद्वेषं सुनिविट्ठो पंगुलो चेव ॥ ९७ ॥ धम्मंतराय भी भीए संसारगन्भव सहीणं । न उईरंति कसाए मुणी मुणीनं तयं गच्छं ॥ ९८ ॥ कारणमकारणेणं अह कहवि मुणीण उट्ठहि कसाए । उदरवि जत्थ संभहि खामिल जत्थ तं गच्छ ॥ ९९ ॥ जथ० ॥ धम्मं० ॥ कारण० ॥ आसां व्याख्या यथा-यत्र गणे मन्यन्ते - जानन्ति तत्त्रस्वरूपमिति मुनयस्तेषां मुनीनां परमर्षीणां 'कषायाः' क्रोधमानमायालोभरूपाः 'जगडि जंताविति दीप्यमाना अपि-धगधगायमानं क्रियमाणा अपि, कैः १- परेषां दासदासीमातङ्गद्विजामात्यभूपाला दीनां कपाया उत्कटक्रोधादयस्तैः परकपायैः नेच्छति समुत्थातुं मे तार्य| गजसुकुमालस्कन्धकाचार्यशिष्यादीनां कषायवत्, 'चेव'त्ति यथार्थे यथा 'सु' इति अतिशयेन निविष्टः स्थितः 'सुनिविष्टः ' पदमपि गन्तुमसमर्थ इत्यर्थः 'पङ्गलः' पट्टः उत्थातुं न शक्नोतीति ॥ ९७ ॥ अगाध संसारसागरे पततां जीवानां धते | इति धर्म:- सर्वज्ञोकज्ञानदर्शनचरणरूपस्तस्यान्तरायो - निद्राविकवाकुमत्यादिविघ्नस्तस्माद्भीता:- त्रस्ताः तथा 'भीताः ~63~ कषायवर्ज नम् गा. ९७-९९ २० २५... ॥ ३० ॥ २८ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं ||९७-९९|| ----------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[३०-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार' मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||९७-९९|| 454645 कम्पमानाः संसरणं संसारो-भवभ्रमण गर्ने वसनं वसतिः गर्भवसतिः संसारश्च गर्भवसतिश्च संसारगर्भवसती ताभ्यां. यद्वा संसारे-चतुर्गत्यात्मके गर्भवसतयस्ताभ्यः 'नोदीरयन्ति' प्रशान्ताः सन्तः कुवाक्यादिना नोत्थापयन्तीत्यर्थः, कान ?-IALI 'कषायान' कोधादीन मुनयो मुनीनां स गच्छः । अत्र कषायोदये उदाहरणानि वाच्यानि, यथा-क्रोधे गोपातकमरुको-|| पआदि दाहरणं १, मानेऽचंकारिभट्ठोदाहरणं २, मायायां पण्डार्योदाहरणं ३, लोभे आर्यमनवाचार्योदाहरण ४ मिति ॥९८॥ गा.१०० तथा 'कारणे' गुरुग्लानशैक्षादिवयावृत्त्यादिप्रयोजने सारणवारणनोदनादिकारणे वा 'अकारणे' बहिम्मयोजनाभावे वा ' वाक्यालङ्कारे, यद्वा मकारोऽलाक्षणिकः कारणाकारणेन, अथ कथमपि 'मुनीनां' ज्ञातागमतत्त्वानां कषायविपाकवेत्तृणां 'उहिहिति' उत्पद्यन्ते-प्रकटीभवन्ति 'कषायाः' क्रोधादयः 'उदएवि'त्ति उत्पद्यमाना अपि यत्र 'रुंभेहिति'। रुध्यन्ते क्षाम्यन्ते च यत्र स गच्छः ॥ ९९ ॥ | सीलतबदाणभावण चउविहधम्मंतरायभयभीए । जत्थ बहू गीयत्थे गोयम ! गच्छं तयं भणियं ॥१०॥ | सीलतः॥ दीयत इति दान-सुपात्रानुकम्पादिक १ शीलमष्टादशधाऽब्रह्मवर्जनं २ तप्यतेऽष्टप्रकारं कर्मानेनेति तपः-IN रक्षावलीकनकावल्येकावलीमुक्तावलीश्रेणिवर्गधनप्रमुखषष्ट्यधिकशतत्रय३६०भेदभिन्नं, उक्तश्च श्रीगणिविद्याप्रकीर्णके-15 "महा १ भरणि २ पुषाणि, तिण्णि उग्गा वियाहिया । एएसु तवं कुज्जा, सम्भितरबाहिरं ॥१॥ तिण्णि सयाणि सहाणि, है तवोकम्माणि आहिया । उग्गनक्खत्तजोएसु, तेसुमनतरं करे ॥२॥" इति, भाव्यते-संसारस्वरूपमनित्यत्वेन , चिन्त्यतेऽनयेति भावना, इत्येवंरूपस्य चतुर्विधधर्मस्यान्तरायभयभीताः, सूत्रे तु बन्धानुलोम्यात् 'सीलतवदाणभावण'त्ति १४ दीप अनुक्रम [९७-९९]] गच्छा . ~64~ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-वृ) “गच्छाचार" - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं ||१००|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-३०-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार" मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: वृत्ती प्रत सूत्रांक ||१००|| गच्छा-13 यत्रोक्तलक्षणा यहयो गीतार्था:-सूत्रार्थज्ञातारो भवन्ति हे गौतम ! स गच्छो भणितः । अत्रानुकम्पादाने जयराजो- सूनावजन लघु दाहरणं, सुपात्रदाने सुबाहुकुमारोदाहरणं, शीलेऽनङ्गलेखोदाहरणं, तपसि स्कन्धककालीदेव्यायुदाहरणं, भावनायां | गा.१० भरतोदाहरणं वाच्यमिति ॥ १०॥ उक्तमुत्तमगणस्वरूपमथाधमाधमगणखरूपमाह॥३१॥ जस्थ य गोयम! पंचण्ह कहवि सूणाण इकमवि हुज्जा । तं गच्छं तिविहेणं वोसिरिज वइज्ज अन्नस्थ ॥१०१॥3॥ | जत्थ०॥ यत्र गणेच हे गौतम ! 'पञ्चाना' परट्टिका १ उहपल (दखल)२ चुल्लक ३ पानीयगृह ४ सारवण ५भलक्षणानां कथमपि 'सूनाना' अनाथाशरणजीववृन्दवधस्थानानां खट्टिकगृहसहशानां मध्ये एकमपि भवेत् तं 'गच्छा अधममुनिसमूह 'त्रिविधेन' मनोवाकायेन कृतकारितानुमत्यात्मकेन 'ब्युत्सृज्य' परि त्यक्त्वा 'व्रजेत् गच्छेत् 'अन्यत्र सरपरम्परागतगण इति । १०१॥ सूणारंभपवसं गच्छं बेसुज्जलं न सेविजा । जं चारित्तगुणेहिं तु उज्जलं तं तु सेविजा ॥१०॥ सूणा०॥ 'सूनारम्भप्रवृत्त' षड्जीवमर्दनपरं खण्डन्याद्यधिकरणकर्तारं वा 'गच्छं' साध्वाभासगणं वेषेण-कल्पक-४ म्बलीचोलपट्टरजोहरणमुखपोतिकादिलक्षणनेपथ्येन साधुद्रव्यलिङ्गेनेत्यर्थः उज्ज्वलं-सागरडण्डीरवत् परमश्वेतं वेषोज्वलं न सेवेत, दुःखलक्षसंसारवर्द्धकत्वात् , कीदृशं सेवेत ? इत्याह-'यं' गणं 'चारित्रगुणैः समितिगुप्यादिगुणैः 'ज्वलं' निरतीचारमालोचितातीचारं वा तुशब्दाद् द्रव्यलिङ्गेन मलिनमपि तं गणं सेवेत, तुशब्दात्तद्गतमुनीनां वैयावृत्त्यादिकमपि कुर्वीत, संसारक्षयहेतुकत्वादिति ॥ १०२॥ दीप ESATASUSISAHAN ASAS अनुक्रम [१००] 444 ~65M Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं ||१०३|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-व], प्रकीर्णकसूत्र-[७] "गच्छाचार" मलं एवं वानर्षिगणि विहिता वत्ति: प्रत सूत्रांक ||१०३|| हा ५ दीप अनुक्रम [१०३] BABAIGARCANCIES जत्थ य मुणिणो कयविक्कयाई कुवंति संजमग्भट्ठा । तं गच्छं गुणसायर ! विसं व दूरं परिहरिजा ॥ १०३॥क्रयूविक्रय जत्थ य०॥ यत्र गणे 'मुनयः' साधुवेषविडम्बकाः प्रवचनोपघातकारकाः आत्मक्लेशकारकाः 'कय'त्ति मूल्येन वस्त्र-हावजेन आ. पात्रौषधशिष्यादिकं स्वीकुर्वन्ति 'विषयाईति मूल्येनान्येषां वखपात्रजपमालादिकमर्पयन्ति, 'जत्थ ये' त्यत्र चकारादम्यैः करंभत्यागाक्रयविक्रयादिकं कारापयन्ति कुर्वन्तमन्यमनुमोदयन्ति च, किंभूताः-संयमात्-पृथिव्यादिसप्तदशविधात् भ्रष्टा-सर्वथा दि गा. १०३-४ यतनातत्परतारहिताः दूरीकृतचारित्रगुणा इत्यर्थः 'ते' पूर्वोक्तस्वरूपं 'गच्छं' गणं गुणानां-ज्ञानादिगुणानां सागरसमुद्रो गुणसागरस्तस्थामन्त्रणं 'हे गुणसागर!' हे शिष्य ! 'विषमिव' हलाहलविषमिव 'दूर' अदर्शनं यथा स्यात्तथा परिहरेत् । अत्र विषं तूपमामात्रं येन विषादिक(ना)मरणं भवति न वा, परं गुणभ्रष्टगच्छसङ्गात् कुमतिग्रस्तगणसनाच्चानन्तानि जन्ममरणानि अनन्ते संसारे भवन्तीति ॥ १०३ ॥ आरंभेसु पसत्ता सिद्धंतपरंमुहा विसयगिद्धा । मुत्तुं मुणिणो गोयम ! वसिज मज्झे सुविहियाणं ॥ १०४॥ ___ आरंभे०॥ बहुवचनात् संरम्भसमारम्भयोरपि ग्रहः तेषु प्रकर्षण-मनोवाकायव्यापारेण सक्ताः-तत्पराः प्रसक्ताः, यद्वा आरम्भेषु-जीवोपमर्दकारिषु परिग्रहादिषु सक्का-मेलनपालनादितत्परास्तान् सिद्धान्तेषु-आचाराङ्गादिश्रुतरतेषु पराहमुखा:-विपरीतवास्तदुक्कानुष्ठानलेशशून्यत्वात् तत्परिज्ञानशून्यत्वाच्च, विषयो द्विधा कामरूपो भोगरूपश्च, तत्र कामा| शब्दरूपलक्षणः भोगो-गन्धरसस्पर्शरूपस्तस्मिन् गृद्धान् मुक्त्वा मुनीन हे गौतम ! 'वसेत्' निवासं कुर्यादिति, मध्ये, केषां :सुप्त-मनोवाकायेन शोभनमनुष्ठानं विहितं-निष्पादितं यैस्ते सुविहितास्तेषां सुविहितानामिति ॥ १०४॥ ~66~ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार" - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं ||१०५|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार" मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: प्रत सूत्राक ||१०५|| दीप श्रीगच्छातम्हा सम्म निहालेउ, गच्छं संमग्गपट्टियं । बसिज्जा पक्ख मासं वा, जावजीवं तु गोयमा!॥१०५॥ सन्मार्गागचारलघुतम्हा स०॥ यस्मात्पूर्वोक्तगणनिवसनमनन्तसंसारभ्रमणकारणं मुक्त्वा तस्मात् 'सम्यक् सर्वप्रकारेण 'निभाल्य' च्छेवासः वृत्ती कुशाग्रीयबुद्ध्या पर्यालोच्य 'गच्छं' मुनिगणं सन्मार्गप्रस्थितं-मोक्षपथं प्रति चलितमित्यर्थः 'वसेत्' गुर्वाज्ञया तिष्ठेत् पक्ष अबाला यावत् मासं यावत् वाशब्दान्मासद्वयादिकं यावत् यावज्जीव वा हे गौतम ! ॥ १०५॥ देवसिरक्षा ॥३२॥ BI खुड्डो बा अहवा सेहो, जत्थ रक्खे उवस्सयं । तरुणो वा जत्थ एंगागी, का मेरा तत्थ भासिमो? ॥१०६॥ गा.१०५हा खुडो वा०॥ यत्र गणे 'क्षुलः' बालरूपः वाशब्दः पूरणे अथवा 'शैक्षः' नवदीक्षितः 'रक्षेत्' सदा प्रतिपालयेत् उपा- ७ श्रयं-साधुवसनस्थानं वा-अथवा 'तरुणो' युवा साधुर्यत्रकाकी उपाश्रयं रक्षेत् , तत्र गणे का मर्यादा-कां जिनगणधराज्ञां 21 लीभाषामहे वयं ?, बहुदोषकारणत्वात् , तथाहि-एगो खुड्डो रमइ रममाणस्त अण्णे धुत्ताइया उवहिं हरंति, बालस्स या भोलविऊण अण्णस्थ गच्छंति, वसहीए वा कयावि डज्झमाणाए खुडो वस्थाईगहणत्थं पविसति तत्थ बलइत्ति सप्पो वा डसइ, नडाइयपेच्छणथं च गच्छि जा एवमाई वाले दोसा १। सेहे तु कयाई सघरं गच्छेज्जा अन्नत्थ वा गच्छेज्जा, 18 अम्मापियरो अण्णो वा सयणो कयाइ मिलिज्जा स हेण रोइजा, भासासमिई वा भंजिज्जा उड्डाहं वा करिज्जा एव-18 २५ माइ सेहे दोसा २ तरुणे पुण कयाई मोहोदएणं हत्यकम्म करिजा अंगादाणं वा किडाए चालिज्जा कयाई एग तरुणं बहुइओ रंडाकुरंडाओ आगच्छंति चउत्थं भंजिज्जा उड्डाहं वा करिजा, मोहोदएण गच्छे मुत्तूण गच्छिज्ज वा, एवमाई| एगागिस्स खुड्डाइयस्त दोसा 'निसीहचुण्णीओ'त्ति ॥ १०६॥ अनुक्रम [१०५] ॥३२॥ ~67~ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३० - वृ) प्रत सूत्रांक ||१०७ || दीप अनुक्रम [१०७] “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः) - मूलं ||१०७ || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [ ३० - वृ] प्रकीर्णकसूत्र [७] “गच्छाचार” मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्तिः जस्थ य एगा खुड्डी एगा तरुणी उ रक्खए वसहिं । गोयम ! तत्थ विहारे का सुडी बंभचेरस्स १ ॥ १०७ ॥ जत्थ य० ॥ यत्र च साध्वीगणे एका क्षुल्लिका एका तरुणी च, तुशब्दान्नवदीक्षिता च रक्षति वसतिं हे गौतम! तत्र 'विहारे' साध्वीचर्यायां 'का शुद्धिः' का निर्मलता 'ब्रह्मचर्यस्य' तुर्यत्रतस्य ?, अपि तु न काऽपीत्यर्थः । ' इत्थवि | दोसा- कयाइ बसहीए एगा खुड्डी किड्डिज्जा कोइ अवहरिज्ज वा बलाउ वा कोइ सेविज्जा इच्चाइ बहुदोसा १ । तरुणीए दोसा मोहोदएण फलादिणा चडत्थं सेविज्जा, एगागिणिं दहूण तरुणा समागच्छति, हासाइयं कुवंति, अंगे वा लग्गंति तभो उड्डाहो भवति, तप्फासाओ वा मोहोदओ भवति, सीलं भंजिज वा, गन्भो वा भवति, जइ गालइ तो महादोसो भवइ, अह वहुई तो पवयणे महाउड्डाहो भवति, अहवा पुबकीलियं समरमाणी वेस्साइयं वा दहूण गच्छं मुचूण एगागी तरुणी साहुणी गच्छिज्जा, एवमाई दोसा भवंति तो उवस्सए एगा तरुणी ण मुत्तवेति ॥ १०७ ॥ जत्थ य उवस्सयाओ वाहिं गच्छे दुहत्थमित्तंपि । एगारतिं समणी का मेरा तत्थ गच्छस्स ? ॥ १०८ ॥ जथ० ॥ यत्र च गणे उपाश्रयाद्व हिरेकाकिनी रात्रौ 'श्रमणी' साध्वी द्विहस्तमात्रामपि भूमिं गच्छेत् तत्र गच्छस्य का मर्यादा ? । “इत्थवि दोसा-कयाई परदारसेवका रयणीए एगागिणि दडूण हरिजा उड्डाहं वा करंति, पच्छन्नं वा रायाई | भ्रममाणो संकिजा का एसा १, चोरावि अवहरति, वत्थाईयं वा गिण्हीत, अहवा कयाई गुरुणीए फरुसं चोयणं संभरमाणी पुबकीलियं वा रयणीए विसेसओ संभरइ तो एगागिणी कत्थवि गच्छिना, इच्चाइ दोसमूलं णाऊण रयणीए एगागिणीए समणीए उवस्सयाओ वाहिं सया न गंतबं" ति ॥ १०८ ॥ ~68~ एकाकिबहिर्गमननि षेधः गा. १०८ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार" - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं ||१०९|| .................----- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार' मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: प्रत वृत्ती सूत्राक ||१०९|| दीप अनुक्रम [१०९] श्रीगच्छा- जत्थ य एगा समणी एगो समणो य जंपए सोम!। नियबंधुणावि सद्धिं तं गच्छं गच्छगुणहीणं ॥१९॥ |श्रमण्या चारलघु- 3. जत्थ य०॥ यत्र चोत्सर्गेणैकाकिनी श्रमणी-मुण्डी एकाकिना निजबन्धुनाऽपि साई जल्पति, यद्वा एकाकी साधु-द आलापबनिजभगिन्याऽपि सार्द्ध जल्पति हे सौम्य !-हे गौतम! तं गच्छं गच्छगुणहीनं जानीहि । यत एकाकिन्या साई जल्प-12 जेन जकामानेन बहुदोषोत्पत्तिर्भवति, कामवृत्तिमलिनत्वादिति । तथा च साध्वीनां जल्पनेन प्रीत्यादयो भवन्ति, उक्तब-"संद रमकारब॥ ३३॥ जनं गा. सणेण पीई १ पीईज रई २ रईउ वीसंभो ३ । वीसंभाओ पणओ ४ पणयावि अ भवइ पडिबंधो ५॥१॥" साध्वीना| १०९-१० संदर्शनेन साधूनां प्रीतिरुत्पद्यते १, प्रीत्या चित्तसमाधानं २, ततो विश्रम्भो-विश्वासः ३, विश्वासात्प्रणया-स्नेहा ४, २० तस्मात्प्रतिबन्धः ५॥१॥"जह जह करेसि नेहं तह तह नेहो अ बहुइ तुमंसि । तेण नडिओमि बलियं जं पुच्छसि | ४ दुबलतरोसि ॥१॥" हे सावि ! यथा यथा त्वं मम स्नेह संपादयसि तथा २ मम त्वयि स्नेहो वर्धते, तेन नेहेन दनटितोऽस्मि यत्त्वं पृच्छसि दुर्बलतरोऽसि ॥२॥ "इय संदसणसंभासणेण संदीविओ मयणवण्ही । बंभाई गुणरयणे डहइ अणिच्छेवि पमयाओ ॥१॥" इति, स्त्रीणां रण्डाकुरण्डादीनां साध्वीनां मुण्डीवेषधारणीनां साधुसंयमनृप-18 |विषकन्यकानां च संदर्शनसंभाषणेन संदीपितो मदनवहिब्रह्मचयांदीन् गुणरलान् प्रमादात् अनिच्छतोऽपि साधो-| दादहतीति ॥ १०९॥ जत्थ जयारमयारं समणी जंपइ गिहस्थपचक्खं । पचक्खं संसारे अजा पक्खिवह अप्पाणं ॥११॥ . जथ०॥ यत्र यकारं जकारं वा मकारं च, तत्र यकारजकारे यथा-दुष्टस्तवयोनिर्येन त्वमुत्पना, याहि शठेन सार्च CHCASSECRENCE ~69~ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं ||११०|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-व], प्रकीर्णकसूत्र-[७] "गच्छाचार" मलं एवं वानर्षिगणि विहिता वत्ति: प्रत सूत्रांक ||११०|| दीप दायोगिनी भव, किं तव लग्नो यक्षः , त्वां याकिनी भक्षयति , तव जननी मृता तव जनको मृतः रे? जोषं कुरु किं गृहस्थभा जन्मान्तरे यक्षणी भविष्यसि ?, मकारं यथा म्रियतां मरिष्यति तव गुरुणी मृतस्तव गुरुः मुखं मा दर्शय दुष्टं मुखं | कृष्णं कुरु तव मुखे विष्ठा पतिष्यति चिन्तां मा कुरु मुखं लात्वा गच्छ इतः, इत्यादिवचनपूर्वक 'श्रमणी' श्रीजिनप्र- गा. १११ दावचनदमनी 'जल्पति' बाढस्वरेण कुत्सितं वक्तीत्यर्थः 'गृहस्थप्रत्यक्षं गृहस्थानां श्रवणं यथा स्यात्तथा प्रत्यक्ष-साक्षात् । भवपरम्पराकोटिसङ्कले 'संसारे' चतुर्गत्यात्मके 'आर्या' साध्व्याभासवेषा वेषविडम्विका 'प्रक्षिपति' पातयतीत्यर्थः 'आत्मानं' स्वयमिति ॥११॥ जस्थ य गिहत्थभासाहि भासए अजिआ सुरुहावि । तं गच्छं गुणसायर ! समणगुणविवज्जियं जाण ॥१११॥ | जत्थ०॥ यत्र गणे च 'गृहस्थभाषाभिः' सावद्यरूपाभिर्भाषते, गृहस्थानां यथा-तव गृहं ज्वलतु तव पुत्रो यमगृहे गच्छतु त्वं तवाम्बाऽपि शाकिन्यौ स्तः, साध्वीनां यथा-तव शवं कर्षयामि तव दन्तपङ्गिं पातयामि तव चरणौ कर्तयामि तव जठरेऽग्निक्षेपं कुरु रे शाकिनि ! रे रण्डे ! इत्यादि भाषते, आर्यिका-अधमा मुण्डी सुरुष्टा-अतिशयेन क्रोधानिना ज्वलिता, अपिशब्दात् स्वभावस्थाऽपि गृहस्थभाषाभिर्भापते-तव गृहं पतितं दृश्यते कथं तत्रोद्यम न कुरुषे -15 तव पुत्री वृद्धाऽस्ति वरगवेषणं कुरु त्वं, त्वया सुष्टु कृतो विवाहः तव पुत्रवधूटी भव्याऽस्ति तव गृहे महिषी दुर्बलाऽस्ति, यौतकं कथं न ददासि ? वध्या आणक कथं न क्रियताम् । इत्यादिरूपामिति, तं गच्छं हे गुणसागर ! श्रमणगु-| णविवर्जितं 'जानीहि' अवगच्छ, अन्यत् किं कथ्यत इति ॥ १११॥ अनुक्रम [११०] ~ 70~ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं ||११२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[३०-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार' मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: प्रत वृत्ती सूत्राक ||११२|| दीप श्रीगच्छा- गणिगोअम! जा उचियं, सेयं वत्धं विवजिउं । सेवए चित्तरूवाणि, न सा अज्जा वियाहिया ॥ ११२॥ धारलघु-भा | गणिगो०॥हे गणिगौतम ! 'या' आर्या उचितं श्वेतं साध्वीयोग्य 'वस्त्रं वसनं 'विवर्य' परित्यज्य सेवते 'चित्ररू-13स्य सीवनापाणि विविधभरतादियुक्तानि वस्त्राणि, यद्वा चित्राणि-आश्चर्यकराणि रूपाणि-गृल्लकहद्विकाकमलादीनि येषां तानिददःसविला |चित्ररूपाणि बहुमूल्यवस्त्राणि साध्व्ययोग्यानि न सा 'आर्या' साध्वी 'व्याहृता' मया, न कथितेत्यर्थः, किन्तु सा जिन-सगत्यावश्च ॥३४॥ प्रवचनोड्डाहकारिणीति ॥ ११२॥ सीयणं तुण्णणं भरणं, गिहत्थाणं तु जा करे । तिल्लउच्चट्टणं वावि, अप्पणो य परस्स य ॥११३॥ सीव० ॥ याऽऽर्या सीवनं खण्डितवस्त्रादेः तुन्ननं जीर्णवस्त्रादेः भरणं कचकटोपिकाकुञ्चिकादीनां भरतभरणं ४ गृहस्थानां तुशब्दानुहस्थगृहद्वारादिरक्षणानि करोति, तथा च या तैलेन उपलक्षणत्वात् घृतदुग्धतरिकादिना 'उद्वर्त्तनं'।8 अझोपाङ्गानां मर्दनं तैलोद्वर्त्तनं अपिशब्दादशाक्षालनविविधमण्डनादिकं करोति सुभद्राऽऽर्यादिवत् 'आत्मनश्च' स्वस्य 'परस्य च गृहस्थबालकादेः सा "पासत्था पासस्थविहारणी उसन्ना उसनविहारणी कुसीला कुसीलविहारणी"त्यादि-11 दोषान्विताऽवगन्तव्येति ॥ ११३ ।। गच्छह सविलासगई सयणीअं तूली सबिब्बोअं। उच्चद्देइ सरीरं सिणाणमाईणि जा कुणइ ॥११४ ॥ । G ॥३४॥ I गच्छइ०॥ 'गच्छइ सविलासगई'त्ति अत्रापि विन्बोकशब्दस्य परामर्शः, या आयों विब्धोकपूर्वकं यथा स्यात्तथा| 'सविलासगतिर्गच्छति' विलाससमन्वितया गत्या राजमार्गादौ पण्याङ्गनावत् परिभ्रमतीत्यर्थः, विब्बोकबिलासयोलेक्षणं अनुक्रम [११२] ACCES २८ ~71~ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः) ------------- मूलं ||११४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[३०-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-७] "गच्छाचार' मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||११४|| यथा-"इष्टानामर्थानां प्राप्तावभिमानगर्वसम्भूतः । स्त्रीणामनादरकृतो बियोको नाम विज्ञेयः॥१॥ स्थानासनगमनानां तो गृहकथावहस्तधूनेत्रकर्मणां चैव । उत्पद्यते विशेषो यः श्लिष्टः स तु विलासः स्यात् ॥२॥" अन्ये त्याहु:-"विलासो नेत्रजो जार्जनं गा. ज्ञेयः" तथा शयनीयं-मञ्चकादिरूपं करोति, किंभूतं ?-डमरुकमणिन्यायेन सकारोऽत्रापि योज्यः 'सतूलीय'ति गुप्तदवर- ११५ कसहितं, पुनः किंभूतं ?-'सबिब्बोक' गल्लोपधानसहितं, उक्तश्च कल्पे-"उभओ बिब्बोयणे उभयतः-शिरोऽन्तपादान्तावाश्रित्य 'विब्बोयणे'त्ति उपधाने गूण्डके यत्रेति, तथा 'उद्वर्त्तयति' पिष्टिकादिना मर्दयतीत्यर्थः 'शरीरं' स्ववपुः, स्वानादीनि आदिशब्दाद्विलेपनमङ्गे कण्ठे पुष्पमालादि हस्ते तालवृन्तादिकं धूपनं वस्त्रादेः दृशोरञ्जनं दन्तकाष्ठमित्यादिकं या करोति सा आर्या नोक्ता श्रीवर्द्धमानस्वामिना, किन्तु वेषविडम्बनी जिनाज्ञाकन्दलीकुठारिका प्रवचनमालिन्यकारिणी 13 अनाचारिणी सम्यक्त्वतरुकरिणी प्रमादसरणिः मुनिमनोभङ्गकारिणी सत्ताधुयोधवारुणीति ॥ ११४॥ | गेहेसु गिहत्थाणं गंतूण कहा कहेइ काहीया । तरुणा अहिवडते अणुजाणे साइ पडिणीया ॥११५॥ * गेहे ॥ गृहेषु गृहस्थानां गत्वा 'कथा' धर्माभासका संसारव्यापारविषयां वा 'कथयति' वचनविलासेन विस्तारयती-II त्यर्थः, 'काहीया'त्ति 'कथिका' कथाकथिकाऽऽर्या । तथा या च तरुणादीन् पुरुषान् 'अहिवडते'त्ति 'अभिमुखमागच्छतः। दिसन्मुखमागच्छमानान् 'अनुजानाति' आगम्यतां भवतामागमनं भव्यं भव्यमस्मदीयस्थानजातं स्थीयता, गमनप्रस्तावे पुनरागमनं विधेयं, परत्वं न चिन्तनीयं, अस्मयोग्यं कार्य ज्ञाप्यमित्यादिकं वचनाडम्बरं करोतीत्यर्थः सा मुण्डी, इकारः पादपूरणे, प्रत्यनीकमिव-प्रतिसैन्यमिव या सा प्रत्यनीका गुरुगच्छसङ्घमवचनस्य प्रतिकूल विधानादिति ॥११५॥ किञ्च दीप अनुक्रम [११४] BARARIACADGAGACANCE ~ 72 ~ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३० - वृ) प्रत सूत्रांक ||११६ || दीप अनुक्रम [११६] श्रीगच्छाचारलघुवृत्ती ।। ३५ ।। “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः) - मूलं ||११६ || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ३० - वृ], प्रकीर्णकसूत्र - [७] “गच्छाचार” मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्तिः ४ बुड्डाणं तरुणाणं रतिं अज्जा कहेइ जा धम्मं । सा गणिणी गुणसायर ! पडिणीया होइ गच्छस्स ॥ ११६ ॥ "बुहा० ॥ 'वृद्धानां जराजीर्णानां पुरुषाणां 'तरुणानां' मन्मथवयः प्राप्तानां उपलक्षणत्वान्मध्यमवयः प्राप्तानां 'रसिं'ति रात्रौ निशायां याssर्या कथयति धर्म सा 'गणिनी' मुख्यसाध्वी हे गुणसागर ! प्रत्यनीका भवति गच्छस्य । यदि च गणिन्याः पुंसां रात्री धर्मकथने गणस्य प्रत्यनीकत्वं जायते तदाऽन्यसाध्वीनां का कथा ?, ननु विशेषतरं भवति प्रत्यनीकत्वमिति ॥ ११६ ॥ जस्थ व समणीणमसंखडाई गच्छंमि नेव जायंति । तं गच्छ गच्छवरं गिहत्यभासाउ नो जत्थ ॥ ११७ ॥ जत्थ य० ॥ यत्र गणे चात् सङ्घाटकेऽपि 'श्रमणीनां' मोक्षमार्गप्रवृत्तसाध्वीनां 'असंस्कृतानि' परस्परं गृहस्थ सार्द्धं वा ५ स्वगणमुनिसार्द्धं स्वसङ्घाटकमुनिवर्गसार्द्धं वा कलहगालिप्रदानावर्णवादादीनि 'नैव जायन्ते' कदाऽपि नैवोत्पद्यन्ते तं 'गच्छे' गणं 'गच्छवरं' गणप्रधानं, तथा च यत्र गणे 'गृहस्थभाषा: ' पूर्वोक्तसावद्यरूपाः, यद्वा मामा आई बाप भाई बाई बेटी" इत्यादिका नोच्यते स गच्छो गच्छवर इति ॥ ११७ ॥ जो जन्तो वा जाओ नालोय दिवसपक्खियं वावी । सच्छंदा समणीओ मयहरियाए न ठायंति ॥ ११८ ॥ जो जत्तो० ॥ यो यावानिति 'जातः' उत्पन्नस्तं तथा 'नालोचयति' न गुरोः कथयति, तथा दैवसिकं पाक्षिकं वा, अपिशब्दाचातुर्मासिकं सांवत्सरिकं चातीचारं नाटोचयति, तथा 'स्वच्छन्दाः स्वेच्छाचारिण्यः श्रमण्यो 'महत्तरि| कायाः' मुख्यसाध्याः आज्ञायां न तिष्ठन्ति स गच्छो मोक्षपदसाधको न, किन्तूदरपूरक एवेति ॥ ११८ ॥ ~73~ रात्रिकथायावर्जनं कलहस्य च आलोचनं चगा. ११६-८ २० २५ ॥ ३५ ॥ २८ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३० - वृ) प्रत सूत्रांक ||११९|| दीप अनुक्रम [११९] “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः) - मूलं ||११९|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ३०-वृ], प्रकीर्णकसूत्र [७] “गच्छाचार” मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्तिः विंटालियाणि पतंजति गिलाण सेहीण णेय ते पंति । अणगाढे आगाढं करंति आगाढि अणगाढं ॥ ११९ ॥ 'विटलिकानि' निमित्तादीनि, यद्वा 'वेण्टलिकानि' यन्त्रमन्त्रादीनि 'प्रयुञ्जन्ति प्ररूपयन्तीत्यर्थः 'ग्लानिकानां' रोगिणीनां 'सेहीण' त्ति नवदीक्षितसाध्वीनां 'नेय तप्पंति'त्ति औषधभेषजवस्त्रपात्रज्ञानाभ्यासादिना चिन्तां न कुर्वन्तीत्यर्थः । तथा आगाढम् अवश्यकर्त्तव्यं सर्पभक्षितविषमूर्च्छितमरणान्तशूलादिपीडितप्रतिजागरणादिकं न आगाढमनागाढं तस्मिन् अनागाढे कार्ये 'आगाढं' अवश्यकर्त्तव्यमितिकृत्वा कुर्वन्तीत्यर्थः तथा 'आगाढे' पूर्ववर्णितस्वरूपे कार्ये अनागाढं कार्यं कुर्वन्ति, गो०, यद्वा 'अणगाढे'त्ति आचाराङ्गादिअनागाढयोगानुष्ठाने 'आगाढं'ति भगवतीप्रमुखमागाढयोगानुष्ठानं कुर्वन्ति, तथा आगाढयोगानुष्ठानेऽनागाढयोगानुष्ठानं कुर्वन्ति च ॥ ११९ ॥ तथा अजयणाए पकुति, पाहुणगाण अवच्छला। चित्तलिआणि अ सेवंति, चित्ता रयहरणे तहा ॥ १२० ॥ अजय० ॥ 'अयतनया' जीवयतनां विनेत्यर्थः 'पकुर्वति'त्ति प्रकर्षेण-मनोवाक्कायेन भिक्षाटनभोजनमण्डल्युद्धरणस्थण्डिलगमनप्रामानुग्राम परिभ्रमणवसतिप्रमा जनप्रतिलेखनाऽऽवश्यकादिकं कुर्वन्ति यद्वा न विद्यते यतना - आचरणेनाथ षट्कायपरिपालना यत्र सा अयतना-केवलद्रव्यलिङ्गधारणा तथा प्रकुर्वन्ति जठरपूरणार्थ रामाद्यावर्जनादिकमिति, तथा 'प्राघूर्णकानां' ग्रामान्तरागतानां मार्गश्रमसंयुक्तानां क्षुत्पिपासापीडितानां साध्वीनां 'अवच्छल 'त्ति निर्दोपभव्यान्नपानादिना बहुमानपूर्वकं भक्तिं न कुर्वन्तीत्यर्थः, तथा 'चित्तलिआणित्ति चित्रितानि - नानाचित्रसंयुक्तानि वस्त्रकम्बलीपात्रदण्डादीनि, यद्वा 'चीतलिकानि' चडकचीतलिकापाची कासारपासकादीनि 'सेवन्ते' स्वयं प्रवर्त्तयन्ती ~74~ वेण्टलकादिवर्जनं अयतनावात्सल्या दिगा. ११९-२० १० १४ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३० - वृ) प्रत सूत्रांक ||१२० || दीप अनुक्रम [१२० ] श्रीगच्छाचारलघुवृत्ती ॥ ३६ ॥ 2969969 “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः) - मूलं ||१२० || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [ ३० - वृ] प्रकीर्णकसूत्र [७] “गच्छाचार” मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्तिः त्यर्थः चशब्दाद्धस्ते मिन्ध्यिका चरणेऽलककुङ्कुमादि कण्ठे हारकादि इत्यादि कामाङ्गानि सेवन्ति, तथा रजोहरणे 'चित्ता' इति चित्राणि वाह्याभ्यन्तरपञ्चवर्णगुहादिकर्षणानि कुर्वन्तीति हे गौतम! ता अनार्या उच्यन्त इति ॥ १२० ॥ गइविग्भमाइएहिं आगारविगार तह पगासंति । जह बुड्ढाणवि मोहो समुईरइ किं तु तरुणाणं १ ॥ १२१ ॥ इ० ॥ याssa ' गतिविभ्रमादिकैः' गमनविलासादिकैः आकारश्च-स्थूलधीगम्यदिगवलोकन मुखनयनादिचेष्टा विकारश्च-स्तनकक्षादिप्रदेशे हस्ताङ्गुल्यादिक्षेपणं आकार विकारं तं ' तथा प्रकाशयन्ति' तथा प्रकटीकुर्वन्ति यथा 'वृद्धानामपि' स्थविराणामपि 'मोहः' वेदोदयः कामानुराग इत्यर्थः 'समुदीरइ'त्ति तरक्षण एवोत्पद्यते, 'तुः' पुनरर्थे किं पुनस्त५ रुणानां साधूनामिति, हे सौम्य ! ताः साध्व्यो न, किन्तु नव्य इति ॥ १२१ ॥ बहुसो उच्छोलिंती मुहनयणे हत्थपायकक्खाओ । गिण्हेइ रागमंडल सोइंदिय तह य कञ्चट्टे ॥ १२२ ॥ "बहु० || 'बहुशः कारणं विना वारंवारं 'उच्छोलिंती'ति क्षालयन्तीत्यर्थः 'मुखनयने' वक्राक्षिणी हस्तपादकक्षाश्च । तथा च याऽर्ध्या 'गिव्हेइ'त्ति परेभ्यो रागज्ञेभ्यो 'गृह्णन्ति' शिक्षन्ते 'रागमण्डलं' श्रीराग १ गऊडी २ मल्हार र केदार ४मालवीगुढङ ५ सिन्धुउ ६ देशाख ७ आसाउरी ८ ( अधरस ७ काल्हेरउ ८ ) भूपाल ९ सामेरी १० मारऊणी ११ | मेवाडड १२ रामगिरी १३ केदारगउडी १४ मधुराग १५ प्रभाती १६ सत्राव १७ वेलाउली १८ वसंत १९ नाट २० धन्यासी २१' इत्यादिकं रागसमूहं 'तहय'त्ति च पुनस्तद्रागमण्डलं गृहीत्वा 'तथा' तेन प्रकारेण करोति यथा 'कब्बट्टे' ति प्राकृतत्वाद्विभक्तिपरिणामः, तरुणपुरुषाणां यद्वा 'कब्बट्टे'ति समयभाषया बालकास्तेषामपि 'सोइंदिय'त्ति श्रोत्रेन्द्रियं ~75~ * * गतिविभ्र मादेव छोलनादेश्ववर्जनं गा. १२१-२ २० २५ ॥ ३६ ॥ -२८ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-वृ) “गच्छाचार" - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं ||१२२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-], प्रकीर्णकसूत्र-[७] "गच्छाचार" मलं एवं वानर्षिगणि विहिता वत्ति: CAX प्रत सूत्रांक ||१२२|| श्रवणेन्द्रियं परमसन्तोषं प्राप्नोति । यद्वा 'गिण्हइ'त्ति गृह्णन्ति करचालनेन तथा वादयन्ति रागमण्डलं चाङ्गप्रमुखं आणि यथा बालतरुणादीनां श्रवणेन्द्रियं तोषं यातीति, यद्वा रागमण्डलं श्रोत्रेन्द्रियेण गृह्णन्ति, तथा च गृहस्थवालकान् क्रीडाथै गृह्णन्तीति । यत्रोत्तरार्धे पाठान्तरं यथा-"गिण्हइ रामणमंडणं भोयंति य तह य कब्बडे"त्ति, अस्यार्थ:-'कब्बडे'त्ति/गा.१२३| गृहस्थबालकान् स्नेहाद् गृह्णन्ति तेषां 'रामणे'ति क्रीडां कारयन्ति 'मण्डन' शरीरभूषणां कुर्वन्ति, तथा तान् भोजय- २४ न्तीति ता आर्याः केन कथ्यन्ते ?, न केनापीति ॥ १२२ ॥ जत्थ य थेरी तरुणी थेरी तरुणी अ अंतरे सुयइ । गोअम! तं गच्छवरं वरनाणचरित्तआहारं ॥ १२३ ॥ | जत्थ य०॥ यत्र च गणे 'स्थविरा' वृद्धा तरुणी च-युवती साध्वी स्थविरा च तरुणी चकारान्मध्यमा तरुणी तरुणीमध्यमा च 'अन्तरे' अन्तराले स्वपिति, अन्यथा तरुणीनां निरन्तरशयने परस्परं जाकरस्तनपादादिस्पर्शने सति ॥ मन्मथचिन्ता पूर्वस्मरणादिकं भवति अतः स्थविरान्तरिताः स्वपन्ति हे गौतम! तं गच्छवरं जानीहि, किंभूतं ?-वरज्ञानचारित्राधारमिति ॥१२३ ॥ धोइंति कंठिआउ पोयंती तय दिति पोत्ताणि । गिहकजचिंतगीओ नहु अब्जा गोअमा ! ताओ ॥ १२४ ॥ | धाइ॥ 'धावति' कारणं विना नीरेण क्षालयतीत्यर्थः 'कण्ठिकाः' गलप्रदेशान् तथा 'पोयंतीति आभरणमुक्ताफलचीडकादीनि 'प्रोतयन्ति' रन्ध्रे सूत्रादिकं. सञ्चारयन्तीत्यर्थः गृहस्थानामिति गम्यते, तथा 'ददति' अर्पयन्ति. 'पोत्ताणि' बालकाणे वस्त्रखण्डानि, चकाराद् दुग्धौषधजटिकादिकमपि ददति, यद्वा शरीरे 'पोतानि' मलस्वेदादिस्फोटनाय. दीप अनुक्रम [१२२] गच्छा .. अथ 'आर्या' अधिकार: वर्णयते ~ 76~ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं ||१२४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[३०-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार' मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: प्रत २६ सूत्रांक ||१२४|| दीप श्रीगच्छा-जलाीकृतवस्त्राणि 'ददति' घर्षयन्तीत्यर्थः, 'गृहकार्यचिन्तिकाः' अगारिगृहव्यापारकरणतत्पराः, नैव ता आर्याः हे आर्याधिगौतम 1, किन्तु कर्मकर्य इत्यर्थः॥ १२४ ॥ कार: खरघोडाइहाणे वयंति ते वावि तत्थ वचंति । वेसत्थी संसग्गी स्वस्सयाओ समीचंमि ॥ १२५॥ । गा.१२५खरघो० ॥ खरघोटकादिस्थाने ब्रजन्ति साध्व्यः, तत्र खरशब्देन दासप्रायः, यदुक्तमोपनियुक्ती-"खरउ व्यक्षरो दासप्रायः व्यक्षरिका दासी"ति, घोटकशब्देन द्यूतकारादिधूर्ताः, यदुक्तं निशीथचूर्णी "घोडेहिं गाहा-घोडा वट्ठा जूयक-दि रादिधुत्ता" इति, आदिशब्दादन्येऽपि तादृशा ग्राह्याः, तथा 'तेऽपि' खरघोटकादयः 'तत्र' आर्यास्थाने ब्रजन्ति, अकालसकाले आगच्छन्तीत्यर्थः, वाशब्दात् परोक्षे ते ताभिः सह ता वा तैः सह दोहकगाथादिमुत्कलनेन परिचयं कुर्वन्तीति, तथा 'उपाश्रयसमीपे' साध्वीवसतिपाचे वेश्या स्त्री तस्याः यद्वा वेश्यो ना तत्सदृशा याः खियस्तासां, यद्वा वेश्यायाः खी दासीलक्षणा तस्याः, यद्वा वेश्या या स्त्री नटपुरुषमेलापकलक्षणा तस्याः, वेश्या खी तत्पुत्रीलक्षणा तस्या वा, अथवा वेषखी-योगिन्यादिवेषधारिका तस्याः, यदिवा वेषस्य-रजोहरणादिद्रव्यलिङ्गस्य अर्थः-उदरपूरण-13|| मुग्धवश्वनादिप्रयोजनं वेषार्थः स च विद्यते यस्यासौ बेपार्थी, सर्वभ्रष्टाचारी साधुरित्यर्थः, आपत्वाद्दीघः, तस्य संसर्गों है। भवति हे गौतम ! साऽऽर्या यक्षरिकोच्यते नत्वार्येति ॥ १२५ ॥ छकायमुकजोगा धम्मकहा विगह पेसण गिहीणं । गिहिनिस्सिज्जं वाहिति संथर्व तह करतीओ ॥ १२६ ॥ छका०॥ 'पद्कायमुक्तयोगाः' को भावः ?-षटकायेषु-पृथिव्यादिषु मुक्तो-दूरीकृतो योगो-यलालक्षणो व्यापारो, अनुक्रम [१२४] २५ ~ 77~ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३० - वृ) प्रत सूत्रांक ||१२६ || दीप अनुक्रम [१२६] “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः) - मूलं ||१२६ || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [ ३० - वृ] प्रकीर्णकसूत्र [७] “गच्छाचार” मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्तिः याभिस्ताः पटूकायमुक्तयोगाः संयत्यो धर्मकथामधर्मकथां वा तथा विकथां परस्परं विधवादिसार्द्धं वा ख्यादिकथां कुर्वन्ति, तथा गृहस्थानां कार्यादौ प्रेषणं कुर्वन्ति 'गृहनिषद्यां वाहयन्ति' गृहस्थानामासनादिकमुपवेशनार्थे, मुखन्तीत्यर्थः, यदिवा गृहिणां निषद्या-चक्कलकगद्दिकादिरूपा तां 'वाहिंती'ति व्यापारयन्तीत्यर्थः, संस्तवो द्विधा गुणसम्बन्धिसंस्तवभेदात्, एकैको द्विधा पूर्वपश्चाद्भावित्वात्, तत्र दानात्पूर्वं पश्चाद्वा गुणान् यत्र स्तौति स गुणसंस्तवः, सम्बन्धिसंस्तवस्तु जननीजनकभ्रातृभगिन्यादिपूर्वकालभावित्वात् पूर्वः श्वश्रूश्वशुरकलत्रपुत्रादिपश्चात्कालभावित्वात्पश्चात्संस्तवः, आत्मपरतारुण्यादिलक्षणं वयो ज्ञात्वा तदनुरूपं यत् श्वेतपव्यः सम्बन्धं कुर्वन्ति स सम्बन्धिसंस्तवस्तं सस्तवं 'करंतीय'त्ति कुर्वन्त्यस्ताः साध्थ्यो न भवन्तीति ॥ १२६ ॥ समा सीसपडिच्छीणं, चोभणासु अणालसा । गणिणी गुणसंपन्ना, पसत्थपरिसाणुगा ॥ १२७ ॥ समा सी० 'समाः' तुल्या भवन्ति रागद्वेषपरिणामाभावात् 'सीस'त्ति स्वशिष्याः - स्वसङ्घाटिका इत्यर्थः प्रतीच्छिकाश्च स्वपरगच्छात् ज्ञानवैयावृत्याद्यर्थमागतास्तासां तासु वेति, 'चोयणासु'त्ति नोदनादिषु पूर्वोक्तशब्दार्थेषु 'अनालस्याः' सर्वथाऽऽलस्यरहिताः, गुणाः - ज्ञानदर्शनचारित्ररूपास्तैः संपन्नाः समन्विताः, प्रशस्ता-क्षमाविनयवैयावृत्त्यादिगुणयुक्तत्वात् परिषत् - परिवाररूपा तयाऽनुगताः -सदासंयुक्ताः, एवंविधो गणः- साध्वीपरिवाररूपो विद्यते यासां ता गणिन्यो| मुख्यसाध्थ्यो भवन्तीति ॥ १२७ ॥ संविग्गा भीयपरिसा य, उग्गदंडा य कारणे । सज्झायझाणजुत्तों य, संगहे अविसारया ॥ १२८ ॥ ~78~ - आर्याधि कारः गा. १२७ २८ १० ५ १४ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३० - वृ) प्रत सूत्रांक ||१२८|| दीप अनुक्रम [१२८] श्रीगच्छाचारलघुवृत्ती ॥ ३८ ॥ “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः) - मूलं ||१२८|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ३० वृ], प्रकीर्णकसूत्र [७] “गच्छाचार” मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्तिः 46716 संवि० || 'संविग्ना' परमसंवेगरसलीना भीता-भयं प्राप्ता परिषत् - परिवारो यासां ताः भीतपरिषदः, यद्वा भीता| स्वरसङ्घाटिकया सह कलहादिकरणेन भयं गता परिषद् यासां तास्तथा, यद्वा भयमिहलोकभयं स्वगुरुगुरुगुरूणां गण| कुलजात्यादीनामपकीर्त्तिलक्षणं परलोकभयं महाव्रतदूपणलक्षणं परिषदि परिवारे यासां तास्तथा, उग्रः तीव्रो दण्डः प्रायश्चित्तादिरूपो यासां ता उग्रदण्डाश्च 'कारणे' अकर्त्तव्ये कृत इति, 'स्वाध्यायध्यानसंयुक्ताः' तत्र स्वाध्यायः| पञ्चधा-वाचना १ प्रच्छना परावर्त्तना ३ ऽनुप्रेक्षा ४ धर्म्मकथा ५ रूपः, ध्यानं च धर्मशुक्ललक्षणं, यद्वा ध्यानं चतुर्धा पिण्डस्थादि, यदुक्तम्- "झाणं चउविहं होइ तत्थ पिंडत्थयं १ पयत्थं च २ । रुवत्थं ३ रूवाइय ४ मेएसिमिमं तु वक्खाणं ॥ १ ॥ देहत्थं गयकम्मं चेदात्तं (जं दंतं) नाणिणं विऊ जत्थ । परम्मिस्सरियं अप्पं पिच्छइ तं होइ पिंडत्थं १ ॥२॥ ||मंतक्खराणि सारीरपडमपत्ते चिंतए जत्थ । जोगी गुरूवएसा पयत्थमिह बुच्चए तं तु । २ ॥ ३ ॥ जं पुण सपाडिहेरं ओसरणत्थं जिणं परमनाणिं । पडिमाइ समारोविय, शायद तं होइ रुवत्थं ३ ॥ ४ ॥ जं परमानंदमयं परमप्पाणं निरंजणं सिद्धं । झाएइ परमगुरुं रुबाईयं तमिह झाणं ४ ॥ ५ ॥” इति । तथा 'सङ्घहे' शिष्यादिसङ्ग्रहणे चकारादुपग्रहे च-निर्दोषवस्त्र पात्रादिसङ्ग्रह 'विशारदाः' कुशलास्ता गणिन्य इति ॥ १२८ ॥ | जत्थुत्तरपडिउत्तरवडिआ अज्जा उ साहुणा सद्धिं । पलवंति सुरुद्वावी गोयम ! किं तेण गच्छेण ? ॥ १२९ ॥ जत्थु॰ ॥ ‘यत्र’ गणे उत्तरं प्रत्युत्तरं वा ददाति, तत्रोत्तरं - एकवारं प्रत्युत्तरं पुनः पुनरिति, कलहेनाशुभरागेण वेति शेषः 'बडिआ'ति मुख्यभिक्षुणी वृद्धा वा जराग्रस्ता वा 'आर्या' अनार्यारूपा, तथा च यत्र मुख्या अन्या वा मुण्ड्यः ~79~ आर्याधि कारः गा. १२९ २० २५ ॥ ३८ ॥ २८ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-वृ) “गच्छाचार" - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं ||१२९|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार" मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१२९|| 'साधुना' मुख्यगुरुणा अन्येन मुनिना वा 'साई' साकं प्रकर्षेण लोकसमक्षमसमक्षं वा यथा वाक्यं लपन्ति वदन्ति, आर्याधिकिंभूताः?-सु-अतिशयेन रुष्टाः-कोपचाण्डालवं प्राप्ताः 'सुरुष्टाः' अत्यन्तकोपगता इत्यर्थः अपिशब्दादल्परुष्टा अपि कारः हे गौतम ! किं तेन' अधमरूपेण 'गच्छेन' मुण्डीवृन्देनेति ॥ १२९ ॥ लगा.१३०जत्थ य गच्छे गोयम ! उप्पण्णे कारणमि अजाओ। गणिणीपिडिठियाओ भासंती मउअसदेण ॥१३०॥ [PI. ३९ II जत्थ य०॥ यत्र च 'गच्छे' गणे हे गौतम ! 'उत्पन्ने' प्रादुर्भूते 'कारणे ज्ञानदर्शनचरणानामन्यतरस्मिन् कार्ये 8 |'आर्या' लघुसाव्यः गणिनी-मुख्यसाध्वी तस्याः पृष्ठिस्थिताः पश्चादागे व्यवस्थिताः 'भाषन्ते' जल्पन्ति, केन ?-'मृदुकशब्देन' अल्पर्जुनिर्विकारवाक्येन स्थविरगीतार्थादिसार्द्धमिति । 'पट्ठिवियाउ'त्ति पाठे तु गणिन्या प्रस्थापिताः-प्रेषिताः सत्यो 'मृदुकशब्देन' विनयपूर्वकवचनकथनेन भाषन्ते स गच्छ इति ॥ १३०॥ माऊए दुहियाए सुहाए अहव भइणिमाईणं । जत्थ न अजा अक्खइ गुसिविभेयं तयं गच्छं ॥११॥ MI माऊए०॥ 'मातुः' जनन्याः 'दुहितुः सुतायाः पुत्रस्य वाऽपत्यं, 'स्नुषायाः' वधूव्याः, अथवा भगिन्यादीनां 'यत्री गणे न 'आर्या' भिक्षुणी 'आख्याति' कथयति 'गुप्तिविभेदं' नाम(मर्म)प्रकार, कोऽर्थः -कारणं विना स्वपरवर्गे वदति 8 ममेयं माता ममेयं दुहितेत्यादि, यदिवा अहमस्यास्या वा माता अहमस्यास्या वा दुहिता अहमस्य वधूटीत्यादि न जल्पति स गच्छ इति, यद्वा मात्रादीनां गुप्तेः-किमपि गोप्यस्य लोकावाच्यरूपस्य नाख्याति साध्वी स गच्छ इति ॥ १३१॥ दसणइयार कुणई चरित्तनासं जणेइ मिच्छत्तं । दुण्हवि वग्गाणज्जा विहारभेयं करेमाणी ॥ १३२॥ दीप अनुक्रम [१२९] 15645C 4%AAAAAC ~80~ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३० - वृ) प्रत सूत्रांक ||१३२ || दीप अनुक्रम [१३२] श्रीगच्छा चारलघु वृत्ती ॥ ३९ ॥ 4444 “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः) - मूलं || १३२ || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [ ३० - वृ] प्रकीर्णकसूत्र [७] “गच्छाचार” मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्तिः दंसण० || 'दर्शनातिचारं' सम्यक्त्वातिचारं करोति 'चारित्रनाशं' चरणविनाशं मिथ्यात्वं च 'जनयति' निष्पादयति द्वयोरपि 'वर्गयोः' साधुसाध्वीलक्षणयोः स्वपरे आर्या 'विहारभेदं' जिनोतमार्गविनाशं 'करेमाणी'ति कुर्वाणा, यद्वा | बिहारो - मासकल्पादिना विचरणं तस्य भेदो-मर्यादोलङ्घनं तं कुर्वाणा, एकत्र वसने साध्वीनां कारणं विना दर्शनचरणादिबहुविनाशहेतुत्वादिति । तथा च बिहारं कुर्वतां यतीनां कदाचिन्नावा १ संघट्ट २ लेप ३ लेपोपरिकं ४ जलं भवेत तत्रेयं यतना, यथा- "दो जोयण बंकेणं थलेण परिहरह बेडियामग्गं । सढजोयण घट्टेणं १, जोयण लेवेण २ उवरि दो गाऊ ३ ॥१॥ सढजोयण वंकेणं थलेण लेवोवरिं च वज्जेइ । अधजोयण लेवेणं१संघट्टेणेगजोयणेणं च २ ॥२॥ एगजोयण थलेणं, संघट्टेणद्धजोयणेण मुणी । लेवं वज्जइ य तहा घट्ट अधजोयण थलेण ॥ ३ ॥ एवं मग्गाभावे नावाईहिंपि कारणे मुणिणो । गच्छंतस्सवि दोसो न कोवि भणिओ जिनिंदेहिं ॥ ४ ॥ एएसि गाहाणं भावत्थो जहा- दोहिं जोयणेहिं गए थलपहेण गम्मइ मा य णावाए, जइ थलपहे. सरीरोबधाई तेणा सीहा वा वाला वा भवंति थलपहे भिक्खं वा ण लब्भइ, वसही वा, तो दिवदुजोयणेणं संघट्टेण गम्मइ मा य णावाए, अह णत्थि संघट्टो सति वा परं दोसजुत्तो तो जोयणेण लेवेण गच्छउ मा य णावाए, अह णत्थि लेवोवि सति वा पुब्वुत्तदोसजुत्तो तो अद्धजोयणेण लेवोवरिणा गच्छउ मा य णावाए, अह तंपि णत्थि सति वा दोसजुयं तदा णावाए गच्छड, एवं दुजोयणहाणीए णावाए पत्तो १ दिवढजोयणेण थलपहेण गच्छउ मा य लेवोवरिणा, थलपहे असति दोसजुत्ते वा तो एगजोयणेण संघट्टेण गच्छउ मा य लेवोवरिणा, ~ 81~ *44* आर्याधि कारः गा. १३० ३२ २० २५ ॥ ३९ ॥ २८ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं ||१३२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-व], प्रकीर्णकसूत्र-[७] "गच्छाचार" मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वत्ति: प्रत सूत्रांक ||१३२|| दीप टू अह तंपि नत्थि दोसजुत्तो वा तो अद्धजोयणेण लेवेणं गच्छउ मा य लेवोवरिणा २, एगजोयणेण धलपहेण गच्छउ आर्याधि* मा य लेवेणं, अह नस्थि दोसजुत्तो वा तो अद्धजोयणेण संघट्टेण गच्छउ मा य लेवेणं ३, अद्धजोयणेण थलपहेणं गच्छउ8 कारः मा य संघट्टेणं ४, एतेसिं परिहासेणं असतीए णावा १ लेवोवरि २ लेव ३ संघद्देहिवि ४ गंतवं जयणाए" इति ॥१३२॥ गा.१३३ 3 १३४ । तंमूलं संसारं जणेइ अज्जावि गोयमा! नूणं । तम्हा धम्मुवएस मुत्तुं अन्नं न भासिज्जा ॥ १३३ ॥ है तंमूलं०॥ तत्-पूर्वोक्तजिनाज्ञाखण्डनमूलं संसारं 'जनयति' अर्जयतीत्यर्थः 'आर्या' साध्वी अपिशब्दान्मुनिरपि हे ५ गौतम ! 'नून' निश्चितं 'तम्हा'इति यस्माजिनाज्ञाखण्डने विरुद्धप्ररूपणेऽनन्तभवभ्रमणं जायते तस्माद्धर्मोपदेशं स्वर्गापवर्गसौख्यप्रदं मुक्त्वा 'अन्यत् आप्तवाक्यविसंवादि 'न भाषेत' न स्वपरसभायां प्ररूपयेदिति ॥ १३३॥ ____ मासे मासे उ जा अजा, एगसित्थेण पारए । कलहे गिहत्थभासाहि, सवं तीह निरत्ययं ॥१३४ ॥ मासे० ॥ 'मासे मासे उत्ति मासक्षपणं २ कृत्वेत्यर्थः, तुशब्दान्मासक्षपणद्विब्यादिकं कृत्वाऽऽऽपि याऽऽर्या 'एकसित्थुना' अद्वितीयेन कूरादिरूक्षरूपेण न तु सित्थुद्वयादिनेत्यर्थः 'पारयेत्' पारणकं करोतीत्यर्थः, एवंविधाऽपि साध्वी यदि ४'कलहे'त्ति "द्वितीयातृतीययोः सप्तमी"ति द्वितीयार्थे सप्तमी 'कलह' राटिं स्वपरवर्गसमक्षं करोति, काभिः-गृहस्थानां-| द अनार्यरूपाणां भाषा-मर्मोद्धाटनालप्रदानशापप्रदानमकारचकारादिगालिप्रदानलक्षणास्ताभिहस्थभाषाभिः 'सर्व' तपः-18 कष्टादिक 'तीइ'त्ति 'तस्याः' नामसाध्व्याः कुरण्डतुल्यायाः 'निरर्थक' सर्वथा निष्फलमित्यर्थः, ननु साध्वी कलहं करोति अनुक्रम [१३२] STORY ~82~ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः) ------------- मूलं ||१३४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-३०-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार" मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: प्रत सूत्राक ||१३४|| दीप अनुक्रम [१३४] श्रीगच्छा-ला साधुः किं न करोति ?, उच्यते-प्रवाहेण स्तोककार्येऽपि रामाः शुनीवकलहं निष्पादयन्ति न तथा साधवोऽत आर्याः प्रकीर्णककचारलघुमोक्का इति ॥ १३४ ॥ अथ कस्मादिदमुद्धरितमिति दर्शयति निर्णयः वृत्तौ । महानिसीहकप्पाओ, ववहाराओ तहेव य । साहुसाहुणिअट्ठाए, गच्छायारं समुद्धियं ॥ १३५ ॥ * ग्रा.१३५ II महा०॥श्रीमहानिशीथात्-प्रवचनपरमतत्त्वकल्पात् कल्पात्-वृहत्कल्पलक्षणात् 'व्यवहारात्' परमनिपुणात् तथैव च ॥४०॥18निशीथादिभ्यः 'साधुसाव्यर्थाय' साधुसाध्वीनां हितार्थायेत्यर्थः 'गच्छाचार' गणाचारप्रतिपादकप्रकीर्णकं सिद्धान्तरूपं 'समुद्धृतं' उत्सर्गापवादनिरूपणेन बद्धमिति ॥ अत्र शिष्यः प्रश्नयति-प्रकीर्णकानामुत्पत्तिः किं गणधरात् गणधरशिष्यात् प्रत्येकबुद्धात् तीर्थकरमुनेर्वा ?, उच्यते-प्रत्येकबुद्धात्तीर्थकरविशिष्ठमुनेर्वा, यदुक्तं नन्दिसूत्रे-"से किं तं अंगबाहिरं, २ दुविहं पण्णतं, तं०-आवस्सयं च १ आवस्सयवइरित्तं च २, से किं तं आवस्सयं १, २ छविहं पन्नत्तं, तंजहा-सामा|इ १ चउबीसत्थओ २ वंदणयं ३ पडिकमणं ४ काउस्सग्गो ५ पञ्चक्खाणं ६, से तं आवस्सयं । से किं तं आवस्सयवइरित्तं , आव० दुविहं प०, तं०-कालियं उक्कालियं च, से किं तं उक्कालियं, उ. अणेगविहं पं०, तं०-दसवेयालियं १ कप्पिआकप्पियं २ चुालकप्पसुयं ३ महाकप्पसुयं ४ उववाइयं ५ रायपसेणियं ६ जीवाभिगमो ७ पनवणा ८ महापण्ण-ITI वणा ९ पमायप्पमायं १० नंदी ११ अणुओगदाराई १२ देविंदत्यओ १३ तंदुलवेयालियं १४ चंदाविज्झयं १५ सूर-II २५ पण्णत्ती १६ पोरिसिमंडलं १७ मंडलपवेसो १८ विजाचरणविणिच्छओ १९ गणिविज्जा २० झाणविभत्ती २१ मरण-18॥४०॥ विभत्ती २२ आयविसोही २३ वीयरागसुयं २४ संलेहणासुयं २५ विहारकप्पो २६ चरणविही २७ आउरपञ्चक्खाणं २८ 48454555 प्रकीर्णक कर्तृ: निर्णय: ~83~ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं ||१३५|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-३०-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार" मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१३|| दीप महापचक्खाणं २९ एवमाइ, से तं उक्कालियं से किं तं कालियं,२ अणेगविहं पन्नतं, तं०-उत्तरज्झयणाई १ दसाउ २|प्रकीर्णकककप्पो ३ ववहारो ४ निसीहं ५ महानिसीह ६ इसिभासियाई ७ जंबुद्दीवपण्णत्ती८ दीवसागरपण्णत्ती९ चंदपण्णत्ती १०8निर्णयः खुड्डिआ विमाणपविभत्ती ११ महलिया विमाणपविभत्ती १२ अंगचूलिआ १३ वंगचूलिआ १४ विवाहचूलिआ १५ गा.१३५अरुणोववाए १६ वरुणोववाए १७ गरुलोववाए १८ धरणोववाए १९ वेसमणोववाए २० वेलंधरोववाए २१ देविं-12 दोववाए २२ उट्ठाणसुए २३ समुट्ठाणसुए २४ नागपरिआवलिआ २५ निरयावलियाउ २६ कपिआओ २७ कप्पवडिं-18| |सियाओ २८ पुष्फिआओ २९ पुष्फयूलिआओ ३० वण्हीदसाओ ३१, एवमाइआई चउरासीई पइन्नगसहस्साई भगवओत * अरहओ उसहसामिस्स आइतित्थयरस्स १ तहा संखिज्जाई पइन्नगसहस्साई मज्झिमगाणं जिणवराणं २ चउद्दसपइण्ण-17 गसहस्साणि भगवओ वद्धमाणसामिस्स ३, अहवा जस्स जत्तिआ सीसा उप्पत्तिआए १ वेणइआए २ कम्मिआए ३8 पारिणामिआए ४ चउबिहाए बुद्धीए उववेआ तस्स तत्तिआई पइण्णगसहस्साई १ पत्तेअबुद्धावि तत्तिआचेव से तंट कालिअं, से तं आवस्सयवइरित्त, से तं अणंगपविट्ठ" अत्र 'एवमाइयाई' इत्याग्रंशस्य वृत्तिः एवमाइयाई' इत्यादि, कियन्ति । नाम नामग्राहमाख्यातुं शक्यन्ते प्रकीर्णकानि? तत एवमादीनि चतुरशीतिप्रकीर्णकसहस्राणि भगवतोऽहंतः श्रीऋषभ-४ दस्वामिनस्तीर्थकृतः१, तथा सोयानि प्रकीर्णकसहस्राणि मध्यमानामजितादीनां जिनवरेन्द्राणां, एतानि च यस्य यावन्ति तस्य तावन्ति प्रथमानुयोगतो वेदितव्यानि २, तथा चतुर्दश प्रकीर्णकसहस्राणि भगवतोऽईतो बर्द्धमानस्वामिनः ३, इयमत्र भावना-इह भगवत ऋषभस्वामिनश्चतुरशीतिसहस्रसज्ञयाः श्रमणा आसीरन्, ततःप्रकीर्णकरूपाणि चाध्ययनानि अनुक्रम [१३५]] ~84~ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं ||१३५|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-३०-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार" मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: A प्रत वृत्ती ल सूत्रांक ||१३५|| दीप श्रीगच्छा-15 कालिकोत्कालिकभेदभिन्नानि सर्वसङ्ख्यया चतुरशीतिसहस्रसङ्ग्यान्यभवन , कथम् ? इति चेदुच्यते, इह यद् भगवदर्हदुप-प्रकीर्णककचारलघु-18 दिष्टश्रुतमनुसृत्य भगवन्तः श्रमणा विरचयन्ति तत्सर्वं प्रकीर्णकमुच्यते, अथवा श्रुतमनुसरन्तो यदात्मनो वचनकौशलेन दातृनिर्णयः धर्मदेशनादिषु ग्रन्थपद्धतिरूपतया भाषन्ते तदपि सर्व प्रकीर्णकं, भगवतश्च ऋषभस्वामिन उत्कृष्टा श्रमणसम्पदासीत् गा.१३५ चतुरशीतिसहस्रप्रमाणा ततो घटन्ते प्रकीर्णकान्यपि भगवतश्चतुरशीतिसहस्रसङ्ग्यानि १। एवं मध्यमतीर्थकृतामपि ॥४१॥ सङ्ख्येयानि प्रकीर्णकसहस्राणि भावनीयानि २ । भगवतस्तु वर्द्धमानस्वामिनश्चतुर्दश श्रमणसहस्राणि तेन प्रकीर्णकान्यपिट भगवतश्चतुर्दश सहस्राणि ३ । अत्र द्वे मते-एके सूरयः प्रज्ञापयन्ति-इदं किल चतुरशीतिसहस्रादिकमृषभादीनां तीर्थकृतां श्रमणपरिमाणं प्रधानसूत्रविरचनसमर्थान् श्रमणानधिकृत्य वेदितव्यं, इतरथा पुनः सामान्यश्रमणाः प्रभूततरा अपि तस्मिन् २ ऋषभादिकाले आसीरन् १ । अपरे पुनरेवं प्रज्ञापयन्ति-ऋषभादितीर्थकृतां जीवतामिदं चतुरशीति-* सहस्रादिकं श्रमणपरिमाणं, प्रवाहतः पुनरेकैकस्मिन् तीर्थे भूयांसः श्रमणा वेदितव्याः, तत्र ये प्रधानसूत्रविरचनशक्तिसमन्विताः सुप्रसिद्धास्तद्गता अतत्कालिका अपि तीर्थे वर्तमानास्तेऽत्राधिकृता द्रष्टव्याः । एतदेव मतान्तरमुपदर्शयन्नाह-'अहवे'त्यादि, अथवेति प्रकारान्तरोपदर्शने यस्य ऋषभादेस्तीर्थकृतो यावन्तः शिष्यास्तीर्थे औत्पत्तिक्या १ वैनविक्या २ कर्मजया ३ परिणामिक्या ४ चतुर्विधया बुझ्या उपेताः-समन्विता आसीरन् तस्य ऋषभादेस्तावन्ति प्रकीर्ण-En४१ कसहस्राणि अभवन् , प्रत्येकबुद्धा अपि तावन्त एव २ । अत्रैके व्याचक्षते-इह एकैकस्य तीर्थकृतस्तीर्थेऽपरिमाणानि । प्रकीर्णकानि भवन्ति, प्रकीर्णककारिणामपरिमाणत्वात्, केवलमिह प्रत्येकबुद्धरचितान्येव प्रकीर्णकानि द्रष्टव्यानि, प्रकीर्ण- २८ अनुक्रम [१३५]] ~85~ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं ||१३५|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार' मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१३|| दीप KAAREECTCACARock कंपरिमाणेन प्रत्येकबुद्धपरिमाणप्रतिपादनात्, स्यादेतत् प्रत्येकबुद्धानां शिष्यभावो विरुध्यते, तदेतदसमीचीन, यतः प्रकीर्णककप्रव्राजकाचार्यमेवाधिकृत्य शिष्यभावो निषिध्यते न तु तीर्थकरोपदिष्टशासनप्रतिपन्नत्वेनापि ततो न कश्चिद्दोषः, तथा तृनिर्णयः च तेषां ग्रन्थ:-"इह तित्थे अपरिमाणा पइन्नगा पइण्णगसामिअपरिमाणतणओ, किंतु इह सुत्ते पत्तेयबुद्धपणीयं गा.१३६पइण्णगं भाणियब, कम्हा?, जम्हा पइण्णगपरिमाणेण चेव पत्तेयबुद्धपरिमाणं कीरइ, भणियं-पत्तेयबुद्धावि तत्तिया चेव"त्ति, चोयग आह-नणु पत्तेयबुद्धा सिस्सभावो य विरुज्झए ?, आयरिओ आह-तित्थगरपणीयसासणपडिवन्नतणओ तस्स सीसा हवंती"ति । अन्ये पुनरेवमाहुः-सामान्येन प्रकीर्णकैस्तुल्यत्वात् प्रत्येकबुद्धानामत्राभिधानं नतु |नियोगतः प्रत्येकबुद्धरचितान्येव प्रकीर्णकानीति, 'सेत'मित्यादि, तदेतत्कालिक, तदेतदावश्यकव्यतिरिकं, तदेतदनङ्गप्रविष्टमिति १३५॥ पदंतु साहुणो एयं, असज्झायं विवजिउं । उत्तमं सुयनिस्संदं, गच्छायारं सुउत्तम ॥१३६॥ पदंतु० ॥ 'पठन्तु' व्यक्तवाचा सूत्रतोऽर्थतश्च कण्ठगतं कुर्वन्तु 'साधवः' मोक्षसाधनतत्परमुनयः, उपलक्षणत्वात् । | सान्योऽपि, ननु यदुक्तं साधुसाव्य एवं पठन्ति किं श्राद्धादयो न सिद्धान्तं पठन्ति ?, उच्यते, न पठन्त्येव, यदुक्तंद श्रीनिशीथसूत्रस्यैकोनविंशतिकोद्देशकमान्ते"जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा अण्णउत्थियं वा गारस्थियं वा बाएइ वाएंतं वा साइजई" अस्य चूर्णिः-गिही अण्णतित्थिया वा ण वाएयवा, इत्थ दसमउद्देसाओ अत्थो जहा-अण्णउत्थियं वा 31 गारस्थियं वा वायति अण्णतिथिगा अण्णतिथिणीओ अहवा गिहत्था गिहत्थीओत्ति, भवे कारणं वाएजावि, 'पवज्जाए' १४ अनुक्रम [१३५]] ~86~ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं ||१३६|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-३०-व], प्रकीर्णकसूत्र-[७] "गच्छाचार" मलं एवं वानर्षिगणि विहिता वत्ति: प्रत सूत्राक ||१३६|| श्रीगच्छा-गाहा, गिहि अण्णपासंडिया पवजाभिमुहं सावर्ग वा छजीवणियंति जाव सुत्तत्थो अत्थओ जाव पिंडेसणा, एस गिहत्था-प्रकीर्णककचारलघु-टू इसु अववाओ"त्ति । तथा 'एय'ति एनं गच्छाचारं पूर्वोक्तशब्दार्थ, किं विधाय ?-'अस्वाध्यायं' अपठनप्रस्तावं स्थानाङ्गोकं निर्णयः वृत्ती है 'वर्जयित्वा' परित्यज्य, स्थानाङ्गोक्ता अस्वाध्याया यथा-"दसविहे अंतलिक्खिए असज्झाइए पण्णत्ते, तंजहा-उक्कावाए । दिसिदाहे २ गजिए ३ विज्जुए ४ निग्याए ५ जूवए ६ जक्खालित्तए ७ धूमिय ८ महिया ९ रयउग्घाए १०" इदं सूत्रम् , हि अस्य वृत्तिः-'अंत' आकाशभवं 'अस.' अवाचनादि दिग्विभागे महानगरप्रदीपनकमिव य उद्द्योतो भूमावप्रतिष्ठितो टू गगनतलवती स दिग्दाहः २, 'निर्घातः' साभ्रे निरभ्र वा गगने व्यन्तरकृतो महागर्जितध्वनिः ५, सन्ध्याप्रभा चन्द्रप्रभा | |च यत्र युगपद् भवतस्तत् जूयगोत्ति भणितं, सन्ध्याप्रभाचन्द्रप्रभयोर्मिश्रत्वमिति भावः, तत्र चन्द्रप्रभावृता सन्ध्याऽपग-15 च्छितीति । श्रुतस्य-महानिशीथकल्पादेः सिद्धान्तस्य निःस्यन्द-सारभूतं विन्दुभूतं वा सुष्टु-अतिशयेन उत्तम 'सूत्तम', प्रधानतमं तदुक्तक्रियाकरणेन मोक्षगमनहेतत्वादिति ॥ १६ ॥ किश्च8] गच्छायारं सुणित्ताणं, पढित्ता भिक्खु भिक्खुणी । कुणंतु जं जहाभणियं इच्छंता हियमप्पणो ॥१३७ ॥ द। गच्छा०॥ एनं 'गच्छाचार' सत्साधुगणमर्यादारूपं 'श्रुत्वा' सद्गुरुभ्योऽर्थमाकर्ण्य 'पठित्वा' मोक्षमार्गसाधकसाधुपार्थे योगोद्वहनविधिना सूत्रं गृहीत्वा 'साधवः' मुमुक्षवः 'भिक्षुण्यः' अतिन्यश्च 'कुर्वन्तु' निष्पादयन्तु यद् यथाऽत्र भणितं तत्तथेति 'इच्छन्तः' वाञ्छां कुर्वन्तः 'हित' पथ्यं, कस्य ?, आत्मनः॥ १३७ ॥ इति गच्छाचारप्रकीर्णकसूत्रम् ॥ दीप अनुक्रम [१३६] AASEX २७ ~87~ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०-व) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं ||१३७|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-३०-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार" मूलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१३७|| • इतिश्रीविजयदानसूरिविजयमानराज्ये भब्यसुमनःसुमनस्सुपतीनां दुष्टदुःखाकुलदुर्जटस्थिरजिह्वव्याप्तनिर्दयदुर्बोधतानान्धकुगुरुवचनोपदेशाग्निधूघश्याममुखोत्सूत्रवारुण्यपवित्रास्यकुमतिकुवासनावेलाभयङ्करकलहपङ्कबहुलकुराजग दुश्चारकुसाधुमहाडम्भागाधमदमहत्तुङ्गपर्वतसङ्कीर्णशारीरमानसदुःखमयदुष्पमाकालकलिलसागरनिमजजन्तुपोतायमानानां श्रीतपगणमुनिनक्षत्रगणितानन्तानन्तकुमतिकुमतिकुवृष्ट्याीकृतमुग्धध्यनन्ताशोषयत्तपस्तेजोजगदुद्द्योतयत्सुगुणसङ्घकमलोजृम्भयदज्ञानतमःकर्षयत्प्रत्यूषाण्डानां पावनीकृतात्मनां श्रीआनन्दविमलसूरीश्वराणां शिष्याणुशिष्येण वानराख्येन पण्डितश्रीहर्षकुलावाप्तगच्छाचाररहस्येन गच्छाचारप्रकीर्णकटीकेयं समर्थिता, आगमज्ञैः संशोध्येति, मम मूर्खशिरोमणेः कोऽपि दोषो न कर्षणीयः, अत्र मया यज्जिनाज्ञाविरुद्धं लिखितं व्याख्यातं च तन्मम त्रिविधंत्रिविधेन मिथ्यादुष्कृतं |भवतु॥ ॥ इति श्रीगच्छाचारप्रकीर्णकटीका समाप्ता । COCCASS दीप अनुक्रम [१३७] A A श्रीमदानन्दविमलाचार्यान्तिषत्श्रीमद्वानरर्षिगणिविहितवृत्तियुतं गच्छाचारप्रकीर्णकं समाप्तम् । गच्छा .८ SARActe ~88~ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) --- मूलं ||--||-- (३०-वृ) प्रत सूत्रांक ||-|| XCXKXKXKXKXKXKXXXXKXCXKXKNAXKXXXXL इति श्रीमद् गच्छाचारप्रकीर्णकं समाप्तम् । दीप AGRIC अनुक्रम C मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादित: (आगमसूत्र ३०-वृ) __“गच्छाचार" परिसमाप्त: । ~89~ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः | 300 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्चा “गच्छाचार-प्रकीर्णकसूत्रम्" (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: “गच्छाचार" मूलं एवं वृत्तिः” नामेण परिसमाप्त: Remember it's a Net Publications of 'jain_e_library's' ~90~